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Saturday, 15 February 2020

केदारकंठा 3: मुश्किलें मिलती गईं और मैं चलता गया

सुबह-सुबह नींद खुली तो ताजगी का एहसास हो रहा था। टेंट के बाहर का नजारा देखकर मन खिल उठा। इतनी खूबसूरत सुबह कभी नहीं देखी थी। मैंने बस सोचा था कि एक दिन पहाड़ पर टेंट में रात बितााऊंगा और सुबह उठते ही बर्फ देखूंगा। मुझे नहीं पता था कि वो सोच इतने जल्दी सच हो जाएगी। अभी धूप नहीं निकली थी, बाहर अभी ठंड थी। हम वहीं बैठकर धूप का इंतजार करने लगे। हमें यहां कहीं जाने की जल्दी नहीं थी। मुझे नहीं याद मैंने कब सूरज के लिए इतना इंतजार किया था। ये पल भर का इंतजार बेहद अच्छा लग रहा था। जब धूप धीरे-धीरे बढ़ रही थी तो हम उसे साफ-साफ देख पा रहे थे। कुछ ही देर में धूप ने सब कुछ जगमग कर दिया।



कुछ ही पल में नजारा बदल गया और ये बदला हुआ दृश्य हर किसी को लुभा रहा था। ऐसा लग रहा था कि सूरज ने इन पहाड़ों को चमकीले कपड़े पहना दिए हों। हम कुछ देर धूप सेंकते रहे और इस नजारे को देखते रहे। अब हमें भी आगे के सफर के लिए निकलना था। हम सबने अपना टेंट बांधा और निकल पड़े अगले पड़ाव की ओर। हमें बताया गया था कि दूसरा बेस कैंप ज्यादा दूर नहीं है इसलिए हम आराम-आराम से चल रहे थे। शुरूआत में रास्ता सीधा था, चलने में कोई दिक्कत नहीं हो रही थी। थोड़ी ही देर में चढ़ाई शुरू हो गई। अब तक हम जैसे रास्ते से चलकर आये थे, ये उससे कठिन था।


नए पड़ाव की ओर 


अभी हम तरोताजा थे, इसलिए चलने में कोई परेशानी नहीं आ रही थी। थोड़ी ही देर में एक टी-प्वाइंट आ गया। हमें यहां न रूकने का मन था और न ही रूकने की वजह। हममें से किसी के पास पैसा नहीं था, इसलिए कुछ लेने की तो सोच भी नहीं सकता था। इसके बावजूद हमारे चेहरे पर कोई शिकन नहीं थी। हमने सोच लिया था, आए हैं तो मंजिल तक पहुंच ही जाएंगे। सफेद चादर के बीच चलना और देखना अब कोई बड़ी बात नहीं रह गई थी। जब आप लगातार जिस चीज के साथ रहते हैं तो उसकी आपको आदत हो जाती है। हमें भी बर्फ में चलने की आदत हो गई थी। हमारे लिए बर्फ देखना वैसा ही था जैसे जमीन। 



कुछ देर चलने के बाद हमारी रफ्तार धीमी हो गई थी। हम बार-बार ठहरकर आगे बढ़ रहे थे। थोड़ी देर बाद हम ऐसी जगह पर आ गए, जहां चारों तरफ पेड़ ही पेड़ थे। यहां धूप पूरी तरह से नीचे नहीं आ पा रही थी। धूप-छांव का खेल यहां हो रहा था। हमारे साथ एक कुत्ता भी चल रहा था। हम रूकते तो वो भी रूकता, हम बढ़ते तो वो भी साथ चलता। हमारे इस सफर में एक और साथी जुड़ गया, बस कुछ देर के लिए। थोड़ी वक्त बाद वो कहीं और निकल गया। जरा-सा आगे बढ़कर पीछे देखा तो बर्फ से ढंकी चोटी हमें देखकर मुस्कुरा रही था। ऐसा लग रहा था कि वो हमारा स्वागत कर रही हो। थोड़ी देर बाद हम फिर से लोगों के शोर के बीच थे।



चारों तरफ फिर से हमें टेंट ही टेंट नजर आ रहे थे। अब हमें अपने टेंट के लिए जगह देखनी थी। चारों तरफ पैकेज वाली कंपनियां टेंट लगाए हुईं थी और जो जगह बची थी वहां टेंट लगाना मुश्किल था। यहां बर्फ ताजी थी जिस वजह से बर्फ धंस रही थी। बड़ी मशक्कत के बाद एक ऐसी जगह मिली, जहां दो टेंट लग सकते थे। वो भी कंपनी वाली जगह थी लेकिन उन्होंने हमें टेंट लगाने दिया। तीसरे टेंट के लिए हमें मेहनत करनी पड़ी। फावड़ा लेकर हमें बर्फ को निकालना पड़ा और उस जगह को सपाट बनाया। मेहनत के बाद हम कुछ देर वहीं पड़ गए।बात करते-करते शाम हो गई। आज हममें से एक का बड्डे था, हम उसके लिए केक लेकर आए थे। जब वो बर्फ के बीच केक काट रहा था, मुझे लगा कि वो इस दुनिया का सबसे खुशनसीब शख्स है। केक काटा, खाया और फिर अपने टेंट में वापस लौट आए। थोड़ी ही देर में सूरज ढलने लगा।

