यात्रा का पिछला भाग यहां पढ़ें।
कठिन है, बहुत ही कठिन है किसी एक जगह पर टिके रहना। अगर आसान है तो भीड़ में खुद को अकेला पाना, पर अकेले में अकेले न होना कठिन है। ये सब मुमकिन है तो बस यात्राओं में। यात्राएं होती हैं खुद को बह जाने के लिए, खुद को आजाद करने के लिए। किसी सफर पर खुद को ले जाने से पहले अपने मन को ले जाना पड़ता है। उसके बाद हर सफर खूबसूरत लगने लगता है। यात्राएं कितनी बेहतरीन चीज है न। यहां अकेले होने के बावजूद अकेलापन महसूस नहीं होता है। एक खूबसूरत नजारे को घंटों देखता रहना भी कम लगता है और अगर ऐसा हो जब चारों तरफ ही ऐसे खूबसूरत नजारें हों तब। मैं ऐसे ही खूबसूरत नजारों की घाटी को देखने वाला था, एकटक।
हेमकुंड साहिब के ट्रेक ने मुझे इतना थका दिया था कि मेरा कहीं और जाने का मन ही नहीं हो रहा था। सुबह हो चुकी थी और मेरी नींद भी खुल चुकी थी। मैं और मेरे दोनों साथी अपना सामान पैक कर रहे थे। उनके और मेरे बैग पैक करने में अंतर था। वो कहीं जाने के लिए तैयार थे और मैं लौटने की तैयारी कर रहा था। मेरे मन में बहुत कुछ चल रहा था। एक मन कह रहा था कि मुझे इनके साथ ही जाना चाहिए। दूसरी तरफ ये भी लग रहा था कि ये चढ़ाई कठिन हुई तो उतरना मुश्किल होगा। जब आप मन से थके हुए हों और घबरा रहे हों। तब आपके पास एक दोस्त होना चाहिए जो आपका हौंसला बढ़ा सके। खुशकिस्मती से मेरे पास ऐसा ही दोस्त था। उसने मुझे हौंसला दिया कि हम इस जगह के लिए ही तो आए थे, इसको पूरा किए बिना वापस नहीं जा सकते। उसकी बातें सुनकर मैंने भी हां कर दी। इस बार हमारा सफर था, फूलों की घाटी।
सुबह कल ही तरह खूबसूरत थी। यहां घूमने आने वाले लोग हमारे साथ चल रहे थे। रास्ते के किनारे बहुत से लोग बैठे भी थे और खिलखिला रहे थे। ये स्थानीय लोग थे, इनकी हंसी देखकर अंदर से तो अच्छा लग रहा था। लेकिन दिमाग भारी होने की वजह से चेहरे पर हंसी नहीं आ पा रही थी। मैंने अपने दोस्त से तो चढ़ाई के लिए तो हां कर दी थी। लेकिन मन ही मन सोच लिया था कि चढ़ाई कठिन रही थी बीच से ही वापिस लौट आऊंगा। मैंने फिर से उसी झरने का पार किया जो कल बेहद खूबसूरत लग रहा था। पानी की कलकल अब भी वही थी लेकिन हर रोज देखने पर शायद हमारा नजरिया बदल जाता है। करीब आधा किलोमीटर चलने के बाद वो जगह आई। जहां से हमें फूलो की घाटी के लिए जाना था। मैं उसी रास्ते पर चलने लगा। ये रास्ता संकरा जरूर था लेकिन आसान था। ऐसे ही रास्ते पर कुछ देर चलने के बाद एक टिकट काउंटर आया। यहां कुछ बोर्ड लगे हुए थे। जिसमें फूलों की घाटी का नक्शा और उसकी जानकारी दी हुई थी।
