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Sunday, 13 October 2019

बारिश में रात के अंधेरे में ट्रेकिंग की है कभी?

यात्रा का पिछला भाग यहां पढ़ें। 

एक सफर में कई कहानियां घूमती रहती हैं। कभी वो कहानी दूसरों से सुनते हो तो कभी कुछ ऐसा हो जाता है। जो आपके लिए कहानी बन जाती है। यात्रा के बाद सफर ऐसी ही कहानियों से याद रहते हैं। जरूरी नहीं ये कहानी अच्छी ही हों, यात्राओं में काफी कुछ खराब भी होता है। इस सुंदर और खूबसूरत सफर की एक कहानी मेरी भी है। एक रात की कहानी, जिसे मैं याद नहीं करना चाहता। मेरे बस में होता तो मैं उस रात को किसी और तरीके से लिखना चाहता। अब जब भी आकाश को देखता हूं तो वो रात याद आ जाती है। लगता है कि फिर से बारिश होगी और मैं फिर से पहाड़ों से निकलने की कोशिश करुंगा।


फूलों की घाटी का ट्रेक पूरा करके हम चार बजे तक नीचे आ गये थे। हम अपने बिस्तर पर आराम कर रहे थे। अब हमें कहीं और नहीं जाना था। अब हमें लौटना था। लौटना, यात्राओं का वो सच है जिसे हर कोई अपनाता है। ऐसी खूबसूरत यात्राओं के बाद हम जहां लौटते हैं वो हमारा घर होता है। कई बार लौटने पर दुख होता है तो कई बार सुकून। तब एक एहसास की परत होती है जिसे कोई कैमरा, कोई शब्द बयां नहीं कर सकते। हम आपस में चर्चा कर रहे थे कि लौटना आज है या कल? मेरा मानना था कि आज ही लौटना चाहिए। उतरने में ज्यादा समय नहीं लगता है। आखिर में हमने रात को बेकार न करने के लिए उसी शाम को चलने का फैसला किया।

एक बेवकूफी भरा निर्णय


हम जब गुरूद्वारे से निकल रहे थे। वहां के स्थानीय लोगों ने हमें कहा, आज की रात यहीं गुजारो, सवेरे होते ही नीचे उतरना। उन्होंने कहा रात को जाना समझदारी भरा निर्णय नहीं है। रास्ते में जंगली जानवर का खतरा भी है। मेरे साथी ने मुझसे पूछा क्या करें? मैं तो अब भी अपनी बात पर टिका हुआ था। शाम के 6 बजे हम घांघरिया से पुलना के लिए नीचे चलने लगे। हम जल्दी-जल्दी चल रहे थे, हमने एक किलोमीटर का रास्ता कुछ ही मिनटों में तय कर लिया था। रास्ते में हमें थके हुए लोग मिल रहे थे। सब हमसे वही सवाल पूछ रहे थे, जो कुछ दिन पहले हम पूछ रहे थे। ‘अभी घांघरिया कितना दूर है।’


रास्ता ढलान वाला था, इसलिए हम रास्ते के फ्लो में धड़कते जा रहे थे। मैं चाहता था कि 5 किलोमीटर का ये रास्ता अंधेरा होना से पहले तय कर लूं। इस रास्ते पर पहले हम चल रहे थे, बाद में भाग रहे थे। हमारे तेज चलने से हमारा एक साथी पीछे रह गया था। हमने एक बार रूककर उसका इंतजार किया। कुछ मिनटों बाद हम तीनों रास्तों पर बढ़ रहे थे लेकिन कुछ ही मिनटों के बाद हम फिर से अलग हो गए। हमें डर अंधेरे का नहीं था, डर था तो बस जंगली जानवरों का। रास्ते में हमें कुछ दुकानें और लोग मिलें। उन्होंने बताया कि रास्ते में जंगली जानवरों का कोई खतरा नहीं है। इस रास्ते में अभी तक ऐसा कुछ नहीं हुआ है।

घुप्प अंधेरा और बारिश


तेज गति से चलते-चलते एक घंटा हो गया था, अंधेरा भी होने वाला था। थोड़े ही आगे चलने पर नदी के बहने की आवाज सुनाई दी। नदी की कलकल आवाज सुनकर लग रहा था कि भ्युंडार गांव आने वाला है। थोड़ी देर बाद हम जंगल से बाहर निकलकर खुले मैदान में आ गए थे। यहां पहुंचकर मुझे बहुत खुशी हो रही थी। ये खुशी वैसी ही थी, जैसी प्यासे को पानी मिलने पर होती है। ऐसा लगा कि कुछ पा लिया हो। थोड़ी देर बाद हम उसी गांव की पहली दुकान पर बैठे थे। हम अपने तीसरे साथी का इंतजार कर रहे थे। थोड़ी देर बाद घाटी में अंधेरा उतरा आया। आज हमारी किस्मत अच्छी नहीं थी इसलिए रात भी चांदनी नहीं थी। दूर-दूर तक घुप्प अंधेरा और सन्नाटा पसरा हुआ था। हमें आगे बढ़ने से ज्यादा, अपने तीसरे साथी की फिक्र हो रही थी।


थोड़ी देर में बारिश होने लगी, हमें लगा कि थोड़ी देर में रूक जाएगी। लेकिन बारिश रूकने का नाम ही नहीं ले रही थी। हम अब तक खुशनसीब थे क्योंकि हमने लगातार बारिश का सामना कहीं नहीं किया था। अब हमें उसी बारिश का सामना करना था। कुछ देर बाद हमारा तीसरा साथी भी आ गया, जो काफी थका हुआ था। वो जब तक आराम कर रहा था। हम बारिश से बचने के इंतजाम में लगे हुए थे। पोंचा और रेनकोट अब हमारे काम आने वाला था। अब आगे का रास्ता हमें अंधेरे और बारिश के बीच तय करना था। हम सबका इस तरह का पहला अनुभव था।

बारिश में ट्रेकिंग


मुझे मन ही मन लग रहा था कि घांघरिया में उन लोगों की बात मान लेनी चाहिए थी। हम मोबाइल की टाॅर्च से अंधेरे में ही आगे बढ़ गए। चलने में अब परेशानी हो रही थी। रास्ता पूरा गीला हो चुका था और अंधेरे की वजह से हम धीरे-धीरे चल रहे थे। अब हम एक-दूसरे से दूर नहीं भाग सकते थे। हम एक साथ, आराम-आराम से आगे बढ़ रहे थे। अब हमें सिर्फ उतरना नहीं था, रास्ता चढ़ाई वाला भी था। डर इस बात का भी था कि पानी की वजह से पत्थर पर पैर फिसल भी सकता है। अंधेर में सब कुछ एक जैसा लग रहा था, खौफनाक। हमें कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। हम सिर्फ सुन पा रहे थे। हम सुनाई दे रही थी नदी की आवाज और बारिश की बूंदों का गिरना। 


मोबाइल की लाइट में हम बढ़े जा रहे थे। बारिश तभी अच्छी लगती है जब आप उसे देख रहे होते हैं। तब तो और अच्छी लगती है जब पहाड़ों में किसी होटल की बालकनी से देखते हैं। लेकिन भारी बारिश में चलना बहुत खतरनाक होता है। उसी भयानक और खतरनाक रास्ते में हम चले जा रहे थे। बारिश के साथ-साथ थकावट भी हम पर हावी थी, इस वजह से हमें बार-बार रूकना भी पड़ रहा था। हमें रास्ते में पानी से बचने की एक जगह मिली। वहां पहुंचे तो 6-7 कुत्ते पहले से ही डेरा डाले हुए थे। कुछ देर वहां रूकने के बाद हम आगे बढ़ गए। पानी रेनकोट से अंदर जाने लगा था। ये बारिश हमें बीमार भी कर सकती थी लेकिन अभी तो हमें यहां से निकलना था।

सिरहन पैदा करने वाला नजारा 


चलते-चलते ऐसी जगह पहुंचे, जहां रास्ता में झरना बन गया था। हमने एक-दूसरे को पकड़कर वो रास्ता तय किया। थोड़ा आगे बढ़े तो जो देखा उसके बाद शरीर में सिहरन-सी दौड़ गई। सामने दो बड़ी-बड़ी चट्टानें गिरी हुई थीं, रास्ता बंद था। पानी की वजह से कुछ देर पहले ही ये पहाड़ यहां गिरा होगा। हमने जल्दी-से वो पत्थर पार किया और तेज कदमों से आगे बढ़ने लगे। डर क्या होता है? वो बस मेरी दिल की धड़कन बता रही थीं। ऐसा कुछ देखने के बाद सफर के खुशनुमा और खूबसूरत वाले नजारे गायब हो जाते हैं। हम बस उस खतरे से बाहर निकलना चाहते थे। अगर हम जल्दी आ गए होते तो हो सकता था कि इन पत्थरों को गिरते हुए देख पाते।


हम तेज कदमों से तो चल रहे थे लेकिन नजरें पहाड़ पर थी। अब हमें हर पल पहाड़ और खतरनाक लग रहा था। डर हम सबको लग रहा था और हम जाहिर भी कर रहे थे। रात के पहर में हमारा सुरक्षित निकलना बहुत जरूरी था। क्योंकि दूूूर-दूर तक हमारी मदद करने वाला कोई नहीं था। हमें पूरे रास्ते में कोई नहीं मिला था। हम तीन ही थे जो इस खतरनाक और खौफनाक रात में चल रहे थे। जब ऐसा कुछ होता है तो वैसा ही कुछ दिमाग में भी चलने लगता है। मुझे टी.वी. पर चलने वाली खबरें याद आने लगी थीं। ये सब होने के बाद हौंसला ही होता है जो आपको जूझने के लिए तैयार रखता है। यही वो समय होता है जब आपको सबसे ज्यादा हिम्मत दिखानी होती है।

पहली बार मैंने आंखों से प्रकृति का ऐसा रूप देखा था। अब लग रहा था कि सफर कुछ ज्यादा ही रोमांचक हो गया था।लग रहा था कि ये सफर कुछ ज्यादा ही लंबा हो गया है। पहली बार मैं इस सफर को खत्म करने के लिए बेसब्र था। थोड़ी देर बाद हम पुलना की सड़कों पर चल रहे थे। हम सड़क पर बैचेन होकर होटल और होमस्टे खोज रहे थे। हमें कुछ भी नहीं मिल रहा था। तभी हमें एक जगह होमस्टे का बोर्ड लगा हुआ दिखाई दिया। उसके नीचे नंबर भी लिखा हुआ था। उसे देखकर एक आशा जगी। मैंने नंबर लगा दिया, फिर याद आया यहां तो नेटवर्क नहीं है।