रात के सफर में


मेरी जिंदगी की सबसे खूबसूरत शाम में एक और शाम जुड़ गई। अंधेरा होने के बाद एक ही काम रह जाता है बातें करना और सोना। हमें सुबह दो बजे अपनी मंजिल की ओर निकलना था। हम अपना सारा सामान छोड़कर चढ़ाई करनी थी। पहले तो वो बहुत कठिन चढ़ाई थी और दूसरी वजह सुबह हमें यहीं वापस आना था। बात करते-करते कब नींद आ गई पता ही नहीं चला। सोने से पहले मुझे एक ही डर सता रहा था, मेरे जूते। सबने घांघरिया में नए जूते ले लिए थे लेकिन मैंने अपने पुराने जूतों पर विश्वास बनाए रखा था।



हम सभी दो बजे उठ गए और जल्दी-जल्दी तैयार होकर सफर के लिए निकल पड़े। मैंने एक छोटा-सा बैग रख लिया, जिसमें बिस्किट, चाॅकलेट और पानी था। जब मैं चलने लगा तो मेरे एक साथी ने मुझसे ले लिया। मैंने भी ये सोचकर दे दिया कि साथ ही तो रहेगा। मैंने जैसे ही अपना पहला कदम बढ़ाया मैं फिसल गया। उसी एक कदम से मैं समझ गया कि ये मेरी जिंदगी का सबसे मुश्किल सफर होने वाला। मेरे कुछ साथी आगे निकल गए थे और दो साथी साथ थे। मुझे रास्ते पर चलने में बहुत परेशानी हो रही थी। इसलिए मैं ताजी बर्फ में चलने लगा। जहां मुझे दोगुनी मेहनत करनी पड़ रही थी। पहले बर्फ में घुसता फिर उसके बाद निकलता और फिर आगे बढ़ता। जिस वजह से मैं बहुत जल्दी थक रहा था।

मुश्किल भरा सफर


थककर जब पीछे मुड़कर देखता तो उस समय अपनी परेशानी को भूलकर बस उस नजारे में खो जाता। दूर तलक बर्फ ही बर्फ, अंधेरे में दिखते कुछ पेड़ और तारों से भरा आसमां। इस मुश्किल रात में ये खूबसूरत नजारा आगे बढ़ने के लिए हौंसले के जैसा था। मेरे साथी भी बार-बार मुझे आगे बढ़ने की हिम्मत देते और जहां मैं कहता वे रूकते। मुझे इस समय किसी और पर नहीं अपने आप पर, अपने जूतों पर गुस्सा आ रहा था। थकावट की वजह से मुझे प्यास लग रही थी। हमारे पास एक बोतल पानी था और वो हम अब तक के सफर में खत्म कर चुके थे। थकावट, फिसलना, चढ़ाई इन सबसे मैं लड़ ही रहा था। अब एक और चुनौती थी, प्यासे रहकर चलते रहना।बहुत कठिन होता है इतनी सारी मुश्किलों के बीच चलते रहना। थोड़ी देर बाद हमें एक टी-प्वाइंट मिला, जहां हमने पानी के कुछ घूंट पिये। हम ज्यादा देर न रूककर आगे बढ़ने लगे। हम जैसे-जैसे आगे बढ़ रहे थे, चढ़ाई और कठिन होती जा रही थी।



चढ़ते समय आप रूकना नहीं चाहते लेकिन थकावट के आगे किसी का बस नहीं चलता। कुछ पल यहां रूकते और बस शांति से देखते तो अंदर ही अंदर बहुत अच्छा लगता। हमने धीरे-धीरे कई टीलों को पार करते हुए आगे बढ़ते जा रहे थे। एक बार फिर-से प्यासा गला पानी मांग रहा था और मेरा सामान किसी और के पास था। मुझे गुस्सा आ रहा था क्योंकि मुझे पानी चाहिए था? तब लग रहा था कि बैग मुझे किसी को ही देना ही नहीं चाहिए था। कुछ देर बाद हम एक पत्थर के पास पहुंचे तो कुछ आवाज सुनाई दी। पास जाकर देखा तो मेरे ही साथी थे। जब पानी पिया तो सांस में सांस आई।

चलें तो चलें कैसे!


