Showing posts with label घुमक्कड़ी. Show all posts
Showing posts with label घुमक्कड़ी. Show all posts

Monday 30 September 2019

हेमकुंड साहिब ट्रेक: मुश्किलें ही बनाती हैं सफर को रोमांचक

यात्रा का पिछला भाग यहां पढ़ें।

मैं अपने सफर को वैसे ही लिखने की कोशिश करता हूं, जैसा मैं उस समय सोच रहा था। पर हमेशा ऐसा हो नहीं पाता है। हर बार लगता है कि कुछ रह-सा गया है। मैं उस झिलमिल रात को सुनहरे शब्दों में दर्ज करना चाहता हूं। चलते-चलते जो चिड़चिड़ापन आया उसको लिखना चाहता हूं। शायद ऐसा करने पर मुझे अपना सफर अच्छे-से याद रहता है। ताकि जब भी मैं यादों के उस पन्ने से गुजरुं, तो मुड़-मुड़के अपने सफर को याद कर सकूं। घूमते वक्त मैं कुछ अलग हो जाता हूं, शायद कुछ नया पाने की तलाश में। एक पड़ाव पर मैं खड़ा था और आगे के सफर को पा लेना चाहता था। ये चुनौती भी है और इस सफर की खूबसूरती भी।


घांघरिया में ताजगी भरी सुबह


सुबह-सुबह नींद खुली तो सिर थोड़ा भारी लग रहा था। सर्दी और जुकाम ने पकड़ लिया था, लेकिन सफर का उत्साह तो अब शुरू हुआ था। घांघरिया में ये हमारी पहली सुबह थी। रात के अंधेरे में घांघरिया को हम सही से देख नहीं पाये थे। घांघरिया, हेमकुंड साहिब और फूलों की घाटी के रास्ते में पड़ने वाला एक छोटा-सा गांव है। घांघरिया 3049 मीटर की ऊंचाई पर उत्तरी हिमालय पर बसा है। देखने में ये कहीं-से गांव नहीं लगता। यहां चारों तरफ आपको होटल और रेस्टोरेंट ही मिलेंगे। कोई घांघरिया से आए या हेमकुंड साहिब से। उसका पड़ाव घांघरिया में जरूर रहता है। सर्दियों के समय ये रास्ता बर्फ से भर जाता है और यहां के लोग नीचे गोविंदघाट चले जाते हैं। इसलिए कुछ ही महीने होते हैं जब यहां ऐसा खुशनुमा माहौल होता है। सारी गलियां गुलजार रहती हैं, हर जगह चहल-पहल रहती है।

घांघिरया

हम घांघरिया के ऐसे ही किसी होटल में सुबह की चाय की लुत्फ उठा रहे थे। आसपास पहाड़ ही पहाड़ नजर आ रहे थे। घांघरिया में नेटवर्क आते हैं लेकिन तीन दिन से हमारी तरह नेटवर्क भी अपनी दुनिया से कट चुके थे। घांघरिया को देखकर मुझे एवरेस्ट मूवी याद आ गई। बिल्कुल वैसा ही नजारा मुझे यहां नजर आ रहा था। यहां के स्थानीय लोग अपने घोड़े और बास्केट लेकर लाइन से खड़े थे। कुछ लोग चाय का मजा ले रहे थे तो कुछ अपनी बौनी के लिए टूरिस्टों से मोल-भाव कर रहे थे। आगे के सफर के लिए हमारे पास दो खूबसूरत जगहें थी, हेमकुंड साहिब और फूलों की घाटी। घांघरिया से फूलों की घाटी करीब 4 किलोमीटर दूर थी और हेमकुंड साहिब की दूर 6 किलोमीटर। काफी विचार के बाद हम तीनों पहले सफर के लिए हेमकुंड साहिब के लिए राजी हुए। अब हमारी मंजिल थी हेमकुंड साहिब।

हेमकुंड साहिब के लिए कूच


घांघरिया से निकले ही थे, एक खूबसूरत नजारे ने हमारा स्वागत किया। दो छायादार पहाड़ों के बीच से एक रोशनी-सा चमकता पहाड़ नजर आ रहा था। उस पहाड़ से भी ज्यादा खूबसूरत लग रहा था खुला आसमान। ऐसा लग रहा था कि आसमान भी खुशी से चहक रहा हो। थोड़ा ही आगे बढ़े तो एक और खूबसूरत नजारा हमारा इंतजार कर रहा था। चारों तरफ पहाड़ और उसके बीच से गिरता झरना। अभी तक मैं पहाड़ों के बीच झरने को बस दूर से देख रहा थे। ये नजारा मेरे खूबसूरत पलों में कैद हो गया।

खूबसूरत नजारा। फोटो साभार: मृत्युंजय पांडेय।

हम इस ट्रेक में सिर्फ चढ़ रहे थे, उतरने का तो कहीं नाम ही नहीं था। जिस वजह से हम बहुत जल्दी थक रहे थे और बार-बार रूक रहे थे। हमारे सामने दो परेशानी थी। पहली परेशानी, हमें 12 बजे के पहले पहुंचना था। अगर देरी हुई तो गुरूद्वारे की अरदास में शामिल नहीं हो पाएंगे। दूसरी परेशानी थी बैग। हम बैग को घांघरिया में रख सकते थे लेकिन जोश-जोश में बैग को ले आया था। उसका खामियाजा अब थकावट के रूप में झेल रहा था। हम कुछ दूरी का टारगेट डिसाइड कर रहे थे और वहां तक पहुंचने की कोशिश कर रहे थे। कोशिश इसलिए क्योंकि वहां भी पहुंचना मुश्किल हो रहा था। जब मैं थक जाता तो मेरा साथी बैग ढोता और जब वो थक जाता तो मैं बैग उठाता। इस तरह हम धीरे-धीरे बढ़ रहे थे।

चलते हुए हम कुछ नहीं देख पा रहे थे उस समय तो सिर्फ चलना ही नाकाफी हो रहा था। जब कहीं रूकते तो सामने के खूबसूरत नजारों में खो जाते। इतनी ऊंचाई से हम घांघरिया को देखते और बौने नजर आते लोगों को। ऐसी ही एक जगह पर हम खड़े थे तभी चारों ओर कुहरा छा आ गया। अब हमें कुछ नहीं दिखाई दे रहा था सिवाय इस कुहरे के। उसी कुहरे में हम लोग आगे बढ़ गये। हेमकुंड साहिब के ट्रेक पर हजारों लोग हमारे साथ जा रहे थे। कुछ लोग तो ट्रेवल कंपनियों के साथ इस ट्रेक को कर रहे थे। एक ग्रुप में कम से कम 20 लोग थे और ऐसे ही 4-5 ग्रुप थे। सभी ग्रुप में दो-दो गाइड होते हैं जो उनके साथ बराबर चलते रहते हैं। ऐसे ही चलते-चलते हमें एक 60 साल का नौजवान शख्स मिल गया।

वो हमारे साथ ही कदम मिलाकर चल रहे थे। उन्होंने एक घाटी की ओर इशारा करके बताया कि पहले ये चढ़ाई वाला रास्ता नहीं था। वो रास्ता बहुत सीधा और आसान था। बाद में बाढ़ और आपदा की वजह से वो रास्ता बंद हो गया। फिर इस रास्ते को बनाया। जो चढ़ाई के लिए बहुत कठिन माना जाता है। कुछ देर बाद मौसम ने फिर से करवट ली। कुहरे के बाद अब बारिश शुरू हो गई थी। हमारे पास पोंचा एक था और लोग दो। तब तय हुआ जो बैग टांगेगा, वही पोंचा का हकदार होगा। मैं बिना पोंचा और बैग के चलने लगा और मेरा साथी अब बैग के साथ बढ़ रहा था। हम रास्ते में बातें करते जा रहे थे और आकलन कर रहे थे कि 12 बजे से पहले पहुंच पाएंगे या नहीं।

शानदार झरना।

हम लंबी चढ़ाई से बचने के लिए बहुत सारे शाॅर्टकट ले रहे थे। काफी पेड़ों के बीच से तो कभी पहाड़ों के बीच से। कुछ देर बाद बारिश रूक गई। जिसका मतलब था हम बैग की कमान मेरे कंधों पर आने वाली थी। बारिश के बाद फिर से मौसम साफ हो गया था और हम फिर से खूबसूरत नजारों के बीच आगे बढ़े जा रहे थे। कुछ देर बाद एक दुकान आई, जिस पर हम कुछ ज्यादा देर रूकें। मैं बैग की वजह से काफी परेशान था। तब मैंने अपनी समस्या दुकान वाले को बताई, उसने बैग को अपनी दुकान पर रखने को कहा। बच्चे को खिलौने मिलने पर जो खुशी होती है, वही खुशी मुझे इस दुकानदार की बात सुनकर हो रही थी। मैंने उसे धन्यवाद कहा और खुशी-खुशी रूके हुए सफर को रफ्तार दी। कुछ देर बाद दुकानों का मुहल्ला मिला। यहां करीब 20-25 दुकानें एक साथ थी। हर जगह एक ही जैसी चीजें बिक रही थीं लेकिन सब की सब महंगी। सोचिए 10 रुपए वाली किटकैट 30 रुपए में मिल रही हो। तो फिर सस्ता ही क्या मिलेगा?