रोमांच के आखिरी पल


अगर पुलना में नहीं रूके तो फिर 4 किलोमीटर चलकर गोबिंदघाट जाना पड़ता। ऐसा करने की हममें से किसी की भी हिम्मत नहीं थी। जहां ये बोर्ड था, उसी के बगल से सीढ़ियां गईं हुई थीं। हम सीढ़िया उतरकर घर के मालिक को बुलाने लगे। एक शख्स बाहर आया, उसने बताया कि मेरा ही होमस्टे है। तब लगा कि अब कुछ आराम मिलेगा। हमें हमारा कमरा दे दिया गया। हमारे सारे कपड़े गीले हो चुके थे। हमने कपड़ों को कमरे में जगह-जगह टांग दिया। लाइट न होने की वजह से मोमबत्ती की रोशनी में बिस्तर पर जा गिरे। ये अगर और कोई दिन होता तो इस रात की तारीफ की जा सकती थी लेकिन अभी तो गिरी हुई चट्टान नजरों के सामने आ रही थी। थकान इतनी थी कि हमने ये भी नहीं पूछा कि कमरे का पैसा कितना होगा? हमें तो कहीं ठहरना था और हम इस घुप्प अंधेरे में बिस्तर पर पड़ गए।


ये पूरी यात्रा कई मायनों में सीखने के लिए बहुत अच्छी रही। इस यात्रा से मैंने कई अनुभव जुटाए। यात्रा की कई अच्छी और बुुरी बात जानी। ये भी कि अनहोनी को टालने से हमेशा बचो। सफर में जोश से ज्यादा, होश का होना बहुत जरूरी है। आपका एक बुरा निर्णय, कई लोगों को मुश्किल में डाल सकता है। इन मुश्किलों के बाद भी हम बचकर सही सलामत आ गए थे। अब मैं सोचता हूं कि उस रात जो हुआ। उसने मेरी इस यात्रा को और रोचक और यादगार बना दिया। जब मैं वापस लौट रहा था तो पिछले कुछ दिनों में जो-जो पाया था। उसकी छवि दिमाग में चल रही थीं। इन तमाम मुश्किलों के बाद मैं फिर से ऐसी ही किसी यात्रा पर जाने के लिए तैयार हूं।

Sunday, 6 October 2019

फूलों की घाटीः इस खूबसूरती के आगे सब कुछ फीका

यात्रा का पिछला भाग यहां पढ़ें।

कठिन है, बहुत ही कठिन है किसी एक जगह पर टिके रहना। अगर आसान है तो भीड़ में खुद को अकेला पाना, पर अकेले में अकेले न होना कठिन है। ये सब मुमकिन है तो बस यात्राओं में। यात्राएं होती हैं खुद को बह जाने के लिए, खुद को आजाद करने के लिए। किसी सफर पर खुद को ले जाने से पहले अपने मन को ले जाना पड़ता है। उसके बाद हर सफर खूबसूरत लगने लगता है। यात्राएं कितनी बेहतरीन चीज है न। यहां अकेले होने के बावजूद अकेलापन महसूस नहीं होता है। एक खूबसूरत नजारे को घंटों देखता रहना भी कम लगता है और अगर ऐसा हो जब चारों तरफ ही ऐसे खूबसूरत नजारें हों तब। मैं ऐसे ही खूबसूरत नजारों की घाटी को देखने वाला था, एकटक।

फूलों की घाटी।

हेमकुंड साहिब के ट्रेक ने मुझे इतना थका दिया था कि मेरा कहीं और जाने का मन ही नहीं हो रहा था। सुबह हो चुकी थी और मेरी नींद भी खुल चुकी थी। मैं और मेरे दोनों साथी अपना सामान पैक कर रहे थे। उनके और मेरे बैग पैक करने में अंतर था। वो कहीं जाने के लिए तैयार थे और मैं लौटने की तैयारी कर रहा था। मेरे मन में बहुत कुछ चल रहा था। एक मन कह रहा था कि मुझे इनके साथ ही जाना चाहिए। दूसरी तरफ ये भी लग रहा था कि ये चढ़ाई कठिन हुई तो उतरना मुश्किल होगा। जब आप मन से थके हुए हों और घबरा रहे हों। तब आपके पास एक दोस्त होना चाहिए जो आपका हौंसला बढ़ा सके। खुशकिस्मती से मेरे पास ऐसा ही दोस्त था। उसने मुझे हौंसला दिया कि हम इस जगह के लिए ही तो आए थे, इसको पूरा किए बिना वापस नहीं जा सकते। उसकी बातें सुनकर मैंने भी हां कर दी। इस बार हमारा सफर था, फूलों की घाटी।

चलें एक और सफर पर 


सुबह कल ही तरह खूबसूरत थी। यहां घूमने आने वाले लोग हमारे साथ चल रहे थे। रास्ते के किनारे बहुत से लोग बैठे भी थे और खिलखिला रहे थे। ये स्थानीय लोग थे, इनकी हंसी देखकर अंदर से तो अच्छा लग रहा था। लेकिन दिमाग भारी होने की वजह से चेहरे पर हंसी नहीं आ पा रही थी। मैंने अपने दोस्त से तो चढ़ाई के लिए तो हां कर दी थी। लेकिन मन ही मन सोच लिया था कि चढ़ाई कठिन रही थी बीच से ही वापिस लौट आऊंगा। मैंने फिर से उसी झरने का पार किया जो कल बेहद खूबसूरत लग रहा था। पानी की कलकल अब भी वही थी लेकिन हर रोज देखने पर शायद हमारा नजरिया बदल जाता है। करीब आधा किलोमीटर चलने के बाद वो जगह आई। जहां से हमें फूलो की घाटी के लिए जाना था। मैं उसी रास्ते पर चलने लगा। ये रास्ता संकरा जरूर था लेकिन आसान था। ऐसे ही रास्ते पर कुछ देर चलने के बाद एक टिकट काउंटर आया। यहां कुछ बोर्ड लगे हुए थे। जिसमें फूलों की घाटी का नक्शा और उसकी जानकारी दी हुई थी।

यहीं से शुरु होता है सफर।

यहां एक परमिट बनता है फूलों की घाटी में प्रवेश के लिए। ये टिकट काउंटर सुबह 7 बजे से 12 बजे तक खुलता है। उसके बाद फूलों की घाटी में जाना मना है। भारतीयों के लिए ये टिकट 150 रुपए का है और विदेशी नागरिकों के लिए 650 रुपए का। हमने वो परमिट लिया और फूलों की घाटी की ओर चल पड़े। सही मायने में फूलों की घाटी का सफर अब शुरू हुआ था। हम जंगल के बीचों बीच चल रहे थे और आसपास के ऊंचे-ऊंचे पेड़ों को देखते जा रहे थे। अचानक हम अंधेरे से निकलकर उजाले में आ गए। यहां एक नदी बह रही थी, जो इस समय एक धारा बनकर निकल रही थी। पहाड़ों में पानी ऐसे ही बहता है, अलग-अलग जगह पर। यहां पानी का स्रोत सिर्फ नदी नहीं होते, जंगल और जमीन भी अपना काम करते-रहते हैं।

फूलों की घाटी जाने का परमिट।


जंगल के बीच से 


कई पेड़ों पर छोटे-छोटे बोर्ड लगे हुए थे, जिनमें उनकी प्रजाति का नाम लिखा हुआ था। ऐसी ही एक पत्थर पर लिखा हुआ था, ब्लू पोपी स्पाॅट। हम सोच रहे थे कि ब्लू पोपी कोई प्यारा जानवर है। बाद में पता चला कि ब्लू पोपी, एक खूबसूरत फूल होता है। हालांकि उस जगह पर न फूल था और न ही कोई जानवर। हम फिर से जंगल से खुले आसमान के नीचे आ गए थे। ये नजारे बदलने का काम कर रही थी एक नदी। इस नदी का नाम पुष्पवती है। पहले इस घाटी को इसी नाम से जाना जाता था, बाद में इसे फूलों की घाटी कहने लगे। इस नाम बदलने की एक कहानी है। 1931 में ब्रिटेन के पर्वतारोही फ्रैंक एस स्मिथ अपने दोस्त आर एल होल्डसवर्थ के साथ कामेट पर्वत के अभियान से लौट रहे थे। तब उनको रास्ते में ये घाटी मिली, इसकी खूबसूरती ने उनको दंग कर दिया। 1937 में वे वापस इसी घाटी को देखने आए और इस पर एक किताब लिखी, फूलों की घाटी। तब से ये जगह फूलों की घाटी कहलाने लगी।

पहाड़ों के बीच से बहती नदी।

अभी तक रास्ता बहुत आसान लग रहा था लेकिन पुल को पार करने के बाद चढ़ाई शुरू हो गई। हमें इस चढ़ाई में मुश्किल नहीं हो रही थी क्योंकि हेमकुंड की कठिन चढ़ाई ने बहुत कुछ सिखा दिया था। ये नदी का जाबर दृश्य बेहद ही खूबसूरत है। दो ऊंची चटटानों के बीच से बहती एक नदी। इससे पहले ऐसे नजारे सिर्फ फिल्मों में देखे थे। तब मन ही मन कहता था, कभी जाऊँगा इन जगहों पर। अब मन की बात को आंखों से देख रहा था। मैं बहुत थका हुआ था लेकिन ऐसे नजारे सारी थकान भुला देते हैं। थकान अगर हार है तो ये नदी, ये पहाड़ जीतते रहने की एक आशा है।

खूबसरत नजारे


एक जगह से चलकर, दूसरी जगह तक पहुंचने में कितना समय होता है। इस समय में आप अपने साथ होते हैं, खुद से बात कर रहे होते हैं, खुद के बारे में सोच रहे होते हैं। मैं तब हरे-भरे मैदान के बारे में सोच रहा था, फूलों की घाटी के बारे में सोच रहा था और साथ चलते लोगों के बारे में भी। ऐसे ही चलते-चलते हम रूक भी रहे थे, कभी थकान की वजह से तो कभी खूबसूरत नजारों की वजह से। रास्ते में ऐसी ही एक खूबसूरत जगह आई, जिसको हम देखते ही रह गए। दूर तलक हरियाली के मैदान थे, उसके साथ चारों तरफ पहाड़ और उनमें तैरते बादल। ये सब देखने में जितना अच्छा लगता है उससे कहीं ज्यादा खुशी उस पल को याद करने से होती है। सफर यही तो है, चलना और रूकना।

कभी चढ़ना तो कभी उतरना, यही तो सफर है।

वैली ऑफ फ्लावर के लिए हम अकेले नहीं जा रहे थे। इस संकरे रास्ते पर बहुत सारे लोग हमारे साथ थे। उन सबके बीच मेरी नजर एक बच्चे पर चली गई। जिस उम्र में हम स्कूल भी साइकिल से जाते थे वो पैदल फूलों की घाटी जा रहा था। वो चढ़ तो रहा था लेकिन थकान उस पर हावी थी। वो बार-बार अपनी मां से रूकने को कह रहा था और उसकी मां उसे चलने पर जोर दे रही थीं। कुछ आगे बढ़े तो एक जगह आई जहां लिखा था टिपरा ग्लेशियर को देखें। लेकिन इस समय कोई टिपरा ग्लेशियर नहीं था। थोड़ा आगे बढ़े तो एक गुफा मिली, बामण घौड़ गुफा। बारिश के समय इसके नीचे लोग रूकते और इंतजार करते हैं, बारिश के कम होने का। ऐसे ही रास्तों को पार करने के बाद हम फूलों की घाटी में प्रवेश कर गए।