यहां बहुत तेज हवा चल रही थी। इतनी तेज कि हम उसे न चाहते हुए भी सुन रहे थे। इतने कपड़े पहनने के बावजूद भी हम सबको ठंड जकड़ रही थी, खासकर पैरों में। ऐसा लग रहा था कि पैर जम रहे हैं। हम सब पत्थर के नीचे एक-दूसरे से सटकर बैठ गए। फिर भी कुछ फायदा नहीं हो रहा था। तब हम सबने आगे बढ़ते रहना ही सही समझा। हम फिर से कठिन चढ़ाई चढ़ रहे थे। अब चढ़ाई बिल्कुल सीधी थी और रास्ता भी समझ में नहीं आ रहा था। मैं बहुत मुश्किल से बर्फ में घुस-घुसकर आगे बढ़ रहा था। अब मुझे खूबसूरती से ज्यादा से इस चढ़ाई को पूरा करने की जल्दी थी। ज्यादातर लोग पैकेज में आए थे और ग्रुप में चल रहे थे। ग्रुप में उनका गाइड बोल रहा था, चलते रहो, सूरज निकलने वाला है’। इसी सूरज की पहली किरण को देखने के लिए हर कोई चला जा रहा था। हमें भी सूरज की किरण देखनी थी लेकिन ये भी सोच लिया था कि नहीं देख पाए तो कोई गम नहीं। बस उस चोटी तक पहुंचना जरूर है।


थोड़ी देर में हमें कुछ घास दिखाई दी। बर्फ के बीचों-बीचों घास का होना नामुमकिन-सा होता है। हमें दिखाई दी सो हम वहीं पड़ गए। हम घास पर लेटे हुए तारों से सजे आसमान को देखने लगे। खूबसूरत बर्फ भी थी, सामने खड़े पहाड़ भी थे लेकिन इस सफर का सबसे खूबसूरत पल यही था। उस पल कुछ मिनट को जीने के बाद हम फिर आगे बढ़ गए। कुछ ही देर बाद हम केदारकंठा की पीक पर थे। यहां सिर्फ हम नहीं थे लोगों का हुजूम था। हर कोई अपना कैमरा लगाकर एक चीज का इंतजार कर रहा था, सूरज के उगने का। जब सूरज उगा तो लगा कि लगा जहां जीत लिया। यहां दूर-दूर तक वादियां ही वादियां थीं। उसी वादियों के बीच कुछ गीत हमने गुनगुनाए।

आ लौट चलें


हमने यहां मन भर के पहाड़ देखे, बर्फ देखी और सुंदर-सुंदर नजारे। एक तरफ बर्फ से ढंके पहाड़ थे तो दूर तलक हरे-भरे पहाड़ भी नजर आ रहे थे। काफी समय गुजारने के बाद हम वापस लौटन लगे। हमें तीन दिन का सफर एक दिन में ही पूरा करना था। हमने अपनी मंजिल पा ली थी, अब उस एहसास को जीना था। वापस हम चलते हुए नहीं लोटते हुए आए। हम उपर से स्लोप करते हुए नीचे आने लगे। हम थोड़ी देर चलते और जहां स्लोप मिलता हम लोटने लगते। हमने कई किलोमीटर ऐसे ही पार किए। मैं ज्यादा इसलिए नहीं चल रहा था क्योंकि जब चलता तो फिसलने लगता।



हम जल्दी ही बेस कैंप पहुंच गए और जब वहां से निकलने लगे तब हमें अपने दो साथी मिल गए। जिन्हें हमने बहुत खोजा, वो हमें सफर से लौटते वक्त। इसके बाद तो सफर अच्छा ही अच्छा था। मैंने अपने एक साथी से जूते भी बदल लिए जो फिसल नहीं रहे थे। हम लौटते वक्त अपने सफर को याद कर रहे थे। चढ़ते वक्त मैं फिसल रहा था लेकिन उतरते वक्त फिसलने का जिम्मा बड्डे बाॅय ने ले लिया था। शाम तक हम घांघरिया पहुंचे, हमने वहां से देहरादून के लिए बस पकड़ी। एक सफर आपको बहुत कुछ सीखा जाता है। मुश्किलों से लड़ना और हमेशा एक बात ठाने रहना, मैं कर सकता हूं। शायद इसलिए मैं इस कठिन सफर को पूरा कर सका। यही वजह मुझे आगे भी ऐसे ही सफर पर ले जाएगी। केदारकंठा का सफर खत्म हो चुका है लेकिन सुरूर आज भी बना हुआ है। 

Wednesday, 22 January 2020

केदारकंठा 2: यहां आकर पहाड़ सिर्फ खूबसूरत नहीं, प्यार बन गया

शुरू से यात्रा यहां पढ़ें।

मैं एक यात्री हूं। यात्रा में यही होता है कि आप चलते-जाते हैं और सब कुछ आपके सामने से गुजरता चला जाता है। कभी वो गुजरने वाला वक्त बहुत सुखद होता है और कभी परेशान कर देने वाला। जैसा भी हो दोनों ही चीजें बार-बार याद आती है। वो सफर उन्हीं पलों की वजह से भी याद रहता है। केदारकंठा के सफर में भी हमें बहुत परेशान होना पड़ा। लेकिन मुझे पता था कि अगर हमने हिम्मत नहीं हारी तो ये सफर सबसे खूबसूरत होने वाला है और हुआ भी वैसा ही। पहाड़ पहले मेरे लिए सिर्फ घूमने वाली एक जगह थी। इस सफर के बाद पहाड़ प्यार है मेरा।