यहां एक परमिट बनता है फूलों की घाटी में प्रवेश के लिए। ये टिकट काउंटर सुबह 7 बजे से 12 बजे तक खुलता है। उसके बाद फूलों की घाटी में जाना मना है। भारतीयों के लिए ये टिकट 150 रुपए का है और विदेशी नागरिकों के लिए 650 रुपए का। हमने वो परमिट लिया और फूलों की घाटी की ओर चल पड़े। सही मायने में फूलों की घाटी का सफर अब शुरू हुआ था। हम जंगल के बीचों बीच चल रहे थे और आसपास के ऊंचे-ऊंचे पेड़ों को देखते जा रहे थे। अचानक हम अंधेरे से निकलकर उजाले में आ गए। यहां एक नदी बह रही थी, जो इस समय एक धारा बनकर निकल रही थी। पहाड़ों में पानी ऐसे ही बहता है, अलग-अलग जगह पर। यहां पानी का स्रोत सिर्फ नदी नहीं होते, जंगल और जमीन भी अपना काम करते-रहते हैं।
कई पेड़ों पर छोटे-छोटे बोर्ड लगे हुए थे, जिनमें उनकी प्रजाति का नाम लिखा हुआ था। ऐसी ही एक पत्थर पर लिखा हुआ था, ब्लू पोपी स्पाॅट। हम सोच रहे थे कि ब्लू पोपी कोई प्यारा जानवर है। बाद में पता चला कि ब्लू पोपी, एक खूबसूरत फूल होता है। हालांकि उस जगह पर न फूल था और न ही कोई जानवर। हम फिर से जंगल से खुले आसमान के नीचे आ गए थे। ये नजारे बदलने का काम कर रही थी एक नदी। इस नदी का नाम पुष्पवती है। पहले इस घाटी को इसी नाम से जाना जाता था, बाद में इसे फूलों की घाटी कहने लगे। इस नाम बदलने की एक कहानी है। 1931 में ब्रिटेन के पर्वतारोही फ्रैंक एस स्मिथ अपने दोस्त आर एल होल्डसवर्थ के साथ कामेट पर्वत के अभियान से लौट रहे थे। तब उनको रास्ते में ये घाटी मिली, इसकी खूबसूरती ने उनको दंग कर दिया। 1937 में वे वापस इसी घाटी को देखने आए और इस पर एक किताब लिखी, फूलों की घाटी। तब से ये जगह फूलों की घाटी कहलाने लगी।
अभी तक रास्ता बहुत आसान लग रहा था लेकिन पुल को पार करने के बाद चढ़ाई शुरू हो गई। हमें इस चढ़ाई में मुश्किल नहीं हो रही थी क्योंकि हेमकुंड की कठिन चढ़ाई ने बहुत कुछ सिखा दिया था। ये नदी का जाबर दृश्य बेहद ही खूबसूरत है। दो ऊंची चटटानों के बीच से बहती एक नदी। इससे पहले ऐसे नजारे सिर्फ फिल्मों में देखे थे। तब मन ही मन कहता था, कभी जाऊँगा इन जगहों पर। अब मन की बात को आंखों से देख रहा था। मैं बहुत थका हुआ था लेकिन ऐसे नजारे सारी थकान भुला देते हैं। थकान अगर हार है तो ये नदी, ये पहाड़ जीतते रहने की एक आशा है।
एक जगह से चलकर, दूसरी जगह तक पहुंचने में कितना समय होता है। इस समय में आप अपने साथ होते हैं, खुद से बात कर रहे होते हैं, खुद के बारे में सोच रहे होते हैं। मैं तब हरे-भरे मैदान के बारे में सोच रहा था, फूलों की घाटी के बारे में सोच रहा था और साथ चलते लोगों के बारे में भी। ऐसे ही चलते-चलते हम रूक भी रहे थे, कभी थकान की वजह से तो कभी खूबसूरत नजारों की वजह से। रास्ते में ऐसी ही एक खूबसूरत जगह आई, जिसको हम देखते ही रह गए। दूर तलक हरियाली के मैदान थे, उसके साथ चारों तरफ पहाड़ और उनमें तैरते बादल। ये सब देखने में जितना अच्छा लगता है उससे कहीं ज्यादा खुशी उस पल को याद करने से होती है। सफर यही तो है, चलना और रूकना।
