Monday 6 December 2021

बुंदेलखंड के अनछुए अम्मरगढ़, समथर और लोहागढ़ किले की बेहतरीन रोड ट्रिप

मुझे हमेशा से इस बात का मलाल रहा है कि मैं जगह-जगह पर घूमने जाता हूँ लेकिन अब तक अपने बुंदेलखंड को सही से नहीं देख पाया हूं। बुंदेलखंड को घूमने के नाम पर अब तक मैं ओरछा, खजुराहो और गढ़कुण्डार ही गया हूं। इन सबके अलावा बुंदेलखंड में ऐसे अनगिनत किले हैं जिनके बारे में कम लोगों को ही पता है। खुशकिस्मती से मुझे इनमें से कुछ के बारे में पता है। अपने मलाल को दूर करने के लिए बुंदेलखंड के कुछ किलों को देखने के लिए निकल पड़ा।

रोड ट्रिप

रोड ट्रिप मुझे हमेशा से पसंद आती है। ये आपको आजादी देने का काम करती है। मैंने इस रोड ट्रिप में अपने भाई को भी शामिल कर लिया। हमारी यात्रा झांसी की एक छोटी सी जगह गरौठा से शुरु हुई। हमने सबसे पहले अम्मरगढ़ किले को देखने के बारे में सोचा है। मुझे इसके बारे में सिर्फ इतना पता था कि ये मोंठ के आसपास है। हम गाँव के रास्ते से होते हुए बढ़ते जा रहे थे। दोनों तरफ खेत थे जिनमें थोड़ी-थोड़ी हरियाली आई थी।

जहाँ हमें आगे का रास्ता समझ नहीं आता था स्थानीय लोगों से पूछ लेते। यहाँ के लोग ही मेरे लिए गूगल मैप थे। कुछ देर बाद हम एक तिगैला पर पहुँचे। यहाँ पर एक समोसे का ठेला लगा हुआ। मुझे अपनी खजुराहो की यात्रा याद आ गई, जब मैंने पांडव फॉल जाते हुए ऐसी ही किसी दुकान पर समोसा खाया था। यहाँ के समोसे में नमक थोड़ा ज्यादा लग रहा था।

नदी

हम फिर से अपने रास्ते पर चल रहे थे। कुछ देर बाद हम खिरका घाट पर पहुँचे। घाट के नीचे कई जगह नदी का पानी रुका हुआ था लेकिन कुछ जगहों पर तेज धार पर चल रही थी। सुबह-सुबह नदी की कलकल करती आवाज को सुनकर अच्छा लग रहा था, एक मधुर ध्वनि की तरह। कुछ देर नदी किनारे पत्थरों पर बैठने के बाद हम आगे बढ़ गए।

कुछ समय बाद हम मोंठ में खड़े थे लेकिन हमें किले के बारे में पता नहीं था। लोगों से पूछा तो उन्होंने बताया कि मोंठ से 10 किमी. की दूरी पर अम्मरगढ़ गाँव में ही किला है। कुछ देर हम हाईवे पर बढ़े जा रहे थे। हाईवे से ही किला दिखाई दे रहा था। जब हम उस गाँव में पहुँचे तो पता चला कि इसे अमरा गाँव के नाम से जाना जाता है।

अम्मरगढ़ किला

गाँव के बीच में ही एक मंदिर के बगल से हमने रास्ता ले लिया। इस रास्ते पर चलकर लग रहा था कि हम किसी जंगल में जा रहे हैं। कुछ देर बाद किला एक बड़ा सा गेट दिखाई दिया। जंगलों के बीच से होकर हम किले के दरवाजे पर पहुँचे। बाहर से देखने पर लग रहा था कि किला काफी बड़ा है। ये किला पहाड़ी के पत्थरों पर बनाया गया था।

अमरगढ़ किला लगभग 250 साल पुराना है। इस किले को राजा अमर मल ने बनवाया था और उन्हीं के नाम पर इस किले का नाम रखा गया था। किले के बाहर इस किले का कोई बोर्ड या उसकी जानकारी नहीं मिली। एक छोटे से गेट से हम अंदर घुसे और सीढियों से आगे बढ़ने लगे। किले के अंदर पहुँचे तो चारों तरफ घास ही घास दिखाई दे रही थी।

जंगल है या किला

किले में ही धूप सेंक रहे बाबाजी ने बुलाया और अम्मर गुरू मंदिर के दर्शन कराए। उन्होंने बताया कि ये मंदिर आल्हा और ऊदल के गुरु का है। मंदिर को देखने के बाद आगे बढ़े तो किले में ही एक जगह पर बाबा जी का चूल्हा बना हुआ था। आगे बढ़े तो बड़ी-बड़ी घास के बीच से चलना पड़ा। उसके बाद किले की इमारत आई।

किला कहीं से जर्जर या खंडहर नहीं हुआ था लेकिन रखरखाव बिल्कुल भी नहीं था। यहाँ आकर मुझे काफी बुरा लग रहा था कि इतना अच्छा किला जंगल में बदलता जा रहा है। यहाँ तक कि किले की छत पर भी घास ही घास थी। किले के सबसे नीचे वाले तल में कूड़े का ढेर पड़ा हुआ था। सबसे ऊपरी तल की दीवारों पर लोगों ने अपनी और अपने प्यार की निशानी दी हुई थी। तीन मंजिल के इस किले की हालत वाकई खराब थी।  

फिर से सफर

इस किले के बाद हमारा अगला लक्ष्य मोंठ का किला और समथर किले को देखना था। कुछ देर बाद हम मोंठ कस्बे में घूम रहे थे। कुछ देर बाद हम एक चौराहे पर रुके और मिठाई बाले से मोंठ किले के बारे में पूछा तो पता चला कि किला पीछे छूट गया है। यहाँ से आगे समथर का रास्ता जाता है।

उस मिठाई वाले ने जवाब देने के बाद कहा कि आप ऋषभ देव है न। मैंने कहा हाँ, तुम नवोदय से हो क्या?  पता चला कि जब मैं नवोदय में 12 में था वो कक्षा 8 में था। इस मुलाकात के बाद हमने सोचा कि पहले समथर किला चलते हैं लौटते हुए इस किले को देखा जाएगा। मोंठ को छोड़कर हम समथर की ओर चल पड़े। मोंठ से समथर 15 किमी. है लेकिन रास्ता इतना खराब था कि गाड़ी तेज चला ही नहीं पा रहा था। कुछ मिनटों का रास्ता हमने घंटे भर में पूरा किया।

समथर किला

समथर भी एक छोटा सा कस्बा है। लोगों से पूछते हुए हम समथर किले के पास जा रहे थे। जब हम बाजार में थे तो दूर से ही किला दिखाई दे रहा था। समथर पहले बुंदेलखंड की एक छोटी-सी रियासत हुआ करती थी। दतिया के महाराजा के शासनकाल में समथर में गुर्जर राज्य की स्थापना हुई। समथर की किलेदारी मर्दन सिंह को सौंपी गई। बाद में समथर एक अलग रियासत बन गई।

इस किले के कुछ हिस्से में राजा और उनका परिवार रहा करता है। हम किले के अंदर गए तो देखा कि जहाँ राजा का परिवार रहता है वहाँ तो सब कुछ बेहतरीन है। किले के पीछे तरफ भी बहुत सारी इमारतें बनी हुई हैं लेकिन वहाँ आपको गंदगी और जंगल मिलेगा। इस किले के अंदर एक स्कूल भी चलता है।

किले में जहाँ राजघराना रहता है वहाँ जाने की मनाही है और जहाँ घूमा जा सकता है वहाँ सब कुछ जर्जर हो चुका है। अमरगढ़ किले की तरह यहाँ भी किले के बारे में कोई जानकारी नहीं दी गई थी। जब हम मोंठ मे थे तो एक बोर्ड पर लोहागढ़ किले का नाम पढ़ा। समथर के बाद हमने उसी किले को देखने का मन बनाया।

एक और किला


समथर छोड़कर हम हाईवे पर दौड़े जा रहे थे। मुझे लगा कि इस रास्ते से हम कुछ मिनटों में ही अपनी मंजिल पर पहुँच जाएंगे लेकिन ये मेरी गलतफहमी थी। हमारी स्पीड फिर से धीमी हो गई थी क्योंकि टूटे-फूटे रास्ते से होकर हम गुजर रहे थे। हमें ये भी नहीं पता था कि लोहागढ़ किला कितना दूर है। रास्ते में लोगों से पूछते हुए चले जा रहे थे। कुछ देर बाद दूर से एक पहाड़ी पर बेहद पुरानी छोटी सी इमारत दिखाई दी थी।

लोहागढ़ का किला लोहागढ़ गाँव में स्थित है। कुछ देर बाद हम गाँव से होते हुए किले तक पहुँच गए। ये किला एक कोठी की तरह लग रहा था जिसमे कुछ कमरे थे और एक छत थी। किले रुपी इस इमारत में एक पेड़ भी लगा हुआ था। कमरे में कुछ गड्ढे भी थे। हमने अंदाजा लगाया कि खजाना खोजने के लिए लोगों ने खुदाई की होगी।

लोहागढ़ की छत से पूरा गाँव और हरे-भरे खेत दिखाई दे रहे थे। किला बहुत छोटा था और जर्जर भी बहुत था। इंटरनेट पर जब लोहागढ़ किले के बारे में पता किया तो दूसरों राज्यों के लोहागढ़ किले के बारे में दिखाई दे रहा था लेकिन इस लोहागढ़ के बारे में कोई जानकारी थी। इस किले में हमें कोई दिखाई भी नहीं दिया, जिससे हम ये सब पूछ सकते।

