Sunday 19 May 2019

क्वानू: कल्पना और सुंदरता से परे हैं ये छोटा-सा गांव

सबके भीतर कुछ न कुछ होता है, कोई उसको बाहर निकल लेता है तो कोई उसे हमेशा के लिए दबा देता है। मेरे भीतर भी कुछ है नई जगह पर जाना है और जानना। पहाड़ों में अक्सर मेरा चक्कर लगता रहता है। पहाड़ों में मुझे पहाड़ देखना पसंद नहीं है, मैं तो पहाड़ पर खड़े होकर मैदान ढ़ूढ़ता हूं। उसके लिए बहुत गहरे में थाह लेनी पड़ती है। ऐसी जगह बहुत कम है लेकिन जहां भी हैं वो स्वर्ग के समान हैं। इस बार मैं ऐसी ही एक जगह पर गया, क्वानू।


17 मई 2019 को मैं देहरादून से निकल पड़ा एक ऐसी जगह की ओर जिसका मुझे बस नाम पता था। वो क्या है, वो कैसी है कुछ भी नहीं पता था। बस इतना पता था, जगह नई है तो जाना ही चाहिए। मई के महीने में खूब गर्मी पड़ रही है लेकिन देहरादून में मैदानी इलाकों की तुलना में कम गर्मी है। सुबह-सुबह 6 बजे तो हवा बिल्कुल साफ और ठंडी लग रही थी। देहरादून से बस पकड़ी और निकल पड़े विकास नगर की ओर। विकास नगर देहरादून से लगभग 40 किलोमीटर की दूरी पर है। घुमक्कड़ लोग ऐसे समझ सकते हैं कि अगर आप पोण्टा साहिब जा रहे हैं तो रास्ते में विकास नगर जरूर मिलता है।

पहाड़ से पहले मैदान


मुझते लगता था कि उत्तराखंड में आखिरी मेदानी शहर देहरादून है। उसके बाद जिस तरफ भी जाएं सिर्फ पहाड़ ही मिलेगा, लेकिन इस रास्ते पर आने पर मैं गलत हो गया। देहरादून से विकासनगर तक आना वैसा ही लगता है जैसे हरिद्वार से ऋषिकेश। विकासनगर पूरी तरह से मैदानी शहर है, बड़ी-बड़ी दुकानें, कई चौराहे और सुबह-सुबह ठेले वाला नाश्ता। ऐसे ही किसी एक ठेले पर मैंने नाश्ता किया और चल पड़ा अपनी मंजिल की ओर। मेरे साथ कुछ स्थानीय लोग थे जिनकी मदद से मैं क्वानू जा रहा था।

विकासनगर सुबह-सुबह।

विकासनगर थोड़ा ही आगे निकले तो सामने पहाड़ दिख रहे थे। अब हम पहाड़ों में जा रहे थे। मैंने गाड़ी की सीट पर सिर टिकाया और पहाड़ों को, पीछे छूटते हुए देखने लगा। ये सिर टिकाकर बाहर देखना कितना अच्छा लगता है, उस वक्त सोचना बंद हो जाता है, बस देखा जाता है, जैसे सोते हुए हम सपना देखते हैं। हम घुमावदार रास्ते से उपर चढ़ते जा रहे थे, अब पहाड़-जंगल उपर भी थे और नीचे भी। रास्ते बेहद सुंदर लग रहे थे खासकर वो जो बिल्कुल मोड़ की तरह बने थे, बिल्कुल सांप के आकार के।


आपस में बात करते-करते हम कोटी पहुंच गये। कोटी से आगे चले तो एक डैम मिला, ‘इच्छाड़ी बांध’। ये डैम टौंस नदी पर बना हुआ है, टौंस नदी को शापित नदी भी कहा जाता है क्योंकि इसके पानी को कोई उपयोग नहीं कर पाता है। ये डैम आजाद भारत का पहला डैम है और आज भी बिजली बना रहा है। यहां हम रूके और डैम को कुछ देर देखा। पानी रोकने की वजह से पूरी झील गहरी हरी लग रही थी, मानो किसी ने झील में हरा रंग उड़ेल दिया हो।

कोटी में बना इच्छाड़ी डैम।

आसमान को छूते पहाड़

यहां से आगे चले तो गाड़ी में एक नई बहस छिड़ गई, डैम देश के लिए विकास या विनाश। जो आगे जाकर मोदी, नेहरू होने लगी। कुछ देर हिस्सा बनकर मैं उस बहस से दूर हो गया और फिर से प्रकृति को देखने लगा। अब पहाड़ कुछ अलग थे, बहुत उंचे और खड़े। जिनको उपर तक देखने के लिए सिर उठाना पड़ रहा था। यहां पहाड़ इतने उंचे थे कि उन पर बादलों की छाया पड़ रही थी। मैंने ऐसा ही कुछ पुजार गांव में भी देखा था, ये सब देखना अलग तो था लेकिन अच्छा लग रहा था।


