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Sunday, 7 November 2021

जयपुर 2: दोस्तों के साथ कुछ नई तो कुछ देखी हुई जगहों को किया एक्सप्लोर

अगले दिन उठे तो पता चला कि जयपुर में इंटरनेट बंद हो गया है। हमारे होटल में वाई फाई तो हमें काम करने में कोई दिक्कत नहीं होने वाली थी। अगले दिन सब लोगों ने घूमने से मना कर दिया। मैं और दया भाई बिना इंटरनेट के घूमने निकल पड़े। हमने गलता जी मंदिर जाने का प्लान बनाया। हमने लोकल बस ली और उसके बाद ई-रिक्शा। जिसने हमें उस जगह पहुँचा दिया, जहाँ से हमें गलता जी मंदिर के लिए चढ़ाई करनी थी।

हमें हरे-भरे जयपुर के नजारे देखते हुए चढ़ाई करने लगे। पहले चढ़ाई की और फिर बहुत नीचे उतर गये। नीचे जाकर पता चला कि इस रास्ते से गलता जी मंदिर बंद है। फिर क्या था? कुछ फोटों खींची और वापस चल पड़े। इस बार चढ़ने में थकान आ रही थी। कुछ जगह ठहरने के बाद हमने चढ़ाई कर ही ली। इस रास्ते में बंदर बहुत थे जो उछल-कूद काफी कर रहे थे। रास्ते में ही सूर्य मंदिर था। हमने सूर्य मंदिर से जयपुर शहर का शानदार नजारा देखा। इसके बाद हमने म्यूजियम जाने के बारे में सोचा।

अल्बर्ट हॉल म्यूजियम

कुछ देर बाद हम ई-रिक्शा से अल्बर्ट हॉल म्यूजियम पहुँच गये। टिकट लेकर हम लोग म्यूजियम के अंदर पहुँच गये। जयपुर में ये म्यूजियम एक अलग ही दुनिया है। इतना बड़ा म्यूजियम मैंने अब तक कहीं नहीं देखा है या फिर मैं उन जगहों पर गया नहीं हूं जहाँ इससे भी बड़ा म्यूजियम है। अंदर घुसते ही हमें आंगल मिला, जिसकी दीवारें संगमरमर की थीं। यहाँ पर कई हॉल थे जिसमें पूरी दुनिया का कुछ न कुछ सामान रखा हुआ था। जिसमें रोमन, चीन, अरबी आदि संग्रह रखा हुआ है। कई प्रकार की मूर्तियां, वाद्य यंत्र और भी बहुत कुछ रखा हुआ था।


कुछ आगे बढ़े तो हमें ममी दिखाई पड़ी। पहले ये ममी म्यूजियम के तलघर पर हुआ करती थी लेकिन हाल ही में आई बाढ़ की वजह से इसका स्थान बदल दिया गया है। मैंने खबरों में इस बारे में पढ़ा था। इसके बाद हम संग्रहालय के बाहर आ गये। हमने अब तक कुछ खाया नहीं था। हमने आसपास नजरें दौड़ाईं तो फूड कोर्ट दिखाई दिया। 10 रुपए का टिकट लेकर अंदर पहुँच गये। 

राजस्थानी थाली


यहाँ पर खूब सारी दुकानें लगी हुईं थीं। खाने वालों के लिए ये जगह किसी जन्नत से कम नहीं है। हमने पहले सारी दुकानों का मुआयना किया। इसके बाद राजस्थानी थाली खाने का मन बना लिया। हमने एक राजस्थानी थाली ली जिसमें दो सादा रोटी, 2 बेजड़ रोटी, बेसन गट्टा, कढ़ी पकौड़ा, टिपोरा और लहसुन चटनी थी। इस राजस्थानी थाली का स्वाद लेकर मजा ही आ गया। इसके बाद हम लोग अपने होटल पहुँचे और काम पर लग गये।

दिन 3

एक बार फिर से हम पांचों लोग एक साथ घूमने निकल पड़े। आज हमें आमेर किला देखना था। कुछ देर बाद हम आमेर वाली बस में बैठ गये। कुछ देर बाद हम आमेर वाले रास्ते पर थे। बीच में नाहरगढ़ वाले रास्ते में उतर गये। यहाँ टैक्सी वालों ने जब अपना रेट बहुत ज्यादा बताया तो हमने पहले आमेर को देखना ही सही समझा। टैक्सी से हम आमेर पहुँच गये।

हम आरामबाग होते हुए सीढ़ियां चढ़कर आमेर पहुँच गये। जिस दिन हम आमेर पहुँचे, उस दिन विश्व पर्यटन दिवस था। इस वजह से घूमने के लिए आज कोई टिकट नहीं था। कुछ देर बाद दीवान-ए-आम में थे। आमेर में भीड़ बहुत थी लेकिन सब अपने में मस्त थे। कुछ देर बाद हम दीवान-ए-खास में पहुँच गये। यहीं पर शीश महल भी है। यहाँ भी एक खूबसूरत बाग है।

इस जगह को देखते हुए हम मानसिंह महल की ओर बढ़ गये। कहा जाता है कि यहीं पर राजा का परिवार रहता था। इन कमरों की चित्रकारी देखकर आपका दिल खुश हो उठेगा। आमेर किले में सीसीडी भी है। हम लोग सीसीडी की छत पर पहुँच गए, जहाँ से जयगढ़ और खूबसूरत घाटी दिखाई दे रही थी। यहाँ कॉफी पीने के बाद हमने नाहरगढ़ जाने का मन बनाया। हममें से दो लोग वापस चले गये और हम तीनों टैक्सी से नाहरगढ़ के लिए निकल पड़े।

नाहरगढ़

आमेर से नाहरगढ़ का रास्ता बेहद खूबसूरत है। रास्ते में जयगढ़ किला भी पड़ता है लेकिन हमारे पास एक ही किले को देखने का वक्त था। कुछ देर हम एक व्यू प्वाइंट मिला, जहाँ से जल महल का खूबसूरत नजारा दिखाई पड़ा। यहाँ कुछ देर रूके और फिर आगे बढ़ गये। कुछ देर बाद नाहरगढ़ किले में थे। ताड़ी गेट से होते हुए हमने किले में प्रवेश किया। यहीं पर वैक्स म्यूजियम भी है। हम किला देखने आए थे सो हम आगे बढ़ गये।

कुछ देर बाद हम माधवेन्द्र महल में थे। इस बार महल में बहुत कुछ बदल गया था। पहले हर कमरे में कुछ न कुछ रखा हुआ था लेकिन इस बार कमरे खाली थे। इन सबको देखते हुए हम किले की छत पर पहुँच गये। यहाँ से जयपुर का सबसे खूबसूरत नजारा देखने को मिलता है। दूर-दूर तक सिर्फ शहर ही शहर दिखाई दिया। इसके बाद हम वापस लौट पड़े। जलमहल पर हमें टैक्सी वाले ने छोड़ा। जहाँ हमने कुछ देर जलमहल को देखा। जब हमें बस आती हुई दिखाई तो हम अपने होटल के लिए निकल पड़े। 

अगले दिन सुबह-सुबह हम जयपुर से निकल पड़े। इन तीन दिनों में जयपुर की कई सारी जगहों को देखा। जिनमें से कुछ पहले देखी हुईं थी लेकिल कुछ नई जगहों पर भी गया। इन नई जगहों ने मेरे इस सफर को और भी यादगार बना दिया। मैं अब जयपुर नहीं जाना चाहता लेकिन क्या पता फिर से किस्मत इसी शहर में ले आये।

यात्रा का पिछला भाग यहां पढ़ें।

 

Saturday, 6 November 2021

जयपुरः इस बार इस शहर को पहले से ज्यादा नया और सुंदर पाया

राजस्थान भारत के सबसे खूबसूरत राज्यों में से एक है। मुझे खूबसूरत महल और किलों वाले इस प्रदेश में जाना पसंद है। जब भी मौका मिलता है मैं राजस्थान के किसी शहर में पहुँच जाता हूं। इसी तरह मैंने पुष्कर, अजमेर, जैसलमेर और जयपुर को एक्सप्लोर कर चुका हूं। मैं दोबारा किसी शहर में जाना पसंद नहीं करता हूं लेकिन न चाहते हुए भी जयपुर बार-बार पहुँच जाता हूं। हर बार जयपुर में कुछ अलग और नया पाता हूं। इस बार भी मेरे साथ कुछ ऐसा ही हुआ।

मैं अपने दो दोस्तों के साथ हरियाणा के हिसार में था। हम लोगों के पास 3-4 दिन थे सो मैंने उनसे आगरा चलने के लिए कहा। उन्होंने जयपुर घूमने की बात कहीं। काफी चर्चा के बाद जयपुर के लिए मैंने हाँ कर दिया। शाम को हम हिसार बस स्टैंड गये। जहाँ हमें जयपुर के लिए रात में कोई बस नहीं मिली। किस्मत से एक ट्रेन में सीटें खाली थीं। हमने रात 12 बजे की टिकट बुक कर ली। हमारे दो दोस्त दूसरे होटल में ठहरे हुए थे। हम समय बिताने के लिए वहाँ पहुँच गए।

ट्रेन पकड़ पाएंगे?

