Monday 30 September 2019

हेमकुंड साहिब ट्रेक: मुश्किलें ही बनाती हैं सफर को रोमांचक

यात्रा का पिछला भाग यहां पढ़ें।

मैं अपने सफर को वैसे ही लिखने की कोशिश करता हूं, जैसा मैं उस समय सोच रहा था। पर हमेशा ऐसा हो नहीं पाता है। हर बार लगता है कि कुछ रह-सा गया है। मैं उस झिलमिल रात को सुनहरे शब्दों में दर्ज करना चाहता हूं। चलते-चलते जो चिड़चिड़ापन आया उसको लिखना चाहता हूं। शायद ऐसा करने पर मुझे अपना सफर अच्छे-से याद रहता है। ताकि जब भी मैं यादों के उस पन्ने से गुजरुं, तो मुड़-मुड़के अपने सफर को याद कर सकूं। घूमते वक्त मैं कुछ अलग हो जाता हूं, शायद कुछ नया पाने की तलाश में। एक पड़ाव पर मैं खड़ा था और आगे के सफर को पा लेना चाहता था। ये चुनौती भी है और इस सफर की खूबसूरती भी।


घांघरिया में ताजगी भरी सुबह


सुबह-सुबह नींद खुली तो सिर थोड़ा भारी लग रहा था। सर्दी और जुकाम ने पकड़ लिया था, लेकिन सफर का उत्साह तो अब शुरू हुआ था। घांघरिया में ये हमारी पहली सुबह थी। रात के अंधेरे में घांघरिया को हम सही से देख नहीं पाये थे। घांघरिया, हेमकुंड साहिब और फूलों की घाटी के रास्ते में पड़ने वाला एक छोटा-सा गांव है। घांघरिया 3049 मीटर की ऊंचाई पर उत्तरी हिमालय पर बसा है। देखने में ये कहीं-से गांव नहीं लगता। यहां चारों तरफ आपको होटल और रेस्टोरेंट ही मिलेंगे। कोई घांघरिया से आए या हेमकुंड साहिब से। उसका पड़ाव घांघरिया में जरूर रहता है। सर्दियों के समय ये रास्ता बर्फ से भर जाता है और यहां के लोग नीचे गोविंदघाट चले जाते हैं। इसलिए कुछ ही महीने होते हैं जब यहां ऐसा खुशनुमा माहौल होता है। सारी गलियां गुलजार रहती हैं, हर जगह चहल-पहल रहती है।

घांघिरया

हम घांघरिया के ऐसे ही किसी होटल में सुबह की चाय की लुत्फ उठा रहे थे। आसपास पहाड़ ही पहाड़ नजर आ रहे थे। घांघरिया में नेटवर्क आते हैं लेकिन तीन दिन से हमारी तरह नेटवर्क भी अपनी दुनिया से कट चुके थे। घांघरिया को देखकर मुझे एवरेस्ट मूवी याद आ गई। बिल्कुल वैसा ही नजारा मुझे यहां नजर आ रहा था। यहां के स्थानीय लोग अपने घोड़े और बास्केट लेकर लाइन से खड़े थे। कुछ लोग चाय का मजा ले रहे थे तो कुछ अपनी बौनी के लिए टूरिस्टों से मोल-भाव कर रहे थे। आगे के सफर के लिए हमारे पास दो खूबसूरत जगहें थी, हेमकुंड साहिब और फूलों की घाटी। घांघरिया से फूलों की घाटी करीब 4 किलोमीटर दूर थी और हेमकुंड साहिब की दूर 6 किलोमीटर। काफी विचार के बाद हम तीनों पहले सफर के लिए हेमकुंड साहिब के लिए राजी हुए। अब हमारी मंजिल थी हेमकुंड साहिब।

हेमकुंड साहिब के लिए कूच


घांघरिया से निकले ही थे, एक खूबसूरत नजारे ने हमारा स्वागत किया। दो छायादार पहाड़ों के बीच से एक रोशनी-सा चमकता पहाड़ नजर आ रहा था। उस पहाड़ से भी ज्यादा खूबसूरत लग रहा था खुला आसमान। ऐसा लग रहा था कि आसमान भी खुशी से चहक रहा हो। थोड़ा ही आगे बढ़े तो एक और खूबसूरत नजारा हमारा इंतजार कर रहा था। चारों तरफ पहाड़ और उसके बीच से गिरता झरना। अभी तक मैं पहाड़ों के बीच झरने को बस दूर से देख रहा थे। ये नजारा मेरे खूबसूरत पलों में कैद हो गया।

खूबसूरत नजारा। फोटो साभार: मृत्युंजय पांडेय।

हम इस ट्रेक में सिर्फ चढ़ रहे थे, उतरने का तो कहीं नाम ही नहीं था। जिस वजह से हम बहुत जल्दी थक रहे थे और बार-बार रूक रहे थे। हमारे सामने दो परेशानी थी। पहली परेशानी, हमें 12 बजे के पहले पहुंचना था। अगर देरी हुई तो गुरूद्वारे की अरदास में शामिल नहीं हो पाएंगे। दूसरी परेशानी थी बैग। हम बैग को घांघरिया में रख सकते थे लेकिन जोश-जोश में बैग को ले आया था। उसका खामियाजा अब थकावट के रूप में झेल रहा था। हम कुछ दूरी का टारगेट डिसाइड कर रहे थे और वहां तक पहुंचने की कोशिश कर रहे थे। कोशिश इसलिए क्योंकि वहां भी पहुंचना मुश्किल हो रहा था। जब मैं थक जाता तो मेरा साथी बैग ढोता और जब वो थक जाता तो मैं बैग उठाता। इस तरह हम धीरे-धीरे बढ़ रहे थे।

चलते हुए हम कुछ नहीं देख पा रहे थे उस समय तो सिर्फ चलना ही नाकाफी हो रहा था। जब कहीं रूकते तो सामने के खूबसूरत नजारों में खो जाते। इतनी ऊंचाई से हम घांघरिया को देखते और बौने नजर आते लोगों को। ऐसी ही एक जगह पर हम खड़े थे तभी चारों ओर कुहरा छा आ गया। अब हमें कुछ नहीं दिखाई दे रहा था सिवाय इस कुहरे के। उसी कुहरे में हम लोग आगे बढ़ गये। हेमकुंड साहिब के ट्रेक पर हजारों लोग हमारे साथ जा रहे थे। कुछ लोग तो ट्रेवल कंपनियों के साथ इस ट्रेक को कर रहे थे। एक ग्रुप में कम से कम 20 लोग थे और ऐसे ही 4-5 ग्रुप थे। सभी ग्रुप में दो-दो गाइड होते हैं जो उनके साथ बराबर चलते रहते हैं। ऐसे ही चलते-चलते हमें एक 60 साल का नौजवान शख्स मिल गया।

