Showing posts with label dehradoon. Show all posts
Showing posts with label dehradoon. Show all posts

Friday, 8 April 2022

लंढौर: इस खूबसूरत जगह के बारे में जैसा सुना, उतना ही सुंदर पाया

पिछली यात्रा पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

घुमक्कड़ी का एक अपना मिजाज होता है। घूमना हमारी जिंदगी की तरह ही है। कभी इसका सफर बहुत अच्छा होता है और कई बार सफर वैसा नहीं होता है, जैसा हम चाहते हैं। मुझे पहाड़ों में यात्रा करना बेहद अच्छा लगता है। कुछ समय से पहाड़ों में किसी न किसी वजह से नहीं जा पा रहा था लेकिन अब आया था तो कुछ नई जगहों पर जाने का मन था। उत्तराखंड में ऐसी ही एक जगह की मैंने यात्रा की, लंढौर। 

27 फरवरी 2022 को हम सुबह 6:30 पर देवप्रयाग की मुख्य सड़क पर खड़े थे। पहले हमने टिहरी जाने का सोचा था लेकिन किसी वजह से वो प्लान कैंसिल हो गया। अब हम देहरादून जाने वाली बस के लिए खड़े थे। हमारे सामने काफी देर तक टिहरी की बस खड़ी रही लेकिन हम उस पर नहीं चढ़े। कुछ देर बाद टिहरी वाली बस चली गई लेकिन ऋषिकेश और देहरादून वाली बस अब तक नहीं आई थी। 

पहले ऋषिकेश

मुझे यहीं पता चला कि देहरादून जाने के लिए पहले ऋषिकेश जाना होगा। बस तो नहीं आई थी लेकिन हमें एक शेयर्ड जीप मिल गई थी। जिसका किराया साधारण किराये से थोड़ा ज्यादा था। हम सुबह की ठंडी हवा और खूबसूरत नजारों के बीच ऋषिकेश के लिए जा रहे थे। लगभग दो घंटे बाद हम ऋषिकेश के बस स्टैंड पर थे। मेरे दोस्त की एक ऑनलाइन मीटिंग थी इसलिए हम दो घंटे एक कैफे में बैठे रहे।

मीटिंग खत्म होते ही हम बस स्टैंड पर गये। जहां देहरादून के लिए बस लगी हुई थी। हम बस में जाकर बैठ गये। बस अपने समय पर चल पड़ी और समय पर देहरादून पहुंचा भी दिया। हमने बस स्टैंड पर ही एक कमरा ले लिया। देहरादून पहुंचते-पहुंचते हमें काफी देर हो गई थी और अब मेरे काम का समय हो गया था। कुछ देर के लिए मैं सो गया और फिर देर रात तक काम करता रहा। कुल मिलाकर इस दिन हमने कुछ भी नहीं घूमा।

मसूरी

देहरादून रेलवे स्टेशन।
अगले दिन हम सुबह-सुबह होटल से निकले। अब हमें मसूरी के लिए बस पकड़नी थी। हमारे सामने आईएसबीटी था लेकिन मसूरी के लिए बस देहरादून रेलवे स्टेशन पर बने बस स्टैंड से मिलती है। मुझे ये बात पहले से पता थी सो मुझे किसी से पूछने की जरूरत नहीं पड़ी। रेलवे स्टेशन जाने वाली टैक्सी पर बैठे और कुछ देर बाद पहुंच भी गये। रेलवे स्टेशन पर घुसते ही देखा की मसूरी वाली बस निकल रही थी। हम जल्दी से उसमें चढ़ गये।

बस में बहुत ज्यादा भीड़ नहीं थी। बस देहरादून शहर से होते हुए जा रही थी। इस शहर में मैंने कुछ महीने नौकरी भी की थी। मुझे वो जगह याद आ रही थीं, जहां मैं जाया करता था। 5-6 किमी. के बाद देहरादून खत्म हुआ और हम मसूरी के घुमावदार रास्ते पर चलने लगे। कुछ साल पहले ऐसी ही एक बस से मैं मसूरी गया था। उस समय तो मेरी हालत खराब हो गई थी। इस बार ऐसा कुछ नहीं हो रहा था और खिड़की वाली सीट भी तो अपने पास ही थी।

बस जैसे-जैसे ऊपर बढ़ते जा रही थी, नजारे और भी सुंदर होते जा रहे थे। कुछ जगहों से पूरा देहरादून दिखाई दे रहा था। ऐसे नजारे देखकर मन ही मन में खुशी होती है। जब सड़क किनारे बहुत सारे होटल दिखाई देने लेगे तो हम समझ गये कि मसूरी आने वाला है। कुछ देर बाद बस रूकी और हम नीचे उतर गये।