खूबसूरत ग्लेशियर


मेरे कंधे पर अब कोई भार नहीं था लेकिन थकान अब भी हो रही था। जितना मैं बैग के साथ चल रहा था, अब भी उतना ही चल रहा था। ये ट्रेक काफी थकान वाला हो रहा था। कहीं-कहीं खूबसूरत नजारा दिखता तो लगता कि अब यहीं रूक जाता हूं और इस दृश्य को निहारता हूं। उसके बाद ख्याल आता है इतना चढ़ने के बाद हार नहीं मान सकता। थके शरीर और तेज मन से आगे बढ़ने की कोशिश करता हूं। उसके बाद सफर का सबसे खूबसूरत दृश्य दिखाई दिया। मेरे सामने एक लंबी सफेद चादर एक पहाड़ पर पसरी हुई थी। ये एक ग्लेशियर है जिसे यहां के लोग अटकुलुन ग्लेशियर बोलते हैं।

ये है वो ग्लेशियर।

थकान के बावजूद इस ग्लेशियर को देखने के बाद चेहरे पर मुस्कुराहट तैर गई। ये ग्लेशियर बहुत दूर तक फैला था और फैली थी दूर तक उसकी खूबसूरती। इसे देख मानो लग रहा था कि किसी ने सफेद मखमली चादर सूखने डाली हो। अब तक मैंने बचपन से ग्लेशियर के बारे में सुना था लेकिन आज वो पहाड़ मेरे एकदम सामने था। इसे देखना मेरे लिए वैसा ही था जैसा पहली बार पहाड़ को देखना। तब भी मैं उस खूबसूरती को बयां नहीं कर पा रहा था और इसे देखकर भी 
ऐसा ही कुछ महसूस कर रहा था। आप बस उस दृश्य के बारे में सोचिए नीचे पहाड़, ऊपर पहाड़, आसपास भी पहाड़ और उसी एक पहाड़ पर दूर तलक बस बर्फ ही बर्फ। कितना खूबसूरत होता है न हरे पहाड़ और बर्फ वाले पहाड़ का मिला जुला नजारा।

कुछ देर तक ग्लेशियर को देखने के बाद जब उसकी खुमारी कम हुई तो हम धीरे-धीरे आगे बढ़ गए। जैसे-जैसे ऊपर बढ़ रहे थे चलने की रफ्तार बहुत कम और रूकने का समय बहुत ज्यादा था। एक बार फिर से मौसम ने अंगड़ाई ली और बारिश ने अपना मोर्चा संभाल लिया। अब हम एक ऐसी जगह पर आ चुके थे। जहां से हमारे पास दो रास्ते थे एक तो गोल-गोल चलते जाओ, जैसा अब तक चलते आ रहे थे। दूसरा सीढ़ियां, जो कठिन तो थीं लेकिन सफर में कुछ नया लग रहा था। हम उसी सीढ़ियों से आगे बढ़ने लगे। हमने रास्ते में एक गाइड से सीढ़ियों की संख्या पूछी तो उसने हजार बताईं। अब तो लग रहा था कि जल्दी से हेमकुंड साहिब पहुंच जाऊँ। ये सफर खत्म होने को नाम ही नहीं ले रहा था।

आखिरी कदम


सीढ़ियों पर कुछ देर तो सही से चले और फिर थकावट हम पर हावी हो गई। हम यहां भी खूब रूक रहे थे और आते-जाते लोगों से ‘और कितना दूर’ पूछ रहे थे। जब हमें घने कुहरे में दूर से हेमकुंड साहिब का गेट दिखा तो ऐसा लगा कि बस यही तो देखना था। मैंने उस गेट के लिए एक लंबी दौड़ लगाई और जाकर हेमकुंड साहिब के गेट पर रूका। चारों तरफ कुहरा ही कुहरा था। हम देर से पहुंचे थे, अरदास हो चुकी थी। हम सीधे लंगर में पहुंच गये। लंगर में खिचड़ी, प्रसाद और गर्म-गर्म चाय मिली। जब गर्म-गर्म चाय का पहला घूंट अंदर गया तो मजा ही आ गया। ये लंगर मुझे सालों-साल याद रहने वाला था।

कुहरे में पहाड़।

समुद्र स्तर से 4,329 मीटर की ऊचांई पर स्थित हेमकुण्ड साहिब सिखों का प्रसिद्ध धार्मिक स्थल है। हेमकुंड का अर्थ है, हेम यानी कि बर्फ और कुंड यानी कि कटोरा। कहा जाता है कि इसी जगह पर सिखों के दसवें और अंतिम गुरु श्री गुरु गोबिंद सिंह ने अपने पिछले जीवन में ध्यान-साधना की थी और नया जीवन पाया था। सिखों का पवित्र तीर्थ हेमकुंड साहिब चारों तरफ से बर्फ की सात पहाड़ियों से घिरा हुआ है। हेमकुण्ड साहिब गुरुद्वारा की खोज 1930 में हवलदार सोहन सिंह ने की थी। हेमकुंड साहिब गुरूद्वारे के पास ही एक सरोवर है। इस सरोवर को अमृत सरोवर कहा जाता है। यह सरोवर लगभग 400 गज लंबा और 200 गज चैड़ा है। हेमकुंड साहिब ही वो जगह है, जहां राजा पांडु योग करते थे।

आ अब लौट चलें


मौसम हमारे साथ नहीं था, इसी वजह से हम साफ-साफ कुछ नहीं देख पाये। हमें कोहरे में ही झील को देखना पड़ा। कुछ देर रूकने के बाद हम फिर से वापस हो लिए। हम कुछ देर ही आगे बढ़े तो एक नई समस्या सामने आ गई। मेरे साथी का पर्स गायब था। जेब में था नही, इसका मतलब कहीं गिर गया था। वो वापस हेमकुंड साहिब गया और करीब घंटे भरे बाद वापस लौटा। उसका चेहरा बता रहा था कि उसका पर्स नहीं मिला था। मैं सोच पा रहा था कि सफर में अगर पर्स खो जाए तो कितना मुश्किल होगा। मेरे साथ ऐसा होता तो पक्का टूट जाता। शायद वो भी अंदर से टूट चुका था। उसके लिए ये ट्रेक  हमेशा बुरी याद के तौर पर रहने वाला था।

सफर में बैठा पथिक। 

वो एक जगह बैठ गया था, वो आगे बढ़ने को तैयार ही नहीं था। उसने मुझे जाने का कहा लेकिन मैं उसे अकेला नहीं छोड़ना चाहता था। वो कुछ देर अकेला रहना चाहता है, उसने कहा। मैं फिर भी रूका रहा लेकिन उसे जोर देकर मुझे जाने को कहा। तब मैं आगे बढ़ गया। चढ़ना जितना कठिन है, उतरना उतना ही आसान है। हम लौट नहीं रहे थे, चढ़ने के लिए वापस जा रहे थे। मौसम फिर बदला और सब कुछ साफ हो गया। रास्ते में ही एक झरना मिला, हम उसी पहाड़ी पर कुछ पलों के लिए ठहर गये। मैं अब हमारे पास समय ही समय था। मैं उस तेज धार में बहते पानी को देख रहा था। मेरे सामने शांत पहाड़ भी थे और तेज बहती नदी। मैं नदी की तरह होना चाहता हूं, हमेशा चलते रहने के लिए।

कुछ देर ठहरने के बाद आगे चलने के लिए जैसा ही उठा मैं फिसल गया। अचानक मैं अंदर से डर गया, अगर थोड़ी फिसलन और होती तो मैं पानी में होता। मैं संभलकर, रूककर उस पहाड़ से नीचे उतरा। तब मन ही मन एहसास हुआ पहाड़ भी खतरनाक है और नदी भी डरावनी। मेरा सिर चकरा रहा था, शायद लगातार चलने से या इतनी ऊंचाई पर आने की वजह से। हम फिर से आगे बढ़ने लगे। अब नीचे उतरने में थोड़ा अंतर आ गया था। मेरे उतरने में भी और मेरे स्वभाव में भी। ऐसा लग रहा था कि दिमाग फट रहा है, टांगे बस में नहीं हैं और चिड़चिड़ापन जोरों पर है। अब फिर से मेरे कंधे पर बैग था जिसे लेकर उतरना और भी मुश्किल हो रहा था। चलते-चलते कई बातें दिमाग में चल रही थीं। थकावट की वजह से मन कर रहा था, सफर यहीं खत्म किया जाए और वापस लौटा जाए। वापस जब घांघरिया लौटा और बिस्तर पर पड़ा तो फिर अगले दिन ही उठा।


सफर में कई बार ऐसा होता है जब थकावट दिमाग पर हावी हो जाती है। ऐसे में अपने अुनुभव से बता रहा हूं अपना दिमाग अपने साथ लेकर जाएं। अगर वहां हार जाते हैं तो आप बहुत कुछ हार सकते हैं। एक सफर को पूरा करना, बहुत कुछ जीत लेने जैसा है। मैंने हेमकुंड साहिब का ट्रेक करके  बहुत कुछ सीखा है, बहुत कुछ जाना है। अंत में एक चीज याद रहती है वो खूबसूरत सफर। हेमकुंड का ये ट्रेक मेरे लिए कठिन जरूर रहा हो लेकिन यादगार हमेशा रहेगा।