फूलों से भरी एक दुनिया


फूलों की घाटी में जैसे ही घुसे, चारों तरफ कुहरा छाने लगा। ऐसे लगा जैसे मौसम की मेरे साथ कोई दुश्मनी हो। पहले हेमकुंड साहिब पहुंचा तो कुहरा था, अब फूलों की घाटी में भी वही हाल था। कहते हैं जब आसमां साफ हो न हो, वो अपना ही लगता है। कुछ न कुछ वो हमेशा देता ही रहता है। इस धुंध में भी एक खूबसूरत खुशबू बह रही थी। उसी खुशबू को देखते हुए मैं आगे बढ़ रहा था। मेरे चारों तरफ अब सिर्फ फूल ही फूल थे। ऐसे फूल जो मैंने कभी देखे नहीं थे। मैं ऐसी ही खूबसूरती को देखते हुए बढ़ता रहा और भोजपत्र के पेड़ के नीचे बैठ गया। कुछ देर बाद वहां एक टूरिस्ट गाइड आया। उसने बताया कि आगे इसी नदी का छोर है, वहां तक जरूर जाना चाहिए। मैं फिर से चलने के लिए तैयार हो गया।

फूलों की भी एक दुनिया होती है।

काॅलेज के समय से मैं फूलों की घाटी का नाम सुनता आ रहा था। तब लगता कि कहीं हिमालय के बीच होगी और वहां जाना नामुमकिन होगा। अब मैं उसी फूलों की घाटी को निहारते हुए, रूकते हुए, चल रहा था। आगे बढ़ा तो फिर से रास्ते में पानी मिला। इस बार कोई पुल नहीं था, पत्थरों पर कदम रखकर आगे बढ़ना था। पानी को पार करने के बाद मैं फिर से फूलों के बीच था। चलते-चलते एक ऐसी जगह आई, जहां से दो रास्ते गए थे। वहीं एक बोर्ड लगा हुआ था, जिसमें टिपरा की ओर और लेगी की ओर रास्ता था। मैं सीधे रास्ते पर चलने लगा जो टिपरा की ओर जा रहा था। इतने दूर चलने पर अब कम ही लोग रास्ते में दिख रहे थे। कहते हैं न कठिन रास्ते पर कम ही लोग जाते है। जितना आप आगे जाते हैं सुकून उतना ज्यादा पाते हैं। फूलों की घाटी में चलते-चलते ऐसी जगह आ गया जहां नदी गिर नहीं बह रही थी। हम उसी नदी के पास जाकर बैठ गए।

नदी के छेार पर


यहां मैं घंटों बैठा रह सकता था और कुछ हुआ भी वैसा ही। नदी के किनारे पत्थरों की टेक पर मैं कभी बैठा पहाड़ों को निहार रहा था तो कभी छलांग लगा रहा था। घंटों यहां गुजारने के बाद हम वापस उसी जगह आ गए। जहां से टिपरा के लिए गए थे। अब हम लेगी की ओर जा रहे थे। मुझे नहीं पता था इस रास्ते पर क्या है? जब वो खूबसूरत रास्ता खत्म हुआ तो वहां एक समाधि दिखी। उसके सामने ही कुछ कुर्सियां बनी हुईं थी। ये समाधि है, जाॅन मार्गरेट लेग। लेग लंदन में फूलों पर अध्ययन कर रही थीं। 1939 में वे फूलों की घाटी में फूलों पर स्टडी कर रही थीं। फूलों की इकट्ठा करते समय वे गिर गईं और उनकी मौत हो गई। उनकी खोज में उनकी बहन यहां आई और यही उनकी समाधि स्थल बनाई।

           जाॅन मार्गरेट लेग की समाधि

यहां जो भी आता है, उनको श्रद्धांजलि जरूर देता है, हमने भी वही किया। कहते हैं कि मरने के बाद स्वर्ग या नरक कुछ मिलता है। लेकिन लेग बड़ी खुशकिस्मत हैं वो हमेशा जन्नत जैसी जगह में रहती है। पहाड़ों को और फूलों के बीच खुद को समेट लिया है। हमें यहीं एक अमेरिकी मिला। जिसने बताया कि वो आज ही पुलना से चलकर घांघरिया आया और अब फूलों की घाटी। हमने ये सब दो दिन में किया और इसने एक दिन में। खूबसूरती को जितना निहारो उतना कम है, हमारे लिए भी कम ही था। हम इस खुबसूरती को लेकर लौट चले। फूलों की घाटी से नीचे उतरना कठिन नहीं है। हम शाम से पहले ही घांघरिया पहुंच गए।

ऐसी जगह पर रूकना तो बनता है। 

घांघरिया लौटकर एक अजीब-सा सुख था। लग रहा था जो पाने आये थे, जो करने आया था, वो कर लिया है। जीवन की उस यात्रा को पा लिया था, जहां ट्रेफिक का कोई शोर नहीं था। यहां नदियां थीं, खूबसूरत झरने, जंगल और ग्लेशियर। ऐसा लग रहा था कि इस सफर से पहले मैं एक गुफा में था। यहां आकर मैं उस गुफा से बाहर निकल आया हूं। लेकिन सफर अभी खत्म नहीं हुआ था, सफर कभी खत्म होना भी नहीं था। अभी मुझे एक हासिल और कठिन अंधेरी यात्रा भी करनी थी।

Sunday, 22 September 2019

घांघरिया ट्रेक 2: सफर को यादगार बनाते हैं ये खूबसूरत ठहराव

इस यात्रा का पिछला भाग यहां पढ़ें।

मेरे लिए सफर में सबसे मुश्किल काम है, ठहरना। मैं मंजिल पर जाकर ही ठहरना पसंद करता हूं। लेकिन इस सफर की खूबसूरती ने मुझे कई जगह रोका। यात्रा में लौटना जितना बड़ा सच है, उतना ही बड़ा सच है ठहराव। ये वो पड़ाव हैं जो हमारी यात्राओं के रास्ते में पड़ते हैं। जहां ठहरने की अवधि कभी ज्यादा होती है तो कभी बहुत कम। जहां ठहरते ही इसलिए हैं क्योंकि आगे बढ़ा जाए। ऐसी जगह पर मैं दोबारा तैयार हो जाता हूं कि आगे चलने के लिए। घांघरिया हमारे सफर का वही पड़ाव था।


हम दोनों जल्दी-जल्दी चल रहे थे क्योंकि हमें अपने तीसरे साथी तक पहुंचना था। हम कुछ दूर चले तो एक गांव आया भुंडार। यहां लक्ष्मण गंगा अपने पूरे उफान पर थी। यहां हम एक बार फिर रूके क्योंकि हमें हमारा तीसरा साथी मिल चुका था। अब तक हम जंगल के छोटे-छोटे रास्ते में चल रहे थे। जहां प्रकृति को कम देख पा रहे थे। यहां अचानक हम खुले मैदान में आ गये थे। चारों तरफ हरे-भरे पहाड़ थे और वहीं से उफनती आ रही थी, लक्ष्मण गंगा। यहां दो नदियों का संगम था, लक्ष्मण गंगा और शिव गंगा। मुझे इस संगम से ज्यादा अच्छा लग रहा था वो छोटा-सा पुल जिसे हम पार करने वाले थे। मुझे ये कच्चे पुल जाने क्यों पसंद हैं? मुझे ऐसे पुलों पर रूकने से ज्यादा इनको देखना बहुत पसंद है।

सुंदर तस्वीर-सा दृश्य


अभी तो हम ठहरे हुए थे और देख रहे थे उन पहाड़ों को। पहले मुझे हर जगह के पहाड़ एक जैसे लगते थे लेकिन अब इन पहाड़ों का अंतर समझता हूं। यहां पहाड़ों में खूबसूरती भी है और शांति भी। खूबसूरत दृश्य था, पहाड़ों से कलकल करती नीचे आती नदी, आसपास पहाड़ और उसके बीच में एक कच्चा पुल। यहां आकर हर कोई एकटक इस नजारे को देखना चाहेगा। हम कुछ देर वहां ठहरे और इस सुंदर तस्वीर से विदा ली। हमने वो कच्चा पुल पार किया और आगे बढ़ चले। पहाड़ों में, खासकर नदी किनारे एक चीज आम है। छोटे-छोटे पत्थरों से एक श्रृंखला बनाना। पुल के पार भी यहां बड़े पत्थरों से ऐसा ही कुछ बना हुआ था। मैं उसको देखने के लिए करीब गया। वहीं खड़े स्थानीय व्यक्ति ने बताया उसको छूना नहीं। अगर वो गिर गया तो एक हजार रुपए देने पड़ेंगे।



पहाड़ों में आकर शहर की हर चीज छूट गई थी लेकिन ये जुर्माना नहीं पीछे नहीं छूट रहा था। उन पत्थरों को दूर से देखकर हम आगे बढ़ गये। हम आधा रास्ता तय कर चुके थे और आधा अभी बाकी था। सूरज न होने के बावजूद शाम होने की थी। हम अंधेरे से पहले पहुंचना चाहते थे। लेकिन अब वो असंभव सा प्रतीत हो रहा था। हम यहां भी कुछ देर ठहरे और फिर से आगे बढ़ पड़े। कभी-कभी रास्ता इतना खूबसूरत होता है कि हम मंजिल की फिक्र करना छोड़ देते हैं। ऐसा ही कुछ हमारे साथ हुआ।

एक और संगम।

हम रास्ते में इतना ज्यादा रूके कि शाम होने को थी और हम अभी भी अपने सफर पर थे। अब हमने तय किया कि कम रूकेंगे। जिससे जल्दी-जल्दी घांघरिया पहुंच सकें। हम घांघरिया जल्दी पहुंचने की सोच रहे थे और आगे का रास्ता हमें रोकने के लिए तैयार खड़ा था। अब तक हम जिस रास्ते पर चल रहे थे। उस पर कभी ढलान थी और कभी चढ़ाई। लेकिन अब रास्ता सिर्फ चढ़ाई का था और उपर से अंधेरा। अंधेरा तो था लेकिन हमें चलना तो था ही इसलिए हम आगे बढ़ने लगे। मैं और बाबा साथ थे और हमारा तीसरा साथी हमेशा की तरह आगे निकल गया था। हम और बाबा आपस में बात कर रहे थे और सुन रहे थे बगल में बह रही नदी की आवाज। अब देखने के लिए बचा था तो सिर्फ अंधेरा। उसी अंधेरे में हम बढ़ते जा रहे थे। 


हम अपनी बातों में इतने मग्न थे कि अंधेरे के बारे में कुछ फिक्र ही नहीं कर रहे थे। थोड़ी देर बाद देखा कि एक लड़का दौड़ता हुआ हमारी तरफ आ रहा है। पास आया तो देखा कि ये तो हमारा ही दोस्त है। मैंने पूछा क्या हुआ, वापस क्यों लौट आये? उसने बताया कि मैं बहुत देर से तुम लोगों का इंतजार कर रहा था। जब तुम नहीं आये तो फिक्र हो रही थी। तब वही कुछ लोगों ने बताया कि अंधेरे में यहां भालू मिल सकता है। अब हम तीनों साथ तो थे लेकिन भालू का डर भी था। चांदनी रात की वजह से रास्ता खोजने में परेशानी नहीं हो रही थी। हम तो अब भी सही से चल रहे थे लेकिन बाबा धीमा हो गया था। शायद थकावट उस पर हावी हो गई थी।

