Sunday 19 May 2019

क्वानू: कल्पना और सुंदरता से परे हैं ये छोटा-सा गांव

सबके भीतर कुछ न कुछ होता है, कोई उसको बाहर निकल लेता है तो कोई उसे हमेशा के लिए दबा देता है। मेरे भीतर भी कुछ है नई जगह पर जाना है और जानना। पहाड़ों में अक्सर मेरा चक्कर लगता रहता है। पहाड़ों में मुझे पहाड़ देखना पसंद नहीं है, मैं तो पहाड़ पर खड़े होकर मैदान ढ़ूढ़ता हूं। उसके लिए बहुत गहरे में थाह लेनी पड़ती है। ऐसी जगह बहुत कम है लेकिन जहां भी हैं वो स्वर्ग के समान हैं। इस बार मैं ऐसी ही एक जगह पर गया, क्वानू।


17 मई 2019 को मैं देहरादून से निकल पड़ा एक ऐसी जगह की ओर जिसका मुझे बस नाम पता था। वो क्या है, वो कैसी है कुछ भी नहीं पता था। बस इतना पता था, जगह नई है तो जाना ही चाहिए। मई के महीने में खूब गर्मी पड़ रही है लेकिन देहरादून में मैदानी इलाकों की तुलना में कम गर्मी है। सुबह-सुबह 6 बजे तो हवा बिल्कुल साफ और ठंडी लग रही थी। देहरादून से बस पकड़ी और निकल पड़े विकास नगर की ओर। विकास नगर देहरादून से लगभग 40 किलोमीटर की दूरी पर है। घुमक्कड़ लोग ऐसे समझ सकते हैं कि अगर आप पोण्टा साहिब जा रहे हैं तो रास्ते में विकास नगर जरूर मिलता है।

पहाड़ से पहले मैदान


मुझते लगता था कि उत्तराखंड में आखिरी मेदानी शहर देहरादून है। उसके बाद जिस तरफ भी जाएं सिर्फ पहाड़ ही मिलेगा, लेकिन इस रास्ते पर आने पर मैं गलत हो गया। देहरादून से विकासनगर तक आना वैसा ही लगता है जैसे हरिद्वार से ऋषिकेश। विकासनगर पूरी तरह से मैदानी शहर है, बड़ी-बड़ी दुकानें, कई चौराहे और सुबह-सुबह ठेले वाला नाश्ता। ऐसे ही किसी एक ठेले पर मैंने नाश्ता किया और चल पड़ा अपनी मंजिल की ओर। मेरे साथ कुछ स्थानीय लोग थे जिनकी मदद से मैं क्वानू जा रहा था।

विकासनगर सुबह-सुबह।

विकासनगर थोड़ा ही आगे निकले तो सामने पहाड़ दिख रहे थे। अब हम पहाड़ों में जा रहे थे। मैंने गाड़ी की सीट पर सिर टिकाया और पहाड़ों को, पीछे छूटते हुए देखने लगा। ये सिर टिकाकर बाहर देखना कितना अच्छा लगता है, उस वक्त सोचना बंद हो जाता है, बस देखा जाता है, जैसे सोते हुए हम सपना देखते हैं। हम घुमावदार रास्ते से उपर चढ़ते जा रहे थे, अब पहाड़-जंगल उपर भी थे और नीचे भी। रास्ते बेहद सुंदर लग रहे थे खासकर वो जो बिल्कुल मोड़ की तरह बने थे, बिल्कुल सांप के आकार के।


आपस में बात करते-करते हम कोटी पहुंच गये। कोटी से आगे चले तो एक डैम मिला, ‘इच्छाड़ी बांध’। ये डैम टौंस नदी पर बना हुआ है, टौंस नदी को शापित नदी भी कहा जाता है क्योंकि इसके पानी को कोई उपयोग नहीं कर पाता है। ये डैम आजाद भारत का पहला डैम है और आज भी बिजली बना रहा है। यहां हम रूके और डैम को कुछ देर देखा। पानी रोकने की वजह से पूरी झील गहरी हरी लग रही थी, मानो किसी ने झील में हरा रंग उड़ेल दिया हो।