इस किले को देखने के बाद हम वापस लौट चले। हमें मोंठ का किला देखना था लेकिन वक्त की कमी की वजह से हमने अगली बार के लिए टाल दिया। इस रोड ट्रिप में हमने बुंदेलखंड के तीन अनछुए किलों को देखा। किलों ही हालत देखकर निराशा जरुर हुई लेकिन इन किलों को देखा जाना चाहिए क्योंकि यही हमारी धरोहर हैं।

Sunday 7 November 2021

जयपुर 2: दोस्तों के साथ कुछ नई तो कुछ देखी हुई जगहों को किया एक्सप्लोर

अगले दिन उठे तो पता चला कि जयपुर में इंटरनेट बंद हो गया है। हमारे होटल में वाई फाई तो हमें काम करने में कोई दिक्कत नहीं होने वाली थी। अगले दिन सब लोगों ने घूमने से मना कर दिया। मैं और दया भाई बिना इंटरनेट के घूमने निकल पड़े। हमने गलता जी मंदिर जाने का प्लान बनाया। हमने लोकल बस ली और उसके बाद ई-रिक्शा। जिसने हमें उस जगह पहुँचा दिया, जहाँ से हमें गलता जी मंदिर के लिए चढ़ाई करनी थी।

हमें हरे-भरे जयपुर के नजारे देखते हुए चढ़ाई करने लगे। पहले चढ़ाई की और फिर बहुत नीचे उतर गये। नीचे जाकर पता चला कि इस रास्ते से गलता जी मंदिर बंद है। फिर क्या था? कुछ फोटों खींची और वापस चल पड़े। इस बार चढ़ने में थकान आ रही थी। कुछ जगह ठहरने के बाद हमने चढ़ाई कर ही ली। इस रास्ते में बंदर बहुत थे जो उछल-कूद काफी कर रहे थे। रास्ते में ही सूर्य मंदिर था। हमने सूर्य मंदिर से जयपुर शहर का शानदार नजारा देखा। इसके बाद हमने म्यूजियम जाने के बारे में सोचा।

अल्बर्ट हॉल म्यूजियम

कुछ देर बाद हम ई-रिक्शा से अल्बर्ट हॉल म्यूजियम पहुँच गये। टिकट लेकर हम लोग म्यूजियम के अंदर पहुँच गये। जयपुर में ये म्यूजियम एक अलग ही दुनिया है। इतना बड़ा म्यूजियम मैंने अब तक कहीं नहीं देखा है या फिर मैं उन जगहों पर गया नहीं हूं जहाँ इससे भी बड़ा म्यूजियम है। अंदर घुसते ही हमें आंगल मिला, जिसकी दीवारें संगमरमर की थीं। यहाँ पर कई हॉल थे जिसमें पूरी दुनिया का कुछ न कुछ सामान रखा हुआ था। जिसमें रोमन, चीन, अरबी आदि संग्रह रखा हुआ है। कई प्रकार की मूर्तियां, वाद्य यंत्र और भी बहुत कुछ रखा हुआ था।


कुछ आगे बढ़े तो हमें ममी दिखाई पड़ी। पहले ये ममी म्यूजियम के तलघर पर हुआ करती थी लेकिन हाल ही में आई बाढ़ की वजह से इसका स्थान बदल दिया गया है। मैंने खबरों में इस बारे में पढ़ा था। इसके बाद हम संग्रहालय के बाहर आ गये। हमने अब तक कुछ खाया नहीं था। हमने आसपास नजरें दौड़ाईं तो फूड कोर्ट दिखाई दिया। 10 रुपए का टिकट लेकर अंदर पहुँच गये। 

राजस्थानी थाली


यहाँ पर खूब सारी दुकानें लगी हुईं थीं। खाने वालों के लिए ये जगह किसी जन्नत से कम नहीं है। हमने पहले सारी दुकानों का मुआयना किया। इसके बाद राजस्थानी थाली खाने का मन बना लिया। हमने एक राजस्थानी थाली ली जिसमें दो सादा रोटी, 2 बेजड़ रोटी, बेसन गट्टा, कढ़ी पकौड़ा, टिपोरा और लहसुन चटनी थी। इस राजस्थानी थाली का स्वाद लेकर मजा ही आ गया। इसके बाद हम लोग अपने होटल पहुँचे और काम पर लग गये।

दिन 3

एक बार फिर से हम पांचों लोग एक साथ घूमने निकल पड़े। आज हमें आमेर किला देखना था। कुछ देर बाद हम आमेर वाली बस में बैठ गये। कुछ देर बाद हम आमेर वाले रास्ते पर थे। बीच में नाहरगढ़ वाले रास्ते में उतर गये। यहाँ टैक्सी वालों ने जब अपना रेट बहुत ज्यादा बताया तो हमने पहले आमेर को देखना ही सही समझा। टैक्सी से हम आमेर पहुँच गये।

हम आरामबाग होते हुए सीढ़ियां चढ़कर आमेर पहुँच गये। जिस दिन हम आमेर पहुँचे, उस दिन विश्व पर्यटन दिवस था। इस वजह से घूमने के लिए आज कोई टिकट नहीं था। कुछ देर बाद दीवान-ए-आम में थे। आमेर में भीड़ बहुत थी लेकिन सब अपने में मस्त थे। कुछ देर बाद हम दीवान-ए-खास में पहुँच गये। यहीं पर शीश महल भी है। यहाँ भी एक खूबसूरत बाग है।

इस जगह को देखते हुए हम मानसिंह महल की ओर बढ़ गये। कहा जाता है कि यहीं पर राजा का परिवार रहता था। इन कमरों की चित्रकारी देखकर आपका दिल खुश हो उठेगा। आमेर किले में सीसीडी भी है। हम लोग सीसीडी की छत पर पहुँच गए, जहाँ से जयगढ़ और खूबसूरत घाटी दिखाई दे रही थी। यहाँ कॉफी पीने के बाद हमने नाहरगढ़ जाने का मन बनाया। हममें से दो लोग वापस चले गये और हम तीनों टैक्सी से नाहरगढ़ के लिए निकल पड़े।

नाहरगढ़

आमेर से नाहरगढ़ का रास्ता बेहद खूबसूरत है। रास्ते में जयगढ़ किला भी पड़ता है लेकिन हमारे पास एक ही किले को देखने का वक्त था। कुछ देर हम एक व्यू प्वाइंट मिला, जहाँ से जल महल का खूबसूरत नजारा दिखाई पड़ा। यहाँ कुछ देर रूके और फिर आगे बढ़ गये। कुछ देर बाद नाहरगढ़ किले में थे। ताड़ी गेट से होते हुए हमने किले में प्रवेश किया। यहीं पर वैक्स म्यूजियम भी है। हम किला देखने आए थे सो हम आगे बढ़ गये।

कुछ देर बाद हम माधवेन्द्र महल में थे। इस बार महल में बहुत कुछ बदल गया था। पहले हर कमरे में कुछ न कुछ रखा हुआ था लेकिन इस बार कमरे खाली थे। इन सबको देखते हुए हम किले की छत पर पहुँच गये। यहाँ से जयपुर का सबसे खूबसूरत नजारा देखने को मिलता है। दूर-दूर तक सिर्फ शहर ही शहर दिखाई दिया। इसके बाद हम वापस लौट पड़े। जलमहल पर हमें टैक्सी वाले ने छोड़ा। जहाँ हमने कुछ देर जलमहल को देखा। जब हमें बस आती हुई दिखाई तो हम अपने होटल के लिए निकल पड़े। 

अगले दिन सुबह-सुबह हम जयपुर से निकल पड़े। इन तीन दिनों में जयपुर की कई सारी जगहों को देखा। जिनमें से कुछ पहले देखी हुईं थी लेकिल कुछ नई जगहों पर भी गया। इन नई जगहों ने मेरे इस सफर को और भी यादगार बना दिया। मैं अब जयपुर नहीं जाना चाहता लेकिन क्या पता फिर से किस्मत इसी शहर में ले आये।

यात्रा का पिछला भाग यहां पढ़ें।

 

Saturday 6 November 2021

जयपुरः इस बार इस शहर को पहले से ज्यादा नया और सुंदर पाया

राजस्थान भारत के सबसे खूबसूरत राज्यों में से एक है। मुझे खूबसूरत महल और किलों वाले इस प्रदेश में जाना पसंद है। जब भी मौका मिलता है मैं राजस्थान के किसी शहर में पहुँच जाता हूं। इसी तरह मैंने पुष्कर, अजमेर, जैसलमेर और जयपुर को एक्सप्लोर कर चुका हूं। मैं दोबारा किसी शहर में जाना पसंद नहीं करता हूं लेकिन न चाहते हुए भी जयपुर बार-बार पहुँच जाता हूं। हर बार जयपुर में कुछ अलग और नया पाता हूं। इस बार भी मेरे साथ कुछ ऐसा ही हुआ।

मैं अपने दो दोस्तों के साथ हरियाणा के हिसार में था। हम लोगों के पास 3-4 दिन थे सो मैंने उनसे आगरा चलने के लिए कहा। उन्होंने जयपुर घूमने की बात कहीं। काफी चर्चा के बाद जयपुर के लिए मैंने हाँ कर दिया। शाम को हम हिसार बस स्टैंड गये। जहाँ हमें जयपुर के लिए रात में कोई बस नहीं मिली। किस्मत से एक ट्रेन में सीटें खाली थीं। हमने रात 12 बजे की टिकट बुक कर ली। हमारे दो दोस्त दूसरे होटल में ठहरे हुए थे। हम समय बिताने के लिए वहाँ पहुँच गए।

ट्रेन पकड़ पाएंगे?