रात का सन्नाटा


हम अब थोड़ी देर चलते और ज्यादा देर रूकते। हम जब रूकते तो मैं वो आसमान की तरफ देखता। मैंने इतनी खूबसूरत रात और इतना खूबसूरत आसमान नहीं देखा था। मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं एक रात किसी पहाड़ पर चढ़ते हुए चांदनी रात देखूंगा। चांदनी रात की वजह से नदी दूधिया सफेद लग रही थी। इन सबके बावजूद एक सन्नाटा चारों तरफ पसरा हुआ था। जो थोड़ा-थोड़ा डर भी दे रहे थे। उसी सन्नाटे के बीच से हम आगे बढ़ते जा रहे थे। हम कुछ आगे बढ़े थे तभी सामने कुछ चमकता हुआ दिखाई दिया। उस चीज को देखकर हमारे कदम ठिठक गये।


हमें अंदाजा भी नहीं था कि वो चीज क्या है? ऐसा लग रहा था कि वो किसी जानवर की आंखे हैं। हम कुछ देर वहीं खड़े रहे। जब वो चीज हिली नहीं तो हम डरते-डरते आगे बढ़े। उस जगह पर पहुंचकर देखा तो पता चला कि पत्थर पर सफेद चाक का निशान है। हम फिर से आगे बढने लगे। इस घने जंगल में दूर-दूर तक कोई नहीं दिखाई दे रहा था। तभी पीछे-से कुछ आवाजें सुनाई दी। कुछ हमारे जैसे नौजवान थे, इनको देखकर अच्छा लगा। अब हमारे भीतर से डर थोड़ा कम हो गया था और घांघरिया पहुंचने का जज्बा शुरू हो गया था।

नदी के पार जिंदगी।

हम उनके साथ ही चलना चाहते थे लेकिन हम नहीं चल पाये। बाबा बार-बार रूक रहा था और हमें भी रूकना पड़ रहा था। फिर भी हम साथ थे तो कोई दिक्कत नहीं थी। कुछ देर बाद ऐसी जगह आई जहां दुकानें थीं। बहुत देर बाद लगा कि इस जंगल में भी कोई रहता है। हम वहां बहुत देर ठहरे रहे और फिर से आगे बढ़ चले। रात के अंधेरे के बाद हमारी चाल कुछ यूं थी कि पहले हम अपनी चाल में चल रहे थे, फिर खच्चर की तरह खुद को ढो रहे थे और अब रेंग रहे थे। बाबा हम दोनों को सहारा बनकर चल रहा था।


कुछ देर बाद हमें कुछ रोशनी दिखाई दी। अचानक चेहरे पर खुशी आ गई। ये ठीक वैसे ही खुशी थी जैसी घर जाने पर होती है।हम आगे बढ़ ही रहे थे तभी आस-पास के पहाड़ों को देखने की कोशिश की। रात के अंधेरे की वजह से सब कुछ साफ-साफ नहीं दिख रहा था। फिर भी ये पहाड़ आसमान से बातें कर रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे बाहुबली का दृश्य सामने चल रहा हो। आसमान से बातें करता ये पहाड़ और उससे गिरता झरना। मैं इस विशालकाय पहाड़ को देखकर अवाक था। मैं बस उसे देखकर मुस्कुराये जा रहा था। हम कुछ देर रूककर उसी पहाड़ को देखने लगे।

रात का घनघोर छंटा


कुछ आगे बढ़े तो रोशनी के पास आये तो देखा चारों तरफ सिर्फ टेंट ही टेंट लगे हुए हैं। यहां टूरिस्ट टेंट में आसमान के नीचे रात गुजारते हैं। लेकिन हमें तो घांघरिया जाना था जो अभी भी एक किलोमीटर दूर था। मेरे साथ अक्सर ऐसा होता है जब मंजिल पास आती है तो चाल धीमी हो जाती है। घांघरिया दूर नहीं था इसलिए हम धीमे-धीमे चले जा रहे थे। हम फिर से जंगल में आ गये थे। हम जब तक घांघरिया नहीं पहुंचे, हम उस विशालकाय पहाड़ के बारे में बात करने लगे। हमने एक-दूसरे से कहा, सुबह सबसे पहले इस जगह को देखने आएंगे।



थोड़ी देर बाद हम एक गली में खड़े थे और वहीं एक बोर्ड पर लिखा था, घांघरिया। हम घांघरिया आ चुके थे लेकिन सफर अभी खत्म नहीं हुआ था। उस सफर पर जाने से पहले हम बिस्तर पर पसरने के लिए ठिकाना ढूंढ़ना था। घांघरिया की गलियों में ठिकाना खोजते-खोजते एक जगह मिल गई। जगह अच्छी नहीं थी। लेकिन रात ही गुजारनी थी इसलिए हमने यहीं रूकने का फैसला लिया।

रात में हमारे दो साथी।

इस गहरी रात से पहले मैंने बहुत कुछ पा लिया था। इसे लंबे सफर में बहुत सारे ठहराव थे। कुछ आराम करने के लिए, कुछ खूबसूरती को निहारने के लिए। इस रात के बाद ही पता चला कि खूबसूरत सिर्फ दिन ही नहीं होते, रात भी होती है। मैंने आज के सफर को एक मुस्कुराहट के साथ वापस याद किया और कल के सफर के लिए तैयार होने लगा। अब तक हमारा सफर पड़ाव का था, असली सफर तो अब शुरू होने वाला था। खूबसूरती का सफर, चुनौती का सफर। 

आगे की यात्रा यहां पढ़ें। 

Tuesday, 10 September 2019

घांघरिया ट्रेक: यात्राएं अगर जीवन बन जाएं तो कितना अच्छा हो

इस सफर का पहला भाग यहां पढ़ें।

घूमना, मेरी अब तक की जिंदगी में सबसे अच्छी चीज हुई है। जिंदगी में हर कोई घूमता ही रहता है लेकिन घूमने को ही मकसद बनाना बहुत कम लोग करते हैं। घुमक्कड़ी ऐसी चीज है जो हर बार कुछ नया देती है। नई जगह, नये एहसास लेकर आती है। नये लोगों से मिलने का मौका देती है, उस जगह के बारे में सोचने का, समझने का मौका देती है। अगर वो सफर पहाड़ों का हो तो इससे बेहतर सफर मेरे लिए कुछ नहीं हो सकता। यहां न कहीं जल्दी भागने की फिक्र है और न ही शहर का शोर। यहां आकर तो मैं एक अलग ही यात्रा पर निकल पड़ता हूं। मैं एक बार फिर से उसी यात्रा के लिए पहाड़ों के बीच आ चुका था।

घांघरिया ट्रेक।

शाम हो चुकी है और मैं जोशीमठ के तिराहे पर खड़ा हूं। क्योंकि मुझे इंतजार है अपने दोस्त का जिसके स्टेट्स को देखकर मैं यहां तक चला आया। उसे आने में देर थी तो मैं इस शहर को देखने लगा। पहाड़ पर होने वाले बाकी शहरों की तरह ही है ये शहर। जहां शांति और सुकून होता है। लेकिन ऐसा नहीं है कि इन शहरों में कुछ नहीं होता है। यहां हर जरूरत का सामान मिल जाता है। शाम का वक्त और सफर के थकान की वजह से मैं ज्यादा दूर नहीं गया। मैं फिर से उसी तिराहे पर लौट आया और इंतजार करने लगा। इस बार ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा। क्योंकि मैं जिसका इंतजार कर रहा था वो आ चुका था। उसके साथ एक और दोस्त था जो हमारे सफर को और भी रोमांचकारी बनाने वाला था।

प्रकृति की गोद में जोशीमठ


सबसे पहले वहीं तिराहे पर ही एक होटल लिया और फिर गपशप शुरू हो गई। जिस तीसरे दोस्त से मुलाकात हुई, उसे हम बाबा कह रहे थे और वो भी हमको बाबा कह रहा था। रात हुई तो खाना खाने के लिए बाहर निकले। कुछ घंटे फिर से इस शहर को पैदल नापा और फिर चल दिए वापस अपने कमरे में। कल के सफर के बारे में बात हुई। उसके बाद तो तो बस बातें होती रहीं। बातें करते-करते कब नींद लग गई पता ही नहीं चला। सुबह जब नींद खुली तो मैं बालकनी में आ गया। ये जगह कितनी खूबसूरत है ये मैं सुबह की साफगोई में देख पा रहा था। चारों तरफ ऊंचे-ऊंचे हरे-भरे पहाड़ हैं और उनके आसपास तैरते बादल। ये सब देखकर लग रहा था किसी ने मेरे सामने कैनवास में एक तस्वीर उकेरी दी हो। जिसमें खूबसूरती के लिए जो-जो किया जा सकता था, वो सब डाल दिया। पहाड़ से गिरता पानी इस दृश्य को और भी खूबसूरत बना रहा था।

खूबसूरत जोशीमठ।

मैं पहाड़ में कई जगह जा चुका था लेकिन इतना खूबसूरत नजारा पहली बार देख रहा था। लेकिन ये तो बस शुरूआत थी ये सफर मुझे बार-बार अचंभित करने वाला था। हमें अपने सफर पर बहुत जल्दी निकलना था लेकिन किसी न किसी वजह से देर होती जा रही थी। हम वो सब सामान ले रहे थे जो अगले तीन दिन हमारे काम आने वाला था। हम तीन दिन इस सभ्यता से कटने वाले थे, जहां से न हम किसी को संपर्क कर सकते थे और न कोई हमें। अब फोन का एक ही काम बचा था, तस्वीरें लेना। हम कुछ देर बाद एक जीप मैं बैठ गये जो हमें 20 किमी. दूर गोविंदघाट तक ले जाने वाला था। हम फिर से गोल-गोल घूमने लगे। मैं पहाड़ों और पास में बहती नदी को देख रहा था। यहां अलकनंदा का एक अलग ही रूप देखने को मिल रहा था। पानी का प्रवाह इतना तेज था कि वो देखने में भयानक लग रहा था।

चुनौती की शुरूआत


कुछ ही देर बाद जीप से हम गोविंदघाट पहुंच गये। यहां से हमें दूसरी जीप पकड़नी थी जो हमें पुलना ले जाने वाली थी। गोविंदघाट से हमने डंडे खरीदे जिससे ट्रेकिंग करने में मदद मिलती है। हमें गोविंदघाट के स्टैंड जाना था, जो कुछ दूरी पर था। हमारा सफर शुरू हो चुका था, हम पैदल चल रहे थे। थोड़ा आगे चले तो एक हमें एक और संगम मिला। ये संगम अलकनंदा और लक्ष्मणगंगा के बीच था। हम समुद्रतल से 6,000 फीट की ऊंचाई पर आ चुके थे। हम उस जगह पर आ चुके थे जहां से हमें पुलना के लिए जीप लेनी थी। गोविंदघाट से पुलना की दूरी 4 किमी. है। आगे बहुत ज्यादा चलना होता है इसी वजह से ज्यादातर लोग जीप से ही जाते हैं। हम जिस जीप में बैठे थे उसने बताया कि गोविंदघाट से आगे कोई अपनी गाड़ी नहीं ला सकता। जो पुलना के स्थानीय निवासी हैं सिर्फ वही अपनी गाड़ी यहां ला सकते हैं। जो गाड़ी चलाते हैं, उन जीप की संख्या की भी सीमा है। जिसे परमिशन मिलती है वो ही जीप चला सकता है।