हमने ये रात बड़ी मुश्किल में गुजारी। मैंने सोचा नहीं था कि मुझे उत्तराखंड में खुले में रात बितानी पड़ेगी। हर अनुभव पहली बार ही होता है, ये अनुभव भी पहली बार ही था। जब आंख खुली तो सांकरी भी उठ चुका था। लोगों की चहल-पहल सुनाई दे रही थी। कमरे के बाहर निकला तो एक खूबसूरत नजारा हमारा इंतजार कर रहा था। ऊंचे लेकिन बंजर पहाड़ सामने दिखाई दे रहे थे। खूबसूरती उसके पीछे थी, सफेद चादर। मैं उसी चादर पर चलने के लिए लंबा सफर तय करके यहां आया था। थोड़ी देर में हम तैयार होकर सांकरी के चौराहे पर पहुंच गए। जहां हमें कुछ सामान और एक गाइड मिलने वाला था।

सांकरी एक छोटा-सा गांव है। जहां कुछ दुकानें हैं, गिने-चुने होटल और होमस्टे हैं। यहां नेटवर्क नहीं आता है, यहां बैंक नहीं है, एटीएम नहीं है। यहां आएं तो कैश लेकर आएं क्योंकि बिना कैश के यहां कोई आपकी मदद नहीं करने वाला। हमने ज्यादा पैसे नहीं निकाले थे, जो हमारी बहुत बड़ी भूल थी। सांकरी से ही केदारकंठा ट्रेक शुरू होता है लेकिन यहां उतनी भीड़ नहीं दिखाई दे रही थी। जितना बाकी जगहों पर मैंने देखी थी। मेरे पास अपना टेंट, स्लीपिंग बैग था इसलिए मुझे इन सबकी जरूरत नहीं थी। मैंने इसकी जगह ग्रेटिएर्स और स्टिक ली। बाकी साथियों ने टेंट और स्लीपिंग बैग तीन दिन के लिए भाड़े पर ले लिए। ये सामान लेने पर आपको अपना पहचान-पत्र उसी दुकान पर जमा करना पड़ता है। इन सबके बावजूद हमें अभी तक गाइड नहीं मिला था। फिर हमारी मुलाकात एक शख्स से हुई, जो हमारा गाइड बनने को तैयार था। उसका नाम था, साईंराम। जिसे हम सब साईं बोलते थे।

ट्रेक की शुरूआत में।

साईं के साथ हम 12 लोग अपने सफर पर निकल पड़े। सांकरी से थोड़ी ही आगे निकले तो एक जगह मिली, जहां लिखा था कि आप गोविंदघाट वाइल्ड लाइफ सैंक्चुरी में प्रवेश कर रहे हैं। केदारकंठा भी इसी वन्यजीव अभ्यारण्य में आता है। शायद इसलिए यहां इतनी कड़ी सुरक्षा है। आगे एक जगह हमें सबका परमिट बनवाना था। हमें वहां परमिट के पैसे तो देने ही पड़े। इसके अलावा टेंट को ले जाने के लिए भी पैसे देने पड़े। बस इसी परमिशन से हमसे हमारा सारा कैश छीन लिया। फिर भी हम परेशान नहीं थे, हम तो बस ट्रेक करना चाहते थे। हम नहीं चाहते थे कि यहां से आने के बाद हम वापस लौटें।

सफर में खुशी।

थोड़ी देर बाद वो जगह आ गई, जहां से हमारा ट्रेक शुरू हुआ। हमारी पीठ पर एक बैगपैक, टेंट और स्लीपिंग बैग लदे हुए थे। शुरूआत में हमें जंगलों के बीच से गुजरना था। हम आराम-आराम से चल रहे थे। ट्रेक में भीड़ बहुत थी, जिस वजह से हमें बार-बार रूकना पड़ रहा था। थोड़ी ही देर में चढ़ते हुए हमें पसीना आने लगा। जहां हम थकते तो रूक जाते और फिर आगे बढ़ जाते। कुछ देर बाद पत्थर वाला रास्ता हटकर मिट्टी वाला रास्ता आ गया था। रास्ते के ठीक बगल में एक नदी बह रही थी, उसकी बहने की आवाज कानों को बहुत अच्छी लग रही थी। दूर तलक एक चोटी दिख रही थी, बर्फ वाली।

दूर तलक दिखती एक चोटी।

रास्ते में चीड़ के ही पेड़ नजर आ रहे थे। चीड़ के सूखे पत्ते हमारे कदमों में पड़ी हुई थी। रास्ते को उसने सुर्ख लाल बना दिया था। सूरज की किरण उस पर पड़ रही थी तो वो और खूबसूरत नजर आ रही थी। इस जगह की अपनी आवाज थी, इस जंगल की, पहाड़ की और नदी की भी। चलते हुए मैं इन सबको देख भी रहा था और सुन भी रहा था। मैंने अब तक पत्थर से बने हुए रास्ते पर ट्रेक किया था। मैं हमेशा से मिट्टी के रास्ते पर ट्रेक करना चाहता था। अब मैं वैसे ही रास्ते पर चल रहा था तो खुशी हो रही थी। ये खुशी एक सपने को पूरा होने जैसी थी।

