Friday 22 March 2019

हरिद्वार में कहीं इन ठोकरों पर जाना तो नहीं भूल गये

जब-जब मुझे लगता है कि जिंदगी में बोरियत आ रही है तो मैंं एक सफर पर निकल जाता हूं। कभी वो सफर लंबा होता है तो कभी बहुत छोटा। हरिद्वार मेरे लिये घर जैसा है। यहां की हर गली और दुकान सेे वाकिफ हूं। मैं इस शहर में कभी घूमने के लिहाज से नहीं आया। इस बार भी मैं हरिद्वार घूमने नहीं गया लेकिन खुशी है कि पुरानी गलियों और रास्तों को फिर से पैदल नाप आया हूं। हरिद्वार में सिर्फ हर की पौड़ी और गंगा नहीं है, यहां तो शोर और लुटाई के अलावा कुछ नहीं मिलेगा। असली हरिद्वार तो उन घाटों पर है। जहां लोग होते हुये भी नहीं जाते।


10 मार्च 2019। मैं आराम से दिल्ली में अपने रूम पर हफ्ते भर की थकान दूर कर रहा था। तभी मुझे एक काॅल आया और मैं हरिद्वार जाने के लिये तैयारी करने में लग गया। मैंने रात को 12 बजे कश्मीरी गेट से हरिद्वार के लिये बस पकड़ी और चल पड़ा फिर हरिद्वार के सफर पर। रास्ता जाना-पहचाना था, बस समय निकालना था। गाजियाबाद, मेरठ, मुजफ्फरनगर पार करते हुये बस आगे बढ़ गई। दिल्ली से आने पर जब रूड़की का आता है तो फिर लगता है अब हरिद्वार दूर नहीं है। रात के अंधेरे में सब शांत था सिवाय हाइवे पर दौड़ती गाड़ियों के। सुबह के 5 बजे होंगे बस ने मुझे एक चौराहे पर उतार दिया।

जानी-पहचानी जगह


ये हरिद्वार का प्राइवेट बस स्टैंड है। प्राइवेट बसें यहीं तक आती हैं और यहीं से ऋषिकेश, देहरादून के लिये निकल जाती हैं। शहर के अंदर सरकारी बस ही जाती है। जो पहली बार हरिद्वार आयेगा वो पक्का कन्फ्यूज हो जायेगा कि कहां जाया जाये? मुझे रास्ता पता था सो मैं पैदल ही बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन की ओर बढ़ गया। हरिद्वार यहां पूरी तरह शांत था। रास्ते में प्रेस क्लब  है जहां मैं काॅलेज के समय में कई बार आया था। यहीं दीवारों पर तस्वीरें उकेरी गई थीं। जिसमें एक योग के बारे में थी और एक भारत रत्न मदन मोहन मालवीय जी की थी। यूं ही चलते-चलते मैं बस स्टैंड और रेलवे स्टेशन के सामने आ गया था।

हरिद्वार की गलियों में।

मैं पैदल ही आगे चलने लगा। कुछ लोग बार-बार आये जिनमें कुछ होटल में रूकने के लिये कह रहे थे और कुछ हर की पौड़ी तक छोड़ने की बात कह रहे थे। मैंने दोनों चीजों के लिये मना कर दिया। मुझे हर की पौड़ी तो जाना था लेकिन मुझे पता था कि अंधेरे में हरिद्वार ठगने को तैयार बैठा रहता है। मैं पैदल ही हर की पौड़ी की ओर बढ़ गया। पहले के ही तरह मैं एक बार फिर अंधेरे की खामोशी में हरिद्वार देख रहा था। मैं उन्हीं गलियों में फिर से चल रहा था जहां दिन के उजाले में भीड़ और शोर-शराबा रहता है। इस बार फर्क इतना था कि इन गलियों में मैं भटक नहीं सकता था। इसलिये मैं जल्दी ही हर की पौड़ी पहुंच गया।

सुबह-सुबह हर की पौड़ी।

इतने महीनों से दिल्ली में रह रहा था तो सोचता था कि हरिद्वार और दिल्ली का मौसम एक जैसा है, देहरादून थोड़ा ठंडा है। यही सोचकर मैं बिना गर्म कपड़े के हरिद्वार आ गया था लेकिन अब ठंडी-ठंडी हवा मुझे कपा रही थी। मुझे समझ आ गया था कि हरिद्वार, हमेशा से दिल्ली से ज्यादा ठंडा रहता है। हर की पौड़ी का दृश्य वैसा ही था जैसा मैं हमेशा देखते आया था। कुछ लूटमारी, कुछ भक्ति और गंगा की कलकल करती आवाज। कुछ अलग था तो हर की पौड़ी पर बंदूक लिये तैनात सेना के कुछ जवान। शायद देश का इस समय जो माहौल है उसी को देखते हुये सुरक्षा के इंतजाम किये गये हैं।