आगे की यात्रा यहां पढ़ें।

Sunday 12 May 2019

रोड ट्रिप 2: जिंदगी की ‘भागम भाग’ यहां आकर ठहर जाती है

यात्रा का पहला भाग पढ़ने के लिए यहां जाएं।

सबकी अपनी जगह तय है कोई शहर की तरफ भागता है और कोई गांव की तरफ, किसी को पहाड़ों में चलना पसंद है तो कोई समुद्र किनारे डूबते सूरज को देखना चाहता है। बस मुझे ही नहीं पता मैं क्या पसंद करता हूं? मैं हर जगह जाना चाहता हूं और हर दिन को देखना चाहता हूं। कभी-कभी मुझे बार-बार एक ही जगह पर जाना सुकून देता है तो कभी उस जगह पर जाने का मन ही नहीं करता। लेकिन जब कहीं होता हूं तो वहीं ठहर जाता हूं, बिल्कुल एक खींची हुई तस्वीर की तरह।


देहरादून से चलकर हम पुजारगांव आ गये थे। यहां हमें विश्व वृक्ष मानव विश्वेश्वर दत्त सकलानी जी के यहां जाना था, हाल ही में उनका देहांत हुआ था। हमें उनके घर के बारे में पता नहीं था सो हम गांव में पूछते-पूछते आगे बढ़ रहे थे। बीच में एक बहुत बड़ा स्कूल भी मिला जो स्व. नरेन्द्र सकलानी के नाम पर था। नरेन्द्र सकलानी, विश्वेश्वर दत्त के सकलानी के बड़े भाई थे। एक खतरनाक और कच्चे रास्ते की चढ़ाई के बाद हम ऐेसी जगह पर आ गये, जहां आगे जाने के लिए कोई रास्ता नहीं था। कुछ घर जरूर दिखाई दे रहे थे, मैंने वहीं एक शख्स से विश्वेश्वर दत्त सकलानी जी के घर के बारे में पूछा।

ये हरा-भरा गांव


मुझे पता मिल गया था लेकिन हमारे कुछ साथी आये नहीं थे, उनके आने के बाद ही हम साथ में घर जाने वाले थे। गांव बड़ा ही खूबसूरत था, सोचिए गांव के चारो तरफ पहाड़ और वो भी पेड़ों से भरे हुये। इस गांव को हरियाली से भरने का श्रेय, उसी महान शख्स को जाता था जिनके घर जाने वाले थे। विश्वेश्वर दत्त सकलानी ने अपनी पूरी जिंदगी में 50 लाख से अधिक पेड़ लगाये। हममें से बहुत से लोग पूरी जिंदगी में एक पेड़ नहीं लगा पाते और उन्होंने तो 50 लाख से अधिक पेड़ लगाये। सोचिए एक बंजर भूमि हरी-भरी हो जाए तो कैसी लगती है वैसा ही ये गांव दिखता है।

पुजारगांव।

हम दशरथ मांझी को याद करते हैं जिसने अकेले ही पहाड़ खोद डाला था। लेकिन हम विश्वेश्वर दत्त सकलानी को याद नहीं करते जिसने पर्यावरण को बचाने के लिए अपना पूरा जीवन लगा दिया। हम जहां खड़े थे वहां पेड़ ही पेड़ थे, इतना गहरा जंगल मैंने कभी नहीं देखा था। थोड़ी देर बाद हम उसी जंगल में चल रहे थे, जिसे विश्वेश्वर सकलानी ने अपनी मेहनत से बनाया था। इस जंगल का नाम भी, वृक्ष पुरी। ये जंगल पहाड़ पर था यानी जंगल देखने के लिए चढ़ाई करनी थी। रास्ता बना हुआ दिख रहा था, जो बता रहा था कि यहां लोगों की आवाजाही होती-रहती है। हमारे साथ विश्वेश्वर दत्त सकलानी जी बहू थीं, जो हमें बहुत सी कहानी बता रही थीं और इस जगह के बारे में भी।

वृक्षपुरी जंगल में।

एक व्यक्ति की मेहनत


जिस जगह हम खड़े थे, वो सकलान पट्टी में आता है। सकलान पट्टी में करीब 20 गांव आते हैं और इन्हीं गांव में जाकर सकलानीजी पेड़ लगाते थे। उन्होंने बताया कि सकलानी जी सुरकंडा देवी जाकर भी पेड़ लगाये, जो हमें रास्ते में मिला था। उन्होंने ये जुनून सुनने पर जितना चौंका रहा था, उससे अधिक कठिन था। इस जंगल में बहुत सारे पेड़ थे, बांझ, बुरांश, अखरोट, खुमानी, देवदार और भी बहुत सारे पेड़ जिनसे ये पहाड़ पटा हुआ था।


मुझे इस जंगल को देखकर जगत सिंह ‘जंगली’ के वन की याद आ गई। उन्होंने भी अपना एक जंगल खड़ा किया है लेकिन वहां काफी लोग देखने आते हैं, घूमने आते हैं। जबकि इस जंगल को देखने कोई नहीं आता। हम जैसे ही कुछ लोग भटकते-भटकते यहां आ जाते हैं। सौरभ सर कह रहे थे ये जंगल ईको-टूरिज्म मे आ जाए तो बहुत अच्छा होगा। इस जंगल को लोग भी जानेंगे और विश्वेश्वर दत्त सकलानी जी को भी। चलते-चलते हम ऐसी जगह आ गये जहां एक पुराना सा घर बना हुआ था, जो सकलानी जी की ही छौनी थी। छौनी का मतलब है जहां गाय, भैंसों को रखा जाता था। ये एक प्रकार से उनका पुश्तैनी घर ही था।


हम चलते-चलते काफी उंचाई पर आ गये थे, यहां हवा काफी तेज थी। हवा चलने से पूरी प्रकृति झूम रही थी और ये देखकर मैं बड़ा खुश था। एक जगह आकर हम सभी बैठ गये और इस जगह के बारे में बात करने लगे। जो कहानी विश्वेश्वर सकलानी की बहू ने बताईं वो बहुत मार्मिक और प्रेरणादायी हैं। वो सारी कहानी किसी और दिन बताउंगा, आज इस जगह की सुंदरता को जीते हैं। यहां सबकुछ शांत था, यहां प्रकृति को आराम से सुना जा सकता था। पेड़ों की आवाज भी हमारे कानों को सुनाई दे रही थी और पक्षियों की आवाज भी मधुर लग रही थी।


हम जहां खड़े थे वहां से से सारे पहाड़ बराबर पर दिख रहे थे और नीचे गांव, घर, लोग और खेत दिख रहे थे। हमने कई घंटे इस जंगल में बिता दिये थे, हम अब नीचे आने लगे। रास्ते में ही एक मंदिर मिला जो सकलानी जी के पूर्वजों का था जिसका नाम है, जंगेश्वर महादेव। वहां से आगे बढ़ने पर हम एक टूटी-फूटी पुरानी इमारत हवेली। जिसे किसी जमाने में हवेली कहा जाता था, जो टिहरी के राजा की हवेली थी। यहीं पर टिहरी के राजा अपनी कचहरी लगाते थे, लोगों को न्याय देते और फरियाद सुनते थे। शाम काफी हो गई थी और हमें फिर से उसी संकरे रास्ते से जाना था। हम फिर से चल दिये, उसे संकरे रास्ते पर जिससे हम आये थे।


खूबसूरत सांझ


लौटने पर ये रास्ता बहुत अलग और अच्छा लग रहा था, शायद सांझ पहाड़ों में रौनक ले आती है। सूरज डूबने वाला था और उसकी लालिमा धीरे-धीरे पहाड़ और आसमान में फैल रही थी। पहाड़ और ये पेड़ सूरज को देखने नहीं दे रहे थे, कोई खुली जगह हो तो ये सांझ देखी जाये। डूबते सूरज को देखा जाये और उसकी सुंदरता को। ये नजारे रोज-रोज नहीं मिलते, आज मौका था सो जी लेना चाहिए। थोड़ी देर में हम उसी जगह आ गये, जहां से पूरा शहर दिखता है लेकिन यहां से मैं सिर्फ डूबते सूरज को देखना चाहता था।


डूबते सूरज में भी वही आकर्षण होता है जो उगते सूरज में होता है। डूबते सूरज की सुंदरता उसकी लालिमा में है जो पूरे आसमान को अपने रंग में रंग देता है और अब मैं उसी रंग को देख रहा था। जिंदगी में सब कुछ यात्रा है, जो हमारे साथ घट रहा है जो हम कर रहे हैं। ये करने और घटने को दर्ज कर लेना चाहता हूं, जैसे का तैसा।

Monday 4 March 2019

जयपुर 5: शानदार जगह की कभी तुलना नहीं की जा सकती जैसे कि ये शहर

जयपुर का सिटी पैलेस बेहद शानदार था। जहां आकर लगा कि राजपूतों की शान आज भी बरकरार है। वो विशाल राजदरबार और वो झूमर सब राजमहल जैसा प्रतीत करा रहे थे। मैं बहुत कुछ देख चुका था लेकिन अभी भी बहुत कुछ देखना चाहता था। जब अच्छी जगह पहुंच जाते हो तो कहीं ठहरने का मन नहीं होता। ठहरना भी है तो उस जगह क्यों न ठहरें जहां कुछ देखा भी जा सके और सुकून भी मिले। सिटी पैलेस को देखने के बाद अगला पड़ाव था- हवा महल।