अलकनंदा-लक्ष्मणगंगा का संगम।

ये सब होने की वजह से ही सिर्फ 4 किमी. का किराया 40 रुपए है। थोड़ी देर बाद हम पुलना पहुंच गये। यहां से हमारी असली परीक्षा होने वाली थी। अब आजाद होने का समय आ गया था, अपने घुमक्कड़पने के रास्ते पर चलने का रास्ता मिल चुका था। यहां से हमें घांघरिया तक का ट्रेक करना था जो पुलना से 10 किमी. था। चुनौती ये नहीं थी कि हमें 10 किमी. चलना है, चुनौती थी अपने-अपने भारी बैग लेकर चलना। हमारा ट्रेक शुरू हो चुका था। हम रास्ते पर चल नहीं, चढ़ रहे थे। ये रास्ता पेड़ों से घिरा हुआ था जिस वजह से धूप नीचे तक नहीं आ पा रही थी। रास्ते में हमें खच्चर भी मिल रहे थे जो लोगों की मदद के लिए थे। बूढ़े, बच्चे और महिलाएं खच्चर से जाएं तो सही लगता है। लेकिन जब हट्टे-कठ्ठे नौजवान भी ऐसा करते तो मुझे बड़ा आश्चर्य होता है। रास्ता हरा-भरा है और पहाड़ों की ऊंचाई भी अच्छी-खासी है। बाबा बार-बार थक रहा था और उसके साथ के लिए मैं भी रूक रहा था।

कुछ देर बाद हमें कई दुकानें मिलीं। जिसमें से किसी एक में हम रूक गये। यहां हमने मैगी खाई और प्रकृति को निहारा। सामने ही पहाड़ से बहते पानी को देखकर अच्छा लग रहा था। सुकून क्या होता है, थकावट के बाद आराम क्या होता है? ये सब इस दुकान पर आकर समझ में आ रहे थे। चलते-चलते कभी-कभी रास्ता इतना शांत हो जाता कि लगता जैसे सिर्फ हम ही चल रहे हों। तब शांति इतनी होती कि थकावट भी आपको सुनाई देती है। हम चले जा रहे थे लेकिन रूकते-रूकते। हम तीनों लोग एक साथ चल रहे थे और फिर हम सिर्फ दो बचे, मैं और बाबा। हमसे एक आगे निकल गया, बहुत आगे। लेकिन हम परेशान नहीं थे क्योंकि मुझे पता था कि आगे मिल ही जायेगा। इस जगह पर कोई भटकता नहीं है, हर कोई बढ़ता जाता है। वैसे ही जैसे हमारे बगल से नदी आगे बढ़ रही थी। हम अलकनंदा की विपरीत दिशा में बढ़ रहे थे। जिदंगी में और क्या चाहिए? ऐसा खूबसूरत सफर हो और उसमें पैदल चलता मैं।

पहाड़ों की गोद में मंदिर।

आगे बड़े-सी चट्टान पर छोटा-सा मंदिर मिला। पहाड़ों पर ऐसे छोटे-से मंदिर हर जगह मिल ही जाते हैं। मुझे इस मंदिर को देखकर तुंगनाथ का रास्ता याद आ गया। जब वहां भी इसी तरह का एक छोटा-सा मंदिर मिला था। रास्ते में जगह-जगह से पानी गिर रहा था। अगर वो जगह हमारी पहुंच में होती तो वो वाटरफाॅल बन जाता। वाटरफाॅल से खूबसूरत तो पहाड़ों से गिरने वाले पानी का ये दृश्य होता है। रास्ता कुछ ऐसा था कि पहले हम ऊपर की ओर चढ़ रहे थे और फिर नीचे की ओर उतर रहे थे। आगे बार-बार ऐसा हो रहा था। जब हम चढ़ते थे तब हमारी चलने स्पीड ज्यादा हो जाती और रूकने की संख्या ज्यादा हो रही थी। जब उतरते थे तब हम चलते भी तेज थे और रूकते भी कम थे।

एक मोड़ और खूबसूरत नजारा


मैं सफर में बार-बार मुड़कर देखता हूं, शायद कुछ छूट गया हो तो पा लूं। हम दोनों जब चलते ही जा रहे थे तब ऐसा ही एक मोड़ मिला जो नीचे की ओर जा रहा था। ये रास्ता लकड़ी से बंद था, इसलिए कोई इस रास्ते पर जाने की सोच नहीं रहा था। मैं सोच ही रहा था कि इधरा जाया जाए या नहीं। तभी बाबा ने कहा, चलते हैं जो होगा देखा जाएगा। किसी के साथ चलने का यही फायदा होता है। एक उम्मीद होती है साथ मिलकर भटकने की, साथ मिलकर ढूढ़ने की और सुस्ताने के भी। हम दोनों भी रास्ते से अलग हटकर नीचे जाने लगे। हम जैसे-जैसे आगे जा रहे थे मेरी उत्सुकता बढ़ने लगी क्योंकि नदी की आवाज मेरे कानों में पड़ने लगी थी। अब मुझे उस रास्ते की खोज से ज्यादा, उस नदी तक जाना था। ये रास्ता जहां खत्म हुआ, वहां भगवान शिव का एक छोटा-सा मंदिर था। उसके सामने ही एक अंधेरी गुफा थी जिसमें बनी हुई थी। लेकिन आसपास कोई नहीं था। कुछ कदम दूर नदी थी, मैं उसी ओर चल दिया। नदी किनारे जाकर हम बैठ गये और इस दृश्य को देखने लगे। यहां कोई बादल नहीं थे लेकिन इस सफर का सबसे खूबसूरत दृश्य यही था।

पहाड़ और नदी।

मेरे पैर पानी में थे और मैं उसे बहते देख रहा था। फुरसत से किसी चीज को देखते रहने का मतलब है, आप उससे मंत्रमुग्ध हो गये हैं। मैं इस जगह पर आकर मंत्रमुग्ध हो चुका था। मेरे बगल से कलकल करती नदी बह रही थी मेरे चारों तरफ ऊंचे-ऊंचे हरे-भरे पहाड़ थे। सामने जंगल था, इन सबको देख रहा था मैं। मेरे जूते वहीं रेत पर पड़े थे, बैग को उसी मंदिर पर छोड़ आया था और मैं यहां बैठा था। ऐसा लग रहा था कि ये वक्त ठहरा रहे और मैं कुछ और ज्यादा देर यहां रूक सकें। मै बचपन में नदी किनारे एक खेल जरूर खेला करता था। पत्थर को पानी में फेंककर गुलाटी करते देखना। हम यहां भी वही करने लगे, बड़ा अच्छा लग रहा था फिर से बचपन में लौटकर। यहां आकर लग रहा था कि नीचे उतरने का फैसला सही था। इसलिए तो मैं कहता हूं कि कभी-कभी रास्ता छोड़कर पगडंडी वाला रास्ता ले लेना चाहिए। नजारे बदलने से नजरिया बदल जाता है। अगर वो रास्ता गलत भी होता है तो आपके पास वापस लौटने का भी एक रास्ता होता है। हमें भी लौटना था लेकिन यहां आकर एक बात तो समझ में आ गई थी कि जरूरी नहीं मंजिल ही खूबसूरत हो। कभी-कभी बीच में पड़ने वाले पड़ाव मंजिल से ज्यादा खूबसूरत होते हैं।

अभी तो सफर और भी है।

यहां के पहाड़ों और नदी के बीच रूके हुए हमें काफी वक्त हो गया था। शायद कुछ देर के लिए हम भूल ही गये थे कि हमारी मंजिल अभी आई नहीं है। हमें इस खूबसूरती के बीच में याद ही नहीं रहा कि हमारा एक साथी आगे हमारा इंतजार कर रहा है। हम जितने खुश हैं, शायद वो उतना ही परेशान हो। कुछ देर के लिए थमा हमारा सफर फिर से शुरू हो गया, हम फिर से चलने लगे। हम चल रहे थे क्योंकि हमारी मंजिल नहीं आई थी। हम चल रहे थे क्योंकि हमारा एक साथी हमारे इंतजार में था। सबसे बड़ी बात अंधेरा होने लगा था। ये अंधेरा हमारे सफर को और भी रोमांचक बनाने वाला था।

आगे की यात्रा यहां पढ़ें।

Friday, 6 September 2019

जोशीमठ:इन खूबसूरत वादियों के बीच चलते रहना ही तो मकसद है

रात का अंधेरा था, रास्ता जाना-पहचाना था और मैं चला जा रहा था एक नये सफर पर। उस रात के बारे में सोचता हूं तो खुशी होती है कि मैं उस दिन लौटा नहीं। अगर लौट आता तो बहुत कुछ मिस कर देता। मैं दूसरों को यही सलाह देता हूं कि जहां भी जाइए पूरी तैयारी के साथ जाइए। जब मैं अपने सभी सफरों के बारे में सोचता हूं तो लगता है कि मेरी घुमक्कड़ी में प्लानिंग जैसी कोई चीज रही नहीं है। मैं जहां भी गया उसके पीछे कोई लंबी-खासी प्लानिंग और तैयारी नहीं रही। मन हुआ तो निकल गया एक सफर पर। इस बार भी मेरे साथ ऐसा ही हुआ और फिर क्या? कुछ ही घंटों के बाद हिमालय को लपककर छूने की कोशिश में था, खूबसूरत और बेधड़क वादियों के बीच।


शाम का वक्त था, मैं दिल्ली में ही था। तभी मैंने व्हाट्सएप्प पर अपने दोस्त का  स्टे्टस देखा, वो उत्तराखंड के जोशीमठ में था। मैंने उसे काॅल किया तो उसने बताया, फूलों की घाटी जा रहा है। भूख लगी हो और खाना मिल जाने पर जो सुकून मिलता है, वही सुकून मुझे अपने दोस्त की इन बातों से मिल रहा था। मैं बहुत दिनों से कहीं जाने की सोच रहा था, लेकिन जगह नहीं खोज पा रहा था। एक स्टेट्स की वजह से मुझे एक नया सफर और छोटी-छोटी मंजिलें मिल गईं थीं। मैंने मन ही मन सोच लिया था कि मुझे वहीं पहुंचना हैं, पहाड़ों के बीच। दोस्त ने भी आने को बोल दिया। अपने रूम आया और रकसैक बैग में कुछ कपड़े रखे और निकल पड़ा बस स्टैंड की ओर।