सुबह-सुबह अविरल गंगा।

घाटों की सैर

सुबह के 6 बजते ही गंगा मैया की आरती शुरु हो गई। आरती देखने के बाद मैं हर की पौड़ी पर ही घाट के किनारे बैठ गया। हर की पौड़ी पर आने का सबसे बेहतर वक्त यही है। इस समय सबसे कम भीड़ रहती है और आराम से घाट पर बैठा जा सकता है। अब कुछ उजाला हो चला था कि मैं पुल पर आ गया और पार करते हुये हर की पौड़ी से बाहर निकल आया। कभी-कभी रास्ते ही अपनी मंजिल बना लेते हैं। वैसे ही मेरे रास्ते ने मेरी मंजिल बदल दी थी। मैं तो आटो पकड़ना चाह रहा था लेकिन कुछ पैदल चला तो एक नया रास्ता दिख गया और नई मंजिल।

हर की पौड़ी पर गंगा और शिव।

मैं इसी रास्ते पर आगे बढ़ गया। अब तक धूप भी आ चुकी थी लेकिन इतनी नहीं कि गर्मी लगे। मैं आराम से इस धूप में चल सकता था। कुछ आगे बढ़ा तो मुझे कुछ घाट दिखे। तभी मैंने प्लान बनाया कि अब इन घाटों को फिर से देखना है। सबसे पहले जो घाट मिला है उसका नाम है ‘स्व. श्रीमती फूलपति स्मृति घाट’। घाट पूरी तरह से पक्का बना हुआ है। नाम से ही पता चल रहा है कि इस घाट को किसी की स्मृति में बनाया गया है। घाट पर उनकी मूर्ति भी बनी हुई है। उसके बगल में ही श्री स्वामी गुप्ता नंद घाट है।

श्री स्वामी गुप्ता नंद घाट

यहां गंगा और लोग दोनों शांत हैं। यहां हर की पौड़ी की तरह न कलकल करती ध्वनि है और न ही लोगों का शोर। इसी घाट पर भगवान शिव का छोटा-सा मंदिर भी है और उस पर लिखा है- शिव की पौड़ी। घाट पूरी तरह साफ-सुथरा है और पक्का भी। यहां आराम से सीढ़ियों पर बैठा जा सकता है और गंगा को निहारा जा सकता है। यहीं पर सर्वानंद घाट है। अब तक मुझे मिले घाटों में सबसे बड़ा और अच्छा घाट। यहां पर भगवान शंकर का मंदिर है और उसके पुजारी मंदिर में जल चढ़ा रहे हैं। यहां सीढ़ियों के बाद एक बैरक बनाई गई है, सुरक्षा के लिये। यहीं से एक पुल दिख रहा है जहां से गाड़ियां, बसें जा रही हैं। ये घाट दिखने में तो अच्छा है लेकिन हाईवे होने के कारण शोर बहुत है। यहां कुल चार घाट हैं उनको देखने के बाद मैं हाइवे पर आ गया।

घाट से ऐसी दिखती है गंगा।

घाट नहीं, ठोकर है


रोड पार करके मैं अपनी-जानी पहचानी सड़क की ओर जाने लगा। तभी मुझे वो कच्चा पुल दिखा और मेरे एक दोस्त की मानें तो लवर प्वाइंट। जिसके कहने पर हम यहां एक बार चले आये थे और बाद में खुद पर हंस रहे थे। पुरानी जगहों पर आकर पुराने दिन और बातें याद आने लगती हैं। मैं उसी लवर प्वाइंट पर पहुंच गया। यहां से दूर-दूर तक गंगा, पहाड़ और जंगल ही दिखता है। कुछ देर यहां बिताने के बाद मैं वापस अपनी जानी-पहचाने रास्ते पर चलने लगा। मुझे पता था ये रास्ता मुझे कहां ले जायेगा?