सफर में एक पथिक।

थोड़ी देर बाद चलते हुए हम सब जोड़े में बंट गए। कुछ लोग आगे चल रहे थे और कुछ लोग पीछे। हम रास्ते में बीच-बीच में रूकते और इकट्ठा होते फिर आगे बढ़ते। ऐसी ही एक जगह पर रूके तो हमारे एक साथी ने आगे जाने से मना कर दिया। वो वापस लौटना चाह रहा था, शायद थकावट उस पर हावी हो रही थी। थकावट से ज्यादा वो अकेला चल रहा था इसलिए दिक्कत आ रही थी। हम लोगों ने उसे समझाया और आगे बढ़ने का हौंसला दिया। अबकी बार वो अकेला नहीं चल रहा था, हममें में से कोई न कोई उसके साथ था। रास्ते में हल्की-हल्की बर्फ नजर आ रही थी, जो रास्ते पर चिपकी हुई थी। जिस पर पैर रखने पर फिसलन हो रही थी। हम ऐसी जगह से बचने की कोशिश कर रहे थे। थोड़ी देर बाद हमें बर्फ दिखाई भी दे रही थी और हम उस पर चल भी रहे थे।

ठंडा-ठंडा पानी।

एक ऐसी जगह आई, जहां हमें बहता हुआ पानी मिला। हमने पानी पिया और बोतल भरकर आगे बढ़ने लगे। बने हुए रास्ते पर चलना हुआ आसान नहीं था, उस पर थकान हो रही थी। मैं ताजा बर्फ पर चलने की कोशिश कर रहा था। बर्फ अभी इतनी गहरी नहीं थी इसलिए रास्ते से दूर जाने में कोई खतरा भी नहीं था। अभी बर्फ ज्यादा नहीं दिख रही थी लेकिन पहली बार इतनी ज्यादा बर्फ देखने का सुकून ही अलग होता है। सुकून कुछ अलग करने का, खुशी कुछ नया पाने की, एहसास इस जगह पर आने का। यहां आने के बाद ऐसा लग रहा था कि अब कुछ कमाल होने वाला है। हमारे शुरूआती सफर में बहुत कुछ हमारे मुताबिक नहीं हुआ था लेकिन यहां आने पर जो खुशी हो रही थी। वो काफी था कि ये तो खुशी की शुरूआत भर है।

बर्फ ही बर्फ।

थोड़ी ही देर में हम ऐसी जगह पर पहुंच गए, जहां टेंट लगे हुए थे। मुझे लगा कि यही जुड़ा का तालाब है, जहां हम ठहरने वाले थे। पर अंदर-अंदर लग रहा था कि इतने जल्दी पहले दिन का सफर खत्म नहीं हो सकता। मैंने अपने गाइड से बात की तो पता चला कि ये तो टी-प्वाइंट है, बेस कैंप तो अभी बहुत आगे है। इस जगह पर कुछ टी-प्वाइंट बने हुए थे। लोग आकर यहां थोड़ी देर रूक रहे थे और फिर आगे बढ़ रहे थे लेकिन हम बिना रूके ही आगे बढ़ गए। अब रास्ता बर्फीला हो चला था। हमारे चारों ओर बर्फ ही बर्फ नजर आ रही थी। रास्ते में अब कुछ ही लोग नजर आ रहे थे। बर्फीले रास्ते की शांति बेहद खूबसूरत लग रही थी। कभी-कभी होता है कि आपका बात करने का मन नहीं करता, हम बस चलते-रहते हैं। ऐसा ही कुछ इस समय मेरे साथ हो रहा था।

बर्फ में बने कुछ घर।

अब सफर खूबसूरत हो चला था। दूर-दूर तक बर्फ ही बर्फ नजर आ रही थी। बर्फ के बीच-बीच कुछ पेड़ों का होना इसे और भी खूबसूरत बना रहा था। हम चलते-चलते कभी छांव में होते तो कभी धूप में। चलते-चलते चढ़ाई खड़ी ही होती जा रही थी और सफर खूबसूरत हो रहा था। शायद ये सफर उतना खूबसूरत नहीं होता अगर आसपास बर्फ नहीं होती। ये भी हो सकता है कि हरे-भरे बुग्याल होते तो भी हम इसे सुंदर ही कहते। थोड़ी देर बाद हम एक ऐसी जगह पर पहुंचे जहां हमें कैंप नजर आ रहे थे। हम थके हुए तो थे लेकिन पहले बैस कैंप पर आने की खुशी थी। अब हम इन टेंटों को देखते हुए आगे बढ़ते जा रहे थे। हम अपने दो साथियों को भी आवाज दे रहे थे, जो हमसे अपने पैकेज की वजह से अलग थे। इस बैस कैंप को पार करके हम जुड़ा के तालाब पर जाना चाहते थे।

