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Saturday, 2 July 2022

रामनगर से नैनीताल की यात्रा वाकई में शानदार रही!

जिम कार्बेट नेशनल पार्क के एक रिजॉर्ट में हमें दो दिन हो चुके थे। अब हमें आगे एक नई यात्रा पर निकलना था। हम सुबह-सुबह उठकर जल्दी तैयार हुए और नाश्ता किया। रिजार्ट की एक गाड़ी हमें भकराकोट बस स्टैंड पर ले गई। पहाड़ों में बस का इंतजार करना भी एक अनुभव है। कुछ देर बाद बस आई और हम अब एक नई जगह की यात्रा के लिए निकल पड़े।

थोड़ी देर बाद हम नेटवर्क जोन में आ गए। मोबाइल में नेटवर्क आते ही मैसेज और नोटिफिकेशन की झड़ी लग गई। कुछ देर हम मोबाइल में ही घुसे रहे। इस बस से हम रामनगर जा रहे थे। जहां से हमें दूसरी बस पकड़नी थी। उस बस को पकड़ने से पहले मुझे रामनगर में ही अपने एक दोस्त से मिलना था। हम उसे बस में ही फोन कर चुके थे। थोड़ी देर बाद हम रामनगर के बस स्टैंड पर थे। यहीं से हमारी यात्रा शुरू होनी थी।

इंतजार

26 अप्रैल 2022 ही वो तारीख थी जिस दिन हम बस स्टैंड के सामने एक रेस्टोरेंट में बैठे हुए थे और अपनी दोस्त का इंतजार कर रहे थे। काफी इंतजार के बाद कविता अस्वाल के दर्शन हुए। कविता और मैंने हरिद्वार के देव संस्कृति विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन साथ में की है। कविता उत्तराखंड की ही रहने वाली है। उसे रामनगर के बारे में पता है तो हमें एक रेस्टोरेंट में ले गई। जहां हमने खूब सारा खाया और गपशप भी काफी की।



थोड़ी देर बाद हम सब बस स्टैंड पर आए। कविता को बाय-बाय किया और नैनीताल जाने वाली बस में धमक गए। नैनीताल जाने वाली बस में काफी भीड़ थी। मुझे सबसे पीछे वाली सीट पर बैठने की जगह मिली। रामनगर से नैनीताल 105 किमी. की दूरी पर है। अब तक हम मैदानी इलाके में थे लेकिन अब हम पहाड़ी इलाके में जाने वाले थे। बस अपनी रफ्तार से बढ़ती जा रही थी। हरे भरे जंगलों और लोगों को पीछे छोड़ती जा रही थी।

खूबसूरत पहाड़

लगभग 1 घंटे बाद कालाढूंगी नाम की जगह पर बस रूकी। यहां बस आधे घंटे तक रुकी रही। यहां बस इतनी ज्यादा भर गई थी कि लग रहा था हम गलती से यूपी रोडवेज की बस में बैठ गए हों। आधे घंटे बाद बस चल पड़ी। कुछ देर बाद बस मैदानी इलाकों को छोड़कर पहाड़ों में घुस गई। अब रास्ता घुमावदार हो गया था और नजारे खूबसूरत हो चले थे। मसूरी जैसे ही रास्ते पर बस बढ़ी जा रही थी।

रास्ता वाकई में खूबसूरत था। चारों तरफ सिर्फ हरियाली ही हरियाली थी। घुमावदार रास्ते की वजह से बस की स्पीड कम हो चुकी थी। हम आराम-आराम से बढ़े जा रहे थे। जब रास्ते इतने खूबसूरत हों तो लंबी यात्राएं भी अखरती नहीं हैं। हम काफी ऊंचाई पर आ चुके थे। मौसम में ठंडक महसूस हो रही थी। जब रास्ते में कई सारे होटल और रिजार्ट दिखने लगे तो हम समझ गए कि हमारी मंजिल आने वाली है। कुछ देर बाद हम नैनीताल के बस स्टैंड पर थे।

मल्लीताल में ठिकाना

मैं पहली बार नैनीताल आया था। नैनीताल तक रास्ता तो खूबसूरत था अब इस शहर को देखना था। सबसे पहले हमें एक कमरा देखना था जो बहुत महंगा न हो। नैनीताल में ऐसे ही घूमते हुए हम मल्लीताल पहुंच गए। जहां हमें सस्ता-सा कमरा मिल गया। कमरा में पंखा नहीं था। होटल वाले ने कहा, यहां आपको पंखे की जरूरत नहीं पड़ेगी। 4 घंटे की लंबी यात्रा के बाद थोड़ी थकावट। शरीर आराम मांग रहा था।

शाम में हम खाना खाने और नैनीताल को देखने के लिए निकल पड़े। हम जिस जगह ठहरे थे वहां से झील काफी दूर थी। हमने सबसे पहले एक जगह पर खाना खाया और फिर पैदल-पैदल नैनीताल की सड़कों पर चल पड़े। हम ढलान पर उतरते जा रहे थे। कुछ देर बाद नैनीताल का बाजार शुरू हो गया। सड़कों पर लोगों और गाड़ियों की काफी भीड़ थी। काफी चलने के बाद हम झील के पास पहुंचे।

रात में नैनीताल

नैनी लेक के पास हमें सर्दी थोड़ी ज्यादा लग रही थी। मौसम तो ठंडा था लेकिन वातावारण पूरा गर्म था। झील के पास बहुत भीड़ थी। लेक के पास पूरा मेला लगा हुआ था। यहां आपको हर चीच मिल जाएगी। हमें कुछ खरीदना तो नहीं था इसलिए हम भटक रहे थे। काफी देर तक टहलने के बाद लेक किनारे एक जगह पर बैठ गए। पास में भी भुट्टे वाले का ठेला लगा हुआ था।

अंधेरा हो चुका था और झील अब शांत लग रही थी। झील बिना बोटिंग के ही अच्छी लगती है। झील के ऊपर पहाड़ों पर छोटे-छोटे बल्ब तारों की तरह चमक रहे थे। ऐसा लग रहा था कि नैनीताल के पहाड़ों पर आसमान के तारे टिमटिमा रहे थे। हर पहाड़ी शहर और कस्बे में आपको रात में ऐसा ही नजारा देखने को मिलेगा। कुछ देर हम यहीं बैठे रहे और फिर मल्लीताल की ओर चल पड़े।

जब हम अपने कमरे से लेक तक आए थे तो ढलान की वजह से कठिनाई नहीं हुई थी। अब चढ़ाई में हालत खराब हो रही थी। काफी मशक्कत के बाद हम अपने कमरे पर पहुंचे। थकान की वजह से हम फिर से बिस्तर पर थे। अभी तो हम नैनीताल आए थे, इसे देखना और समझना दोनों बाकी था।

Saturday, 2 April 2022

देवप्रयाग: सुंदरता का पर्याय है नदी किनारे बसा ये पहाड़ी शहर

यात्रा का पिछला भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

जब आपका अपना शहर आपको जकड़ने लगे और जिंदगी सुईयों पर चलने लगे तो तब आपको घूमने निकल जाना चाहिए। मैं अपने शहर को जकड़ने का वक्त ही नहीं देता हूं और एक नई जगह पर निकल जाता हूं। हर घूमने वाले की अपनी कहानी होती है। उस कहानी में कुछ शहर प्लानिंग का हिस्सा होते हैं और कुछ जगहें बस हिस्सा बन जाती है। मैं अपनी घुमक्कड़ी की कहानी में देवप्रयाग को लेनी की बड़ी तमन्ना थी। तुंगनाथ की यात्रा के बाद से मैं इस शहर को अच्छे से जानना चाहता था।

26 फरवरी 2022 को सुबह 6 बजे हम अपने सामान के साथ होटल के बाहर खड़े थे। होटल वाले ने बताया कि देवप्रयाग के लिए बस यहीं से निकलेगी। ऋषिकेश सुबह-सुबह शांत और खूबसूरत लग रहा था। चाय की एक दुकान भी खुली हुई थी, जहां कुछ लोग चाय पी रहे थे। कुछ ही मिनटों में देवप्रयाग वाली बस आ गई और हम देवप्रयाग के सफर पर निकल पड़े। बस अपनी रफ्तार से बड़ी जा रही थी। जैसे-जैसे हम बढ़ रहे थे, खूबसूरत नजारे देखने को मिल रहे थे।

खूबसूरत सफर

बस में ज्यादा लोग नहीं थे। कुछ देर बाद हरे-भरे पहाड़ों पर धूप दिखने लगी थी। मैं इस रास्ते से पहले भी गया हूं लेकिन अब रोड काफी चौड़ी कर दी गई थीं। खिड़की खोलने पर ठंडी हवा का झोंका आ रहा था। कुछ देर बाद हमें नीचे घाटी में गंगा नदी दिखने लगी। हरे-भरे पहाड़ों के बीच नदी भी हरी दिखाई दे रही थी। पहाड़ का सफर खूबसूरत होता है। हर एक मोड़ के बाद नजारे कुछ अलग दिखाई देते हैं।