इंटरनेट पर जयपुर के बारे में कुछ डालते हैं तो हवा महल की तस्वीर जरूर आती है। जब मैं आमेर किला जा रहा था तब ऑटो वाले भइया ने कहा था। हवा महल के अंदर कुछ नहीं है जो है वो बाहर ही है। तब मुझे एक घूमने वाले शख्स ने कहा था, ऐसी गलती मत करना। हवा महल के बाहर तो कुछ नहीं है, अंदर बहुत खूबसूरत है। उनकी ही बात दिमाग में रखकर अब मैं हवा महल के लिये निकल पड़ा। हवा महल सिटी पैलेस से दूर नहीं है, मैं पैदल ही हवा महल के लिये निकल पड़ा।


हवा महल को 1799 में महाराजा सवाई प्रताप सिंह ने बनवाया था। महाराजा राधाकृष्ण के अगाध भक्त थे। उन्होंने हवा महल को राधाकृष्ण को ध्यान में रखकर ही बनवाया था। इसका आकार बाहर से ऐसा है जैसे भगवान कृष्ण का मुकुट हो। महाराजा सवाई प्रताप सिंह ने ये महल पांच मंजिला बनवाया। हर एक तल का नाम भी है। रतन मंदिर, विचित्र मंदिर, प्रकाश मंदिर और हवा मंदिर। पांचवी मंजिल ‘हवा महल’ के नाम पर ही इस महल का नाम रखा गया है। इस महल में महाराजा की रानियां समय बिताती थीं। इस महल में छोटी-छोटी 953 खिड़कियां हैं। जहां से रानियां शहर को देखा करती थीं।


कुछ ही मिनटों में हम हवा महल के सामने खड़े थे। जो हवा महल रात को रोशनी से चमक रहा था। वो दिन के उजाले में अच्छा लग रहा था लेकिन और भी अच्छा लगता। अगर हवा महल पर धूल की परत जमा न होती। शायद ये महल बिना धूल के और भी चमकदार होता। देश में आधुनिकता इतनी बढ़ गई है कि पुरानेपन को देखना तो पसंद करते हैं लेकिन उसे साफ करना नहीं। अब जब साफ होगी तब साफ होगी। हमें तो अब अंदर से हवा महल देखना था। हवा महल के हम सामने खड़े थे लेकिन यहां तो कोई गेट था ही नहीं। वहीं पास के ही एक दुकानदार से पूछा तो उसने कहा- हवा महल के सामने कोई गेट नहीं है। दो गेट हैं वो भी थोड़ा आगे चलकर। हवा महल के दायें तरफ चल पड़े। थोड़ा आगे चलने पर लिखा हुआ था, हवा महल की ओर जाने का रास्ता।


उस छोटे-से रास्ते में हम आगे बढ़ चले। यहां भी एक पेड़ के नीचे वही फोटो वाला खेल चल रहा था जिसे मैं दो दिन से देखता आ रहा था। हर कोई राजस्थानी बनकर, एक फोटो ले जाना चाहता था। उसी को देखते हुये हम आगे चल पड़े। हम खुली जगह पर आ गये थे, यहां भीड़ थी। भीड़ इसलिये नहीं कि यहां कुछ देखने लायक था। भीड़ इसलिये क्योंकि यहां से हमें अंदर जाने की अनुमति मिलने वाली थी। उसके लिये लंबा इंतजार करना था। 50-60 लोगों की लाइन में खड़े होकर इंतजार की लड़ाई लड़नी थी। लगभग आधे घंटे के बाद मेरा नंबर आया। 50 रुपये का टिकट था। स्टूडेंट की आईडी होती तो सिर्फ 5 रुपये का। इसके बाद हम हवा महल के अंदर गये।



अंदर आये तो किसी आंगन में आ गये। जहां से इस महल की बड़ी-बड़ी दीवारें और मुकुटरूपी छोर दिख रहा था। इस महल के वास्तुकार हैं लालचंद उस्ताद। इस महल के दो गेट है आनंदपोलि और चन्द्रपोलि। मैं जहां से आया वो चन्द्रपोलि था। ये महल पिरामिड के आकार का बना हुआ है और 87 फीट उंचा है। महल के बीचोंबीच फुव्वारा बना हुआ है जो इस समय बंद है। वहीं पास में ही बहुत से कमरे बने हुये हैं। जिसमें महाराजा और उनकी रानी के भी कमरे है। सामने ही बहुत उंची दीवार है। जहां बाकी तल बने हुये हैं। उपर जाने के लिये सीढ़ियां नहीं हैं बल्कि संकरे ढलान रास्ता बना हुआ है। हर तल पर छोटी-छोटी खिड़कियां बनी हुई हैं। जहां से शहर को देखा जा सकता है। यहां से हम सबकुछ देख पा रहे थे लेकिन कोई हमें नहीं देख सकता। शायद इसलिये यहां अक्सर रानियां समय बिताती थीं और शहर को देखा करती थीं।


इन रंग बिरंगी खिड़कियों के अलावा यहां बेहतरीन गुंबद भी बने हुये हैं। जहां ठहरकर अच्छा लगता है। यहां इतना शोरशराबा नहीं था जैसा सिटी पैलेस और नाहरगढ़ किले में था। यहां लगता है कि आराम-आराम से चला जाये और ठहरकर सबकुछ देखा जाये। नक्काशी में हवा महल थोड़ा-थोड़ा नाहरगढ़ किले की तरह ही है। यहां पर खड़े होकर एक किला भी दिखता है शायद नाहरगढ़ का किला है। इसके अलावा उंचाई से शहर को दूर-दूर तक देखा जा सकता है। सबसे उपरी मंजिल का नाम है हवा मंदिर। जिसके नाम पर हवा महल का नाम रखा गया है। यहां सबसे कम जगह है। यहां पर एक गाॅर्ड भी है जो ज्यादा लोगों को रूकने नहीं दे रहा था।


इस जगह पर आकर बेहद अच्छा लगता है। ये तल इतनी उंचाई पर है कि हवा आपको छूकर निकलती है। यहां सुकून है और शहर को देख पाने वाला शानदार नजारा है। थोड़ी देर रूककर मैं नीचे आने लगा। हवा महल को देख चुका था अब बाहर आने की बारी थी। नीचे आया तो कुछ और भी मिल गया, एक पुरातत्व संग्रहालय। यहां बहुत प्रकार की मूर्तियां भी हैं और वाद्य यंत्रों की जानकारी। ऐसे वाद्ययंत्र रखे हुये हैं जो आज उपयोग में ही नहीं हैं। इसके बाद मैं हवा महल की सैर करके बाहर निकल आया। जो जयपुर आये उसे हवा महल सिर्फ बाहर से ही नहीं देखना चाहिये। बाहर तो सिर्फ फोटो काॅर्नर है। अंदर जानकारी भी है और सुकून भी।

अल्बर्ट हाॅल


महल का सुकून और सुंदरता अब भी मन में बसी हुई थी। लेकिन मुझे आगे भी बढ़ना था और भी कुछ देखने के लिये। हवा महल की सुंदरता और सुकून को लेकर आगे बढ़ गया अल्बर्ट हाॅल की ओर। अल्बर्ट हाॅल एक म्यूजिम है जिसे महाराजा राम सिंह ने ब्रिटेन के प्रिंस अल्बर्ट के स्वागत के लिये लिये 1876 में निर्माण शुरू करवाया था। 10 साल बाद ये म्यूजिम बनकर तैयार हुआ और 1887 में ये लोगों के लिये खोल दिया। अब तक मेरे साथ वो शख्स थे जो मुझे यूं ही मिल गये थे। अब उनको वापस जाना था लेकिन अल्बर्ट हाॅल म्यूजिम रास्ते में ही पड़ रहा था। तो उन्होंने मुझे अल्बर्ट हाॅल म्यूजिम के पास छोड़ और वे आगे बढ़ गये। मैं भी आगे बढ़ गया अल्बर्ट हाॅल की ओर। आगे बढ़ना कितना आसान है न, बस मंजिल होनी चाहिये।


मैं जिस रोड से आ रहा था उसके सामने ही अल्बर्ट हाॅल म्यूजिम दिख रहा था। कुछ ही मिनटों बाद मैं उस अल्बर्ट हाॅल के आगे खड़ा था। जहां सभी लोगों तस्वीरें लेने में लगे हुयं थे। अल्बर्ट हाॅल देखने में संग्रहालय नहीं बल्कि कोई महल लग रहा था। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि अंदर जाने का रास्ता क्या है? या फिर अंदर जाने की मनाही है। मैं ये सब सोच ही रहा था कि पास में ही खड़े एक बुजुर्ग शख्स बोले- रास्ता आगे से है। मैंने मुस्कुराकर उनको धन्यवाद दिया और आगे बढ़ गया। मुझे अल्बर्ट हाॅल का गेट मिल गया था। वहीं पास में ही चिड़ियाघर भी था लेकिन मुझे चिड़ियाघर नहीं जाना था। एक बार फिर से मुझे टिकट लाइन में लगना था। यहां भी टिकट में स्टूडेंट को फायदा था, लेकिन मुझे तो 40 रुपये ही देने थे।


