Wednesday 4 December 2019

पुष्कर 2ः कुछ जगहें वैसी नहीं होती, जैसा हम सोचते हैं

यात्रा का पहला भाग पढ़ें।

नया शहर, नया पता और नये लोग। हम एक पुराने शहर को छोड़कर एक और पुराने शहर मे आ गए थे। जो हमारे लिए बिल्कुल नया था। नाम सुनकर हर शहर की छवि बन जाती है। मेरे छवि में ये जगह सिर्फ ब्रह्मा मंदिर थी। मुझे इस शहर को पैदल चलकर देखना था। ये मेरा नई जगह को देखने का तरीका है। ऐसा करने से शहर आपको और आप शहर को जानने लगते हैं। हम उसी शहर में पैदल रवाना हो गए।


यहां पहुंचते ही हमें एक ठिकाना ढूढ़ना था। पुष्कर मेले की वजह से सभी होटल, हाॅस्टल बुक थे। उन सबका रेट भी बहुत ज्यादा था। जो आमतौर पर नहीं होता है। ये रेट का बढ़ना पुष्कर मेले की धमक की वजह से थी। किस्मत से हमें एक धर्मशाला मिली, जिसमें हमें एक बड़ा-सा कमरा बजट में मिल गया। हमने सामाना रखा और रवाना हो गए इस शहर को देखने। इस समय ये शहर पुष्कर मेले के लिए फेमस था। इसलिए हम सबसे पहले उस मेले को ही देखना चाहते थे। पुष्कर मेला ऊंटों का एक फेमस मेला है, जिसे हर कोई देखना चाहता है। मैं भी उस मेले को देखने आया था, लेकिन सिर्फ कैमरे की नजर से नहीं कुछ अपनी नजर से। कभी-कभी कैमरा वो नहीं देख पाता, जो हम देख पाते हैं।

पुष्कर की गलियां


हम अपने कमरे से निकले और चल पड़े पुष्कर की गलियों में। हम अभी अपने कमरे से बाहर निकले ही थे। मुझे यहां की गलियां मेले की तरह ही लग रहीं थीं। चारों तरफ दुकानें ही दुकानें थीं। एक तीर्थस्थल और आधुनिकता दोनों ही इन गलियों में चल रही थी। जानें क्यों मुझे यहां की गलियां देखकर हरिद्वार और ऋषिकेश याद आ रहे थे?  कुछ ही दूर आगे चले हमें पुष्कर सरोवर नजर आया। हम उसके अंदर चले गए। कार्तिक महीने में लगने वाले इस मेले में बहुत-से लोग स्नान करने के लिए यहां आते हैं। स्नान करने के लिए दो कुंड बनाए गए हैं। इस समय पुष्कर सरोवर में फोटो खींचना मना भी है, जो सही भी है।

साथ-साथ।

हम नहा चुके थे, इसलिए यहां नहाना कल के लिए टाल दिया। हम फिर से वापस गलियों में आगे बढ़ गए। मुझे ये गलियां बहुत अच्छी लग रही थीं, मैं इनको देखकर खुश हो रहा था। मेरे जेहन में राजस्थान के शहर ऐसे ही दर्ज हैं। लेकिन जब जयपुर गया तो कुछ अलग मिला। अब जब इन गलियों में चल रहा था, तब लगा कुछ तो सच है मेरे जेहन में। पैदल चलना काफी थकान भरा होता है लेकिन ये मुझे काफी सुहाता है। मैं पूरे शहर को पैदल नापता हूं और फटी हुई आंखों से पूरे शहर को देखता हूं। देखता हूं कि ये शहर कैसे उठता है और क्या काम करता है? मैं उन जगहों को खोजता हूं जहां उठकर वे पहली चाय पीते हैं लेकिन हम तो पहुंचे ही दिन में थे। अब हम इस शहर का दिन और शाम देखना चाहते थे।

यहां मुझे पहली बार लग रहा था कि मैं किसी राजस्थानी शहर में हूं। बड़ी-बड़ी मूछें, धोती-कुर्ता और सिर पर पगड़ी दिख ही जा रही थी। पुरूष और महिलाएं दोनों ही अपनी वेशभूषा में नजर आ रहे थे। यहां दुकानों में राजस्थानी कपड़े, जूतियां और ज्वैलरी नजर आ रही थी। गलियों में भीड़ बहुत थी लेकिन फिर भी सब कुछ शांत था। इस भीड़ में शोर नहीं थी, इसलिए ये अच्छी भी लग रही थी। चलते-चलते हम ब्रह्मा मंदिर के सामने आ गए। मुझे ब्रह्मा मंदिर जाना था लेकिन अभी नही, इसलिए आगे बढ़ गए मेले की ओर।

पुष्कर मेला


रास्ते में एक गुमटी मिली, यानि कि चलती-फिरती राजस्थानी चाय। कुल्हड़ में वो चाय मिलती है, काफी बढिया होती है। इतनी अच्छी कि आप तरोताताजा हो जाएं। कुछ देर और चलने के बाद मेला आ गया। मुझे जैसे ही कुछ नया दिखता है, मुझे उसके ओर भागने का मन करता है। मुझे इस मेले की तलाश थी, जहां बहुत कुछ हमारे इंतजार में था। अंदर घुसते ही हमें बड़े-बड़े झूले दिखाई दिए, लेकिन हम झूले के लिए यहां नहीं आए थे। फिर हमारी नजर एक ऊंट-गाड़ी पर पड़ी। ऊंट मेरे बगल से गुजरा। मैं उसके पूरे शरीर को देख रहा था। उसके लंबे-लंबे पैरों को, उसके जुगाली करते लंबे मुंह को। मेरे बगल से ऊंट बारी-बारी से गुजर रहे थे और मैं उनमें कुछ नया खोजने की जुगत में था।

तरोताजा कर देने वाली चाय।

मैं सोचता था कि इस मेले में सिर्फ ऊंट ही ऊंट दिखाई देते हैं लेकिन ऐसा नहीं है। हमें आगे बढ़े तो घोड़े भी दिखाई दिए। ये मेरे लिए आश्चर्य से कम नहीं था। घोड़े भी ऐसे कि देखकर आप खुश हो जाएं। लंबे-उंचे और इतने चमकदार घोड़े मैंने कभी नहीं देखे थे। सफेद और काले घोड़े तो बेमिसाल थे। यहां आपको बहुत सारे घोड़े दिखाई देंगे। जो घोड़े खरीदना चाहते हैं, वो घोड़े यहां खरीदते भी हैं। यहां आपको वो दुकानें भी मिल जाएंगी, जिन पर घोड़े का पूरा सामान मिलता है। ऐसे ही चलते हुए ऊंटों को देखते हुए हमने पूरा मेला देख डाला। मेले में भीड़ थी, लेकिन उतनी नहीं जितनी मैंने सोची थी।

पुष्कर का रेगिस्तान


मेले में चलते-चलते आप एक रोड पर आ जाएंगे। रोड के पार भी आपको ऊंट दिखाई देंगे। यहां ऊंट और लोग अपना टेंट बनाकर रूकते हैं। ये पूरा खाली मैदान है जिस पर सिर्फ ऊंट ही ऊंट दिखाई दे रहे थे। मैं उस जगह को देखना चाहता था, लेकिन शाम होने वाली थी। मैं उस रेत को देखना चाहता था जहां लिए लोग ऊंट-गाड़ी और सफारी से हजार रुपए देकर जा रहे थे। ये लोग बता रहे थे कि वो जगह लगभग 4 किलोमीटर दूर है। हम उस जगह पर पूछते-पूछते पैदल चलने लगे। कुछ देर बाद हम रोड छोड़कर कच्ची सड़क पर जाने लगे।

मेले में ये भी।

हमारे आगे-पीछे बहुत सारी ऊंट-गाड़ी जा रही थी। हम उन्हीं के पीछे-पीछे जाने लगे। रास्ते में मुझे एक बच्चा सारंगी बजाते मिला। मैं वीडियो बनाने लगा तो कुछ राजस्थानी लोग नाचने भी लगे। मैंने उनको उसका मेहनताना दिया और आगे बढ़ गए। रास्ते में मैं सोच रहा था कि ये कला अब इन लोगों की रोजी-रोटी बन गई है। मुझे टूरिस्ट प्लेस की सबसे बड़ी दिक्क्तों में ये भी लगती है। जिनका सामना अभी आगे हमारा होने ही वाला था। हम चलते-चलते काफी आगे आ चुके थे। यहां से हमें एक टीला दिखाई दे रहा था। जहां बहुत सारे ऊंट दिखाई दे रहे थे। हमें शायद वहीं जाना था, लेकिन ये इतना दूर नहीं था कि जिसके लिए ऊंट-गाड़ी या सफारी की जाए। लगभग डेढ़ किलोमीटर के इस रास्ते के लिए एक हजार लेना पूरी तरह से ठगाई थी।

पुष्कर में शाम।

थोड़ी देर में हम उस जगह पर पहुंच गए। यहां जो देखा, वो तो और बुरा था। सफारी लोगों के साथ एक तालाब आकार के गडढे में जाती है और जो तेज स्पीड में आती है। जो कई बार बहुत ज्यादा उछल जाती है। जो जोखिम भरा है, सहायता के लिए यहां कोई एंबुलेंस भी नहीं है। अगर ये एडवेंचर है तो मैं उससे दूर ही रहना पसंद करता हूं। जिस रेगिस्तान के बारे में मैंने सुना था, देखा था। ये वो तो नहीं था। ये तो सिर्फ लाल मिट्टी थी जिसे रेत का नाम दे दिया गया था। थोड़ी देर में हमने सूरज को डूबते देखा, बच्चों के साथ बातें की और वापस चल दिए फिर से मेले की ओर।

रात की रोशनी में मेला


मैंने कई कविताओं में पढ़ा है दिन और रात का अंतर लेकिन कभी समझ नहीं पाया। जब पुष्कर को रात में देखा तो लगा शायद कवि ने इसी जगह पर बैठकर वो कविता लिखी होगी। पुष्कर मेला अब कुछ अलग लगने लगा था। भीड़ भी काफी बढ़ गई थी और चकाचौंध भी ज्यादा थी। ऊंट भी मेले में नहीं दिखाई दे रहे थे, अब दिखाई दे रहे थे तो सिर्फ झूले। बहुत सारे झूलों में से एक में हम भी बैठ गए। इन झूलों को देखकर मुझे अपना बचपन और गांव याद आ जाता है।

मेला की छंटा।

झूले में बैठकर हम बहुत उपर आ गए। जहां से सब कुछ छोटा लग रहा था और दूर-दूर तक चीजें दिख रहीं थी। पुष्कर कितने दूर तक फैला है, ये इस झूले में बैठकर समझ में आया। झूले में बैठकर एक सुकून था कि बहुत दिनों कुछ पुराना किया है। मुझे पुराना बहुत ज्यादा पसंद है, पुराने लोग, पुरानी 
बातें और पुराने गाने, कितना पुराना है न हमारे बीच। सभी लोग बहुत थक चुके थे और तब हमने वो गुमटी वाली चाय पी। हम अब मेले से दूर फिर से पुष्कर की गलियों में थे। इस जगह को देखने का उत्साह भी बना ही हुआ था। कुछ वक्त में ये शहर अपना-सा लगने लगता है, ऐसा ही कुछ अब लगने लगा था। हम इस जगह की गलियों से, दुकानों से रूबरू हो गए थे और हमें इसकी भनक भी नहीं लगी थी।

दाल-बाटी-चूरमा


हम बहुत देर से घूम रहे थे और हमने कुछ नहीं खाया था। मैं नए शहर में नया खाना खाता हूं। यहां का सबसे फेमस व्यंजन है, दाल बाटी चूरमा। जिस जगह पर दाल बाटी चूरमा मिलता है, हम वहां से आगे निकल आए थे। मेरे कुछ साथी थकान की वजह से वापस नहीं जाना चाहते थे, लेकिन मैं जाना चाहता था। मै, अपने दो साथी ब्रम्हा मंदिर के आगे चला तो वहां का नजारा देखकर ही मन खुश हो गया।