वैली ऑफ फ्लावर के लिए हम अकेले नहीं जा रहे थे। इस संकरे रास्ते पर बहुत सारे लोग हमारे साथ थे। उन सबके बीच मेरी नजर एक बच्चे पर चली गई। जिस उम्र में हम स्कूल भी साइकिल से जाते थे वो पैदल फूलों की घाटी जा रहा था। वो चढ़ तो रहा था लेकिन थकान उस पर हावी थी। वो बार-बार अपनी मां से रूकने को कह रहा था और उसकी मां उसे चलने पर जोर दे रही थीं। कुछ आगे बढ़े तो एक जगह आई जहां लिखा था टिपरा ग्लेशियर को देखें। लेकिन इस समय कोई टिपरा ग्लेशियर नहीं था। थोड़ा आगे बढ़े तो एक गुफा मिली, बामण घौड़ गुफा। बारिश के समय इसके नीचे लोग रूकते और इंतजार करते हैं, बारिश के कम होने का। ऐसे ही रास्तों को पार करने के बाद हम फूलों की घाटी में प्रवेश कर गए।
फूलों की घाटी में जैसे ही घुसे, चारों तरफ कुहरा छाने लगा। ऐसे लगा जैसे मौसम की मेरे साथ कोई दुश्मनी हो। पहले हेमकुंड साहिब पहुंचा तो कुहरा था, अब फूलों की घाटी में भी वही हाल था। कहते हैं जब आसमां साफ हो न हो, वो अपना ही लगता है। कुछ न कुछ वो हमेशा देता ही रहता है। इस धुंध में भी एक खूबसूरत खुशबू बह रही थी। उसी खुशबू को देखते हुए मैं आगे बढ़ रहा था। मेरे चारों तरफ अब सिर्फ फूल ही फूल थे। ऐसे फूल जो मैंने कभी देखे नहीं थे। मैं ऐसी ही खूबसूरती को देखते हुए बढ़ता रहा और भोजपत्र के पेड़ के नीचे बैठ गया। कुछ देर बाद वहां एक टूरिस्ट गाइड आया। उसने बताया कि आगे इसी नदी का छोर है, वहां तक जरूर जाना चाहिए। मैं फिर से चलने के लिए तैयार हो गया।
काॅलेज के समय से मैं फूलों की घाटी का नाम सुनता आ रहा था। तब लगता कि कहीं हिमालय के बीच होगी और वहां जाना नामुमकिन होगा। अब मैं उसी फूलों की घाटी को निहारते हुए, रूकते हुए, चल रहा था। आगे बढ़ा तो फिर से रास्ते में पानी मिला। इस बार कोई पुल नहीं था, पत्थरों पर कदम रखकर आगे बढ़ना था। पानी को पार करने के बाद मैं फिर से फूलों के बीच था। चलते-चलते एक ऐसी जगह आई, जहां से दो रास्ते गए थे। वहीं एक बोर्ड लगा हुआ था, जिसमें टिपरा की ओर और लेगी की ओर रास्ता था। मैं सीधे रास्ते पर चलने लगा जो टिपरा की ओर जा रहा था। इतने दूर चलने पर अब कम ही लोग रास्ते में दिख रहे थे। कहते हैं न कठिन रास्ते पर कम ही लोग जाते है। जितना आप आगे जाते हैं सुकून उतना ज्यादा पाते हैं। फूलों की घाटी में चलते-चलते ऐसी जगह आ गया जहां नदी गिर नहीं बह रही थी। हम उसी नदी के पास जाकर बैठ गए।
यहां मैं घंटों बैठा रह सकता था और कुछ हुआ भी वैसा ही। नदी के किनारे पत्थरों की टेक पर मैं कभी बैठा पहाड़ों को निहार रहा था तो कभी छलांग लगा रहा था। घंटों यहां गुजारने के बाद हम वापस उसी जगह आ गए। जहां से टिपरा के लिए गए थे। अब हम लेगी की ओर जा रहे थे। मुझे नहीं पता था इस रास्ते पर क्या है? जब वो खूबसूरत रास्ता खत्म हुआ तो वहां एक समाधि दिखी। उसके सामने ही कुछ कुर्सियां बनी हुईं थी। ये समाधि है, जाॅन मार्गरेट लेग। लेग लंदन में फूलों पर अध्ययन कर रही थीं। 1939 में वे फूलों की घाटी में फूलों पर स्टडी कर रही थीं। फूलों की इकट्ठा करते समय वे गिर गईं और उनकी मौत हो गई। उनकी खोज में उनकी बहन यहां आई और यही उनकी समाधि स्थल बनाई।