वो हमारे साथ ही कदम मिलाकर चल रहे थे। उन्होंने एक घाटी की ओर इशारा करके बताया कि पहले ये चढ़ाई वाला रास्ता नहीं था। वो रास्ता बहुत सीधा और आसान था। बाद में बाढ़ और आपदा की वजह से वो रास्ता बंद हो गया। फिर इस रास्ते को बनाया। जो चढ़ाई के लिए बहुत कठिन माना जाता है। कुछ देर बाद मौसम ने फिर से करवट ली। कुहरे के बाद अब बारिश शुरू हो गई थी। हमारे पास पोंचा एक था और लोग दो। तब तय हुआ जो बैग टांगेगा, वही पोंचा का हकदार होगा। मैं बिना पोंचा और बैग के चलने लगा और मेरा साथी अब बैग के साथ बढ़ रहा था। हम रास्ते में बातें करते जा रहे थे और आकलन कर रहे थे कि 12 बजे से पहले पहुंच पाएंगे या नहीं।

शानदार झरना।

हम लंबी चढ़ाई से बचने के लिए बहुत सारे शाॅर्टकट ले रहे थे। काफी पेड़ों के बीच से तो कभी पहाड़ों के बीच से। कुछ देर बाद बारिश रूक गई। जिसका मतलब था हम बैग की कमान मेरे कंधों पर आने वाली थी। बारिश के बाद फिर से मौसम साफ हो गया था और हम फिर से खूबसूरत नजारों के बीच आगे बढ़े जा रहे थे। कुछ देर बाद एक दुकान आई, जिस पर हम कुछ ज्यादा देर रूकें। मैं बैग की वजह से काफी परेशान था। तब मैंने अपनी समस्या दुकान वाले को बताई, उसने बैग को अपनी दुकान पर रखने को कहा। बच्चे को खिलौने मिलने पर जो खुशी होती है, वही खुशी मुझे इस दुकानदार की बात सुनकर हो रही थी। मैंने उसे धन्यवाद कहा और खुशी-खुशी रूके हुए सफर को रफ्तार दी। कुछ देर बाद दुकानों का मुहल्ला मिला। यहां करीब 20-25 दुकानें एक साथ थी। हर जगह एक ही जैसी चीजें बिक रही थीं लेकिन सब की सब महंगी। सोचिए 10 रुपए वाली किटकैट 30 रुपए में मिल रही हो। तो फिर सस्ता ही क्या मिलेगा?

खूबसूरत ग्लेशियर


मेरे कंधे पर अब कोई भार नहीं था लेकिन थकान अब भी हो रही था। जितना मैं बैग के साथ चल रहा था, अब भी उतना ही चल रहा था। ये ट्रेक काफी थकान वाला हो रहा था। कहीं-कहीं खूबसूरत नजारा दिखता तो लगता कि अब यहीं रूक जाता हूं और इस दृश्य को निहारता हूं। उसके बाद ख्याल आता है इतना चढ़ने के बाद हार नहीं मान सकता। थके शरीर और तेज मन से आगे बढ़ने की कोशिश करता हूं। उसके बाद सफर का सबसे खूबसूरत दृश्य दिखाई दिया। मेरे सामने एक लंबी सफेद चादर एक पहाड़ पर पसरी हुई थी। ये एक ग्लेशियर है जिसे यहां के लोग अटकुलुन ग्लेशियर बोलते हैं।

ये है वो ग्लेशियर।

थकान के बावजूद इस ग्लेशियर को देखने के बाद चेहरे पर मुस्कुराहट तैर गई। ये ग्लेशियर बहुत दूर तक फैला था और फैली थी दूर तक उसकी खूबसूरती। इसे देख मानो लग रहा था कि किसी ने सफेद मखमली चादर सूखने डाली हो। अब तक मैंने बचपन से ग्लेशियर के बारे में सुना था लेकिन आज वो पहाड़ मेरे एकदम सामने था। इसे देखना मेरे लिए वैसा ही था जैसा पहली बार पहाड़ को देखना। तब भी मैं उस खूबसूरती को बयां नहीं कर पा रहा था और इसे देखकर भी 
ऐसा ही कुछ महसूस कर रहा था। आप बस उस दृश्य के बारे में सोचिए नीचे पहाड़, ऊपर पहाड़, आसपास भी पहाड़ और उसी एक पहाड़ पर दूर तलक बस बर्फ ही बर्फ। कितना खूबसूरत होता है न हरे पहाड़ और बर्फ वाले पहाड़ का मिला जुला नजारा।

कुछ देर तक ग्लेशियर को देखने के बाद जब उसकी खुमारी कम हुई तो हम धीरे-धीरे आगे बढ़ गए। जैसे-जैसे ऊपर बढ़ रहे थे चलने की रफ्तार बहुत कम और रूकने का समय बहुत ज्यादा था। एक बार फिर से मौसम ने अंगड़ाई ली और बारिश ने अपना मोर्चा संभाल लिया। अब हम एक ऐसी जगह पर आ चुके थे। जहां से हमारे पास दो रास्ते थे एक तो गोल-गोल चलते जाओ, जैसा अब तक चलते आ रहे थे। दूसरा सीढ़ियां, जो कठिन तो थीं लेकिन सफर में कुछ नया लग रहा था। हम उसी सीढ़ियों से आगे बढ़ने लगे। हमने रास्ते में एक गाइड से सीढ़ियों की संख्या पूछी तो उसने हजार बताईं। अब तो लग रहा था कि जल्दी से हेमकुंड साहिब पहुंच जाऊँ। ये सफर खत्म होने को नाम ही नहीं ले रहा था।

आखिरी कदम


सीढ़ियों पर कुछ देर तो सही से चले और फिर थकावट हम पर हावी हो गई। हम यहां भी खूब रूक रहे थे और आते-जाते लोगों से ‘और कितना दूर’ पूछ रहे थे। जब हमें घने कुहरे में दूर से हेमकुंड साहिब का गेट दिखा तो ऐसा लगा कि बस यही तो देखना था। मैंने उस गेट के लिए एक लंबी दौड़ लगाई और जाकर हेमकुंड साहिब के गेट पर रूका। चारों तरफ कुहरा ही कुहरा था। हम देर से पहुंचे थे, अरदास हो चुकी थी। हम सीधे लंगर में पहुंच गये। लंगर में खिचड़ी, प्रसाद और गर्म-गर्म चाय मिली। जब गर्म-गर्म चाय का पहला घूंट अंदर गया तो मजा ही आ गया। ये लंगर मुझे सालों-साल याद रहने वाला था।

कुहरे में पहाड़।

समुद्र स्तर से 4,329 मीटर की ऊचांई पर स्थित हेमकुण्ड साहिब सिखों का प्रसिद्ध धार्मिक स्थल है। हेमकुंड का अर्थ है, हेम यानी कि बर्फ और कुंड यानी कि कटोरा। कहा जाता है कि इसी जगह पर सिखों के दसवें और अंतिम गुरु श्री गुरु गोबिंद सिंह ने अपने पिछले जीवन में ध्यान-साधना की थी और नया जीवन पाया था। सिखों का पवित्र तीर्थ हेमकुंड साहिब चारों तरफ से बर्फ की सात पहाड़ियों से घिरा हुआ है। हेमकुण्ड साहिब गुरुद्वारा की खोज 1930 में हवलदार सोहन सिंह ने की थी। हेमकुंड साहिब गुरूद्वारे के पास ही एक सरोवर है। इस सरोवर को अमृत सरोवर कहा जाता है। यह सरोवर लगभग 400 गज लंबा और 200 गज चैड़ा है। हेमकुंड साहिब ही वो जगह है, जहां राजा पांडु योग करते थे।

