Sunday 22 March 2020

जैसलमेर 2: कभी-कभी सफर में रोमांच और चुनौती भी जरूरी है

यात्रा का पिछला भाग यहां पढ़ें।

सफर में कभी भी, कहीं भी कुछ भी हो सकता है। हर तरह की स्थिति के लिए तैयार रहना चाहिए। जैसलमेर शहर को हमने देख लिया था। मेरे लिए ये शहर एक जादुई दुनिया की तरह था। अक्सर ऐसा होता है जब शुरूआत अच्छी होती है तो बाकी का सफर अच्छा रहता है और जब शुरूआत में खुशी मिल जाती है तो समझ जाइए चुनौती आगे हमारा इंतजार कर रही है। जैसलमेर शहर के बाहर एक चुनौती हमारा इंतजार कर रही थी। जो जैसलमेर के इस सफर को रोमांचक और यादगार बनाने वाला था।


कुछ देर बाद हम जैसलमेर शहर से बाहर निकलकर हाइवे पर थे। हम तेज हवा के झोंके के साथ आगे बढ़ रहे थे। तीनों बाइक आगे-पीछे चल रही थीं। ये पहला मौका था जब मैं किसी शहर से बाइक रेंट करके घूम रहा था। अब हमें कुलधरा गांव होते हुए सम सैंड ड्यून्स जाना था। जैसलमेर से सैंड ड्यून्स की दूरी 45 किमी. है। बीच में ही कुलधरा गांव पड़ता हैं जो जैसलेमर से 26 किमी. है। हाइवे था तो गाड़ियां स्पीड में बगल से गुजर रही थीं। हमारी तरह ही सबको कहीं न कहीं पहुंचने की जल्दी थी। सारी परेशानियों की जड़ ही जल्दबाजी है। हमारी परेशानी थी कि हम सूरज को डूबते हुए रेत पर खड़े होकर देखें।

कारवां चल पड़ा

कुलधारा की ओर।

सड़क अच्छी थी। हमारी बाइक सनसनाती हुई भागती हुई जा रही थी। हम एक-दूसरे के पास आते है और खुश हो जाते। हंसते-खिलखिलाते हुए हम भागते जा रहे थे। आसपास दूर-दूर तक कोई गांव नहीं था, सिर्फ बंजर पड़ी जमीन दिखाई दे रही थी। बीच-बीच में कुछ घर नजर आ रहे थे लेकिन कुछ घरों को हम एक गांव कहेंगे क्या? अभी तक हमें रेत नहीं दिखाई दी थी। लाल पत्थर, खाली पड़ी जमीन और बीच-बीच में कुछ पेड़ नजर आ रहे थे। कुछ देर बाद इस खाली जमीन पर हमें पवन चक्कियां दिखाई दीं, एक-दो नहीं बल्कि अनगिनत।

रेगिस्तान में पवन चक्कियां।

मैंने इससे पहले पवन चक्कियों के बारे में किताबों में पढ़ा था और फिल्मों में देखा था। आज पहली बार अपनी आंखों से देख रहा था। घूमते-घूमते बहुत कुछ नया मिलता है। इसलिए तो घूमना अच्छा लगता है कुछ नया देखने को मिलता है, बहुत कुछ सीखने को मिलता है। पवन चक्कियां धीरे-धीरे चल रहीं थीं। जब दूर थे तो ये पवन चक्कियां छोटी लग रही थीं। जैसे-जैसे आगे बढ़ रहे थे पवन चक्कियां बहुत बड़ी दिखाई दे रही थी। जब तक पवन चक्कियां आंखों के सामने थीं, कुछ और देखने का मन ही नहीं कर रहा था। इनको देखकर जाने क्यों खुशी हो रही थी। कुछ देर के बाद पवन चक्कियां ओझल हो गईं जैसे सफर में वक्त ओझल हो जाता है। सफर में हम इतने डूबे रहते हैं कि समय पता ही नहीं चलता।

कुलधरा गांव

कुलधरा गांव के बाहर लगा एक बोर्ड।

कुछ देर बाद दाएं तरफ एक रास्ता मिला जो कुलधारा गांव की ओर जाता है।  हमारे साथी इस रास्ते पर न जाकर आगे चले गए थे। हम इसी रास्ते पर आगे जाकर रूककर उनका इंतजार करने लगे। कुछ देर के बाद जब वो आ गए तो हम कुलधरा की ओर बढ़े। कुछ ही देर बाद हमें एक बड़ा-सा पत्थर दिखाई दिया जिस पर लिखा था, कुलधरा एक पुरातात्विक स्थल।

ये दोनों 84 गांवों के वीरान होने की कहानी सुनाते हैं

यहां हमें दो भाई मिले, जो यहां आने वाले लोगों को कुलधरा की कहानी सुनाते हैं। उन्होंने ही बताया, ‘‘कुलधरा के आसपास 84 गांव थे। इन सबमें ब्राम्हण रहते थे। ब्राम्हण की एक लड़की पर दीवान सालम सिंह की बुरी नजर पड़ गई। वो उसे हर हालत में पाना चाहता था। सालम सिंह ने गांव वालों को धमकी दी कि वे पूर्णमासी तक लड़की को खुद ही विदा कर दें। अगर लड़की को नहीं सौंपा तो उसे उठा ले जाएगा। तब इज्जत बचाने के लिए सभी 84 गांव एक रात में खाली हो गए। कहा जाता है कि जाते-जाते उन्होंने श्राप दिया कि यहां कोई नहीं बस पाएगा। इसे सबसे डरावनी जगह बताकर लोग यहां नशे करते हैं।’’