यहां जो भी आता है, उनको श्रद्धांजलि जरूर देता है, हमने भी वही किया। कहते हैं कि मरने के बाद स्वर्ग या नरक कुछ मिलता है। लेकिन लेग बड़ी खुशकिस्मत हैं वो हमेशा जन्नत जैसी जगह में रहती है। पहाड़ों को और फूलों के बीच खुद को समेट लिया है। हमें यहीं एक अमेरिकी मिला। जिसने बताया कि वो आज ही पुलना से चलकर घांघरिया आया और अब फूलों की घाटी। हमने ये सब दो दिन में किया और इसने एक दिन में। खूबसूरती को जितना निहारो उतना कम है, हमारे लिए भी कम ही था। हम इस खुबसूरती को लेकर लौट चले। फूलों की घाटी से नीचे उतरना कठिन नहीं है। हम शाम से पहले ही घांघरिया पहुंच गए।
घांघरिया लौटकर एक अजीब-सा सुख था। लग रहा था जो पाने आये थे, जो करने आया था, वो कर लिया है। जीवन की उस यात्रा को पा लिया था, जहां ट्रेफिक का कोई शोर नहीं था। यहां नदियां थीं, खूबसूरत झरने, जंगल और ग्लेशियर। ऐसा लग रहा था कि इस सफर से पहले मैं एक गुफा में था। यहां आकर मैं उस गुफा से बाहर निकल आया हूं। लेकिन सफर अभी खत्म नहीं हुआ था, सफर कभी खत्म होना भी नहीं था। अभी मुझे एक हासिल और कठिन अंधेरी यात्रा भी करनी थी।
कठिन है, बहुत ही कठिन है किसी एक जगह पर टिके रहना। अगर आसान है तो भीड़ में खुद को अकेला पाना, पर अकेले में अकेले न होना कठिन है। ये सब मुमकिन है तो बस यात्राओं में। यात्राएं होती हैं खुद को बह जाने के लिए, खुद को आजाद करने के लिए। किसी सफर पर खुद को ले जाने से पहले अपने मन को ले जाना पड़ता है। उसके बाद हर सफर खूबसूरत लगने लगता है। यात्राएं कितनी बेहतरीन चीज है न। यहां अकेले होने के बावजूद अकेलापन महसूस नहीं होता है। एक खूबसूरत नजारे को घंटों देखता रहना भी कम लगता है और अगर ऐसा हो जब चारों तरफ ही ऐसे खूबसूरत नजारें हों तब। मैं ऐसे ही खूबसूरत नजारों की घाटी को देखने वाला था, एकटक।
फूलों की घाटी। |
हेमकुंड साहिब के ट्रेक ने मुझे इतना थका दिया था कि मेरा कहीं और जाने का मन ही नहीं हो रहा था। सुबह हो चुकी थी और मेरी नींद भी खुल चुकी थी। मैं और मेरे दोनों साथी अपना सामान पैक कर रहे थे। उनके और मेरे बैग पैक करने में अंतर था। वो कहीं जाने के लिए तैयार थे और मैं लौटने की तैयारी कर रहा था। मेरे मन में बहुत कुछ चल रहा था। एक मन कह रहा था कि मुझे इनके साथ ही जाना चाहिए। दूसरी तरफ ये भी लग रहा था कि ये चढ़ाई कठिन हुई तो उतरना मुश्किल होगा। जब आप मन से थके हुए हों और घबरा रहे हों। तब आपके पास एक दोस्त होना चाहिए जो आपका हौंसला बढ़ा सके। खुशकिस्मती से मेरे पास ऐसा ही दोस्त था। उसने मुझे हौंसला दिया कि हम इस जगह के लिए ही तो आए थे, इसको पूरा किए बिना वापस नहीं जा सकते। उसकी बातें सुनकर मैंने भी हां कर दी। इस बार हमारा सफर था, फूलों की घाटी।
चलें एक और सफर पर