इन वादियों में।

बेस कैंप से जुड़ा का तालाब कुछ दूरी पर था। हम धीरे-धीरे उसी ओर चल दिए। धूप थी लेकिन पेड़ों और पहाड़ों की वजह से हम तक नहीं आ पा रही थी। थोड़ी देर में हमें एक बोर्ड दिखाई दिया। हरे रंगे के इस बोर्ड पर लिखा था, जुड़ा का तालाब। जुड़ा का तालाब समुद्र तल से 2,770 मीटर की उंचाई पर स्थित है। यहां आगे बढ़े तो बहुत सारे टेंट लगे हुए दिखाई दिए। आगे चलने पर एक जमा हुआ तालाब दिखाई दिया, यही जुड़ा का तालाब है। तालाब के बाहर एक बोर्ड लगा है। जिस पर लिखा है, कृप्या तालाब में जूते न ले जाएं। फिर भी यहां जो आ रहा था जूते पहनकर उस जमे हुए तालाब में जा रहा था। हम उस तालाब के अंदर नहीं गए।


वहीं पास में ही एक टी-प्वाइंट भी था, हम सब वहीं धूप में बैठ गए। हमारे पास अभी खूब टाइम था, सो हम बातें करने लगे। बातें करते-करते हम गाना गाने लगे, थोड़ी देर बाद हम झूमने भी लगे। हम जहां बैठे थे वहां से शानदार नजारा दिखाई दे रहा था। चारों तरफ बर्फ, जमी हुई झील और उसके आसपास देवदार के पेड़। उन पेड़ों पर बर्फ के गोलों वैसे ही लटके हुए थे, जैसे किसी पेड़ पर फल लदे रहते हैं। हमें बताया गया था कि ये तीन दिन का ट्रेक है। हमें लगा कि अभी तो हमें और चलना होगा लेकिन वहां के लोगों ने बताया कि आगे चलने पर थोड़ी ही देर में बेस कैंप आ जाएगा। इसलिए आज यहीं रूका जाए, हालांकि मैं इसके पक्ष में नहीं था लेकिन हम फिर भी यहां रूकने को तैयार हो गए।

वादियों के बीच सुर साधते साथी।

शाम होने वाली थी इसलिए हम अपना-अपना टेंट लगाने लगे। बर्फ के बीच में भी कुछ खाली जगह होती ही है। ऐसी ही खाली जमीन पर हमने अपने टेंट लगाए और कुछ देर के लिए उसी में घुस गए। बातें करते-करते थोड़ी देर में अंधेरा भी छा गया। हमारे पास पैसे तो थे नहीं इसलिए हम कुछ खरीदकर खा तो नहीं सकते लेकिन हमारे अपने बैग में खाने को बहुत कुछ चीजें थीं। हम अपने साथ ब्रेड, कैचप, बिस्कुट और बहुत सारी चाॅकलेट ले गए थे। हमने रात को इन्हीं को खाकर भूख मिटाई। मैं तो अब बस टेंट में घुसकर सोना चाहता था लेकिन मेरे साथी मुझे बाहर बुला रहे थे। मैं न चाहता हुए भी बाहर जाने लगा। अगर नहीं जाता तो शायद बहुत कुछ मिस कर देता। बाहर आया तो देखा कि अंधेरा हो गया था लेकिन सफेद चादर चांदनी रात का काम कर रही थी।

जुड़ा का तालाब

आसमां की ओर नजर उठाई तो नजरें वहीं ठहर गईं। मैं आसमां को देखकर अवाक था। पूरा आसमां तारों की चादर से भरा हुआ था। जमीं पर अंधेरा था और आसमान रोशनी से भरा हुआ था। मैंने इतना सुंदर आसमान पहले कभी नहीं देखा था। मौसम ठंडा हो रहा था लेकिन इस नजारे से दूर जाने का मन नहीं हो रहा था। कुछ जगहें होती हैं जिसे तस्वीरों में कैद नहीं किया जा सकता। ये रात भी उस जगह और पलों में से एक है। मैं उस समय उस दिन के बारे में नहीं, सिर्फ इस रात के बारे में सोच रहा था। मैं इसे काफी वक्त तक निहार रहा था ताकि ये मेरे जेहन में हमेशा के लिए चिपक जाए। थोड़ी देर बाद मैं इस तस्वीर को जेहन में लेकर नींद की आगोश में चला गया, एक खूबसूरत सुबह के लिए ।

Tuesday, 14 January 2020

केदारकंठाः पहाड़ पर आते ही हर चीज धीमी हो जाती है

यात्राओं का अपना अलग सुकून और एहसास है। कितना भी घूम लो कुछ दिनों में कम ही लगने लगता है। कुछ दिनों के बाद लगता है फिर से एक नई जगह पर निकल जाना चाहिए। लेकिन वो सफर हमेशा रहता है, जेहन में। जब भी उस सफर के बारे में सोचते हैं तो उसकी भीनी-भीनी याद चेहरे पर मुस्कान ले आती है। यात्राएं शायद इसलिए भी खूबसूरत होती हैं क्योंकि आप उस जगह से निकल जाते हैं लेकिन वो जगह आपमें से नहीं निकल पाती है। ऐसा ही खूबसूरत सफर है, केदारकंठा।