जब हमने उनको अपना प्लान बताया तो पहले तो उन्होंने न चलने की बात कही लेकिन आखिरी समय पर हाँ कर दी। इसके बाद जल्दी-जल्दी सामान समेटा और रोड पर आ गए। अब रेलवे स्टेशन के लिए कोई टैक्सी न मिले। हमें लगने लगा कि अब तो टैक्सी मिलना बहुत मुश्किल है। तभी एक टैक्सी सामने से आते हुए दिखाई दी। फिर क्या था कुछ ही मिनटों में हम हिसार रेलवे स्टेशन पर पहुँच गए। ट्रेन पहले से लगी हुई थी सो हम सब अपनी-अपनी सीट पर जाकर लेट गए।

जयपुर रेलवे स्टेशन।
जब सुबह आंख खुली तो जयपुर आने ही वाले थे। कुछ ही देर बाद हम जयपुर रेलवे स्टेशन पर थे। पहली बार मैं जयपुर रेलवे स्टेशन को देख रहा था। अब तक जयपुर बस से ही आया था। थोड़ी देर बाद हम जयपुर की गलियों में होटल खोज रहे थे। तो तय ये हुआ था कि पूरे दिन घूमा जाएगा और शाम से काम किया जाएगा। कुल मिलाकर हमें वर्क फ्रॉम ट्रैवल करना था। हमें यहाँ आकर पता चला कि जयपुर में कोई परीक्षा होनी है कि जिसकी वजह से एक दिन के लिए इंटरनेट को बंद किया जाएगा।

अब हमें ऐसा होटल चाहिए था जहाँ वाई फाई अच्छा चलता हो। एक टैक्सी वाला मिला जिसने हमसें कहा कि ऐसा होटल हमारे बजट में दिलवाएगा। फिर क्या था? हम जयपुर के होटलों को खोजने लगे। कई सारे होटलों में गये। कहीं बजट बहुत ज्यादा था तो कहीं वाई फाई नहीं था। आखिर में बाईस गोदाम के पास एक ऐसा ही होटल मिल गया। हमने सामान रखा और तैयार होकर जयपुर को घूमने के लिए निकल गये।

दिन 1

हवा महल

हवा महल।
कुछ देर बाद हवा महल के टिकट काउंटर से अपना टिकट ले रहे थे। हम लोगों के पास स्टूडेंट आईडी थी सो हमें टिकट काफी सस्ता मिल गया। हवा महल को 1799 में महाराजा सवाई प्रताप सिंह ने बनवाया था। राजा राधाकृष्ण के भक्त थे। इसका आकार बाहर से भगवान कृष्ण के मुकुट की तरह ही है। हवा महल पांच मंजिला है। हर तल का एक नाम भी है जैसे रतन मंदिर, विचित्र मंदिर, प्रकाश मंदिर और हवा मंदिर। पांचवी मंजिल का नाम हवा महल के नाम पर रखा गया है। इस महल में छोटी-छोटी 953 खिड़कियां हैं।

कुछ ही देर बाद हम पांचों लग हवा महल के अंदर थे। यहाँ आकर मुझे अपना पुराना घुमा हुआ सब कुछ याद आने लगा। उस समय मैंने जयपुर को अकेला नापा था। महल के बीचों बीच फुव्वारा बना हुआ है जो इस समय चल रहा था। दिखने में अच्छा भी लग रहा था। कुछ देर बाद हम दूसरी मंजिल पर पहुँच गये। जब हम सबसे उपर थे तो बारिश होने लगी। जिसन मौसम को और भी खूबसूरत बना दिया। महल की खिड़कियां बंद थीं इसलिए हवा नहीं आ रही थी।

सिटी पैलेस


हवा महल को देखने के बाद हम एक जगह खाना खाया। उसके बाद हम में से दो लोग होटल वापस लौट गये। बाकी हम तीन सिटी पैलेस देखने निकल पड़े। शहर के बीचों बीच बने इस महल को 1729 में महाराजा सवाई जय सिंह माधो ने करवाया था। 1732 में ये महल बनकर तैयार हो गया था। टिकट लेकर हम पैलेस के अंदर चले गये। बीच में एक आंगन जैसी इमारत थी। जहाँ झालर लगी हुई थी, कुछ हथियार टंगे हुए थे। इसके अलावा चांदी के दो बहुत बड़े कलश रखे थे। इसको देखने के बाद हम मुबारक महल को देखने निकल गये। इसमें राजा-रानी के अलग-अलग प्रकार के कपड़ रखे हुए थे। यहाँ पर फोटो खींचना मना है। 

इसके बाद हमने शस्त्रागार दीर्घा में भी बहुत सारे शस्त्र देखे। अगला पड़ाव चन्द्र महल था। जहाँ राजा का दरबार लगता था। ये महल काफी बड़ा था। महल में लगी झालर बेहद खूबसूरत लग रही थी। यहाँ भी फोटो खींचना मना था। यहाँ सभी महाराजाओं की तस्वीर ओर उनके बारे में लिखा हुआ था। इसके बाद हम बाहर निकल आये। इसके बाद बाकी दोनों लोग होटल के लिए निकल गये और मैं फिर से एक नई जगह को देखने के लिए बेताब था।

गणेश मंदिर जाना है!

इसके बाद किसी ने बताया कि रानी बाजार के बगल से गणेश मंदिर जा सकते हैं। मैं पैदल-पैदल ही लोगों से पूछते हुए चलता गया। किसी ने बताया कि ई-रिक्शा ले लो। मैंने ई-रिक्शा ले लिया, जिसने मुझे एक तिराहा पर छोड़ दिया। कुछ देर पैदल चला तो एक पुरानी इमारत सी दिखी। पास आकर देखा तो उस पर लिखा था गैटोर की छत्रियां। ये वो जगह है जहाँ राजाओं की समाधि है। मैं अंदर गया तो अंदर का नजारा देखकर दिल खुश हो गया। संगमरमर और बलुआ पत्थर से बनी ये जगह बेहद खूबसूरत है।

पहाड़ी के बिल्कुल तलहटी पर स्थित ये जगह वाकई सुंदर है। सबसे अच्छी बात ये है कि यहाँ बहुत भीड़ नहीं थी। इसकी वजह से शहर से दूर होना हो सकता है या फिर लोगों को इस जगह के बारे में पता नहीं होगा। इस जगह को देखने के बाद बगल से लगभग 200 सीढ़ियां गणेश मंदिर की ओर गई हैं। मैं तेज धूप में उन पर चढ़ने लगा। कुछ ही देर बाद मैं थक गया और पसीने से तर-तर हो गया। ऐसे ही चलते-चलते मैं गणेश मंदिर पहुँच गया। यहाँ से जयपुर खूबसूरत लग रहा था। उंचाई से सब कुछ खूबसूरत लगता है। कुछ देर यहाँ ठहरने के बाद वापस चलने लगा। शाम हो गई थी सो अब मैं भी होटल के लिए निकल गया। जयपुर का सफर अब तक मेरे लिए खूबसूरत रहा।

जयपुर की आगे की यात्रा पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

Sunday, 1 December 2019

पुष्कर: अनुभवों से भर देती हैं ऐसी यात्राएं

लोगों की भीड़ में खुद को अकेला पाना हमेशा बुरा नहीं होता। किसी जगह को पैदल नापते समय मैं अक्सर अकेला ही होता हूं। लेकिन वो अकेलापन मुझे बहुत कुछ सिखाता है। खुद से मिलना, एक जगह को अच्छे से जानना, यही सब होता है मेरे अकेले होने में। अकेले घूमने का ये मतलब नहीं है कि किसी से बात न की जाए। मुझे उन लोगों पर बहुत आश्चर्य होता है जो बस यात्रा करते हैं। यात्रा करते समय आप इतने लोगों से मिलते हैं तो उनसे बात जरूर कीजिए। ये अनुभव ही आपके सफर को बेहद खूबसूरत बनाते हैं। मैं अभी घूम रहा हूं कभी पहाड़ों में तो कभी मैदानों में। इस बार मैं निकल पड़ा था राजस्थान की खूबसूरती देखने।


राजस्थान के नाम पर मैंने पहले सिर्फ जयपुर ही देखा था। वो मेरी पहली सोलो ट्रिप थी। उसके बाद मेरा राजस्थान जाना हो ही नहीं पाया। जब मुझे पुष्कर मेला के बारे में पता चला तो मैंने जाने का प्लान बना लिया। तारीख थी 8 नंवबर 2019, जाने से कुछ घंटे पहले मैंने अपने दोस्तों को इस सफर के बारे में बताया। ताज्जुब की बात थी कि वो भी जाने को तैयार हो गए। कुछ घंटे पहले जहां हम सिर्फ दो लोग थे, अब हम 7 लोग हो चुके थे। रात के 11 बजे हम दिल्ली के इफको चौक पर बस का इंतजार कर रहे थे। हम सरकारी बस का इंतजार कर रहे थे और हमारे सामने बार-बार एसी बस आ रही थी। हमने एसी बस का रेट पूछा तो उसने बहुत ज्यादा बताया लेकिन उसने एक दूसरी स्कीम बताई। उसने हमें फर्श पर बैठने को कहा और किराया भी बहुत कम था। फिर क्या था हम तैयार हो गए? और निकल पड़े एक नए सफर पर।