कुलधरा गांव।

उनकी कहानी सुनकर हम कुलधरा गांव की ओर बढ़ गए। आगे एक गेट मिला, जो कुलधरा का प्रवेश द्वार था। यहां जाने का भी टिकट लग रहा था। 20 रुपए खुद का टिकट था और 50 रुपए गाड़ी का। अंदर हमने अपनी गाड़ी लगाई और देखने निकल पड़े इस वीरान गांव को। हम एक घर की छत पर चढ़ गए जहां से दूर-दूर तक पसरा ये गांव दिखाई दे रहा था। गांव पूरी तरह से बिखरा हुआ था हालांकि कुछ घर बने हुए दिखाई दे रहे थे। जिनको देखकर समझ में आ रहा था कि इन घरों की मरम्मत की गई है। टूटे और इन घरों में अंतर साफ दिखाई दे रहा था। यहां एक मंदिर भी है जिसे बनाया गया है। इस जगह को देश की सबसे भूतिया और डरावनी बताया जाता है। कुलधरा गांव में काफी देर तक रहने के बाद चल दिए सम गांव की ओर।

सफर बाकी है


हम आधा रास्ता तय कर चुके थे। रास्ते में अब हमें गांव मिल रहे थे। इन गांवों को देखते हुए हम आगे बढ़ते जा रहे थे। रास्ते में हमें एक और किला मिला जिसको हमें देखना था लेकिन समय की कमी की वजह से आगे बढ़ गए। जैसा कि मुझे लगता है कि सफर में कुछ जगहें छूट ही जाती हैं। छूटना उस जगह पर वापस लौटने का एक मौका होता है। थोड़ी देर बाद हमें रोड के आसपास रेत दिखाई दी। कुछ देर बाद हमें ऊंट भी दिखाई दे रहे थे। अब हमें लग रहा था कि हम राजस्थान में ही हैं।

सफर ठहर गया है।

फिर से हमारे आसपास पवन चक्कियां आ गईं थीं। हम लग रहा था, हम कुछ देर बाद रेत को देख रहे होंगे। तभी कुछ ऐसा हुआ कि हम सब रोड पर बैठे हुए था। तीन गाड़ियों में एक स्कूटी को जाने क्या हुआ आगे बढ़ ही नहीं रही थी। काफी देर तक हम कोशिश करते रहे लेकिन कुछ हो नहीं रहा था। समय बीतता जा रहा था और गाड़ी सही हो नहीं रही थी। हम सभी लोग दो गाड़ियों में आ सकते थे लेकिन इस गाड़ी को नहीं छोड़ सकते थे। हमने गाड़ी वाले को फोन किया तो उसने भी इसको सम गांव तक लेने जाने की बात कही। अब समस्या थी कैसे ले जाएं?

सुनसान सड़क पर सिर्फ हम ही हम।

तभी हमें एक खेत में कुछ लोग और लोड करने वाली गाड़ी दिखाई दी। दो लोग उनसे बात करने चले गए और बाकी लोग वहीं सुनसान सड़क पर बैठ गए। हम सब परेशान थे, दूर-दूर तक कोई नहीं था। तभी इस टेंशन को दूर किया हमारे दो साथियों ने। बीच सड़क पर अब नाचा जा रहा था। सब कुछ भूल कर हम नाच रहे थे। खाली सड़क पर डांस करूंगा ऐसा अक्सर सोचता था लेकिन जब गाड़ी खराब हुई तो दिमाग में ऐसा कुछ आया नहीं। मैंने सोच लिया था अब अगर कुछ नहीं होता तो डूबते हुए सूरज को यहीं से देखा जाएगा। कम से कम इस पल को, इस नजारे को यादगार बनाया।

सफर है चलता रहेगा।

हमारे दोनों साथी वापस लौटे तो हमें बेफिक्र देखकर बिफर गए। उनमें से एक को लग रहा था कि अगर देर से पहुंचे तो जीप सफारी छूट जाएगी। हम यहां जो करने आए थे, वो नहीं कर पाएंगे। अच्छी बात ये थी कि वो लोडेड कार वाला खराब स्कूटी को कैंप तक लाने के लिए तैयार हो गया। अब हम सब दो गाड़ियों में बैठकर आगे बढ़ गए। शाम होने को थी और जीप सफारी वाले का फोन आ रहा था। हमारी दोनों गाड़ियां हवा से बातें कर रहीं थीं। सूरज धीरे-धीरे नीचे उतर रहा था। वो गोल होकर पीला हो चुका था, बस डूबने ही वाला था। थोड़ी ही देर बाद हम सभी जीप सफारी से सैंड ड्यून्स की ओर जा रहे थे। सफारी बहुत तेज भाग रही थी, इतनी तेज कि मेरी आंख में बार-बार पानी आ रहा था। दूर तलक में सूरज लाल होकर नीचे जा रहा था। थोड़ी देर में हम रेत के बीचों-बीच थे।
शाम होने को है।