मेरे घूमने के वैसे तो कुछ उसूल नहीं लेकिन मेरा एक उसूल ये है कि सर्दियों में मैदानी इलाके में जाऊंगा और गर्मियों में पहाड़ों में खाक छानूंगा। लेकिन इस बार मेरा सर्दियों में बर्फ देखने का मन हुआ। बर्फ तो शिमला में भी पड़ती है और मैं जाना भी हिमाचल ही चाहता था। जाने से कुछ दिन पहले मुझे जाने क्या हुआ और मैंने केदारकंठा जाने का मन बना लिया। मैं अपने कुछ दोस्तों के साथ केदारकंठा ट्रेक करने जा रहा था। जाने वालों में पहले कुछ घटे फिर बढ़े और आखिर में हम 6 लोग कश्मीरी गेट से निकल पड़े।

दिल्ली से देहरादून


तारीख थी 24 दिसंबर 2019। जब हमने रात को कश्मीरी गेट से देहरादून के लिए बस पकड़ी। मैं कई बार दिल्ली से देहरादून जा चुका था, इसलिए बाहर देखने का कोई मन नहीं था। मैं बस यही सोच रहा था कि देहरादून से सांकरी कि बस मिल जाए। दिसंबर की रात थी और बाहर घुप्प घना कोहरा छाया हुआ था। बाहर बहुत मुश्किल से दिखाई दे रहा था। कुछ घंटों के बाद गाड़ी एक ढाबे पर रूकी, बाहर निकले तो बहुत ठंड थी। सब आपस में यही कह रहे थे कि यहां इतनी ठंड है तो केदारकंठा पर क्या होगा? शायद ऐसा ही होता है सफर में। हम उस जगह के बारे में पहुंचने से पहले ही सोचने लगते हैं। कुछ देर में बस चल पड़ी और हम फिर से घुप्प कोहरे में खो गए।



कुछ देर बाद सभी लोग सो गये। जब नींद खुली तो हम रूड़की पहुंच गए थे। मेरे कुछ साथी पहुंच रहे थे, देहरादून कब पहुंचेगे? मेरा उनको एक ही जवाब था, जब बस गोल-गोल घूमने लगे तो समझ लेना देहरादून पहुंच गए। कुछ देर बाद हम ऐसे ही रास्तों में चक्कर लगाने लगे। इतने कोहरा होने के बावजूद बस बहुत तेज जा रही थी। कुछ देर बाद देहरादून बस स्टैंड पहुंच गए। अब हमें मसूरी बस स्टैंड जाना था, जहां से सांकरी के लिए बस लेनी थी। हमने टैक्सी पकड़ी और रेलवे स्टेशन के लिए रवाना हो गए।

मैंने टैक्सी वाले से केदारकंठा के बारे में पूछा तो उसने मुझे आश्चर्य से देखा और कहा, वहां बहुत बर्फ है अभी जाना सही नहीं रहेगा। हमें निकले तो जाने के लिए थे, सो मैंने उसकी बातों पर ध्यान नहीं दिया और हंसकर टाल दिया। रेलवे स्टेशन के ठीक बगल में ही मसूरी बस स्टैंड है। सांकरी के लिए बस साढ़े सात बजे थी। गाड़ी बुकिंग से पता किया तो वो 8,000 में जा रही थी, हमने उससे जाना दिमाग से ही हटा दिया। हम इधर-उधर घूम रहे थे, रेलवे स्टेशन पूरा खाली था क्योंकि कुछ महीनों से स्टेशन बंद था।

एक और लंबा सफर


घूमते-घूमते हमें प्राइवेट बस मिल गई, जो हमें थोड़े कम पैसो में सांकरी ले जाने के लिए तैयार थी। सूरज की पहली किरण के साथ हम देहरादून से निकल पड़े। सांकरी जाने के लिए दो रास्ते हैं, एक मसूरी होते हुए और दूसरा विकासनगर होते हुए। हमारी बस विकासनगर होते हुए जा रही थी। मैं विकासनगर तक पहले भी आया हुआ था। उसके बाद का रास्ता मेरे लिए नया था। लोग चढ़ रहे थे, उतर रहे थे। ऐसा लग रहा था कि बस में सिर्फ हम ही हैं जो कई घंटों से एक ही सीट पर जमे हुए हैं। विकासनगर के बाद पहाड़ शुरू हो जाता है। रास्ते के ठीक बगल से नदी गुजर रही थी। पहाड़ तो बहुत उंचे-उंचे थे लेकिन इनमें बंजरपन नजर आ रहा था। पहाड़ पर पेड़ कम नजर आ रहे थे, जहां नजर आ रहे थे वो खूबसूरत भी लग रहे थे।