सफर है! चलता रहेगा


हमारा प्लान कुछ ऐसा था कि हम जयपुर जाएंगे और कुछ घंटे जयपुर में रहेंगे। उसके बाद पुष्कर निकलेंगे। मैं बस के फर्श पर बैठे-बैठे सोच रहा था कि ये सफर कैसा होगा? बहुत वक्त के बाद इतने लोगों के साथ कहीं घूमने जा रहा था। मुझे अकेले चलते रहना बहुत पसंद है, तब आपके पास वक्त ही वक्त होता है। मगर अब सोचता हूँ दोस्तों के साथ भी सफर होने चाहिए, जिन्हें बाद में याद किया जा सके। शायद ये मेरा वही सफर होने वाला था। कुछ घंटों के बाद हम जयपुर पहुंच गए थे। जयपुर मेरे लिए जाना-पहचाना शहर था। पुरानी जगह पर दोबारा आना बहुत सुकून वाला होता है। हर जगह से आपकी पुरानी यादें जुड़ जाती हैं। मैं जयपुर को देख तो आज में रहा था लेकिन जेहन में एक साल पुराना सफर चल रहा था।


सुबह के पांच बजे थे। जयपुर में सुबह-सुबह क्या किया जाए? ये सवाल मेरे पास पिछले साल थे, लेकिन अब मेरे पास जवाब था। सुबह खूबसूरत लगती है, उसकी लालिमा से। जब सूरज को निकलते देखते हैं तो वो पल सबसे सुकून वाला होता है। उसी लालिमा को देखने के लिए हमें एक पहाड़ी पर जाना था। जो नाहरगढ़ किले के रास्ते में पड़ती है। अगर हम गाड़ी करके जाते तो बहुत समय लगता। तब मैंने एक और रास्ता बताया, जो छोटा लेकिन कठिन था। जल महल के पास से होकर जाने वाली गलियों से हम शहर के बाहर आ गए। हम जंगल जैसे एक सुनसान इलाके में थे। अब हमें यहां से एक पहाड़ की सीधी चढ़ाई करनी थी। मुश्किल ये थी कि कोई भी इसके लिए तैयार नहीं था। किसी ने भी नहीं सोचा था कि राजस्थान में उन्हें पहाड़ चढ़ना होगा।

थकान भरी चढ़ान


थोड़ी देर में हम पहाड़ चढ़ने लगे। जैसे-जैसे हम चढ़ रहे थे हमें नजारा तो खूबसूरत लग रहा था लेकिन थकान भी हो रही थी। सुबह-सुबह हमें गर्मी का एहसास हो रहा था। खिसकते पत्थरों, कांटों और जंगलों को पार करके ऐसी जगह पहुंचे। जहां से सामने जल महल दिख रहा था। इस ऊंचाई से नीचे जल महल और दूर तक आसमान दिख रहा था। हम सब थके हुए थे लेकिन ये नजारा थकान को दूर करने के लिए काफी था। हम अरावली की एक चोटी पर खड़े होकर अरावली की श्रंखला को देख रहे थे। हम काफी देर तक उस लालिमा के लिए रूके लेकिन शायद बादलों ने उसे छुपा लिया था। फिर भी हमने यहां आकर काफी कुछ पा लिया था। जो देखा वो नजारे भी बेहद खूबसूरत थे।

सुबह का नजारा।

पहाड़ों में आवाज गूंजती है और फिर वापस लौटती है। ये फिल्मों में देखा था लेकिन यहां पर हम वही कर रहे थे। हम एक-दूसरे का नाम पुकार रहे थे, जो कुछ पलों में वापस आ रहा था। ऐसा लग रहा था कि पहाड़ हमारा कहा दुहरा रहा है। पहाड़ पर जितना चढ़ना कठिन है, उससे कहीं ज्यादा कठिन है उतरना। नीचे उतरने में हम पूरी तरह से खाली हो जाते हैं। हम जल्दी उतरना चाहते हैं लेकिन उतर नहीं पाते हैं। फिसलते-संभलते हुए हम नीचे उतरे और चल पड़े बस स्टैंड की ओर। हमारा जयपुर का सफर इतना ही था, अब हमें पुष्कर के लिए निकलना था। लेकिन उससे पहले हमें कुछ खाना भी था। जयपुर आओ और प्याज-कचैरी न खाओ। तो फिर थोड़ा मजा किरकिरा हो सकता है। जयपुर की फेमस दुकान रावत कचैरी वाले से हमने कचैरी ली और निकल पड़े अगले पड़ाव की ओर।

अगले पड़ाव की ओर


घूमते समय मुझे खुद से कहना नहीं पड़ता कि मैं खुश हूं। यात्राओं में आप सच में खुश होते हैं, हर कदम, हर जगह आपके चेहरे पर मुस्कान बनाए रखती है। उसी मुस्कान को लिए मैं पुष्कर की ओर जा रहा था। पुष्कर की बस में लग रहा था कि मैं राजस्थान में हूूं। कुछ बुजुर्ग दिखे, जिनकी लंबी-लंबी मूंछे और सिर पर पगड़ी थी। मुझे लगता है कि राजस्थान के गांवों में अब भी पुरानापन है, वही परिवेश और संस्कृति है। हालांकि सड़कें और सड़क किनारे के घर मुझे इस बात को झुठलाने के लिए भी कहते हैं। ये सब वैसा ही दिख रहा था जैसे हमारे तरफ की जगह हो। लोगों में राजस्थान में दिख रहा था, बस जगह में देखना बाकी था। जयपुर से पुष्कर की दूरी 150 किमी. है। पुष्कर से 15 किमी. पहले अजमेर आता है।

साथी हाथ बढ़ाना।

बस में बैठे-बैठे अजमेर में मुझे बहुत बड़ी झील दिखाई दी। वो सड़क किनारे काफी दूर तक गई थी। ये शहर भी देखने लायक है लेकिन अभी हमें सबसे पहले एक मेले को देखना था। अजमेर से पुष्कर जाते समय अचानक नजारे बदलने लगते हैं। सुंदर-सुंदर घाटियां, पहाड़ नजर आने लगते हैं। बस भी गोल-गोल घूमने लगती है। ये सब देखकर लगता है कि पुष्कर की खूबसूरती शुरू हो गई है। यात्रा एक क्षण से दूसरे क्षण तक पहुंचने की एक लंबी छलांग है। कभी-कभी वो क्षण आपको यात्रा के बीच में ही मिल जाता है और कभी-कभी अंत तक भी नहीं। इसलिए मैं ऐसी छलांगे लगाता रहता हूं उस क्षण को पाने के लिए।

आगे की यात्रा पढ़ें।

Monday, 4 March 2019

जयपुर 5: शानदार जगह की कभी तुलना नहीं की जा सकती जैसे कि ये शहर

जयपुर का सिटी पैलेस बेहद शानदार था। जहां आकर लगा कि राजपूतों की शान आज भी बरकरार है। वो विशाल राजदरबार और वो झूमर सब राजमहल जैसा प्रतीत करा रहे थे। मैं बहुत कुछ देख चुका था लेकिन अभी भी बहुत कुछ देखना चाहता था। जब अच्छी जगह पहुंच जाते हो तो कहीं ठहरने का मन नहीं होता। ठहरना भी है तो उस जगह क्यों न ठहरें जहां कुछ देखा भी जा सके और सुकून भी मिले। सिटी पैलेस को देखने के बाद अगला पड़ाव था- हवा महल।


इंटरनेट पर जयपुर के बारे में कुछ डालते हैं तो हवा महल की तस्वीर जरूर आती है। जब मैं आमेर किला जा रहा था तब ऑटो वाले भइया ने कहा था। हवा महल के अंदर कुछ नहीं है जो है वो बाहर ही है। तब मुझे एक घूमने वाले शख्स ने कहा था, ऐसी गलती मत करना। हवा महल के बाहर तो कुछ नहीं है, अंदर बहुत खूबसूरत है। उनकी ही बात दिमाग में रखकर अब मैं हवा महल के लिये निकल पड़ा। हवा महल सिटी पैलेस से दूर नहीं है, मैं पैदल ही हवा महल के लिये निकल पड़ा।


हवा महल को 1799 में महाराजा सवाई प्रताप सिंह ने बनवाया था। महाराजा राधाकृष्ण के अगाध भक्त थे। उन्होंने हवा महल को राधाकृष्ण को ध्यान में रखकर ही बनवाया था। इसका आकार बाहर से ऐसा है जैसे भगवान कृष्ण का मुकुट हो। महाराजा सवाई प्रताप सिंह ने ये महल पांच मंजिला बनवाया। हर एक तल का नाम भी है। रतन मंदिर, विचित्र मंदिर, प्रकाश मंदिर और हवा मंदिर। पांचवी मंजिल ‘हवा महल’ के नाम पर ही इस महल का नाम रखा गया है। इस महल में महाराजा की रानियां समय बिताती थीं। इस महल में छोटी-छोटी 953 खिड़कियां हैं। जहां से रानियां शहर को देखा करती थीं।