रेत ही रेत

गाड़ी हमें रेत के चक्कर लगा रही थी जो बड़ा भयंकर था। रेत के कई चक्कर लगाने के बाद हम ऊंट पर बैठ गए। मैं ऊंट पर बैठना नहीं चाहता था लेकिन पैकेज में था इसलिए बैठ गया। ऊंट पर बैठे ही बैठे हमने आसमान में लालिमा को छाते हुए देखा। एक तरफ आसमान में लालिमा पसरी हुई थी तो दूसरी तरफ चांद दिखाई दे रहा था। उंट की सवारी के बाद हम कैंप में आ गए। यहां हमने राजस्थानी कार्यक्रम देखे, खाना खाकर सो गए। सुबह हम जल्दी उठ गए क्योंकि हमें उगते हुए सूरज को देखना था।

एक बगल में चांद होगा।

कैंप के सामने रोड पर रेत ही रेत थी। ये रेत उस जगह से अच्छी थी जहां हम कल गए थे। यहां हम घंटों रेत में चलते रहे, खेलते रहे। हमने यहां रेस लगाई, उपर से नीचे कूदें और सूरज के उगने का इंतजार किया। मौसम ठंडा था तो उसके आसार कम थे। अचानक से हमें सूरज दिखाई दिया। ऐसा लग रहा था कि कहीं छिपा हुआ था। थोड़ी देर बाद वापस बादल में छिप गया। वापस कैंप लौटे तो चाय पी और तैयार होने लगे वापस जाने के लिए। मुझे और तेज को शेयरिंग जीप से आना था। जिस पर हमने अपनी खराब स्कूटी भी लाद दी। बाकी लोग बाइक से निकल गए थे। थोड़ी देर बाद हम जैसलमेर के लिए निकल गए।

शहर की ओर


वापसी इससे।

हम वापस उसी रास्ते से आ रहे थे जिस रास्ते से गए थे। सुनसान रास्ते और बंजर जमीन को देखते हुए हम आगे बढ़ रहे थे। अब ये रास्ते अनजान नहीं रह गए थे। ये रास्ते हम सबके अपने-अपने किस्सों और यादों में बस चुके थे। जब भी हम जैसलमेर की बात करेंगे, उसे याद करेंगे तो इन रास्तों को भी याद करेंगे। कुछ घंटों के सफर के बाद हम जैसलमेर के अपने होटल के कमरे में थे। अब हमें वापस लौटना था लेकिन लौटने से पहले हम एक जगह और जाना चाहते थे, गड़ीसर लेक।

गड़ीसर झील



जहां हम ठहरे थे वहां से गड़ीसर झील 1 किमी. की दूरी पर थी। हममें से कुछ लोग थक चुके थे सो वो होटल में आराम करने के लिए रूक गए। बाकी हम लग झील देखने के लिए पैदल चल पड़े। पैदल चलते-चलते बातें करते हुए हम गड़ीसर लेक के पास पहुंच गए। लेक से पहले एक बहुत बड़ा गेट बना हुआ है, जो बिल्कुल महल की तरह ही लगता है। उसके अंदर जाकर हम एक जगह बैठ गए। झील के आसपास काफी भीड़ थी और बहुत सारे लोग झील में बोटिंग कर रहे थे। हममें से किसी को बोटिंग करने का मन नहीं था।

पधारो म्हारे देश।

जब सिंचाई करने के लिए आज जैसी तकनीकें और मशीनें नहीं थी तब सिंचाई के लिए राजा महरावल गडसी ने इसे बनवाया था। उन्हीं के नाम पर इसका नाम पड गया गड़ीसर लेक। झील के बीचों बीच मंदिर जैसा कुछ बना हुआ है। यहां बैठकर सुकून मिल रहा था। हमारा सफर पूरा हो चुका था, अब हमें लौटना था। लौटना यात्रा का उतना ही बड़ा सच है जितना यात्रा में होना। जैसलमेर का सफर हमारे लिए खूबसूरत और कठिन दोनों ही रहा। इस शहर को एक बार में नहीं देखा जा सकता, यहां बार-बार आना चाहिए। ऐसा ही वादा मैंने इस शहर और अपने आप से किया है।

Saturday 21 March 2020

जैसलेमरः इससे खूबसूरत और प्यारा शहर दूजा नहीं

यात्रा का पिछला भाग यहां पढ़ें।

कई बार ऐसा होता है जब हम किसी जगह को देखकर बहुत खुश होते हैं। लगता है ये वास्तविक नहीं है। इसे किसी चित्रकार या कलाकार ने बनाया है। इसलिए जहां नजर फेरो सब कुछ खूबसूरत लग रहा है। जब मैं जैसलमेर की गलियों में चल रहा था तब मैं ऐसा ही कुछ अनुभव कर रहा था। मैंने इससे खूबसूरत शहर आज तक नहीं देखा था। लग रहा था कि मैं राजाओं वाले वक्त में पहुंच गया हूं। जहां हर घर भव्य और शाही होता था। जैसेलमेर की हर गली, हर घर किले और महल की तरह दिखाई देता है। शायद यही वजह है कि इसे स्वर्ण नगरी कहते हैं।