कमरा और स्कूटी

स्कूटी से लंढौर।

अब हमें रहने का एक ठिकाना खोजाना था। पहले हमने एक लोकप्रिय हॉस्टल के यहां फोन किया। हॉस्टल के रेट सुनकर दिमाग ही झन्ना गया। अब हम लाइब्रेरी रोड से लाइब्रेरी चौक की ओर बढ़ने लगे। वहां पर कुछ लोग कमरे दिलाने के लिए खड़े थे। एक बुजुर्ग व्यक्ति को अपनी जरूरत और बजट का कमरा दिलाने को कहा। वो हमें एक नीचे जाती हुई सड़क पर ले जाने लगे। काफी नीचे जाने के बाद होटल पहुंचे।

वहां एक कमरा हमें पसंद आ गया और वो हमारे बजट में भी था। सबसे अच्छी बात इतने कम रेट में हमें बॉलकनी से सुंदर नजारे वाला रूम मिल गया था। हमने सामान रखा और बाहर निकल गये। अब हमें लंढौर जाना था। लंढौर मसूरी से 7 किमी. की दूरी पर था। लाइब्रेरी चौक पर स्कूटी रेंट पर मिल रही थी। हमने लंढौर स्कूटी से जाने का तय किया। कुछ देर बाद स्कूटी से लंढौर जा रहे थे।

लंढौर चले हम

हमें लंढौर जाने का रास्ता तो नहीं पता था लेकिन ये पता था कि लोगों से पूछते-पूछते लंढौर पहुंच ही जाएंगे। मसूरी से थोड़ा आगे बढ़ने पर हमने पेट्रोल पंप से पेट्रोल भरवाया और फिर लंढौर के रास्ते पर बढ़ गये। मैं सोचता था कि लंढौर मसूरी से 7 किमी. दूर है तो रास्ता थोड़ा सुनसान टाइप होगा लेकिन लंढौर तो मसूरी से बिल्कुल सटा हुआ है।

लंढौर से सुंदर नजारा।
कुछ देर बाद हम पतले रास्ते पर चलने लगे। रास्ता कुछ देर तक ऊबड़-खाबड़ और चढ़ाई वाला था। रास्ते के एक तरफ लोगों के घर और होटल थे तो दूसरी तरप हरी-भरी घाटी दिखाई दे रही थी। इन सुंदर नजारों को देखते हुए कब हम लंढौर की गलियों में पहुंच गये, हमें खुद ही पता नहीं चला।

अब हमें लाल टिब्बा जाना था। मैं सोचता था कि लाल टिब्बा का मतलब कोई ऐसी जगह होगी, जहां ट्रेक करके पहुंचा जा सकता है लेकिन जब हम वहां पहुंचे तो वहां एक दुकान थी। जिसकी छत पर चढ़कर लोग फोटो ले रहे थे। उस दुकान की छत पर जाने के लिए बढ़े तो दुकानदार ने बताया कि छत पर जाने का 50 रुपए का टिकट लगेगा या फिर दुकान से कुछ लेना होगा। हमने उस दुकान का मेन्यू देखा तो हमारा छत पर जाने का मन ही नहीं हुआ।

बेक हाउस

मसूरी भीड़भाड़ वाली जगह है और लंढौर में सुकून ही सुकून है। पूरा रास्ता घने जंगलों से भरा हुआ है जो इस जगह को और भी खूबसूरत बनाता है। मसूरी के इतने पास होने के बावजूद यहां बेहद शांति है। लंढौर अंग्रेजों की बसाई हुई जगह है। उन्होंने ब्रिटेन के एक गांव के नाम पर इस जगह का नाम रखा। लंढौर एक छावनी क्षेत्र है। इस जगह के बाद अब हमें लंढौर बेक हाउस जाना था।

हम फिर से लंढौर के शांत और खूबसूरत रास्ते पर थे। ऊपर-नीचे जाने वाले रास्ते पर चलते हुए हम लंढौर के बेक हाउस पहुंच गये। लंढौर का बेक हाउस छोटी-सी इमारत में था। लंढौर का ये बेक हाउस लगभग 100 साल पुराना है। लंढौर बेक हाउस आज भी पुराना लेकिन सुंदर लगता है। लकड़ी की कुर्सियां और टेबल बेक हाउस में रखी हुई हैं। खिड़की किनारे ऐसी ही एक टेबल पर हम बैठ गये। बेक हाउस में हमने तीन अलग-अलग चीजें खाईं लेकिन उनका नाम अब मुझे याद नहीं है।