लजीज दाल-बाटी-चूरमा।

हम इस जगह से मेले की ओर गए थे, तब हमें ये जगह नहीं दिखाई दी थी। शायद आप जिस चीज को पाना चाहते हो, वो ही आपको दिखाई देती है। यहां लाइन से दाल बाटी चूरमा के ढाबे खुले हुए थे। उनमें से एक में हम बैठ गए। इन सबका सबसे अच्छा नजारा था इनकी रसोई। सभी ढाबों में खाना औरतें बना रहीं थीं। ऐसा मैंने पहली बार देखा था कि औरतें ढाबों में खाना बना रही हैं। मुझे उस थाली के बाद पुष्कर खाने के लिए याद आएगा। वो थाली अब मेरे लिए पुष्कर की थाली में से एक थी। इतना अच्छा दाल बाटी चूरमा कभी नहीं खाया था। उसी स्वाद के साथ हम वापस गए और बिस्तर पर लेटते ही सो गए।

फोटो वाला पुष्कर


सुबह मैं अपने एक साथी के साथ एक बार फिर से पुष्कर मेले के बीच में था। मैं देखना चाहता था कि इन लोगों की सुबह कैसे होती है? मैं रोड पार के वहां पहुंचा, जहां ऊंट ही ऊंट थे। यहां देखा तो स्थानीय लोग कम और कैमरे लिए फोटोग्राफर नजर आ रहे थे। फोटोग्राफर ऊंटों की, यहां के लोगों की फोटो खींच रहे थे। फोटोग्राफर फोटो खींचते वक्त अपनी सारी सीमाएं लांघ रहे थे। वो लोगों की सुबह को कैमरे में तो कैद करना चाह रहे थे, जिससे लोगों को परेशानी भी हो रही थी।


फोटोग्राफर की वजह से ऊंट भी परेशान हो रहे थे। वो उनके आने से बार-बार उठ खड़ हो रहे थे। एक तस्वीर इवेंट बन जाने की थी तो एक दूसरी तस्वीर भी थी। सोशल मीडिया पर हम जो फोटो खींचते हैं तो ऐसा लगता है कि सच में ऐसा होता है। यहां आकर मुझे पता चला कि बहुत कुछ होता नहीं, बनाया जाता है। कुछ लोग पूरे स्थानीय पोज में इसलिए बैठे रहते हैं क्योंकि वो चाहते हैं कि फोटोग्राफर उनकी फोटों खींचे और उन्हें पैसे मिले। यहां के बच्चे भी जानते हैं कि फोटो के पैसे लेने है। उनकी जो फोटो खींचते हैं, वो उनसे उसके पैसे लेते हैं। फोटोग्राफर उनसे कई पोज देने को कहते हैं। इन सबके बाद आपके पास सोशली मीडिया पर हैशटेग पुष्कर मेले की तस्वीर आती है।

इस इवेंट को देखने के बाद हम पुष्कर सरोवर के ताजे पानी में नहाए और ब्रम्हा मंदिर गए। ब्रम्हा मंदिर को देखते ही कोलकाता का कालीघाट मंदिर याद आ गया। वैसी ही इसकी बनावट है और वैसे ही यहां भीड़ है। उस भीड़ में चलते हुए आप कुछ पल के लिए ब्रम्हाजी के दर्शन करते हैं और आगे बढ़ जाते हैं। वैसा ही हमने किया और वापस आ गए अपने कमरे पर। हमने सामान उठाया और इस शहर को अलविदा कहने के लिए निकल पड़े। जिन जगहों का आप बहुत गुणगान करते हो, वो शहर कभी-कभी आपको वैसा नही मिलता है। पुष्कर के लिए भी मैं यही कह सकता हूं। मैंने इसी भारीपन के साथ इस शहर को अलविदा कहा और निकल पड़ा एक नए सफर के लिए।

Sunday 1 December 2019

पुष्कर: अनुभवों से भर देती हैं ऐसी यात्राएं

लोगों की भीड़ में खुद को अकेला पाना हमेशा बुरा नहीं होता। किसी जगह को पैदल नापते समय मैं अक्सर अकेला ही होता हूं। लेकिन वो अकेलापन मुझे बहुत कुछ सिखाता है। खुद से मिलना, एक जगह को अच्छे से जानना, यही सब होता है मेरे अकेले होने में। अकेले घूमने का ये मतलब नहीं है कि किसी से बात न की जाए। मुझे उन लोगों पर बहुत आश्चर्य होता है जो बस यात्रा करते हैं। यात्रा करते समय आप इतने लोगों से मिलते हैं तो उनसे बात जरूर कीजिए। ये अनुभव ही आपके सफर को बेहद खूबसूरत बनाते हैं। मैं अभी घूम रहा हूं कभी पहाड़ों में तो कभी मैदानों में। इस बार मैं निकल पड़ा था राजस्थान की खूबसूरती देखने।


राजस्थान के नाम पर मैंने पहले सिर्फ जयपुर ही देखा था। वो मेरी पहली सोलो ट्रिप थी। उसके बाद मेरा राजस्थान जाना हो ही नहीं पाया। जब मुझे पुष्कर मेला के बारे में पता चला तो मैंने जाने का प्लान बना लिया। तारीख थी 8 नंवबर 2019, जाने से कुछ घंटे पहले मैंने अपने दोस्तों को इस सफर के बारे में बताया। ताज्जुब की बात थी कि वो भी जाने को तैयार हो गए। कुछ घंटे पहले जहां हम सिर्फ दो लोग थे, अब हम 7 लोग हो चुके थे। रात के 11 बजे हम दिल्ली के इफको चौक पर बस का इंतजार कर रहे थे। हम सरकारी बस का इंतजार कर रहे थे और हमारे सामने बार-बार एसी बस आ रही थी। हमने एसी बस का रेट पूछा तो उसने बहुत ज्यादा बताया लेकिन उसने एक दूसरी स्कीम बताई। उसने हमें फर्श पर बैठने को कहा और किराया भी बहुत कम था। फिर क्या था हम तैयार हो गए? और निकल पड़े एक नए सफर पर।

सफर है! चलता रहेगा


हमारा प्लान कुछ ऐसा था कि हम जयपुर जाएंगे और कुछ घंटे जयपुर में रहेंगे। उसके बाद पुष्कर निकलेंगे। मैं बस के फर्श पर बैठे-बैठे सोच रहा था कि ये सफर कैसा होगा? बहुत वक्त के बाद इतने लोगों के साथ कहीं घूमने जा रहा था। मुझे अकेले चलते रहना बहुत पसंद है, तब आपके पास वक्त ही वक्त होता है। मगर अब सोचता हूँ दोस्तों के साथ भी सफर होने चाहिए, जिन्हें बाद में याद किया जा सके। शायद ये मेरा वही सफर होने वाला था। कुछ घंटों के बाद हम जयपुर पहुंच गए थे। जयपुर मेरे लिए जाना-पहचाना शहर था। पुरानी जगह पर दोबारा आना बहुत सुकून वाला होता है। हर जगह से आपकी पुरानी यादें जुड़ जाती हैं। मैं जयपुर को देख तो आज में रहा था लेकिन जेहन में एक साल पुराना सफर चल रहा था।


सुबह के पांच बजे थे। जयपुर में सुबह-सुबह क्या किया जाए? ये सवाल मेरे पास पिछले साल थे, लेकिन अब मेरे पास जवाब था। सुबह खूबसूरत लगती है, उसकी लालिमा से। जब सूरज को निकलते देखते हैं तो वो पल सबसे सुकून वाला होता है। उसी लालिमा को देखने के लिए हमें एक पहाड़ी पर जाना था। जो नाहरगढ़ किले के रास्ते में पड़ती है। अगर हम गाड़ी करके जाते तो बहुत समय लगता। तब मैंने एक और रास्ता बताया, जो छोटा लेकिन कठिन था। जल महल के पास से होकर जाने वाली गलियों से हम शहर के बाहर आ गए। हम जंगल जैसे एक सुनसान इलाके में थे। अब हमें यहां से एक पहाड़ की सीधी चढ़ाई करनी थी। मुश्किल ये थी कि कोई भी इसके लिए तैयार नहीं था। किसी ने भी नहीं सोचा था कि राजस्थान में उन्हें पहाड़ चढ़ना होगा।

थकान भरी चढ़ान


थोड़ी देर में हम पहाड़ चढ़ने लगे। जैसे-जैसे हम चढ़ रहे थे हमें नजारा तो खूबसूरत लग रहा था लेकिन थकान भी हो रही थी। सुबह-सुबह हमें गर्मी का एहसास हो रहा था। खिसकते पत्थरों, कांटों और जंगलों को पार करके ऐसी जगह पहुंचे। जहां से सामने जल महल दिख रहा था। इस ऊंचाई से नीचे जल महल और दूर तक आसमान दिख रहा था। हम सब थके हुए थे लेकिन ये नजारा थकान को दूर करने के लिए काफी था। हम अरावली की एक चोटी पर खड़े होकर अरावली की श्रंखला को देख रहे थे। हम काफी देर तक उस लालिमा के लिए रूके लेकिन शायद बादलों ने उसे छुपा लिया था। फिर भी हमने यहां आकर काफी कुछ पा लिया था। जो देखा वो नजारे भी बेहद खूबसूरत थे।

सुबह का नजारा।

पहाड़ों में आवाज गूंजती है और फिर वापस लौटती है। ये फिल्मों में देखा था लेकिन यहां पर हम वही कर रहे थे। हम एक-दूसरे का नाम पुकार रहे थे, जो कुछ पलों में वापस आ रहा था। ऐसा लग रहा था कि पहाड़ हमारा कहा दुहरा रहा है। पहाड़ पर जितना चढ़ना कठिन है, उससे कहीं ज्यादा कठिन है उतरना। नीचे उतरने में हम पूरी तरह से खाली हो जाते हैं। हम जल्दी उतरना चाहते हैं लेकिन उतर नहीं पाते हैं। फिसलते-संभलते हुए हम नीचे उतरे और चल पड़े बस स्टैंड की ओर। हमारा जयपुर का सफर इतना ही था, अब हमें पुष्कर के लिए निकलना था। लेकिन उससे पहले हमें कुछ खाना भी था। जयपुर आओ और प्याज-कचैरी न खाओ। तो फिर थोड़ा मजा किरकिरा हो सकता है। जयपुर की फेमस दुकान रावत कचैरी वाले से हमने कचैरी ली और निकल पड़े अगले पड़ाव की ओर।

अगले पड़ाव की ओर


घूमते समय मुझे खुद से कहना नहीं पड़ता कि मैं खुश हूं। यात्राओं में आप सच में खुश होते हैं, हर कदम, हर जगह आपके चेहरे पर मुस्कान बनाए रखती है। उसी मुस्कान को लिए मैं पुष्कर की ओर जा रहा था। पुष्कर की बस में लग रहा था कि मैं राजस्थान में हूूं। कुछ बुजुर्ग दिखे, जिनकी लंबी-लंबी मूंछे और सिर पर पगड़ी थी। मुझे लगता है कि राजस्थान के गांवों में अब भी पुरानापन है, वही परिवेश और संस्कृति है। हालांकि सड़कें और सड़क किनारे के घर मुझे इस बात को झुठलाने के लिए भी कहते हैं। ये सब वैसा ही दिख रहा था जैसे हमारे तरफ की जगह हो। लोगों में राजस्थान में दिख रहा था, बस जगह में देखना बाकी था। जयपुर से पुष्कर की दूरी 150 किमी. है। पुष्कर से 15 किमी. पहले अजमेर आता है।

साथी हाथ बढ़ाना।

बस में बैठे-बैठे अजमेर में मुझे बहुत बड़ी झील दिखाई दी। वो सड़क किनारे काफी दूर तक गई थी। ये शहर भी देखने लायक है लेकिन अभी हमें सबसे पहले एक मेले को देखना था। अजमेर से पुष्कर जाते समय अचानक नजारे बदलने लगते हैं। सुंदर-सुंदर घाटियां, पहाड़ नजर आने लगते हैं। बस भी गोल-गोल घूमने लगती है। ये सब देखकर लगता है कि पुष्कर की खूबसूरती शुरू हो गई है। यात्रा एक क्षण से दूसरे क्षण तक पहुंचने की एक लंबी छलांग है। कभी-कभी वो क्षण आपको यात्रा के बीच में ही मिल जाता है और कभी-कभी अंत तक भी नहीं। इसलिए मैं ऐसी छलांगे लगाता रहता हूं उस क्षण को पाने के लिए।

आगे की यात्रा पढ़ें।

Sunday 13 October 2019

बारिश में रात के अंधेरे में ट्रेकिंग की है कभी?