आगे बढ़े तो पहाड़ों के ऊपर तैरते हुए बादल दिखाई दे रहे थे। मुझे पहाड़ों में तैरते हुए बादलों को देखना अच्छा लगता है। धूप तेज हो गई थी लेकिन खिड़की खोलने पर सर्द हवा में कमी नहीं आई थी। आधे सफर के बाद गाड़ी एक ढाबे पर रूकी। हमने यहां कुछ खाया तो नहीं लेकिन टॉयलेट जरूर गये। कुछ देर बाद बस फिर से देवप्रयाग के रास्ते पर चल पड़ी।

देवप्रयाग

जैसे-जैसे देवप्रयाग पास आता जा रहा था, नदी की धार भी तेज दिखने लगी थी। कुछ देर बाद देवप्रयाग दिखने लगा था। हमने ऊपर से संगम भी दिखा। हमें लगा कि ड्राइवर बस को खुद से देवप्रयाग में रोकेगा लेकिन ऐसा हुआ नहीं। बस देवप्रयाग से आगे निकल आई। मैंने आगे जाकर बस रूकवाई और नीचे उतरे। हमें देवप्रयाग से 1 किमी. आगे आ चुके थे।

अपना बैग पीठ पर उठाया और पैदल चल पड़े देवप्रयाग की तरफ। कुछ देर बाद हम देवप्रयाग की रोड पर थे। अब हमें एक ठिकाना चाहिए था जहां हम सामान रख सकें और आज रूक भी सकें। बात करने पर पता चला कि देवप्रयाग के अंदर एक गेस्ट हाउस है। हमने नीचे का रास्ता ले लिया। रास्ते में छोटी-छोटी कई दुकानें थीं जिसमें जरूरत का सामान मिल जाएगा।

पुल के उस तरफ

कुछ ही दूर चलने पर हमें एक पुल मिला लेकिन गेस्ट हाउस पुल के इसी तरफ था। गेस्ट हाउस के लिए हमें कई सारी सीढ़ियां चढ़नी थीं। हम कुछ सीढ़ियां चढ़ते और गंगा के खूबसूरत नजारे को देखने लगते। नदी की आवाज बहुत तेज थी। कुछ देर बाद हमें एक गेस्ट हाउस दिखाई दिया। हमें उसी गेस्ट हाउस में एक सस्ता-सा कमरा मिल गया। हमने वहां सामान रखा और देवप्रयाग शहर को देखने के लिए निकल पड़े।

हम सबसे पहले मुख्य सड़क पर गये और नाश्ते में परांठे खाए। इसके बाद हम फिर से पुल के इस तरफ खड़े थे और इस बार हमें पुल को पार भी करना था। असली देवप्रयाग पुल के इस पार ही था। ऋषिकेश के राम झूला और लक्ष्मण झूला की तरह बने इस पुल पर लोगों की भीड़ नहीं थी। स्थानीय लोग पुल को पार कर रहे थे और हम भी। इन छोटे शहरों को देखना अपने आप में खास होता है। पुल पार करने के बाद हम देवप्रयाग की गलियों में थे। लोग रोजाना की जिंदगी में लगे हुए थे और हम शहर को देखने में लगे हुए थे।

संगम

आगे बढ़ने पर संगम का बोर्ड दिखाई दिया। हम नीचे की तरफ चल पड़े। यहां से अलकनंदा को बहते हुए देखना किसी सपने के पूरे होने से कम नहीं था। नदी की तेज आवाज और चारों तरफ पहाड़ इस जगह को शानदार बना रहे थे। इसके बाद हम उस जगह पर गए, जिसके लिए देवप्रयाग पूरी दुनिया में लोकप्रिय है। अलकनंदा और भागीरथी का संगम।

देवप्रयाग में अलकनंदा और भागीरथी का संगम होता है। दोनों नदियों में अंतर साफ-साफ समझ में आता है। दोनों नदियों के संगम से गंगा नदी बनती है जो आगे ऋषिकेश और हरिद्वार जाती है। संगम घाट पर दो गुफायें भी हैं। नदी में पैर डाला तो ठंडे पानी ने शरीर से जान ही निकाल दी। मुझे नदी में पैर डालने में दिक्कत हो रही थी और लोग रस्सी पकड़ कर डुबकी पर डुबकी लगाये जा रहे थे।

रघुनाथ मंदिर

रघुनाथ मंदिर।
हम वापस जाने लगे तो एक बाबा मिल गये और खुद से ही इस जगह की कहानी बताने लगे। बाद में उन्होंने पैसे मांगे और मैंने खुद को स्टूडेंट बताया तो उन्होंने नहीं लिये। उन्होंने ही रघुनाथ मंदिर जाने को कहा। हम फिर से देवप्रयाग की गलियों में थे। पूछते-पूछते हम उस जगह पर पहुंच गये, जहां से हमें 100 से ज्यादा सीढ़ियां चढ़नी थी। कुछ देर बाद हम मंदिर के अंदर थे।

रघुनाथ मंदिर में भगवान राम की पूजा होती है। हजारों साल पुराने इस  मंदिर में काफी शांति थी। संगम को छोड़ दिया जाए तो देवप्रयाग में घूमने वाले कम ही लोग मिले। मंदिर में कई सारे बंदर दिखाई दे रहे थे और मंदिर के बाहर कुछ बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे। हमने मंदिर के दर्शन किये और कुछ मिनट वहीं बैठ गये। इसके बाद हम देवप्रयाग को देखने के लिए आगे बढ़ गये।

देवप्रयाग की गलियों में

इसके बाद हम देवप्रयाग शहर को देखने के लिए एक बार फिर से गलियों में चल रहे थे। हमें एक मिठाई की दुकान दिखाई जिसमें बाल मिठाई रखी हुई थी। कॉलेज के दिनों में मुकेश सर अल्मोड़ा से हमारे लिए बाल मिठाई जरूर लाते थे। तब से हमें बाल मिठाई खास पसंद थी। देवप्रयाग में हमने बाल मिठाई ले ली लेकिन वो वाला स्वाद नहीं मिला।

रास्ते में हमें फिर से एक और पुल मिला। मुझे शहर में एक घंटा घर दिखाई दे रहा था लेकिन मेरी दोस्त वहां जाने से मना कर रही थी। मैं उसे वहां जबरदस्ती ले गया। वहां गये तो पता चला कि जेसीबी ने किसी वजह से रास्ता तोड़ दिया। हम वहीं नदी किनारे बैठे रहे। दोस्त ने यहां से वापस लौटने को कहा लेकिन मैंने आगे चलने को कहा। काफी बहस के बाद हम मेरे कहे रास्ते पर बढ़ गये।

कुछ देर बाद हम मुख्य सड़क पर आ गये थे और शहर से कुछ किलोमीटर दूर भी। इस वजह से दोस्त के चेहरे पर गुस्सा साफ दिख रहा था। कड़ी धूप में आधा घंटा चलने के बाद हम देवप्रयाग पहुंचे। यहां से संगम का नजारा और भी खूबसूरत लग रहा था। पूरा देवप्रयाग शहर घूमने के बाद हमने खाना खाया और फिर कमरे पर लौट आये। शाम को मैं अपने वर्क फ्रॉम होम में लग गया और रात तक यही क्रम चलता रहा।

रात में देवप्रयाग।
रात में जब मैं सोने जा रहा था तो बाहर आकर देखा कि देवप्रयाग रात में भी चमक रहा था। कमरे तक नदी की आवाज साफ-साफ सुनाई दे रही थी। ये आवाज किसी संगीत से कम नहीं थी। देवप्रयाग शहर की यात्रा काफी शानदार रही थी। इस जगह को देखने के बाद मैं ऐसे ही पहाड़ी शहरों में बार-बार चाना चाहता हूं। अगली सुबह हमें फिर से एक नये सफर पर निकलना था।

Friday, 25 March 2022

ऋषिकेश: इस शहर में बार-बार आना, मेरी यात्रा में लगा देता है चार चांद

यात्रा में कुछ जगहें ऐसी होती हैं जहां कितनी ही बार जाओ अच्छा लगता है। वहां की गलियां, दुकानें और जगहें सब कुछ आपको पता होता है लेकिन फिर भी वहां जाकर अच्छा लगता है। ऋषिकेश मेरे लिए ऐसी ही एक जगह है। मैं ऋषिकेश इतनी बार जा चुका हूं कि कितनी बार गया हूं, ये मुझे खुद पता नहीं है। मैं 3 साल से उत्तराखंड नहीं गया था जिसका मुझे बुरा लगता है। कोरोना और फिर दूसरी वजहों से ऋषिकेश जाना हो ही नहीं पा रहा था। आखिरकार उत्तराखंड जाना तय हो गया और सबसे पहले पहुंचना था, ऋषिकेश।

25 फरवरी 20222। यही वो तारीख थी जिस दिन मैं अपने एक दोस्त के साथ रात 9 बजे प्रयागराज जंक्शन से दिल्ली जाने वाली ट्रेन में बैठ गया। खाना ट्रेन में चढ़ने से पहले ही खा लिया था इसलिए अब ट्रेन में अपनी सीट पकड़कर नींद की आगोश में जाना था। काफी देर तक मोबाइल चलाने के बाद नींद आ ही गई। सुबह जब नींद खुली तो ट्रेन फरीदाबाद पार कर चुकी थी। कुछ देर बाद हम नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर थे।