कोटी में बना इच्छाड़ी डैम।

आसमान को छूते पहाड़

यहां से आगे चले तो गाड़ी में एक नई बहस छिड़ गई, डैम देश के लिए विकास या विनाश। जो आगे जाकर मोदी, नेहरू होने लगी। कुछ देर हिस्सा बनकर मैं उस बहस से दूर हो गया और फिर से प्रकृति को देखने लगा। अब पहाड़ कुछ अलग थे, बहुत उंचे और खड़े। जिनको उपर तक देखने के लिए सिर उठाना पड़ रहा था। यहां पहाड़ इतने उंचे थे कि उन पर बादलों की छाया पड़ रही थी। मैंने ऐसा ही कुछ पुजार गांव में भी देखा था, ये सब देखना अलग तो था लेकिन अच्छा लग रहा था।


रास्ते में जगह-जगह पत्थर पड़े थे, जो बता रहा था कि यहां भूस्खलन होना आम बात है। पहाड़ पर कुछ पुराने घर दिख रहे थे, खपरैल वाले। मुझे ये दोपहर अच्छी लग रही थी क्योंकि टहलना शाम और सुबह का शब्द है। लेकिन दोपहर में टहला जाए तो वो खुशनुमा होती है। खड़े पहाड़, उन पर दिखते घने जंगल और पास में बहती नदी कितना अच्छा सफर है, यही सोचते हुए आगे बढ़ा जा रहा थां रास्ते में जगह-जगह से थोड़ा-थोड़ा पानी गिर रहा था। मेरे साथ चलने वाले स्थानीय ने बताया ये स्रोत है यानी प्राकृतिक जल, जिसे नौला धारा भी कहा जाता है। ऐसे ही एक स्रोत पर गाड़ी रूकी और हमने पानी पिया। पानी बहुत ठंडा और मीठा था, ठंडे के मामले में तो फ्रिज भी इसके सामने फेल है। उससे भी बड़ी बात ये पानी प्यास बुझाती है।

पहाड़ों के बीच बहती टौंस नदी।

थोड़ी ही देर में हमें पहाड़ों से घिरा मैदान दिखा। जहां दूर-दूर तक पहाड़ दिख रहे थे लेकिन सामने फैला मैदान थे। इस जगह का नाम है ‘क्वानू’। क्वानू में तीन गांव है मझगांव, कोटा और मैलोट, हम जिस गांव में खड़े थे वो मझगांव है। खेतों में गेहूं में पकी हुई फसल दिखाइ्र दे रही थी और उसमें काम करती हुईं कुछ महिलाएं। इस गांव में महासू मंदिर है जिसको देखने पर लगता है कि कोई बौद्ध मंदिर है। इस गांव में अस्पताल है, इंटरमीडिएट तक स्कूल है लेकिन सिर्फ ये अच्छी-अच्छी बातें हैं।

स्वर्ग को नरक बनाने की पहल


यहां का दूसरा पहला बुरा और खतरनाक है। मैं जहां खड़ा था सामने मैदान था और मैदान को घेरे सामने पहाड़ था। जो हिमाचल प्रदेश में आता था, यहां उत्तराखंड और हिमाचल एक-दूसरे के पड़ोसी हैं। दोनों राज्यों को बांटती हुई बीच से एक नदी जा रही है, इसमें कुछ बुरा नहीं है। बुरा वो है जो अब मैं बताने जा रहा हूं। सरकार इन दोनों राज्यों के बीच में एक डैम बनाने जा रही है, किशाउ बांध। किशाउ बांध एशिया का दूसरा सबसे बड़ा डैम होगा, जिसकी उंचाई 236 मीटर होगी। डैम के बनने से हिमाचल के आठ गांव और उत्तराखंड के नौ गांव जलमग्न हो जाएंगे।

क्वानू का एक गांव- मझगांव।

मैंने इस जगह को देखा तो बहुत दुख हुआ कि सरकार विकास के नाम पर स्वर्ग जैसी खूबसूरत जगह को डुबोने जा रही है। क्वानू के लोग नहीं चाहते हैं कि ये डैम बने। इस डैम को बनाने की सबसे बड़ी और बुरी वजह है ‘दिल्ली’। दिल्ली के लोंगों को पानी की आपूर्ति करने के लिए यहां डैम बनाया जाएगा। मैं तो यहीं चाहूंगा कि ये डैम न बने और क्वानू बच जाए। इसके अलावा यही बढ़िया आइडिया यहीं के एक स्थानीय ने दिया। वो कहते हैं, सरकार को अगर डैम बनाना ही तो छोटा डैम बनाये, बिल्कुल इच्छाड़ी डैम की तरह। जिससे डैम भी बन जाएगा, देश का विकास भी हो जाएगा और हमारा क्वानू भी बच जाएगा।