यात्रा का पिछला भाग यहां पढ़ें। 

एक सफर में कई कहानियां घूमती रहती हैं। कभी वो कहानी दूसरों से सुनते हो तो कभी कुछ ऐसा हो जाता है। जो आपके लिए कहानी बन जाती है। यात्रा के बाद सफर ऐसी ही कहानियों से याद रहते हैं। जरूरी नहीं ये कहानी अच्छी ही हों, यात्राओं में काफी कुछ खराब भी होता है। इस सुंदर और खूबसूरत सफर की एक कहानी मेरी भी है। एक रात की कहानी, जिसे मैं याद नहीं करना चाहता। मेरे बस में होता तो मैं उस रात को किसी और तरीके से लिखना चाहता। अब जब भी आकाश को देखता हूं तो वो रात याद आ जाती है। लगता है कि फिर से बारिश होगी और मैं फिर से पहाड़ों से निकलने की कोशिश करुंगा।


फूलों की घाटी का ट्रेक पूरा करके हम चार बजे तक नीचे आ गये थे। हम अपने बिस्तर पर आराम कर रहे थे। अब हमें कहीं और नहीं जाना था। अब हमें लौटना था। लौटना, यात्राओं का वो सच है जिसे हर कोई अपनाता है। ऐसी खूबसूरत यात्राओं के बाद हम जहां लौटते हैं वो हमारा घर होता है। कई बार लौटने पर दुख होता है तो कई बार सुकून। तब एक एहसास की परत होती है जिसे कोई कैमरा, कोई शब्द बयां नहीं कर सकते। हम आपस में चर्चा कर रहे थे कि लौटना आज है या कल? मेरा मानना था कि आज ही लौटना चाहिए। उतरने में ज्यादा समय नहीं लगता है। आखिर में हमने रात को बेकार न करने के लिए उसी शाम को चलने का फैसला किया।

एक बेवकूफी भरा निर्णय


हम जब गुरूद्वारे से निकल रहे थे। वहां के स्थानीय लोगों ने हमें कहा, आज की रात यहीं गुजारो, सवेरे होते ही नीचे उतरना। उन्होंने कहा रात को जाना समझदारी भरा निर्णय नहीं है। रास्ते में जंगली जानवर का खतरा भी है। मेरे साथी ने मुझसे पूछा क्या करें? मैं तो अब भी अपनी बात पर टिका हुआ था। शाम के 6 बजे हम घांघरिया से पुलना के लिए नीचे चलने लगे। हम जल्दी-जल्दी चल रहे थे, हमने एक किलोमीटर का रास्ता कुछ ही मिनटों में तय कर लिया था। रास्ते में हमें थके हुए लोग मिल रहे थे। सब हमसे वही सवाल पूछ रहे थे, जो कुछ दिन पहले हम पूछ रहे थे। ‘अभी घांघरिया कितना दूर है।’


रास्ता ढलान वाला था, इसलिए हम रास्ते के फ्लो में धड़कते जा रहे थे। मैं चाहता था कि 5 किलोमीटर का ये रास्ता अंधेरा होना से पहले तय कर लूं। इस रास्ते पर पहले हम चल रहे थे, बाद में भाग रहे थे। हमारे तेज चलने से हमारा एक साथी पीछे रह गया था। हमने एक बार रूककर उसका इंतजार किया। कुछ मिनटों बाद हम तीनों रास्तों पर बढ़ रहे थे लेकिन कुछ ही मिनटों के बाद हम फिर से अलग हो गए। हमें डर अंधेरे का नहीं था, डर था तो बस जंगली जानवरों का। रास्ते में हमें कुछ दुकानें और लोग मिलें। उन्होंने बताया कि रास्ते में जंगली जानवरों का कोई खतरा नहीं है। इस रास्ते में अभी तक ऐसा कुछ नहीं हुआ है।

घुप्प अंधेरा और बारिश


तेज गति से चलते-चलते एक घंटा हो गया था, अंधेरा भी होने वाला था। थोड़े ही आगे चलने पर नदी के बहने की आवाज सुनाई दी। नदी की कलकल आवाज सुनकर लग रहा था कि भ्युंडार गांव आने वाला है। थोड़ी देर बाद हम जंगल से बाहर निकलकर खुले मैदान में आ गए थे। यहां पहुंचकर मुझे बहुत खुशी हो रही थी। ये खुशी वैसी ही थी, जैसी प्यासे को पानी मिलने पर होती है। ऐसा लगा कि कुछ पा लिया हो। थोड़ी देर बाद हम उसी गांव की पहली दुकान पर बैठे थे। हम अपने तीसरे साथी का इंतजार कर रहे थे। थोड़ी देर बाद घाटी में अंधेरा उतरा आया। आज हमारी किस्मत अच्छी नहीं थी इसलिए रात भी चांदनी नहीं थी। दूर-दूर तक घुप्प अंधेरा और सन्नाटा पसरा हुआ था। हमें आगे बढ़ने से ज्यादा, अपने तीसरे साथी की फिक्र हो रही थी।


थोड़ी देर में बारिश होने लगी, हमें लगा कि थोड़ी देर में रूक जाएगी। लेकिन बारिश रूकने का नाम ही नहीं ले रही थी। हम अब तक खुशनसीब थे क्योंकि हमने लगातार बारिश का सामना कहीं नहीं किया था। अब हमें उसी बारिश का सामना करना था। कुछ देर बाद हमारा तीसरा साथी भी आ गया, जो काफी थका हुआ था। वो जब तक आराम कर रहा था। हम बारिश से बचने के इंतजाम में लगे हुए थे। पोंचा और रेनकोट अब हमारे काम आने वाला था। अब आगे का रास्ता हमें अंधेरे और बारिश के बीच तय करना था। हम सबका इस तरह का पहला अनुभव था।

बारिश में ट्रेकिंग


मुझे मन ही मन लग रहा था कि घांघरिया में उन लोगों की बात मान लेनी चाहिए थी। हम मोबाइल की टाॅर्च से अंधेरे में ही आगे बढ़ गए। चलने में अब परेशानी हो रही थी। रास्ता पूरा गीला हो चुका था और अंधेरे की वजह से हम धीरे-धीरे चल रहे थे। अब हम एक-दूसरे से दूर नहीं भाग सकते थे। हम एक साथ, आराम-आराम से आगे बढ़ रहे थे। अब हमें सिर्फ उतरना नहीं था, रास्ता चढ़ाई वाला भी था। डर इस बात का भी था कि पानी की वजह से पत्थर पर पैर फिसल भी सकता है। अंधेर में सब कुछ एक जैसा लग रहा था, खौफनाक। हमें कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। हम सिर्फ सुन पा रहे थे। हम सुनाई दे रही थी नदी की आवाज और बारिश की बूंदों का गिरना। 


मोबाइल की लाइट में हम बढ़े जा रहे थे। बारिश तभी अच्छी लगती है जब आप उसे देख रहे होते हैं। तब तो और अच्छी लगती है जब पहाड़ों में किसी होटल की बालकनी से देखते हैं। लेकिन भारी बारिश में चलना बहुत खतरनाक होता है। उसी भयानक और खतरनाक रास्ते में हम चले जा रहे थे। बारिश के साथ-साथ थकावट भी हम पर हावी थी, इस वजह से हमें बार-बार रूकना भी पड़ रहा था। हमें रास्ते में पानी से बचने की एक जगह मिली। वहां पहुंचे तो 6-7 कुत्ते पहले से ही डेरा डाले हुए थे। कुछ देर वहां रूकने के बाद हम आगे बढ़ गए। पानी रेनकोट से अंदर जाने लगा था। ये बारिश हमें बीमार भी कर सकती थी लेकिन अभी तो हमें यहां से निकलना था।

सिरहन पैदा करने वाला नजारा 


चलते-चलते ऐसी जगह पहुंचे, जहां रास्ता में झरना बन गया था। हमने एक-दूसरे को पकड़कर वो रास्ता तय किया। थोड़ा आगे बढ़े तो जो देखा उसके बाद शरीर में सिहरन-सी दौड़ गई। सामने दो बड़ी-बड़ी चट्टानें गिरी हुई थीं, रास्ता बंद था। पानी की वजह से कुछ देर पहले ही ये पहाड़ यहां गिरा होगा। हमने जल्दी-से वो पत्थर पार किया और तेज कदमों से आगे बढ़ने लगे। डर क्या होता है? वो बस मेरी दिल की धड़कन बता रही थीं। ऐसा कुछ देखने के बाद सफर के खुशनुमा और खूबसूरत वाले नजारे गायब हो जाते हैं। हम बस उस खतरे से बाहर निकलना चाहते थे। अगर हम जल्दी आ गए होते तो हो सकता था कि इन पत्थरों को गिरते हुए देख पाते।


हम तेज कदमों से तो चल रहे थे लेकिन नजरें पहाड़ पर थी। अब हमें हर पल पहाड़ और खतरनाक लग रहा था। डर हम सबको लग रहा था और हम जाहिर भी कर रहे थे। रात के पहर में हमारा सुरक्षित निकलना बहुत जरूरी था। क्योंकि दूूूर-दूर तक हमारी मदद करने वाला कोई नहीं था। हमें पूरे रास्ते में कोई नहीं मिला था। हम तीन ही थे जो इस खतरनाक और खौफनाक रात में चल रहे थे। जब ऐसा कुछ होता है तो वैसा ही कुछ दिमाग में भी चलने लगता है। मुझे टी.वी. पर चलने वाली खबरें याद आने लगी थीं। ये सब होने के बाद हौंसला ही होता है जो आपको जूझने के लिए तैयार रखता है। यही वो समय होता है जब आपको सबसे ज्यादा हिम्मत दिखानी होती है।

पहली बार मैंने आंखों से प्रकृति का ऐसा रूप देखा था। अब लग रहा था कि सफर कुछ ज्यादा ही रोमांचक हो गया था।लग रहा था कि ये सफर कुछ ज्यादा ही लंबा हो गया है। पहली बार मैं इस सफर को खत्म करने के लिए बेसब्र था। थोड़ी देर बाद हम पुलना की सड़कों पर चल रहे थे। हम सड़क पर बैचेन होकर होटल और होमस्टे खोज रहे थे। हमें कुछ भी नहीं मिल रहा था। तभी हमें एक जगह होमस्टे का बोर्ड लगा हुआ दिखाई दिया। उसके नीचे नंबर भी लिखा हुआ था। उसे देखकर एक आशा जगी। मैंने नंबर लगा दिया, फिर याद आया यहां तो नेटवर्क नहीं है।

रोमांच के आखिरी पल


अगर पुलना में नहीं रूके तो फिर 4 किलोमीटर चलकर गोबिंदघाट जाना पड़ता। ऐसा करने की हममें से किसी की भी हिम्मत नहीं थी। जहां ये बोर्ड था, उसी के बगल से सीढ़ियां गईं हुई थीं। हम सीढ़िया उतरकर घर के मालिक को बुलाने लगे। एक शख्स बाहर आया, उसने बताया कि मेरा ही होमस्टे है। तब लगा कि अब कुछ आराम मिलेगा। हमें हमारा कमरा दे दिया गया। हमारे सारे कपड़े गीले हो चुके थे। हमने कपड़ों को कमरे में जगह-जगह टांग दिया। लाइट न होने की वजह से मोमबत्ती की रोशनी में बिस्तर पर जा गिरे। ये अगर और कोई दिन होता तो इस रात की तारीफ की जा सकती थी लेकिन अभी तो गिरी हुई चट्टान नजरों के सामने आ रही थी। थकान इतनी थी कि हमने ये भी नहीं पूछा कि कमरे का पैसा कितना होगा? हमें तो कहीं ठहरना था और हम इस घुप्प अंधेरे में बिस्तर पर पड़ गए।