दिल्ली

दिल्ली में हल्की-हल्की बारिश हो रही थी। हमें यहां से आईएसबीटी जाना था। मेट्रो स्टेशन के बाहर इतनी लंबी लाइन थी कि दिमाग ही चकरा गया। रेलवे स्टेशन से बाहर निकलकर आईएसबीटी जाने वाले ई-रिक्शा पर बैठ गये। सुबह-सुबह दिल्ली में उतनी भीड़ नहीं होती। खाली सड़कों से गुजरते हुए कुछ देर में हम आईएसबीटी पहुंच गये। आईएसबीटी के बाहर काफी संख्या में महिलाएं नारे लगा रहीं थीं। वो आने-जाने वाले लोगों को पर्चा दे रहीं थी। उसी पर्चे से पता चला कि आंगनवाड़ी कार्यकर्ता वेतन वृद्धि की मांग के लिए हड़ताल पर बैठी हैं।

कुछ देर में हम ऋषिकेश जाने वाली रोडवेज बस में बैठे थे। मैं दिल्ली से उत्तराखंड ज्यादातर बस से ही गया हूं। कुछ देर बाद बस चल पड़ी। काफी देर तक हम दिल्ली में ही रहे और फिर उत्तर प्रदेश में प्रवेश कर गये। दिल्ली से पास होने की वजह से गाजियाबाद से लेकर कुछ शहर दिल्ली जैसे ही दिखाई देते हैं। बारिश अभी भी हल्की-हल्की हो रही थी। एक जगह जाकर बस रूक गई। आगे लंबा जाम लगा था। मैं नीचे उतरकर काफी आगे गया तो देखा कि ब्रिज का कुछ काम हो रहा है। कुछ देर बाद गाड़ियां आगे बढ़ने लगीं और मैं वापस बस में बैठ गया।

कब आएगी मंजिल?

रुड़की।
दिल्ली से उत्तराखंड बस जाये और किसी हाईवे वाले ढाबे पर न रूके, ऐसा तो हो ही नहीं सकता। हमारी बस भी ढाबे पर रूकी। इन ढाबों पर सारा सामान बहुत महंगा रहता है। कुछ देर बाद बस फिर से चल पड़ी। कुछ देर बाद रूड़की आया। रूड़की से ही उत्तराखंड शुरू हो जाता है। रास्ते में बाबा रामदेव वाला विशाल पतंजलि भी दिखाई देता है। इन तीन सालों में पतंजलि का परिसर काफी फैल गया था। कुछ देर बाद बस हरिद्वार पहुंच गई।

हरिद्वार वो शहर है जहां मैंने अपनी जिंदगी के शानदार 3 साल गुजारे। न बस की मंजिल हरिद्वार थी और न ही हमारी मंजिल हरिद्वार थी। बस हरिद्वार के बस स्टैंड से ऋषिकेश के लिए बढ़ गई। जैसे-जैसे बस आगे बढ़ रही थी हरिद्वार मे बहुत कुछ बदला-बदला दिख रहा था। हरिद्वार में सड़कें बहुत चौड़ी हो गईं थीं और ऊपर से ब्रिज भी बन रहा था। हरिद्वार से ऋषिकेश के बीच में दोनों तरफ घना जंगल देखने को मिलता है। रोड किनारे जंगली जावनरों से सावधान रहने का बोर्ड भी लगा हुआ था।

ऋषिकेश

लगभग घंटे भर बाद हम ऋषिकेश बस स्टैंड पर थे। ऋषिकेश में हल्की-हल्की बारिश हो रही थी। अब हमें एक सस्ता और टिकाऊ होटल लेना था। हमने वहां से लक्ष्मण झूला के लिए ऑटो ली। राम झूला को पार करने के बाद हम लक्ष्मण झूला पहुंच गये। हम पैदल-पैदल ही होटल की खोज में निकल पड़े। कुछ होटलों को देखने के बाद एक होटल में हमें अपने बजट में कमरा मिल गया। हमने सामान रखा और फ्रेश होकर जैसे ही बाहर जाने लगे तो देखा कि बाहर बहुत तेज बारिश हो रही थी।

बारिश देखकर लगा रहा था कि बारिश जल्दी नहीं रूकने वाली है और हमें आज का दिन कमरे में ही बिताना पड़ेगा। हमें अगले दिन किसी और जगह के लिए निकलना था। हमारे पास ऋषिकेश घूमने का आज का ही दिन था। हमारी किस्मत अच्छी थी, कुछ देर में बारिश रूक गई। हम भी बाहर ऋषिकेश की सड़कों पर बाहर निकल आए। बारिश की वजह से ऋषिकेश गीला-गीला हो गया था। हम लक्ष्मण झूला को देखने के लिए चल पड़े। चलते-चलते और बातें करते हुए लक्ष्मण झूला पहुंच गये।

लक्ष्मण झूला

लक्ष्मण झूले पर काफी भीड़ थी, लग रहा था कि बंदे के ऊपर बंदा है। हम भी उसी भीड़ का हिस्सा हो लिए। बारिश की वजह से ऋषिकेश का मौसम काफी शानदार था। झूला झूले की तरह हिल रहा था। लक्ष्मण झूला को पार करके हम दूसरी तरफ पहुंच गये। हम पैदल-पैदल चलते जा रहे थे और कुछ-कुछ जगहों पर ऋषिकेश को अपने मोबाइल के कैमरे में कैद भी कर रहे थे। अब हमें पैदल-पैदल ही राम झूला तक जाना था।

रोड से लक्ष्मण झूला से राम झूला दूर लगता है लेकिन पुल के दूसरी तरफ से कुछ ही मिनटों में राम झूला तक पहुंचा जा सकता है। हम भी उसी रास्ते पर आगे बढ़ते जा रहे थे। इस रास्ते पर भी बहुत भीड़ थी और गाड़ियों की वजह से जाम भी लग रहा था। कुछ आगे चलने पर अचानक फिर से तेज बारिश हो गई। बारिश से बचने के लिए हम एक झोपड़ी के नीचे छिप गये। बारिश धीमी होने पर हम फिर से आगे बढ़ चले। कुछ देर बाद राम झूला की सड़क पर थे। राम झूला से पहले ही हम नीचे उतरकर गंगा किनारे पहुंच गये।

राम झूला

गंगा किनारे की रेत पूरी तरह से सफेद है जो इस जगह को और भी शानदार बनाती है। गंगा में रिवर राफ्टिंग हो रही थी और उनमें बैठे लोग चिल्ला रहे थे। बारिश की वजह से हवा तेज चल रही थी और ठंड भी लग रही थी। काफी देर बाद यहीं बैठे रहे। शाम होने पर राम झूला की लाइट जल गई। राम झूला सुंदर लग रहा था। हम राम झूला को पार करके दूसरी तरफ गये। मुख्य सड़क पर चलते हुए मोमोज का ठेला लगा हुआ था, हमने मोमोज खाए और वापस राम झूला की तरफ चल पड़े।

अंधेरा हो चुका था। अब हमें खाना खाना था और फिर लक्ष्मण झूला की तरफ अपने कमरे पर भी तो जाना था। हम राम झूला पार करके चोटीवाला होटल गये और खाना खाया। उसके बाद वापस लक्ष्मण झूला की तरफ चल पड़े। ठंडी-ठंडी हवा के झोंके के बीच हम आगे बढ़ते हुए लक्ष्मण झूला और फिर होटल पहुंचे। हम जल्दी ही सो गये। थकान तो कुछ ज्यादा नहीं हुई थी लेकिन अगली सुबह फिर हमें एक नये सफर पर निकलना था।

Tuesday, 14 January 2020

केदारकंठाः पहाड़ पर आते ही हर चीज धीमी हो जाती है

यात्राओं का अपना अलग सुकून और एहसास है। कितना भी घूम लो कुछ दिनों में कम ही लगने लगता है। कुछ दिनों के बाद लगता है फिर से एक नई जगह पर निकल जाना चाहिए। लेकिन वो सफर हमेशा रहता है, जेहन में। जब भी उस सफर के बारे में सोचते हैं तो उसकी भीनी-भीनी याद चेहरे पर मुस्कान ले आती है। यात्राएं शायद इसलिए भी खूबसूरत होती हैं क्योंकि आप उस जगह से निकल जाते हैं लेकिन वो जगह आपमें से नहीं निकल पाती है। ऐसा ही खूबसूरत सफर है, केदारकंठा।



मेरे घूमने के वैसे तो कुछ उसूल नहीं लेकिन मेरा एक उसूल ये है कि सर्दियों में मैदानी इलाके में जाऊंगा और गर्मियों में पहाड़ों में खाक छानूंगा। लेकिन इस बार मेरा सर्दियों में बर्फ देखने का मन हुआ। बर्फ तो शिमला में भी पड़ती है और मैं जाना भी हिमाचल ही चाहता था। जाने से कुछ दिन पहले मुझे जाने क्या हुआ और मैंने केदारकंठा जाने का मन बना लिया। मैं अपने कुछ दोस्तों के साथ केदारकंठा ट्रेक करने जा रहा था। जाने वालों में पहले कुछ घटे फिर बढ़े और आखिर में हम 6 लोग कश्मीरी गेट से निकल पड़े।