अजमेर से हम जैसलमेर बस से जा रहे थे। रात हमने बातें और आराम करते हुए निकाली। 8 घंटे के सफर के बाद हम जैसलमेर पहुंचने वाले थे। हम आपस में रूकने और जैसलमेर घूमने की बातें कर रहे थे। तभी एक जनाब हमसे बोले, आपको सस्ते में रूम चाहिए तो बताइए? काफी मोल-भाव के बाद हमने बस में ही बात पक्की कर ली। थोड़ी देर बाद हम जैसलमेर के चौराहे पर खड़े थे। इस शहर को पहली बार आंख से देख रहा था। आसपास सब कुछ पीला-पीला लग रहा था। अब तक राजस्थान के जिन शहरों में गया था वहां जगह कम और भीड़ बहुत देखी थी। इस जगह को देखकर लग रहा था कि खूब बड़ा शहर है और सुबह थी इसलिए भीड़ के बारे में पता नहीं था।

सोने-सा शहर


बस में जिससे बात हुई थी वो अपनी गाड़ी से हमें अपने होटल ले गया। हमने होटल को बाहर से देखा तो लगा कि होटल में नहीं किसी हवेली में जा रहे हैं। बाहर से जितना अच्छा लग रहा था, अंदर भी उतना ही बढ़िया था। हमने अपने कमरे लिए और तैयार होने लगे। कुछ देर बाद तैयार होकर हम होटल की छत पर थे। यहां से पहली बार मैंने जैसलमेर शहर और किला देखा। जैसलमेर किला थोड़ी ऊंचाई पर था। यहां से सब कुछ एक जैसा दिख रहा था। सभी घरों की बनावट, रंगत सब एक जैसा। होटल के मालिक ने बताया, ऐसा इसलिए है क्योंकि यहां ऐसा ही पत्थर होता है। थोड़ी देर यहां रूकने के बाद हम बाइक रेंट पर लेने गए।

खूबसूरत दुनिया।

हमने तय किया था कि इस शहर को हम बाइक से देखेंगे। थोड़ी देर बाद हम ऐसी ही एक दुकान पर बैठे थे। हमने वहां से एक बाइक और दो स्कूटी ले ली। हमने एक दिन के लिए ये रेंट पर लिए। हम अगले दिन दोपहर तक यहीं वापस लानी थी। हममें से किसी के पास ड्राइविंग लाइसेंस नहीं था। हमने बाइक वाले से पूछा तो उसने बताया कि यहां चेकिंग नहीं होगी। हम बिना किसी चिंता के अब जैसलमेर की सड़कों पर थे। सबसे पहले हम पहुंचे जैसलमेर किला।

जैसलमेर किला


हम जैसलमेर किला बाइक से कुछ ही मिनटों में पहुंच गए। किले के बाहर स्ट्रीट फूड के कुछ ठेले लगे हुए थे। हमने सुबह से कुछ खाया भी नहीं था। हम सबने यहां के स्ट्रीट फूड का स्वाद लिया। इसमें ऐसा कुछ नहीं था जिसे हमें राजस्थानी स्ट्रीट फूड कह सकें। अब हम जैसलमेर किले के अंदर जाने के लिए तैयार थे। जैसलमेर किले में घुसेंगे तो आप पहले अंदर लगने वाली दुकानों को देखेंगे। कुछ देर बाद हम जैसलमेर के किले के अंदर थे। इस किले को सोनार किला भी कहते हैं। ये राजस्थान का दूसरा सबसे पुराना किला है। किले के अंदर लोगों के घर हैं, दुकानें हैं। ऐसा इस किले के अलावा एक जगह और है, चित्तौड़ के किले में।

किले का प्रवेश द्वार।

इस किले को 1156 में भाटी राजा महारावल जैसल ने बनवाया था। इन्होंने ही इस शहर की स्थापना की थी। उन्हीं के नाम पर इस जगह का नाम जैसलमेर पड़ा। जैसेलमेर यानी कि जैसल का पहाड़ी किला। त्रिकुटा हिल पर बना ये किला 250 फीट उंचा है और इसमें 99 दुर्ग हैं। जैसलमेर किले के चार प्रवेश द्वार हैं- गणेश पोल, अक्षय पोल, सूरज पोल और हवा पोल। हम किले के अंदर राजमहल को देख रहे थे। सब कुछ खूबसूरत और भूलभुलैया की तरह लग रहा था। एक कमरे शीशे से बंद था। शीशे के उस तरफ बेड, कुर्सियां और बहुत बड़ी पोशाक थी। पोशाक इतनी बड़ी थी कि उसमें मुझ जैसे चार लोग आ जाएं। आगे एक जगह पर एक पत्थर पर पूरे किले को उकेरा गया था। उसको देखते हुए हम राजमहल के अंदर ही एक खूबसूरत गली में आ गए। ये रास्ता मुझे फिल्मों में देखे अरब देश की तरह लग रही थी। थोड़ी देर में हमने पूरा राजमहल देख लिया।