सुबह कल ही तरह खूबसूरत थी। यहां घूमने आने वाले लोग हमारे साथ चल रहे थे। रास्ते के किनारे बहुत से लोग बैठे भी थे और खिलखिला रहे थे। ये स्थानीय लोग थे, इनकी हंसी देखकर अंदर से तो अच्छा लग रहा था। लेकिन दिमाग भारी होने की वजह से चेहरे पर हंसी नहीं आ पा रही थी। मैंने अपने दोस्त से तो चढ़ाई के लिए तो हां कर दी थी। लेकिन मन ही मन सोच लिया था कि चढ़ाई कठिन रही थी बीच से ही वापिस लौट आऊंगा। मैंने फिर से उसी झरने का पार किया जो कल बेहद खूबसूरत लग रहा था। पानी की कलकल अब भी वही थी लेकिन हर रोज देखने पर शायद हमारा नजरिया बदल जाता है। करीब आधा किलोमीटर चलने के बाद वो जगह आई। जहां से हमें फूलो की घाटी के लिए जाना था। मैं उसी रास्ते पर चलने लगा। ये रास्ता संकरा जरूर था लेकिन आसान था। ऐसे ही रास्ते पर कुछ देर चलने के बाद एक टिकट काउंटर आया। यहां कुछ बोर्ड लगे हुए थे। जिसमें फूलों की घाटी का नक्शा और उसकी जानकारी दी हुई थी।
यहीं से शुरु होता है सफर। |
यहां एक परमिट बनता है फूलों की घाटी में प्रवेश के लिए। ये टिकट काउंटर सुबह 7 बजे से 12 बजे तक खुलता है। उसके बाद फूलों की घाटी में जाना मना है। भारतीयों के लिए ये टिकट 150 रुपए का है और विदेशी नागरिकों के लिए 650 रुपए का। हमने वो परमिट लिया और फूलों की घाटी की ओर चल पड़े। सही मायने में फूलों की घाटी का सफर अब शुरू हुआ था। हम जंगल के बीचों बीच चल रहे थे और आसपास के ऊंचे-ऊंचे पेड़ों को देखते जा रहे थे। अचानक हम अंधेरे से निकलकर उजाले में आ गए। यहां एक नदी बह रही थी, जो इस समय एक धारा बनकर निकल रही थी। पहाड़ों में पानी ऐसे ही बहता है, अलग-अलग जगह पर। यहां पानी का स्रोत सिर्फ नदी नहीं होते, जंगल और जमीन भी अपना काम करते-रहते हैं।
फूलों की घाटी जाने का परमिट। |
जंगल के बीच से
कई पेड़ों पर छोटे-छोटे बोर्ड लगे हुए थे, जिनमें उनकी प्रजाति का नाम लिखा हुआ था। ऐसी ही एक पत्थर पर लिखा हुआ था, ब्लू पोपी स्पाॅट। हम सोच रहे थे कि ब्लू पोपी कोई प्यारा जानवर है। बाद में पता चला कि ब्लू पोपी, एक खूबसूरत फूल होता है। हालांकि उस जगह पर न फूल था और न ही कोई जानवर। हम फिर से जंगल से खुले आसमान के नीचे आ गए थे। ये नजारे बदलने का काम कर रही थी एक नदी। इस नदी का नाम पुष्पवती है। पहले इस घाटी को इसी नाम से जाना जाता था, बाद में इसे फूलों की घाटी कहने लगे। इस नाम बदलने की एक कहानी है। 1931 में ब्रिटेन के पर्वतारोही फ्रैंक एस स्मिथ अपने दोस्त आर एल होल्डसवर्थ के साथ कामेट पर्वत के अभियान से लौट रहे थे। तब उनको रास्ते में ये घाटी मिली, इसकी खूबसूरती ने उनको दंग कर दिया। 1937 में वे वापस इसी घाटी को देखने आए और इस पर एक किताब लिखी, फूलों की घाटी। तब से ये जगह फूलों की घाटी कहलाने लगी।
पहाड़ों के बीच से बहती नदी। |