चार दुकान

लंढौर की चार दुकान।
बेक हाउस के अंदर तो खूबसूरती थी ही, बाहर का नजारा भी शानदार था। खिड़की के बाहर चीड़ का सुंदर जंगल दिखाई दे रहा था। लंढौर बेक हाउस में लगभग 1 घंटे का समय बिताने के बाद हम बाहर आ गये। हम कुछ मिनटों के बाद लंढौर में ही चार दुकान पर थे। चार दुकान लंढौर का एक पुराना इलाका है, जहां कुछ दुकानें हैं। इन दुकानों पर खाने के लिए काफी कुछ मिल रहा था। हमने यहां मोमोज और बर्गर का स्वाद लिया।

हम कुछ देर शांत लंढौर में ऐसे ही टहलते रहे। इसके बाद हमने स्कूटी उठाई और मसूरी के लिए वापस चल दिए। लंढौर के बारे में जितने अच्छे तरीके से कहा गया है, लंढौर वैसा ही खूबसूरत है। हमारा सफर तो अभी चल ही रहा था। हमें अभी काफी सारी जगहें देखनी थी।

शुरू से यात्रा को पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।


Wednesday, 15 May 2019

रोड ट्रिप: यात्रा सिर्फ एक जगह से दूसरे जगह तक पहुंचने की राह है

मैं घूमता रहता हूं, घूमना मेरी आदत में शुमार हो गया है। बिना घूमे अगर ज्यादा दिन हो जाते हैं तो मेरे अंदर सनक पैदा हो जाती है। सनक एक बार फिर नई जगह जाने की, सनक यूं ही चलते रहने की। मैं बार-बार कहीं निकलने की सोच रहा था लेकिन कहां जाऊं, इस पर बात नहीं बन रही थी। अचानक ही प्लान बना और मैं एक बार फिर से पहाड़ों की गोद में था। एक बार फिर से पगडंडियो पर चलना था और उसके अंतिम छोर को ढ़ूढ़ना था।


5 मई 2019, रविवार का दिन, मेरे ऑफिस की छुट्टी का दिन। सुबह-सुबह मैं और मुझे हमेशा सिखाते रहने वाले मेरे गुरूजी भी मेरे साथ थे। मैं अभी तक जहां भी गया था, बस से गया था। पहली बार था कि मैं मोटरसाइकिल से किसी सफर पर जा रहा था। हमें जाना था गढ़वाल के एक गांव में जिसका नाम है, पुजारपुुर। जो देहरादून से लगभग 60 किलोमीटर की दूरी पर है। हम चार लोग थे और दो मोटरसाइकिल। फिर क्या था, चल दिए अपनी पहली रोड ट्रिप पर।

पहाड़ पर रोड ट्रिप 


मोटरसाइकिल की रफ्तार और केसर सर के शाॅटकर्ट रास्ते से हमने जल्दी ही देहरादून शहर को पीछे छोड़ दिया। माल देवता रोड से आगे बढ़ते हुये हम पहाड़ के रास्ते पर आ गये थे। हम जिस जगह पर जा रहे थे वो टिहरी, चंबा रोड पर पड़ता है। अपने वाहन की अपनी आजादी होती है, कहीं भी रूको, कितनी देर रूकना है, आपकी मर्जी होती है। मोटरसाइकिल से जाना, खुली हवा में सांस लेने जैसा एहसास है। उसी एहसास को जीते हुये, बातें करते हुये हम आगे बढ़ रहे थे। रास्ते में पुलिस चेकिंग चल रही थी, हमारा भी ड्राइविंग लाइसेंस देखा और आगे जाने दिया।

गाड़ी पर इस यात्रा में हमारे साथी।

हम पहाड़ में जितने अंदर चले जा रहे थे, रोड भी उतनी ही संकरी हो रही थी। हालांकि इस रोड पर गाड़ियों की आवाजाही भी बहुत कम थी। रास्ते में कई गांव मिल रहे थे और गांव से ज्यादा रिजाॅर्ट, जिनमें स्विमिंग पूल भी दिख रहा था। संकरा रास्ता होने की वजह से यहां गाड़ी चलाना खतरनाक तो था ही लेकिन पहाड़, जंगल और खास तौर पर मोड़ बेहद सुंदर थे। पहाड़ अब तक खूब भरे हुये थे, यहां चीड़ नजर नहीं आ रहा था। मुकेश सर ने बताया कि गढ़वाल की इस क्षेत्र में चीड़ बहुत कम देखने को मिलेगा।