टिकट लेकर महल की तरह दिखने वाले इस हाॅल के अंदर चला गया। बाहर जितना अच्छा लग रहा था अंदर भी अच्छा था। सबसे पहले एक आंगन मिलता है। वैसे ही जैसे जयपुर के अब तक के सभी महलों मंे मिला था। आंगन में फुव्वारा लगा हुआ था। आंगन की दीवारें संगमरमर पत्थर की थी। इसके बाद तो मैं दीवारों और नक्काशी पर ध्यान ही नहीं दे पाया। इस म्यूजिम में मैंने वो दुनिया देखी जो मैंने कभी नहीं देखी थी।


सबसे पहले वाले हाॅल में राजपूताना शाही सामानों को संग्रह था। जिसमें बहुत सारी सुराही, हुक्का इतना बड़ा जितनी मेरी हाईट, ऐसे ही सारे बर्तन इस हाॅल में थे। इसी हाॅल की गैलरी में बहुत बड़ी ढाल भी है। जिस पर चित्रकारी की गई है। जिसमें घुड़सवारी से लेकर जंग दिखाई गई है। ऐसी ही और भी ढाले हैं जिन पर कई कलाकृतियां उकेरी हुई हैं। जो उस समय की राजशाही प्रणाली को दर्शाता है। इसके आगे एक और हाॅल है जिसमें यूरोप की शैली को दिखाया गया है। जिसमें ग्रीक शैली भी है। उनकी कलाकृति भी रखी हुई है और उनकी जानकारी भी दी गई है। इसमें यूरोप शैली का कांच मंजूषा भी है और शाही योद्धा का चित्र भी। इसके अलावा ग्रीक-रोमन संग्रह है, चीन, अरबी, इंडोनेशिया, श्रीलंकाई संग्रह भी रखा हुआ है।


हर देश के बारे में कुछ न कुछ रखा हुआ है। जापान के बने बर्तन हैं तो इंडोनिशेया की युद्ध आकृति बनी हुई है। म्यांमार की कला में कंघा, बैलगाड़ी को रखा हुआ है। बुद्ध की भी बहुत सारी मूर्तियां रखी हुई हैं। इंग्लैंड से डाॅल्टन और मिंटन के चीनी बर्तन बने हुये हैं। ऐसे ही कई बर्तन और कलाकृति रखी हुई हैं। अगर हरेक के बारे में थोड़ा-थोड़ा भी बताया जाये तो बहुत कुछ जाना जा सकता है। ये तो सिर्फ एक तल की बात है। ऊपरी तल में तो गजब का संग्रह है।


यहां आज को भी दिखाया है और कल को भी। हम समय के साथ कैसे बदल गये हैं? इस संग्रह में आकर देखा जा सकता है। यहां हमको हर तरह से दिखाने की कोशिश की गई है। हमारी पूरी दिनचर्या, हमारे काम, हमारे सभी भगवान, हमारे संग्रह सब कुछ यहां हैं। हमारे हिंदी मौसम की जानकारी और समय हम क्या करते थे? जैसे-जैसे संग्रहालय में आगे बढ़ते हैं। हम इन सबके बारे में जान लेते हैं। बड़ी बात यहां फोटो लेना मना नहीं है। यहां कई सारे वाद्ययंत्र भी रखे हुये हैं, हथियार भी रखे हुये हैं। जो समय के साथ बदलते गये हैं। एक बड़ा वाद्ययंत्र रखा हुआ है। जो बिल्कुल सितार की तरह है लेकिन वो सितार नहीं है। वो रबाब है जो शायद आज हमारे संगीत जीवन से चला गया है। उस दौर के महिलाओं के आभूषण भी इस म्यूजिम भी हैं।


इतना कुछ देखने के बाद मैं नीचे आने लगा। म्यूजिम में इतना कुछ देखने के बाद मैं मन ही मन खुश था। लेकिन अभी तो और भी खुश होने वाली चीज देखने वाला था-ममी। ये ममी वाला काॅन्सेप्ट स्कूल टाइम में इतिहास की बुक में पढ़ा था। अल्बर्ट हाॅल म्यूजिम में ममी भी है। बहुत लोग उसी जा रहे थे मैं भी चल दिया। ममी के इस रास्ते में रोशनी कम थी। थोड़ा आगे जाने पर दो बड़े-बड़े पुतले थे जो किताबों में देखी। मिस्र की कलाकृति के बारे में जो सुना था वो म्यूजिम में देख रहा था। यहां बहुत सारी ममी के पुतले बने हुये थे और एक ममी भी थी।


जो ममी के तरह लग रही थी। अब वो प्रतीकात्मक था या सच। ऐसा कुछ वहां लिखा नहीं था लेकिन ममी के बारे में पूरी जानकारी दी गई थी। ममी के साथ क्या दफनाया जाता है? ममी की प्रक्रिया क्या है? ये सारी जानकारी यहां दी गई थी। कुछ देर रूकने के बाद मैं वहां से निकल आया। शाम हो चली थी फिर भी मेरे पास समय था। मैं उसी आंगन में बैठ गया जहां आखिरी बार दीवारों पर ध्यान गया था। मैं जयुपर की पूरी यात्रा के बारे में सोच रहा था। हर महल के बाद मैं यही सोच रहा था कि ये बेहतरीन था, सबसे अच्छा। अब सब कुछ देखने बाद मुझे लगता है सब कुछ देखे बिना यात्रा पूरी नहीं होती है। सब कुछ कभी देखा भी नहीं जा सकता। मैं भी सब कुछ नहीं देख पाया लेकिन जो देखा वो बेहतरीन था। मुझे कहां ताड़पत्र पर रामायण देखने को मिलती।


कुछ देर बाद चलते-चलते मैं जयपुर को सलाम देने लगा। क्योंकि कुछ देर बाद मुझे जयपुर छोड़ना था। अभी भी बहुत कुछ रह गया था जो अगली बार के लिये छोड़ दिया था। जयपुर खूबसूरत है बेहद खूबसूरत। जिसे कुछ दिनों में नहीं जाना जा सकता। मैंने इस बार जयपुर को देखा था जाना नहीं था। कभी आउंगा दोबारा इस शहर में, देखने नहीं जानने।

Thursday 28 February 2019

जयपुर 4ः ये शहर फाहे की तरह है जो थकने ही नहीं देता है

जयपुर शहर के फाहे ने मुझे सुस्ताने का मौका ही नहीं दिया था। अब जो यहां बैठा हूं तो चलने का मन ही नहीं हो रहा। मैं सोचने लगा आज के पूरे सफर के बारे में आमेर, जयगढ़ और नाहरगढ़। तीनों किलों की अपनी खासियत है। कोई किला खूबसूरत है तो किसी किले की दीवार पर आज बस रहा है। जयपुर की तीन दीवारी मैं चुका था। अब मुझे देखना था शहर और शहर के किनारे। मैं उठा और चल दिया, अपने हिस्से का शहर देखने।


मैं अब सपाट रास्ता पर था लेकिन अभी भी सड़क दूर थी। यहां शांति थी और पशु-पक्षियों की चहचहाट। तभी मुझे मोर दिखाई दिये, जितने आगे बढ़ा मोर की संख्या भी बढ़ती गई। मैं वहां रूका नहीं, सीधा जल महल की ओर बढ़ने लगा। अब मैं जयपुर की गलियों में था, कोई काॅलोनी थी। घर वैसे ही थे जैसे हर शहर में आधुनिकता से परिपूर्ण। आगे कुछ बच्चे मिले जो पतंग लेकर खुश थे। मैं सोच रहा था कि यहां पतंग उड़ाना, गिल्ली-डंडे जैसा है। हर कोई पतंग उड़ा लेता है, हमारे यहां तो बचपन जाता है तो पतंग की डोर भी छूट जाती है।

जल महल


करीब पांच मिनट के बाद मैं मैन रोड पर आ गया। रोड के उस पार मेला लगा हुआ था। यहां मेला था क्योंकि यहां जल महल है। जल महल जिसे बस देख सकते हैं, निहार सकते हैं, तस्वीर ले सकते हैं। मगर उस जगह पर जा नहीं सकते। जल महल तो दूर के ढोल सुहाने जैसा है। इस महल को 1799 में राजा सवाई जयसिंह ने बनवाया था। इस महल में वे अपनी रानियों के साथ समय बिताते थे। जल महल झील के बीचों-बीच बना हुआ है। यहां वो सब है जो एक ऐतहासिक जगह को बाजार बनाने के लिये काफी होता है। खाने के लिये रोड किनारे ठेले ही ठेले लगे हुये हैं।

जल महल।
आमेर किले में हाथी की सवारी से पैसे कमाये जा रहे थे और यहां उंट की सवारी से। यहां के मार्केट में कुछ अलग है तो वो राजस्थानी दुकानें हैं। जहां राजस्थानी जूती, शाही सामान के नमूने। जिनसे लोग अपने घर की साजो-सज्जा बढ़ाते हैं। जयगढ़ किले की तरह यहां भी राजस्थानी कपड़ों में तस्वीरों का दौर चल रहा था। अगर राजस्थानी कुछ खरीदना है तो यहां से खरीदना चाहिये। महल के अंदर तो महंगाई ने पकड़ बना रखी है। यहां इसके अलावा कुछ देखने को है नहीं तो मैं वहां से आगे बढ़ गया। लोकल बस ली और हवा महल की ओर चल दिया।