जब हमने उनको अपना प्लान बताया तो पहले तो उन्होंने न चलने की बात कही लेकिन आखिरी समय पर हाँ कर दी। इसके बाद जल्दी-जल्दी सामान समेटा और रोड पर आ गए। अब रेलवे स्टेशन के लिए कोई टैक्सी न मिले। हमें लगने लगा कि अब तो टैक्सी मिलना बहुत मुश्किल है। तभी एक टैक्सी सामने से आते हुए दिखाई दी। फिर क्या था कुछ ही मिनटों में हम हिसार रेलवे स्टेशन पर पहुँच गए। ट्रेन पहले से लगी हुई थी सो हम सब अपनी-अपनी सीट पर जाकर लेट गए।

जयपुर रेलवे स्टेशन।
जब सुबह आंख खुली तो जयपुर आने ही वाले थे। कुछ ही देर बाद हम जयपुर रेलवे स्टेशन पर थे। पहली बार मैं जयपुर रेलवे स्टेशन को देख रहा था। अब तक जयपुर बस से ही आया था। थोड़ी देर बाद हम जयपुर की गलियों में होटल खोज रहे थे। तो तय ये हुआ था कि पूरे दिन घूमा जाएगा और शाम से काम किया जाएगा। कुल मिलाकर हमें वर्क फ्रॉम ट्रैवल करना था। हमें यहाँ आकर पता चला कि जयपुर में कोई परीक्षा होनी है कि जिसकी वजह से एक दिन के लिए इंटरनेट को बंद किया जाएगा।

अब हमें ऐसा होटल चाहिए था जहाँ वाई फाई अच्छा चलता हो। एक टैक्सी वाला मिला जिसने हमसें कहा कि ऐसा होटल हमारे बजट में दिलवाएगा। फिर क्या था? हम जयपुर के होटलों को खोजने लगे। कई सारे होटलों में गये। कहीं बजट बहुत ज्यादा था तो कहीं वाई फाई नहीं था। आखिर में बाईस गोदाम के पास एक ऐसा ही होटल मिल गया। हमने सामान रखा और तैयार होकर जयपुर को घूमने के लिए निकल गये।

दिन 1

हवा महल

हवा महल।
कुछ देर बाद हवा महल के टिकट काउंटर से अपना टिकट ले रहे थे। हम लोगों के पास स्टूडेंट आईडी थी सो हमें टिकट काफी सस्ता मिल गया। हवा महल को 1799 में महाराजा सवाई प्रताप सिंह ने बनवाया था। राजा राधाकृष्ण के भक्त थे। इसका आकार बाहर से भगवान कृष्ण के मुकुट की तरह ही है। हवा महल पांच मंजिला है। हर तल का एक नाम भी है जैसे रतन मंदिर, विचित्र मंदिर, प्रकाश मंदिर और हवा मंदिर। पांचवी मंजिल का नाम हवा महल के नाम पर रखा गया है। इस महल में छोटी-छोटी 953 खिड़कियां हैं।

कुछ ही देर बाद हम पांचों लग हवा महल के अंदर थे। यहाँ आकर मुझे अपना पुराना घुमा हुआ सब कुछ याद आने लगा। उस समय मैंने जयपुर को अकेला नापा था। महल के बीचों बीच फुव्वारा बना हुआ है जो इस समय चल रहा था। दिखने में अच्छा भी लग रहा था। कुछ देर बाद हम दूसरी मंजिल पर पहुँच गये। जब हम सबसे उपर थे तो बारिश होने लगी। जिसन मौसम को और भी खूबसूरत बना दिया। महल की खिड़कियां बंद थीं इसलिए हवा नहीं आ रही थी।

सिटी पैलेस


हवा महल को देखने के बाद हम एक जगह खाना खाया। उसके बाद हम में से दो लोग होटल वापस लौट गये। बाकी हम तीन सिटी पैलेस देखने निकल पड़े। शहर के बीचों बीच बने इस महल को 1729 में महाराजा सवाई जय सिंह माधो ने करवाया था। 1732 में ये महल बनकर तैयार हो गया था। टिकट लेकर हम पैलेस के अंदर चले गये। बीच में एक आंगन जैसी इमारत थी। जहाँ झालर लगी हुई थी, कुछ हथियार टंगे हुए थे। इसके अलावा चांदी के दो बहुत बड़े कलश रखे थे। इसको देखने के बाद हम मुबारक महल को देखने निकल गये। इसमें राजा-रानी के अलग-अलग प्रकार के कपड़ रखे हुए थे। यहाँ पर फोटो खींचना मना है। 

इसके बाद हमने शस्त्रागार दीर्घा में भी बहुत सारे शस्त्र देखे। अगला पड़ाव चन्द्र महल था। जहाँ राजा का दरबार लगता था। ये महल काफी बड़ा था। महल में लगी झालर बेहद खूबसूरत लग रही थी। यहाँ भी फोटो खींचना मना था। यहाँ सभी महाराजाओं की तस्वीर ओर उनके बारे में लिखा हुआ था। इसके बाद हम बाहर निकल आये। इसके बाद बाकी दोनों लोग होटल के लिए निकल गये और मैं फिर से एक नई जगह को देखने के लिए बेताब था।

गणेश मंदिर जाना है!

इसके बाद किसी ने बताया कि रानी बाजार के बगल से गणेश मंदिर जा सकते हैं। मैं पैदल-पैदल ही लोगों से पूछते हुए चलता गया। किसी ने बताया कि ई-रिक्शा ले लो। मैंने ई-रिक्शा ले लिया, जिसने मुझे एक तिराहा पर छोड़ दिया। कुछ देर पैदल चला तो एक पुरानी इमारत सी दिखी। पास आकर देखा तो उस पर लिखा था गैटोर की छत्रियां। ये वो जगह है जहाँ राजाओं की समाधि है। मैं अंदर गया तो अंदर का नजारा देखकर दिल खुश हो गया। संगमरमर और बलुआ पत्थर से बनी ये जगह बेहद खूबसूरत है।

पहाड़ी के बिल्कुल तलहटी पर स्थित ये जगह वाकई सुंदर है। सबसे अच्छी बात ये है कि यहाँ बहुत भीड़ नहीं थी। इसकी वजह से शहर से दूर होना हो सकता है या फिर लोगों को इस जगह के बारे में पता नहीं होगा। इस जगह को देखने के बाद बगल से लगभग 200 सीढ़ियां गणेश मंदिर की ओर गई हैं। मैं तेज धूप में उन पर चढ़ने लगा। कुछ ही देर बाद मैं थक गया और पसीने से तर-तर हो गया। ऐसे ही चलते-चलते मैं गणेश मंदिर पहुँच गया। यहाँ से जयपुर खूबसूरत लग रहा था। उंचाई से सब कुछ खूबसूरत लगता है। कुछ देर यहाँ ठहरने के बाद वापस चलने लगा। शाम हो गई थी सो अब मैं भी होटल के लिए निकल गया। जयपुर का सफर अब तक मेरे लिए खूबसूरत रहा।

जयपुर की आगे की यात्रा पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

Saturday 16 October 2021

ओरछा: खूबसूरती भरे इस ऐतहासिक शहर में दोबारा जाना वाकई शानदार रहा

एक ही जगह पर दोबारा जाना एक अलग प्रकार का सुकून देता है। आपको उस जगह के बारे में सब कुछ पता होता है। वहां का खाना, जगहें, रास्ते और ठिकाना सब कुछ आप जानते हैं। फिर भी ऐसी जगहों पर आकर खुशी मिलती हो। मैं ऐसी जगहों पर ऐसे फिरता हूं जैसे कि मेरा घर हो। ऐसी कम ही जगह हैं जहां मैं दोबारा गया हूं। उन कम जगहों में ओरछा सबसे ऊपर है। ओरछा एक ऐतहासिक और धार्मिक स्थल दोनों है। घूमते हुए आप दोनों के बारे में जान सकते हैं। मैंने भी इस बार ओरछा की वैभवता को जानने की भरसक कोशिश की।

ओरछा का प्लान 


तो हुआ यूं कि मेरी अपने एक खास दोस्त से बात हुई। वो चाह रही थी कि दोनों सोनभद्र घूमने चलें और मैं खजुराहो चलने पर जोर दे रहा था। मेरे पास इतना समय नहीं था कि सोनभद्र जा सकूं और खजुराहो उसके लिए दूर पड़ रहा था। सो मैंने उसे ओरछा आने के लिए कहा। फोन पर चर्चा होने के बाद आखिर ओरछा जाने का प्लान पक्का हो गया। मेरे घर से ओरछा लगभग 60 किमी. की दूरी पर है। जिस दिन उसे आना था, मैं झांसी गया। देर रात होने की वजह से हमने रात झांसी में ही बिताई। इसके बाद अगली सुबह झांसी बस स्टैंड से ओरछा के लिए शेयर्ड ऑटो में बैठ गए।

झांसी से ओरछा का रास्ता बेहद खूबसूरत है। चारों तरफ आपको हरियाली ही हरियाली मिलेगी। रोड ट्रिप के लिए ये रास्ता परफेक्ट है। अगर मौसम सुहावना रहता है तब तो ये जगह और भी खूबसूरत हो जाती है। हम इतने खूशनसीब नहीं थे लेकिन रास्ता फिर भी अच्छा लग रहा था। आधा घंटे के बाद हम हाइवे को छोड़कर ओरछा के रास्ते पर आ गए। इस रास्ते पर जाते हुए सारी पुरानी यादें जेहन में चलने लगीं। कुछ ही देर बाद हम ओरछा में थे।

सबसे पहले क्या?