क्वानू से लौटते हुए मैं सोच रहा था, उत्तराखंड में लोग मशहूर और नाम वाली जगह क्यों नहीं जाते है? वो क्वानू जैसी जगह पर जाकर छुट्टियां क्यों नहीं मनाते हैं। जहां शांति है, प्रकृति का सुकून और बड़े ही प्यारे लोग हैं। मंसूरी को पहाड़ों की रानी जरूर कहा जाता है लेकिन पहाड़ों में स्वर्ग ‘क्वानू’ है। जहां इतना मैदान है कि आप चलते-चलते थक जायेंगे, यहां चारों तरफ पहाड़ हैं जहां आप चढ़कर आसमान देख सकते हैं और रात के समय टौंस नदी के किनारे खुले आसमान रात गुजार सकते हैं। यहां हिमाचल भी है और उत्तराखंड भी।

Wednesday 15 May 2019

रोड ट्रिप: यात्रा सिर्फ एक जगह से दूसरे जगह तक पहुंचने की राह है

मैं घूमता रहता हूं, घूमना मेरी आदत में शुमार हो गया है। बिना घूमे अगर ज्यादा दिन हो जाते हैं तो मेरे अंदर सनक पैदा हो जाती है। सनक एक बार फिर नई जगह जाने की, सनक यूं ही चलते रहने की। मैं बार-बार कहीं निकलने की सोच रहा था लेकिन कहां जाऊं, इस पर बात नहीं बन रही थी। अचानक ही प्लान बना और मैं एक बार फिर से पहाड़ों की गोद में था। एक बार फिर से पगडंडियो पर चलना था और उसके अंतिम छोर को ढ़ूढ़ना था।


5 मई 2019, रविवार का दिन, मेरे ऑफिस की छुट्टी का दिन। सुबह-सुबह मैं और मुझे हमेशा सिखाते रहने वाले मेरे गुरूजी भी मेरे साथ थे। मैं अभी तक जहां भी गया था, बस से गया था। पहली बार था कि मैं मोटरसाइकिल से किसी सफर पर जा रहा था। हमें जाना था गढ़वाल के एक गांव में जिसका नाम है, पुजारपुुर। जो देहरादून से लगभग 60 किलोमीटर की दूरी पर है। हम चार लोग थे और दो मोटरसाइकिल। फिर क्या था, चल दिए अपनी पहली रोड ट्रिप पर।

पहाड़ पर रोड ट्रिप 


मोटरसाइकिल की रफ्तार और केसर सर के शाॅटकर्ट रास्ते से हमने जल्दी ही देहरादून शहर को पीछे छोड़ दिया। माल देवता रोड से आगे बढ़ते हुये हम पहाड़ के रास्ते पर आ गये थे। हम जिस जगह पर जा रहे थे वो टिहरी, चंबा रोड पर पड़ता है। अपने वाहन की अपनी आजादी होती है, कहीं भी रूको, कितनी देर रूकना है, आपकी मर्जी होती है। मोटरसाइकिल से जाना, खुली हवा में सांस लेने जैसा एहसास है। उसी एहसास को जीते हुये, बातें करते हुये हम आगे बढ़ रहे थे। रास्ते में पुलिस चेकिंग चल रही थी, हमारा भी ड्राइविंग लाइसेंस देखा और आगे जाने दिया।

गाड़ी पर इस यात्रा में हमारे साथी।

हम पहाड़ में जितने अंदर चले जा रहे थे, रोड भी उतनी ही संकरी हो रही थी। हालांकि इस रोड पर गाड़ियों की आवाजाही भी बहुत कम थी। रास्ते में कई गांव मिल रहे थे और गांव से ज्यादा रिजाॅर्ट, जिनमें स्विमिंग पूल भी दिख रहा था। संकरा रास्ता होने की वजह से यहां गाड़ी चलाना खतरनाक तो था ही लेकिन पहाड़, जंगल और खास तौर पर मोड़ बेहद सुंदर थे। पहाड़ अब तक खूब भरे हुये थे, यहां चीड़ नजर नहीं आ रहा था। मुकेश सर ने बताया कि गढ़वाल की इस क्षेत्र में चीड़ बहुत कम देखने को मिलेगा।