अभी तक रास्ता बहुत आसान लग रहा था लेकिन पुल को पार करने के बाद चढ़ाई शुरू हो गई। हमें इस चढ़ाई में मुश्किल नहीं हो रही थी क्योंकि हेमकुंड की कठिन चढ़ाई ने बहुत कुछ सिखा दिया था। ये नदी का जाबर दृश्य बेहद ही खूबसूरत है। दो ऊंची चटटानों के बीच से बहती एक नदी। इससे पहले ऐसे नजारे सिर्फ फिल्मों में देखे थे। तब मन ही मन कहता था, कभी जाऊँगा इन जगहों पर। अब मन की बात को आंखों से देख रहा था। मैं बहुत थका हुआ था लेकिन ऐसे नजारे सारी थकान भुला देते हैं। थकान अगर हार है तो ये नदी, ये पहाड़ जीतते रहने की एक आशा है।
खूबसरत नजारे
एक जगह से चलकर, दूसरी जगह तक पहुंचने में कितना समय होता है। इस समय में आप अपने साथ होते हैं, खुद से बात कर रहे होते हैं, खुद के बारे में सोच रहे होते हैं। मैं तब हरे-भरे मैदान के बारे में सोच रहा था, फूलों की घाटी के बारे में सोच रहा था और साथ चलते लोगों के बारे में भी। ऐसे ही चलते-चलते हम रूक भी रहे थे, कभी थकान की वजह से तो कभी खूबसूरत नजारों की वजह से। रास्ते में ऐसी ही एक खूबसूरत जगह आई, जिसको हम देखते ही रह गए। दूर तलक हरियाली के मैदान थे, उसके साथ चारों तरफ पहाड़ और उनमें तैरते बादल। ये सब देखने में जितना अच्छा लगता है उससे कहीं ज्यादा खुशी उस पल को याद करने से होती है। सफर यही तो है, चलना और रूकना।
कभी चढ़ना तो कभी उतरना, यही तो सफर है। |
वैली ऑफ फ्लावर के लिए हम अकेले नहीं जा रहे थे। इस संकरे रास्ते पर बहुत सारे लोग हमारे साथ थे। उन सबके बीच मेरी नजर एक बच्चे पर चली गई। जिस उम्र में हम स्कूल भी साइकिल से जाते थे वो पैदल फूलों की घाटी जा रहा था। वो चढ़ तो रहा था लेकिन थकान उस पर हावी थी। वो बार-बार अपनी मां से रूकने को कह रहा था और उसकी मां उसे चलने पर जोर दे रही थीं। कुछ आगे बढ़े तो एक जगह आई जहां लिखा था टिपरा ग्लेशियर को देखें। लेकिन इस समय कोई टिपरा ग्लेशियर नहीं था। थोड़ा आगे बढ़े तो एक गुफा मिली, बामण घौड़ गुफा। बारिश के समय इसके नीचे लोग रूकते और इंतजार करते हैं, बारिश के कम होने का। ऐसे ही रास्तों को पार करने के बाद हम फूलों की घाटी में प्रवेश कर गए।
फूलों से भरी एक दुनिया
फूलों की घाटी में जैसे ही घुसे, चारों तरफ कुहरा छाने लगा। ऐसे लगा जैसे मौसम की मेरे साथ कोई दुश्मनी हो। पहले हेमकुंड साहिब पहुंचा तो कुहरा था, अब फूलों की घाटी में भी वही हाल था। कहते हैं जब आसमां साफ हो न हो, वो अपना ही लगता है। कुछ न कुछ वो हमेशा देता ही रहता है। इस धुंध में भी एक खूबसूरत खुशबू बह रही थी। उसी खुशबू को देखते हुए मैं आगे बढ़ रहा था। मेरे चारों तरफ अब सिर्फ फूल ही फूल थे। ऐसे फूल जो मैंने कभी देखे नहीं थे। मैं ऐसी ही खूबसूरती को देखते हुए बढ़ता रहा और भोजपत्र के पेड़ के नीचे बैठ गया। कुछ देर बाद वहां एक टूरिस्ट गाइड आया। उसने बताया कि आगे इसी नदी का छोर है, वहां तक जरूर जाना चाहिए। मैं फिर से चलने के लिए तैयार हो गया।
फूलों की भी एक दुनिया होती है। |