खूबसूरत तो ये गलियां हैं


अब हम किले के अंदर की गलियों में घूम रहे थे। यहां का हर घर किले की तरह लग रहा था। गलियां बेहद पतली लेकिन खूबसूरत लग रही थीं। घरों के बाहर सभी ने किसी न किसी की दुकानें लगाई हुईं थी। कपड़े, ज्वैलरी और पेंटिंग्स ये सब गलियों को खूबसूरत बना रहे थे। हम कुछ ले नहीं रहे थे लेकिन देखते जा रहे थे। कुछ देर बाद हम जैन मंदिर के बाहर खड़े थे लेकिन हम अंदर नहीं गए। हमें किले और मंदिरों से ज्यादा खूबसूरत यहां की गलियां लग रही थीं। इन गलियों में चलते रहने का मन हो रहा था, यहां गुम होने का मन था। ऐसे ही चलते-चलते हम ऐसी जगह पहुंचे। जहां रास्ता खत्म हो गया था लेकिन हमें यहां से जैसलमेर दिखाई दे रहा था।

इन गलियों में है असली जैसलमेर।

लौटते हुए हम दो ग्रुप में बंट गए। हम अब तोप देखने जा रहे थे। गलियों और घरों की नक्काशी को देखते हुए हम उस जगह पहुंचे, जहां तोप रखी हुई थी। यहां से पूरा जैसलमेर दिखाई दे रहा था। सब कुछ एक जैसा पिंक सिटी भी इतनी पिंक नहीं थी जितना ये शहर गोल्डन है, थोड़ी देर हम यहीं बैठ गए। कभी-कभी शहर बहुत जल्दी समझ नहीं आता, उसे समझने के लिए उसके साथ रहना पड़ता है, पास बैठना पड़ता है। थोड़ी देर बाद हम सब जैसलमेर किले के बाहर थे।

पधारो म्हारे देश

अंदर जाने का  परमिट।

किले से कुछ ही दूर पर हवेलियां है। जिनसे जैसलमेर का इतिहास जुड़ा हुआ है। उनमें एक हवेली है पटवा की हवेली। संकरी गलियों और लोगों से पूछते हुए हम पटवा हवेली पहुंच गए। पटवा सिल्क रूट के व्यापारी थे। उन्होंने ही इस हवेली को बनवाया था। जिसे पूरा होने में 60 साल लगे। इन हवेलियों में से एक पुरात्व सर्वेक्षण के अधीन है और बाकी में पटवा के बेटे रहते हैं। हवेली के बाहर ही एक व्यक्ति हरमोनियम से गा रहा था, ‘केसरिया बालमो, पधारो म्हारे देश’। इस फेमस लोकगीत को सुनते ही राजस्थान याद आता है और हम तो थे ही राजस्थान में।

पटवा हवेली से बाहर का नजारा।

पटवा हवेली के अंदर जाने के लिए टिकट लेना पड़ता है। भारतीयों के लिए टिकट 50 रुपए का है और विदेश से आने वालों के लिए 250 रुपए। विधार्थियों के लिए टिकट पर छूट थी सिर्फ 5 रुपए। किस्मत से हम स्टूडेंट थे सो हमें बहुत फायदा हुआ। हमने टिकट लिया और पटवा हवेली को देखने लगे। पटवा हवेली तीन मंजिला है। पटवा हवेली की वास्तुकला देखने लायक है। ये बाहर से तो खूबसूरत लगती ही है, अंदर भी उतनी ही अच्छी नक्काशी है। हम इसकी छत तक गए और यहां से फिर से शहर को देखा। यहां से भी किला दिखाई दे रहा था। इन हवेलियों वाली गलियों को देखकर लग रहा था कि मैं टीवी वाले द्वारका में आ गया हूं। जिसे बचपन में मैंने महाभारत एपिसोड में देखा था। वैसे ही सुंदरता को देखकर मैं मन ही मन बहुत खुश था।

नाथमल की हवेली।

पटवा हवेली को देखकर हम नाथेमल हवेली को देखने चल दिए। पटवा हवेली से नाथेमल हवेली ज्यादा दूर नहीं है इसलिए हम पैदल ही चल दिए। रास्ते में कोई स्थानीय नेता चुनाव प्रचार कर रहा था। बैंड-बाजे के साथ जैसलमेर की गलियों में घूम रहा था। हमारे कुछ साथी पूरे मूड में थे, वे वहीं नाचने लगे। कुछ देर बाद हम नाथेमल हवेली के आगे खड़े थे। ये हवेली बाहर से बहुत खूबसूरत लग रही थी। हवेली के बाहर दोनों तरफ हाथी की मूर्ति बनी हुई है। जो इस हवेली को बाहर से और सुंदर बना रहा था। इस हवेली को 1885 में महारवल बेरिसाल ने बनवाई थी। जिसे उन्होंने अपने दीवान नाथमल को रहने के लिए दे दी थी। अभी इसमें नाथमल की सातवीं पीढ़ी रहती है। इसलिए हमें अंदर नहीं जाने दिया और हम बाहर से ही नाथमल हवेली को देखकर आगे बढ़ गए।