आ अब लौट चलें


मौसम हमारे साथ नहीं था, इसी वजह से हम साफ-साफ कुछ नहीं देख पाये। हमें कोहरे में ही झील को देखना पड़ा। कुछ देर रूकने के बाद हम फिर से वापस हो लिए। हम कुछ देर ही आगे बढ़े तो एक नई समस्या सामने आ गई। मेरे साथी का पर्स गायब था। जेब में था नही, इसका मतलब कहीं गिर गया था। वो वापस हेमकुंड साहिब गया और करीब घंटे भरे बाद वापस लौटा। उसका चेहरा बता रहा था कि उसका पर्स नहीं मिला था। मैं सोच पा रहा था कि सफर में अगर पर्स खो जाए तो कितना मुश्किल होगा। मेरे साथ ऐसा होता तो पक्का टूट जाता। शायद वो भी अंदर से टूट चुका था। उसके लिए ये ट्रेक  हमेशा बुरी याद के तौर पर रहने वाला था।

सफर में बैठा पथिक। 

वो एक जगह बैठ गया था, वो आगे बढ़ने को तैयार ही नहीं था। उसने मुझे जाने का कहा लेकिन मैं उसे अकेला नहीं छोड़ना चाहता था। वो कुछ देर अकेला रहना चाहता है, उसने कहा। मैं फिर भी रूका रहा लेकिन उसे जोर देकर मुझे जाने को कहा। तब मैं आगे बढ़ गया। चढ़ना जितना कठिन है, उतरना उतना ही आसान है। हम लौट नहीं रहे थे, चढ़ने के लिए वापस जा रहे थे। मौसम फिर बदला और सब कुछ साफ हो गया। रास्ते में ही एक झरना मिला, हम उसी पहाड़ी पर कुछ पलों के लिए ठहर गये। मैं अब हमारे पास समय ही समय था। मैं उस तेज धार में बहते पानी को देख रहा था। मेरे सामने शांत पहाड़ भी थे और तेज बहती नदी। मैं नदी की तरह होना चाहता हूं, हमेशा चलते रहने के लिए।

कुछ देर ठहरने के बाद आगे चलने के लिए जैसा ही उठा मैं फिसल गया। अचानक मैं अंदर से डर गया, अगर थोड़ी फिसलन और होती तो मैं पानी में होता। मैं संभलकर, रूककर उस पहाड़ से नीचे उतरा। तब मन ही मन एहसास हुआ पहाड़ भी खतरनाक है और नदी भी डरावनी। मेरा सिर चकरा रहा था, शायद लगातार चलने से या इतनी ऊंचाई पर आने की वजह से। हम फिर से आगे बढ़ने लगे। अब नीचे उतरने में थोड़ा अंतर आ गया था। मेरे उतरने में भी और मेरे स्वभाव में भी। ऐसा लग रहा था कि दिमाग फट रहा है, टांगे बस में नहीं हैं और चिड़चिड़ापन जोरों पर है। अब फिर से मेरे कंधे पर बैग था जिसे लेकर उतरना और भी मुश्किल हो रहा था। चलते-चलते कई बातें दिमाग में चल रही थीं। थकावट की वजह से मन कर रहा था, सफर यहीं खत्म किया जाए और वापस लौटा जाए। वापस जब घांघरिया लौटा और बिस्तर पर पड़ा तो फिर अगले दिन ही उठा।


सफर में कई बार ऐसा होता है जब थकावट दिमाग पर हावी हो जाती है। ऐसे में अपने अुनुभव से बता रहा हूं अपना दिमाग अपने साथ लेकर जाएं। अगर वहां हार जाते हैं तो आप बहुत कुछ हार सकते हैं। एक सफर को पूरा करना, बहुत कुछ जीत लेने जैसा है। मैंने हेमकुंड साहिब का ट्रेक करके  बहुत कुछ सीखा है, बहुत कुछ जाना है। अंत में एक चीज याद रहती है वो खूबसूरत सफर। हेमकुंड का ये ट्रेक मेरे लिए कठिन जरूर रहा हो लेकिन यादगार हमेशा रहेगा।

आगे की यात्रा यहां पढ़ें।

Sunday 22 September 2019

घांघरिया ट्रेक 2: सफर को यादगार बनाते हैं ये खूबसूरत ठहराव

इस यात्रा का पिछला भाग यहां पढ़ें।

मेरे लिए सफर में सबसे मुश्किल काम है, ठहरना। मैं मंजिल पर जाकर ही ठहरना पसंद करता हूं। लेकिन इस सफर की खूबसूरती ने मुझे कई जगह रोका। यात्रा में लौटना जितना बड़ा सच है, उतना ही बड़ा सच है ठहराव। ये वो पड़ाव हैं जो हमारी यात्राओं के रास्ते में पड़ते हैं। जहां ठहरने की अवधि कभी ज्यादा होती है तो कभी बहुत कम। जहां ठहरते ही इसलिए हैं क्योंकि आगे बढ़ा जाए। ऐसी जगह पर मैं दोबारा तैयार हो जाता हूं कि आगे चलने के लिए। घांघरिया हमारे सफर का वही पड़ाव था।


हम दोनों जल्दी-जल्दी चल रहे थे क्योंकि हमें अपने तीसरे साथी तक पहुंचना था। हम कुछ दूर चले तो एक गांव आया भुंडार। यहां लक्ष्मण गंगा अपने पूरे उफान पर थी। यहां हम एक बार फिर रूके क्योंकि हमें हमारा तीसरा साथी मिल चुका था। अब तक हम जंगल के छोटे-छोटे रास्ते में चल रहे थे। जहां प्रकृति को कम देख पा रहे थे। यहां अचानक हम खुले मैदान में आ गये थे। चारों तरफ हरे-भरे पहाड़ थे और वहीं से उफनती आ रही थी, लक्ष्मण गंगा। यहां दो नदियों का संगम था, लक्ष्मण गंगा और शिव गंगा। मुझे इस संगम से ज्यादा अच्छा लग रहा था वो छोटा-सा पुल जिसे हम पार करने वाले थे। मुझे ये कच्चे पुल जाने क्यों पसंद हैं? मुझे ऐसे पुलों पर रूकने से ज्यादा इनको देखना बहुत पसंद है।