कुछ देर चलने के बाद मैं फिर से एक घाट पर आ गया। इस घाट का नाम गुरू कार्षिणि घाट है। मुझे पहला घाट मिला जहां बहुत सारे पेड़ लगे थे। मैं हरिद्वार के भूपतवाला इलाके में आ गया था। यहां घाट पर एक बोर्ड लगा था, जिस पर लिखा था- घाट पर अस्थियां विसर्जित करना मना है। एक-दो घाट पार करने के बाद कुछ घाट कच्चे हो गये थे। अब घाट की जगह ठोकर ने ले ली थी। ठोकर थे तो घाट ही लेकिन उनको कहा ठोकर ही जाता था। मैं ठोकर नंबर 5 पर आ गया था। यहां से गंगा बहुत अच्छी दिख रही थी।

ठोकर नंबर 5 से दिखती गंगा।

ये पूरा इलाका साधु-संतों से भरा हुआ है। सबकी कुटिया बनी हुई है और कुछ की तो कुटिया हाई-फाई बनी हुई है। जिनकी कुटिया पर टाटा स्काई और डिश टीवी की छतरी देखी जा सकती है और कुछ में से तो टीवी चलने की आवाज भी सुनाई देती है। इसके बाद महाराजा अग्रसेन घाट, सच्चिदानंद घाट, गीता कुटीर घाट मिले। इस लाइन में 16 घाट हैं। ये घाट तब तक मिलते-रहते हैं जब तक भारत माता मंदिर नहीं आ जाता। मैंने पहली बार इन घाटों को एक-साथ देखा था। पहले तो बस गंगा किनारे आता था। आज वही गंगा किनारा शांति और शोर में अंतर समझा रही थीं। हरिद्वार अध्यात्मिक क्षेत्र है। यहां शोर से बचना है तो इन घाटों पर आना चाहिये।

Monday 4 March 2019

जयपुर 5: शानदार जगह की कभी तुलना नहीं की जा सकती जैसे कि ये शहर

जयपुर का सिटी पैलेस बेहद शानदार था। जहां आकर लगा कि राजपूतों की शान आज भी बरकरार है। वो विशाल राजदरबार और वो झूमर सब राजमहल जैसा प्रतीत करा रहे थे। मैं बहुत कुछ देख चुका था लेकिन अभी भी बहुत कुछ देखना चाहता था। जब अच्छी जगह पहुंच जाते हो तो कहीं ठहरने का मन नहीं होता। ठहरना भी है तो उस जगह क्यों न ठहरें जहां कुछ देखा भी जा सके और सुकून भी मिले। सिटी पैलेस को देखने के बाद अगला पड़ाव था- हवा महल।


इंटरनेट पर जयपुर के बारे में कुछ डालते हैं तो हवा महल की तस्वीर जरूर आती है। जब मैं आमेर किला जा रहा था तब ऑटो वाले भइया ने कहा था। हवा महल के अंदर कुछ नहीं है जो है वो बाहर ही है। तब मुझे एक घूमने वाले शख्स ने कहा था, ऐसी गलती मत करना। हवा महल के बाहर तो कुछ नहीं है, अंदर बहुत खूबसूरत है। उनकी ही बात दिमाग में रखकर अब मैं हवा महल के लिये निकल पड़ा। हवा महल सिटी पैलेस से दूर नहीं है, मैं पैदल ही हवा महल के लिये निकल पड़ा।


हवा महल को 1799 में महाराजा सवाई प्रताप सिंह ने बनवाया था। महाराजा राधाकृष्ण के अगाध भक्त थे। उन्होंने हवा महल को राधाकृष्ण को ध्यान में रखकर ही बनवाया था। इसका आकार बाहर से ऐसा है जैसे भगवान कृष्ण का मुकुट हो। महाराजा सवाई प्रताप सिंह ने ये महल पांच मंजिला बनवाया। हर एक तल का नाम भी है। रतन मंदिर, विचित्र मंदिर, प्रकाश मंदिर और हवा मंदिर। पांचवी मंजिल ‘हवा महल’ के नाम पर ही इस महल का नाम रखा गया है। इस महल में महाराजा की रानियां समय बिताती थीं। इस महल में छोटी-छोटी 953 खिड़कियां हैं। जहां से रानियां शहर को देखा करती थीं।