दिल्ली से देहरादून


तारीख थी 24 दिसंबर 2019। जब हमने रात को कश्मीरी गेट से देहरादून के लिए बस पकड़ी। मैं कई बार दिल्ली से देहरादून जा चुका था, इसलिए बाहर देखने का कोई मन नहीं था। मैं बस यही सोच रहा था कि देहरादून से सांकरी कि बस मिल जाए। दिसंबर की रात थी और बाहर घुप्प घना कोहरा छाया हुआ था। बाहर बहुत मुश्किल से दिखाई दे रहा था। कुछ घंटों के बाद गाड़ी एक ढाबे पर रूकी, बाहर निकले तो बहुत ठंड थी। सब आपस में यही कह रहे थे कि यहां इतनी ठंड है तो केदारकंठा पर क्या होगा? शायद ऐसा ही होता है सफर में। हम उस जगह के बारे में पहुंचने से पहले ही सोचने लगते हैं। कुछ देर में बस चल पड़ी और हम फिर से घुप्प कोहरे में खो गए।



कुछ देर बाद सभी लोग सो गये। जब नींद खुली तो हम रूड़की पहुंच गए थे। मेरे कुछ साथी पहुंच रहे थे, देहरादून कब पहुंचेगे? मेरा उनको एक ही जवाब था, जब बस गोल-गोल घूमने लगे तो समझ लेना देहरादून पहुंच गए। कुछ देर बाद हम ऐसे ही रास्तों में चक्कर लगाने लगे। इतने कोहरा होने के बावजूद बस बहुत तेज जा रही थी। कुछ देर बाद देहरादून बस स्टैंड पहुंच गए। अब हमें मसूरी बस स्टैंड जाना था, जहां से सांकरी के लिए बस लेनी थी। हमने टैक्सी पकड़ी और रेलवे स्टेशन के लिए रवाना हो गए।

मैंने टैक्सी वाले से केदारकंठा के बारे में पूछा तो उसने मुझे आश्चर्य से देखा और कहा, वहां बहुत बर्फ है अभी जाना सही नहीं रहेगा। हमें निकले तो जाने के लिए थे, सो मैंने उसकी बातों पर ध्यान नहीं दिया और हंसकर टाल दिया। रेलवे स्टेशन के ठीक बगल में ही मसूरी बस स्टैंड है। सांकरी के लिए बस साढ़े सात बजे थी। गाड़ी बुकिंग से पता किया तो वो 8,000 में जा रही थी, हमने उससे जाना दिमाग से ही हटा दिया। हम इधर-उधर घूम रहे थे, रेलवे स्टेशन पूरा खाली था क्योंकि कुछ महीनों से स्टेशन बंद था।

एक और लंबा सफर


घूमते-घूमते हमें प्राइवेट बस मिल गई, जो हमें थोड़े कम पैसो में सांकरी ले जाने के लिए तैयार थी। सूरज की पहली किरण के साथ हम देहरादून से निकल पड़े। सांकरी जाने के लिए दो रास्ते हैं, एक मसूरी होते हुए और दूसरा विकासनगर होते हुए। हमारी बस विकासनगर होते हुए जा रही थी। मैं विकासनगर तक पहले भी आया हुआ था। उसके बाद का रास्ता मेरे लिए नया था। लोग चढ़ रहे थे, उतर रहे थे। ऐसा लग रहा था कि बस में सिर्फ हम ही हैं जो कई घंटों से एक ही सीट पर जमे हुए हैं। विकासनगर के बाद पहाड़ शुरू हो जाता है। रास्ते के ठीक बगल से नदी गुजर रही थी। पहाड़ तो बहुत उंचे-उंचे थे लेकिन इनमें बंजरपन नजर आ रहा था। पहाड़ पर पेड़ कम नजर आ रहे थे, जहां नजर आ रहे थे वो खूबसूरत भी लग रहे थे।



हमारा सफर टेढ़े-मेढ़े मोड़ों से आगे बढता जा रहा था। हम दिसंबर में जा रहे थे लेकिन यहां मौसम पूरी तरह से खुला हुआ था। धूप बहुत तेज थी, हालांकि खिड़की खोलने पर ठंडी हवा का झोंका लग रहा था। सीढ़ीदार खेत, छोटे-छोटे गांव और लोग इस सफर में मिल रहे थे। पहाड़ खूबसूरत तो होते हैं लेकिन यहां के लोगों की जिंदगी उतनी खूबसूरत नहीं होती। हर मौसम उनके लिए एक मुसीबत बनकर खड़ी रहती है। हम तो बस आते हैं और चले जाते हैं, बस इसलिए हमें ये खूबसूरत लगता है। रास्ते में मिलने वाला पानी अब गहरा हरा हो गया था। ऐसा लग रहा था कि किसी ने इस पानी में हरा रंग मिला दिया हो। इस हरे के बावजूद पानी के अंदर का सबकुछ दिखाई दे रहा था। रास्ते में कई पुराने पुल मिल रहे थे। उनको देखकर लग रहा था कि अंग्रेजों ने इन पुलों को एक पहाड़ को दूसरे पहाड़ से जोड़ने के लिए बनवाया होगा।

बरकोट होते हुए हमारा सफर सांकरी के पास ही पहुंच गया था। हमने ऐसे ही एक छोटे-से कस्बे में खाना खाया और आगे चल पड़े। शाम के वक्त हम पुरोला पहुंच गए। यहीं से पहली बार बर्फ की चादर दिखाई दी। हमें उसी बर्फ की चादर तक पहुंचना था। मैं पहले भी ऐसे ही बर्फ की चोटी देख चुका था। ऐसा लग रहा था पुरानी तस्वीर को फिर से देख रहा हूं। एहसास अब भी वैसा ही था, उस जगह से नजर हटाने का मन नहीं कर रहा था। पहाड़ पर आते ही हर चीज धीमी हो जाती है, धीमे हो जाते हैं हम भी। पुरोला से आगे बढ़े तो रास्ता घने जंगलों से होकर जाने लगा। धूप अभी गई नहीं लेकिन उजलका जाने लगा था। चीड़ के उंचे-उंचे पेड़ों को देखते हुए हम आगे बढ़ रहे थे। अब हम लगभग पहाड़ों की गोद में थे।

पहाड़ और जंगल के बीच


ऐसे जंगलों को देखने से अच्छा चलने में आनंद आता है। जब आप चल रहे होते हैं और धूप आप तक नहीं पहुंच पाती है। आप धूप को सिर्फ किरणों में छनकर देख पाते हैं। ऐसे घने जंगलों के बीच चलने का एहसास बहुत खूबसूरत होता है। थोड़ी देर बाद हम सांकरी पहुंच गए। सांकरी एक छोटा-सा गांव है, जहां कुछ दुकानें हैं और कुछ होटल हैं। हम यहां उतरे तो हमें सबसे पहले ठिकाना देखना था। हमारी जिससे पहचान थी वो यहां था नहीं सो हमें खुद ही सब कुछ देखना था। सीजन होने की वजह से होटल पूरी तरह से भरे हुए थे।



हमें होटल मिल नहीं रहा था। इसके अलावा हम होम स्टे में ठहर सकते थे। लेकिन वो सांकरी से 4 किमी. दूर था। हम उतने दूर जाना नहीं चाहते थे, तब हमारे काम आया एक नया कैफे। जिन्होंने कहा कि हम उनके कैफे के नीचे वाले कमरे में ठहर सकते हैं। कैफे के नीचे गए तो देखा कि कमरे की सारी खिड़कियां खुली हुई हैं और बिस्तर भी कुछ नहीं है। तब हमने स्लीपिंग बैग और मैट किराए पर लिया। मेरे पास ये पहले से था, इसलिए हमें इसकी जरूरत नहीं पड़ी। जब हम ये सब जुटा रहे थे तब हमें पता चला कि टेक पर आप बिना गाइड के नहीं जा सकते। बिना गाइड के आपको कोई सामान किराए पर नहीं मिलेगा।

बस ये रात ही है!

सांकरी में ही कुछ कंपनियां हैं, जो ये सब करवाती हैं। हमें भी गाइड करवाने का वायदा किया गया लेकिन रेट इतने ज्यादा था कि हमें बहुत महंगा पड़ रहा था। तब हमारे जैसे ही 6 लोगों की टीम को गाइड की जरूरत थी। हमने उनसे बात की और तब हम 12 लोगों के लिए गाइड करना महंगा नहीं था। हमें सुबह उठकर 8 बजे इस कंपनी के पास पहुंचना था, तब हमें गाइड मिलता।



उस छोटे-से कमरे में मैट बिछाकर, स्लीपिंग बैग में घुस गए। ये मेरी जिंदगी का पहला ऐसा अनुभव था और ये तो नए अनुभवों के फेहरस्ति की शुरूआत भर थी। सफर में एक वक्त ऐसा आता है जब आप बहुत कुछ सोच रहे होते हैं। मेरे लिए वो वक्त ये रात होती है जब मैं इस आज और आने वाले दिन के बारे में सोचता हूं। ये वक्त काफी कुछ सिखाता है और काफी कुछ समझाता है। तब हमें समझ आता है कि यात्राएं हमारे भीतर कितना बदलाव लेकर आई हैं।

Sunday, 13 October 2019

बारिश में रात के अंधेरे में ट्रेकिंग की है कभी?