सुंदर तस्वीर-सा दृश्य


अभी तो हम ठहरे हुए थे और देख रहे थे उन पहाड़ों को। पहले मुझे हर जगह के पहाड़ एक जैसे लगते थे लेकिन अब इन पहाड़ों का अंतर समझता हूं। यहां पहाड़ों में खूबसूरती भी है और शांति भी। खूबसूरत दृश्य था, पहाड़ों से कलकल करती नीचे आती नदी, आसपास पहाड़ और उसके बीच में एक कच्चा पुल। यहां आकर हर कोई एकटक इस नजारे को देखना चाहेगा। हम कुछ देर वहां ठहरे और इस सुंदर तस्वीर से विदा ली। हमने वो कच्चा पुल पार किया और आगे बढ़ चले। पहाड़ों में, खासकर नदी किनारे एक चीज आम है। छोटे-छोटे पत्थरों से एक श्रृंखला बनाना। पुल के पार भी यहां बड़े पत्थरों से ऐसा ही कुछ बना हुआ था। मैं उसको देखने के लिए करीब गया। वहीं खड़े स्थानीय व्यक्ति ने बताया उसको छूना नहीं। अगर वो गिर गया तो एक हजार रुपए देने पड़ेंगे।



पहाड़ों में आकर शहर की हर चीज छूट गई थी लेकिन ये जुर्माना नहीं पीछे नहीं छूट रहा था। उन पत्थरों को दूर से देखकर हम आगे बढ़ गये। हम आधा रास्ता तय कर चुके थे और आधा अभी बाकी था। सूरज न होने के बावजूद शाम होने की थी। हम अंधेरे से पहले पहुंचना चाहते थे। लेकिन अब वो असंभव सा प्रतीत हो रहा था। हम यहां भी कुछ देर ठहरे और फिर से आगे बढ़ पड़े। कभी-कभी रास्ता इतना खूबसूरत होता है कि हम मंजिल की फिक्र करना छोड़ देते हैं। ऐसा ही कुछ हमारे साथ हुआ।

एक और संगम।

हम रास्ते में इतना ज्यादा रूके कि शाम होने को थी और हम अभी भी अपने सफर पर थे। अब हमने तय किया कि कम रूकेंगे। जिससे जल्दी-जल्दी घांघरिया पहुंच सकें। हम घांघरिया जल्दी पहुंचने की सोच रहे थे और आगे का रास्ता हमें रोकने के लिए तैयार खड़ा था। अब तक हम जिस रास्ते पर चल रहे थे। उस पर कभी ढलान थी और कभी चढ़ाई। लेकिन अब रास्ता सिर्फ चढ़ाई का था और उपर से अंधेरा। अंधेरा तो था लेकिन हमें चलना तो था ही इसलिए हम आगे बढ़ने लगे। मैं और बाबा साथ थे और हमारा तीसरा साथी हमेशा की तरह आगे निकल गया था। हम और बाबा आपस में बात कर रहे थे और सुन रहे थे बगल में बह रही नदी की आवाज। अब देखने के लिए बचा था तो सिर्फ अंधेरा। उसी अंधेरे में हम बढ़ते जा रहे थे। 


हम अपनी बातों में इतने मग्न थे कि अंधेरे के बारे में कुछ फिक्र ही नहीं कर रहे थे। थोड़ी देर बाद देखा कि एक लड़का दौड़ता हुआ हमारी तरफ आ रहा है। पास आया तो देखा कि ये तो हमारा ही दोस्त है। मैंने पूछा क्या हुआ, वापस क्यों लौट आये? उसने बताया कि मैं बहुत देर से तुम लोगों का इंतजार कर रहा था। जब तुम नहीं आये तो फिक्र हो रही थी। तब वही कुछ लोगों ने बताया कि अंधेरे में यहां भालू मिल सकता है। अब हम तीनों साथ तो थे लेकिन भालू का डर भी था। चांदनी रात की वजह से रास्ता खोजने में परेशानी नहीं हो रही थी। हम तो अब भी सही से चल रहे थे लेकिन बाबा धीमा हो गया था। शायद थकावट उस पर हावी हो गई थी।

रात का सन्नाटा


हम अब थोड़ी देर चलते और ज्यादा देर रूकते। हम जब रूकते तो मैं वो आसमान की तरफ देखता। मैंने इतनी खूबसूरत रात और इतना खूबसूरत आसमान नहीं देखा था। मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं एक रात किसी पहाड़ पर चढ़ते हुए चांदनी रात देखूंगा। चांदनी रात की वजह से नदी दूधिया सफेद लग रही थी। इन सबके बावजूद एक सन्नाटा चारों तरफ पसरा हुआ था। जो थोड़ा-थोड़ा डर भी दे रहे थे। उसी सन्नाटे के बीच से हम आगे बढ़ते जा रहे थे। हम कुछ आगे बढ़े थे तभी सामने कुछ चमकता हुआ दिखाई दिया। उस चीज को देखकर हमारे कदम ठिठक गये।


हमें अंदाजा भी नहीं था कि वो चीज क्या है? ऐसा लग रहा था कि वो किसी जानवर की आंखे हैं। हम कुछ देर वहीं खड़े रहे। जब वो चीज हिली नहीं तो हम डरते-डरते आगे बढ़े। उस जगह पर पहुंचकर देखा तो पता चला कि पत्थर पर सफेद चाक का निशान है। हम फिर से आगे बढने लगे। इस घने जंगल में दूर-दूर तक कोई नहीं दिखाई दे रहा था। तभी पीछे-से कुछ आवाजें सुनाई दी। कुछ हमारे जैसे नौजवान थे, इनको देखकर अच्छा लगा। अब हमारे भीतर से डर थोड़ा कम हो गया था और घांघरिया पहुंचने का जज्बा शुरू हो गया था।

नदी के पार जिंदगी।

हम उनके साथ ही चलना चाहते थे लेकिन हम नहीं चल पाये। बाबा बार-बार रूक रहा था और हमें भी रूकना पड़ रहा था। फिर भी हम साथ थे तो कोई दिक्कत नहीं थी। कुछ देर बाद ऐसी जगह आई जहां दुकानें थीं। बहुत देर बाद लगा कि इस जंगल में भी कोई रहता है। हम वहां बहुत देर ठहरे रहे और फिर से आगे बढ़ चले। रात के अंधेरे के बाद हमारी चाल कुछ यूं थी कि पहले हम अपनी चाल में चल रहे थे, फिर खच्चर की तरह खुद को ढो रहे थे और अब रेंग रहे थे। बाबा हम दोनों को सहारा बनकर चल रहा था।


कुछ देर बाद हमें कुछ रोशनी दिखाई दी। अचानक चेहरे पर खुशी आ गई। ये ठीक वैसे ही खुशी थी जैसी घर जाने पर होती है।हम आगे बढ़ ही रहे थे तभी आस-पास के पहाड़ों को देखने की कोशिश की। रात के अंधेरे की वजह से सब कुछ साफ-साफ नहीं दिख रहा था। फिर भी ये पहाड़ आसमान से बातें कर रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे बाहुबली का दृश्य सामने चल रहा हो। आसमान से बातें करता ये पहाड़ और उससे गिरता झरना। मैं इस विशालकाय पहाड़ को देखकर अवाक था। मैं बस उसे देखकर मुस्कुराये जा रहा था। हम कुछ देर रूककर उसी पहाड़ को देखने लगे।