एक को छोड़कर हम सब।

हम बहुत देर से जैसलमेर में घूमे जा रहे थे। हमें शाम तक जैसलमेर से दूर रेत तक पहुंचना था। बीच में कुछ और जगहें भी देखनी थीं। जैसलमेर शहर में कुछ जगहें देखने के लिए रह गई थीं। इन जगहों को हमने कल के लिए छोड़ दिया। हमें शहर से निकलना था। निकलने में एक उम्मीद रहती है, कुछ ढूढ़ने की, रास्ता भटकने की। आगे का सफर हमारे लिए ऐसा ही कुछ होने वाला था। हम थोड़ा परेशान होने वाले थे, थोड़ा हताश। शायद यही तो घुमक्कड़ी है और जिंदगी भी, कभी छांव तो कभी धूप।

आगे की यात्रा यहां पढ़ें।

Tuesday 17 March 2020

अजमेर: इस शहर को हमने सबसे खूबसूरत जगह से देखा!

यात्रा का पिछला भाग यहां पढ़ें।

हम किसी जगह पर घूमने क्यों जाते हैं? उस जगह की खूबसूरती को देखकर, कुछ फेमस चीज की वजह से या फिर हमें वो शहर देखना होता है। आजकल शहर को देखने कम ही लोग जाते हैं। लोग जाते हैं तो उस शहर की फेमस जगहों को देखने। हमारा पुष्कर का सफर पूरा हो चुका था और हम अजमेर आ चुके थे। अजमेर को मैंने अजमेर शरीफ की दरगाह और अढाई दिन के झोपड़े से ही जाना था। ये सब मैंने किताबों में पढ़ा था और जब मैं उस शहर में था तो मन किया कि किताबों में पढ़ी इमारतों को हकीकत में देख लेते हैं। अफसोस इस शहर में होने के बावजूद हम इन दोनों को ही नहीं देख पाने वाले थे। शायद यही तो है घुमक्कड़ी। जैसा हम प्लान करते हैं, कई बार वैसा नहीं होता है। अजमेर की यात्रा हमारे लिए वैसा प्लान था।


हम लोग अजमेर बस स्टैंड पर खड़े थे। यहां से हममें से एक का सफर पूरा हो चुका था और अपनी नौकरी वाली जिदंगी में लौटने जा रही थी। कुछ देर बाद बस से वो कहीं दूर निकल गई। हम सब अजमेर घूमने वाले थे ये तो तय हो गया था लेकिन अजमेर के बाद कहां जाना है? ये अभी तक हम तय नहीं कर पाए थे। कुछ लोग कुंभलगढ़ जाना चाहते थे और कुछ जैसलमेर। मैं कुंभलगढ़ जाने के पक्ष में था लेकिन आखिरी में सबकी राय एक हुई और जगह पक्की हुई, जैसलमेर।

अब हम अजमेर देखने के लिए तैयार थे। हम पहले अजमेर शरीफ, अढ़ाई दिन का झोपड़ा या तारागढ़ फोर्ट जा सकते थे। तारागढ़ फोर्ट दूर था तो हमने सबसे पहले वहीं जाने का तय किया। तारागढ़ फोर्ट कोई बस तो नहीं जाती लेकिन जीप जाती है। तारागढ़ फोर्ट के लिए शेयरिंग जीप डिग्गी बाजार से मिलती है, हमें ये यहां के स्थानीय लोगों ने बताया। हमने डिग्गी बाजार के लिए टैक्सी ली। शहर को देखते हुए हम आगे बढ़ते जा रहे थे। अजमेर, राजस्थान के बाकी शहरों की तरह नहीं है। मुझे ये शहर, यहां के लोग उत्तर प्रदेश और हरियाणा की तरह दिखाई दे रहा था। बीच में एक जगह फ्लाई ओवर का काम चल रहा था। जिससे रास्ते में जाम जैसी स्थिति हो गई थी। कुछ मिनटों की मशक्कत और ऑटो चालक की चालाकी ने हमें जाम से निकालकर डिग्गी बाजार पहुंचा दिया।

दाल पकवान।

डिग्गी बाजार से तारागढ़ फोर्ट की दूरी लगभग 12 किमी. है। यहां कई जीपें लगी हुईं थी जो शेयरिंग में जा रहीं थीं। हमको तारागढ़ जाना था लेकिन उससे पहले हमें कुछ खाने की जरूरत थी। हमने सुबह से कुछ नहीं खाया था और भूख भी बहुत तेज लगी थी। वहीं पास में कुछ ठेले लगे थे, गर्म-गर्म पूड़ी निकल रही थीं। घूमते समय हम खाना खोजते तो हैं लेकिन उसके लिए बड़े-बड़े होटल और रेस्टोरेंट नहीं जाना पड़ता। ऐसे ही किसी गली-कूचे पर मिलने वाले पकवान ही हमारी भूख मिटाते हैं। गर्म-गर्म पूड़ी बन रहीं थी, हमने सबसे पहले उसे ही मंगवाया। थाली में गर्म-गर्म पूड़ी, साथ में आलू की सब्जी, चटनी और सलाद। गर्म-गर्म पूड़ी-सब्जी और वो भी पेड़ के नीचे। पूड़ी-सब्जी और दाल पकवान के बाद हम जाने के लिए तैयार थे।