यात्रा का पिछला भाग यहां पढ़ें। 

एक सफर में कई कहानियां घूमती रहती हैं। कभी वो कहानी दूसरों से सुनते हो तो कभी कुछ ऐसा हो जाता है। जो आपके लिए कहानी बन जाती है। यात्रा के बाद सफर ऐसी ही कहानियों से याद रहते हैं। जरूरी नहीं ये कहानी अच्छी ही हों, यात्राओं में काफी कुछ खराब भी होता है। इस सुंदर और खूबसूरत सफर की एक कहानी मेरी भी है। एक रात की कहानी, जिसे मैं याद नहीं करना चाहता। मेरे बस में होता तो मैं उस रात को किसी और तरीके से लिखना चाहता। अब जब भी आकाश को देखता हूं तो वो रात याद आ जाती है। लगता है कि फिर से बारिश होगी और मैं फिर से पहाड़ों से निकलने की कोशिश करुंगा।


फूलों की घाटी का ट्रेक पूरा करके हम चार बजे तक नीचे आ गये थे। हम अपने बिस्तर पर आराम कर रहे थे। अब हमें कहीं और नहीं जाना था। अब हमें लौटना था। लौटना, यात्राओं का वो सच है जिसे हर कोई अपनाता है। ऐसी खूबसूरत यात्राओं के बाद हम जहां लौटते हैं वो हमारा घर होता है। कई बार लौटने पर दुख होता है तो कई बार सुकून। तब एक एहसास की परत होती है जिसे कोई कैमरा, कोई शब्द बयां नहीं कर सकते। हम आपस में चर्चा कर रहे थे कि लौटना आज है या कल? मेरा मानना था कि आज ही लौटना चाहिए। उतरने में ज्यादा समय नहीं लगता है। आखिर में हमने रात को बेकार न करने के लिए उसी शाम को चलने का फैसला किया।

एक बेवकूफी भरा निर्णय


हम जब गुरूद्वारे से निकल रहे थे। वहां के स्थानीय लोगों ने हमें कहा, आज की रात यहीं गुजारो, सवेरे होते ही नीचे उतरना। उन्होंने कहा रात को जाना समझदारी भरा निर्णय नहीं है। रास्ते में जंगली जानवर का खतरा भी है। मेरे साथी ने मुझसे पूछा क्या करें? मैं तो अब भी अपनी बात पर टिका हुआ था। शाम के 6 बजे हम घांघरिया से पुलना के लिए नीचे चलने लगे। हम जल्दी-जल्दी चल रहे थे, हमने एक किलोमीटर का रास्ता कुछ ही मिनटों में तय कर लिया था। रास्ते में हमें थके हुए लोग मिल रहे थे। सब हमसे वही सवाल पूछ रहे थे, जो कुछ दिन पहले हम पूछ रहे थे। ‘अभी घांघरिया कितना दूर है।’


रास्ता ढलान वाला था, इसलिए हम रास्ते के फ्लो में धड़कते जा रहे थे। मैं चाहता था कि 5 किलोमीटर का ये रास्ता अंधेरा होना से पहले तय कर लूं। इस रास्ते पर पहले हम चल रहे थे, बाद में भाग रहे थे। हमारे तेज चलने से हमारा एक साथी पीछे रह गया था। हमने एक बार रूककर उसका इंतजार किया। कुछ मिनटों बाद हम तीनों रास्तों पर बढ़ रहे थे लेकिन कुछ ही मिनटों के बाद हम फिर से अलग हो गए। हमें डर अंधेरे का नहीं था, डर था तो बस जंगली जानवरों का। रास्ते में हमें कुछ दुकानें और लोग मिलें। उन्होंने बताया कि रास्ते में जंगली जानवरों का कोई खतरा नहीं है। इस रास्ते में अभी तक ऐसा कुछ नहीं हुआ है।

घुप्प अंधेरा और बारिश


तेज गति से चलते-चलते एक घंटा हो गया था, अंधेरा भी होने वाला था। थोड़े ही आगे चलने पर नदी के बहने की आवाज सुनाई दी। नदी की कलकल आवाज सुनकर लग रहा था कि भ्युंडार गांव आने वाला है। थोड़ी देर बाद हम जंगल से बाहर निकलकर खुले मैदान में आ गए थे। यहां पहुंचकर मुझे बहुत खुशी हो रही थी। ये खुशी वैसी ही थी, जैसी प्यासे को पानी मिलने पर होती है। ऐसा लगा कि कुछ पा लिया हो। थोड़ी देर बाद हम उसी गांव की पहली दुकान पर बैठे थे। हम अपने तीसरे साथी का इंतजार कर रहे थे। थोड़ी देर बाद घाटी में अंधेरा उतरा आया। आज हमारी किस्मत अच्छी नहीं थी इसलिए रात भी चांदनी नहीं थी। दूर-दूर तक घुप्प अंधेरा और सन्नाटा पसरा हुआ था। हमें आगे बढ़ने से ज्यादा, अपने तीसरे साथी की फिक्र हो रही थी।


थोड़ी देर में बारिश होने लगी, हमें लगा कि थोड़ी देर में रूक जाएगी। लेकिन बारिश रूकने का नाम ही नहीं ले रही थी। हम अब तक खुशनसीब थे क्योंकि हमने लगातार बारिश का सामना कहीं नहीं किया था। अब हमें उसी बारिश का सामना करना था। कुछ देर बाद हमारा तीसरा साथी भी आ गया, जो काफी थका हुआ था। वो जब तक आराम कर रहा था। हम बारिश से बचने के इंतजाम में लगे हुए थे। पोंचा और रेनकोट अब हमारे काम आने वाला था। अब आगे का रास्ता हमें अंधेरे और बारिश के बीच तय करना था। हम सबका इस तरह का पहला अनुभव था।

बारिश में ट्रेकिंग


मुझे मन ही मन लग रहा था कि घांघरिया में उन लोगों की बात मान लेनी चाहिए थी। हम मोबाइल की टाॅर्च से अंधेरे में ही आगे बढ़ गए। चलने में अब परेशानी हो रही थी। रास्ता पूरा गीला हो चुका था और अंधेरे की वजह से हम धीरे-धीरे चल रहे थे। अब हम एक-दूसरे से दूर नहीं भाग सकते थे। हम एक साथ, आराम-आराम से आगे बढ़ रहे थे। अब हमें सिर्फ उतरना नहीं था, रास्ता चढ़ाई वाला भी था। डर इस बात का भी था कि पानी की वजह से पत्थर पर पैर फिसल भी सकता है। अंधेर में सब कुछ एक जैसा लग रहा था, खौफनाक। हमें कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। हम सिर्फ सुन पा रहे थे। हम सुनाई दे रही थी नदी की आवाज और बारिश की बूंदों का गिरना। 


मोबाइल की लाइट में हम बढ़े जा रहे थे। बारिश तभी अच्छी लगती है जब आप उसे देख रहे होते हैं। तब तो और अच्छी लगती है जब पहाड़ों में किसी होटल की बालकनी से देखते हैं। लेकिन भारी बारिश में चलना बहुत खतरनाक होता है। उसी भयानक और खतरनाक रास्ते में हम चले जा रहे थे। बारिश के साथ-साथ थकावट भी हम पर हावी थी, इस वजह से हमें बार-बार रूकना भी पड़ रहा था। हमें रास्ते में पानी से बचने की एक जगह मिली। वहां पहुंचे तो 6-7 कुत्ते पहले से ही डेरा डाले हुए थे। कुछ देर वहां रूकने के बाद हम आगे बढ़ गए। पानी रेनकोट से अंदर जाने लगा था। ये बारिश हमें बीमार भी कर सकती थी लेकिन अभी तो हमें यहां से निकलना था।

सिरहन पैदा करने वाला नजारा 


चलते-चलते ऐसी जगह पहुंचे, जहां रास्ता में झरना बन गया था। हमने एक-दूसरे को पकड़कर वो रास्ता तय किया। थोड़ा आगे बढ़े तो जो देखा उसके बाद शरीर में सिहरन-सी दौड़ गई। सामने दो बड़ी-बड़ी चट्टानें गिरी हुई थीं, रास्ता बंद था। पानी की वजह से कुछ देर पहले ही ये पहाड़ यहां गिरा होगा। हमने जल्दी-से वो पत्थर पार किया और तेज कदमों से आगे बढ़ने लगे। डर क्या होता है? वो बस मेरी दिल की धड़कन बता रही थीं। ऐसा कुछ देखने के बाद सफर के खुशनुमा और खूबसूरत वाले नजारे गायब हो जाते हैं। हम बस उस खतरे से बाहर निकलना चाहते थे। अगर हम जल्दी आ गए होते तो हो सकता था कि इन पत्थरों को गिरते हुए देख पाते।


हम तेज कदमों से तो चल रहे थे लेकिन नजरें पहाड़ पर थी। अब हमें हर पल पहाड़ और खतरनाक लग रहा था। डर हम सबको लग रहा था और हम जाहिर भी कर रहे थे। रात के पहर में हमारा सुरक्षित निकलना बहुत जरूरी था। क्योंकि दूूूर-दूर तक हमारी मदद करने वाला कोई नहीं था। हमें पूरे रास्ते में कोई नहीं मिला था। हम तीन ही थे जो इस खतरनाक और खौफनाक रात में चल रहे थे। जब ऐसा कुछ होता है तो वैसा ही कुछ दिमाग में भी चलने लगता है। मुझे टी.वी. पर चलने वाली खबरें याद आने लगी थीं। ये सब होने के बाद हौंसला ही होता है जो आपको जूझने के लिए तैयार रखता है। यही वो समय होता है जब आपको सबसे ज्यादा हिम्मत दिखानी होती है।