पूरा शहर 


धूप तेज थी लेकिन पहाड़ और पेड़ हमें छांव दे रहे थे। कुछ देर बाद हमारी गाड़ी ऐसी जगह पहुंची जहां से पूरा देहरादून शहर दिख रहा था। अब तक के रास्ते में सबसे सुंदर और बेहतरीन जगह यही थी। यहां रूककर कुछ देर शहर को देखा और कुछ तस्वीर में सहेजा। सामने ही मंसूरी शहर दिख रहा था, हम ठीक मंसूरी के सामने ही थे। ऐसे दृश्य मुझे बड़े अच्छे लगते हैं, जहां से सबकुछ देखा जा सके। उसके बावजूद बताना मुश्किल हो जाये, कौन-सी जगह, कहां है? ऐसी जगह पर रूकना, अपनी नीरसता को बाहर फेंकने जैसा है। इस जगह भीड़भाड़ वाला ये शहर यहां से बिल्कुल शांत था, जैसे कि आज उसने हमारी तरह छुट्टी ले ली हो। यहां से देखने पर लग रहा था कि एक चोटी है जिसके पार खूब सारे घर हैं। उन पर धूप तो खूब पड़ रही थी लेकिन हर किसी ने अपनी छांव ढ़ूढ़ ली थी।

पूरा देहरादून शहर।

हम भी इस प्यारी-सी धूप से निकलकर छांव की ओर बढ़ गये। अब हम घने पहाड़ और जंगल के बीच थे। कुछ पहाड़ तो बिल्कुल खड़े और पूरी तरह से खाली, जिन पर न पेड़ थे और न ही हरियाली। ये पहाड़ खड़े थे इसलिए इन पर पेड़ नहीं लग पाते हैं, अब कुछ-कुछ जगह पर चीड़ के पेड़ दिखने लगे थे। चीड़ उत्तराखंड में आग लगने की बड़ी वजह है। थोड़ा आगे जाने पर घेना गांव मिला, सुरकंडा देवी के मंदिर जाने का एक रास्ते यहां से भी है। पूछते-पूछते, बतियाते-बतियाते हम आगे बढ़े जा रहे थे। बीच में कई जगह पानी के स्रोत भी दिखते जा रहे थे।


पहाड़ों की ये विशेषता है जैसे-जैसे हम ऊपर जाते हैं तो नीचे दिखने वाली हर चीज अच्छी लगने लगती है। वो रोड जिससे कुछ देर पहले ही हम गुजरे थे, वो भी अच्छी लगती है और भरा हुआ पहाड़ तो सबको प्यारा है। इस संकरी रोड पर बहुत से गांव हैं लेकिन मुझे अपने पूरे सफर में एक भी बस नहीं मिली। इसका मतलब यही है कि यहां परिवहन की आवाजाही कम है। ये तब है जब प्रदेश की राजधानी यहां से सिर्फ 60 किलोमीटर की दूरी पर है। जो गाँव देहरादून से बहुत दूर हैं वहां तो परिवहन व्यवस्था और भी बदतर हो सकती है। जब हम काफी आगे निकल आये तो हमने बेहतर समझा कि किसी से पूछ लिया जाये कि पुजारगांव कहां है? ऐसा न हो हम अपनी धुन में चलते-चलते कददूखाल पहुंच जायें।


रास्ते में हमने एक नौजवान से पुजारगांव के बारे में पूछा। जहां हम थे वहां से पुजारगांव लगभग 2-3 किलोमीटर की दूरी पर था। कुछ ही देर में हम अपनी मंजिल पर थे। लेकिन अभी तो मंजिल दूर थी हमें यहां की हरियाली देखनी थी, देवदार और बांझ के पेड़ों को देखना था। देवदार के जंगलों में चलकर अपने पैरों की आहट सुननी थी। पहाड़ हर जगह सुंदर होता है, जरूरी नहीं है कि वहीं जाया जाए जिसका नाम हो, बहुत फेमस हों। टूरिस्ट प्लेस पर सिर्फ घूमा जा सकता है, उस जगह को जाना नहीं जा सकता, घूमा नहीं जा सकता है। मुझे घूमना पसंद है, घूमने से ज्यादा भटकना पसंद है। वैसे भी यात्रा सिर्फ एक जगह से दूसरे जगह तक पहुंचने की राह है।