ये पूरी यात्रा कई मायनों में सीखने के लिए बहुत अच्छी रही। इस यात्रा से मैंने कई अनुभव जुटाए। यात्रा की कई अच्छी और बुुरी बात जानी। ये भी कि अनहोनी को टालने से हमेशा बचो। सफर में जोश से ज्यादा, होश का होना बहुत जरूरी है। आपका एक बुरा निर्णय, कई लोगों को मुश्किल में डाल सकता है। इन मुश्किलों के बाद भी हम बचकर सही सलामत आ गए थे। अब मैं सोचता हूं कि उस रात जो हुआ। उसने मेरी इस यात्रा को और रोचक और यादगार बना दिया। जब मैं वापस लौट रहा था तो पिछले कुछ दिनों में जो-जो पाया था। उसकी छवि दिमाग में चल रही थीं। इन तमाम मुश्किलों के बाद मैं फिर से ऐसी ही किसी यात्रा पर जाने के लिए तैयार हूं।

Sunday 6 October 2019

फूलों की घाटीः इस खूबसूरती के आगे सब कुछ फीका

यात्रा का पिछला भाग यहां पढ़ें।

कठिन है, बहुत ही कठिन है किसी एक जगह पर टिके रहना। अगर आसान है तो भीड़ में खुद को अकेला पाना, पर अकेले में अकेले न होना कठिन है। ये सब मुमकिन है तो बस यात्राओं में। यात्राएं होती हैं खुद को बह जाने के लिए, खुद को आजाद करने के लिए। किसी सफर पर खुद को ले जाने से पहले अपने मन को ले जाना पड़ता है। उसके बाद हर सफर खूबसूरत लगने लगता है। यात्राएं कितनी बेहतरीन चीज है न। यहां अकेले होने के बावजूद अकेलापन महसूस नहीं होता है। एक खूबसूरत नजारे को घंटों देखता रहना भी कम लगता है और अगर ऐसा हो जब चारों तरफ ही ऐसे खूबसूरत नजारें हों तब। मैं ऐसे ही खूबसूरत नजारों की घाटी को देखने वाला था, एकटक।

फूलों की घाटी।

हेमकुंड साहिब के ट्रेक ने मुझे इतना थका दिया था कि मेरा कहीं और जाने का मन ही नहीं हो रहा था। सुबह हो चुकी थी और मेरी नींद भी खुल चुकी थी। मैं और मेरे दोनों साथी अपना सामान पैक कर रहे थे। उनके और मेरे बैग पैक करने में अंतर था। वो कहीं जाने के लिए तैयार थे और मैं लौटने की तैयारी कर रहा था। मेरे मन में बहुत कुछ चल रहा था। एक मन कह रहा था कि मुझे इनके साथ ही जाना चाहिए। दूसरी तरफ ये भी लग रहा था कि ये चढ़ाई कठिन हुई तो उतरना मुश्किल होगा। जब आप मन से थके हुए हों और घबरा रहे हों। तब आपके पास एक दोस्त होना चाहिए जो आपका हौंसला बढ़ा सके। खुशकिस्मती से मेरे पास ऐसा ही दोस्त था। उसने मुझे हौंसला दिया कि हम इस जगह के लिए ही तो आए थे, इसको पूरा किए बिना वापस नहीं जा सकते। उसकी बातें सुनकर मैंने भी हां कर दी। इस बार हमारा सफर था, फूलों की घाटी।

चलें एक और सफर पर 


सुबह कल ही तरह खूबसूरत थी। यहां घूमने आने वाले लोग हमारे साथ चल रहे थे। रास्ते के किनारे बहुत से लोग बैठे भी थे और खिलखिला रहे थे। ये स्थानीय लोग थे, इनकी हंसी देखकर अंदर से तो अच्छा लग रहा था। लेकिन दिमाग भारी होने की वजह से चेहरे पर हंसी नहीं आ पा रही थी। मैंने अपने दोस्त से तो चढ़ाई के लिए तो हां कर दी थी। लेकिन मन ही मन सोच लिया था कि चढ़ाई कठिन रही थी बीच से ही वापिस लौट आऊंगा। मैंने फिर से उसी झरने का पार किया जो कल बेहद खूबसूरत लग रहा था। पानी की कलकल अब भी वही थी लेकिन हर रोज देखने पर शायद हमारा नजरिया बदल जाता है। करीब आधा किलोमीटर चलने के बाद वो जगह आई। जहां से हमें फूलो की घाटी के लिए जाना था। मैं उसी रास्ते पर चलने लगा। ये रास्ता संकरा जरूर था लेकिन आसान था। ऐसे ही रास्ते पर कुछ देर चलने के बाद एक टिकट काउंटर आया। यहां कुछ बोर्ड लगे हुए थे। जिसमें फूलों की घाटी का नक्शा और उसकी जानकारी दी हुई थी।

यहीं से शुरु होता है सफर।

यहां एक परमिट बनता है फूलों की घाटी में प्रवेश के लिए। ये टिकट काउंटर सुबह 7 बजे से 12 बजे तक खुलता है। उसके बाद फूलों की घाटी में जाना मना है। भारतीयों के लिए ये टिकट 150 रुपए का है और विदेशी नागरिकों के लिए 650 रुपए का। हमने वो परमिट लिया और फूलों की घाटी की ओर चल पड़े। सही मायने में फूलों की घाटी का सफर अब शुरू हुआ था। हम जंगल के बीचों बीच चल रहे थे और आसपास के ऊंचे-ऊंचे पेड़ों को देखते जा रहे थे। अचानक हम अंधेरे से निकलकर उजाले में आ गए। यहां एक नदी बह रही थी, जो इस समय एक धारा बनकर निकल रही थी। पहाड़ों में पानी ऐसे ही बहता है, अलग-अलग जगह पर। यहां पानी का स्रोत सिर्फ नदी नहीं होते, जंगल और जमीन भी अपना काम करते-रहते हैं।

फूलों की घाटी जाने का परमिट।


जंगल के बीच से 


कई पेड़ों पर छोटे-छोटे बोर्ड लगे हुए थे, जिनमें उनकी प्रजाति का नाम लिखा हुआ था। ऐसी ही एक पत्थर पर लिखा हुआ था, ब्लू पोपी स्पाॅट। हम सोच रहे थे कि ब्लू पोपी कोई प्यारा जानवर है। बाद में पता चला कि ब्लू पोपी, एक खूबसूरत फूल होता है। हालांकि उस जगह पर न फूल था और न ही कोई जानवर। हम फिर से जंगल से खुले आसमान के नीचे आ गए थे। ये नजारे बदलने का काम कर रही थी एक नदी। इस नदी का नाम पुष्पवती है। पहले इस घाटी को इसी नाम से जाना जाता था, बाद में इसे फूलों की घाटी कहने लगे। इस नाम बदलने की एक कहानी है। 1931 में ब्रिटेन के पर्वतारोही फ्रैंक एस स्मिथ अपने दोस्त आर एल होल्डसवर्थ के साथ कामेट पर्वत के अभियान से लौट रहे थे। तब उनको रास्ते में ये घाटी मिली, इसकी खूबसूरती ने उनको दंग कर दिया। 1937 में वे वापस इसी घाटी को देखने आए और इस पर एक किताब लिखी, फूलों की घाटी। तब से ये जगह फूलों की घाटी कहलाने लगी।

पहाड़ों के बीच से बहती नदी।

अभी तक रास्ता बहुत आसान लग रहा था लेकिन पुल को पार करने के बाद चढ़ाई शुरू हो गई। हमें इस चढ़ाई में मुश्किल नहीं हो रही थी क्योंकि हेमकुंड की कठिन चढ़ाई ने बहुत कुछ सिखा दिया था। ये नदी का जाबर दृश्य बेहद ही खूबसूरत है। दो ऊंची चटटानों के बीच से बहती एक नदी। इससे पहले ऐसे नजारे सिर्फ फिल्मों में देखे थे। तब मन ही मन कहता था, कभी जाऊँगा इन जगहों पर। अब मन की बात को आंखों से देख रहा था। मैं बहुत थका हुआ था लेकिन ऐसे नजारे सारी थकान भुला देते हैं। थकान अगर हार है तो ये नदी, ये पहाड़ जीतते रहने की एक आशा है।

खूबसरत नजारे


एक जगह से चलकर, दूसरी जगह तक पहुंचने में कितना समय होता है। इस समय में आप अपने साथ होते हैं, खुद से बात कर रहे होते हैं, खुद के बारे में सोच रहे होते हैं। मैं तब हरे-भरे मैदान के बारे में सोच रहा था, फूलों की घाटी के बारे में सोच रहा था और साथ चलते लोगों के बारे में भी। ऐसे ही चलते-चलते हम रूक भी रहे थे, कभी थकान की वजह से तो कभी खूबसूरत नजारों की वजह से। रास्ते में ऐसी ही एक खूबसूरत जगह आई, जिसको हम देखते ही रह गए। दूर तलक हरियाली के मैदान थे, उसके साथ चारों तरफ पहाड़ और उनमें तैरते बादल। ये सब देखने में जितना अच्छा लगता है उससे कहीं ज्यादा खुशी उस पल को याद करने से होती है। सफर यही तो है, चलना और रूकना।

कभी चढ़ना तो कभी उतरना, यही तो सफर है।

वैली ऑफ फ्लावर के लिए हम अकेले नहीं जा रहे थे। इस संकरे रास्ते पर बहुत सारे लोग हमारे साथ थे। उन सबके बीच मेरी नजर एक बच्चे पर चली गई। जिस उम्र में हम स्कूल भी साइकिल से जाते थे वो पैदल फूलों की घाटी जा रहा था। वो चढ़ तो रहा था लेकिन थकान उस पर हावी थी। वो बार-बार अपनी मां से रूकने को कह रहा था और उसकी मां उसे चलने पर जोर दे रही थीं। कुछ आगे बढ़े तो एक जगह आई जहां लिखा था टिपरा ग्लेशियर को देखें। लेकिन इस समय कोई टिपरा ग्लेशियर नहीं था। थोड़ा आगे बढ़े तो एक गुफा मिली, बामण घौड़ गुफा। बारिश के समय इसके नीचे लोग रूकते और इंतजार करते हैं, बारिश के कम होने का। ऐसे ही रास्तों को पार करने के बाद हम फूलों की घाटी में प्रवेश कर गए।

फूलों से भरी एक दुनिया


फूलों की घाटी में जैसे ही घुसे, चारों तरफ कुहरा छाने लगा। ऐसे लगा जैसे मौसम की मेरे साथ कोई दुश्मनी हो। पहले हेमकुंड साहिब पहुंचा तो कुहरा था, अब फूलों की घाटी में भी वही हाल था। कहते हैं जब आसमां साफ हो न हो, वो अपना ही लगता है। कुछ न कुछ वो हमेशा देता ही रहता है। इस धुंध में भी एक खूबसूरत खुशबू बह रही थी। उसी खुशबू को देखते हुए मैं आगे बढ़ रहा था। मेरे चारों तरफ अब सिर्फ फूल ही फूल थे। ऐसे फूल जो मैंने कभी देखे नहीं थे। मैं ऐसी ही खूबसूरती को देखते हुए बढ़ता रहा और भोजपत्र के पेड़ के नीचे बैठ गया। कुछ देर बाद वहां एक टूरिस्ट गाइड आया। उसने बताया कि आगे इसी नदी का छोर है, वहां तक जरूर जाना चाहिए। मैं फिर से चलने के लिए तैयार हो गया।