पूड़ी-सब्जी।
हमने सबसे पहले अपने होटल में चेक इन किया और बाहर जाने के लिए तैयार हो गये। हमने सुबह से कुछ खाया नहीं था इसलिए पेट पूजा भी बहुत जरूरी थी। हम किसी होटल में नहीं जाना चाहता था इसलिए रामराजा मंदिर के सामने छोटी-सी दुकान है। जहां की सब्जी-पूड़ी खाए बिना ओरछा की यात्रा पूरी नहीं मानी जा सकती। सब्जी-पूड़ी के साथ मिर्च नींबू का अचार और रायते ने स्वाद को और भी बढ़ा दिया। इसके बाद हमने सबसे पहले किले को घूमने का प्लान बनाया।

धूप तेज थी और गर्मी भी काफी लग रही थी लेकिन अब आ गए थे तो कमरे में तो नहीं बैठ सकते थे। पुल पार करने के बाद किले के पुराने गेट से होकर टिकट काउंटर पर पहुंच गए। टिकट लिया, जेब में डाला और निकल पड़े किला घूमने। किले में घुसते हर दायीं तरफ एक बड़ी इमारत आती है जहां कभी राजा का दरबार लगता था। किले की ये जगह मायूस कर देती है। इमारत की छज्जों पर नक्काशी देखने लायक है लेकिन चारों तरफ गंदगी ही गंदगी है। यहां से हम राजा महल की तरफ बढ़ गए।

टिकट कहां गया?


जहांगीर महल से पहले राजा महल आता है। हम महल के बड़े-से गेट से अंदर घुसे। अंदर गार्ड ने टिकट मांगा। मैंने जेब में हाथ डाला लेकिन टिकट नहीं मिला। मैंने फिर दूसरी जेब देखी, पर्स देखा लेकिन टिकट नहीं मिला। गार्ड ने कहा, चले जाओ अंदर लेकिन मैं परेशान था कि टिकट गया कहां? हम टिकट खोजने के लिए उसी रास्ते पर चलने लगे, जिससे आए थे। जब मुझे लगने लगा कि अब टिकट नहीं मिलेगा, तभी सीढ़ियों पर मुझे छोटा-सा कागज दिखाई दिया। उसे उठाया तो देखा कि वो मेरा ही टिकट है। चेहरे पर एक मुस्कान तैर गई।

हम वापस लौटे और राजा महल के अंदर आए। राजा महल की नींव राजा रुद्र प्रताप ने 1531 में रखी थी। इसका पूरा निर्माण उनके बेटे भारती चन्द्र ने करवाया। बाद में राजा मधुकर शाह ने महल को अंतिम रूप दिया। इस महल में आवास कक्ष, दीवान-ए-आम और दीवान-ए-खास है। हम इन्हीं महलों को घूम रहे थे। किले का आर्किटेक्चर देखकर हम हैरान थे। छज्जे और दीवार पर रामलीला और कृष्ण लीला का उकेरा गया था जो वाकई शानदार लग रहा था। बुंदेली शैली में बना ये किला वाकई शानदार था।

किले के उपरी भाग पर नजारा भी शानदार था और हवा भी काफी ठंडी चल रही थी। यहां से हमें रामराजा मंदिर, चतुर्भुज मंदिर और जहांगीर महल तो दिख ही रहा था। वहीं दूसरी तरफ हमें हरा-भरा ओरछा दिखाई दे रहा था। चारों तरफ ऐसी हरियाली देखकर मन पुलकित हो उठा। बीच-बीच में मौसम भी हमारा साथ दे रहा था। कुछ घंटे घूमने के बाद हम किले के बाहर थे।

दाऊजी की कोठी

राजा महल के दायीं तरफ एक रास्ता गया था। इस तरफ दाउ जी की कोठी थी। कुछ ही मिनटों के बाद हम दाउजी की कोठी के बाहर थे। ये कोठी बुंदेल राज्य के सैन्य अधिकारी और मंत्री बलवंत दाउ की थी। अंदर गया तो पाया कि कोठी तो काफी बड़ी है लेकिन रखरखाव बहुत अच्छा नहीं है। कोठी की छत नहीं है लेकिन एक बार देखने लायक है। इसके बाद जहांगीर महल की ओर चल पड़े।

मैंने राजस्थान के कई किले देखे हैं। वो किले काफी खूबसूरत होते हैं लेकिन मुझे सुकून ओरछा के किले ही देते हैं। यहां के किलों में मन बसता है। हम जहांगीर किले के गेट से घुसे। घुसते ही हमें ओरछा की वैभवता दिखाई दी। इस खूबसूरत किले के बनने की एक कहानी है। मुगल शासक अकबर ने अपने सेनापति अबुल फज़ल को अपने विद्रोही बेटे को पकड़ने का आदेश दिया। जहांगीर को खतरे के बारे में पता चल गया। 

जहांगीर ने ओरछा के राजा वीर सिंह को अबुल फज़ल से निपटने को कहा। वीर सिंह ने अबुल फज़ल को हमेशा के लिए जहांगीर के रास्ते से हटा दिया। वीर सिंह से जहांगीर इतने खुश हुए कि कई जागीर उन्हें दे दी। बाद में जब जहांगीर ओरछा आने वाले थे तो उनके स्वागत में ये भव्य जहांगीर महल बनवाया गया। हम किले की छत पर गए और ओरछा नगर की भव्यता को देखा। इस महल से ओरछा और भी खूबसूरत लग रहा था।

अब कल घूमेंगे

ओरछा आने से पहले ही प्लान बना लिया था कि दिन में घूमेंगे और शाम में काम करेंगे। जहांगीर महल और प्रवीण राय महल को देखने के बाद हम अपने होटल में वापस लौट आए। बाकी कुछ बताने के लिए नहीं, बस काम करते हुए रात हो गई और फिर नींद की आगोश में चले गए। सुबह आराम से उठे, तैयार हुए और निकल पड़े रामराजा मंदिर। रामराजा मंदिर भी बेहद शानदार है। इस मंदिर में अंदर फोटो खींचना मना है। 

इस मंदिर की भी एक कहानी है। महाराजा मधुकर शाह कृष्ण के भक्त थे और रानी श्रीराम की। एक दिन दोनों में बहस छिड़ गई कि दोनों में श्रेष्ठ कौन है। रानी ने प्रतिज्ञा कर ली कि वे श्रीराम को ओरछा लेकर आएँगी। श्रीराम के लिए चतुर्भुज मंदिर का निर्माण भी शुरू कर दिया। रानी अवध गईं और सरयू नदी के किनारे कठिन तपस्या की। जब भगवान प्रसन्न नहीं हुए तो अंत में सरयू में प्राण देने लगीं। तभी एक झूला नदी से निकला जिसमें बालक रूपी राम थे। 

कहा जाता है कि भगवान ने शर्त रखी कि वो एक बार जहां विराजमान हो जाएंगे, वहीं रहेंगे। जब रानी ओरछा आईं तो चतुर्भुज मंदिर बनकर तैयार नहीं हुआ था। रानी ने महल की किचन में भगवान राम को रख दिया। शर्त के अनुसार, वे महल में ही विराजमान हो गये। तब से ये महल रामराजा मंदिर कहलाने लगा। मंदिर में भीड़ नहीं थी इसलिए जल्दी घूमकर बाहर निकल आए।

चतुर्भुज मंदिर

राम राजा मंदिर के बगल से एक रास्ता गया है जो चतुर्भुज मंदिर गया है। हम दोनों चतुर्भुज मंदिर के लिए निकल पड़े। अगर आपने महल के लिए टिकट लिया है तो उसी टिकट से इस मंदिर को देख सकते हैं। इस मंदिर को भूलभुलैया भी कहते हैं। ऐसा क्यों कहते हैं ये आपको मंदिर घूमते हुए समझ आ जाएगा। कई मुश्किलों का सामना करने के बाद हम मंदिर की छत पर पहुंच गए। जहां से हमें पूरा ओरछा दिख रहा था। कुछ मिनट रूकने के बाद हम नीचे उतरने लगे। 

मंदिर से नीचे उतरना भी एक टास्क था। हम जिस रास्ते जा रहे थे, वापस लौटकर वहीं आ जा रहे थे। कड़़ी मशक्कत के बाद हमें आखिर रास्ता मिल ही गया और मंदिर से बाहर आ गए। ओरछा का स्टीट फूड शानदार है। अगर आपने यहां ही चाट नहीं खाई तो कुछ भी नहीं खाया। मुझे मामा चाट भंडार की चाट बहुत पसंद है। पत्ते के दोने में मिलने वाली चाट का स्वाद बेजोड़ है। आप एक बार खाओगे बार-बार खाने का मन करता हैं। चाट के बाद हमने समोसा रायते का भी स्वाद लिया। 

लक्ष्मी मंदिर देखा

हमें आज ही झांसी के लिए निकलना था। जहां से हम दोनों को अपने-अपने घर जाना था। उससे पहले थोड़ा समय था इसलिए लक्ष्मी मंदिर देखने के लिए निकल गए। ओरछा के इस मंदिर को देखने के लिए कम ही लोग आते हैं लेकिन मेरी नजर में ये बेहद शानदार जगह है। आर्किटेक्चर देखकर तो मन खुश हो जाएगा इस मंदिर की दीवारों पर देवी-देवताओं के चित्र बने हुए है। 

लक्ष्मी मंदिर।
मंदिर के छत से ओरछा के नजारे और ठंडी हवा का लुत्फ उठाया जा सकता है। हमने कुछ देर यहां का लुत्फ उठाया। इस बार मैंने कंचना घाट और छतरियां नहीं देख पाया। मेरा मानना है हर जगह पर कुछ जगहें रह जानी चाहिए। ये जगहें ही हमें उस जगह पर वापस आने का मौका देती हैं। अगली बार इन जगहों पर जरूर जाउंगा। हमनें ओरछा से झांसी के लिए टैक्सी ली और निकल पड़े एक और सफर के लिए। ओरछा मेरे लिए हमेशा से ही खूबसूरत शहर रहा है। मुझे पहाड़ बहुत पसंद हैं लेकिन ओरछा मेरे घर और दिल दोनों के बहुत करीब है। इसलिए जब भी मौका मिलता है ओरछा चला आता हूं।