कुछ ही मिनटों में हम हवा महल के सामने खड़े थे। जो हवा महल रात को रोशनी से चमक रहा था। वो दिन के उजाले में अच्छा लग रहा था लेकिन और भी अच्छा लगता। अगर हवा महल पर धूल की परत जमा न होती। शायद ये महल बिना धूल के और भी चमकदार होता। देश में आधुनिकता इतनी बढ़ गई है कि पुरानेपन को देखना तो पसंद करते हैं लेकिन उसे साफ करना नहीं। अब जब साफ होगी तब साफ होगी। हमें तो अब अंदर से हवा महल देखना था। हवा महल के हम सामने खड़े थे लेकिन यहां तो कोई गेट था ही नहीं। वहीं पास के ही एक दुकानदार से पूछा तो उसने कहा- हवा महल के सामने कोई गेट नहीं है। दो गेट हैं वो भी थोड़ा आगे चलकर। हवा महल के दायें तरफ चल पड़े। थोड़ा आगे चलने पर लिखा हुआ था, हवा महल की ओर जाने का रास्ता।


उस छोटे-से रास्ते में हम आगे बढ़ चले। यहां भी एक पेड़ के नीचे वही फोटो वाला खेल चल रहा था जिसे मैं दो दिन से देखता आ रहा था। हर कोई राजस्थानी बनकर, एक फोटो ले जाना चाहता था। उसी को देखते हुये हम आगे चल पड़े। हम खुली जगह पर आ गये थे, यहां भीड़ थी। भीड़ इसलिये नहीं कि यहां कुछ देखने लायक था। भीड़ इसलिये क्योंकि यहां से हमें अंदर जाने की अनुमति मिलने वाली थी। उसके लिये लंबा इंतजार करना था। 50-60 लोगों की लाइन में खड़े होकर इंतजार की लड़ाई लड़नी थी। लगभग आधे घंटे के बाद मेरा नंबर आया। 50 रुपये का टिकट था। स्टूडेंट की आईडी होती तो सिर्फ 5 रुपये का। इसके बाद हम हवा महल के अंदर गये।



अंदर आये तो किसी आंगन में आ गये। जहां से इस महल की बड़ी-बड़ी दीवारें और मुकुटरूपी छोर दिख रहा था। इस महल के वास्तुकार हैं लालचंद उस्ताद। इस महल के दो गेट है आनंदपोलि और चन्द्रपोलि। मैं जहां से आया वो चन्द्रपोलि था। ये महल पिरामिड के आकार का बना हुआ है और 87 फीट उंचा है। महल के बीचोंबीच फुव्वारा बना हुआ है जो इस समय बंद है। वहीं पास में ही बहुत से कमरे बने हुये हैं। जिसमें महाराजा और उनकी रानी के भी कमरे है। सामने ही बहुत उंची दीवार है। जहां बाकी तल बने हुये हैं। उपर जाने के लिये सीढ़ियां नहीं हैं बल्कि संकरे ढलान रास्ता बना हुआ है। हर तल पर छोटी-छोटी खिड़कियां बनी हुई हैं। जहां से शहर को देखा जा सकता है। यहां से हम सबकुछ देख पा रहे थे लेकिन कोई हमें नहीं देख सकता। शायद इसलिये यहां अक्सर रानियां समय बिताती थीं और शहर को देखा करती थीं।


इन रंग बिरंगी खिड़कियों के अलावा यहां बेहतरीन गुंबद भी बने हुये हैं। जहां ठहरकर अच्छा लगता है। यहां इतना शोरशराबा नहीं था जैसा सिटी पैलेस और नाहरगढ़ किले में था। यहां लगता है कि आराम-आराम से चला जाये और ठहरकर सबकुछ देखा जाये। नक्काशी में हवा महल थोड़ा-थोड़ा नाहरगढ़ किले की तरह ही है। यहां पर खड़े होकर एक किला भी दिखता है शायद नाहरगढ़ का किला है। इसके अलावा उंचाई से शहर को दूर-दूर तक देखा जा सकता है। सबसे उपरी मंजिल का नाम है हवा मंदिर। जिसके नाम पर हवा महल का नाम रखा गया है। यहां सबसे कम जगह है। यहां पर एक गाॅर्ड भी है जो ज्यादा लोगों को रूकने नहीं दे रहा था।


इस जगह पर आकर बेहद अच्छा लगता है। ये तल इतनी उंचाई पर है कि हवा आपको छूकर निकलती है। यहां सुकून है और शहर को देख पाने वाला शानदार नजारा है। थोड़ी देर रूककर मैं नीचे आने लगा। हवा महल को देख चुका था अब बाहर आने की बारी थी। नीचे आया तो कुछ और भी मिल गया, एक पुरातत्व संग्रहालय। यहां बहुत प्रकार की मूर्तियां भी हैं और वाद्य यंत्रों की जानकारी। ऐसे वाद्ययंत्र रखे हुये हैं जो आज उपयोग में ही नहीं हैं। इसके बाद मैं हवा महल की सैर करके बाहर निकल आया। जो जयपुर आये उसे हवा महल सिर्फ बाहर से ही नहीं देखना चाहिये। बाहर तो सिर्फ फोटो काॅर्नर है। अंदर जानकारी भी है और सुकून भी।