पहली बार मैंने आंखों से प्रकृति का ऐसा रूप देखा था। अब लग रहा था कि सफर कुछ ज्यादा ही रोमांचक हो गया था।लग रहा था कि ये सफर कुछ ज्यादा ही लंबा हो गया है। पहली बार मैं इस सफर को खत्म करने के लिए बेसब्र था। थोड़ी देर बाद हम पुलना की सड़कों पर चल रहे थे। हम सड़क पर बैचेन होकर होटल और होमस्टे खोज रहे थे। हमें कुछ भी नहीं मिल रहा था। तभी हमें एक जगह होमस्टे का बोर्ड लगा हुआ दिखाई दिया। उसके नीचे नंबर भी लिखा हुआ था। उसे देखकर एक आशा जगी। मैंने नंबर लगा दिया, फिर याद आया यहां तो नेटवर्क नहीं है।

रोमांच के आखिरी पल


अगर पुलना में नहीं रूके तो फिर 4 किलोमीटर चलकर गोबिंदघाट जाना पड़ता। ऐसा करने की हममें से किसी की भी हिम्मत नहीं थी। जहां ये बोर्ड था, उसी के बगल से सीढ़ियां गईं हुई थीं। हम सीढ़िया उतरकर घर के मालिक को बुलाने लगे। एक शख्स बाहर आया, उसने बताया कि मेरा ही होमस्टे है। तब लगा कि अब कुछ आराम मिलेगा। हमें हमारा कमरा दे दिया गया। हमारे सारे कपड़े गीले हो चुके थे। हमने कपड़ों को कमरे में जगह-जगह टांग दिया। लाइट न होने की वजह से मोमबत्ती की रोशनी में बिस्तर पर जा गिरे। ये अगर और कोई दिन होता तो इस रात की तारीफ की जा सकती थी लेकिन अभी तो गिरी हुई चट्टान नजरों के सामने आ रही थी। थकान इतनी थी कि हमने ये भी नहीं पूछा कि कमरे का पैसा कितना होगा? हमें तो कहीं ठहरना था और हम इस घुप्प अंधेरे में बिस्तर पर पड़ गए।


ये पूरी यात्रा कई मायनों में सीखने के लिए बहुत अच्छी रही। इस यात्रा से मैंने कई अनुभव जुटाए। यात्रा की कई अच्छी और बुुरी बात जानी। ये भी कि अनहोनी को टालने से हमेशा बचो। सफर में जोश से ज्यादा, होश का होना बहुत जरूरी है। आपका एक बुरा निर्णय, कई लोगों को मुश्किल में डाल सकता है। इन मुश्किलों के बाद भी हम बचकर सही सलामत आ गए थे। अब मैं सोचता हूं कि उस रात जो हुआ। उसने मेरी इस यात्रा को और रोचक और यादगार बना दिया। जब मैं वापस लौट रहा था तो पिछले कुछ दिनों में जो-जो पाया था। उसकी छवि दिमाग में चल रही थीं। इन तमाम मुश्किलों के बाद मैं फिर से ऐसी ही किसी यात्रा पर जाने के लिए तैयार हूं।

Friday, 6 September 2019

जोशीमठ:इन खूबसूरत वादियों के बीच चलते रहना ही तो मकसद है

रात का अंधेरा था, रास्ता जाना-पहचाना था और मैं चला जा रहा था एक नये सफर पर। उस रात के बारे में सोचता हूं तो खुशी होती है कि मैं उस दिन लौटा नहीं। अगर लौट आता तो बहुत कुछ मिस कर देता। मैं दूसरों को यही सलाह देता हूं कि जहां भी जाइए पूरी तैयारी के साथ जाइए। जब मैं अपने सभी सफरों के बारे में सोचता हूं तो लगता है कि मेरी घुमक्कड़ी में प्लानिंग जैसी कोई चीज रही नहीं है। मैं जहां भी गया उसके पीछे कोई लंबी-खासी प्लानिंग और तैयारी नहीं रही। मन हुआ तो निकल गया एक सफर पर। इस बार भी मेरे साथ ऐसा ही हुआ और फिर क्या? कुछ ही घंटों के बाद हिमालय को लपककर छूने की कोशिश में था, खूबसूरत और बेधड़क वादियों के बीच।


शाम का वक्त था, मैं दिल्ली में ही था। तभी मैंने व्हाट्सएप्प पर अपने दोस्त का  स्टे्टस देखा, वो उत्तराखंड के जोशीमठ में था। मैंने उसे काॅल किया तो उसने बताया, फूलों की घाटी जा रहा है। भूख लगी हो और खाना मिल जाने पर जो सुकून मिलता है, वही सुकून मुझे अपने दोस्त की इन बातों से मिल रहा था। मैं बहुत दिनों से कहीं जाने की सोच रहा था, लेकिन जगह नहीं खोज पा रहा था। एक स्टेट्स की वजह से मुझे एक नया सफर और छोटी-छोटी मंजिलें मिल गईं थीं। मैंने मन ही मन सोच लिया था कि मुझे वहीं पहुंचना हैं, पहाड़ों के बीच। दोस्त ने भी आने को बोल दिया। अपने रूम आया और रकसैक बैग में कुछ कपड़े रखे और निकल पड़ा बस स्टैंड की ओर।

मैदान से पहाड़ तक


मैं उत्तराखंड जा रहा था और महीना था अगस्त। यानी कि खूब बारिश हो रही थी। बारिश रास्ता बंद कर देती है और तब सब कुछ अस्त-व्यस्त हो जाता है। जिनको भी मैंने उत्तराखंड जाने के बारे में बताया, वो सभी जाने को मना कर रहे थे। इसलिए जब मैं बस स्टैंड जा रहा था, तो दिमाग में दो ही ख्याल आ रहे थे। एक तो वापस लौटने के बारे में था और दूसरा ख्याल पहाड़ का था। पहाड़ों की खूबसूरती के बारे में सोचकर मैंने जाने का निश्चय कर लिया। रात को आईएसबीटी कश्मीरी गेट से हरिद्वार के लिए बस पकड़ी। दिल्ली से हरिद्वार जाते वक्त ऐसा लगता है कि अपनी ही जगह जा रहा हूं। लेकिन इस बार ऐसा नहीं लग रहा था। शायद इसलिए क्योंकि इस बार सफर हरिद्वार से बहुत आगे था।

ऋषिकेश।

मैं जिस सीट पर बैठा था, मेरे पीछे वाली सीट पर मेरी ही उम्र के लड़के थे। आपस में खूब हंसी-ठिठोली कर रहे थे, इन सबमें मैं सुन रहा था उनकी बातें। वो तुंगनाथ के बारे में बात कर रहे थे। उनमें से एक बाकी को तुंगनाथ की खूबसूरती के बारे में बता रहा था। मुझे अपना तुंगनाथ का सफर याद आ गया था, शायद मुझे घूमने का कीड़ा वहीं से लगा था। उनकी बातों में सबसे बुरा था, नशा। वो पहाड़ों पर जाकर हरे-भरे बुग्याल में नशा करने की बात कर रहे थे। घूमना बहुत अच्छी बात है। लेकिन बेहतरीन जगहों पर धुंआ उड़ाना बेहूदा लोगों की पहचान है। कुछ देर बाद मुझे नींद लग गई। सुबह आंख खुली तो हरिद्वार आ चुका था, मेरी पहली मंजिल।

ताजगी भरी सुबह


मैं बस से नीचे उतर गया, मैं बद्रीनाथ जाने वाली बस देख रहा था। मेरी किस्मत इतनी अच्छी निकली कि कुछ ही मिनटों में मुझे बस मिल गई और कुछ ही मिनटों बाद बस चल पड़ी। मैं अभी-अभी सफर करके आया था। अब फिर से एक और सफर पर निकल पड़ा। ये सफर काफी लंबा होने वाला था करीब 12 घंटे का सफर। जैसे-जैसे बस आगे बढ़ रही थी, अंधेरा भी छंटता जा रहा था। यहां की सुबह की ताजगी को मैं महसूस कर पा रहा था। दिल्ली और उत्तराखंड में एक बड़ा अंतर है, हवा का अंतर। इसी हवा को पाने के लिए लोग यहां आते हैं। सूरज निकल आया था और उसकी रोशनी हमारे चारों तरफ फैलनी लगी थी। सूरज के लिए ये दुनिया एक दिन और पुरानी हो गई थी। अभी तो सूरज से लंबी मुलाकात होने वाली थी, आज पूरा दिन इसी सूरज के साथ ही तो चलना था।