फूलों की भी एक दुनिया होती है।

काॅलेज के समय से मैं फूलों की घाटी का नाम सुनता आ रहा था। तब लगता कि कहीं हिमालय के बीच होगी और वहां जाना नामुमकिन होगा। अब मैं उसी फूलों की घाटी को निहारते हुए, रूकते हुए, चल रहा था। आगे बढ़ा तो फिर से रास्ते में पानी मिला। इस बार कोई पुल नहीं था, पत्थरों पर कदम रखकर आगे बढ़ना था। पानी को पार करने के बाद मैं फिर से फूलों के बीच था। चलते-चलते एक ऐसी जगह आई, जहां से दो रास्ते गए थे। वहीं एक बोर्ड लगा हुआ था, जिसमें टिपरा की ओर और लेगी की ओर रास्ता था। मैं सीधे रास्ते पर चलने लगा जो टिपरा की ओर जा रहा था। इतने दूर चलने पर अब कम ही लोग रास्ते में दिख रहे थे। कहते हैं न कठिन रास्ते पर कम ही लोग जाते है। जितना आप आगे जाते हैं सुकून उतना ज्यादा पाते हैं। फूलों की घाटी में चलते-चलते ऐसी जगह आ गया जहां नदी गिर नहीं बह रही थी। हम उसी नदी के पास जाकर बैठ गए।

नदी के छेार पर


यहां मैं घंटों बैठा रह सकता था और कुछ हुआ भी वैसा ही। नदी के किनारे पत्थरों की टेक पर मैं कभी बैठा पहाड़ों को निहार रहा था तो कभी छलांग लगा रहा था। घंटों यहां गुजारने के बाद हम वापस उसी जगह आ गए। जहां से टिपरा के लिए गए थे। अब हम लेगी की ओर जा रहे थे। मुझे नहीं पता था इस रास्ते पर क्या है? जब वो खूबसूरत रास्ता खत्म हुआ तो वहां एक समाधि दिखी। उसके सामने ही कुछ कुर्सियां बनी हुईं थी। ये समाधि है, जाॅन मार्गरेट लेग। लेग लंदन में फूलों पर अध्ययन कर रही थीं। 1939 में वे फूलों की घाटी में फूलों पर स्टडी कर रही थीं। फूलों की इकट्ठा करते समय वे गिर गईं और उनकी मौत हो गई। उनकी खोज में उनकी बहन यहां आई और यही उनकी समाधि स्थल बनाई।

           जाॅन मार्गरेट लेग की समाधि

यहां जो भी आता है, उनको श्रद्धांजलि जरूर देता है, हमने भी वही किया। कहते हैं कि मरने के बाद स्वर्ग या नरक कुछ मिलता है। लेकिन लेग बड़ी खुशकिस्मत हैं वो हमेशा जन्नत जैसी जगह में रहती है। पहाड़ों को और फूलों के बीच खुद को समेट लिया है। हमें यहीं एक अमेरिकी मिला। जिसने बताया कि वो आज ही पुलना से चलकर घांघरिया आया और अब फूलों की घाटी। हमने ये सब दो दिन में किया और इसने एक दिन में। खूबसूरती को जितना निहारो उतना कम है, हमारे लिए भी कम ही था। हम इस खुबसूरती को लेकर लौट चले। फूलों की घाटी से नीचे उतरना कठिन नहीं है। हम शाम से पहले ही घांघरिया पहुंच गए।

ऐसी जगह पर रूकना तो बनता है। 

घांघरिया लौटकर एक अजीब-सा सुख था। लग रहा था जो पाने आये थे, जो करने आया था, वो कर लिया है। जीवन की उस यात्रा को पा लिया था, जहां ट्रेफिक का कोई शोर नहीं था। यहां नदियां थीं, खूबसूरत झरने, जंगल और ग्लेशियर। ऐसा लग रहा था कि इस सफर से पहले मैं एक गुफा में था। यहां आकर मैं उस गुफा से बाहर निकल आया हूं। लेकिन सफर अभी खत्म नहीं हुआ था, सफर कभी खत्म होना भी नहीं था। अभी मुझे एक हासिल और कठिन अंधेरी यात्रा भी करनी थी।

Monday 30 September 2019

हेमकुंड साहिब ट्रेक: मुश्किलें ही बनाती हैं सफर को रोमांचक

यात्रा का पिछला भाग यहां पढ़ें।

मैं अपने सफर को वैसे ही लिखने की कोशिश करता हूं, जैसा मैं उस समय सोच रहा था। पर हमेशा ऐसा हो नहीं पाता है। हर बार लगता है कि कुछ रह-सा गया है। मैं उस झिलमिल रात को सुनहरे शब्दों में दर्ज करना चाहता हूं। चलते-चलते जो चिड़चिड़ापन आया उसको लिखना चाहता हूं। शायद ऐसा करने पर मुझे अपना सफर अच्छे-से याद रहता है। ताकि जब भी मैं यादों के उस पन्ने से गुजरुं, तो मुड़-मुड़के अपने सफर को याद कर सकूं। घूमते वक्त मैं कुछ अलग हो जाता हूं, शायद कुछ नया पाने की तलाश में। एक पड़ाव पर मैं खड़ा था और आगे के सफर को पा लेना चाहता था। ये चुनौती भी है और इस सफर की खूबसूरती भी।


घांघरिया में ताजगी भरी सुबह


सुबह-सुबह नींद खुली तो सिर थोड़ा भारी लग रहा था। सर्दी और जुकाम ने पकड़ लिया था, लेकिन सफर का उत्साह तो अब शुरू हुआ था। घांघरिया में ये हमारी पहली सुबह थी। रात के अंधेरे में घांघरिया को हम सही से देख नहीं पाये थे। घांघरिया, हेमकुंड साहिब और फूलों की घाटी के रास्ते में पड़ने वाला एक छोटा-सा गांव है। घांघरिया 3049 मीटर की ऊंचाई पर उत्तरी हिमालय पर बसा है। देखने में ये कहीं-से गांव नहीं लगता। यहां चारों तरफ आपको होटल और रेस्टोरेंट ही मिलेंगे। कोई घांघरिया से आए या हेमकुंड साहिब से। उसका पड़ाव घांघरिया में जरूर रहता है। सर्दियों के समय ये रास्ता बर्फ से भर जाता है और यहां के लोग नीचे गोविंदघाट चले जाते हैं। इसलिए कुछ ही महीने होते हैं जब यहां ऐसा खुशनुमा माहौल होता है। सारी गलियां गुलजार रहती हैं, हर जगह चहल-पहल रहती है।

घांघिरया

हम घांघरिया के ऐसे ही किसी होटल में सुबह की चाय की लुत्फ उठा रहे थे। आसपास पहाड़ ही पहाड़ नजर आ रहे थे। घांघरिया में नेटवर्क आते हैं लेकिन तीन दिन से हमारी तरह नेटवर्क भी अपनी दुनिया से कट चुके थे। घांघरिया को देखकर मुझे एवरेस्ट मूवी याद आ गई। बिल्कुल वैसा ही नजारा मुझे यहां नजर आ रहा था। यहां के स्थानीय लोग अपने घोड़े और बास्केट लेकर लाइन से खड़े थे। कुछ लोग चाय का मजा ले रहे थे तो कुछ अपनी बौनी के लिए टूरिस्टों से मोल-भाव कर रहे थे। आगे के सफर के लिए हमारे पास दो खूबसूरत जगहें थी, हेमकुंड साहिब और फूलों की घाटी। घांघरिया से फूलों की घाटी करीब 4 किलोमीटर दूर थी और हेमकुंड साहिब की दूर 6 किलोमीटर। काफी विचार के बाद हम तीनों पहले सफर के लिए हेमकुंड साहिब के लिए राजी हुए। अब हमारी मंजिल थी हेमकुंड साहिब।

हेमकुंड साहिब के लिए कूच


घांघरिया से निकले ही थे, एक खूबसूरत नजारे ने हमारा स्वागत किया। दो छायादार पहाड़ों के बीच से एक रोशनी-सा चमकता पहाड़ नजर आ रहा था। उस पहाड़ से भी ज्यादा खूबसूरत लग रहा था खुला आसमान। ऐसा लग रहा था कि आसमान भी खुशी से चहक रहा हो। थोड़ा ही आगे बढ़े तो एक और खूबसूरत नजारा हमारा इंतजार कर रहा था। चारों तरफ पहाड़ और उसके बीच से गिरता झरना। अभी तक मैं पहाड़ों के बीच झरने को बस दूर से देख रहा थे। ये नजारा मेरे खूबसूरत पलों में कैद हो गया।

खूबसूरत नजारा। फोटो साभार: मृत्युंजय पांडेय।

हम इस ट्रेक में सिर्फ चढ़ रहे थे, उतरने का तो कहीं नाम ही नहीं था। जिस वजह से हम बहुत जल्दी थक रहे थे और बार-बार रूक रहे थे। हमारे सामने दो परेशानी थी। पहली परेशानी, हमें 12 बजे के पहले पहुंचना था। अगर देरी हुई तो गुरूद्वारे की अरदास में शामिल नहीं हो पाएंगे। दूसरी परेशानी थी बैग। हम बैग को घांघरिया में रख सकते थे लेकिन जोश-जोश में बैग को ले आया था। उसका खामियाजा अब थकावट के रूप में झेल रहा था। हम कुछ दूरी का टारगेट डिसाइड कर रहे थे और वहां तक पहुंचने की कोशिश कर रहे थे। कोशिश इसलिए क्योंकि वहां भी पहुंचना मुश्किल हो रहा था। जब मैं थक जाता तो मेरा साथी बैग ढोता और जब वो थक जाता तो मैं बैग उठाता। इस तरह हम धीरे-धीरे बढ़ रहे थे।

चलते हुए हम कुछ नहीं देख पा रहे थे उस समय तो सिर्फ चलना ही नाकाफी हो रहा था। जब कहीं रूकते तो सामने के खूबसूरत नजारों में खो जाते। इतनी ऊंचाई से हम घांघरिया को देखते और बौने नजर आते लोगों को। ऐसी ही एक जगह पर हम खड़े थे तभी चारों ओर कुहरा छा आ गया। अब हमें कुछ नहीं दिखाई दे रहा था सिवाय इस कुहरे के। उसी कुहरे में हम लोग आगे बढ़ गये। हेमकुंड साहिब के ट्रेक पर हजारों लोग हमारे साथ जा रहे थे। कुछ लोग तो ट्रेवल कंपनियों के साथ इस ट्रेक को कर रहे थे। एक ग्रुप में कम से कम 20 लोग थे और ऐसे ही 4-5 ग्रुप थे। सभी ग्रुप में दो-दो गाइड होते हैं जो उनके साथ बराबर चलते रहते हैं। ऐसे ही चलते-चलते हमें एक 60 साल का नौजवान शख्स मिल गया।

वो हमारे साथ ही कदम मिलाकर चल रहे थे। उन्होंने एक घाटी की ओर इशारा करके बताया कि पहले ये चढ़ाई वाला रास्ता नहीं था। वो रास्ता बहुत सीधा और आसान था। बाद में बाढ़ और आपदा की वजह से वो रास्ता बंद हो गया। फिर इस रास्ते को बनाया। जो चढ़ाई के लिए बहुत कठिन माना जाता है। कुछ देर बाद मौसम ने फिर से करवट ली। कुहरे के बाद अब बारिश शुरू हो गई थी। हमारे पास पोंचा एक था और लोग दो। तब तय हुआ जो बैग टांगेगा, वही पोंचा का हकदार होगा। मैं बिना पोंचा और बैग के चलने लगा और मेरा साथी अब बैग के साथ बढ़ रहा था। हम रास्ते में बातें करते जा रहे थे और आकलन कर रहे थे कि 12 बजे से पहले पहुंच पाएंगे या नहीं।

शानदार झरना।

हम लंबी चढ़ाई से बचने के लिए बहुत सारे शाॅर्टकट ले रहे थे। काफी पेड़ों के बीच से तो कभी पहाड़ों के बीच से। कुछ देर बाद बारिश रूक गई। जिसका मतलब था हम बैग की कमान मेरे कंधों पर आने वाली थी। बारिश के बाद फिर से मौसम साफ हो गया था और हम फिर से खूबसूरत नजारों के बीच आगे बढ़े जा रहे थे। कुछ देर बाद एक दुकान आई, जिस पर हम कुछ ज्यादा देर रूकें। मैं बैग की वजह से काफी परेशान था। तब मैंने अपनी समस्या दुकान वाले को बताई, उसने बैग को अपनी दुकान पर रखने को कहा। बच्चे को खिलौने मिलने पर जो खुशी होती है, वही खुशी मुझे इस दुकानदार की बात सुनकर हो रही थी। मैंने उसे धन्यवाद कहा और खुशी-खुशी रूके हुए सफर को रफ्तार दी। कुछ देर बाद दुकानों का मुहल्ला मिला। यहां करीब 20-25 दुकानें एक साथ थी। हर जगह एक ही जैसी चीजें बिक रही थीं लेकिन सब की सब महंगी। सोचिए 10 रुपए वाली किटकैट 30 रुपए में मिल रही हो। तो फिर सस्ता ही क्या मिलेगा?