मैदान से पहाड़ तक


मैं उत्तराखंड जा रहा था और महीना था अगस्त। यानी कि खूब बारिश हो रही थी। बारिश रास्ता बंद कर देती है और तब सब कुछ अस्त-व्यस्त हो जाता है। जिनको भी मैंने उत्तराखंड जाने के बारे में बताया, वो सभी जाने को मना कर रहे थे। इसलिए जब मैं बस स्टैंड जा रहा था, तो दिमाग में दो ही ख्याल आ रहे थे। एक तो वापस लौटने के बारे में था और दूसरा ख्याल पहाड़ का था। पहाड़ों की खूबसूरती के बारे में सोचकर मैंने जाने का निश्चय कर लिया। रात को आईएसबीटी कश्मीरी गेट से हरिद्वार के लिए बस पकड़ी। दिल्ली से हरिद्वार जाते वक्त ऐसा लगता है कि अपनी ही जगह जा रहा हूं। लेकिन इस बार ऐसा नहीं लग रहा था। शायद इसलिए क्योंकि इस बार सफर हरिद्वार से बहुत आगे था।

ऋषिकेश।

मैं जिस सीट पर बैठा था, मेरे पीछे वाली सीट पर मेरी ही उम्र के लड़के थे। आपस में खूब हंसी-ठिठोली कर रहे थे, इन सबमें मैं सुन रहा था उनकी बातें। वो तुंगनाथ के बारे में बात कर रहे थे। उनमें से एक बाकी को तुंगनाथ की खूबसूरती के बारे में बता रहा था। मुझे अपना तुंगनाथ का सफर याद आ गया था, शायद मुझे घूमने का कीड़ा वहीं से लगा था। उनकी बातों में सबसे बुरा था, नशा। वो पहाड़ों पर जाकर हरे-भरे बुग्याल में नशा करने की बात कर रहे थे। घूमना बहुत अच्छी बात है। लेकिन बेहतरीन जगहों पर धुंआ उड़ाना बेहूदा लोगों की पहचान है। कुछ देर बाद मुझे नींद लग गई। सुबह आंख खुली तो हरिद्वार आ चुका था, मेरी पहली मंजिल।

ताजगी भरी सुबह


मैं बस से नीचे उतर गया, मैं बद्रीनाथ जाने वाली बस देख रहा था। मेरी किस्मत इतनी अच्छी निकली कि कुछ ही मिनटों में मुझे बस मिल गई और कुछ ही मिनटों बाद बस चल पड़ी। मैं अभी-अभी सफर करके आया था। अब फिर से एक और सफर पर निकल पड़ा। ये सफर काफी लंबा होने वाला था करीब 12 घंटे का सफर। जैसे-जैसे बस आगे बढ़ रही थी, अंधेरा भी छंटता जा रहा था। यहां की सुबह की ताजगी को मैं महसूस कर पा रहा था। दिल्ली और उत्तराखंड में एक बड़ा अंतर है, हवा का अंतर। इसी हवा को पाने के लिए लोग यहां आते हैं। सूरज निकल आया था और उसकी रोशनी हमारे चारों तरफ फैलनी लगी थी। सूरज के लिए ये दुनिया एक दिन और पुरानी हो गई थी। अभी तो सूरज से लंबी मुलाकात होने वाली थी, आज पूरा दिन इसी सूरज के साथ ही तो चलना था।

हरे-भरे पहाड़।

कुछ ही घंटों में बस पहाड़ों के बीच चल रही थी। मुझे अक्सर सफर के दौरान नींद नहीं आती है लेकिन इस सफर में बहुत ज्यादा नींद आ रही थी। ऐसा लग रहा था थकान हो रही है लेकिन अभी तो सफर शुरू ही नहीं हुआ था। बीच-बीच में झटका लगता तो नींद खुल जाती और आंख खुलने पर एक ही चीज दिखती, पहाड़। यहां पहाड़ को देखकर खुशी नहीं, गुस्सा आ रहा था। रोड को चौड़ा किया जा रहा था और उसके लिए पहाड़ को काटा जा रहा था। जो पहाड़ पिछले साल तक सुंदर दिखते थे, वो अब बंजर लग रहा था। ऐसा लग रहा था कि किसी ने इसके चिथड़े कर दिए हों। हालांकि ये चैड़ीकरण अभी ज्यादा दूर नहीं गया है, लेकिन ऐसा ही विकास चलता रहा तो यहां की प्रकृति का सत्यानाश हो जाएगा। आगे चलने पर प्रकृति के सुंदर नजारे आने लगे थे। कुछ ही देर में देवप्रयाग आने वाला था। देवप्रयाग, वो जगह है जहां अलकनंदा और भागीरथी का संगम होता है। इन दोनों के संगम के बाद जो नदी बनती है, वो गंगा कहलाती है।

बहती नदी और वादियां


मैं इस बारिश में संगम देखना चाहता था। मैं देखना चाहता था कि इस मौसम में भी अलकनंदा और भागीरथी अलग-अलग रंग की रहती है या मटमैले रंग की। यही सोचते-सोचते आंख लग गई, जब आंख खुली तो रूद्रप्रयाग पार कर चुके थे। उत्तराखंड में होने के बावजूद गर्मी बहुत थी, धूप भी बहुत तेज थी। कुछ घंटों के सफर के बाद बस चमोली आ पहंची थी। यहां से मौसम ने करवट ले ली। बारिश शुरू हो गई थी। बारिश के दौरान पहाड़ों में जाना जोखिम भरा तो है, लेकिन इस मौसम में पहाड़ सबसे ज्यादा खूबसूरत लगने लगते हैं। बारिश की वजह से नदियां लबालब भरी हुईं थीं। हम जहा से जा रहे थे उसके ठीक नीच नदी बह रही थी और दूर तलक हरे-भरे जंगल दिखाई दे रहे थी।

पहाड़ों के बीच बहती नदी।

कभी-कभी मैं समझ नहीं पाता हूं कि पहाड़ में ज्यादा खूबसूरत क्या है? बर्फ या हरियाली। जिस रूप में पहाड़ दिखता है, खूबसूरत लगने लगता है। शायद ये पहाड़ की खासियत है कि वो दोनों ही रूप में ढल जाता है। अब पहाड़ अचानक से बदलने लगे थे। हरियाली अब थी, वे खूबसूरत अब भी लग रहे थे लेकिन अब उन्हें पूरा देखने के लिए गर्दन ऊंची करनी पड़ रही थी। मैंने इतने ऊंचे और खूबसूरत पहाड़ कभी नहीं देखे थे। रास्ते में कई गांव मिले और वहीं पहाड़ों पर हो रही सीढ़ीनुमा खेती भी देखने को मिली। यहां के गांव भी बेहद सुकून भरे लग रहे थे। चारों तरफ हरियाली से घिरे हुये और हरियाली के बीच ही उनके घर। इन घरों को देखकर ऐसा लग रहा था कि सारा सुकून भगवान ने यहीं पटक दिया हो। यहां बंजर का नाम मात्र भी नहीं था, मौसम, प्रकृति और रास्ता सब कुछ शानदार था।

मैं दस घंटे के सफर में जितना बोर हुआ था, इन नजारों को देखकर सब कुछ छूमंतर हो गया था। अब तो न थकावट थी और न ही नींद। शायद यही है कुछ नया देखने की ललक। अब जब इतना कुछ खूबसूरत और नया दिख रहा था तो लग रहा था कि सफर थोड़ा लंबा हो जाए। रास्ते में भूस्खलन भी हो रहा था, कई जगह तो बड़े-बड़े पत्थर गिर गये थे। जिसे हटाने में समय लगा और तब हमारी बस आगे बढ़ पाई। बड़े-बड़े पहाड़ दूर जाकर वादियों का रूप ले रहे थे। रास्ते में कई झरने भी गिर रहे थे। पहाड़ों से ऐसे गिरने वाले झरनों का कोई नाम नहीं होते। इनको देखकर बस खुश हुआ जा सकता है। यहां आकर तो परेशान व्यक्ति भी मुस्कुरा उठेगा। मैं तो आया ही इसलिए ही था और वही हो रहा था।

ये चमोली की खूबसूरती है।

जिंदगी में सुकून अगर कहीं है तो ऐसे ही खूबसूरत सफर में है। पहाड़ों में मंजिल से ज्यादा खूबसूरत सफर होता है। लेकिन इस बार मैं जिस सफर पर निकला था, उसकी मंजिल भी बेहद खूबसूरत थी। थोड़ी देर बाद बस ने मुझे मेरे पड़ाव पर छोड़ दिया, पड़ाव आगे के सफर का। जोशीमठ में मुझे मेरा दोस्त मिलने वाला था और यहीं रात भी यहीं गुजारनी थी। अगले दिन हमें लंबा सफर तय करना था लेकिन अब सफर बैठकर नहीं चलकर तय करना था। इसी चुनौती के लिए तो 20 घंटा सफर तय करके यहां आया था। अगले दिन हमारे पास रास्ता था लेकिन कभी-कभी रास्ता पता होने के बावजूद इस पर चलना आसान नहीं होता है। ये चुनौती ही तो हमें फूलों की घाटी तक ले जाने वाली थी। लेकिन उससे पहले अभी मुझे सबसे कठिन चीज करनी थी, इंतजार।

इस यात्रा की अगली कड़ी यहां पढ़ें।

Wednesday, 15 May 2019

रोड ट्रिप: यात्रा सिर्फ एक जगह से दूसरे जगह तक पहुंचने की राह है

मैं घूमता रहता हूं, घूमना मेरी आदत में शुमार हो गया है। बिना घूमे अगर ज्यादा दिन हो जाते हैं तो मेरे अंदर सनक पैदा हो जाती है। सनक एक बार फिर नई जगह जाने की, सनक यूं ही चलते रहने की। मैं बार-बार कहीं निकलने की सोच रहा था लेकिन कहां जाऊं, इस पर बात नहीं बन रही थी। अचानक ही प्लान बना और मैं एक बार फिर से पहाड़ों की गोद में था। एक बार फिर से पगडंडियो पर चलना था और उसके अंतिम छोर को ढ़ूढ़ना था।


5 मई 2019, रविवार का दिन, मेरे ऑफिस की छुट्टी का दिन। सुबह-सुबह मैं और मुझे हमेशा सिखाते रहने वाले मेरे गुरूजी भी मेरे साथ थे। मैं अभी तक जहां भी गया था, बस से गया था। पहली बार था कि मैं मोटरसाइकिल से किसी सफर पर जा रहा था। हमें जाना था गढ़वाल के एक गांव में जिसका नाम है, पुजारपुुर। जो देहरादून से लगभग 60 किलोमीटर की दूरी पर है। हम चार लोग थे और दो मोटरसाइकिल। फिर क्या था, चल दिए अपनी पहली रोड ट्रिप पर।

पहाड़ पर रोड ट्रिप 


मोटरसाइकिल की रफ्तार और केसर सर के शाॅटकर्ट रास्ते से हमने जल्दी ही देहरादून शहर को पीछे छोड़ दिया। माल देवता रोड से आगे बढ़ते हुये हम पहाड़ के रास्ते पर आ गये थे। हम जिस जगह पर जा रहे थे वो टिहरी, चंबा रोड पर पड़ता है। अपने वाहन की अपनी आजादी होती है, कहीं भी रूको, कितनी देर रूकना है, आपकी मर्जी होती है। मोटरसाइकिल से जाना, खुली हवा में सांस लेने जैसा एहसास है। उसी एहसास को जीते हुये, बातें करते हुये हम आगे बढ़ रहे थे। रास्ते में पुलिस चेकिंग चल रही थी, हमारा भी ड्राइविंग लाइसेंस देखा और आगे जाने दिया।