रात का घनघोर छंटा


कुछ आगे बढ़े तो रोशनी के पास आये तो देखा चारों तरफ सिर्फ टेंट ही टेंट लगे हुए हैं। यहां टूरिस्ट टेंट में आसमान के नीचे रात गुजारते हैं। लेकिन हमें तो घांघरिया जाना था जो अभी भी एक किलोमीटर दूर था। मेरे साथ अक्सर ऐसा होता है जब मंजिल पास आती है तो चाल धीमी हो जाती है। घांघरिया दूर नहीं था इसलिए हम धीमे-धीमे चले जा रहे थे। हम फिर से जंगल में आ गये थे। हम जब तक घांघरिया नहीं पहुंचे, हम उस विशालकाय पहाड़ के बारे में बात करने लगे। हमने एक-दूसरे से कहा, सुबह सबसे पहले इस जगह को देखने आएंगे।



थोड़ी देर बाद हम एक गली में खड़े थे और वहीं एक बोर्ड पर लिखा था, घांघरिया। हम घांघरिया आ चुके थे लेकिन सफर अभी खत्म नहीं हुआ था। उस सफर पर जाने से पहले हम बिस्तर पर पसरने के लिए ठिकाना ढूंढ़ना था। घांघरिया की गलियों में ठिकाना खोजते-खोजते एक जगह मिल गई। जगह अच्छी नहीं थी। लेकिन रात ही गुजारनी थी इसलिए हमने यहीं रूकने का फैसला लिया।

रात में हमारे दो साथी।

इस गहरी रात से पहले मैंने बहुत कुछ पा लिया था। इसे लंबे सफर में बहुत सारे ठहराव थे। कुछ आराम करने के लिए, कुछ खूबसूरती को निहारने के लिए। इस रात के बाद ही पता चला कि खूबसूरत सिर्फ दिन ही नहीं होते, रात भी होती है। मैंने आज के सफर को एक मुस्कुराहट के साथ वापस याद किया और कल के सफर के लिए तैयार होने लगा। अब तक हमारा सफर पड़ाव का था, असली सफर तो अब शुरू होने वाला था। खूबसूरती का सफर, चुनौती का सफर। 

आगे की यात्रा यहां पढ़ें। 

Tuesday 10 September 2019

घांघरिया ट्रेक: यात्राएं अगर जीवन बन जाएं तो कितना अच्छा हो

इस सफर का पहला भाग यहां पढ़ें।

घूमना, मेरी अब तक की जिंदगी में सबसे अच्छी चीज हुई है। जिंदगी में हर कोई घूमता ही रहता है लेकिन घूमने को ही मकसद बनाना बहुत कम लोग करते हैं। घुमक्कड़ी ऐसी चीज है जो हर बार कुछ नया देती है। नई जगह, नये एहसास लेकर आती है। नये लोगों से मिलने का मौका देती है, उस जगह के बारे में सोचने का, समझने का मौका देती है। अगर वो सफर पहाड़ों का हो तो इससे बेहतर सफर मेरे लिए कुछ नहीं हो सकता। यहां न कहीं जल्दी भागने की फिक्र है और न ही शहर का शोर। यहां आकर तो मैं एक अलग ही यात्रा पर निकल पड़ता हूं। मैं एक बार फिर से उसी यात्रा के लिए पहाड़ों के बीच आ चुका था।

घांघरिया ट्रेक।

शाम हो चुकी है और मैं जोशीमठ के तिराहे पर खड़ा हूं। क्योंकि मुझे इंतजार है अपने दोस्त का जिसके स्टेट्स को देखकर मैं यहां तक चला आया। उसे आने में देर थी तो मैं इस शहर को देखने लगा। पहाड़ पर होने वाले बाकी शहरों की तरह ही है ये शहर। जहां शांति और सुकून होता है। लेकिन ऐसा नहीं है कि इन शहरों में कुछ नहीं होता है। यहां हर जरूरत का सामान मिल जाता है। शाम का वक्त और सफर के थकान की वजह से मैं ज्यादा दूर नहीं गया। मैं फिर से उसी तिराहे पर लौट आया और इंतजार करने लगा। इस बार ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा। क्योंकि मैं जिसका इंतजार कर रहा था वो आ चुका था। उसके साथ एक और दोस्त था जो हमारे सफर को और भी रोमांचकारी बनाने वाला था।

प्रकृति की गोद में जोशीमठ


सबसे पहले वहीं तिराहे पर ही एक होटल लिया और फिर गपशप शुरू हो गई। जिस तीसरे दोस्त से मुलाकात हुई, उसे हम बाबा कह रहे थे और वो भी हमको बाबा कह रहा था। रात हुई तो खाना खाने के लिए बाहर निकले। कुछ घंटे फिर से इस शहर को पैदल नापा और फिर चल दिए वापस अपने कमरे में। कल के सफर के बारे में बात हुई। उसके बाद तो तो बस बातें होती रहीं। बातें करते-करते कब नींद लग गई पता ही नहीं चला। सुबह जब नींद खुली तो मैं बालकनी में आ गया। ये जगह कितनी खूबसूरत है ये मैं सुबह की साफगोई में देख पा रहा था। चारों तरफ ऊंचे-ऊंचे हरे-भरे पहाड़ हैं और उनके आसपास तैरते बादल। ये सब देखकर लग रहा था किसी ने मेरे सामने कैनवास में एक तस्वीर उकेरी दी हो। जिसमें खूबसूरती के लिए जो-जो किया जा सकता था, वो सब डाल दिया। पहाड़ से गिरता पानी इस दृश्य को और भी खूबसूरत बना रहा था।

खूबसूरत जोशीमठ।

मैं पहाड़ में कई जगह जा चुका था लेकिन इतना खूबसूरत नजारा पहली बार देख रहा था। लेकिन ये तो बस शुरूआत थी ये सफर मुझे बार-बार अचंभित करने वाला था। हमें अपने सफर पर बहुत जल्दी निकलना था लेकिन किसी न किसी वजह से देर होती जा रही थी। हम वो सब सामान ले रहे थे जो अगले तीन दिन हमारे काम आने वाला था। हम तीन दिन इस सभ्यता से कटने वाले थे, जहां से न हम किसी को संपर्क कर सकते थे और न कोई हमें। अब फोन का एक ही काम बचा था, तस्वीरें लेना। हम कुछ देर बाद एक जीप मैं बैठ गये जो हमें 20 किमी. दूर गोविंदघाट तक ले जाने वाला था। हम फिर से गोल-गोल घूमने लगे। मैं पहाड़ों और पास में बहती नदी को देख रहा था। यहां अलकनंदा का एक अलग ही रूप देखने को मिल रहा था। पानी का प्रवाह इतना तेज था कि वो देखने में भयानक लग रहा था।