काॅलेज के समय से मैं फूलों की घाटी का नाम सुनता आ रहा था। तब लगता कि कहीं हिमालय के बीच होगी और वहां जाना नामुमकिन होगा। अब मैं उसी फूलों की घाटी को निहारते हुए, रूकते हुए, चल रहा था। आगे बढ़ा तो फिर से रास्ते में पानी मिला। इस बार कोई पुल नहीं था, पत्थरों पर कदम रखकर आगे बढ़ना था। पानी को पार करने के बाद मैं फिर से फूलों के बीच था। चलते-चलते एक ऐसी जगह आई, जहां से दो रास्ते गए थे। वहीं एक बोर्ड लगा हुआ था, जिसमें टिपरा की ओर और लेगी की ओर रास्ता था। मैं सीधे रास्ते पर चलने लगा जो टिपरा की ओर जा रहा था। इतने दूर चलने पर अब कम ही लोग रास्ते में दिख रहे थे। कहते हैं न कठिन रास्ते पर कम ही लोग जाते है। जितना आप आगे जाते हैं सुकून उतना ज्यादा पाते हैं। फूलों की घाटी में चलते-चलते ऐसी जगह आ गया जहां नदी गिर नहीं बह रही थी। हम उसी नदी के पास जाकर बैठ गए।
नदी के छेार पर
यहां मैं घंटों बैठा रह सकता था और कुछ हुआ भी वैसा ही। नदी के किनारे पत्थरों की टेक पर मैं कभी बैठा पहाड़ों को निहार रहा था तो कभी छलांग लगा रहा था। घंटों यहां गुजारने के बाद हम वापस उसी जगह आ गए। जहां से टिपरा के लिए गए थे। अब हम लेगी की ओर जा रहे थे। मुझे नहीं पता था इस रास्ते पर क्या है? जब वो खूबसूरत रास्ता खत्म हुआ तो वहां एक समाधि दिखी। उसके सामने ही कुछ कुर्सियां बनी हुईं थी। ये समाधि है, जाॅन मार्गरेट लेग। लेग लंदन में फूलों पर अध्ययन कर रही थीं। 1939 में वे फूलों की घाटी में फूलों पर स्टडी कर रही थीं। फूलों की इकट्ठा करते समय वे गिर गईं और उनकी मौत हो गई। उनकी खोज में उनकी बहन यहां आई और यही उनकी समाधि स्थल बनाई।
जाॅन मार्गरेट लेग की समाधि |
यहां जो भी आता है, उनको श्रद्धांजलि जरूर देता है, हमने भी वही किया। कहते हैं कि मरने के बाद स्वर्ग या नरक कुछ मिलता है। लेकिन लेग बड़ी खुशकिस्मत हैं वो हमेशा जन्नत जैसी जगह में रहती है। पहाड़ों को और फूलों के बीच खुद को समेट लिया है। हमें यहीं एक अमेरिकी मिला। जिसने बताया कि वो आज ही पुलना से चलकर घांघरिया आया और अब फूलों की घाटी। हमने ये सब दो दिन में किया और इसने एक दिन में। खूबसूरती को जितना निहारो उतना कम है, हमारे लिए भी कम ही था। हम इस खुबसूरती को लेकर लौट चले। फूलों की घाटी से नीचे उतरना कठिन नहीं है। हम शाम से पहले ही घांघरिया पहुंच गए।
ऐसी जगह पर रूकना तो बनता है। |
घांघरिया लौटकर एक अजीब-सा सुख था। लग रहा था जो पाने आये थे, जो करने आया था, वो कर लिया है। जीवन की उस यात्रा को पा लिया था, जहां ट्रेफिक का कोई शोर नहीं था। यहां नदियां थीं, खूबसूरत झरने, जंगल और ग्लेशियर। ऐसा लग रहा था कि इस सफर से पहले मैं एक गुफा में था। यहां आकर मैं उस गुफा से बाहर निकल आया हूं। लेकिन सफर अभी खत्म नहीं हुआ था, सफर कभी खत्म होना भी नहीं था। अभी मुझे एक हासिल और कठिन अंधेरी यात्रा भी करनी थी।
No comments:
Post a Comment