खूबसूरत ग्लेशियर


मेरे कंधे पर अब कोई भार नहीं था लेकिन थकान अब भी हो रही था। जितना मैं बैग के साथ चल रहा था, अब भी उतना ही चल रहा था। ये ट्रेक काफी थकान वाला हो रहा था। कहीं-कहीं खूबसूरत नजारा दिखता तो लगता कि अब यहीं रूक जाता हूं और इस दृश्य को निहारता हूं। उसके बाद ख्याल आता है इतना चढ़ने के बाद हार नहीं मान सकता। थके शरीर और तेज मन से आगे बढ़ने की कोशिश करता हूं। उसके बाद सफर का सबसे खूबसूरत दृश्य दिखाई दिया। मेरे सामने एक लंबी सफेद चादर एक पहाड़ पर पसरी हुई थी। ये एक ग्लेशियर है जिसे यहां के लोग अटकुलुन ग्लेशियर बोलते हैं।

ये है वो ग्लेशियर।

थकान के बावजूद इस ग्लेशियर को देखने के बाद चेहरे पर मुस्कुराहट तैर गई। ये ग्लेशियर बहुत दूर तक फैला था और फैली थी दूर तक उसकी खूबसूरती। इसे देख मानो लग रहा था कि किसी ने सफेद मखमली चादर सूखने डाली हो। अब तक मैंने बचपन से ग्लेशियर के बारे में सुना था लेकिन आज वो पहाड़ मेरे एकदम सामने था। इसे देखना मेरे लिए वैसा ही था जैसा पहली बार पहाड़ को देखना। तब भी मैं उस खूबसूरती को बयां नहीं कर पा रहा था और इसे देखकर भी 
ऐसा ही कुछ महसूस कर रहा था। आप बस उस दृश्य के बारे में सोचिए नीचे पहाड़, ऊपर पहाड़, आसपास भी पहाड़ और उसी एक पहाड़ पर दूर तलक बस बर्फ ही बर्फ। कितना खूबसूरत होता है न हरे पहाड़ और बर्फ वाले पहाड़ का मिला जुला नजारा।

कुछ देर तक ग्लेशियर को देखने के बाद जब उसकी खुमारी कम हुई तो हम धीरे-धीरे आगे बढ़ गए। जैसे-जैसे ऊपर बढ़ रहे थे चलने की रफ्तार बहुत कम और रूकने का समय बहुत ज्यादा था। एक बार फिर से मौसम ने अंगड़ाई ली और बारिश ने अपना मोर्चा संभाल लिया। अब हम एक ऐसी जगह पर आ चुके थे। जहां से हमारे पास दो रास्ते थे एक तो गोल-गोल चलते जाओ, जैसा अब तक चलते आ रहे थे। दूसरा सीढ़ियां, जो कठिन तो थीं लेकिन सफर में कुछ नया लग रहा था। हम उसी सीढ़ियों से आगे बढ़ने लगे। हमने रास्ते में एक गाइड से सीढ़ियों की संख्या पूछी तो उसने हजार बताईं। अब तो लग रहा था कि जल्दी से हेमकुंड साहिब पहुंच जाऊँ। ये सफर खत्म होने को नाम ही नहीं ले रहा था।

आखिरी कदम


सीढ़ियों पर कुछ देर तो सही से चले और फिर थकावट हम पर हावी हो गई। हम यहां भी खूब रूक रहे थे और आते-जाते लोगों से ‘और कितना दूर’ पूछ रहे थे। जब हमें घने कुहरे में दूर से हेमकुंड साहिब का गेट दिखा तो ऐसा लगा कि बस यही तो देखना था। मैंने उस गेट के लिए एक लंबी दौड़ लगाई और जाकर हेमकुंड साहिब के गेट पर रूका। चारों तरफ कुहरा ही कुहरा था। हम देर से पहुंचे थे, अरदास हो चुकी थी। हम सीधे लंगर में पहुंच गये। लंगर में खिचड़ी, प्रसाद और गर्म-गर्म चाय मिली। जब गर्म-गर्म चाय का पहला घूंट अंदर गया तो मजा ही आ गया। ये लंगर मुझे सालों-साल याद रहने वाला था।

कुहरे में पहाड़।

समुद्र स्तर से 4,329 मीटर की ऊचांई पर स्थित हेमकुण्ड साहिब सिखों का प्रसिद्ध धार्मिक स्थल है। हेमकुंड का अर्थ है, हेम यानी कि बर्फ और कुंड यानी कि कटोरा। कहा जाता है कि इसी जगह पर सिखों के दसवें और अंतिम गुरु श्री गुरु गोबिंद सिंह ने अपने पिछले जीवन में ध्यान-साधना की थी और नया जीवन पाया था। सिखों का पवित्र तीर्थ हेमकुंड साहिब चारों तरफ से बर्फ की सात पहाड़ियों से घिरा हुआ है। हेमकुण्ड साहिब गुरुद्वारा की खोज 1930 में हवलदार सोहन सिंह ने की थी। हेमकुंड साहिब गुरूद्वारे के पास ही एक सरोवर है। इस सरोवर को अमृत सरोवर कहा जाता है। यह सरोवर लगभग 400 गज लंबा और 200 गज चैड़ा है। हेमकुंड साहिब ही वो जगह है, जहां राजा पांडु योग करते थे।

आ अब लौट चलें


मौसम हमारे साथ नहीं था, इसी वजह से हम साफ-साफ कुछ नहीं देख पाये। हमें कोहरे में ही झील को देखना पड़ा। कुछ देर रूकने के बाद हम फिर से वापस हो लिए। हम कुछ देर ही आगे बढ़े तो एक नई समस्या सामने आ गई। मेरे साथी का पर्स गायब था। जेब में था नही, इसका मतलब कहीं गिर गया था। वो वापस हेमकुंड साहिब गया और करीब घंटे भरे बाद वापस लौटा। उसका चेहरा बता रहा था कि उसका पर्स नहीं मिला था। मैं सोच पा रहा था कि सफर में अगर पर्स खो जाए तो कितना मुश्किल होगा। मेरे साथ ऐसा होता तो पक्का टूट जाता। शायद वो भी अंदर से टूट चुका था। उसके लिए ये ट्रेक  हमेशा बुरी याद के तौर पर रहने वाला था।

सफर में बैठा पथिक। 

वो एक जगह बैठ गया था, वो आगे बढ़ने को तैयार ही नहीं था। उसने मुझे जाने का कहा लेकिन मैं उसे अकेला नहीं छोड़ना चाहता था। वो कुछ देर अकेला रहना चाहता है, उसने कहा। मैं फिर भी रूका रहा लेकिन उसे जोर देकर मुझे जाने को कहा। तब मैं आगे बढ़ गया। चढ़ना जितना कठिन है, उतरना उतना ही आसान है। हम लौट नहीं रहे थे, चढ़ने के लिए वापस जा रहे थे। मौसम फिर बदला और सब कुछ साफ हो गया। रास्ते में ही एक झरना मिला, हम उसी पहाड़ी पर कुछ पलों के लिए ठहर गये। मैं अब हमारे पास समय ही समय था। मैं उस तेज धार में बहते पानी को देख रहा था। मेरे सामने शांत पहाड़ भी थे और तेज बहती नदी। मैं नदी की तरह होना चाहता हूं, हमेशा चलते रहने के लिए।

कुछ देर ठहरने के बाद आगे चलने के लिए जैसा ही उठा मैं फिसल गया। अचानक मैं अंदर से डर गया, अगर थोड़ी फिसलन और होती तो मैं पानी में होता। मैं संभलकर, रूककर उस पहाड़ से नीचे उतरा। तब मन ही मन एहसास हुआ पहाड़ भी खतरनाक है और नदी भी डरावनी। मेरा सिर चकरा रहा था, शायद लगातार चलने से या इतनी ऊंचाई पर आने की वजह से। हम फिर से आगे बढ़ने लगे। अब नीचे उतरने में थोड़ा अंतर आ गया था। मेरे उतरने में भी और मेरे स्वभाव में भी। ऐसा लग रहा था कि दिमाग फट रहा है, टांगे बस में नहीं हैं और चिड़चिड़ापन जोरों पर है। अब फिर से मेरे कंधे पर बैग था जिसे लेकर उतरना और भी मुश्किल हो रहा था। चलते-चलते कई बातें दिमाग में चल रही थीं। थकावट की वजह से मन कर रहा था, सफर यहीं खत्म किया जाए और वापस लौटा जाए। वापस जब घांघरिया लौटा और बिस्तर पर पड़ा तो फिर अगले दिन ही उठा।


सफर में कई बार ऐसा होता है जब थकावट दिमाग पर हावी हो जाती है। ऐसे में अपने अुनुभव से बता रहा हूं अपना दिमाग अपने साथ लेकर जाएं। अगर वहां हार जाते हैं तो आप बहुत कुछ हार सकते हैं। एक सफर को पूरा करना, बहुत कुछ जीत लेने जैसा है। मैंने हेमकुंड साहिब का ट्रेक करके  बहुत कुछ सीखा है, बहुत कुछ जाना है। अंत में एक चीज याद रहती है वो खूबसूरत सफर। हेमकुंड का ये ट्रेक मेरे लिए कठिन जरूर रहा हो लेकिन यादगार हमेशा रहेगा।

आगे की यात्रा यहां पढ़ें।

Sunday 22 September 2019

घांघरिया ट्रेक 2: सफर को यादगार बनाते हैं ये खूबसूरत ठहराव

इस यात्रा का पिछला भाग यहां पढ़ें।

मेरे लिए सफर में सबसे मुश्किल काम है, ठहरना। मैं मंजिल पर जाकर ही ठहरना पसंद करता हूं। लेकिन इस सफर की खूबसूरती ने मुझे कई जगह रोका। यात्रा में लौटना जितना बड़ा सच है, उतना ही बड़ा सच है ठहराव। ये वो पड़ाव हैं जो हमारी यात्राओं के रास्ते में पड़ते हैं। जहां ठहरने की अवधि कभी ज्यादा होती है तो कभी बहुत कम। जहां ठहरते ही इसलिए हैं क्योंकि आगे बढ़ा जाए। ऐसी जगह पर मैं दोबारा तैयार हो जाता हूं कि आगे चलने के लिए। घांघरिया हमारे सफर का वही पड़ाव था।


हम दोनों जल्दी-जल्दी चल रहे थे क्योंकि हमें अपने तीसरे साथी तक पहुंचना था। हम कुछ दूर चले तो एक गांव आया भुंडार। यहां लक्ष्मण गंगा अपने पूरे उफान पर थी। यहां हम एक बार फिर रूके क्योंकि हमें हमारा तीसरा साथी मिल चुका था। अब तक हम जंगल के छोटे-छोटे रास्ते में चल रहे थे। जहां प्रकृति को कम देख पा रहे थे। यहां अचानक हम खुले मैदान में आ गये थे। चारों तरफ हरे-भरे पहाड़ थे और वहीं से उफनती आ रही थी, लक्ष्मण गंगा। यहां दो नदियों का संगम था, लक्ष्मण गंगा और शिव गंगा। मुझे इस संगम से ज्यादा अच्छा लग रहा था वो छोटा-सा पुल जिसे हम पार करने वाले थे। मुझे ये कच्चे पुल जाने क्यों पसंद हैं? मुझे ऐसे पुलों पर रूकने से ज्यादा इनको देखना बहुत पसंद है।