यात्रा का आगे का विवरण यहां पढ़ें।

Sunday, 12 May 2019

रोड ट्रिप 2: जिंदगी की ‘भागम भाग’ यहां आकर ठहर जाती है

यात्रा का पहला भाग पढ़ने के लिए यहां जाएं।

सबकी अपनी जगह तय है कोई शहर की तरफ भागता है और कोई गांव की तरफ, किसी को पहाड़ों में चलना पसंद है तो कोई समुद्र किनारे डूबते सूरज को देखना चाहता है। बस मुझे ही नहीं पता मैं क्या पसंद करता हूं? मैं हर जगह जाना चाहता हूं और हर दिन को देखना चाहता हूं। कभी-कभी मुझे बार-बार एक ही जगह पर जाना सुकून देता है तो कभी उस जगह पर जाने का मन ही नहीं करता। लेकिन जब कहीं होता हूं तो वहीं ठहर जाता हूं, बिल्कुल एक खींची हुई तस्वीर की तरह।


देहरादून से चलकर हम पुजारगांव आ गये थे। यहां हमें विश्व वृक्ष मानव विश्वेश्वर दत्त सकलानी जी के यहां जाना था, हाल ही में उनका देहांत हुआ था। हमें उनके घर के बारे में पता नहीं था सो हम गांव में पूछते-पूछते आगे बढ़ रहे थे। बीच में एक बहुत बड़ा स्कूल भी मिला जो स्व. नरेन्द्र सकलानी के नाम पर था। नरेन्द्र सकलानी, विश्वेश्वर दत्त के सकलानी के बड़े भाई थे। एक खतरनाक और कच्चे रास्ते की चढ़ाई के बाद हम ऐेसी जगह पर आ गये, जहां आगे जाने के लिए कोई रास्ता नहीं था। कुछ घर जरूर दिखाई दे रहे थे, मैंने वहीं एक शख्स से विश्वेश्वर दत्त सकलानी जी के घर के बारे में पूछा।

ये हरा-भरा गांव


मुझे पता मिल गया था लेकिन हमारे कुछ साथी आये नहीं थे, उनके आने के बाद ही हम साथ में घर जाने वाले थे। गांव बड़ा ही खूबसूरत था, सोचिए गांव के चारो तरफ पहाड़ और वो भी पेड़ों से भरे हुये। इस गांव को हरियाली से भरने का श्रेय, उसी महान शख्स को जाता था जिनके घर जाने वाले थे। विश्वेश्वर दत्त सकलानी ने अपनी पूरी जिंदगी में 50 लाख से अधिक पेड़ लगाये। हममें से बहुत से लोग पूरी जिंदगी में एक पेड़ नहीं लगा पाते और उन्होंने तो 50 लाख से अधिक पेड़ लगाये। सोचिए एक बंजर भूमि हरी-भरी हो जाए तो कैसी लगती है वैसा ही ये गांव दिखता है।

पुजारगांव।

हम दशरथ मांझी को याद करते हैं जिसने अकेले ही पहाड़ खोद डाला था। लेकिन हम विश्वेश्वर दत्त सकलानी को याद नहीं करते जिसने पर्यावरण को बचाने के लिए अपना पूरा जीवन लगा दिया। हम जहां खड़े थे वहां पेड़ ही पेड़ थे, इतना गहरा जंगल मैंने कभी नहीं देखा था। थोड़ी देर बाद हम उसी जंगल में चल रहे थे, जिसे विश्वेश्वर सकलानी ने अपनी मेहनत से बनाया था। इस जंगल का नाम भी, वृक्ष पुरी। ये जंगल पहाड़ पर था यानी जंगल देखने के लिए चढ़ाई करनी थी। रास्ता बना हुआ दिख रहा था, जो बता रहा था कि यहां लोगों की आवाजाही होती-रहती है। हमारे साथ विश्वेश्वर दत्त सकलानी जी बहू थीं, जो हमें बहुत सी कहानी बता रही थीं और इस जगह के बारे में भी।