कुछ ही मिनटों में हम हवा महल के सामने खड़े थे। जो हवा महल रात को रोशनी से चमक रहा था। वो दिन के उजाले में अच्छा लग रहा था लेकिन और भी अच्छा लगता। अगर हवा महल पर धूल की परत जमा न होती। शायद ये महल बिना धूल के और भी चमकदार होता। देश में आधुनिकता इतनी बढ़ गई है कि पुरानेपन को देखना तो पसंद करते हैं लेकिन उसे साफ करना नहीं। अब जब साफ होगी तब साफ होगी। हमें तो अब अंदर से हवा महल देखना था। हवा महल के हम सामने खड़े थे लेकिन यहां तो कोई गेट था ही नहीं। वहीं पास के ही एक दुकानदार से पूछा तो उसने कहा- हवा महल के सामने कोई गेट नहीं है। दो गेट हैं वो भी थोड़ा आगे चलकर। हवा महल के दायें तरफ चल पड़े। थोड़ा आगे चलने पर लिखा हुआ था, हवा महल की ओर जाने का रास्ता।


उस छोटे-से रास्ते में हम आगे बढ़ चले। यहां भी एक पेड़ के नीचे वही फोटो वाला खेल चल रहा था जिसे मैं दो दिन से देखता आ रहा था। हर कोई राजस्थानी बनकर, एक फोटो ले जाना चाहता था। उसी को देखते हुये हम आगे चल पड़े। हम खुली जगह पर आ गये थे, यहां भीड़ थी। भीड़ इसलिये नहीं कि यहां कुछ देखने लायक था। भीड़ इसलिये क्योंकि यहां से हमें अंदर जाने की अनुमति मिलने वाली थी। उसके लिये लंबा इंतजार करना था। 50-60 लोगों की लाइन में खड़े होकर इंतजार की लड़ाई लड़नी थी। लगभग आधे घंटे के बाद मेरा नंबर आया। 50 रुपये का टिकट था। स्टूडेंट की आईडी होती तो सिर्फ 5 रुपये का। इसके बाद हम हवा महल के अंदर गये।



अंदर आये तो किसी आंगन में आ गये। जहां से इस महल की बड़ी-बड़ी दीवारें और मुकुटरूपी छोर दिख रहा था। इस महल के वास्तुकार हैं लालचंद उस्ताद। इस महल के दो गेट है आनंदपोलि और चन्द्रपोलि। मैं जहां से आया वो चन्द्रपोलि था। ये महल पिरामिड के आकार का बना हुआ है और 87 फीट उंचा है। महल के बीचोंबीच फुव्वारा बना हुआ है जो इस समय बंद है। वहीं पास में ही बहुत से कमरे बने हुये हैं। जिसमें महाराजा और उनकी रानी के भी कमरे है। सामने ही बहुत उंची दीवार है। जहां बाकी तल बने हुये हैं। उपर जाने के लिये सीढ़ियां नहीं हैं बल्कि संकरे ढलान रास्ता बना हुआ है। हर तल पर छोटी-छोटी खिड़कियां बनी हुई हैं। जहां से शहर को देखा जा सकता है। यहां से हम सबकुछ देख पा रहे थे लेकिन कोई हमें नहीं देख सकता। शायद इसलिये यहां अक्सर रानियां समय बिताती थीं और शहर को देखा करती थीं।


इन रंग बिरंगी खिड़कियों के अलावा यहां बेहतरीन गुंबद भी बने हुये हैं। जहां ठहरकर अच्छा लगता है। यहां इतना शोरशराबा नहीं था जैसा सिटी पैलेस और नाहरगढ़ किले में था। यहां लगता है कि आराम-आराम से चला जाये और ठहरकर सबकुछ देखा जाये। नक्काशी में हवा महल थोड़ा-थोड़ा नाहरगढ़ किले की तरह ही है। यहां पर खड़े होकर एक किला भी दिखता है शायद नाहरगढ़ का किला है। इसके अलावा उंचाई से शहर को दूर-दूर तक देखा जा सकता है। सबसे उपरी मंजिल का नाम है हवा मंदिर। जिसके नाम पर हवा महल का नाम रखा गया है। यहां सबसे कम जगह है। यहां पर एक गाॅर्ड भी है जो ज्यादा लोगों को रूकने नहीं दे रहा था।


इस जगह पर आकर बेहद अच्छा लगता है। ये तल इतनी उंचाई पर है कि हवा आपको छूकर निकलती है। यहां सुकून है और शहर को देख पाने वाला शानदार नजारा है। थोड़ी देर रूककर मैं नीचे आने लगा। हवा महल को देख चुका था अब बाहर आने की बारी थी। नीचे आया तो कुछ और भी मिल गया, एक पुरातत्व संग्रहालय। यहां बहुत प्रकार की मूर्तियां भी हैं और वाद्य यंत्रों की जानकारी। ऐसे वाद्ययंत्र रखे हुये हैं जो आज उपयोग में ही नहीं हैं। इसके बाद मैं हवा महल की सैर करके बाहर निकल आया। जो जयपुर आये उसे हवा महल सिर्फ बाहर से ही नहीं देखना चाहिये। बाहर तो सिर्फ फोटो काॅर्नर है। अंदर जानकारी भी है और सुकून भी।

अल्बर्ट हाॅल


महल का सुकून और सुंदरता अब भी मन में बसी हुई थी। लेकिन मुझे आगे भी बढ़ना था और भी कुछ देखने के लिये। हवा महल की सुंदरता और सुकून को लेकर आगे बढ़ गया अल्बर्ट हाॅल की ओर। अल्बर्ट हाॅल एक म्यूजिम है जिसे महाराजा राम सिंह ने ब्रिटेन के प्रिंस अल्बर्ट के स्वागत के लिये लिये 1876 में निर्माण शुरू करवाया था। 10 साल बाद ये म्यूजिम बनकर तैयार हुआ और 1887 में ये लोगों के लिये खोल दिया। अब तक मेरे साथ वो शख्स थे जो मुझे यूं ही मिल गये थे। अब उनको वापस जाना था लेकिन अल्बर्ट हाॅल म्यूजिम रास्ते में ही पड़ रहा था। तो उन्होंने मुझे अल्बर्ट हाॅल म्यूजिम के पास छोड़ और वे आगे बढ़ गये। मैं भी आगे बढ़ गया अल्बर्ट हाॅल की ओर। आगे बढ़ना कितना आसान है न, बस मंजिल होनी चाहिये।


मैं जिस रोड से आ रहा था उसके सामने ही अल्बर्ट हाॅल म्यूजिम दिख रहा था। कुछ ही मिनटों बाद मैं उस अल्बर्ट हाॅल के आगे खड़ा था। जहां सभी लोगों तस्वीरें लेने में लगे हुयं थे। अल्बर्ट हाॅल देखने में संग्रहालय नहीं बल्कि कोई महल लग रहा था। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि अंदर जाने का रास्ता क्या है? या फिर अंदर जाने की मनाही है। मैं ये सब सोच ही रहा था कि पास में ही खड़े एक बुजुर्ग शख्स बोले- रास्ता आगे से है। मैंने मुस्कुराकर उनको धन्यवाद दिया और आगे बढ़ गया। मुझे अल्बर्ट हाॅल का गेट मिल गया था। वहीं पास में ही चिड़ियाघर भी था लेकिन मुझे चिड़ियाघर नहीं जाना था। एक बार फिर से मुझे टिकट लाइन में लगना था। यहां भी टिकट में स्टूडेंट को फायदा था, लेकिन मुझे तो 40 रुपये ही देने थे।


टिकट लेकर महल की तरह दिखने वाले इस हाॅल के अंदर चला गया। बाहर जितना अच्छा लग रहा था अंदर भी अच्छा था। सबसे पहले एक आंगन मिलता है। वैसे ही जैसे जयपुर के अब तक के सभी महलों मंे मिला था। आंगन में फुव्वारा लगा हुआ था। आंगन की दीवारें संगमरमर पत्थर की थी। इसके बाद तो मैं दीवारों और नक्काशी पर ध्यान ही नहीं दे पाया। इस म्यूजिम में मैंने वो दुनिया देखी जो मैंने कभी नहीं देखी थी।


सबसे पहले वाले हाॅल में राजपूताना शाही सामानों को संग्रह था। जिसमें बहुत सारी सुराही, हुक्का इतना बड़ा जितनी मेरी हाईट, ऐसे ही सारे बर्तन इस हाॅल में थे। इसी हाॅल की गैलरी में बहुत बड़ी ढाल भी है। जिस पर चित्रकारी की गई है। जिसमें घुड़सवारी से लेकर जंग दिखाई गई है। ऐसी ही और भी ढाले हैं जिन पर कई कलाकृतियां उकेरी हुई हैं। जो उस समय की राजशाही प्रणाली को दर्शाता है। इसके आगे एक और हाॅल है जिसमें यूरोप की शैली को दिखाया गया है। जिसमें ग्रीक शैली भी है। उनकी कलाकृति भी रखी हुई है और उनकी जानकारी भी दी गई है। इसमें यूरोप शैली का कांच मंजूषा भी है और शाही योद्धा का चित्र भी। इसके अलावा ग्रीक-रोमन संग्रह है, चीन, अरबी, इंडोनेशिया, श्रीलंकाई संग्रह भी रखा हुआ है।