पूरा शहर 


धूप तेज थी लेकिन पहाड़ और पेड़ हमें छांव दे रहे थे। कुछ देर बाद हमारी गाड़ी ऐसी जगह पहुंची जहां से पूरा देहरादून शहर दिख रहा था। अब तक के रास्ते में सबसे सुंदर और बेहतरीन जगह यही थी। यहां रूककर कुछ देर शहर को देखा और कुछ तस्वीर में सहेजा। सामने ही मंसूरी शहर दिख रहा था, हम ठीक मंसूरी के सामने ही थे। ऐसे दृश्य मुझे बड़े अच्छे लगते हैं, जहां से सबकुछ देखा जा सके। उसके बावजूद बताना मुश्किल हो जाये, कौन-सी जगह, कहां है? ऐसी जगह पर रूकना, अपनी नीरसता को बाहर फेंकने जैसा है। इस जगह भीड़भाड़ वाला ये शहर यहां से बिल्कुल शांत था, जैसे कि आज उसने हमारी तरह छुट्टी ले ली हो। यहां से देखने पर लग रहा था कि एक चोटी है जिसके पार खूब सारे घर हैं। उन पर धूप तो खूब पड़ रही थी लेकिन हर किसी ने अपनी छांव ढ़ूढ़ ली थी।

पूरा देहरादून शहर।

हम भी इस प्यारी-सी धूप से निकलकर छांव की ओर बढ़ गये। अब हम घने पहाड़ और जंगल के बीच थे। कुछ पहाड़ तो बिल्कुल खड़े और पूरी तरह से खाली, जिन पर न पेड़ थे और न ही हरियाली। ये पहाड़ खड़े थे इसलिए इन पर पेड़ नहीं लग पाते हैं, अब कुछ-कुछ जगह पर चीड़ के पेड़ दिखने लगे थे। चीड़ उत्तराखंड में आग लगने की बड़ी वजह है। थोड़ा आगे जाने पर घेना गांव मिला, सुरकंडा देवी के मंदिर जाने का एक रास्ते यहां से भी है। पूछते-पूछते, बतियाते-बतियाते हम आगे बढ़े जा रहे थे। बीच में कई जगह पानी के स्रोत भी दिखते जा रहे थे।


पहाड़ों की ये विशेषता है जैसे-जैसे हम ऊपर जाते हैं तो नीचे दिखने वाली हर चीज अच्छी लगने लगती है। वो रोड जिससे कुछ देर पहले ही हम गुजरे थे, वो भी अच्छी लगती है और भरा हुआ पहाड़ तो सबको प्यारा है। इस संकरी रोड पर बहुत से गांव हैं लेकिन मुझे अपने पूरे सफर में एक भी बस नहीं मिली। इसका मतलब यही है कि यहां परिवहन की आवाजाही कम है। ये तब है जब प्रदेश की राजधानी यहां से सिर्फ 60 किलोमीटर की दूरी पर है। जो गाँव देहरादून से बहुत दूर हैं वहां तो परिवहन व्यवस्था और भी बदतर हो सकती है। जब हम काफी आगे निकल आये तो हमने बेहतर समझा कि किसी से पूछ लिया जाये कि पुजारगांव कहां है? ऐसा न हो हम अपनी धुन में चलते-चलते कददूखाल पहुंच जायें।


रास्ते में हमने एक नौजवान से पुजारगांव के बारे में पूछा। जहां हम थे वहां से पुजारगांव लगभग 2-3 किलोमीटर की दूरी पर था। कुछ ही देर में हम अपनी मंजिल पर थे। लेकिन अभी तो मंजिल दूर थी हमें यहां की हरियाली देखनी थी, देवदार और बांझ के पेड़ों को देखना था। देवदार के जंगलों में चलकर अपने पैरों की आहट सुननी थी। पहाड़ हर जगह सुंदर होता है, जरूरी नहीं है कि वहीं जाया जाए जिसका नाम हो, बहुत फेमस हों। टूरिस्ट प्लेस पर सिर्फ घूमा जा सकता है, उस जगह को जाना नहीं जा सकता, घूमा नहीं जा सकता है। मुझे घूमना पसंद है, घूमने से ज्यादा भटकना पसंद है। वैसे भी यात्रा सिर्फ एक जगह से दूसरे जगह तक पहुंचने की राह है।