अल्बर्ट हाॅल


महल का सुकून और सुंदरता अब भी मन में बसी हुई थी। लेकिन मुझे आगे भी बढ़ना था और भी कुछ देखने के लिये। हवा महल की सुंदरता और सुकून को लेकर आगे बढ़ गया अल्बर्ट हाॅल की ओर। अल्बर्ट हाॅल एक म्यूजिम है जिसे महाराजा राम सिंह ने ब्रिटेन के प्रिंस अल्बर्ट के स्वागत के लिये लिये 1876 में निर्माण शुरू करवाया था। 10 साल बाद ये म्यूजिम बनकर तैयार हुआ और 1887 में ये लोगों के लिये खोल दिया। अब तक मेरे साथ वो शख्स थे जो मुझे यूं ही मिल गये थे। अब उनको वापस जाना था लेकिन अल्बर्ट हाॅल म्यूजिम रास्ते में ही पड़ रहा था। तो उन्होंने मुझे अल्बर्ट हाॅल म्यूजिम के पास छोड़ और वे आगे बढ़ गये। मैं भी आगे बढ़ गया अल्बर्ट हाॅल की ओर। आगे बढ़ना कितना आसान है न, बस मंजिल होनी चाहिये।


मैं जिस रोड से आ रहा था उसके सामने ही अल्बर्ट हाॅल म्यूजिम दिख रहा था। कुछ ही मिनटों बाद मैं उस अल्बर्ट हाॅल के आगे खड़ा था। जहां सभी लोगों तस्वीरें लेने में लगे हुयं थे। अल्बर्ट हाॅल देखने में संग्रहालय नहीं बल्कि कोई महल लग रहा था। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि अंदर जाने का रास्ता क्या है? या फिर अंदर जाने की मनाही है। मैं ये सब सोच ही रहा था कि पास में ही खड़े एक बुजुर्ग शख्स बोले- रास्ता आगे से है। मैंने मुस्कुराकर उनको धन्यवाद दिया और आगे बढ़ गया। मुझे अल्बर्ट हाॅल का गेट मिल गया था। वहीं पास में ही चिड़ियाघर भी था लेकिन मुझे चिड़ियाघर नहीं जाना था। एक बार फिर से मुझे टिकट लाइन में लगना था। यहां भी टिकट में स्टूडेंट को फायदा था, लेकिन मुझे तो 40 रुपये ही देने थे।


टिकट लेकर महल की तरह दिखने वाले इस हाॅल के अंदर चला गया। बाहर जितना अच्छा लग रहा था अंदर भी अच्छा था। सबसे पहले एक आंगन मिलता है। वैसे ही जैसे जयपुर के अब तक के सभी महलों मंे मिला था। आंगन में फुव्वारा लगा हुआ था। आंगन की दीवारें संगमरमर पत्थर की थी। इसके बाद तो मैं दीवारों और नक्काशी पर ध्यान ही नहीं दे पाया। इस म्यूजिम में मैंने वो दुनिया देखी जो मैंने कभी नहीं देखी थी।


सबसे पहले वाले हाॅल में राजपूताना शाही सामानों को संग्रह था। जिसमें बहुत सारी सुराही, हुक्का इतना बड़ा जितनी मेरी हाईट, ऐसे ही सारे बर्तन इस हाॅल में थे। इसी हाॅल की गैलरी में बहुत बड़ी ढाल भी है। जिस पर चित्रकारी की गई है। जिसमें घुड़सवारी से लेकर जंग दिखाई गई है। ऐसी ही और भी ढाले हैं जिन पर कई कलाकृतियां उकेरी हुई हैं। जो उस समय की राजशाही प्रणाली को दर्शाता है। इसके आगे एक और हाॅल है जिसमें यूरोप की शैली को दिखाया गया है। जिसमें ग्रीक शैली भी है। उनकी कलाकृति भी रखी हुई है और उनकी जानकारी भी दी गई है। इसमें यूरोप शैली का कांच मंजूषा भी है और शाही योद्धा का चित्र भी। इसके अलावा ग्रीक-रोमन संग्रह है, चीन, अरबी, इंडोनेशिया, श्रीलंकाई संग्रह भी रखा हुआ है।