हर देश के बारे में कुछ न कुछ रखा हुआ है। जापान के बने बर्तन हैं तो इंडोनिशेया की युद्ध आकृति बनी हुई है। म्यांमार की कला में कंघा, बैलगाड़ी को रखा हुआ है। बुद्ध की भी बहुत सारी मूर्तियां रखी हुई हैं। इंग्लैंड से डाॅल्टन और मिंटन के चीनी बर्तन बने हुये हैं। ऐसे ही कई बर्तन और कलाकृति रखी हुई हैं। अगर हरेक के बारे में थोड़ा-थोड़ा भी बताया जाये तो बहुत कुछ जाना जा सकता है। ये तो सिर्फ एक तल की बात है। ऊपरी तल में तो गजब का संग्रह है।


यहां आज को भी दिखाया है और कल को भी। हम समय के साथ कैसे बदल गये हैं? इस संग्रह में आकर देखा जा सकता है। यहां हमको हर तरह से दिखाने की कोशिश की गई है। हमारी पूरी दिनचर्या, हमारे काम, हमारे सभी भगवान, हमारे संग्रह सब कुछ यहां हैं। हमारे हिंदी मौसम की जानकारी और समय हम क्या करते थे? जैसे-जैसे संग्रहालय में आगे बढ़ते हैं। हम इन सबके बारे में जान लेते हैं। बड़ी बात यहां फोटो लेना मना नहीं है। यहां कई सारे वाद्ययंत्र भी रखे हुये हैं, हथियार भी रखे हुये हैं। जो समय के साथ बदलते गये हैं। एक बड़ा वाद्ययंत्र रखा हुआ है। जो बिल्कुल सितार की तरह है लेकिन वो सितार नहीं है। वो रबाब है जो शायद आज हमारे संगीत जीवन से चला गया है। उस दौर के महिलाओं के आभूषण भी इस म्यूजिम भी हैं।


इतना कुछ देखने के बाद मैं नीचे आने लगा। म्यूजिम में इतना कुछ देखने के बाद मैं मन ही मन खुश था। लेकिन अभी तो और भी खुश होने वाली चीज देखने वाला था-ममी। ये ममी वाला काॅन्सेप्ट स्कूल टाइम में इतिहास की बुक में पढ़ा था। अल्बर्ट हाॅल म्यूजिम में ममी भी है। बहुत लोग उसी जा रहे थे मैं भी चल दिया। ममी के इस रास्ते में रोशनी कम थी। थोड़ा आगे जाने पर दो बड़े-बड़े पुतले थे जो किताबों में देखी। मिस्र की कलाकृति के बारे में जो सुना था वो म्यूजिम में देख रहा था। यहां बहुत सारी ममी के पुतले बने हुये थे और एक ममी भी थी।


जो ममी के तरह लग रही थी। अब वो प्रतीकात्मक था या सच। ऐसा कुछ वहां लिखा नहीं था लेकिन ममी के बारे में पूरी जानकारी दी गई थी। ममी के साथ क्या दफनाया जाता है? ममी की प्रक्रिया क्या है? ये सारी जानकारी यहां दी गई थी। कुछ देर रूकने के बाद मैं वहां से निकल आया। शाम हो चली थी फिर भी मेरे पास समय था। मैं उसी आंगन में बैठ गया जहां आखिरी बार दीवारों पर ध्यान गया था। मैं जयुपर की पूरी यात्रा के बारे में सोच रहा था। हर महल के बाद मैं यही सोच रहा था कि ये बेहतरीन था, सबसे अच्छा। अब सब कुछ देखने बाद मुझे लगता है सब कुछ देखे बिना यात्रा पूरी नहीं होती है। सब कुछ कभी देखा भी नहीं जा सकता। मैं भी सब कुछ नहीं देख पाया लेकिन जो देखा वो बेहतरीन था। मुझे कहां ताड़पत्र पर रामायण देखने को मिलती।


कुछ देर बाद चलते-चलते मैं जयपुर को सलाम देने लगा। क्योंकि कुछ देर बाद मुझे जयपुर छोड़ना था। अभी भी बहुत कुछ रह गया था जो अगली बार के लिये छोड़ दिया था। जयपुर खूबसूरत है बेहद खूबसूरत। जिसे कुछ दिनों में नहीं जाना जा सकता। मैंने इस बार जयपुर को देखा था जाना नहीं था। कभी आउंगा दोबारा इस शहर में, देखने नहीं जानने।

Thursday, 28 February 2019

जयपुर 4ः ये शहर फाहे की तरह है जो थकने ही नहीं देता है

जयपुर शहर के फाहे ने मुझे सुस्ताने का मौका ही नहीं दिया था। अब जो यहां बैठा हूं तो चलने का मन ही नहीं हो रहा। मैं सोचने लगा आज के पूरे सफर के बारे में आमेर, जयगढ़ और नाहरगढ़। तीनों किलों की अपनी खासियत है। कोई किला खूबसूरत है तो किसी किले की दीवार पर आज बस रहा है। जयपुर की तीन दीवारी मैं चुका था। अब मुझे देखना था शहर और शहर के किनारे। मैं उठा और चल दिया, अपने हिस्से का शहर देखने।


मैं अब सपाट रास्ता पर था लेकिन अभी भी सड़क दूर थी। यहां शांति थी और पशु-पक्षियों की चहचहाट। तभी मुझे मोर दिखाई दिये, जितने आगे बढ़ा मोर की संख्या भी बढ़ती गई। मैं वहां रूका नहीं, सीधा जल महल की ओर बढ़ने लगा। अब मैं जयपुर की गलियों में था, कोई काॅलोनी थी। घर वैसे ही थे जैसे हर शहर में आधुनिकता से परिपूर्ण। आगे कुछ बच्चे मिले जो पतंग लेकर खुश थे। मैं सोच रहा था कि यहां पतंग उड़ाना, गिल्ली-डंडे जैसा है। हर कोई पतंग उड़ा लेता है, हमारे यहां तो बचपन जाता है तो पतंग की डोर भी छूट जाती है।

जल महल


करीब पांच मिनट के बाद मैं मैन रोड पर आ गया। रोड के उस पार मेला लगा हुआ था। यहां मेला था क्योंकि यहां जल महल है। जल महल जिसे बस देख सकते हैं, निहार सकते हैं, तस्वीर ले सकते हैं। मगर उस जगह पर जा नहीं सकते। जल महल तो दूर के ढोल सुहाने जैसा है। इस महल को 1799 में राजा सवाई जयसिंह ने बनवाया था। इस महल में वे अपनी रानियों के साथ समय बिताते थे। जल महल झील के बीचों-बीच बना हुआ है। यहां वो सब है जो एक ऐतहासिक जगह को बाजार बनाने के लिये काफी होता है। खाने के लिये रोड किनारे ठेले ही ठेले लगे हुये हैं।

जल महल।
आमेर किले में हाथी की सवारी से पैसे कमाये जा रहे थे और यहां उंट की सवारी से। यहां के मार्केट में कुछ अलग है तो वो राजस्थानी दुकानें हैं। जहां राजस्थानी जूती, शाही सामान के नमूने। जिनसे लोग अपने घर की साजो-सज्जा बढ़ाते हैं। जयगढ़ किले की तरह यहां भी राजस्थानी कपड़ों में तस्वीरों का दौर चल रहा था। अगर राजस्थानी कुछ खरीदना है तो यहां से खरीदना चाहिये। महल के अंदर तो महंगाई ने पकड़ बना रखी है। यहां इसके अलावा कुछ देखने को है नहीं तो मैं वहां से आगे बढ़ गया। लोकल बस ली और हवा महल की ओर चल दिया।


मेरा आज हवा महल देखने का कोई प्लान नहीं था। बस रात को कैसा लगता है बस इसी वजह से हवा महल जाने का मन बनाया। रात के वक्त जयपुर की सड़कों पर जाम लग जाता है, हर बड़े शहर की तरह। जल महल से मैं लोकल बस पर चढ़ गया। कुछ मिनटों के बाद मैं हवा महल के सामने खड़ा था। मेरे सामने वो इमारत थी जिसकी बारे में मैंने बचपन में सुना था और कई सालों से तस्वीरों में देख रहा था। रात के इस शोर में भी हवा महल कितना शांत लगा रहा था। एक सीधी, ऊंची इमारत जो इस समय भगवा रंग में रंगी हुई लग रही थी। रात में भी ये महल अपनी रोशनी बिखेर रहा था। मैं वहां कुछ 15-20 मिनट रूका और वहां से निकल गया।