गाड़ी पर इस यात्रा में हमारे साथी।

हम पहाड़ में जितने अंदर चले जा रहे थे, रोड भी उतनी ही संकरी हो रही थी। हालांकि इस रोड पर गाड़ियों की आवाजाही भी बहुत कम थी। रास्ते में कई गांव मिल रहे थे और गांव से ज्यादा रिजाॅर्ट, जिनमें स्विमिंग पूल भी दिख रहा था। संकरा रास्ता होने की वजह से यहां गाड़ी चलाना खतरनाक तो था ही लेकिन पहाड़, जंगल और खास तौर पर मोड़ बेहद सुंदर थे। पहाड़ अब तक खूब भरे हुये थे, यहां चीड़ नजर नहीं आ रहा था। मुकेश सर ने बताया कि गढ़वाल की इस क्षेत्र में चीड़ बहुत कम देखने को मिलेगा।

पूरा शहर 


धूप तेज थी लेकिन पहाड़ और पेड़ हमें छांव दे रहे थे। कुछ देर बाद हमारी गाड़ी ऐसी जगह पहुंची जहां से पूरा देहरादून शहर दिख रहा था। अब तक के रास्ते में सबसे सुंदर और बेहतरीन जगह यही थी। यहां रूककर कुछ देर शहर को देखा और कुछ तस्वीर में सहेजा। सामने ही मंसूरी शहर दिख रहा था, हम ठीक मंसूरी के सामने ही थे। ऐसे दृश्य मुझे बड़े अच्छे लगते हैं, जहां से सबकुछ देखा जा सके। उसके बावजूद बताना मुश्किल हो जाये, कौन-सी जगह, कहां है? ऐसी जगह पर रूकना, अपनी नीरसता को बाहर फेंकने जैसा है। इस जगह भीड़भाड़ वाला ये शहर यहां से बिल्कुल शांत था, जैसे कि आज उसने हमारी तरह छुट्टी ले ली हो। यहां से देखने पर लग रहा था कि एक चोटी है जिसके पार खूब सारे घर हैं। उन पर धूप तो खूब पड़ रही थी लेकिन हर किसी ने अपनी छांव ढ़ूढ़ ली थी।

पूरा देहरादून शहर।

हम भी इस प्यारी-सी धूप से निकलकर छांव की ओर बढ़ गये। अब हम घने पहाड़ और जंगल के बीच थे। कुछ पहाड़ तो बिल्कुल खड़े और पूरी तरह से खाली, जिन पर न पेड़ थे और न ही हरियाली। ये पहाड़ खड़े थे इसलिए इन पर पेड़ नहीं लग पाते हैं, अब कुछ-कुछ जगह पर चीड़ के पेड़ दिखने लगे थे। चीड़ उत्तराखंड में आग लगने की बड़ी वजह है। थोड़ा आगे जाने पर घेना गांव मिला, सुरकंडा देवी के मंदिर जाने का एक रास्ते यहां से भी है। पूछते-पूछते, बतियाते-बतियाते हम आगे बढ़े जा रहे थे। बीच में कई जगह पानी के स्रोत भी दिखते जा रहे थे।


पहाड़ों की ये विशेषता है जैसे-जैसे हम ऊपर जाते हैं तो नीचे दिखने वाली हर चीज अच्छी लगने लगती है। वो रोड जिससे कुछ देर पहले ही हम गुजरे थे, वो भी अच्छी लगती है और भरा हुआ पहाड़ तो सबको प्यारा है। इस संकरी रोड पर बहुत से गांव हैं लेकिन मुझे अपने पूरे सफर में एक भी बस नहीं मिली। इसका मतलब यही है कि यहां परिवहन की आवाजाही कम है। ये तब है जब प्रदेश की राजधानी यहां से सिर्फ 60 किलोमीटर की दूरी पर है। जो गाँव देहरादून से बहुत दूर हैं वहां तो परिवहन व्यवस्था और भी बदतर हो सकती है। जब हम काफी आगे निकल आये तो हमने बेहतर समझा कि किसी से पूछ लिया जाये कि पुजारगांव कहां है? ऐसा न हो हम अपनी धुन में चलते-चलते कददूखाल पहुंच जायें।


रास्ते में हमने एक नौजवान से पुजारगांव के बारे में पूछा। जहां हम थे वहां से पुजारगांव लगभग 2-3 किलोमीटर की दूरी पर था। कुछ ही देर में हम अपनी मंजिल पर थे। लेकिन अभी तो मंजिल दूर थी हमें यहां की हरियाली देखनी थी, देवदार और बांझ के पेड़ों को देखना था। देवदार के जंगलों में चलकर अपने पैरों की आहट सुननी थी। पहाड़ हर जगह सुंदर होता है, जरूरी नहीं है कि वहीं जाया जाए जिसका नाम हो, बहुत फेमस हों। टूरिस्ट प्लेस पर सिर्फ घूमा जा सकता है, उस जगह को जाना नहीं जा सकता, घूमा नहीं जा सकता है। मुझे घूमना पसंद है, घूमने से ज्यादा भटकना पसंद है। वैसे भी यात्रा सिर्फ एक जगह से दूसरे जगह तक पहुंचने की राह है।

यात्रा का आगे का विवरण यहां पढ़ें।

Thursday, 28 February 2019

जयपुर 4ः ये शहर फाहे की तरह है जो थकने ही नहीं देता है

जयपुर शहर के फाहे ने मुझे सुस्ताने का मौका ही नहीं दिया था। अब जो यहां बैठा हूं तो चलने का मन ही नहीं हो रहा। मैं सोचने लगा आज के पूरे सफर के बारे में आमेर, जयगढ़ और नाहरगढ़। तीनों किलों की अपनी खासियत है। कोई किला खूबसूरत है तो किसी किले की दीवार पर आज बस रहा है। जयपुर की तीन दीवारी मैं चुका था। अब मुझे देखना था शहर और शहर के किनारे। मैं उठा और चल दिया, अपने हिस्से का शहर देखने।


मैं अब सपाट रास्ता पर था लेकिन अभी भी सड़क दूर थी। यहां शांति थी और पशु-पक्षियों की चहचहाट। तभी मुझे मोर दिखाई दिये, जितने आगे बढ़ा मोर की संख्या भी बढ़ती गई। मैं वहां रूका नहीं, सीधा जल महल की ओर बढ़ने लगा। अब मैं जयपुर की गलियों में था, कोई काॅलोनी थी। घर वैसे ही थे जैसे हर शहर में आधुनिकता से परिपूर्ण। आगे कुछ बच्चे मिले जो पतंग लेकर खुश थे। मैं सोच रहा था कि यहां पतंग उड़ाना, गिल्ली-डंडे जैसा है। हर कोई पतंग उड़ा लेता है, हमारे यहां तो बचपन जाता है तो पतंग की डोर भी छूट जाती है।

जल महल


करीब पांच मिनट के बाद मैं मैन रोड पर आ गया। रोड के उस पार मेला लगा हुआ था। यहां मेला था क्योंकि यहां जल महल है। जल महल जिसे बस देख सकते हैं, निहार सकते हैं, तस्वीर ले सकते हैं। मगर उस जगह पर जा नहीं सकते। जल महल तो दूर के ढोल सुहाने जैसा है। इस महल को 1799 में राजा सवाई जयसिंह ने बनवाया था। इस महल में वे अपनी रानियों के साथ समय बिताते थे। जल महल झील के बीचों-बीच बना हुआ है। यहां वो सब है जो एक ऐतहासिक जगह को बाजार बनाने के लिये काफी होता है। खाने के लिये रोड किनारे ठेले ही ठेले लगे हुये हैं।

जल महल।
आमेर किले में हाथी की सवारी से पैसे कमाये जा रहे थे और यहां उंट की सवारी से। यहां के मार्केट में कुछ अलग है तो वो राजस्थानी दुकानें हैं। जहां राजस्थानी जूती, शाही सामान के नमूने। जिनसे लोग अपने घर की साजो-सज्जा बढ़ाते हैं। जयगढ़ किले की तरह यहां भी राजस्थानी कपड़ों में तस्वीरों का दौर चल रहा था। अगर राजस्थानी कुछ खरीदना है तो यहां से खरीदना चाहिये। महल के अंदर तो महंगाई ने पकड़ बना रखी है। यहां इसके अलावा कुछ देखने को है नहीं तो मैं वहां से आगे बढ़ गया। लोकल बस ली और हवा महल की ओर चल दिया।


मेरा आज हवा महल देखने का कोई प्लान नहीं था। बस रात को कैसा लगता है बस इसी वजह से हवा महल जाने का मन बनाया। रात के वक्त जयपुर की सड़कों पर जाम लग जाता है, हर बड़े शहर की तरह। जल महल से मैं लोकल बस पर चढ़ गया। कुछ मिनटों के बाद मैं हवा महल के सामने खड़ा था। मेरे सामने वो इमारत थी जिसकी बारे में मैंने बचपन में सुना था और कई सालों से तस्वीरों में देख रहा था। रात के इस शोर में भी हवा महल कितना शांत लगा रहा था। एक सीधी, ऊंची इमारत जो इस समय भगवा रंग में रंगी हुई लग रही थी। रात में भी ये महल अपनी रोशनी बिखेर रहा था। मैं वहां कुछ 15-20 मिनट रूका और वहां से निकल गया।


मैंने चांदपूल जाने के लिए ई-रिक्शा लिया। ई-रिक्शा उसी रास्ते पर था, जहां से मैं सुबह आया था। ऐसा मुझे लग रहा था क्योंकि चारों तरफ एक-जैसा ही दृश्य था। एक जैसी ही दुकानें और उनकी बनावट का ढंग। लग रहा था कि सारी दुकानें किसी एक ही है। मैंने ई-रिक्शा वाले से इस बारे में पूछा तो उसने हंसकर बस इतना कहा, कि यहां जो लोग आते हैं वो इसको देखकर ही खुश हो जाते हैं। मैं समझ गया कि उसे इसके बारे में जानकारी नहीं है। कुछ देर बाद चांदपूल आया और वहां से मैं पहुंचा अपने कमरे पर। आज का दिन बहुत थकावट वाला रहा। बिस्तर पर लेटते ही नींद आ गई और आंख खुली सुबह 8 बजे।