 

Friday 8 October 2021

खजुराहो 3: इस शहर में मंदिरों के अलावा भी बहुत कुछ है, कुदरत की खूबसूरती

अब कुछ भी अच्छा होता है तो उस पर विश्वास करना थोड़ा मुश्किल हो जाता है। मेरी अब तक की खजुराहो यात्रा लाजवाब रही थी। बीते दिन मैंने इस शहर से कई खूबसूरत और ऐतहासिक जगहें देखीं। इसके अलावा बेहिसाब अनुभव बटोरे। अगले दिन मेरी आंख जल्दी खुल गई लेकिन मैं उठा नहीं। मैंने रात को उठने को समय फिक्स किया था, अब बस उस वक्त का आने का इंतजार करने लगा। मैं कुछ देर ऐसे ही लेटा रहा लेकिन ज्यादा देर नहीं। मैं उठा और बालकनी में जाकर बैठ गया। बालकनी के बाहर हरे-भरे पेड़ दिखाई दे रहे थे और उन पर पड़ती धूप खूबसूरत बना रही थी। कुछ देर बाद मैं तैयार था आज के खजुराहो के सफर के लिए।


मेरे पास स्कूटी थी और खजुराहो से 25 किमी. दूर एक वाटरफाॅल को देखने जाना था, रानेह फाॅल्स। मैं कुछ देर बाद स्कूटी दनदनाता हुआ बढ़ा जा रहा था। सुबह ही ठंडी-ठंडी हवा चेहरे और पैर में लग रही थी। हाथ और कान को मैंने अच्छे-से ढंका हुआ था। लगभग चार किमी. के बाद एक बोर्ड आया जिसमें रानेह फाॅल के लिए दायीं और जाने के लिए कहा गया था। मैं दाहिनी ओर बढ़ गया। कुछ देर बाद मैं गांवों से होकर गुजरने लगा। सभी लोग अपने काम में लगे हुए थे। कुछ लोग कहीं जा रहे थे तो कुछ धूप ले रहे थे। रोड किनारे बसे छोटे-छोटे गांव, हरे-भरे खेत-खलिहान और उनके पीछे दूर तलक पहाड़। ये शानदार नजारा था जिसको देखने के लिए बार-बार रूक रहा था।

खूबसूरत रानेह फाॅल

रानेह फॉल के रास्ते।
रानेह फाॅल्स सुबह 9 बजे खुलता और शाम 5 बजे बंद होता है। अभी 9 बजने में समय था इसलिए मैं आराम-आराम से बढ़ रहा था। रानेह फाॅल जाने के लिए खजुराहो से पब्लिक टांसपोर्ट नहीं चलता है इसलिए आप खजुराहो से टैक्सी बुक कर सकते हैं जो बहुत महंगी होती है और दूसरा आप मेरी तरह स्कूटी रेट पर ले सकते हैं। जिसमें वाटरफाॅल तो देख ही पाएंगे, साथ में आपकी रोड टिप भी हो जाएगी। धूप थी लेकिन सर्द हवा की वजह से ठंड लग रही थी। आराम-आराम से बढ़ते हुए मैं 9 बजे रानेह फाॅल के टिकट काउंटर पर पहुंच गया।

केन घड़ियाल सैंक्चुरी का गेट।
यहां लिखा था कि रनेह फाॅल केन घड़ियाल सैंक्चुरी में है। अगर आप दोपहिया गाड़ी से हैं तो टिकट 200 रुपए का है चाहे आप अकेले हों या दो लोग। वहीं ऑटो रिक्शा का 400 रुपए और अधिकतम 3 लोग जा सकते हैं और चार पहिया वाहन का 600 रुपए है जिसमें अधिकतम 6 लोग जा सकते हैं। पैदल व्यक्ति का सिर्फ 50 रुपए लगेगा। इसके अलावा अगर आप पैदल और बाइक से नहीं हैं तो आपको गाइड करना अनिवार्य है जिसके आपको अलग से 100 रुपए देने होंगे। मेरे पास बाइक थी तो उसके 200 रुपए लगे और इस जगह के बारे में अच्छे से जानने के लिए एक गाइड कर लिया। गाइड भइया का नाम था पुष्पेन्द्र जो पास के नारायणपुर गांव के हैं। कुछ देर बाद सैंक्चुरी के बड़े-से गेट से हम अंदर हो लिए।

बिन पानी सब सून

हमारे गाइड।
कुछ देर बाद हम एक जगह पर रूके जहां पर मैंने टिकट दिखाया और गाॅर्ड ने एंटी कर ली। वहीं दायीं तरफ कुछ काॅटेज बने हुए थे। गाइड ने बताया कि सरकार ने लोगों के लिए रूकने की व्यवस्था की है जिसका एक रात का किराया 1800 रुपए है। मेरे हिसाब से ये कुछ ज्यादा ही महंगा था। टिकट काउंटर से रनेह फाॅल की दूरी 3 किमी. है और घड़ियाल प्वाइंट की दूरी 8 किमी. है। हम कुछ देर हमें बड़े-बड़े पत्थर दिखाई देने लगे, पार्किंग में गाड़ी पार्क की और वाटरफाॅल को देखने के लिए निकल पड़े। ये वाटरफाॅल बुधवार को दोपहर के बाद बंद रहता है, बाकी दिन सुबह 9 बजे से शाम 5 बजे तक खुला रहता है।


कुछ सीढ़ियां उतरने के बाद मैं उस वाटरफाॅल के सामने था जिसको इंटरनेट पर देखा था लेकिन यहां से कुछ ज्यादा ही दूर था। दूर-दूर तक पहाड़, जंगल और बिन पानी का वाटरफाॅल दिख रहा था। वाटरफाॅल की कुएंनुमा चट्टान में पानी तो था लेकिन इतना ज्यादा नहीं कि झरने के पानी के गिरने की आवाज सुनाई दे। वाटरफाॅल से धीरे-धीरे पानी नीचे गिर रहा था। मैंने इंटरनेट पर पड़ा था कि इस झरने का नाम महाराजा राणे के नाम पर पड़ा। वहीं गाइड भइया ने बताया कि पहले इसका नाम स्नेह वाटरफाॅल था लेकिन अब ये सिर्फ रैन मानसून सीजन में रहता है इसलिए इसका रनेह वाटरफाॅल हो गया।

मिनी नियाग्रा वाटरफाॅल


गाइड भइया ने बताया कि मानसून में सभी चट्टानें पानी से भर जाती हैं और हर जगह से वाटरफाॅल चलते हैं। उस समय यहां चट्टानें नहीं दिखाई देती हैं। इस समय चारों तरफ कैनियन दिखाई दे रही थीं। गाइड ने बताया कि ये वाॅल्केनो वाला इलाका है। पहला प्वाइंट देखने के बाद हम आगे के प्वाइंट पर बढ़ गए। गाइड ने बताया कि लाखों साल पहले यहां पर एक ज्वालामुखी फटा था जिससे ये कैनियन बना। इन चट्टानों को पांच प्रकार के अलग-अलग रंगों में देखा जा सकता है। गाइड ने बताया कि लगभग 110 मीटर उंचा ये वाल्केनो है जो 50 मीटर पानी के नीचे है और 60 मीटर पानी के उपर है। इसमें पांच अलग-अलग प्रकार के पत्थर हैं। जिसमें गुलाबी रंग का ग्रेनाइट है। इसके अलावा बेसाल्ट, क्वार्टज, डोनामाइट और जैस पर पत्थर हैं।


नीचे घाटी में हरे रंग का पानी दिखाई दे रहा था जो केन नदी का पानी था जो 30 मीटर चीचे थी। केन नदी आगे जाकर बांदा में यमुना नदी में मिल जाती है और यमुना का संगम इलाहाबाद में होता है। केन नदी का पुराना नाम कर्णावती भी है। 5 किमी. लंबी कैनियन देखने लायक है। मानसून में यहां जगह-जगह से वाटरफाॅल चलते हैं लेकिन अभी सिर्फ दो जगहों से वाटरफाॅल चल रहे थे। एक को तो हमने साफ-साफ देखा। दूसरा 60 मीटर उंचा वाटरफाॅल हमें थोड़ा-सा वाटरफाॅल दिखाई दे रहा था। पहाड़ पीछे होने की वजह से उसे हम नहीं देख पाए लेकिन उसकी आवाज सुनाई दे रही थी। गाइड ने बताया कि पहले लोग वहां जा सकते थे लेकिन 2003 में एक कपल की नदी में गिरने से मौत हो गई थी। ऐसी ही कुछ और हादसे जिसके बाद लोगों का वहां जाना बंद कर दिया गया। कुछ और प्वाइंट से कैनियन को देखने के बाद हम घड़ियाल प्वाइंट के लिए बढ़ गए।