चुनौती की शुरूआत


कुछ ही देर बाद जीप से हम गोविंदघाट पहुंच गये। यहां से हमें दूसरी जीप पकड़नी थी जो हमें पुलना ले जाने वाली थी। गोविंदघाट से हमने डंडे खरीदे जिससे ट्रेकिंग करने में मदद मिलती है। हमें गोविंदघाट के स्टैंड जाना था, जो कुछ दूरी पर था। हमारा सफर शुरू हो चुका था, हम पैदल चल रहे थे। थोड़ा आगे चले तो एक हमें एक और संगम मिला। ये संगम अलकनंदा और लक्ष्मणगंगा के बीच था। हम समुद्रतल से 6,000 फीट की ऊंचाई पर आ चुके थे। हम उस जगह पर आ चुके थे जहां से हमें पुलना के लिए जीप लेनी थी। गोविंदघाट से पुलना की दूरी 4 किमी. है। आगे बहुत ज्यादा चलना होता है इसी वजह से ज्यादातर लोग जीप से ही जाते हैं। हम जिस जीप में बैठे थे उसने बताया कि गोविंदघाट से आगे कोई अपनी गाड़ी नहीं ला सकता। जो पुलना के स्थानीय निवासी हैं सिर्फ वही अपनी गाड़ी यहां ला सकते हैं। जो गाड़ी चलाते हैं, उन जीप की संख्या की भी सीमा है। जिसे परमिशन मिलती है वो ही जीप चला सकता है।

अलकनंदा-लक्ष्मणगंगा का संगम।

ये सब होने की वजह से ही सिर्फ 4 किमी. का किराया 40 रुपए है। थोड़ी देर बाद हम पुलना पहुंच गये। यहां से हमारी असली परीक्षा होने वाली थी। अब आजाद होने का समय आ गया था, अपने घुमक्कड़पने के रास्ते पर चलने का रास्ता मिल चुका था। यहां से हमें घांघरिया तक का ट्रेक करना था जो पुलना से 10 किमी. था। चुनौती ये नहीं थी कि हमें 10 किमी. चलना है, चुनौती थी अपने-अपने भारी बैग लेकर चलना। हमारा ट्रेक शुरू हो चुका था। हम रास्ते पर चल नहीं, चढ़ रहे थे। ये रास्ता पेड़ों से घिरा हुआ था जिस वजह से धूप नीचे तक नहीं आ पा रही थी। रास्ते में हमें खच्चर भी मिल रहे थे जो लोगों की मदद के लिए थे। बूढ़े, बच्चे और महिलाएं खच्चर से जाएं तो सही लगता है। लेकिन जब हट्टे-कठ्ठे नौजवान भी ऐसा करते तो मुझे बड़ा आश्चर्य होता है। रास्ता हरा-भरा है और पहाड़ों की ऊंचाई भी अच्छी-खासी है। बाबा बार-बार थक रहा था और उसके साथ के लिए मैं भी रूक रहा था।

कुछ देर बाद हमें कई दुकानें मिलीं। जिसमें से किसी एक में हम रूक गये। यहां हमने मैगी खाई और प्रकृति को निहारा। सामने ही पहाड़ से बहते पानी को देखकर अच्छा लग रहा था। सुकून क्या होता है, थकावट के बाद आराम क्या होता है? ये सब इस दुकान पर आकर समझ में आ रहे थे। चलते-चलते कभी-कभी रास्ता इतना शांत हो जाता कि लगता जैसे सिर्फ हम ही चल रहे हों। तब शांति इतनी होती कि थकावट भी आपको सुनाई देती है। हम चले जा रहे थे लेकिन रूकते-रूकते। हम तीनों लोग एक साथ चल रहे थे और फिर हम सिर्फ दो बचे, मैं और बाबा। हमसे एक आगे निकल गया, बहुत आगे। लेकिन हम परेशान नहीं थे क्योंकि मुझे पता था कि आगे मिल ही जायेगा। इस जगह पर कोई भटकता नहीं है, हर कोई बढ़ता जाता है। वैसे ही जैसे हमारे बगल से नदी आगे बढ़ रही थी। हम अलकनंदा की विपरीत दिशा में बढ़ रहे थे। जिदंगी में और क्या चाहिए? ऐसा खूबसूरत सफर हो और उसमें पैदल चलता मैं।

पहाड़ों की गोद में मंदिर।

आगे बड़े-सी चट्टान पर छोटा-सा मंदिर मिला। पहाड़ों पर ऐसे छोटे-से मंदिर हर जगह मिल ही जाते हैं। मुझे इस मंदिर को देखकर तुंगनाथ का रास्ता याद आ गया। जब वहां भी इसी तरह का एक छोटा-सा मंदिर मिला था। रास्ते में जगह-जगह से पानी गिर रहा था। अगर वो जगह हमारी पहुंच में होती तो वो वाटरफाॅल बन जाता। वाटरफाॅल से खूबसूरत तो पहाड़ों से गिरने वाले पानी का ये दृश्य होता है। रास्ता कुछ ऐसा था कि पहले हम ऊपर की ओर चढ़ रहे थे और फिर नीचे की ओर उतर रहे थे। आगे बार-बार ऐसा हो रहा था। जब हम चढ़ते थे तब हमारी चलने स्पीड ज्यादा हो जाती और रूकने की संख्या ज्यादा हो रही थी। जब उतरते थे तब हम चलते भी तेज थे और रूकते भी कम थे।

एक मोड़ और खूबसूरत नजारा


मैं सफर में बार-बार मुड़कर देखता हूं, शायद कुछ छूट गया हो तो पा लूं। हम दोनों जब चलते ही जा रहे थे तब ऐसा ही एक मोड़ मिला जो नीचे की ओर जा रहा था। ये रास्ता लकड़ी से बंद था, इसलिए कोई इस रास्ते पर जाने की सोच नहीं रहा था। मैं सोच ही रहा था कि इधरा जाया जाए या नहीं। तभी बाबा ने कहा, चलते हैं जो होगा देखा जाएगा। किसी के साथ चलने का यही फायदा होता है। एक उम्मीद होती है साथ मिलकर भटकने की, साथ मिलकर ढूढ़ने की और सुस्ताने के भी। हम दोनों भी रास्ते से अलग हटकर नीचे जाने लगे। हम जैसे-जैसे आगे जा रहे थे मेरी उत्सुकता बढ़ने लगी क्योंकि नदी की आवाज मेरे कानों में पड़ने लगी थी। अब मुझे उस रास्ते की खोज से ज्यादा, उस नदी तक जाना था। ये रास्ता जहां खत्म हुआ, वहां भगवान शिव का एक छोटा-सा मंदिर था। उसके सामने ही एक अंधेरी गुफा थी जिसमें बनी हुई थी। लेकिन आसपास कोई नहीं था। कुछ कदम दूर नदी थी, मैं उसी ओर चल दिया। नदी किनारे जाकर हम बैठ गये और इस दृश्य को देखने लगे। यहां कोई बादल नहीं थे लेकिन इस सफर का सबसे खूबसूरत दृश्य यही था।