वृक्षपुरी जंगल में।

एक व्यक्ति की मेहनत


जिस जगह हम खड़े थे, वो सकलान पट्टी में आता है। सकलान पट्टी में करीब 20 गांव आते हैं और इन्हीं गांव में जाकर सकलानीजी पेड़ लगाते थे। उन्होंने बताया कि सकलानी जी सुरकंडा देवी जाकर भी पेड़ लगाये, जो हमें रास्ते में मिला था। उन्होंने ये जुनून सुनने पर जितना चौंका रहा था, उससे अधिक कठिन था। इस जंगल में बहुत सारे पेड़ थे, बांझ, बुरांश, अखरोट, खुमानी, देवदार और भी बहुत सारे पेड़ जिनसे ये पहाड़ पटा हुआ था।


मुझे इस जंगल को देखकर जगत सिंह ‘जंगली’ के वन की याद आ गई। उन्होंने भी अपना एक जंगल खड़ा किया है लेकिन वहां काफी लोग देखने आते हैं, घूमने आते हैं। जबकि इस जंगल को देखने कोई नहीं आता। हम जैसे ही कुछ लोग भटकते-भटकते यहां आ जाते हैं। सौरभ सर कह रहे थे ये जंगल ईको-टूरिज्म मे आ जाए तो बहुत अच्छा होगा। इस जंगल को लोग भी जानेंगे और विश्वेश्वर दत्त सकलानी जी को भी। चलते-चलते हम ऐसी जगह आ गये जहां एक पुराना सा घर बना हुआ था, जो सकलानी जी की ही छौनी थी। छौनी का मतलब है जहां गाय, भैंसों को रखा जाता था। ये एक प्रकार से उनका पुश्तैनी घर ही था।


हम चलते-चलते काफी उंचाई पर आ गये थे, यहां हवा काफी तेज थी। हवा चलने से पूरी प्रकृति झूम रही थी और ये देखकर मैं बड़ा खुश था। एक जगह आकर हम सभी बैठ गये और इस जगह के बारे में बात करने लगे। जो कहानी विश्वेश्वर सकलानी की बहू ने बताईं वो बहुत मार्मिक और प्रेरणादायी हैं। वो सारी कहानी किसी और दिन बताउंगा, आज इस जगह की सुंदरता को जीते हैं। यहां सबकुछ शांत था, यहां प्रकृति को आराम से सुना जा सकता था। पेड़ों की आवाज भी हमारे कानों को सुनाई दे रही थी और पक्षियों की आवाज भी मधुर लग रही थी।


हम जहां खड़े थे वहां से से सारे पहाड़ बराबर पर दिख रहे थे और नीचे गांव, घर, लोग और खेत दिख रहे थे। हमने कई घंटे इस जंगल में बिता दिये थे, हम अब नीचे आने लगे। रास्ते में ही एक मंदिर मिला जो सकलानी जी के पूर्वजों का था जिसका नाम है, जंगेश्वर महादेव। वहां से आगे बढ़ने पर हम एक टूटी-फूटी पुरानी इमारत हवेली। जिसे किसी जमाने में हवेली कहा जाता था, जो टिहरी के राजा की हवेली थी। यहीं पर टिहरी के राजा अपनी कचहरी लगाते थे, लोगों को न्याय देते और फरियाद सुनते थे। शाम काफी हो गई थी और हमें फिर से उसी संकरे रास्ते से जाना था। हम फिर से चल दिये, उसे संकरे रास्ते पर जिससे हम आये थे।


खूबसूरत सांझ


लौटने पर ये रास्ता बहुत अलग और अच्छा लग रहा था, शायद सांझ पहाड़ों में रौनक ले आती है। सूरज डूबने वाला था और उसकी लालिमा धीरे-धीरे पहाड़ और आसमान में फैल रही थी। पहाड़ और ये पेड़ सूरज को देखने नहीं दे रहे थे, कोई खुली जगह हो तो ये सांझ देखी जाये। डूबते सूरज को देखा जाये और उसकी सुंदरता को। ये नजारे रोज-रोज नहीं मिलते, आज मौका था सो जी लेना चाहिए। थोड़ी देर में हम उसी जगह आ गये, जहां से पूरा शहर दिखता है लेकिन यहां से मैं सिर्फ डूबते सूरज को देखना चाहता था।


डूबते सूरज में भी वही आकर्षण होता है जो उगते सूरज में होता है। डूबते सूरज की सुंदरता उसकी लालिमा में है जो पूरे आसमान को अपने रंग में रंग देता है और अब मैं उसी रंग को देख रहा था। जिंदगी में सब कुछ यात्रा है, जो हमारे साथ घट रहा है जो हम कर रहे हैं। ये करने और घटने को दर्ज कर लेना चाहता हूं, जैसे का तैसा।