केन नदी और दूरबीन का तामझाम

केन घड़ियाल सैंक्चुरी
रनेह फाॅल से घड़ियाल प्वाइंट की दूरी 5 किमी. है। मैंने स्कूटी की चाबी गाइड भईया को दे दी। अब पुष्पेन्द्र भइया गाड़ी चला रहे थे और इस जंगल के बारे में बता रहे थे। रास्ता पूरी तरह से कच्चा था लेकिन गाड़ी चलने लायक रास्ता बना हुआ था। गाइड ने बताया कि बरसात के मौसम में यहां लोगों के लिए आना बंद कर दिया जाता है। उस समय आप सिर्फ रनेह फाॅल की देख सकते हैं। चारों तरफ सागौन के पेड़ लगे हुए थे। उन्होंने बताया कि यहां से लकड़िया ले जाना मना है। तभी कुछ औरतें लकड़ियां बीनती हुई दिखाई दीं। गाइड ने उनको झिड़की देते हुए कहा, कितनी बार कहा कि रोड किनारे मत आया करो। यहां लोगों के बीच तालमेल साफ दिखाई दे रहा था।

कुछ देर बाद कुछ हिरण दिखाई दिए। इतने पास से पहली बार मैंने हिरण देखे। उसके जंगली सुअर और सियार भी दिखाई दिया। पास में कुछ नीलगायें भी दिखाई दीं। गाइड ने बताया कि जिन नीलगायों के सींग होते हैं वो नर होते हैं और जिनके सींघ नहीं होते हैं वो फीमेल। कुछ पेड़ों पर गिद्ध बैठे हुए दिखाइ्र दिए। अब गिद्ध कम ही दिखाई देते हैं लेकिन यहां दिखाई दे रहे थे। कुछ देर बाद हम उस जगह पर पहुंच गए जहां किस्मत अच्छी रही तो घड़ियाल और मगरमच्छ को देखा जा सकता था।

केन नदी। 
गाड़ी को पार्क किया और देखने निकल पड़े घड़ियाल। दूर-दूर तक केन नदी और हरा-भरा जंगल दिखाई दे रहा था। मैंने चारों तरफ देखा लेकिन कहीं पर भी घड़ियाल नहीं दिखाई दिया। तभी गाइड भइया ने बताया कि वहां पत्थर पर एक घड़ियाल है लेकिन मुझे नहीं दिखाई दे रहा था। वो दूरबीन लाए फिर मुझ देखने को कहा। दूरबीन से साफ-याफ घड़ियाल धूप लेता हुआ दिखाई दे रहा था। इसके बाद मैंने एक मगरमच्छ और एक घड़ियाल का बच्चा भी देखा। वो बहुत दूर थे लेकिन दूरबीन से सब साफ-साफ दिखाई दे रहा था। पुष्पेन्द्र भइया ने बताया कि यहां मगरमच्छ पहले से घड़ियाल को दूसरी जगहों से लाया गया। कुछ देर देखने के बाद हम वापस चल पड़े। रास्ते में मुझे एक दीवार दिखाई दी। जिस पर गोंडवाना दीवार लिखा था जो 500 साल पहले आदिवासियों ने बनवाई थी। हम उस दीवार को पार करके कैनियन का शानदार व्यू देखा। उसके बाद हम सैंक्चुरी से बाहर आ गए।

पांडव वाटरफाॅल का सफर


अभी 11 भी नहीं बजे थे तो मेरे पास दो विकल्प थे पहला, खजुराहो का सफर खत्म करके वापस लौटा जाए। दूसरा, पांडव वाटरफाॅल को देखने जाया जाए। पांडव वाटरफाॅल खजुराहो से 35 किमी. की दूरी पर है। अब अगर मैं वापस खजुराहो जाता तो पांडव वाटरफाॅल की दूरी मेरे लिए 60 किमी. हो जाती। इसका बढ़िया समाधान बताया मेरे गाइड भइया ने। गाइड भइया ने बताया कि रनेह वाटरफाॅल से दायीं तरफ जाने वाला रास्ता आगे हाइवे पर मिलता है। वहां से सिर्फ 10 किमी. की दूरी पर पांडव वाटरफाॅल है। पांडव वाटरफाॅल के सफर से खजुराहो का सफर मेरे लिए एक दिन बढ़ गया था। मैं उसी रनेह फाॅल के बगल से गये रास्ते पर बढ़ गया।

रास्ता पूरी तरह से कच्चा और पत्थरों वाला था जिस वजह से मैं स्कूटी बिल्कुल आराम से चला रहा था। रास्ते में कई जगह मैं रूका और फिर आसपास के नजारे को देखने के बाद बढ़ पड़ता। लगभग 4 किमी. की दूरी के बाद कच्चा रास्ता खत्म हो गया और पक्का सड़क शुरू हो गई। यहां से लगभग 12 किमी. दूर हाइवे था। अच्छी रोड की वजह से गाड़ी की स्पीड तेज हो गई। आसपास वही बुंदेलखंड के गांव के नजारे दिख रहे थे। चारों तरफ हरे-भरे खेत और लोग अपनी गाय-भैंसों को चराने के लिए जा रहे थे। कुछ दूर आगे चला तो एक व्यक्ति मिला जो हाइवे तक जाना चाहते थे, मैंने उनको बिठाया और आगे बढ़ गया।


सफर में अनजान लोगों से मिलना और बातें करना सबसे अच्छी चीज होती है। उन्होंने बताया कि इस इलाके में बोर जमीन से पानी निकालना सफल नहीं है। 10 में से सिर्फ 1 ही बोर सक्सेस होती है। उस शख्स ने बताया कि यहां के कुओं में बहुत पानी है, लोग यहां पर पानी के लिए कुए बहुत खुदवाते हैं। जिस वजह यहां खेती अच्छी हो रही है, आसपास खेतों में हरियाली देखकर इसका अंदाजा भी लग रहा था। कुछ देर बाद मैं हाइवे पर पहुंच गया। हाइवे किनारे इस गांव का नाम टौरिया टेक है।

सफर में लाजवाब समोसे

मैंने सुबह से कुछ नहीं खाया था। पास में ही एक दुकान थी जिस पर गर्म-गर्म समोसे बन रहे थे। रायते के साथ दो समोसे खाए, वो इतने अच्छे लगे कि दो और खा गया। फिर से सफर शुरू हो गया। मैंने उसी दुकान वाले से पूछा तो उसने पन्ना की ओर जाने को कहा। यहां से पांडव फाॅल 10 किमी. की दूरी पर है। मैं नेशनल हाइवे 39 पर पन्ना की ओर चल पड़ा। गाड़ी बहुत तेजी से आगे बढ़ रही थी। रास्ते में पुल मिला जो केन नदी पर बना हुआ था। पहाड़ और हरे-भरे जंगलों के बीच केन नदी बेहद खूबसूरत लग रही थी। कुछ मिनट यहां ठहरकर मैं आगे बढ़ गया।

पांडव केव और वाटरफॉल का गेट।
अकेले सफर करने की अपनी आजादी होती है, जो करना है, जैसे करना है सब अपने मन पर रहता है। उस समय आप सब कुछ भूलकर सिर्फ घूमने पर ध्यान लगाते हैं। कुछ आगे बढ़ा तो एक छोटा-सा कस्बा मिला, मडला। यहां से 700 मीटर दूर केन नदी का नजारा दिखाई देता है लेकिन मुझे पांडव वाटरफाॅल जाना था। पांडव वाटरफाॅल के पहले घाटी मिलती है। घाटी के चारों तरफ हरियाली ही हरियाली है। वहीं पूरी घाटी में मोड़ ही मोड़ है बिल्कुल पहाड़ के रास्ते जैसी, जो इस सफर को और भी खूबसूरत बना देती है। थोड़ी देर बाद पन्ना टाइगर रिजर्व का गेट आया। वहां पूछा तो पता चला कि थोड़ी आगे की पन्ना फाॅल है। कुछ दूरी के बाद पन्ना फाॅल और गुफाएं का गेट आ गया।

पांडव फाॅल और गुफाएं

झरने तक का रास्ता।
प्रवेश द्वार से पांडव फाॅल की दूरी 500 मीटर है। टिकट काउंटर पर पता चला कि अगर आप गाड़ी के साथ जाते हैं तो 100 रुपए देने होंगे और पैदल जाने पर सिर्फ 25 रुपए लगेंगे। गाड़ी को पार्किंग में लगाकर पैदल फाॅल को देखने के लिए निकल पड़ा। रास्ते में चारों तरफ हरे-भरे पेड़, पीली सूखी घास और चारों तरफ पहाड़ी हैं। ये वाटरफाॅल बुधवार को दोपहर के बाद बंद रहता है, बाकी दिन सुबह 9 बजे से शाम 5 बजे तक वाटरफाॅल खुला रहता है। कुछ देर बाद मैं वाटरफाॅल की पार्किंग में पहुंचा। पार्किंग में चन्द्रशेखर आजाद की एक मूर्ति है। इस मूर्ति पर लिखा है कि 4 सितंबर 1929 को यहां चन्द्रशेखर आजाद ने अपने साथियों के साथ मीटिंग की थी। आगे बढ़ा तो उस जगह पहुंच गया, जहां से 294 सीढ़ियां उतरनी थीं।


कुछ सीढ़ी उतरने पर वाटरफाॅल और नीचे बना तालाब दिखाई दिया। झरने का हाल रनेह फाॅल की तरह ही था। यहां के वाटरफाॅल में पानी कम था लेकिन तालाब में पानी होने की वजह से ये सुंदर लग रहा था। थोड़ी देर बाद मैं पांडव गुफा को देख रहा था। यहां बहुत सारी छोटी-छोटी गुफाएं बनी थीं जिसके उपर एक मंदिर भी था लेकिन उपर जाना मना था। गुफाएं की दीवारों और छतों में दरारें दिख रही थीं। शायद इसी वजह से उपर जाना अब मना है। माना जाता है पांडवों ने इसी जगह पर अपने वनवास के समय पर तपस्या की थी। उपर पहाड़ी से पानी धीरे-धीरे झिर रहा था जो गुफाओं पर गिर रहा था। इस वजह से यहां ठंडक महसूस हो रही थी।