हमारा सफर टेढ़े-मेढ़े मोड़ों से आगे बढता जा रहा था। हम दिसंबर में जा रहे थे लेकिन यहां मौसम पूरी तरह से खुला हुआ था। धूप बहुत तेज थी, हालांकि खिड़की खोलने पर ठंडी हवा का झोंका लग रहा था। सीढ़ीदार खेत, छोटे-छोटे गांव और लोग इस सफर में मिल रहे थे। पहाड़ खूबसूरत तो होते हैं लेकिन यहां के लोगों की जिंदगी उतनी खूबसूरत नहीं होती। हर मौसम उनके लिए एक मुसीबत बनकर खड़ी रहती है। हम तो बस आते हैं और चले जाते हैं, बस इसलिए हमें ये खूबसूरत लगता है। रास्ते में मिलने वाला पानी अब गहरा हरा हो गया था। ऐसा लग रहा था कि किसी ने इस पानी में हरा रंग मिला दिया हो। इस हरे के बावजूद पानी के अंदर का सबकुछ दिखाई दे रहा था। रास्ते में कई पुराने पुल मिल रहे थे। उनको देखकर लग रहा था कि अंग्रेजों ने इन पुलों को एक पहाड़ को दूसरे पहाड़ से जोड़ने के लिए बनवाया होगा।

बरकोट होते हुए हमारा सफर सांकरी के पास ही पहुंच गया था। हमने ऐसे ही एक छोटे-से कस्बे में खाना खाया और आगे चल पड़े। शाम के वक्त हम पुरोला पहुंच गए। यहीं से पहली बार बर्फ की चादर दिखाई दी। हमें उसी बर्फ की चादर तक पहुंचना था। मैं पहले भी ऐसे ही बर्फ की चोटी देख चुका था। ऐसा लग रहा था पुरानी तस्वीर को फिर से देख रहा हूं। एहसास अब भी वैसा ही था, उस जगह से नजर हटाने का मन नहीं कर रहा था। पहाड़ पर आते ही हर चीज धीमी हो जाती है, धीमे हो जाते हैं हम भी। पुरोला से आगे बढ़े तो रास्ता घने जंगलों से होकर जाने लगा। धूप अभी गई नहीं लेकिन उजलका जाने लगा था। चीड़ के उंचे-उंचे पेड़ों को देखते हुए हम आगे बढ़ रहे थे। अब हम लगभग पहाड़ों की गोद में थे।

पहाड़ और जंगल के बीच


ऐसे जंगलों को देखने से अच्छा चलने में आनंद आता है। जब आप चल रहे होते हैं और धूप आप तक नहीं पहुंच पाती है। आप धूप को सिर्फ किरणों में छनकर देख पाते हैं। ऐसे घने जंगलों के बीच चलने का एहसास बहुत खूबसूरत होता है। थोड़ी देर बाद हम सांकरी पहुंच गए। सांकरी एक छोटा-सा गांव है, जहां कुछ दुकानें हैं और कुछ होटल हैं। हम यहां उतरे तो हमें सबसे पहले ठिकाना देखना था। हमारी जिससे पहचान थी वो यहां था नहीं सो हमें खुद ही सब कुछ देखना था। सीजन होने की वजह से होटल पूरी तरह से भरे हुए थे।



हमें होटल मिल नहीं रहा था। इसके अलावा हम होम स्टे में ठहर सकते थे। लेकिन वो सांकरी से 4 किमी. दूर था। हम उतने दूर जाना नहीं चाहते थे, तब हमारे काम आया एक नया कैफे। जिन्होंने कहा कि हम उनके कैफे के नीचे वाले कमरे में ठहर सकते हैं। कैफे के नीचे गए तो देखा कि कमरे की सारी खिड़कियां खुली हुई हैं और बिस्तर भी कुछ नहीं है। तब हमने स्लीपिंग बैग और मैट किराए पर लिया। मेरे पास ये पहले से था, इसलिए हमें इसकी जरूरत नहीं पड़ी। जब हम ये सब जुटा रहे थे तब हमें पता चला कि टेक पर आप बिना गाइड के नहीं जा सकते। बिना गाइड के आपको कोई सामान किराए पर नहीं मिलेगा।

बस ये रात ही है!

सांकरी में ही कुछ कंपनियां हैं, जो ये सब करवाती हैं। हमें भी गाइड करवाने का वायदा किया गया लेकिन रेट इतने ज्यादा था कि हमें बहुत महंगा पड़ रहा था। तब हमारे जैसे ही 6 लोगों की टीम को गाइड की जरूरत थी। हमने उनसे बात की और तब हम 12 लोगों के लिए गाइड करना महंगा नहीं था। हमें सुबह उठकर 8 बजे इस कंपनी के पास पहुंचना था, तब हमें गाइड मिलता।



उस छोटे-से कमरे में मैट बिछाकर, स्लीपिंग बैग में घुस गए। ये मेरी जिंदगी का पहला ऐसा अनुभव था और ये तो नए अनुभवों के फेहरस्ति की शुरूआत भर थी। सफर में एक वक्त ऐसा आता है जब आप बहुत कुछ सोच रहे होते हैं। मेरे लिए वो वक्त ये रात होती है जब मैं इस आज और आने वाले दिन के बारे में सोचता हूं। ये वक्त काफी कुछ सिखाता है और काफी कुछ समझाता है। तब हमें समझ आता है कि यात्राएं हमारे भीतर कितना बदलाव लेकर आई हैं।