यात्रा का आगे का विवरण यहां पढ़ें।

Sunday 12 May 2019

रोड ट्रिप 2: जिंदगी की ‘भागम भाग’ यहां आकर ठहर जाती है

यात्रा का पहला भाग पढ़ने के लिए यहां जाएं।

सबकी अपनी जगह तय है कोई शहर की तरफ भागता है और कोई गांव की तरफ, किसी को पहाड़ों में चलना पसंद है तो कोई समुद्र किनारे डूबते सूरज को देखना चाहता है। बस मुझे ही नहीं पता मैं क्या पसंद करता हूं? मैं हर जगह जाना चाहता हूं और हर दिन को देखना चाहता हूं। कभी-कभी मुझे बार-बार एक ही जगह पर जाना सुकून देता है तो कभी उस जगह पर जाने का मन ही नहीं करता। लेकिन जब कहीं होता हूं तो वहीं ठहर जाता हूं, बिल्कुल एक खींची हुई तस्वीर की तरह।


देहरादून से चलकर हम पुजारगांव आ गये थे। यहां हमें विश्व वृक्ष मानव विश्वेश्वर दत्त सकलानी जी के यहां जाना था, हाल ही में उनका देहांत हुआ था। हमें उनके घर के बारे में पता नहीं था सो हम गांव में पूछते-पूछते आगे बढ़ रहे थे। बीच में एक बहुत बड़ा स्कूल भी मिला जो स्व. नरेन्द्र सकलानी के नाम पर था। नरेन्द्र सकलानी, विश्वेश्वर दत्त के सकलानी के बड़े भाई थे। एक खतरनाक और कच्चे रास्ते की चढ़ाई के बाद हम ऐेसी जगह पर आ गये, जहां आगे जाने के लिए कोई रास्ता नहीं था। कुछ घर जरूर दिखाई दे रहे थे, मैंने वहीं एक शख्स से विश्वेश्वर दत्त सकलानी जी के घर के बारे में पूछा।

ये हरा-भरा गांव


मुझे पता मिल गया था लेकिन हमारे कुछ साथी आये नहीं थे, उनके आने के बाद ही हम साथ में घर जाने वाले थे। गांव बड़ा ही खूबसूरत था, सोचिए गांव के चारो तरफ पहाड़ और वो भी पेड़ों से भरे हुये। इस गांव को हरियाली से भरने का श्रेय, उसी महान शख्स को जाता था जिनके घर जाने वाले थे। विश्वेश्वर दत्त सकलानी ने अपनी पूरी जिंदगी में 50 लाख से अधिक पेड़ लगाये। हममें से बहुत से लोग पूरी जिंदगी में एक पेड़ नहीं लगा पाते और उन्होंने तो 50 लाख से अधिक पेड़ लगाये। सोचिए एक बंजर भूमि हरी-भरी हो जाए तो कैसी लगती है वैसा ही ये गांव दिखता है।

पुजारगांव।

हम दशरथ मांझी को याद करते हैं जिसने अकेले ही पहाड़ खोद डाला था। लेकिन हम विश्वेश्वर दत्त सकलानी को याद नहीं करते जिसने पर्यावरण को बचाने के लिए अपना पूरा जीवन लगा दिया। हम जहां खड़े थे वहां पेड़ ही पेड़ थे, इतना गहरा जंगल मैंने कभी नहीं देखा था। थोड़ी देर बाद हम उसी जंगल में चल रहे थे, जिसे विश्वेश्वर सकलानी ने अपनी मेहनत से बनाया था। इस जंगल का नाम भी, वृक्ष पुरी। ये जंगल पहाड़ पर था यानी जंगल देखने के लिए चढ़ाई करनी थी। रास्ता बना हुआ दिख रहा था, जो बता रहा था कि यहां लोगों की आवाजाही होती-रहती है। हमारे साथ विश्वेश्वर दत्त सकलानी जी बहू थीं, जो हमें बहुत सी कहानी बता रही थीं और इस जगह के बारे में भी।

वृक्षपुरी जंगल में।

एक व्यक्ति की मेहनत


जिस जगह हम खड़े थे, वो सकलान पट्टी में आता है। सकलान पट्टी में करीब 20 गांव आते हैं और इन्हीं गांव में जाकर सकलानीजी पेड़ लगाते थे। उन्होंने बताया कि सकलानी जी सुरकंडा देवी जाकर भी पेड़ लगाये, जो हमें रास्ते में मिला था। उन्होंने ये जुनून सुनने पर जितना चौंका रहा था, उससे अधिक कठिन था। इस जंगल में बहुत सारे पेड़ थे, बांझ, बुरांश, अखरोट, खुमानी, देवदार और भी बहुत सारे पेड़ जिनसे ये पहाड़ पटा हुआ था।