हर देश के बारे में कुछ न कुछ रखा हुआ है। जापान के बने बर्तन हैं तो इंडोनिशेया की युद्ध आकृति बनी हुई है। म्यांमार की कला में कंघा, बैलगाड़ी को रखा हुआ है। बुद्ध की भी बहुत सारी मूर्तियां रखी हुई हैं। इंग्लैंड से डाॅल्टन और मिंटन के चीनी बर्तन बने हुये हैं। ऐसे ही कई बर्तन और कलाकृति रखी हुई हैं। अगर हरेक के बारे में थोड़ा-थोड़ा भी बताया जाये तो बहुत कुछ जाना जा सकता है। ये तो सिर्फ एक तल की बात है। ऊपरी तल में तो गजब का संग्रह है।


यहां आज को भी दिखाया है और कल को भी। हम समय के साथ कैसे बदल गये हैं? इस संग्रह में आकर देखा जा सकता है। यहां हमको हर तरह से दिखाने की कोशिश की गई है। हमारी पूरी दिनचर्या, हमारे काम, हमारे सभी भगवान, हमारे संग्रह सब कुछ यहां हैं। हमारे हिंदी मौसम की जानकारी और समय हम क्या करते थे? जैसे-जैसे संग्रहालय में आगे बढ़ते हैं। हम इन सबके बारे में जान लेते हैं। बड़ी बात यहां फोटो लेना मना नहीं है। यहां कई सारे वाद्ययंत्र भी रखे हुये हैं, हथियार भी रखे हुये हैं। जो समय के साथ बदलते गये हैं। एक बड़ा वाद्ययंत्र रखा हुआ है। जो बिल्कुल सितार की तरह है लेकिन वो सितार नहीं है। वो रबाब है जो शायद आज हमारे संगीत जीवन से चला गया है। उस दौर के महिलाओं के आभूषण भी इस म्यूजिम भी हैं।


इतना कुछ देखने के बाद मैं नीचे आने लगा। म्यूजिम में इतना कुछ देखने के बाद मैं मन ही मन खुश था। लेकिन अभी तो और भी खुश होने वाली चीज देखने वाला था-ममी। ये ममी वाला काॅन्सेप्ट स्कूल टाइम में इतिहास की बुक में पढ़ा था। अल्बर्ट हाॅल म्यूजिम में ममी भी है। बहुत लोग उसी जा रहे थे मैं भी चल दिया। ममी के इस रास्ते में रोशनी कम थी। थोड़ा आगे जाने पर दो बड़े-बड़े पुतले थे जो किताबों में देखी। मिस्र की कलाकृति के बारे में जो सुना था वो म्यूजिम में देख रहा था। यहां बहुत सारी ममी के पुतले बने हुये थे और एक ममी भी थी।


जो ममी के तरह लग रही थी। अब वो प्रतीकात्मक था या सच। ऐसा कुछ वहां लिखा नहीं था लेकिन ममी के बारे में पूरी जानकारी दी गई थी। ममी के साथ क्या दफनाया जाता है? ममी की प्रक्रिया क्या है? ये सारी जानकारी यहां दी गई थी। कुछ देर रूकने के बाद मैं वहां से निकल आया। शाम हो चली थी फिर भी मेरे पास समय था। मैं उसी आंगन में बैठ गया जहां आखिरी बार दीवारों पर ध्यान गया था। मैं जयुपर की पूरी यात्रा के बारे में सोच रहा था। हर महल के बाद मैं यही सोच रहा था कि ये बेहतरीन था, सबसे अच्छा। अब सब कुछ देखने बाद मुझे लगता है सब कुछ देखे बिना यात्रा पूरी नहीं होती है। सब कुछ कभी देखा भी नहीं जा सकता। मैं भी सब कुछ नहीं देख पाया लेकिन जो देखा वो बेहतरीन था। मुझे कहां ताड़पत्र पर रामायण देखने को मिलती।


कुछ देर बाद चलते-चलते मैं जयपुर को सलाम देने लगा। क्योंकि कुछ देर बाद मुझे जयपुर छोड़ना था। अभी भी बहुत कुछ रह गया था जो अगली बार के लिये छोड़ दिया था। जयपुर खूबसूरत है बेहद खूबसूरत। जिसे कुछ दिनों में नहीं जाना जा सकता। मैंने इस बार जयपुर को देखा था जाना नहीं था। कभी आउंगा दोबारा इस शहर में, देखने नहीं जानने।