हरे-भरे पहाड़।

कुछ ही घंटों में बस पहाड़ों के बीच चल रही थी। मुझे अक्सर सफर के दौरान नींद नहीं आती है लेकिन इस सफर में बहुत ज्यादा नींद आ रही थी। ऐसा लग रहा था थकान हो रही है लेकिन अभी तो सफर शुरू ही नहीं हुआ था। बीच-बीच में झटका लगता तो नींद खुल जाती और आंख खुलने पर एक ही चीज दिखती, पहाड़। यहां पहाड़ को देखकर खुशी नहीं, गुस्सा आ रहा था। रोड को चौड़ा किया जा रहा था और उसके लिए पहाड़ को काटा जा रहा था। जो पहाड़ पिछले साल तक सुंदर दिखते थे, वो अब बंजर लग रहा था। ऐसा लग रहा था कि किसी ने इसके चिथड़े कर दिए हों। हालांकि ये चैड़ीकरण अभी ज्यादा दूर नहीं गया है, लेकिन ऐसा ही विकास चलता रहा तो यहां की प्रकृति का सत्यानाश हो जाएगा। आगे चलने पर प्रकृति के सुंदर नजारे आने लगे थे। कुछ ही देर में देवप्रयाग आने वाला था। देवप्रयाग, वो जगह है जहां अलकनंदा और भागीरथी का संगम होता है। इन दोनों के संगम के बाद जो नदी बनती है, वो गंगा कहलाती है।

बहती नदी और वादियां


मैं इस बारिश में संगम देखना चाहता था। मैं देखना चाहता था कि इस मौसम में भी अलकनंदा और भागीरथी अलग-अलग रंग की रहती है या मटमैले रंग की। यही सोचते-सोचते आंख लग गई, जब आंख खुली तो रूद्रप्रयाग पार कर चुके थे। उत्तराखंड में होने के बावजूद गर्मी बहुत थी, धूप भी बहुत तेज थी। कुछ घंटों के सफर के बाद बस चमोली आ पहंची थी। यहां से मौसम ने करवट ले ली। बारिश शुरू हो गई थी। बारिश के दौरान पहाड़ों में जाना जोखिम भरा तो है, लेकिन इस मौसम में पहाड़ सबसे ज्यादा खूबसूरत लगने लगते हैं। बारिश की वजह से नदियां लबालब भरी हुईं थीं। हम जहा से जा रहे थे उसके ठीक नीच नदी बह रही थी और दूर तलक हरे-भरे जंगल दिखाई दे रहे थी।

पहाड़ों के बीच बहती नदी।

कभी-कभी मैं समझ नहीं पाता हूं कि पहाड़ में ज्यादा खूबसूरत क्या है? बर्फ या हरियाली। जिस रूप में पहाड़ दिखता है, खूबसूरत लगने लगता है। शायद ये पहाड़ की खासियत है कि वो दोनों ही रूप में ढल जाता है। अब पहाड़ अचानक से बदलने लगे थे। हरियाली अब थी, वे खूबसूरत अब भी लग रहे थे लेकिन अब उन्हें पूरा देखने के लिए गर्दन ऊंची करनी पड़ रही थी। मैंने इतने ऊंचे और खूबसूरत पहाड़ कभी नहीं देखे थे। रास्ते में कई गांव मिले और वहीं पहाड़ों पर हो रही सीढ़ीनुमा खेती भी देखने को मिली। यहां के गांव भी बेहद सुकून भरे लग रहे थे। चारों तरफ हरियाली से घिरे हुये और हरियाली के बीच ही उनके घर। इन घरों को देखकर ऐसा लग रहा था कि सारा सुकून भगवान ने यहीं पटक दिया हो। यहां बंजर का नाम मात्र भी नहीं था, मौसम, प्रकृति और रास्ता सब कुछ शानदार था।

मैं दस घंटे के सफर में जितना बोर हुआ था, इन नजारों को देखकर सब कुछ छूमंतर हो गया था। अब तो न थकावट थी और न ही नींद। शायद यही है कुछ नया देखने की ललक। अब जब इतना कुछ खूबसूरत और नया दिख रहा था तो लग रहा था कि सफर थोड़ा लंबा हो जाए। रास्ते में भूस्खलन भी हो रहा था, कई जगह तो बड़े-बड़े पत्थर गिर गये थे। जिसे हटाने में समय लगा और तब हमारी बस आगे बढ़ पाई। बड़े-बड़े पहाड़ दूर जाकर वादियों का रूप ले रहे थे। रास्ते में कई झरने भी गिर रहे थे। पहाड़ों से ऐसे गिरने वाले झरनों का कोई नाम नहीं होते। इनको देखकर बस खुश हुआ जा सकता है। यहां आकर तो परेशान व्यक्ति भी मुस्कुरा उठेगा। मैं तो आया ही इसलिए ही था और वही हो रहा था।

ये चमोली की खूबसूरती है।

जिंदगी में सुकून अगर कहीं है तो ऐसे ही खूबसूरत सफर में है। पहाड़ों में मंजिल से ज्यादा खूबसूरत सफर होता है। लेकिन इस बार मैं जिस सफर पर निकला था, उसकी मंजिल भी बेहद खूबसूरत थी। थोड़ी देर बाद बस ने मुझे मेरे पड़ाव पर छोड़ दिया, पड़ाव आगे के सफर का। जोशीमठ में मुझे मेरा दोस्त मिलने वाला था और यहीं रात भी यहीं गुजारनी थी। अगले दिन हमें लंबा सफर तय करना था लेकिन अब सफर बैठकर नहीं चलकर तय करना था। इसी चुनौती के लिए तो 20 घंटा सफर तय करके यहां आया था। अगले दिन हमारे पास रास्ता था लेकिन कभी-कभी रास्ता पता होने के बावजूद इस पर चलना आसान नहीं होता है। ये चुनौती ही तो हमें फूलों की घाटी तक ले जाने वाली थी। लेकिन उससे पहले अभी मुझे सबसे कठिन चीज करनी थी, इंतजार।

इस यात्रा की अगली कड़ी यहां पढ़ें।

Friday, 9 August 2019

चकराता 2: सुर्ख स्याहे के बीच से झलकती है यहां की खूबसूरती

मैंने कहीं पढ़ा था घुमक्कड़ से बड़ा दुनिया में कोई धर्म नहीं होता। मैं उस धर्म में बंधे रहने की कोशिश में लगा रहता हूँ। मेरे लिए ये कोई मायने नहीं रखता कि वो जगह पहाड़ है या मैदानी। मैं तो बस घूमना चाहता हूं और घूम वही पाता है जो निश्चियंत होता है। घूमना हमेशा कूल नहीं होता है, इसकी भी अपनी परेशानियां होती हैं और खट्टे-मीठे अनुभव। लेकिन वो अनुभव बेहद प्यारे होते हैं। जाने क्यों वो अनुभव बेहद सुखद होते हैं, उनको याद करता हूं तो मुस्कुराहट खुद-ब-खुद चेहरे पर तैर जाती है। चकराता का अनुभव मेरे लिए कुछ ऐसा ही है। पहली बार घूमते हुए बारिश का सामना किया था। लेकिन उससे पहले चकराता को जिस तरह से देखा वो बेहद खूबसूरत था। बारिश की फुहारों के बीच चलना एक अनंत यात्रा थी जो खत्म न होती तो अच्छा होता और मैं उस रास्ते पर बस चलता रहता।


देहरादून से चकराता हम कुछ घंटों में पहुंच गये थे। यहां तक आने का रास्ता भी बेहद खूबसूरत था। यहां की हवा में जादू था जो शहर के शोर को हममें से झाड़ रही थी। चकराता हिल स्टेशन पहुंचकर देखा कि सड़कें पूरी तरह से खाली थीं और कुछ दुकानें सामने दिख रहीं थीं। सामने कुछ आर्मी वाले दिख रहे थे, जिससे पता लग चुका था कि ये आर्मी का इलाका है। चकराता के आज में जाने से पहले इतिहास में चलना चाहिए। इतिहास जाने बिना यात्राएं अधूरी रह जाती हैं। चकराता समुद्र तल से 7,000 फीट की उंचाई पर स्थित है। अंग्रेजों की सेना गर्मियों में इस जगह को अपना बेस बनाते थे। तब चकराता की स्थापना कर्नल ह्यूम और उनके कुछ सहयोगियों ने की थी। बाद में भारत आजाद हो गया और ये जगह भारतीय सेना का बेस कैंप बन गया। यहां सेना के जवान ट्रेनिंग करते हैं शायद इसलिए इस खूबसूरत जगह पर किसी भी विदेशी नागरिक को आने की अनुमति नहीं है। अब आज में आते हैं।

टाइगर फाल तक का सफर


यात्राएं जितना हल्का करती हैं, उतना भर भी देती हैं। चकराता की खूबसूरती मेरे अंदर कुछ ख्याल भर रही थी। चकराता हिल स्टेशन भीड़ भाड़ वाली जगह नहीं है, अगर आप बेहद शांत और खूबसूरत जगह की खोज में हैं तो मेरे ख्याल से आपको चकराता जरूर जाना चाहिए। हमें यहां की कुछ बेहतरीन जगहों पर जाना था लेकिन दिक्कत ये थी सभी जगहें एक-दूसरे से बहुत दूर थीं। देववन, टाईगर फाल, कनासर और लाखामंडल में से किसी एक को चुनना था। जिसमें से हमने चुना टाइगर फाल। टाइगर फाल, चकराता से 30 किलोमीटर की दूरी पर था। मौसम साफ था रास्ते में जरूर कुछ बूंदा-बांदी हुई थी। बारिश की उन फुहार से मौसम और ये पहाड़ दोनों खूबसूरत लगने लगे थे।