रात में दिखता हवा महल।
उठते ही मन किया कि निकल लिया जाये। थोड़ी देर बाद मैं रास्ते पर जा रहा था, तभी मेरे बगल पर एक गाड़ी आकर रूकी। मैंने सोचा कि शायद रास्ता पूछने के लिये गाड़ी रोकी है, लेकिन मैं गलत था। वहां से आवाज आई। मैं आपके साथ ही ठहरा हूं, आइये आपका कुछ समय बचा देता हूं। मैं गाड़ी में बैठ गया, उसने अपना नाम बताया लेकिन मुझे याद नहीं है। वो दिल्ली से जयपुर कुछ काम से आया था और आज दिल्ली वापस जाना था। हम सबसे पहले चांदपूल चौराहे पर गये और नाश्ता करने का सोचा। हम एक दुकान में घुस गये, वहां मैंने वो भारी भरकम पकौड़े-मिर्च लेने को कहा। जिसे कुछ ही देर में दुकानदार ने कैंची से काटकर पीस-पीस कर दिया। दोने में वो मिर्च इस प्रकार पड़ी थी जैसे कि वो हमेशा से यूंही बौनी हों। वो पकौड़ा-मिर्च कढ़ी के साथ परोस दी गई। मैंने समोसे, पकौड़े-मिर्च चटनी के साथ ही खाई थी। ऐसा पहली बार था कि कढ़ी से पकौड़ा-मिर्च खा रहा था। खाने में खराब नहीं थी, सुबह-सुबह इसका स्वाद अच्छा लगा।


इस दुकान पर चाय नहीं थी। दुकान से बाहर निकलकर सड़क किनारे ठेले पर चाय पीने आ गये। जब चाय अपने उबाल पर थी तो मैंने वही सवाल चाय वाले से पूछा। उसने बताया सांगनेरी गेट की तरह चारों तरफ ऐसे ही गेट हैं। असली जयपुर उसी के अंदर है, पहले जयपुर शहर की सीमा वही होती थी। बाद में जनसंख्या बढ़ी तो शहर भी पसरता गया। लेकिन पुराना शहर वही है, वहां की दुकानें, चौक, सब एक ही जैसे हैं। मुझे नहीं पता था कि वो सही बोल रहा है या नहीं। लेकिन मैं उसके इस जवाब से संतुष्ट था।


सिटी पैलेस


मुझे आज शहर को देखना था और खासकर हवामहल को। मुझे वो यूं अचानक मिल गये थे, वो भी मेरे साथ चलना चाहते थे। यूं तो मुझे अकेले ही घूमना पसंद है लेकिन मैंने मना नहीं किया। थोड़ी देर बार हवा महल के सामने थे। गाड़ी को पार्क करने की जगह नहीं मिल रही थी। वहीं खड़े एक दुकानदार ने बताया कि पहली गली में पार्किंग है। हम गाड़ी उसी गली में ले गये। यहां पहुंचे तो हवा महल पीछे छूट गया और सामने दिख गया सिटी पैलेस। अब हवा महल को बाद में देखने की योजना बनाई और चले पड़े सिटी पैलेस की ओर।

सिटी पैलेस में पपेट शो।
यहां भी टिकट की लाइन लगी थी लेकिन बहुत छोटी। मैंने टिकट का प्राइस देखा तो पहले तो लगा कि फाॅरेनर वाला प्राइस देख लिया है। लेकिन टिकट आम भारतीय के लिये 200 रूपये का था। टिकट महंगा है तो देखने लायक भी बहुत कुछ होगा, यही सोचकर टिकट ले लिया। सिटी पैलेस एकदम शहर के बीचों-बीच बना हुआ है और हवा महल के बिल्कुल पास। इस महल का निर्माण 1729 में महाराजा सवाई जय सिंह माधो ने करवाया था। जो तीन सालों में ही 1732 में ही पूरा हो गया। ये शाही परिवार का निवासी महल है। इस महल में देखने लायक बड़े-बड़े आंगन, खूबसूरत राजदरबार और कई महल हैं। महल में अंदर आने के तीन गेट हैं- उदय पोल, वीरेन्द्र पोल और त्रिपोलिया गेट। शाही परिवार के सदस्य त्रिपोलिया गेट से आते हैं और बाकी दोनों गेट से पर्यटक आते हैं।


टिकट लेने के बाद हम जैसे ही प्रवेश द्वार के पास पहुंचे। वहां खड़े कुछ लोगों ने एक पगड़ी पहना दी जिसका साफा पीछे पैरों तक जा रहा था। उन्होंने फोटो खींची और कहा कि वापिस आते वक्त ले लीजियेगा। मैंने मन ही मन कहा, ये बढ़िया है। पर्यटक राजी हो या न हो, फोटो देखकर तो लेने का लालच आ ही जायेगा। बाजारवाद का लालच यहां अच्छी तरह से लागू हो रहा था। दरवाजे से अंदर आये तो सामने कुछ छोटी-छोटी तोपें रखी हुई हैं और उसके बगल पर चल रहा है पपेट शो। ऐसा ही पपेट शो नाहरगढ़ किले में भी मिला था। जयपुर में हर जगह ऐसे पपेट शो देखने को मिल ही जाते हैं। वहीं बहुत सारी दुकानें भी थीं जहां राजस्थानी कपड़े, जूतियां, पगड़ी जैसे ही सामानों की रेल लगी हुई थी। लेकिन मैं तो सिटी पैलेस देखने आया था न कि दुकानें। सामने एक और गेट था और यहीं से शुरू होती है सिटी पैलेस की दुनिया।


अभी तक जो दीवारें और महल दिख रहे थे वो सभी लाल बलुआ पत्थर के थे। अभी तक जो लाल बलुआ पत्थर देखा था उसमें थोड़ा पुरानापन और रूखाई दिखती थी। लेकिन ये लाल दीवारें बिल्कुल साफ और सफेद नक्काशी इसको बेहद मनममोहक बना रही थी। बीच आंगन में एक दरबार जैसी एक इमारत थी, जिसकी छत पर महल वाली झालर लगी थी। जिसें मैंने अभी तक फिल्मों मे ही देखा था। दीवरों पर बहुत सारे तीर, भाले और बंदूकें लगीं हुईं थीं। उनमें सबमें सबसे खास था चांदी के बहुत बड़े दो कलश। इन कलशों में गंगाजल रखा गया है। ये 1894 में 140000 चांदी के सिक्कों को पिघलाकर बनाया गया था। इस कलश की ऊंचाई 5 फीट 3 इंच है, 345 किलोग्राम इसका वजन है। इसका नाम गिनीज ऑफ वर्ल्ड रिकाॅर्ड में दर्ज है।

मुबारक महल।
इसके बाद हम लाल बलुआ की इमारत से निकलकी सफेद संगमरमर के दरवाजे से और अंदर आ गया। ये आंगन भी वैसा ही था जैसा हम देखकर आये थे। मेरे सामने एक इमारत थी जो दोमंजिला थी। देखने में बेहद खूबसूरत इसका नाम है मुबारक महल। दरवाजे से लेकर दीवार हर कोना किसी ने किसी डिजाइन में बना हुआ था। जिस गेट से हम अंदर आये थे, वहां दो दरबान भी खड़े थे, लाल लिबास और पगड़ी में। सिटी पैलेस में काम करने वाला हर व्यक्ति इसी पोशाक में मिलेगा। मैं मुबारक महल के अंदर घुस गया। मुझे बताया गया कि यहां फोटो खींचना मना है। सामने ही वो बिस्तर लगा हुआ था जो उस समय का है। बहुत बड़ा बिस्तर, उस पर रखा चौसर और लंबे-लंबे तीन तकिये।


आगे वाले कमरे में महाराजा सवाई माधो सिंह की कुछ पोशाकें थी। एक उनके राजशाही वाली, एक उनकी पोलो खेलने वाली। उनकी तस्वीर भी लगी थी पोलो खेलते हुये। वहीं गंजीफा रखे हुये हैं यानि कि खेलने के पत्ते। आगे वाले कमरे में बहुत सारी पगड़ियां, जामा, पायजामा, अंगरखा रखे हुये हैं। आगे बढ़ने पर महारानी के लिये कई प्रकार की साड़ियां रखी हुई हैं। बनारसी साड़ी से लेकर कश्मीरी पश्मीना शाॅल। ये सब देखते-देखते मैं मुबारक महल से बाहर आ गया। मुबारक महल को माधो सिंह द्वितीय ने बनवाया था। इसके बाद मैं शस्त्रागार दीर्घा में गया। मैं जिंदगी में पहली बार इतने शस्त्र देखे वो भी इतने प्रकार के। इसमें हाथी दांत तलवारें, चेन हथियार, बंदूक, पिस्टल, तोपें, प्वाइजन टिप वाले ब्लेड, गन पाउडर हथियार और कैंची हथियार। यहां भी फोटों लेना मना था। अगर आप शस्त्रों को देखना पसंद करते हैं तो आप यहां आराम से हर एक हथियार का आंखों से जायजा ले सकते हैं। इन सबको देखकर इतना तो कहा जा सकता है कि जयपुर मजबूत राज्यों में से रहा है।


चन्द्र महल


चंद्र महल सिटी पैलेस का सबसे खूबसूरत जगह। घुसते ही मेरे मुंह से वाह निकल गया। चंद्र महल एक प्रकार से राज दरबार की तरह लग रहा था। सिटी पैलेस में सबसे ज्यादा ज्यादा नक्काशी इसी महल में हैं। पर्दे से लेकर, फूल तक सब कुछ रखा था। महल के बीचों-बीच दो बड़ी कुर्सी रखीं थी और उसके आस-पास छोटी-छोटी कुर्सियां। इसे देखकर लग रहा था कि मैं किसी ऐतहासिक फिल्म की शूटिंग में घुस आया हूं। झूमर अपनी चमक बिखेर रहे थे। जिससे महल और भी बहुत खूबसूरत लग रहा था। यहां भी फोटो खींचना मना था और अगर ऐसा करते पकड़े गये तो 500 रूपये जुर्माना था।



यहां सभी महाराजाओं की तस्वीर लगी हुई थी और सबके बारे में लिखा हुआ था। मैं तस्वीरों में देख रहा था कि सभी राजा कद-काठी में लंबे और तंदरूस्त थे सिवाय महाराजा सवाई राम सिंह द्वितीय को छोड़कर। सवाई राम सिंह द्वितीय को चश्मा लगा हुआ था। मैंने पहली बार देखा था कि राजा भी चश्मा लगाते हैं। मेरे साथ जो थे वो फोटो खींच रहे थे जबकि उनको बार-बार चेतावनी दे दी गई थी। अबकी बार उन्होंने जैसे ही मोबाइल निकाला। लाल पोशाक में एक व्यक्ति आया और हाथ से मोबाइल छीन लिया। उसके बाद बहुत मिन्नतें हुईं लेकिन वो नहीं माना। उसने वो सारी तस्वीरें डिलीट कीं और 500 रूपये का जुर्माना भी ले लिया। राजमहल की खूबसूरती को देखकर और इस वाक्ये पर हंसते-हंसते बाहर निकल आये। हम उसी जगह पर आ गये जहां फोटो खिंचवाई थी। फोटो का पैसा पूछा तो हमने न लेने का ही फैसला लिया।


शहर में ज्यों-ज्यों आगे देख रहे थे लग रहा था कि कितनी बेहतरीन है। हर जगह की अपनी महत्वता थी, कोई आकार में बड़ा है, कोई सुंदरता में और कोई अपने इतिहास में। ऐसा ही कुछ सिटी पैलेसे को देखने के बाद लग रहा था। सिटी पैलेस शहर के बीचों बीच नहीं है, शहर इस पैलेस के चारों तरफ है।