सुंदर तस्वीर-सा दृश्य


अभी तो हम ठहरे हुए थे और देख रहे थे उन पहाड़ों को। पहले मुझे हर जगह के पहाड़ एक जैसे लगते थे लेकिन अब इन पहाड़ों का अंतर समझता हूं। यहां पहाड़ों में खूबसूरती भी है और शांति भी। खूबसूरत दृश्य था, पहाड़ों से कलकल करती नीचे आती नदी, आसपास पहाड़ और उसके बीच में एक कच्चा पुल। यहां आकर हर कोई एकटक इस नजारे को देखना चाहेगा। हम कुछ देर वहां ठहरे और इस सुंदर तस्वीर से विदा ली। हमने वो कच्चा पुल पार किया और आगे बढ़ चले। पहाड़ों में, खासकर नदी किनारे एक चीज आम है। छोटे-छोटे पत्थरों से एक श्रृंखला बनाना। पुल के पार भी यहां बड़े पत्थरों से ऐसा ही कुछ बना हुआ था। मैं उसको देखने के लिए करीब गया। वहीं खड़े स्थानीय व्यक्ति ने बताया उसको छूना नहीं। अगर वो गिर गया तो एक हजार रुपए देने पड़ेंगे।



पहाड़ों में आकर शहर की हर चीज छूट गई थी लेकिन ये जुर्माना नहीं पीछे नहीं छूट रहा था। उन पत्थरों को दूर से देखकर हम आगे बढ़ गये। हम आधा रास्ता तय कर चुके थे और आधा अभी बाकी था। सूरज न होने के बावजूद शाम होने की थी। हम अंधेरे से पहले पहुंचना चाहते थे। लेकिन अब वो असंभव सा प्रतीत हो रहा था। हम यहां भी कुछ देर ठहरे और फिर से आगे बढ़ पड़े। कभी-कभी रास्ता इतना खूबसूरत होता है कि हम मंजिल की फिक्र करना छोड़ देते हैं। ऐसा ही कुछ हमारे साथ हुआ।

एक और संगम।

हम रास्ते में इतना ज्यादा रूके कि शाम होने को थी और हम अभी भी अपने सफर पर थे। अब हमने तय किया कि कम रूकेंगे। जिससे जल्दी-जल्दी घांघरिया पहुंच सकें। हम घांघरिया जल्दी पहुंचने की सोच रहे थे और आगे का रास्ता हमें रोकने के लिए तैयार खड़ा था। अब तक हम जिस रास्ते पर चल रहे थे। उस पर कभी ढलान थी और कभी चढ़ाई। लेकिन अब रास्ता सिर्फ चढ़ाई का था और उपर से अंधेरा। अंधेरा तो था लेकिन हमें चलना तो था ही इसलिए हम आगे बढ़ने लगे। मैं और बाबा साथ थे और हमारा तीसरा साथी हमेशा की तरह आगे निकल गया था। हम और बाबा आपस में बात कर रहे थे और सुन रहे थे बगल में बह रही नदी की आवाज। अब देखने के लिए बचा था तो सिर्फ अंधेरा। उसी अंधेरे में हम बढ़ते जा रहे थे। 


हम अपनी बातों में इतने मग्न थे कि अंधेरे के बारे में कुछ फिक्र ही नहीं कर रहे थे। थोड़ी देर बाद देखा कि एक लड़का दौड़ता हुआ हमारी तरफ आ रहा है। पास आया तो देखा कि ये तो हमारा ही दोस्त है। मैंने पूछा क्या हुआ, वापस क्यों लौट आये? उसने बताया कि मैं बहुत देर से तुम लोगों का इंतजार कर रहा था। जब तुम नहीं आये तो फिक्र हो रही थी। तब वही कुछ लोगों ने बताया कि अंधेरे में यहां भालू मिल सकता है। अब हम तीनों साथ तो थे लेकिन भालू का डर भी था। चांदनी रात की वजह से रास्ता खोजने में परेशानी नहीं हो रही थी। हम तो अब भी सही से चल रहे थे लेकिन बाबा धीमा हो गया था। शायद थकावट उस पर हावी हो गई थी।

रात का सन्नाटा


हम अब थोड़ी देर चलते और ज्यादा देर रूकते। हम जब रूकते तो मैं वो आसमान की तरफ देखता। मैंने इतनी खूबसूरत रात और इतना खूबसूरत आसमान नहीं देखा था। मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं एक रात किसी पहाड़ पर चढ़ते हुए चांदनी रात देखूंगा। चांदनी रात की वजह से नदी दूधिया सफेद लग रही थी। इन सबके बावजूद एक सन्नाटा चारों तरफ पसरा हुआ था। जो थोड़ा-थोड़ा डर भी दे रहे थे। उसी सन्नाटे के बीच से हम आगे बढ़ते जा रहे थे। हम कुछ आगे बढ़े थे तभी सामने कुछ चमकता हुआ दिखाई दिया। उस चीज को देखकर हमारे कदम ठिठक गये।


हमें अंदाजा भी नहीं था कि वो चीज क्या है? ऐसा लग रहा था कि वो किसी जानवर की आंखे हैं। हम कुछ देर वहीं खड़े रहे। जब वो चीज हिली नहीं तो हम डरते-डरते आगे बढ़े। उस जगह पर पहुंचकर देखा तो पता चला कि पत्थर पर सफेद चाक का निशान है। हम फिर से आगे बढने लगे। इस घने जंगल में दूर-दूर तक कोई नहीं दिखाई दे रहा था। तभी पीछे-से कुछ आवाजें सुनाई दी। कुछ हमारे जैसे नौजवान थे, इनको देखकर अच्छा लगा। अब हमारे भीतर से डर थोड़ा कम हो गया था और घांघरिया पहुंचने का जज्बा शुरू हो गया था।

नदी के पार जिंदगी।

हम उनके साथ ही चलना चाहते थे लेकिन हम नहीं चल पाये। बाबा बार-बार रूक रहा था और हमें भी रूकना पड़ रहा था। फिर भी हम साथ थे तो कोई दिक्कत नहीं थी। कुछ देर बाद ऐसी जगह आई जहां दुकानें थीं। बहुत देर बाद लगा कि इस जंगल में भी कोई रहता है। हम वहां बहुत देर ठहरे रहे और फिर से आगे बढ़ चले। रात के अंधेरे के बाद हमारी चाल कुछ यूं थी कि पहले हम अपनी चाल में चल रहे थे, फिर खच्चर की तरह खुद को ढो रहे थे और अब रेंग रहे थे। बाबा हम दोनों को सहारा बनकर चल रहा था।


कुछ देर बाद हमें कुछ रोशनी दिखाई दी। अचानक चेहरे पर खुशी आ गई। ये ठीक वैसे ही खुशी थी जैसी घर जाने पर होती है।हम आगे बढ़ ही रहे थे तभी आस-पास के पहाड़ों को देखने की कोशिश की। रात के अंधेरे की वजह से सब कुछ साफ-साफ नहीं दिख रहा था। फिर भी ये पहाड़ आसमान से बातें कर रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे बाहुबली का दृश्य सामने चल रहा हो। आसमान से बातें करता ये पहाड़ और उससे गिरता झरना। मैं इस विशालकाय पहाड़ को देखकर अवाक था। मैं बस उसे देखकर मुस्कुराये जा रहा था। हम कुछ देर रूककर उसी पहाड़ को देखने लगे।

रात का घनघोर छंटा


कुछ आगे बढ़े तो रोशनी के पास आये तो देखा चारों तरफ सिर्फ टेंट ही टेंट लगे हुए हैं। यहां टूरिस्ट टेंट में आसमान के नीचे रात गुजारते हैं। लेकिन हमें तो घांघरिया जाना था जो अभी भी एक किलोमीटर दूर था। मेरे साथ अक्सर ऐसा होता है जब मंजिल पास आती है तो चाल धीमी हो जाती है। घांघरिया दूर नहीं था इसलिए हम धीमे-धीमे चले जा रहे थे। हम फिर से जंगल में आ गये थे। हम जब तक घांघरिया नहीं पहुंचे, हम उस विशालकाय पहाड़ के बारे में बात करने लगे। हमने एक-दूसरे से कहा, सुबह सबसे पहले इस जगह को देखने आएंगे।



थोड़ी देर बाद हम एक गली में खड़े थे और वहीं एक बोर्ड पर लिखा था, घांघरिया। हम घांघरिया आ चुके थे लेकिन सफर अभी खत्म नहीं हुआ था। उस सफर पर जाने से पहले हम बिस्तर पर पसरने के लिए ठिकाना ढूंढ़ना था। घांघरिया की गलियों में ठिकाना खोजते-खोजते एक जगह मिल गई। जगह अच्छी नहीं थी। लेकिन रात ही गुजारनी थी इसलिए हमने यहीं रूकने का फैसला लिया।

रात में हमारे दो साथी।

इस गहरी रात से पहले मैंने बहुत कुछ पा लिया था। इसे लंबे सफर में बहुत सारे ठहराव थे। कुछ आराम करने के लिए, कुछ खूबसूरती को निहारने के लिए। इस रात के बाद ही पता चला कि खूबसूरत सिर्फ दिन ही नहीं होते, रात भी होती है। मैंने आज के सफर को एक मुस्कुराहट के साथ वापस याद किया और कल के सफर के लिए तैयार होने लगा। अब तक हमारा सफर पड़ाव का था, असली सफर तो अब शुरू होने वाला था। खूबसूरती का सफर, चुनौती का सफर। 

आगे की यात्रा यहां पढ़ें। 

Tuesday 10 September 2019

घांघरिया ट्रेक: यात्राएं अगर जीवन बन जाएं तो कितना अच्छा हो

इस सफर का पहला भाग यहां पढ़ें।

घूमना, मेरी अब तक की जिंदगी में सबसे अच्छी चीज हुई है। जिंदगी में हर कोई घूमता ही रहता है लेकिन घूमने को ही मकसद बनाना बहुत कम लोग करते हैं। घुमक्कड़ी ऐसी चीज है जो हर बार कुछ नया देती है। नई जगह, नये एहसास लेकर आती है। नये लोगों से मिलने का मौका देती है, उस जगह के बारे में सोचने का, समझने का मौका देती है। अगर वो सफर पहाड़ों का हो तो इससे बेहतर सफर मेरे लिए कुछ नहीं हो सकता। यहां न कहीं जल्दी भागने की फिक्र है और न ही शहर का शोर। यहां आकर तो मैं एक अलग ही यात्रा पर निकल पड़ता हूं। मैं एक बार फिर से उसी यात्रा के लिए पहाड़ों के बीच आ चुका था।

घांघरिया ट्रेक।

शाम हो चुकी है और मैं जोशीमठ के तिराहे पर खड़ा हूं। क्योंकि मुझे इंतजार है अपने दोस्त का जिसके स्टेट्स को देखकर मैं यहां तक चला आया। उसे आने में देर थी तो मैं इस शहर को देखने लगा। पहाड़ पर होने वाले बाकी शहरों की तरह ही है ये शहर। जहां शांति और सुकून होता है। लेकिन ऐसा नहीं है कि इन शहरों में कुछ नहीं होता है। यहां हर जरूरत का सामान मिल जाता है। शाम का वक्त और सफर के थकान की वजह से मैं ज्यादा दूर नहीं गया। मैं फिर से उसी तिराहे पर लौट आया और इंतजार करने लगा। इस बार ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा। क्योंकि मैं जिसका इंतजार कर रहा था वो आ चुका था। उसके साथ एक और दोस्त था जो हमारे सफर को और भी रोमांचकारी बनाने वाला था।