मैंने चांदपूल जाने के लिए ई-रिक्शा लिया। ई-रिक्शा उसी रास्ते पर था, जहां से मैं सुबह आया था। ऐसा मुझे लग रहा था क्योंकि चारों तरफ एक-जैसा ही दृश्य था। एक जैसी ही दुकानें और उनकी बनावट का ढंग। लग रहा था कि सारी दुकानें किसी एक ही है। मैंने ई-रिक्शा वाले से इस बारे में पूछा तो उसने हंसकर बस इतना कहा, कि यहां जो लोग आते हैं वो इसको देखकर ही खुश हो जाते हैं। मैं समझ गया कि उसे इसके बारे में जानकारी नहीं है। कुछ देर बाद चांदपूल आया और वहां से मैं पहुंचा अपने कमरे पर। आज का दिन बहुत थकावट वाला रहा। बिस्तर पर लेटते ही नींद आ गई और आंख खुली सुबह 8 बजे।

रात में दिखता हवा महल।
उठते ही मन किया कि निकल लिया जाये। थोड़ी देर बाद मैं रास्ते पर जा रहा था, तभी मेरे बगल पर एक गाड़ी आकर रूकी। मैंने सोचा कि शायद रास्ता पूछने के लिये गाड़ी रोकी है, लेकिन मैं गलत था। वहां से आवाज आई। मैं आपके साथ ही ठहरा हूं, आइये आपका कुछ समय बचा देता हूं। मैं गाड़ी में बैठ गया, उसने अपना नाम बताया लेकिन मुझे याद नहीं है। वो दिल्ली से जयपुर कुछ काम से आया था और आज दिल्ली वापस जाना था। हम सबसे पहले चांदपूल चौराहे पर गये और नाश्ता करने का सोचा। हम एक दुकान में घुस गये, वहां मैंने वो भारी भरकम पकौड़े-मिर्च लेने को कहा। जिसे कुछ ही देर में दुकानदार ने कैंची से काटकर पीस-पीस कर दिया। दोने में वो मिर्च इस प्रकार पड़ी थी जैसे कि वो हमेशा से यूंही बौनी हों। वो पकौड़ा-मिर्च कढ़ी के साथ परोस दी गई। मैंने समोसे, पकौड़े-मिर्च चटनी के साथ ही खाई थी। ऐसा पहली बार था कि कढ़ी से पकौड़ा-मिर्च खा रहा था। खाने में खराब नहीं थी, सुबह-सुबह इसका स्वाद अच्छा लगा।


इस दुकान पर चाय नहीं थी। दुकान से बाहर निकलकर सड़क किनारे ठेले पर चाय पीने आ गये। जब चाय अपने उबाल पर थी तो मैंने वही सवाल चाय वाले से पूछा। उसने बताया सांगनेरी गेट की तरह चारों तरफ ऐसे ही गेट हैं। असली जयपुर उसी के अंदर है, पहले जयपुर शहर की सीमा वही होती थी। बाद में जनसंख्या बढ़ी तो शहर भी पसरता गया। लेकिन पुराना शहर वही है, वहां की दुकानें, चौक, सब एक ही जैसे हैं। मुझे नहीं पता था कि वो सही बोल रहा है या नहीं। लेकिन मैं उसके इस जवाब से संतुष्ट था।


सिटी पैलेस


मुझे आज शहर को देखना था और खासकर हवामहल को। मुझे वो यूं अचानक मिल गये थे, वो भी मेरे साथ चलना चाहते थे। यूं तो मुझे अकेले ही घूमना पसंद है लेकिन मैंने मना नहीं किया। थोड़ी देर बार हवा महल के सामने थे। गाड़ी को पार्क करने की जगह नहीं मिल रही थी। वहीं खड़े एक दुकानदार ने बताया कि पहली गली में पार्किंग है। हम गाड़ी उसी गली में ले गये। यहां पहुंचे तो हवा महल पीछे छूट गया और सामने दिख गया सिटी पैलेस। अब हवा महल को बाद में देखने की योजना बनाई और चले पड़े सिटी पैलेस की ओर।

सिटी पैलेस में पपेट शो।
यहां भी टिकट की लाइन लगी थी लेकिन बहुत छोटी। मैंने टिकट का प्राइस देखा तो पहले तो लगा कि फाॅरेनर वाला प्राइस देख लिया है। लेकिन टिकट आम भारतीय के लिये 200 रूपये का था। टिकट महंगा है तो देखने लायक भी बहुत कुछ होगा, यही सोचकर टिकट ले लिया। सिटी पैलेस एकदम शहर के बीचों-बीच बना हुआ है और हवा महल के बिल्कुल पास। इस महल का निर्माण 1729 में महाराजा सवाई जय सिंह माधो ने करवाया था। जो तीन सालों में ही 1732 में ही पूरा हो गया। ये शाही परिवार का निवासी महल है। इस महल में देखने लायक बड़े-बड़े आंगन, खूबसूरत राजदरबार और कई महल हैं। महल में अंदर आने के तीन गेट हैं- उदय पोल, वीरेन्द्र पोल और त्रिपोलिया गेट। शाही परिवार के सदस्य त्रिपोलिया गेट से आते हैं और बाकी दोनों गेट से पर्यटक आते हैं।


टिकट लेने के बाद हम जैसे ही प्रवेश द्वार के पास पहुंचे। वहां खड़े कुछ लोगों ने एक पगड़ी पहना दी जिसका साफा पीछे पैरों तक जा रहा था। उन्होंने फोटो खींची और कहा कि वापिस आते वक्त ले लीजियेगा। मैंने मन ही मन कहा, ये बढ़िया है। पर्यटक राजी हो या न हो, फोटो देखकर तो लेने का लालच आ ही जायेगा। बाजारवाद का लालच यहां अच्छी तरह से लागू हो रहा था। दरवाजे से अंदर आये तो सामने कुछ छोटी-छोटी तोपें रखी हुई हैं और उसके बगल पर चल रहा है पपेट शो। ऐसा ही पपेट शो नाहरगढ़ किले में भी मिला था। जयपुर में हर जगह ऐसे पपेट शो देखने को मिल ही जाते हैं। वहीं बहुत सारी दुकानें भी थीं जहां राजस्थानी कपड़े, जूतियां, पगड़ी जैसे ही सामानों की रेल लगी हुई थी। लेकिन मैं तो सिटी पैलेस देखने आया था न कि दुकानें। सामने एक और गेट था और यहीं से शुरू होती है सिटी पैलेस की दुनिया।


अभी तक जो दीवारें और महल दिख रहे थे वो सभी लाल बलुआ पत्थर के थे। अभी तक जो लाल बलुआ पत्थर देखा था उसमें थोड़ा पुरानापन और रूखाई दिखती थी। लेकिन ये लाल दीवारें बिल्कुल साफ और सफेद नक्काशी इसको बेहद मनममोहक बना रही थी। बीच आंगन में एक दरबार जैसी एक इमारत थी, जिसकी छत पर महल वाली झालर लगी थी। जिसें मैंने अभी तक फिल्मों मे ही देखा था। दीवरों पर बहुत सारे तीर, भाले और बंदूकें लगीं हुईं थीं। उनमें सबमें सबसे खास था चांदी के बहुत बड़े दो कलश। इन कलशों में गंगाजल रखा गया है। ये 1894 में 140000 चांदी के सिक्कों को पिघलाकर बनाया गया था। इस कलश की ऊंचाई 5 फीट 3 इंच है, 345 किलोग्राम इसका वजन है। इसका नाम गिनीज ऑफ वर्ल्ड रिकाॅर्ड में दर्ज है।

मुबारक महल।
इसके बाद हम लाल बलुआ की इमारत से निकलकी सफेद संगमरमर के दरवाजे से और अंदर आ गया। ये आंगन भी वैसा ही था जैसा हम देखकर आये थे। मेरे सामने एक इमारत थी जो दोमंजिला थी। देखने में बेहद खूबसूरत इसका नाम है मुबारक महल। दरवाजे से लेकर दीवार हर कोना किसी ने किसी डिजाइन में बना हुआ था। जिस गेट से हम अंदर आये थे, वहां दो दरबान भी खड़े थे, लाल लिबास और पगड़ी में। सिटी पैलेस में काम करने वाला हर व्यक्ति इसी पोशाक में मिलेगा। मैं मुबारक महल के अंदर घुस गया। मुझे बताया गया कि यहां फोटो खींचना मना है। सामने ही वो बिस्तर लगा हुआ था जो उस समय का है। बहुत बड़ा बिस्तर, उस पर रखा चौसर और लंबे-लंबे तीन तकिये।