वहीं पानी में मछलियां दिख रहीं थीं। मछलियों को पकड़ना और तालाब में नहाना मना है। यहां बहुत सारे लोग थे लेकिन किसी के भी चेहरे पर मास्क नहीं था जो मुझे गलत लगा। इसके अलावा जो भी यहां आ रहा था अलग-अलग पोज में अपनी फोटों खिंचवा रहा था। कोई भी इस जगह को सही से देखने और समझने की कोशिश नहीं कर रहा था। इसके बावजूद ये जगह बेहतरीन थी। लगभग घंटे भर यहां रहने के बाद मैं वापस लौट चला। पार्किंग के पास में टाॅयलेट बनी हुई है जो बाहर से बहुत अच्छी लग रही थी लेकिन अंदर से व्यवस्था खराब थी। टाॅयलेट गंदगी से भरी हुई थी और नल में पानी भी नहीं आ रहा था। कुछ देर बाद मैं पांडव वाटरफाॅल के गेट के बाहर था।

वापस खजुराहो


मैं खजुराहो जा ही रहा था, तभी एक गाइड ने मलाड तक साथ चलने को कहा, मैंने उसे बैठा लिया। उसी ने मुझे बताया कि हम लोग रजिस्टर्ड गाइड हैं सिर्फ भारत में केरल ही वो जगह है जहां सरकारी गाइड हैं। मलाड में गाइड को छोड़कर मैं केन नदी को देखने निकल पड़ा। केन नदी का शानदार नजारा यहां से साफ-साफ दिखाई दे रहा था। घाट के तरफ पानी भरा हुआ था और दूसरी तरफ सिर्फ पत्थर ही पत्थर दिख रहे थे। घाट पर कुछ लोग नदी में नहा रहे थे और कुछ औरतें कपड़े धो रही थीं। कुछ देर यहां ठहरने के बाद मैं वापस खजुराहो के लिए निकल पड़ा।

खजुराहो में आखिरी शाम।
शाम के 5 बजे मैं खजुराहो पहुंचा और बाइक को दुकान वाले का दे दिया। अब मेरे पास कुछ घंटे थे और मैं खजुराहो मंदिर का लाइट और साउंड शो देखना चाहता था लेकिन वो बहुत महंगा था इसलिए मैंने वो नहीं देखा। अब मैं अकेले सड़क पर पैदल चल रहा था। यूं अकेले चलने पर मेरे चेहरे पर खुशी थी। ये खुशी दो दिनों में बहुत कुछ नया पाने की थी, नये लोगों से मिलने और अनुभव बटोरने की थी। अब ये शहर मेरे लिए नया नहीं था, मैं यहां की गलियां, जगहों और कुछ लोगों को जानता था। मैं इस शहर के अंत में टहल रहा था। अब मुझे इस रात के बाद यहां से निकलना था। दो दिनों तक ये शहर मेरा हिस्सा बन गया था और ये शहर मेरा। अब मुझे किसी और नई जगह पर चलना है, उस जगह को देखना-समझना है बिल्कुल इस ऐतहासिक शहर की तरह।








Sunday 7 February 2021

खजुराहो 2ः मंदिरों के लिए फेमस ये ऐतहासिक और खूबसूरत शहर वाकई कमाल है

यात्रा का पिछला भाग यहां पढ़ें।

यात्रा कमाल की होती है। जब हम घूम रहे होते हैं तो सिर्फ उस जगह के बारे में सोचते रहते हैं। मैं भी होटल के कमरे में बैठकर इस नए शहर को कैसे देखा जाए? इस बारे में सोच रहा था। कुछ देर बाद मैंने तय कर लिया था कि खजुराहो में सबसे पहले क्या देखना है? मैंने अपना सामान होटल में ही छोड़ा और निकल पड़ा बुंदेलखंड के इस ऐतहासिक शहर को देखने। कुछ देर बाद मैं खजुराहो के पश्चिमी समूहों के मंदिरों को देखने के लिए गेट पर पहुंच गया था। मैंने सुना था कि खजुराहो के मंदिरों में सेक्स की मूर्तियां बनी हुई हैं। मेरे जेहन में चल रहा था कि क्या मंदिरों की दीवारों पर सिर्फ सेक्स वाली मूर्तियां हैं?


मंदिर का टिकट काउंटर बंद था उसकी जगह पर ऑनलाइन टिकट लेना था। टिकट काउंटर के उपर पर लगे बोर्ड में लिखा था कि भारतीयों के प्रति व्यक्ति 40 रुपए और बच्चों के लिए फ्री एंट्री है। विदेशी नागरिकों को मंदिरों को देखने के लिए 600 रुपए देने पड़ेंगे। वहीं सार्क देश के लोगों को भी 40 रुपए ही देने होंगे। अगर आपको कैमरे से मंदिरों की वीडियोग्राफी करनी है तो उसके लिए 25 रुपए अलग से देने होंगे। 


कोरोना की वजह से टिकट काउंटर बंद था। पास में ही एक और बोर्ड लगा था जिसमें क्यूआर कोड था। पेटीएम से स्कैन करके टिकट बुक की जा सकती है। अगर आपके पास पेटीएम नहीं है तो आर्कोलोजी सर्वे ऑफ इंडिया की वेबसाइट पर जाकर टिकट बुक कर सकते हैं। मैंने भी वेबसाइट पर जाकर टिकट बुक की, टिकट के 35 रुपए लिए। अच्छी बात ये है कि एक जगह टिकट ले लो, म्यूजियम से लेकर वही टिकट हर जगह चलेगा। आपको अलग से टिकट नहीं लेना पड़ेगा।

वेस्टर्न ग्रुप मंदिरों की सैर



मंदिर के गेट अंदर एंटी ली और टिकट चेक कराया तो पहली नजर में दूर-दूर तक बड़े मंदिर दिखाई दिए। देखकर लग रहा था कि किसी कलाकार ने इस मंदिरों को तराशकर बनाया है। हर मंदिर दूर से एक जैसे ही लग रहे थे लेकिन सबकी अलग खासियत। अंदर घुसते ही सबसे पहले एक बोर्ड मिला जिस पर खजुराहो के बारे में लिखा था। मुझे उस बोर्ड को पढ़कर ही पता चला कि बुंदेलखंड को प्राचीन समय में वत्स और फिर जेजाकभुक्ति के नाम से जाना जाता था। चंदेल राजाओं ने खजुराहो में 85 मंदिर बनवाए थे लेकिन अब सिर्फ 22 ही बचे हैं।

मैं सबसे पहले वराह मंदिर गया। वराह मंदिर एक ऊंचे चबूतरे पर आयाताकार बना हुआ है। ये मंदिर 14 खंभों पर खड़ा हुआ है और ये पिरामिड शैली में बना हुआ है। मंदिर में भगवान विष्णु के वराह रूप की 2.6 मीटर लंबी मूर्ति बनी हुई है। इसकी खास बात ये है कि पूरी मूर्ति में अनगिनत देवी-देवताओं की छोटी-छोटी प्रतिमाएं बनी हुई हैं। मूर्ति की नीचे एक सांप बनाया गया है। मंदिर की छज्जा पर बेहतरीन नक्काशी है जो इसे और भी खूबसूरत बनाती है। वराह मंदिर को देखने के बाद इसके ठीक सामने बना लक्ष्मण मंदिर को देखने के लिए बढ़ गया। लक्ष्मण मंदिर को 930 ईस्वी में राजा यशोवर्मन ने बनवाया था। इस मंदिर का नाम तो लक्ष्मण है लेकिन ये भगवान विष्णु का मंदिर है।




ऊंचे चबूतरे पर बना लक्ष्मण मंदिर पंचायतन शैली का संधार मंदिर है। पहले मैंने मंदिर को देखने के लिए गया। पश्चिमी ज्यादातर मंदिर अंदर से एक जैसे हैं। सभी में मुख, मंडप, महापंडम, अंतराल और गर्भगृह हैं। मंदिर में घुसते ही सबसे पहले एक बड़ा-या गलियारा मिलता है जिसके छज्जे पर शानदार नक्काशी है। इसके बाद अंदर जाने पर उंचे चबूतरे वाला भाग मिला, जिसके चारों तरफ लंबे-लंबे चार खंभे थे। कहा जाता है कि इस जगह पर धार्मिक नृत्य हुआ करते थ। यहां भी छज्जे पर बेहतरीन नक्काशी है। मंदिर में भगवान विष्णु की मूर्ति दिखाई दी। मंदिर के अंदर भी चारों तरफ छोटी-छोटी मूर्तियां बनी हुई हैं। 

मंदिर ही मंदिर


ये सभी मंदिर बालू के पत्थर के बने हुए हैं जो केन नदी से लाए गए थे। मंदिरों की दीवारों पर नृत्य करती हुए प्रतिमा, भगवान गणेश और विष्णु की भी मूर्ति है। इसके अलावा सेक्स करती हुई मूर्तियां हैं। जो कहते हैं कि ये सेक्स करती हुई मंदिर में क्यों हैं? तो उनको पता होना चाहिए कि ये मंदिर उस समय बनाए गए थे जब अभिव्यक्ति का माध्यम सिर्फ शिल्प कला ही थी। शायद इसी वजह से सेक्स करती हुईं प्रतिमाएं बहुत सारी हैं लेकिन ऐसा नहीं है कि इन मंदिरों में सिर्फ सेक्स की ही मूर्तियां है। यहां योग करती हुई मूर्तियां है, धार्मिक अनुष्ठान, शिकार, कल्चर और लोगों का जनजीवन कैसा था? ये सब इन मूर्तियों को देखकर समझ आता है। 