पहाड़ और नदी।

मेरे पैर पानी में थे और मैं उसे बहते देख रहा था। फुरसत से किसी चीज को देखते रहने का मतलब है, आप उससे मंत्रमुग्ध हो गये हैं। मैं इस जगह पर आकर मंत्रमुग्ध हो चुका था। मेरे बगल से कलकल करती नदी बह रही थी मेरे चारों तरफ ऊंचे-ऊंचे हरे-भरे पहाड़ थे। सामने जंगल था, इन सबको देख रहा था मैं। मेरे जूते वहीं रेत पर पड़े थे, बैग को उसी मंदिर पर छोड़ आया था और मैं यहां बैठा था। ऐसा लग रहा था कि ये वक्त ठहरा रहे और मैं कुछ और ज्यादा देर यहां रूक सकें। मै बचपन में नदी किनारे एक खेल जरूर खेला करता था। पत्थर को पानी में फेंककर गुलाटी करते देखना। हम यहां भी वही करने लगे, बड़ा अच्छा लग रहा था फिर से बचपन में लौटकर। यहां आकर लग रहा था कि नीचे उतरने का फैसला सही था। इसलिए तो मैं कहता हूं कि कभी-कभी रास्ता छोड़कर पगडंडी वाला रास्ता ले लेना चाहिए। नजारे बदलने से नजरिया बदल जाता है। अगर वो रास्ता गलत भी होता है तो आपके पास वापस लौटने का भी एक रास्ता होता है। हमें भी लौटना था लेकिन यहां आकर एक बात तो समझ में आ गई थी कि जरूरी नहीं मंजिल ही खूबसूरत हो। कभी-कभी बीच में पड़ने वाले पड़ाव मंजिल से ज्यादा खूबसूरत होते हैं।

अभी तो सफर और भी है।

यहां के पहाड़ों और नदी के बीच रूके हुए हमें काफी वक्त हो गया था। शायद कुछ देर के लिए हम भूल ही गये थे कि हमारी मंजिल अभी आई नहीं है। हमें इस खूबसूरती के बीच में याद ही नहीं रहा कि हमारा एक साथी आगे हमारा इंतजार कर रहा है। हम जितने खुश हैं, शायद वो उतना ही परेशान हो। कुछ देर के लिए थमा हमारा सफर फिर से शुरू हो गया, हम फिर से चलने लगे। हम चल रहे थे क्योंकि हमारी मंजिल नहीं आई थी। हम चल रहे थे क्योंकि हमारा एक साथी हमारे इंतजार में था। सबसे बड़ी बात अंधेरा होने लगा था। ये अंधेरा हमारे सफर को और भी रोमांचक बनाने वाला था।

आगे की यात्रा यहां पढ़ें।

Friday 6 September 2019

जोशीमठ:इन खूबसूरत वादियों के बीच चलते रहना ही तो मकसद है

रात का अंधेरा था, रास्ता जाना-पहचाना था और मैं चला जा रहा था एक नये सफर पर। उस रात के बारे में सोचता हूं तो खुशी होती है कि मैं उस दिन लौटा नहीं। अगर लौट आता तो बहुत कुछ मिस कर देता। मैं दूसरों को यही सलाह देता हूं कि जहां भी जाइए पूरी तैयारी के साथ जाइए। जब मैं अपने सभी सफरों के बारे में सोचता हूं तो लगता है कि मेरी घुमक्कड़ी में प्लानिंग जैसी कोई चीज रही नहीं है। मैं जहां भी गया उसके पीछे कोई लंबी-खासी प्लानिंग और तैयारी नहीं रही। मन हुआ तो निकल गया एक सफर पर। इस बार भी मेरे साथ ऐसा ही हुआ और फिर क्या? कुछ ही घंटों के बाद हिमालय को लपककर छूने की कोशिश में था, खूबसूरत और बेधड़क वादियों के बीच।


शाम का वक्त था, मैं दिल्ली में ही था। तभी मैंने व्हाट्सएप्प पर अपने दोस्त का  स्टे्टस देखा, वो उत्तराखंड के जोशीमठ में था। मैंने उसे काॅल किया तो उसने बताया, फूलों की घाटी जा रहा है। भूख लगी हो और खाना मिल जाने पर जो सुकून मिलता है, वही सुकून मुझे अपने दोस्त की इन बातों से मिल रहा था। मैं बहुत दिनों से कहीं जाने की सोच रहा था, लेकिन जगह नहीं खोज पा रहा था। एक स्टेट्स की वजह से मुझे एक नया सफर और छोटी-छोटी मंजिलें मिल गईं थीं। मैंने मन ही मन सोच लिया था कि मुझे वहीं पहुंचना हैं, पहाड़ों के बीच। दोस्त ने भी आने को बोल दिया। अपने रूम आया और रकसैक बैग में कुछ कपड़े रखे और निकल पड़ा बस स्टैंड की ओर।

मैदान से पहाड़ तक


मैं उत्तराखंड जा रहा था और महीना था अगस्त। यानी कि खूब बारिश हो रही थी। बारिश रास्ता बंद कर देती है और तब सब कुछ अस्त-व्यस्त हो जाता है। जिनको भी मैंने उत्तराखंड जाने के बारे में बताया, वो सभी जाने को मना कर रहे थे। इसलिए जब मैं बस स्टैंड जा रहा था, तो दिमाग में दो ही ख्याल आ रहे थे। एक तो वापस लौटने के बारे में था और दूसरा ख्याल पहाड़ का था। पहाड़ों की खूबसूरती के बारे में सोचकर मैंने जाने का निश्चय कर लिया। रात को आईएसबीटी कश्मीरी गेट से हरिद्वार के लिए बस पकड़ी। दिल्ली से हरिद्वार जाते वक्त ऐसा लगता है कि अपनी ही जगह जा रहा हूं। लेकिन इस बार ऐसा नहीं लग रहा था। शायद इसलिए क्योंकि इस बार सफर हरिद्वार से बहुत आगे था।

ऋषिकेश।

मैं जिस सीट पर बैठा था, मेरे पीछे वाली सीट पर मेरी ही उम्र के लड़के थे। आपस में खूब हंसी-ठिठोली कर रहे थे, इन सबमें मैं सुन रहा था उनकी बातें। वो तुंगनाथ के बारे में बात कर रहे थे। उनमें से एक बाकी को तुंगनाथ की खूबसूरती के बारे में बता रहा था। मुझे अपना तुंगनाथ का सफर याद आ गया था, शायद मुझे घूमने का कीड़ा वहीं से लगा था। उनकी बातों में सबसे बुरा था, नशा। वो पहाड़ों पर जाकर हरे-भरे बुग्याल में नशा करने की बात कर रहे थे। घूमना बहुत अच्छी बात है। लेकिन बेहतरीन जगहों पर धुंआ उड़ाना बेहूदा लोगों की पहचान है। कुछ देर बाद मुझे नींद लग गई। सुबह आंख खुली तो हरिद्वार आ चुका था, मेरी पहली मंजिल।