चकराता हिल स्टेशन।

हम एक बार फिर से यात्रा पर थे। इस बार सफर चकराता हिल स्टेशन से टाइगर फाॅल तक का था। ये सफर भी खूबसूरत नजारों से भरा हुआ था। ऊंचे-ऊंचे पहाड़ और उन पर तैरते सफेद बादल, ये नजारा देखकर तो कोई भी खुशी से नहीं समायेगा। रास्ते में वो मुंडेर भी मिलती है जहां रूककर आप कुछ देर ठहरना चाहते हैं और इस जगह को अनुभव करना चाहते हैं। पहाड़ों में घुमावदार रास्तों पर मोड़ बहुत हैं। हर मोड़ पर मुझे अपना कुछ जिया हुआ दिखता है। मैं इन दृश्यों को समेटने की कोशिश में था। गाड़ी भागी जा रही थी लेकिन मैं उस भागे हुए रास्ते में अपने लिए कुछ जगह ढ़ूंढ ही ले रहा था। वैसे भी सफर में पूरा कोई भी नहीं पा पाता है कुछ न कुछ छूट जाता है। ये छूटना भी सफर की एक खूबसूरती है।

खूबसूरत नजारों से भरी ये घाटी


हरे-भरे पहाड़ों के बीच कुछ घर थे जो देखने में बेहद खूबसूरत लग रहे थे। शहर में रहने वाला हर शख्स इन घरों को देखकर सोचता है कि काश! उसका भी घर इन पहाड़ों के बीच होता। अगर शहर के लोगों को यहां की समस्याओं के बारे में पता होता तो वो ऐसा कभी नहीं कहते। पहाड़ में एक कहावत है, पहाड़ का पानी यहां के लोगों के काम नहीं आता। वैसे ही पहाड़ की खूबसूरती भी यहां के लोगों के लिए नहीं है। कभी यहां के लोगों से बात कीजिए वो बताएंगे अपनी और पहाड़ की परेशानी। लेकिन हम तो कुछ दिन के लिए यहां की खूबसूरती को देखते हैं और वही खूबसूरती को लेकर चले जाते हैं। हम कई किलोमीटर चल चुके थे धूप अब भी निकली हुई थी लेकिन ये धूप सुकून वाली थी। इसमें गर्मी का थोड़ा-सा भी एहसास नहीं था। हम नीचे थे और दूर तलक पहाड़ और बस पहाड़ थे।


हम रास्ते में कई जगह रूक रहे थे और इसकी वजह थी यहां की सुंदरता। खूबसूरती की कोई परिभाषा नहीं होती लेकिन मेरे हिसाब से जिस जगह पर आपके कदम रूक जाएं, वही खूबसूरती है। वहां बैठना भी अच्छा लगता है और पसरना भी, हम दोनों ही कर रहे थे। रास्ते में गाड़ियों का आना-जाना लगा हुआ था। पहली वजह ये टूरिस्ट प्लेस है और दूसरी वजह हम वीकेंड के समय पर यहां आए थे। यहां की हरियाली देखकर कोई भी मोहित हो जाए। पहाड़ आसमानों से बातें कर रहे थे। कुछ आगे बढ़े तो एक बहुत बड़ा बोर्ड दिखा। जिस पर लिखा हुआ था, वेलकम टू टाइगर फाल।

वेलकम टू टाइगर फाल। 

अब मौसम ने भी करवट ले ली थी। कुछ देर पहले जहां बहुत तेज धूप थी, अब चारों तरफ अंधेरा छाने लगा था। हम कुछ देर बाद ऐसी जगह पहुंचे जहां से टाइगर फाॅल की दूरी 2-3 किलोमीटर ही थी। यहां से जाने के दो रास्ते थे एक अपनी गाड़ी से और दूसरा पैदल। मैं पैदल जाना चाहता था लेकिन मेरे साथी गाड़ी से जाने की कह रहे थे। हम गाड़ी से ही आगे बढ़ चले। थोड़ा ही आगे बढ़े तो अचानक तेज बारिश होने लगी, बारिश इतनी तेज थी कि छुपने की जगह ढ़ूढ़ने पड़ी। सामने लकड़ी का एक छोटा-सा घर दिखा, हम वहीं रूक गये। गेट खुला हुआ था अंदर एक बुजुर्ग व्यक्ति था जो सब्जियों को बोरे में भर रहा था। उस शख्स ने बताया कि वो किसान है, इन आलू और टमाटर को विकासनगर की मंडी में भेजता है। जब तक बारिश होती रही, हम उनकी बातें सुनते रहे और वो हमारी। जब हम आने लगे तो कुछ आलू भी दिए, हमारे पास जगह तो थी नहीं लेकिन कुछ आलू ले लिए।

आसमां से गिरता पानी


ये ढलान वाला रास्ता बहुत संकरीला और गड्ढों वाला था, जिससे गाड़ी धीरे-धीरे ले जानी पड़ रही थी। कुछ देर में हम उस जगह पर पहुंच गये, जहां बहुत-सी गाड़ी खड़ी हुई थी। हमने भी वहीं गाड़ी रख दी और चल पड़े टाइगर फाल को देखने। रास्ते में कुछ घर भी थे और खेत भी। धान के ये खेत पहाड़ों के बीच बेहद खूबसूरत लग रहे थे। आगे चले तो वो जगह आई जिसे देखने हम 30 किमी. नीचे आये थे, टाइगर फाल। बहुत ऊंचाई से एक धार में गिरता पानी शोर कर रहा था। पानी की ये आवाज रौबीली थी जिसे देखने में हमें अपनी नजर बहुत ऊपर ले जानी पड़ रही थी। यहां कुछ लोग नहा रहे थे तो कुछ लोग इस झरने को बस देख ही रहे थे। हम भी कुछ ही देर यहां ठहरे और वापस लौट आये। मुझे उस वाटरफाल से खूबसूरत बहता हुआ पानी अच्छा लग रहा था, जो शांति से बहा जा रहा था।

टाइगर फाल।

बारिश फिर से शुरू हो गई थी और हम इससे बचने के लिए कुछ देर यहीं ठहर गये। बारिश रूकी तो हम चकराता की ओर वापस आने लगे। पहाड़ों से वापस लौटना सबसे कठिन काम होता है लेकिन मैं मन ही मन में वायदा करता हूं कि वापस फिर आउंगा। रास्ते में जो सीढ़ीदार रास्ते खेत दिख रहे थे वो इस सफर का सबसे खूबसूरत नजारा था। बादल से घिरे पहाड़ों से भी खूबसूरत। लौटते हुए शाम होने लगी थी लेकिन पहाड़ों की शाम तो सूरज ढलते ही हो जाती है और सूरज तो जाने कब का ढल चुका था। रास्ते में जब पहाड़ों के आसपास बादलों को देख रहा था। तो अपने आपको बड़ा खुशनसीब समझ रहा था और सोच रहा था कि ‘यही यथार्थ है’ जो मैं देख रहा हूं।

सीढ़ीदार खेत।

हम चकराता पहुंचने ही वाले थे तभी सामने जो देखा उसे देखकर विश्वास नहीं हो रहा था। सामने धुंध ही धुंध थी, ऐसा लग ही नहीं रहा था कि ये सब जुलाई में हो रहा है। जिस कोहरे को सर्दियों में देखते हैं, वो यहां जुलाई के महीने में था। कुछ घंटे पहले मैं इसी रास्ते से गुजरा था तब यहां धुंध का नामोनिशान नहीं था। ये सब विचित्र था लेकिन देखकर खुशी हो रही थी। उसी धुंध को पार करते हुए हम चकराता पहुंच गये। अब हमें देहरादून के लिए निकलना था लेकिन एक बार फिर बारिश ने हमें रोक लिया। कुछ देर बाद बारिश रूकी और हम देहरादून की ओर चल दिये। हम थोड़ा ही आगे चले थे कि बारिश फिर से चालू हो गई, लेकिन इस बार हम रूके नहीं। बारिश में भीगते रहे और चलते रहे। जैसे-जैसे हम देहरादून के पास आ रहे थे बारिश और तेज होती जा रही थी। बारिश इतनी तेज थी कि वो थपेड़े की तरह लग रही थी। जब हम वापस देहरादून पहुंचे तो पूरी तरह से भीगे हुए थे लेकिन खुशी इस बात की थी कि इस छोटी-सी यात्रा ने कई मोड़ लिए और सफर खूबसूरत हो गया।


चकराता को मैं पूरी तरह से नहीं देख पाया। बहुत कुछ छूट गया है, ये मेरे साथ हमेशा होता है। तमाम जगहों को देखने के बाद कुछ जगह रह ही जाती है, रह ही जानी चाहिए अगली बार के लिए। चकराता आने का मतलब है दो-तीन दिन का समय निकालना। अगली बार जब यहां आउंगा तो हर जगह को अच्छी तरह से नापूंगा। यहां के आसमान ने बहुत कुछ दिखाया था ये सब मेरे साथ पहली बार हुआ था। ऐसे ही कई और सफर पर जाने की तमन्ना है काफी पहाड़ों के बीच तो काफी जंगलों के बीच।