मुझे इस जंगल को देखकर जगत सिंह ‘जंगली’ के वन की याद आ गई। उन्होंने भी अपना एक जंगल खड़ा किया है लेकिन वहां काफी लोग देखने आते हैं, घूमने आते हैं। जबकि इस जंगल को देखने कोई नहीं आता। हम जैसे ही कुछ लोग भटकते-भटकते यहां आ जाते हैं। सौरभ सर कह रहे थे ये जंगल ईको-टूरिज्म मे आ जाए तो बहुत अच्छा होगा। इस जंगल को लोग भी जानेंगे और विश्वेश्वर दत्त सकलानी जी को भी। चलते-चलते हम ऐसी जगह आ गये जहां एक पुराना सा घर बना हुआ था, जो सकलानी जी की ही छौनी थी। छौनी का मतलब है जहां गाय, भैंसों को रखा जाता था। ये एक प्रकार से उनका पुश्तैनी घर ही था।


हम चलते-चलते काफी उंचाई पर आ गये थे, यहां हवा काफी तेज थी। हवा चलने से पूरी प्रकृति झूम रही थी और ये देखकर मैं बड़ा खुश था। एक जगह आकर हम सभी बैठ गये और इस जगह के बारे में बात करने लगे। जो कहानी विश्वेश्वर सकलानी की बहू ने बताईं वो बहुत मार्मिक और प्रेरणादायी हैं। वो सारी कहानी किसी और दिन बताउंगा, आज इस जगह की सुंदरता को जीते हैं। यहां सबकुछ शांत था, यहां प्रकृति को आराम से सुना जा सकता था। पेड़ों की आवाज भी हमारे कानों को सुनाई दे रही थी और पक्षियों की आवाज भी मधुर लग रही थी।


हम जहां खड़े थे वहां से से सारे पहाड़ बराबर पर दिख रहे थे और नीचे गांव, घर, लोग और खेत दिख रहे थे। हमने कई घंटे इस जंगल में बिता दिये थे, हम अब नीचे आने लगे। रास्ते में ही एक मंदिर मिला जो सकलानी जी के पूर्वजों का था जिसका नाम है, जंगेश्वर महादेव। वहां से आगे बढ़ने पर हम एक टूटी-फूटी पुरानी इमारत हवेली। जिसे किसी जमाने में हवेली कहा जाता था, जो टिहरी के राजा की हवेली थी। यहीं पर टिहरी के राजा अपनी कचहरी लगाते थे, लोगों को न्याय देते और फरियाद सुनते थे। शाम काफी हो गई थी और हमें फिर से उसी संकरे रास्ते से जाना था। हम फिर से चल दिये, उसे संकरे रास्ते पर जिससे हम आये थे।


खूबसूरत सांझ


लौटने पर ये रास्ता बहुत अलग और अच्छा लग रहा था, शायद सांझ पहाड़ों में रौनक ले आती है। सूरज डूबने वाला था और उसकी लालिमा धीरे-धीरे पहाड़ और आसमान में फैल रही थी। पहाड़ और ये पेड़ सूरज को देखने नहीं दे रहे थे, कोई खुली जगह हो तो ये सांझ देखी जाये। डूबते सूरज को देखा जाये और उसकी सुंदरता को। ये नजारे रोज-रोज नहीं मिलते, आज मौका था सो जी लेना चाहिए। थोड़ी देर में हम उसी जगह आ गये, जहां से पूरा शहर दिखता है लेकिन यहां से मैं सिर्फ डूबते सूरज को देखना चाहता था।


डूबते सूरज में भी वही आकर्षण होता है जो उगते सूरज में होता है। डूबते सूरज की सुंदरता उसकी लालिमा में है जो पूरे आसमान को अपने रंग में रंग देता है और अब मैं उसी रंग को देख रहा था। जिंदगी में सब कुछ यात्रा है, जो हमारे साथ घट रहा है जो हम कर रहे हैं। ये करने और घटने को दर्ज कर लेना चाहता हूं, जैसे का तैसा।