मेरा आज हवा महल देखने का कोई प्लान नहीं था। बस रात को कैसा लगता है बस इसी वजह से हवा महल जाने का मन बनाया। रात के वक्त जयपुर की सड़कों पर जाम लग जाता है, हर बड़े शहर की तरह। जल महल से मैं लोकल बस पर चढ़ गया। कुछ मिनटों के बाद मैं हवा महल के सामने खड़ा था। मेरे सामने वो इमारत थी जिसकी बारे में मैंने बचपन में सुना था और कई सालों से तस्वीरों में देख रहा था। रात के इस शोर में भी हवा महल कितना शांत लगा रहा था। एक सीधी, ऊंची इमारत जो इस समय भगवा रंग में रंगी हुई लग रही थी। रात में भी ये महल अपनी रोशनी बिखेर रहा था। मैं वहां कुछ 15-20 मिनट रूका और वहां से निकल गया।


मैंने चांदपूल जाने के लिए ई-रिक्शा लिया। ई-रिक्शा उसी रास्ते पर था, जहां से मैं सुबह आया था। ऐसा मुझे लग रहा था क्योंकि चारों तरफ एक-जैसा ही दृश्य था। एक जैसी ही दुकानें और उनकी बनावट का ढंग। लग रहा था कि सारी दुकानें किसी एक ही है। मैंने ई-रिक्शा वाले से इस बारे में पूछा तो उसने हंसकर बस इतना कहा, कि यहां जो लोग आते हैं वो इसको देखकर ही खुश हो जाते हैं। मैं समझ गया कि उसे इसके बारे में जानकारी नहीं है। कुछ देर बाद चांदपूल आया और वहां से मैं पहुंचा अपने कमरे पर। आज का दिन बहुत थकावट वाला रहा। बिस्तर पर लेटते ही नींद आ गई और आंख खुली सुबह 8 बजे।

रात में दिखता हवा महल।
उठते ही मन किया कि निकल लिया जाये। थोड़ी देर बाद मैं रास्ते पर जा रहा था, तभी मेरे बगल पर एक गाड़ी आकर रूकी। मैंने सोचा कि शायद रास्ता पूछने के लिये गाड़ी रोकी है, लेकिन मैं गलत था। वहां से आवाज आई। मैं आपके साथ ही ठहरा हूं, आइये आपका कुछ समय बचा देता हूं। मैं गाड़ी में बैठ गया, उसने अपना नाम बताया लेकिन मुझे याद नहीं है। वो दिल्ली से जयपुर कुछ काम से आया था और आज दिल्ली वापस जाना था। हम सबसे पहले चांदपूल चौराहे पर गये और नाश्ता करने का सोचा। हम एक दुकान में घुस गये, वहां मैंने वो भारी भरकम पकौड़े-मिर्च लेने को कहा। जिसे कुछ ही देर में दुकानदार ने कैंची से काटकर पीस-पीस कर दिया। दोने में वो मिर्च इस प्रकार पड़ी थी जैसे कि वो हमेशा से यूंही बौनी हों। वो पकौड़ा-मिर्च कढ़ी के साथ परोस दी गई। मैंने समोसे, पकौड़े-मिर्च चटनी के साथ ही खाई थी। ऐसा पहली बार था कि कढ़ी से पकौड़ा-मिर्च खा रहा था। खाने में खराब नहीं थी, सुबह-सुबह इसका स्वाद अच्छा लगा।


इस दुकान पर चाय नहीं थी। दुकान से बाहर निकलकर सड़क किनारे ठेले पर चाय पीने आ गये। जब चाय अपने उबाल पर थी तो मैंने वही सवाल चाय वाले से पूछा। उसने बताया सांगनेरी गेट की तरह चारों तरफ ऐसे ही गेट हैं। असली जयपुर उसी के अंदर है, पहले जयपुर शहर की सीमा वही होती थी। बाद में जनसंख्या बढ़ी तो शहर भी पसरता गया। लेकिन पुराना शहर वही है, वहां की दुकानें, चौक, सब एक ही जैसे हैं। मुझे नहीं पता था कि वो सही बोल रहा है या नहीं। लेकिन मैं उसके इस जवाब से संतुष्ट था।


सिटी पैलेस


मुझे आज शहर को देखना था और खासकर हवामहल को। मुझे वो यूं अचानक मिल गये थे, वो भी मेरे साथ चलना चाहते थे। यूं तो मुझे अकेले ही घूमना पसंद है लेकिन मैंने मना नहीं किया। थोड़ी देर बार हवा महल के सामने थे। गाड़ी को पार्क करने की जगह नहीं मिल रही थी। वहीं खड़े एक दुकानदार ने बताया कि पहली गली में पार्किंग है। हम गाड़ी उसी गली में ले गये। यहां पहुंचे तो हवा महल पीछे छूट गया और सामने दिख गया सिटी पैलेस। अब हवा महल को बाद में देखने की योजना बनाई और चले पड़े सिटी पैलेस की ओर।

सिटी पैलेस में पपेट शो।
यहां भी टिकट की लाइन लगी थी लेकिन बहुत छोटी। मैंने टिकट का प्राइस देखा तो पहले तो लगा कि फाॅरेनर वाला प्राइस देख लिया है। लेकिन टिकट आम भारतीय के लिये 200 रूपये का था। टिकट महंगा है तो देखने लायक भी बहुत कुछ होगा, यही सोचकर टिकट ले लिया। सिटी पैलेस एकदम शहर के बीचों-बीच बना हुआ है और हवा महल के बिल्कुल पास। इस महल का निर्माण 1729 में महाराजा सवाई जय सिंह माधो ने करवाया था। जो तीन सालों में ही 1732 में ही पूरा हो गया। ये शाही परिवार का निवासी महल है। इस महल में देखने लायक बड़े-बड़े आंगन, खूबसूरत राजदरबार और कई महल हैं। महल में अंदर आने के तीन गेट हैं- उदय पोल, वीरेन्द्र पोल और त्रिपोलिया गेट। शाही परिवार के सदस्य त्रिपोलिया गेट से आते हैं और बाकी दोनों गेट से पर्यटक आते हैं।


टिकट लेने के बाद हम जैसे ही प्रवेश द्वार के पास पहुंचे। वहां खड़े कुछ लोगों ने एक पगड़ी पहना दी जिसका साफा पीछे पैरों तक जा रहा था। उन्होंने फोटो खींची और कहा कि वापिस आते वक्त ले लीजियेगा। मैंने मन ही मन कहा, ये बढ़िया है। पर्यटक राजी हो या न हो, फोटो देखकर तो लेने का लालच आ ही जायेगा। बाजारवाद का लालच यहां अच्छी तरह से लागू हो रहा था। दरवाजे से अंदर आये तो सामने कुछ छोटी-छोटी तोपें रखी हुई हैं और उसके बगल पर चल रहा है पपेट शो। ऐसा ही पपेट शो नाहरगढ़ किले में भी मिला था। जयपुर में हर जगह ऐसे पपेट शो देखने को मिल ही जाते हैं। वहीं बहुत सारी दुकानें भी थीं जहां राजस्थानी कपड़े, जूतियां, पगड़ी जैसे ही सामानों की रेल लगी हुई थी। लेकिन मैं तो सिटी पैलेस देखने आया था न कि दुकानें। सामने एक और गेट था और यहीं से शुरू होती है सिटी पैलेस की दुनिया।


अभी तक जो दीवारें और महल दिख रहे थे वो सभी लाल बलुआ पत्थर के थे। अभी तक जो लाल बलुआ पत्थर देखा था उसमें थोड़ा पुरानापन और रूखाई दिखती थी। लेकिन ये लाल दीवारें बिल्कुल साफ और सफेद नक्काशी इसको बेहद मनममोहक बना रही थी। बीच आंगन में एक दरबार जैसी एक इमारत थी, जिसकी छत पर महल वाली झालर लगी थी। जिसें मैंने अभी तक फिल्मों मे ही देखा था। दीवरों पर बहुत सारे तीर, भाले और बंदूकें लगीं हुईं थीं। उनमें सबमें सबसे खास था चांदी के बहुत बड़े दो कलश। इन कलशों में गंगाजल रखा गया है। ये 1894 में 140000 चांदी के सिक्कों को पिघलाकर बनाया गया था। इस कलश की ऊंचाई 5 फीट 3 इंच है, 345 किलोग्राम इसका वजन है। इसका नाम गिनीज ऑफ वर्ल्ड रिकाॅर्ड में दर्ज है।

मुबारक महल।
इसके बाद हम लाल बलुआ की इमारत से निकलकी सफेद संगमरमर के दरवाजे से और अंदर आ गया। ये आंगन भी वैसा ही था जैसा हम देखकर आये थे। मेरे सामने एक इमारत थी जो दोमंजिला थी। देखने में बेहद खूबसूरत इसका नाम है मुबारक महल। दरवाजे से लेकर दीवार हर कोना किसी ने किसी डिजाइन में बना हुआ था। जिस गेट से हम अंदर आये थे, वहां दो दरबान भी खड़े थे, लाल लिबास और पगड़ी में। सिटी पैलेस में काम करने वाला हर व्यक्ति इसी पोशाक में मिलेगा। मैं मुबारक महल के अंदर घुस गया। मुझे बताया गया कि यहां फोटो खींचना मना है। सामने ही वो बिस्तर लगा हुआ था जो उस समय का है। बहुत बड़ा बिस्तर, उस पर रखा चौसर और लंबे-लंबे तीन तकिये।