लक्ष्मण मंदिर को देखने के बाद मैं आगे बढ़ चला। ये मंदिर एक बहुत बड़ी जगहें पर हैं जहां चारों तरफ हरे-भरे पेड़ और घास है जो इस जगह को और भी खूबसूरत बना देता है। जिस मंदिर को देखने वाला था, वो कंदारिया महादेव मंदिर है। ये इन सभी मंदिरों से सबसे बड़ा और खूबसूरत है। इस मंदिर को 1065 ईस्वी में राजा विद्याधर ने बनवाया था। ये मंदिर अंदर से लक्ष्मण मंदिर की तरह ही था बस इसमें भगवान शिव विराजमान है। मंदिर में एक बड़ी-सी शिवलिंग है जो संगमरमर की बनी हुई है। ये मंदिर रथ शैली का बना हुआ है। दूर से देखने पर ये मंदिर रथ की तरह दिखाई देता है। ये मंदिर 117 फीट ऊंचा, 117 फुट लंबा और 66 फीट चौड़ा है। मंदिर में कुछ गाइड लोगों को मंदिर की खासियत बता रहे थे। वो बता रहे थे कि लोग यहां आते हैं और सभी मंदिरों को जल्दी-जल्दी देखकर, कुछ फोटो खींचकर 15 मिनट में वापस चले जाते हैं। मुझे उनकी ये बात सही भी लगी। मंदिर के दोनों तरफ शेर की मूर्ति बनी हुई है।


इस मंदिर की दीवारों पर भी कई देवी-देवताओं की मूर्तियां बनी हुई हैं। इस मंदिर में उस समय के जनजीवन को दिखातीं छोटी-छोटी प्रतिमाएं बनी हुई हैं। इसके अलावा कुछ बड़ी मूर्तियां भी हैं। जिसमें कुछ सेक्स को दिखाती हुई प्रतिमाएं हैं। एक मूर्ति में तो महिला के जांघ पर बिच्छू दिखाया गया है। ऐसी ही बहुत सारी मूर्तियां इस मंदिर पर हैं। इसके बाद मैंने जगदंबी मंदिर देखा। जगदंबी मंदिर निरन्धार शैली का बना हुआ है। इस मंदिर के तीन शिखर हैं, ये मंदिर बहुत ज्यादा बड़ा नहीं है लेकिन खूबसूरत है। इस मंदिर को गंडदेव वर्मन ने बनवाया था। मूलरूप से ये भगवान विष्णु का ही मंदिर है। 1880 में छतरपुर के महाराजा ने मनियागढ़ से मूर्ति इस मंदिर में स्थापित की। तब से ये मंदिर जगदंबी मंदिर हो गया।

क्यों टूटी हुई हैं मूर्तियां?


पश्चिमी समूह की ज्यादातर मूर्तियां टूटी हुई हैं। किसी का हाथ नहीं है, किसी की मूर्ति का पैर नहीं है। ये सिर्फ एक मंदिरों में नहीं है, सभी मंदिरों का यही हाल है। ऐसा इसलिए है क्योंकि मुस्लिम शासकों ने बार-बार इन मंदिरों को तोड़ा। जिससे आज भी उन हमलों की गवाही देती हैं ये क्षतिग्रस्त मूर्तियां। जगदंबी मंदिर को देखने के बाद चित्रगुप्त मंदिर की ओर बढ़ा। 11वीं शताब्दी में चित्रगुप्त मंदिर को गण्ढदेव बर्मन ने बनवाया था। खजुराहो में बने मंदिरों में केवल यही इकलौता सूर्य मंदिर है। मंदिर के अंदर सूर्य देवता की मूर्ति और पास में चित्रगुप्त की खंडित मूर्ति है। इस मंदिर में परिक्रमा करने की जगह नहीं है जो बाकी मंदिरों से अलग है।


इस मंदिर की दीवारों पर भी मूर्तियां बनी हुई हैं। जिसमें भगवान विष्णु को एक मूर्ति में 11 सिरों का दिखाया गया है। इस मंदिर के बाद पार्वती मंदिर को देखा। ये मंदिर विश्वनाथ मंदिर का ही एक भाग है। मंदिर में पार्वती की मूर्ति है। इसके अलावा मंदिर मुखमंडप पूरी तरह से नष्ट हो चुका है। नंदी मंडप और विश्वनाथ मंदिर को देखने के बाद मैं बाहर निकल आया। लगभग 2-3 घंटों तक पश्चिमी मंदिरों को देखने के बाद बाकी मंदिरों की तैयारी कर ली। जैन मंदिर मेरी अगली लिस्ट में था लेकिन लोगों ने बताया कि 3-4 किमी. दूर है। वहां ऑटो कोई नहीं जाएगी बुक करनी पड़ेगी। जिससे मैंने म्यूजियम को देखने का प्लान बनाया।

खजुराहो में आदिवासी म्यूजियम



पश्चिमी मंदिर से 200 मीटर की दूरी पर आदिवर्त टाइबल एंड फोल्क आर्ट म्यूजियम है। मैं उस ओर चल दिया। म्यूजियम के गेट के अंदर घुसते ही समझ आ गया कि ये आदिवासी म्यूजियम है। म्यूजियम में कोई नहीं था, रिसेप्शन पर भी कोई नहीं था, अंदर का गेट भी बंद था। वहीं सैनिटाइर की बोतल रखी थी, मैंने सैनिटाइजर से हाथ साफ किया तब तक गाॅर्ड आ गए। उन्होने एंट्री करवाई और म्यूजियम का गेट खोल दिया। ये म्यूजियम दो कमरों में हैं। जिसमें बस्तर से लेकर पूरे देश की आदिवासी इलाकों के सामान रखे हुए हैं, जिनके साथ उनके नाम भी लिखे हुए है। जिससे सबको उन सामानों के बारे में पता चल सके।


आदिवासी इलाकों की खूबसूरत पेटिंग, देवी-देवीताओं की मूर्तियां और न जाने क्या-क्या इस म्यूजियम है? लगभग पौना घंटा इस म्यूजियम में रहने के बाद मैं शहर के दूसरे म्यूजियम को देखने के लिए निकल पड़ा। पुरातत्व संग्रहालय, आदिवासी म्यूजियम से 100 मीटर की दूरी पर है। अंदर एक गार्ड मिला जिसने टिकट मांगा। गार्ड ने बताया कि अंदर फोटो और वाीडियोग्राफी करना मना है। मैंने फिर फोटो के बारे में सोचा ही नहीं। इस म्यूजिय में देश भर की प्राचीन दुर्लभ मूर्तियां रखी हुई हैं। इस म्यूजियम को जी डार्टिन ने बनवाया था। बाद में आजादी के बाद 1967 में ये पुरातत्व संग्रहालय हो गया। 

खजुराहों में बाइक



इस संग्रहालय में भगवान विष्णु, ब्रम्हा, गणेश, जैन और भगवान शिव की कई मूर्तियां है। इस म्यूजियम में कई कक्ष हैं। इसके अलावा बरामदे और आंगन में भी मूर्तियां हैं। लगभग आधा-पौना घंटा इस म्यूजियम को देखने के बाद मैं बाहर निकल आया। अब सवाल था क्या किया जाए? सामन मुझे ठेला दिखा, जिस पर कुछ खाने को मिल रहा था। मैंने वहां पर अप्पे खाये, ये मेरे लिए कुछ नया था। उससे मैंने रेंट पर साइकिल लेने की दुकान पूछी तो उसने पता बता दिया। मैं वहां गया तो पता चला कि अभी उसके पास कोई साइकिल नहीं है। उसने बताया कि थोड़े आगे चलने पर एक और दुकान है। मैं वहां गया तो साइकिल के लिए स्कूटी ले ली, वो भी दो दिन के लिए। किराये पर स्कूटी लेने के 600 रुपए दिए और उसी से देखने चल पड़ा जैन मंदिर देखने।


कई घंटे शहर में बिताने के बाद शहर आपको अपना-सा लगने लगता है। इन नई जगहों पर भटक तो जाते हैं लेकिन यहां भटकना बुरा नहीं लगता है। मैं कुछ देर बाद जैन मंदिर में था। जैन मंदिर के सभी मंदिरों की दीवारें पीले रंग की थी सिर्फ दो मंदिरों को छोड़कर। इन दो मंदिरों की बनावट ठीक वैसे ही है जैसी पश्चिमी मंदिर समूहों की है। जिसमें से एक पाश्र्वनाथ मंदिर है। ये खजुराहो के सबसे भव्य मंदिरों में से एक है। शाम होने वाली थी, मंदिर के शिखर में धूप पड़ने से ये और भी सुंदर लग रहा था। इस मंदिर के पीछे एक और इस शैली का मंदिर बना हुआ है।


जैन मंदिर आप कभी भी आ सकते हैं इसकी कोई टाइमिंग नहीं है। पश्चिमी समूह मंदिर शाम 5 बजे बंद हो जाता है, उसके बाद शाम साढ़े बजे इंग्लिश अंग्रेजी में लाइट और साउंड शो होता और साढ़ सात बजे से हिन्दी में होता है। जिसका टिकट 250 रुपए का होता है, अंधेरा हो चुका था। मैंने होटल जाना ही बेहतर समझा, कुछ देर बाद मैं अपने होटल के कमरे में था। कुछ देर बाद मैं बिस्तर में लेटा हुआ था। मैं पूरे दिन के बारे में सोचने लगा। मैंने सोचा कि ये शहर व्यस्त है या यहां के लोग फिर समझ आया कि सब अपने में मस्त है। वो अपने काम में व्यस्त हैं और मैं घूमने में मस्त हूं। इसके बावजूद मैं उनसे कहना चाहता हूं कि आपका शहर वाकई कमाल है।