तारागढ़ फोर्ट

किला नहीं दरगाह।

हमारे जीप में बैठते ही जीप चलने को तैयार थी। कुछ ही देर बाद हम अजमेर से निकलकर तारागढ़ के रास्ते पर थे। तारागढ़ फोर्ट अजमेर से काफी ऊंचाई पर स्थित है। रास्ता कुछ वैसा ही जैसे देहरादून से मसूरी तक का है। गाड़ी बार-बार चक्कर लगाए जा रही थी। लगभग 1 घंटे में हमें गाड़ी ने उतार दिया। जहां हम उतरे वहां कोई किला तो नजर नहीं आ रहा था। हमें सामने एक बोर्ड नजर आया। जिस पर लिखा था, ‘दरगाह हजरत मीसां आपका स्वागत करती है’। हम उसी दरगाह की ओर चल दिए। हम गलियों से होकर आगे बढ़ रहे थे। पहले हमें बहुत सारी दुकानें मिलीं, जहां फूल और चादर मिल रही थी। हमें कुछ नहीं लेना था इसलिए आगे बढ़ गए।

दरगाह के भीतर।

एक जगह हमने अपना सामान और जूते रखे। कुछ देर बाद हम उस दरगाह के अंदर थे। जैसे मंदिर में होता है यहां भी आपको कुछ लोग पकड़ने आएंगे, पैसे ऐंठना चाहेंगे। धर्म कोई भी हो लोग एक जैसे ही होते हैं। मंदिर में भी वही होता है और मस्जिद में भी। बहुत सारे लोग चादर चढ़़ाने जा रहे थे तो कुछ लोग वहीं बैठे थे। हममें से कुछ लोग वहीं बैठ गए और कुछ अंदर चले गए। हमें ले जाने के लिए एक शख्स आया तो हमने मना कर दिया। ये वैसा ही कुछ था जो कोलकाता के कालीघाट मंदिर में हुआ था। अंदर पहुंचा तो मजार थी जिसके आसपास कुछ लोग बैठे थे। मजार वाकई खूबसूरत थी, लग रहा था कि हीरे-जवाहरात से बना कुछ देख रहा हूं। इस खूबसूरत मजार को देखकर जल्दी ही मैं बाहर आ गया।

चलें, बहुत दूर



कुछ देर तक इस दरगाह में घूमने के बाद हम बाहर निकल आए। अब वापस जाना था लेकिन जिस रास्ते से आए थे, उससे नहीं जाना चाहते थे। हमें पैदल रास्ता मिल गया जो दरगाह के पीछे से थे। हम उसी तरफ बढ़े तो कुछ देर बाद हमें वो रास्ता मिल गया। हम अब नीचे की ओर उतरना था। रास्ते में कई दुकानें भी मिल रहीं थीं। उन्हीं में से एक से एक टेप रिकाॅर्डर में अजीब और वाहियात चीज बताई जा रही थी। जिसमें कहा जा रहा था कि अगर आपकी औलाद नहीं हो रही है तो यहां आएं। इस वाहियाद चीज को सुनते हुए हम आगे बढ़ गए। हमारे कुछ साथी फोटो खींचने के चक्कर में काफी पीछे हो गए थे। हम उनके इंतजार के लिए एक जगह बैठ गए। हम जहां बैठे थे वहां से एक और रास्ता दिखाई दे रहा था।

आओ चलें।

ये रास्ता वहीं जा रहा था जहां ये सीढ़ियों वाला रास्ता पहुंच रहा था। इस रास्ते में पत्थर थे, जंगल था और पगडंडियां। मैं इस रास्ते की ओर बढ़ गया। कभी-कभी रास्ता छोड़कर पगडंडियों पर चलना चाहिए। पगडंडियां नये अनुभव देती हैं और गुंजाइश रहती है कुछ नया मिलने की। कुछ देर कंटीले और छोटे रास्ते पर चलने के बाद हम एक पहाड़ी पर पहुंच गए। यहां से बेहद खूबसूरत नजारा दिखाई दिया। आगे का रास्ता और कठिन था, अब हमें सीढ़ीनुमा पत्थरों से नीचे उतरना था। ये रास्ता कठिन था और मैं नहीं चाहता था कि बिना वजह किसी को कोई चोट आए। मगर मेरे सभी साथी इसी रास्ते से जाना चाहते थे। आखिरकार हम उसी कठिन रास्ते से जाने का तय किया। हम आराम-आराम से धीरे बढ़ते गए। जब तक सभी साथी एक जगह नहीं पहुंचते थे, हम आगे नहीं बढ़ते थे। धीरे-धीरे संभल-संभलकर हम आखिरकार नीचे पहुंच गए।