ताजगी भरी सुबह


मैं बस से नीचे उतर गया, मैं बद्रीनाथ जाने वाली बस देख रहा था। मेरी किस्मत इतनी अच्छी निकली कि कुछ ही मिनटों में मुझे बस मिल गई और कुछ ही मिनटों बाद बस चल पड़ी। मैं अभी-अभी सफर करके आया था। अब फिर से एक और सफर पर निकल पड़ा। ये सफर काफी लंबा होने वाला था करीब 12 घंटे का सफर। जैसे-जैसे बस आगे बढ़ रही थी, अंधेरा भी छंटता जा रहा था। यहां की सुबह की ताजगी को मैं महसूस कर पा रहा था। दिल्ली और उत्तराखंड में एक बड़ा अंतर है, हवा का अंतर। इसी हवा को पाने के लिए लोग यहां आते हैं। सूरज निकल आया था और उसकी रोशनी हमारे चारों तरफ फैलनी लगी थी। सूरज के लिए ये दुनिया एक दिन और पुरानी हो गई थी। अभी तो सूरज से लंबी मुलाकात होने वाली थी, आज पूरा दिन इसी सूरज के साथ ही तो चलना था।

हरे-भरे पहाड़।

कुछ ही घंटों में बस पहाड़ों के बीच चल रही थी। मुझे अक्सर सफर के दौरान नींद नहीं आती है लेकिन इस सफर में बहुत ज्यादा नींद आ रही थी। ऐसा लग रहा था थकान हो रही है लेकिन अभी तो सफर शुरू ही नहीं हुआ था। बीच-बीच में झटका लगता तो नींद खुल जाती और आंख खुलने पर एक ही चीज दिखती, पहाड़। यहां पहाड़ को देखकर खुशी नहीं, गुस्सा आ रहा था। रोड को चौड़ा किया जा रहा था और उसके लिए पहाड़ को काटा जा रहा था। जो पहाड़ पिछले साल तक सुंदर दिखते थे, वो अब बंजर लग रहा था। ऐसा लग रहा था कि किसी ने इसके चिथड़े कर दिए हों। हालांकि ये चैड़ीकरण अभी ज्यादा दूर नहीं गया है, लेकिन ऐसा ही विकास चलता रहा तो यहां की प्रकृति का सत्यानाश हो जाएगा। आगे चलने पर प्रकृति के सुंदर नजारे आने लगे थे। कुछ ही देर में देवप्रयाग आने वाला था। देवप्रयाग, वो जगह है जहां अलकनंदा और भागीरथी का संगम होता है। इन दोनों के संगम के बाद जो नदी बनती है, वो गंगा कहलाती है।

बहती नदी और वादियां


मैं इस बारिश में संगम देखना चाहता था। मैं देखना चाहता था कि इस मौसम में भी अलकनंदा और भागीरथी अलग-अलग रंग की रहती है या मटमैले रंग की। यही सोचते-सोचते आंख लग गई, जब आंख खुली तो रूद्रप्रयाग पार कर चुके थे। उत्तराखंड में होने के बावजूद गर्मी बहुत थी, धूप भी बहुत तेज थी। कुछ घंटों के सफर के बाद बस चमोली आ पहंची थी। यहां से मौसम ने करवट ले ली। बारिश शुरू हो गई थी। बारिश के दौरान पहाड़ों में जाना जोखिम भरा तो है, लेकिन इस मौसम में पहाड़ सबसे ज्यादा खूबसूरत लगने लगते हैं। बारिश की वजह से नदियां लबालब भरी हुईं थीं। हम जहा से जा रहे थे उसके ठीक नीच नदी बह रही थी और दूर तलक हरे-भरे जंगल दिखाई दे रहे थी।

पहाड़ों के बीच बहती नदी।

कभी-कभी मैं समझ नहीं पाता हूं कि पहाड़ में ज्यादा खूबसूरत क्या है? बर्फ या हरियाली। जिस रूप में पहाड़ दिखता है, खूबसूरत लगने लगता है। शायद ये पहाड़ की खासियत है कि वो दोनों ही रूप में ढल जाता है। अब पहाड़ अचानक से बदलने लगे थे। हरियाली अब थी, वे खूबसूरत अब भी लग रहे थे लेकिन अब उन्हें पूरा देखने के लिए गर्दन ऊंची करनी पड़ रही थी। मैंने इतने ऊंचे और खूबसूरत पहाड़ कभी नहीं देखे थे। रास्ते में कई गांव मिले और वहीं पहाड़ों पर हो रही सीढ़ीनुमा खेती भी देखने को मिली। यहां के गांव भी बेहद सुकून भरे लग रहे थे। चारों तरफ हरियाली से घिरे हुये और हरियाली के बीच ही उनके घर। इन घरों को देखकर ऐसा लग रहा था कि सारा सुकून भगवान ने यहीं पटक दिया हो। यहां बंजर का नाम मात्र भी नहीं था, मौसम, प्रकृति और रास्ता सब कुछ शानदार था।

मैं दस घंटे के सफर में जितना बोर हुआ था, इन नजारों को देखकर सब कुछ छूमंतर हो गया था। अब तो न थकावट थी और न ही नींद। शायद यही है कुछ नया देखने की ललक। अब जब इतना कुछ खूबसूरत और नया दिख रहा था तो लग रहा था कि सफर थोड़ा लंबा हो जाए। रास्ते में भूस्खलन भी हो रहा था, कई जगह तो बड़े-बड़े पत्थर गिर गये थे। जिसे हटाने में समय लगा और तब हमारी बस आगे बढ़ पाई। बड़े-बड़े पहाड़ दूर जाकर वादियों का रूप ले रहे थे। रास्ते में कई झरने भी गिर रहे थे। पहाड़ों से ऐसे गिरने वाले झरनों का कोई नाम नहीं होते। इनको देखकर बस खुश हुआ जा सकता है। यहां आकर तो परेशान व्यक्ति भी मुस्कुरा उठेगा। मैं तो आया ही इसलिए ही था और वही हो रहा था।

ये चमोली की खूबसूरती है।

जिंदगी में सुकून अगर कहीं है तो ऐसे ही खूबसूरत सफर में है। पहाड़ों में मंजिल से ज्यादा खूबसूरत सफर होता है। लेकिन इस बार मैं जिस सफर पर निकला था, उसकी मंजिल भी बेहद खूबसूरत थी। थोड़ी देर बाद बस ने मुझे मेरे पड़ाव पर छोड़ दिया, पड़ाव आगे के सफर का। जोशीमठ में मुझे मेरा दोस्त मिलने वाला था और यहीं रात भी यहीं गुजारनी थी। अगले दिन हमें लंबा सफर तय करना था लेकिन अब सफर बैठकर नहीं चलकर तय करना था। इसी चुनौती के लिए तो 20 घंटा सफर तय करके यहां आया था। अगले दिन हमारे पास रास्ता था लेकिन कभी-कभी रास्ता पता होने के बावजूद इस पर चलना आसान नहीं होता है। ये चुनौती ही तो हमें फूलों की घाटी तक ले जाने वाली थी। लेकिन उससे पहले अभी मुझे सबसे कठिन चीज करनी थी, इंतजार।

इस यात्रा की अगली कड़ी यहां पढ़ें।