प्रकृति की गोद में जोशीमठ


सबसे पहले वहीं तिराहे पर ही एक होटल लिया और फिर गपशप शुरू हो गई। जिस तीसरे दोस्त से मुलाकात हुई, उसे हम बाबा कह रहे थे और वो भी हमको बाबा कह रहा था। रात हुई तो खाना खाने के लिए बाहर निकले। कुछ घंटे फिर से इस शहर को पैदल नापा और फिर चल दिए वापस अपने कमरे में। कल के सफर के बारे में बात हुई। उसके बाद तो तो बस बातें होती रहीं। बातें करते-करते कब नींद लग गई पता ही नहीं चला। सुबह जब नींद खुली तो मैं बालकनी में आ गया। ये जगह कितनी खूबसूरत है ये मैं सुबह की साफगोई में देख पा रहा था। चारों तरफ ऊंचे-ऊंचे हरे-भरे पहाड़ हैं और उनके आसपास तैरते बादल। ये सब देखकर लग रहा था किसी ने मेरे सामने कैनवास में एक तस्वीर उकेरी दी हो। जिसमें खूबसूरती के लिए जो-जो किया जा सकता था, वो सब डाल दिया। पहाड़ से गिरता पानी इस दृश्य को और भी खूबसूरत बना रहा था।

खूबसूरत जोशीमठ।

मैं पहाड़ में कई जगह जा चुका था लेकिन इतना खूबसूरत नजारा पहली बार देख रहा था। लेकिन ये तो बस शुरूआत थी ये सफर मुझे बार-बार अचंभित करने वाला था। हमें अपने सफर पर बहुत जल्दी निकलना था लेकिन किसी न किसी वजह से देर होती जा रही थी। हम वो सब सामान ले रहे थे जो अगले तीन दिन हमारे काम आने वाला था। हम तीन दिन इस सभ्यता से कटने वाले थे, जहां से न हम किसी को संपर्क कर सकते थे और न कोई हमें। अब फोन का एक ही काम बचा था, तस्वीरें लेना। हम कुछ देर बाद एक जीप मैं बैठ गये जो हमें 20 किमी. दूर गोविंदघाट तक ले जाने वाला था। हम फिर से गोल-गोल घूमने लगे। मैं पहाड़ों और पास में बहती नदी को देख रहा था। यहां अलकनंदा का एक अलग ही रूप देखने को मिल रहा था। पानी का प्रवाह इतना तेज था कि वो देखने में भयानक लग रहा था।

चुनौती की शुरूआत


कुछ ही देर बाद जीप से हम गोविंदघाट पहुंच गये। यहां से हमें दूसरी जीप पकड़नी थी जो हमें पुलना ले जाने वाली थी। गोविंदघाट से हमने डंडे खरीदे जिससे ट्रेकिंग करने में मदद मिलती है। हमें गोविंदघाट के स्टैंड जाना था, जो कुछ दूरी पर था। हमारा सफर शुरू हो चुका था, हम पैदल चल रहे थे। थोड़ा आगे चले तो एक हमें एक और संगम मिला। ये संगम अलकनंदा और लक्ष्मणगंगा के बीच था। हम समुद्रतल से 6,000 फीट की ऊंचाई पर आ चुके थे। हम उस जगह पर आ चुके थे जहां से हमें पुलना के लिए जीप लेनी थी। गोविंदघाट से पुलना की दूरी 4 किमी. है। आगे बहुत ज्यादा चलना होता है इसी वजह से ज्यादातर लोग जीप से ही जाते हैं। हम जिस जीप में बैठे थे उसने बताया कि गोविंदघाट से आगे कोई अपनी गाड़ी नहीं ला सकता। जो पुलना के स्थानीय निवासी हैं सिर्फ वही अपनी गाड़ी यहां ला सकते हैं। जो गाड़ी चलाते हैं, उन जीप की संख्या की भी सीमा है। जिसे परमिशन मिलती है वो ही जीप चला सकता है।

अलकनंदा-लक्ष्मणगंगा का संगम।

ये सब होने की वजह से ही सिर्फ 4 किमी. का किराया 40 रुपए है। थोड़ी देर बाद हम पुलना पहुंच गये। यहां से हमारी असली परीक्षा होने वाली थी। अब आजाद होने का समय आ गया था, अपने घुमक्कड़पने के रास्ते पर चलने का रास्ता मिल चुका था। यहां से हमें घांघरिया तक का ट्रेक करना था जो पुलना से 10 किमी. था। चुनौती ये नहीं थी कि हमें 10 किमी. चलना है, चुनौती थी अपने-अपने भारी बैग लेकर चलना। हमारा ट्रेक शुरू हो चुका था। हम रास्ते पर चल नहीं, चढ़ रहे थे। ये रास्ता पेड़ों से घिरा हुआ था जिस वजह से धूप नीचे तक नहीं आ पा रही थी। रास्ते में हमें खच्चर भी मिल रहे थे जो लोगों की मदद के लिए थे। बूढ़े, बच्चे और महिलाएं खच्चर से जाएं तो सही लगता है। लेकिन जब हट्टे-कठ्ठे नौजवान भी ऐसा करते तो मुझे बड़ा आश्चर्य होता है। रास्ता हरा-भरा है और पहाड़ों की ऊंचाई भी अच्छी-खासी है। बाबा बार-बार थक रहा था और उसके साथ के लिए मैं भी रूक रहा था।

कुछ देर बाद हमें कई दुकानें मिलीं। जिसमें से किसी एक में हम रूक गये। यहां हमने मैगी खाई और प्रकृति को निहारा। सामने ही पहाड़ से बहते पानी को देखकर अच्छा लग रहा था। सुकून क्या होता है, थकावट के बाद आराम क्या होता है? ये सब इस दुकान पर आकर समझ में आ रहे थे। चलते-चलते कभी-कभी रास्ता इतना शांत हो जाता कि लगता जैसे सिर्फ हम ही चल रहे हों। तब शांति इतनी होती कि थकावट भी आपको सुनाई देती है। हम चले जा रहे थे लेकिन रूकते-रूकते। हम तीनों लोग एक साथ चल रहे थे और फिर हम सिर्फ दो बचे, मैं और बाबा। हमसे एक आगे निकल गया, बहुत आगे। लेकिन हम परेशान नहीं थे क्योंकि मुझे पता था कि आगे मिल ही जायेगा। इस जगह पर कोई भटकता नहीं है, हर कोई बढ़ता जाता है। वैसे ही जैसे हमारे बगल से नदी आगे बढ़ रही थी। हम अलकनंदा की विपरीत दिशा में बढ़ रहे थे। जिदंगी में और क्या चाहिए? ऐसा खूबसूरत सफर हो और उसमें पैदल चलता मैं।

पहाड़ों की गोद में मंदिर।

आगे बड़े-सी चट्टान पर छोटा-सा मंदिर मिला। पहाड़ों पर ऐसे छोटे-से मंदिर हर जगह मिल ही जाते हैं। मुझे इस मंदिर को देखकर तुंगनाथ का रास्ता याद आ गया। जब वहां भी इसी तरह का एक छोटा-सा मंदिर मिला था। रास्ते में जगह-जगह से पानी गिर रहा था। अगर वो जगह हमारी पहुंच में होती तो वो वाटरफाॅल बन जाता। वाटरफाॅल से खूबसूरत तो पहाड़ों से गिरने वाले पानी का ये दृश्य होता है। रास्ता कुछ ऐसा था कि पहले हम ऊपर की ओर चढ़ रहे थे और फिर नीचे की ओर उतर रहे थे। आगे बार-बार ऐसा हो रहा था। जब हम चढ़ते थे तब हमारी चलने स्पीड ज्यादा हो जाती और रूकने की संख्या ज्यादा हो रही थी। जब उतरते थे तब हम चलते भी तेज थे और रूकते भी कम थे।

एक मोड़ और खूबसूरत नजारा


मैं सफर में बार-बार मुड़कर देखता हूं, शायद कुछ छूट गया हो तो पा लूं। हम दोनों जब चलते ही जा रहे थे तब ऐसा ही एक मोड़ मिला जो नीचे की ओर जा रहा था। ये रास्ता लकड़ी से बंद था, इसलिए कोई इस रास्ते पर जाने की सोच नहीं रहा था। मैं सोच ही रहा था कि इधरा जाया जाए या नहीं। तभी बाबा ने कहा, चलते हैं जो होगा देखा जाएगा। किसी के साथ चलने का यही फायदा होता है। एक उम्मीद होती है साथ मिलकर भटकने की, साथ मिलकर ढूढ़ने की और सुस्ताने के भी। हम दोनों भी रास्ते से अलग हटकर नीचे जाने लगे। हम जैसे-जैसे आगे जा रहे थे मेरी उत्सुकता बढ़ने लगी क्योंकि नदी की आवाज मेरे कानों में पड़ने लगी थी। अब मुझे उस रास्ते की खोज से ज्यादा, उस नदी तक जाना था। ये रास्ता जहां खत्म हुआ, वहां भगवान शिव का एक छोटा-सा मंदिर था। उसके सामने ही एक अंधेरी गुफा थी जिसमें बनी हुई थी। लेकिन आसपास कोई नहीं था। कुछ कदम दूर नदी थी, मैं उसी ओर चल दिया। नदी किनारे जाकर हम बैठ गये और इस दृश्य को देखने लगे। यहां कोई बादल नहीं थे लेकिन इस सफर का सबसे खूबसूरत दृश्य यही था।

पहाड़ और नदी।

मेरे पैर पानी में थे और मैं उसे बहते देख रहा था। फुरसत से किसी चीज को देखते रहने का मतलब है, आप उससे मंत्रमुग्ध हो गये हैं। मैं इस जगह पर आकर मंत्रमुग्ध हो चुका था। मेरे बगल से कलकल करती नदी बह रही थी मेरे चारों तरफ ऊंचे-ऊंचे हरे-भरे पहाड़ थे। सामने जंगल था, इन सबको देख रहा था मैं। मेरे जूते वहीं रेत पर पड़े थे, बैग को उसी मंदिर पर छोड़ आया था और मैं यहां बैठा था। ऐसा लग रहा था कि ये वक्त ठहरा रहे और मैं कुछ और ज्यादा देर यहां रूक सकें। मै बचपन में नदी किनारे एक खेल जरूर खेला करता था। पत्थर को पानी में फेंककर गुलाटी करते देखना। हम यहां भी वही करने लगे, बड़ा अच्छा लग रहा था फिर से बचपन में लौटकर। यहां आकर लग रहा था कि नीचे उतरने का फैसला सही था। इसलिए तो मैं कहता हूं कि कभी-कभी रास्ता छोड़कर पगडंडी वाला रास्ता ले लेना चाहिए। नजारे बदलने से नजरिया बदल जाता है। अगर वो रास्ता गलत भी होता है तो आपके पास वापस लौटने का भी एक रास्ता होता है। हमें भी लौटना था लेकिन यहां आकर एक बात तो समझ में आ गई थी कि जरूरी नहीं मंजिल ही खूबसूरत हो। कभी-कभी बीच में पड़ने वाले पड़ाव मंजिल से ज्यादा खूबसूरत होते हैं।

अभी तो सफर और भी है।

यहां के पहाड़ों और नदी के बीच रूके हुए हमें काफी वक्त हो गया था। शायद कुछ देर के लिए हम भूल ही गये थे कि हमारी मंजिल अभी आई नहीं है। हमें इस खूबसूरती के बीच में याद ही नहीं रहा कि हमारा एक साथी आगे हमारा इंतजार कर रहा है। हम जितने खुश हैं, शायद वो उतना ही परेशान हो। कुछ देर के लिए थमा हमारा सफर फिर से शुरू हो गया, हम फिर से चलने लगे। हम चल रहे थे क्योंकि हमारी मंजिल नहीं आई थी। हम चल रहे थे क्योंकि हमारा एक साथी हमारे इंतजार में था। सबसे बड़ी बात अंधेरा होने लगा था। ये अंधेरा हमारे सफर को और भी रोमांचक बनाने वाला था।

आगे की यात्रा यहां पढ़ें।