आगे वाले कमरे में महाराजा सवाई माधो सिंह की कुछ पोशाकें थी। एक उनके राजशाही वाली, एक उनकी पोलो खेलने वाली। उनकी तस्वीर भी लगी थी पोलो खेलते हुये। वहीं गंजीफा रखे हुये हैं यानि कि खेलने के पत्ते। आगे वाले कमरे में बहुत सारी पगड़ियां, जामा, पायजामा, अंगरखा रखे हुये हैं। आगे बढ़ने पर महारानी के लिये कई प्रकार की साड़ियां रखी हुई हैं। बनारसी साड़ी से लेकर कश्मीरी पश्मीना शाॅल। ये सब देखते-देखते मैं मुबारक महल से बाहर आ गया। मुबारक महल को माधो सिंह द्वितीय ने बनवाया था। इसके बाद मैं शस्त्रागार दीर्घा में गया। मैं जिंदगी में पहली बार इतने शस्त्र देखे वो भी इतने प्रकार के। इसमें हाथी दांत तलवारें, चेन हथियार, बंदूक, पिस्टल, तोपें, प्वाइजन टिप वाले ब्लेड, गन पाउडर हथियार और कैंची हथियार। यहां भी फोटों लेना मना था। अगर आप शस्त्रों को देखना पसंद करते हैं तो आप यहां आराम से हर एक हथियार का आंखों से जायजा ले सकते हैं। इन सबको देखकर इतना तो कहा जा सकता है कि जयपुर मजबूत राज्यों में से रहा है।


चन्द्र महल


चंद्र महल सिटी पैलेस का सबसे खूबसूरत जगह। घुसते ही मेरे मुंह से वाह निकल गया। चंद्र महल एक प्रकार से राज दरबार की तरह लग रहा था। सिटी पैलेस में सबसे ज्यादा ज्यादा नक्काशी इसी महल में हैं। पर्दे से लेकर, फूल तक सब कुछ रखा था। महल के बीचों-बीच दो बड़ी कुर्सी रखीं थी और उसके आस-पास छोटी-छोटी कुर्सियां। इसे देखकर लग रहा था कि मैं किसी ऐतहासिक फिल्म की शूटिंग में घुस आया हूं। झूमर अपनी चमक बिखेर रहे थे। जिससे महल और भी बहुत खूबसूरत लग रहा था। यहां भी फोटो खींचना मना था और अगर ऐसा करते पकड़े गये तो 500 रूपये जुर्माना था।



यहां सभी महाराजाओं की तस्वीर लगी हुई थी और सबके बारे में लिखा हुआ था। मैं तस्वीरों में देख रहा था कि सभी राजा कद-काठी में लंबे और तंदरूस्त थे सिवाय महाराजा सवाई राम सिंह द्वितीय को छोड़कर। सवाई राम सिंह द्वितीय को चश्मा लगा हुआ था। मैंने पहली बार देखा था कि राजा भी चश्मा लगाते हैं। मेरे साथ जो थे वो फोटो खींच रहे थे जबकि उनको बार-बार चेतावनी दे दी गई थी। अबकी बार उन्होंने जैसे ही मोबाइल निकाला। लाल पोशाक में एक व्यक्ति आया और हाथ से मोबाइल छीन लिया। उसके बाद बहुत मिन्नतें हुईं लेकिन वो नहीं माना। उसने वो सारी तस्वीरें डिलीट कीं और 500 रूपये का जुर्माना भी ले लिया। राजमहल की खूबसूरती को देखकर और इस वाक्ये पर हंसते-हंसते बाहर निकल आये। हम उसी जगह पर आ गये जहां फोटो खिंचवाई थी। फोटो का पैसा पूछा तो हमने न लेने का ही फैसला लिया।


शहर में ज्यों-ज्यों आगे देख रहे थे लग रहा था कि कितनी बेहतरीन है। हर जगह की अपनी महत्वता थी, कोई आकार में बड़ा है, कोई सुंदरता में और कोई अपने इतिहास में। ऐसा ही कुछ सिटी पैलेसे को देखने के बाद लग रहा था। सिटी पैलेस शहर के बीचों बीच नहीं है, शहर इस पैलेस के चारों तरफ है।

Tuesday 12 February 2019

जयपुर 3: इस शहर को अब लपककर पाने की चाह हो रही थी

ये जयपुर यात्रा की तीसरी कड़ी है, यात्रा का पिछला भाग यहां पढ़ें।

घूमते वक्त एक घुमक्कड़ के मन में क्या चलता है? मैंने दूसरों से इसके बारे में कभी नहीं पूछा। लेकिन जयपुर में दो किलों को देखने के बाद एक अहसास था, सुकून वाला। जो मेरे मन में चल रहा था। मैं सोच रहा था कि कुछ जानकारी से भरी जगहों को देख चुका हूं और कुछ बाकी हैं। इन किलों को देखते वक्त मुझे थकान नहीं हुई थी। किले के अंदर होता था तो बस यही सोचता था कि कोई जगह न छूट जाये। आमेर किला और जयगढ़ किले की अपनी अहमियत है। एक राजशाही किला है तो दूसरा सैन्य बंकर। इस किले को देखने के बाद अब मुझे जाना था- नाहरगढ़ किला।


किले से बाहर निकला तो अब बाहर का नजारा बदल चुका था। टिकट काउंटर पर बहुत लंबी लाइन लगी थी, रास्ता गाड़ियों से भर चुका था। मेरी जहां तक नजर जा रही थी, गाड़ियां ही गाड़ियां नजर आ रहीं थीं। मैंने इंटरनेट पर चेक किया तो यहां से नाहरगढ़ किले की दूरी 5 किलोमीटर बता रहा था। मैंने सोचा पहले जाम पार करता हूं फिर गाड़ी देखता हूं। क्योंकि यहां से गाड़ी बुक करता तो घंटों यहीं जाम में फंसा रहता। मैं पैदल ही चलने लगा, गाड़ियों के बीच से। जो जाना तो चाह रहीं थीं लेकिन जाम के कारण रूकी हुईं थीं। करीब आधा घंटे चलने के बाद मैं वो जाम पार करके खुले रास्ते पर आ गया। लेकिन अब यहां कोई टैक्सी नहीं थी। मैंने कैब का सहारा लेना चाहा लेकिन यहां नेटवर्क धोखा दे रहा था।

नाहरगढ़ किला


कुछ देर इंतजार करने के बाद जब कुछ नहीं मिला तो पैदल ही चलने लगा। जयपुर आने वाले ज्यादातर लोग टूरिस्ट ही होते हैं क्योंकि पूरे रास्ते मुझे कोई चलने वाला साथी नहीं मिला। लोग पहाड़ तो कई किलोमीटर चढ़ जाते हैं क्योंकि उसमें एक नाम जुड़ा होता है ‘ट्रेक’। वो नाम इस सीधे रास्ते पर कहां मिलेगा? थोड़ी देर चलने के बाद मैं उस जगह आ गया। जहां से रास्ता बदलकर नाहरगढ़ की ओर जा रहा था। मैंने अब सोच लिया था कि पैदल ही नाहरगढ़ जाऊंगा। पैदल-पैदल रास्ता नापने लगा। आसपास जंगल-जंगल नजर आ रहा था। अधिकतर पेड़ सूखे ही नजर आ रहे थे, झाड़ियों के जैसे।

नाहरगढ़ किले के रास्ते से दिखता जल महल।
गाड़ियां तेज रफ्तार से आती और मेरे बगल से गुजर जातीं। एक टैक्सी जरूर आई और चलने का पूछने लगी। इस बार मैंने कोई रेट नहीं पूछा, क्योंकि मैं क्लियर था कि पैदल ही रास्ता तय करूंगा। जंगल को छोड़कर थोड़ी देर बार सड़क से पहाड़ दिखने लगे जो इस रोड से नीचे थे। मैं आसपास की सबसे ऊंची जगह पर चल रहा था। थोड़ा आगे चलने के बाद तस्वीर बदल गई। पहाड़ की जगह अब शहर और जलमहल ने ले ली थी। जलमहल की सबसे अच्छी और साफ तस्वीर यहीं से दिख रही थी। यहां से छोटे-छोटे मकान, छोटा जलमहल और उसके पीछे पहाड़। यहां से सबकुछ तस्वीर में कैद हो रहा था। कुछ देर बाद एक और बोर्ड मिला, नाहरगढ़ किला का। मैं सोच रहा था कि पास में ही है लेकिन मैं गलत था। मंजिल अभी दूर थी।