आगे वाले कमरे में महाराजा सवाई माधो सिंह की कुछ पोशाकें थी। एक उनके राजशाही वाली, एक उनकी पोलो खेलने वाली। उनकी तस्वीर भी लगी थी पोलो खेलते हुये। वहीं गंजीफा रखे हुये हैं यानि कि खेलने के पत्ते। आगे वाले कमरे में बहुत सारी पगड़ियां, जामा, पायजामा, अंगरखा रखे हुये हैं। आगे बढ़ने पर महारानी के लिये कई प्रकार की साड़ियां रखी हुई हैं। बनारसी साड़ी से लेकर कश्मीरी पश्मीना शाॅल। ये सब देखते-देखते मैं मुबारक महल से बाहर आ गया। मुबारक महल को माधो सिंह द्वितीय ने बनवाया था। इसके बाद मैं शस्त्रागार दीर्घा में गया। मैं जिंदगी में पहली बार इतने शस्त्र देखे वो भी इतने प्रकार के। इसमें हाथी दांत तलवारें, चेन हथियार, बंदूक, पिस्टल, तोपें, प्वाइजन टिप वाले ब्लेड, गन पाउडर हथियार और कैंची हथियार। यहां भी फोटों लेना मना था। अगर आप शस्त्रों को देखना पसंद करते हैं तो आप यहां आराम से हर एक हथियार का आंखों से जायजा ले सकते हैं। इन सबको देखकर इतना तो कहा जा सकता है कि जयपुर मजबूत राज्यों में से रहा है।


चन्द्र महल


चंद्र महल सिटी पैलेस का सबसे खूबसूरत जगह। घुसते ही मेरे मुंह से वाह निकल गया। चंद्र महल एक प्रकार से राज दरबार की तरह लग रहा था। सिटी पैलेस में सबसे ज्यादा ज्यादा नक्काशी इसी महल में हैं। पर्दे से लेकर, फूल तक सब कुछ रखा था। महल के बीचों-बीच दो बड़ी कुर्सी रखीं थी और उसके आस-पास छोटी-छोटी कुर्सियां। इसे देखकर लग रहा था कि मैं किसी ऐतहासिक फिल्म की शूटिंग में घुस आया हूं। झूमर अपनी चमक बिखेर रहे थे। जिससे महल और भी बहुत खूबसूरत लग रहा था। यहां भी फोटो खींचना मना था और अगर ऐसा करते पकड़े गये तो 500 रूपये जुर्माना था।



यहां सभी महाराजाओं की तस्वीर लगी हुई थी और सबके बारे में लिखा हुआ था। मैं तस्वीरों में देख रहा था कि सभी राजा कद-काठी में लंबे और तंदरूस्त थे सिवाय महाराजा सवाई राम सिंह द्वितीय को छोड़कर। सवाई राम सिंह द्वितीय को चश्मा लगा हुआ था। मैंने पहली बार देखा था कि राजा भी चश्मा लगाते हैं। मेरे साथ जो थे वो फोटो खींच रहे थे जबकि उनको बार-बार चेतावनी दे दी गई थी। अबकी बार उन्होंने जैसे ही मोबाइल निकाला। लाल पोशाक में एक व्यक्ति आया और हाथ से मोबाइल छीन लिया। उसके बाद बहुत मिन्नतें हुईं लेकिन वो नहीं माना। उसने वो सारी तस्वीरें डिलीट कीं और 500 रूपये का जुर्माना भी ले लिया। राजमहल की खूबसूरती को देखकर और इस वाक्ये पर हंसते-हंसते बाहर निकल आये। हम उसी जगह पर आ गये जहां फोटो खिंचवाई थी। फोटो का पैसा पूछा तो हमने न लेने का ही फैसला लिया।


शहर में ज्यों-ज्यों आगे देख रहे थे लग रहा था कि कितनी बेहतरीन है। हर जगह की अपनी महत्वता थी, कोई आकार में बड़ा है, कोई सुंदरता में और कोई अपने इतिहास में। ऐसा ही कुछ सिटी पैलेसे को देखने के बाद लग रहा था। सिटी पैलेस शहर के बीचों बीच नहीं है, शहर इस पैलेस के चारों तरफ है।

Tuesday, 12 February 2019

जयपुर 3: इस शहर को अब लपककर पाने की चाह हो रही थी

ये जयपुर यात्रा की तीसरी कड़ी है, यात्रा का पिछला भाग यहां पढ़ें।

घूमते वक्त एक घुमक्कड़ के मन में क्या चलता है? मैंने दूसरों से इसके बारे में कभी नहीं पूछा। लेकिन जयपुर में दो किलों को देखने के बाद एक अहसास था, सुकून वाला। जो मेरे मन में चल रहा था। मैं सोच रहा था कि कुछ जानकारी से भरी जगहों को देख चुका हूं और कुछ बाकी हैं। इन किलों को देखते वक्त मुझे थकान नहीं हुई थी। किले के अंदर होता था तो बस यही सोचता था कि कोई जगह न छूट जाये। आमेर किला और जयगढ़ किले की अपनी अहमियत है। एक राजशाही किला है तो दूसरा सैन्य बंकर। इस किले को देखने के बाद अब मुझे जाना था- नाहरगढ़ किला।


किले से बाहर निकला तो अब बाहर का नजारा बदल चुका था। टिकट काउंटर पर बहुत लंबी लाइन लगी थी, रास्ता गाड़ियों से भर चुका था। मेरी जहां तक नजर जा रही थी, गाड़ियां ही गाड़ियां नजर आ रहीं थीं। मैंने इंटरनेट पर चेक किया तो यहां से नाहरगढ़ किले की दूरी 5 किलोमीटर बता रहा था। मैंने सोचा पहले जाम पार करता हूं फिर गाड़ी देखता हूं। क्योंकि यहां से गाड़ी बुक करता तो घंटों यहीं जाम में फंसा रहता। मैं पैदल ही चलने लगा, गाड़ियों के बीच से। जो जाना तो चाह रहीं थीं लेकिन जाम के कारण रूकी हुईं थीं। करीब आधा घंटे चलने के बाद मैं वो जाम पार करके खुले रास्ते पर आ गया। लेकिन अब यहां कोई टैक्सी नहीं थी। मैंने कैब का सहारा लेना चाहा लेकिन यहां नेटवर्क धोखा दे रहा था।

नाहरगढ़ किला


कुछ देर इंतजार करने के बाद जब कुछ नहीं मिला तो पैदल ही चलने लगा। जयपुर आने वाले ज्यादातर लोग टूरिस्ट ही होते हैं क्योंकि पूरे रास्ते मुझे कोई चलने वाला साथी नहीं मिला। लोग पहाड़ तो कई किलोमीटर चढ़ जाते हैं क्योंकि उसमें एक नाम जुड़ा होता है ‘ट्रेक’। वो नाम इस सीधे रास्ते पर कहां मिलेगा? थोड़ी देर चलने के बाद मैं उस जगह आ गया। जहां से रास्ता बदलकर नाहरगढ़ की ओर जा रहा था। मैंने अब सोच लिया था कि पैदल ही नाहरगढ़ जाऊंगा। पैदल-पैदल रास्ता नापने लगा। आसपास जंगल-जंगल नजर आ रहा था। अधिकतर पेड़ सूखे ही नजर आ रहे थे, झाड़ियों के जैसे।

नाहरगढ़ किले के रास्ते से दिखता जल महल।
गाड़ियां तेज रफ्तार से आती और मेरे बगल से गुजर जातीं। एक टैक्सी जरूर आई और चलने का पूछने लगी। इस बार मैंने कोई रेट नहीं पूछा, क्योंकि मैं क्लियर था कि पैदल ही रास्ता तय करूंगा। जंगल को छोड़कर थोड़ी देर बार सड़क से पहाड़ दिखने लगे जो इस रोड से नीचे थे। मैं आसपास की सबसे ऊंची जगह पर चल रहा था। थोड़ा आगे चलने के बाद तस्वीर बदल गई। पहाड़ की जगह अब शहर और जलमहल ने ले ली थी। जलमहल की सबसे अच्छी और साफ तस्वीर यहीं से दिख रही थी। यहां से छोटे-छोटे मकान, छोटा जलमहल और उसके पीछे पहाड़। यहां से सबकुछ तस्वीर में कैद हो रहा था। कुछ देर बाद एक और बोर्ड मिला, नाहरगढ़ किला का। मैं सोच रहा था कि पास में ही है लेकिन मैं गलत था। मंजिल अभी दूर थी।

नाहरगढ़ किले का रास्ता।
थोडा़ आगे चलने पर एक चाय की टपरी आई, पूरे रास्ते की एकमात्र यही दुकान ळें यहां थोड़ी देर बैठा और साथ के लिए चाय ले ली। मैं फिर चलने लगा क्योंकि रास्ते में कोई बोर्ड नहीं था कि नाहरगढ़ किला कितने दूर है। तभी मुझे एक ऊंचा गुंबद दिखा। मैं खुश हो गया आखिरकार मैं पैदल ही किले तक आ गया। लेकिन मैं गलत था वो तो कोई चरण मंदिर निकला। यहीं पर बहुत लोग पतंग उड़ा रहे थे। रास्ते में मुझे कई कटी पतंग भी मिलीं और टूटे माझे भी। जयपुर में पतंग उड़ाना त्यौहार की तरह लग रहा था। लोग बड़ी-बड़ी गाड़ी से यहां आते और पतंग उड़ाते। यहां हर उम्र का शख्स पतंग उड़ाते हुये दिख रहा था। मैं ऐसे ही दृश्य देखते हुये आगे बढ़े जा रहा था। रास्ते में दूरदर्शन संचार का कार्यालय मिला। एक उम्रदराज व्यक्ति उसमें से निकला और मोटरसाइकिल से कहीं जाने लगा। वो नाहरगढ़ की तरफ ही जा रहे थे। मैंने पूछा-नाहरगढ़ जा रहे हैं? उन्होने कोई जवाब नहीं दिया लेकिन रूकी हुई गाड़ी से मैं समझ चुका था कि इशारा बैठने का है। कुछ ही मिनटों के बाद मैं नाहरगढ़ किला पहुंच गया। नाहरगढ़ किले का गेट भी बाकी किलों के तरह बड़ा था। इस गेट का नाम था- ताडी गेट।