रास्ते में जगह-जगह पत्थर पड़े थे, जो बता रहा था कि यहां भूस्खलन होना आम बात है। पहाड़ पर कुछ पुराने घर दिख रहे थे, खपरैल वाले। मुझे ये दोपहर अच्छी लग रही थी क्योंकि टहलना शाम और सुबह का शब्द है। लेकिन दोपहर में टहला जाए तो वो खुशनुमा होती है। खड़े पहाड़, उन पर दिखते घने जंगल और पास में बहती नदी कितना अच्छा सफर है, यही सोचते हुए आगे बढ़ा जा रहा थां रास्ते में जगह-जगह से थोड़ा-थोड़ा पानी गिर रहा था। मेरे साथ चलने वाले स्थानीय ने बताया ये स्रोत है यानी प्राकृतिक जल, जिसे नौला धारा भी कहा जाता है। ऐसे ही एक स्रोत पर गाड़ी रूकी और हमने पानी पिया। पानी बहुत ठंडा और मीठा था, ठंडे के मामले में तो फ्रिज भी इसके सामने फेल है। उससे भी बड़ी बात ये पानी प्यास बुझाती है।

पहाड़ों के बीच बहती टौंस नदी।

थोड़ी ही देर में हमें पहाड़ों से घिरा मैदान दिखा। जहां दूर-दूर तक पहाड़ दिख रहे थे लेकिन सामने फैला मैदान थे। इस जगह का नाम है ‘क्वानू’। क्वानू में तीन गांव है मझगांव, कोटा और मैलोट, हम जिस गांव में खड़े थे वो मझगांव है। खेतों में गेहूं में पकी हुई फसल दिखाइ्र दे रही थी और उसमें काम करती हुईं कुछ महिलाएं। इस गांव में महासू मंदिर है जिसको देखने पर लगता है कि कोई बौद्ध मंदिर है। इस गांव में अस्पताल है, इंटरमीडिएट तक स्कूल है लेकिन सिर्फ ये अच्छी-अच्छी बातें हैं।

स्वर्ग को नरक बनाने की पहल


यहां का दूसरा पहला बुरा और खतरनाक है। मैं जहां खड़ा था सामने मैदान था और मैदान को घेरे सामने पहाड़ था। जो हिमाचल प्रदेश में आता था, यहां उत्तराखंड और हिमाचल एक-दूसरे के पड़ोसी हैं। दोनों राज्यों को बांटती हुई बीच से एक नदी जा रही है, इसमें कुछ बुरा नहीं है। बुरा वो है जो अब मैं बताने जा रहा हूं। सरकार इन दोनों राज्यों के बीच में एक डैम बनाने जा रही है, किशाउ बांध। किशाउ बांध एशिया का दूसरा सबसे बड़ा डैम होगा, जिसकी उंचाई 236 मीटर होगी। डैम के बनने से हिमाचल के आठ गांव और उत्तराखंड के नौ गांव जलमग्न हो जाएंगे।

क्वानू का एक गांव- मझगांव।

मैंने इस जगह को देखा तो बहुत दुख हुआ कि सरकार विकास के नाम पर स्वर्ग जैसी खूबसूरत जगह को डुबोने जा रही है। क्वानू के लोग नहीं चाहते हैं कि ये डैम बने। इस डैम को बनाने की सबसे बड़ी और बुरी वजह है ‘दिल्ली’। दिल्ली के लोंगों को पानी की आपूर्ति करने के लिए यहां डैम बनाया जाएगा। मैं तो यहीं चाहूंगा कि ये डैम न बने और क्वानू बच जाए। इसके अलावा यही बढ़िया आइडिया यहीं के एक स्थानीय ने दिया। वो कहते हैं, सरकार को अगर डैम बनाना ही तो छोटा डैम बनाये, बिल्कुल इच्छाड़ी डैम की तरह। जिससे डैम भी बन जाएगा, देश का विकास भी हो जाएगा और हमारा क्वानू भी बच जाएगा।


क्वानू से लौटते हुए मैं सोच रहा था, उत्तराखंड में लोग मशहूर और नाम वाली जगह क्यों नहीं जाते है? वो क्वानू जैसी जगह पर जाकर छुट्टियां क्यों नहीं मनाते हैं। जहां शांति है, प्रकृति का सुकून और बड़े ही प्यारे लोग हैं। मंसूरी को पहाड़ों की रानी जरूर कहा जाता है लेकिन पहाड़ों में स्वर्ग ‘क्वानू’ है। जहां इतना मैदान है कि आप चलते-चलते थक जायेंगे, यहां चारों तरफ पहाड़ हैं जहां आप चढ़कर आसमान देख सकते हैं और रात के समय टौंस नदी के किनारे खुले आसमान रात गुजार सकते हैं। यहां हिमाचल भी है और उत्तराखंड भी।

4 comments:

  1. एक नये जगह क्वानू के बारे में जानकार अच्छा लगा...... बढ़िया जानकारी दी आपने ...

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  2. विकासनगर से कितना दूर है जी। किस रूट पर है।
    बहुत ही शानदार जगह है जी।

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  3. Prakrti ke saundr ka saral aur sahaj bhasa main kiu gai chitrn se kuano ko dekhne ki lalsa main

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