नाहरगढ़ किले का रास्ता।
थोडा़ आगे चलने पर एक चाय की टपरी आई, पूरे रास्ते की एकमात्र यही दुकान ळें यहां थोड़ी देर बैठा और साथ के लिए चाय ले ली। मैं फिर चलने लगा क्योंकि रास्ते में कोई बोर्ड नहीं था कि नाहरगढ़ किला कितने दूर है। तभी मुझे एक ऊंचा गुंबद दिखा। मैं खुश हो गया आखिरकार मैं पैदल ही किले तक आ गया। लेकिन मैं गलत था वो तो कोई चरण मंदिर निकला। यहीं पर बहुत लोग पतंग उड़ा रहे थे। रास्ते में मुझे कई कटी पतंग भी मिलीं और टूटे माझे भी। जयपुर में पतंग उड़ाना त्यौहार की तरह लग रहा था। लोग बड़ी-बड़ी गाड़ी से यहां आते और पतंग उड़ाते। यहां हर उम्र का शख्स पतंग उड़ाते हुये दिख रहा था। मैं ऐसे ही दृश्य देखते हुये आगे बढ़े जा रहा था। रास्ते में दूरदर्शन संचार का कार्यालय मिला। एक उम्रदराज व्यक्ति उसमें से निकला और मोटरसाइकिल से कहीं जाने लगा। वो नाहरगढ़ की तरफ ही जा रहे थे। मैंने पूछा-नाहरगढ़ जा रहे हैं? उन्होने कोई जवाब नहीं दिया लेकिन रूकी हुई गाड़ी से मैं समझ चुका था कि इशारा बैठने का है। कुछ ही मिनटों के बाद मैं नाहरगढ़ किला पहुंच गया। नाहरगढ़ किले का गेट भी बाकी किलों के तरह बड़ा था। इस गेट का नाम था- ताडी गेट।

नाहरगढ़ किले की झील।
ताडी गेट से अंदर गये तो फिर से वही काम करना था जो अब तक करते आ रहे थे ‘टिकट लाइन’। यहां लाइन ज्यादा लंबी नहीं थी कुछ ही देर में मेरा नंबर आ गया। आम भारतीय के लिये टिकट की 50 रूपये का था। विधाथी की आईडी होती तो टिकट सिर्फ 5 रूपये का पड़ता। टिकट लेकर आगे बड़ा तो कुछ कृत्रिम कलाकारी दिखी। जहां पर बाहर एक नकली शेर बना हुआ था, हुक्का पीता हुआ एक बूत। लेकिन ये नमूने थे अंदर एक म्यूजिम था। वहीं बैठे गाॅर्ड ने बताया कि म्यूजिम अंदर है बहुत नायाब चीजें रखी हैं। उसके अंदर जाने का अलग से टिकट लेना पड़ रहा था जिसकी कीमत 500 रूपये थी। मैं तो किला देखने आया था ये लुटाई तो कहीं और भी की जा सकती थी, मैं आगे बढ़ गया। थोड़ा ही चलने पर मुझे बावड़ी मिली। जो नाहरगढ़ की सबसे ऐतहासिक बावड़ी है, जिसमें आज भी पानी बना हुआ है। उसके बगल में ही एक टंका है, हौदी के टाइप का। जिसमें वर्षा का पानी आता है और यहां से पानी छनकर बावड़ी में जाता है। उसके ठीक सामने ही किला है, माधवेन्द्र भवन।

नाहरगढ़ सबसे बेहतरीन भवन।

माधवेन्द्र भवन


नाहरगढ़ किले को 1734 में महाराजा सवाई जयसिंह ने बनवाया था। ये किला कभी आमेर की राजधानी हुआ करता था। राजा बदलते रहे और इसका विस्तार होता गया। इस किले के नाम की भी कई कहानी हैं। कहा जाता है कि यहां राजा नाहर का भूत रहता था। जो इस किले को बनने नहीं दे रहा था, उसने शर्त रखी कि इस किले का नाम उसके नाम पर होना चाहिये। इसलिए इस किले का नाम नाहरगढ़ किला रख दिया।


माधवेन्द्र भवन बाहर से देखने पर किसी पुराने घर की तरह लग रहा था। जिसकी दीवारों का रंग अब उतर रहा है। उसके आगे ही पपेट शो चल रहा है, जिसको दो लड़के दिखा रहे हैं। एक हरमोनियम बजा रहा है और दूसरा ढोलक। उसके ठीक सामने ही इस भवन का दरवाजा है जो अभी तक देखे गये किलों में सबसे छोटा था। अंदर घुसते ही लगा कि सच में किसी भवन में आ गया हूं। एक बड़ा-सा आंगन और उसके आसपास बहुत से कमरे। हर कमरे में कुछ न कुछ अजब-गजब था, जो सब कृत्रिम था। पूरे किले में यही सब था। कहीं टूटी प्लेट तो कहीं मसाले, पानी भरी बहुत-पाॅलीथन। उन सबमें सबसे बेहतरीन वो पांडुलिपि थी। जो दूर से देखने पर लग रही थी कि कोई पुरानी किताब रखी है छूकर देखा तो पूरा पत्थर था। ऐसी ही एक और कलाकृति थी एक लकड़ी में बहुत सारे सिक्के थे। हर कमरे में सुरक्षा गाॅर्ड था।


पूरा किला इन सबसे ही भरा हुआ है। यहां से देखने लायक है वो है शहर। शहर यहां से खूबसूरत लगता है। ऐसा लग रहा था कि सफेदी-सफेदी है। लेकिन थोड़ा निराश हुआ था कि यहां से जयपुर पिंक नहीं लग रहा था। उसके बाद मैं सबसे ऊपर पहुंच गया यानि कि इस भवन की छत पर। जहां से किला के गुंबदों को देखना तो अच्छा लगता ही है, शहर को भी देखने का मन करता है। ये जयपुर की सबसे ऊंची जगह थी। माधवेन्द्र भवन के हर कोने को और किले की कृत्रिमता को देखकर मैं बाहर निकल आया। अब मुझे वापस लौटना था, यहां से मैं पैदल नहीं जा सकता था क्योंकि इस जगह से जयपुर शहर 15 किलोमीटर दूर है। 5 किलोमीटर चलने में बहुत समय लग गया था। मैं किसी भी तरह पैदल का सोचूं तो बहुत समय लग सकता था।

नाहरगढ़ किले से दिखता जयपुर।

असली सफर तो बाकी था


बाहर आकर सबसे पहले यहां का मुर्रा खाया और फिर आईसक्रीम। बहुत सारे ऑटो खड़े थे, मैं जिससे भी जाने का पूछता तो वो 300-400 का अपना रेट रख देते। यहां जो आया था उसको जाना जरूर था इसलिए मनमाने पैसे वसूले जा रहे थे। मैं आगे चलता रहा और पूछता रहा लेकिन कहीं बात नहीं बनी। मैं मजबूरन पैदल चलने लगा। लगभग 1-2 किलोमीटर चल गया था, शरीर में थकावट नहीं थी। लेकिन 15 किलोमीटर सोचकर थकान हावी होने लगती। आॅटो मेरे पास आती और हाॅर्न मारती। मेरा जवाब न मिलने पर आगे निकल जाती। ऐसा बार-बार हो रहा था, मैं परेशान हो गया। मैंने वो कच्चा रूट पकड़ लिया जो रोड के बगल से गया था। यहां से जलमहल दिख रहा था, थोड़ी देर बाद बड़ी गहरी खाई। मैं थकान के कारण वहीं बैठ गया। लगभग आधा घंटा वहीं बैठा रहा। मैं उसी दीवार पर चलने लगा जो खाई के इस तरफ बनी थी।


मैं सोचने लगा कि यहां से सीधा रास्ता होता तो 15 मिनट में जलमहल पहुंच जाता। इस घुमावदार रास्ते ने शहर को कितने दूर कर दिया। मैं सोचने लगा कि क्यों न यहीं से जाया जाए? लेकिन गहरी खाई देखकर जाने का मन नहीं हो रहा था। उससे भी बड़ा डर था घना जंगल। जहां जंगली जानवर होने की भी आशंका थी। मैं इस रास्ते का विचार छोड़ ही रहा था कि मुझे एक झंडा दिखाई दिया। ध्यान से देखा तो वो कोई मंदिर जैसा लग रहा था। मुझे रास्ता नहीं मिला था लेकिन मंजिल दिख गई थी। मैं खड़ी खाई में जाने के लिए तैयार हो गया। एक छलांग से मैं उस ढलान वाले रास्ते पर चलने लगा। कदम एक जगह रूक नहीं रहे थे, भाग रहे थे। रूकने के लिये मुझे पेड़ो को पकड़ना पड़ रहा था। रास्ता था नहीं लेकिन बनाना पड़ रहा था। फिसलने का भी डर था, अगर फिसला तो सीधा खाई में पहुंच जाता।

खतरनाक रास्ते पर मैं चल रहा था।
पहले पेड़ों का जंजाल और फिर फिसलते पत्थर। ऐसे ही ढलान को उतरने में मेहनत जरूर लगी लेकिन कुछ अलग रास्ते पर जाने का उत्साह था। जंगल में बस पंक्षियों की चहचाहट ही सुनाई दे रही थी। मैं जल्दी से जल्दी उस मंदिर के पास जाना चाहता था। मुझे अब डर खाई का नहीं था, मुझे डर था बस जानवरों का। जैसे ही नीचे उतरा तो सुकून ही सांस ली। यहां से उपर देखने पर खुशी हो रही थी। खुशी इस बात की जयपुर में आकर मैंने एक पहाड़ से उतरा था। खुशी इस बात की कुछ अलग किया था। सुकून इस बात का कि मुझे अब 15 किलोमीटर नहीं चलना पड़ा था। मैं वहीं बैठ और सोचने लगा कि अकेले घूमने में कितनी आजादी होती है। वही आजादी इस समय मैं महसूस कर रहा था। मैं भूल गया था कि अभी सफर पूरा नहीं हुआ था। वैसे भी सफर कभी पूरा होता है क्या? वो तो चलता ही रहता अपने-अपने हिस्से का।