फिर से चढ़ाई

बढ़ना मगर संभलकर।

सभी लोग थक चुके थे। थोड़ी देर आराम किया और वहीं लगी दुकान पर नींबू-पानी पिया। वैसे तो अब हमें नीचे उतरना था लेकिन सबने दूसरी तरफ वाली पहाड़ी पर जाने का प्लान किया। हम एक घूमने वाले अच्छे-से शहर में टेकिंग करने जा रहे थे। हमने सोचा भी नहीं था कि हम अजमेर में पहाड़ चढेंगे लेकिन अब चढ़ रहे थे। कुछ देर बाद हम थक कर एक जगह बैठे हुए थे। कभी-कभी लगता है शहर देखना आसान है और पहाड़ चढ़ना कठिन। मगर बाद में जब उस जगह पर पहुंचता हूं तो थकावट सुकून में बदल जाती है। ऐसे ही कई सफर ने मुझे सुकून दिया है। अजमेर की चढ़ाई वो टेकिंग वाली चढ़ाई नहीं है। मगर हम जहां जा रहे थे, वहां न तो कोई रास्ता था और न ही कोई जाता है। इसलिए हमें थोड़ी परेशानी हो रही थी। ऐसे ही रास्ता बनाते हुए कुछ देर में हम अजमेर के सबसेे ऊँची जगह पर थे।

खूबसूरत अजमेर


कुछ देर सब एक जगह बैठकर शहर को तांकते रहे। सबसे ऊंची जगह से शहर बहुत खूबसूरत लगता है। यहां से बड़ी-बड़ी इमारतें भी बौनी नजर आती हैं, सब कुछ छोटा नजर आता है। यहां से न तो उस शहर का शोर सुनाई देता है और न ही भीड़ नजर आती है। इन बड़े शहरों को दूर से देखना ही अच्छा लगता है। पास जाते हैं तो ये बड़े शहर अपना असली रूप दिखा देते हैं। यहां से हमें पूरा अजमेर, तारागढ़ फोर्ट, जंगल और पहाड़ नजर आ रहे थे। हमें वो झील भी दिखाई दे रही थी, जहां हमें जाना था। हम घंटों यहां बैठते रहे। कुछ देर हम साथ बैठे तो कुछ देर अकेले। मैं कभी शहर को देख रहा था तो कभी खुद के बारे में सोच रहा था।

जरा ठहर लेते हैं।

काफी देर तक एक जगह पर बैठे-बैठै वक्त का पता ही नहीं चला। शाम होने को थी और हम अब भी मान रहे थे कि हमें अजमेर शरीफ जाना है। अब हमारे पास दो रास्ते थे। एक तो जिससे आए थे और दूसरा, बढ़ते हैं कहीं तो पहुंचेगे। हम बढ़ गए उस ओर जहां से हम नहीं आए थे। हम चलते जा रहे थे और दूर-दूर तक कोई नहीं दिखाई दे रहा था। रास्ते में चरती हुई बकरियां मिलीं और आगे बढ़े तो चरवाहे। उनके पास कुछ देर बैठे और बात की। उन्होंने बताया कि वे यहीं पास के एक गांव के हैं। उन्होंने ही हमें नीचे जाने का रास्ता बताया। उनके कहे रास्ते पर हम नीचे उतरने लगे।

चढ़ना कठिन या उतरना


जंगल के बीच से।

चलते-चलते कुछ देर बाद हम जंगल में आ गए। हमें रास्ता तो मिल नहीं रहा था लेकिन कांटे जरूर बहुत मिल रहे थे। हम उनको ही पार करते हुए बढ़ रहे थे। एक जगह हमें रास्ता नहीं मिला तो सूखी नहर में उतर गए। सोचा ये तो हमें नीचे पहुंचाएगी। हमें चलते जा रहे थे लेकिन नीचे नहीं पहुंच पा रहे थे। ऐसे ही उतरते-उतरते हमने सूरज को डूबते हुए देखा। सूरज डूबा था लेकिन हम अभी भी चले जा रहे थे। कुछ देर बाद हम एक मजार के पास बैठे थे। हम नीचे आ चुके थे लेकिन चलना अभी खत्म नहीं होने वाला था। ऑटो के लिए हम अजमेर की गलियों में चलते जा रहे थे। गलियों में भीड़ तो बहुत मिल रही थी लेकिन ऑटो नहीं मिल रहा था। हम पूरी तरह से थक चुके थे, हमारे पैर जवाब दे रहे थे। हम चाहकर भी नहीं रूक सकते थे, हमें आगे बढ़ना ही था।

अजमेर शरीफ।

चलते-चलते हमें अढ़ाई दिन का झोपड़ा मिला और फिर अजमेर शरीफ। जिसको देखने लोग अजमेर आते हैं हमने वो सिर्फ दूर से देखा। बिना किसी गुरेज के हम आगे बढ़ गए। जब हमने जैसलमेर के लिए बस पकड़ी तब तक पूरी तरह से थक चुके थे। हम बस सोना चाहते थे और जैसलमेर का ये सफर हमारे लिए वही आराम बनने वाला था। अजमेर को अजमेर शरीफ के लिए जाना जाता है लेकिन मुझे याद रहेगा दाल पकवान के लिए। मुझे याद रहेगा उस जगह के लिए जहां से पूरा अजमेर दिखता है। कभी-कभी शहर को नए तरीके से देखना चाहिए और हमारा ये सफर यही कुछ बयां करता है।

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