नाहरगढ़ किले की झील।
ताडी गेट से अंदर गये तो फिर से वही काम करना था जो अब तक करते आ रहे थे ‘टिकट लाइन’। यहां लाइन ज्यादा लंबी नहीं थी कुछ ही देर में मेरा नंबर आ गया। आम भारतीय के लिये टिकट की 50 रूपये का था। विधाथी की आईडी होती तो टिकट सिर्फ 5 रूपये का पड़ता। टिकट लेकर आगे बड़ा तो कुछ कृत्रिम कलाकारी दिखी। जहां पर बाहर एक नकली शेर बना हुआ था, हुक्का पीता हुआ एक बूत। लेकिन ये नमूने थे अंदर एक म्यूजिम था। वहीं बैठे गाॅर्ड ने बताया कि म्यूजिम अंदर है बहुत नायाब चीजें रखी हैं। उसके अंदर जाने का अलग से टिकट लेना पड़ रहा था जिसकी कीमत 500 रूपये थी। मैं तो किला देखने आया था ये लुटाई तो कहीं और भी की जा सकती थी, मैं आगे बढ़ गया। थोड़ा ही चलने पर मुझे बावड़ी मिली। जो नाहरगढ़ की सबसे ऐतहासिक बावड़ी है, जिसमें आज भी पानी बना हुआ है। उसके बगल में ही एक टंका है, हौदी के टाइप का। जिसमें वर्षा का पानी आता है और यहां से पानी छनकर बावड़ी में जाता है। उसके ठीक सामने ही किला है, माधवेन्द्र भवन।

नाहरगढ़ सबसे बेहतरीन भवन।

माधवेन्द्र भवन


नाहरगढ़ किले को 1734 में महाराजा सवाई जयसिंह ने बनवाया था। ये किला कभी आमेर की राजधानी हुआ करता था। राजा बदलते रहे और इसका विस्तार होता गया। इस किले के नाम की भी कई कहानी हैं। कहा जाता है कि यहां राजा नाहर का भूत रहता था। जो इस किले को बनने नहीं दे रहा था, उसने शर्त रखी कि इस किले का नाम उसके नाम पर होना चाहिये। इसलिए इस किले का नाम नाहरगढ़ किला रख दिया।


माधवेन्द्र भवन बाहर से देखने पर किसी पुराने घर की तरह लग रहा था। जिसकी दीवारों का रंग अब उतर रहा है। उसके आगे ही पपेट शो चल रहा है, जिसको दो लड़के दिखा रहे हैं। एक हरमोनियम बजा रहा है और दूसरा ढोलक। उसके ठीक सामने ही इस भवन का दरवाजा है जो अभी तक देखे गये किलों में सबसे छोटा था। अंदर घुसते ही लगा कि सच में किसी भवन में आ गया हूं। एक बड़ा-सा आंगन और उसके आसपास बहुत से कमरे। हर कमरे में कुछ न कुछ अजब-गजब था, जो सब कृत्रिम था। पूरे किले में यही सब था। कहीं टूटी प्लेट तो कहीं मसाले, पानी भरी बहुत-पाॅलीथन। उन सबमें सबसे बेहतरीन वो पांडुलिपि थी। जो दूर से देखने पर लग रही थी कि कोई पुरानी किताब रखी है छूकर देखा तो पूरा पत्थर था। ऐसी ही एक और कलाकृति थी एक लकड़ी में बहुत सारे सिक्के थे। हर कमरे में सुरक्षा गाॅर्ड था।


पूरा किला इन सबसे ही भरा हुआ है। यहां से देखने लायक है वो है शहर। शहर यहां से खूबसूरत लगता है। ऐसा लग रहा था कि सफेदी-सफेदी है। लेकिन थोड़ा निराश हुआ था कि यहां से जयपुर पिंक नहीं लग रहा था। उसके बाद मैं सबसे ऊपर पहुंच गया यानि कि इस भवन की छत पर। जहां से किला के गुंबदों को देखना तो अच्छा लगता ही है, शहर को भी देखने का मन करता है। ये जयपुर की सबसे ऊंची जगह थी। माधवेन्द्र भवन के हर कोने को और किले की कृत्रिमता को देखकर मैं बाहर निकल आया। अब मुझे वापस लौटना था, यहां से मैं पैदल नहीं जा सकता था क्योंकि इस जगह से जयपुर शहर 15 किलोमीटर दूर है। 5 किलोमीटर चलने में बहुत समय लग गया था। मैं किसी भी तरह पैदल का सोचूं तो बहुत समय लग सकता था।

नाहरगढ़ किले से दिखता जयपुर।

असली सफर तो बाकी था


बाहर आकर सबसे पहले यहां का मुर्रा खाया और फिर आईसक्रीम। बहुत सारे ऑटो खड़े थे, मैं जिससे भी जाने का पूछता तो वो 300-400 का अपना रेट रख देते। यहां जो आया था उसको जाना जरूर था इसलिए मनमाने पैसे वसूले जा रहे थे। मैं आगे चलता रहा और पूछता रहा लेकिन कहीं बात नहीं बनी। मैं मजबूरन पैदल चलने लगा। लगभग 1-2 किलोमीटर चल गया था, शरीर में थकावट नहीं थी। लेकिन 15 किलोमीटर सोचकर थकान हावी होने लगती। आॅटो मेरे पास आती और हाॅर्न मारती। मेरा जवाब न मिलने पर आगे निकल जाती। ऐसा बार-बार हो रहा था, मैं परेशान हो गया। मैंने वो कच्चा रूट पकड़ लिया जो रोड के बगल से गया था। यहां से जलमहल दिख रहा था, थोड़ी देर बाद बड़ी गहरी खाई। मैं थकान के कारण वहीं बैठ गया। लगभग आधा घंटा वहीं बैठा रहा। मैं उसी दीवार पर चलने लगा जो खाई के इस तरफ बनी थी।


मैं सोचने लगा कि यहां से सीधा रास्ता होता तो 15 मिनट में जलमहल पहुंच जाता। इस घुमावदार रास्ते ने शहर को कितने दूर कर दिया। मैं सोचने लगा कि क्यों न यहीं से जाया जाए? लेकिन गहरी खाई देखकर जाने का मन नहीं हो रहा था। उससे भी बड़ा डर था घना जंगल। जहां जंगली जानवर होने की भी आशंका थी। मैं इस रास्ते का विचार छोड़ ही रहा था कि मुझे एक झंडा दिखाई दिया। ध्यान से देखा तो वो कोई मंदिर जैसा लग रहा था। मुझे रास्ता नहीं मिला था लेकिन मंजिल दिख गई थी। मैं खड़ी खाई में जाने के लिए तैयार हो गया। एक छलांग से मैं उस ढलान वाले रास्ते पर चलने लगा। कदम एक जगह रूक नहीं रहे थे, भाग रहे थे। रूकने के लिये मुझे पेड़ो को पकड़ना पड़ रहा था। रास्ता था नहीं लेकिन बनाना पड़ रहा था। फिसलने का भी डर था, अगर फिसला तो सीधा खाई में पहुंच जाता।

खतरनाक रास्ते पर मैं चल रहा था।
पहले पेड़ों का जंजाल और फिर फिसलते पत्थर। ऐसे ही ढलान को उतरने में मेहनत जरूर लगी लेकिन कुछ अलग रास्ते पर जाने का उत्साह था। जंगल में बस पंक्षियों की चहचाहट ही सुनाई दे रही थी। मैं जल्दी से जल्दी उस मंदिर के पास जाना चाहता था। मुझे अब डर खाई का नहीं था, मुझे डर था बस जानवरों का। जैसे ही नीचे उतरा तो सुकून ही सांस ली। यहां से उपर देखने पर खुशी हो रही थी। खुशी इस बात की जयपुर में आकर मैंने एक पहाड़ से उतरा था। खुशी इस बात की कुछ अलग किया था। सुकून इस बात का कि मुझे अब 15 किलोमीटर नहीं चलना पड़ा था। मैं वहीं बैठ और सोचने लगा कि अकेले घूमने में कितनी आजादी होती है। वही आजादी इस समय मैं महसूस कर रहा था। मैं भूल गया था कि अभी सफर पूरा नहीं हुआ था। वैसे भी सफर कभी पूरा होता है क्या? वो तो चलता ही रहता अपने-अपने हिस्से का।