Showing posts with label bundelkhand travel. Show all posts
Showing posts with label bundelkhand travel. Show all posts

Saturday, 19 February 2022

चंदेरी 2: बावड़ियों के इस शहर में मैंने खूब सारे महल और किले देखे

यात्रा का पिछला भाग यहां पढ़ें।

चंदेरी मध्य प्रदेश के अशोक नगर जिले का एक छोटा-सा शहर है। किसी भी नई जगह पर होना एक अलग ही एहसास देता है। वैसा ही एहसास चंदेरी में भी हो रहा था। लगभग 1 घंटे बाद नींद टूटी। पहले तो मन किया कि लेटा रहता हूं फिर सोचा लेटकर क्या ही करना है? इस शहर को थोड़ा-बहुत देख लेते हैं। बादल महल पास में है तो वहीं से शुरू करता हूं। बादल महल का टिकट 25 रुपए का लिया और अंदर चला गया। बादल महल में महल जैसा कुछ नहीं है। बादल महल का पूरा परिसर हरा-भरा है और एक बड़ा-सा गेट बना हुआ है। पहले दूर से देखता हूं और फिर पास से देखता हूं।


बादल महल में बने 100 फुट ऊंचे इस दरवाजे को 15वीं शताब्दी में मालवा के राजा महमूद शाह खिलजी ने अपनी विजय की याद में बनवाया था। गेट की नक्काशी शानदार है। गेट के पीछे पहाड़ी पर किला दिखाई देता है। उसे देखने के लिए जैसे ही बाहर निकलता हूं। टिकट घर से आवाज आती है। मैं पास जाता हूं तो कैमरा देखकर 25 रुपए का टिकट लेने के लिए कहता है। 

बादल महल का गार्ड कहता है कि चंदेरी में यहीं पर टिकट बनता है। यहाँ टिकट लेने का बाद म्यूजियम को छोड़कर कहीं और टिकट नहीं लेना पड़ता है। म्यूजियम में अलग से टिकट लेना पड़ता है। 25 रुपए का टिकट लेता हूं और किला का शॉर्टकट रास्ता पूछकर आगे बढ़ जाता हूं। पास में जामा मस्जिद है तो पहले वो देखने के लिए बढ़ जाता हूं।

जामा मस्जिद


जामा मस्जिद बाहर से काफी खूबसूरत लग रही थी। नक्काशी देखकर मन खुश हो गया। मस्जिद के अंदर गया तो बड़ा-सा बरामदा और एक पुराना पेड़ लगा हुआ था। पेड़ के पीछे तीन बड़े-बड़े गुंबद दिखाई दे रहे थे जो वाकई में खूबसूरत लग रहे थे। चंदेरी की जामा मस्जिद भारत की एकमात्र बिना मीनार की जामा मस्जिद है। 

मस्जिद में बड़े-बड़े मेहराब, गलियारे और छज्जे हैं। जामा मस्जिद मध्य प्रदेश की सबसे बड़ी मस्जिदों में से एक है। मस्जिद की आर्किटेक्चर और बारीकी नक्काशी को देखकर मैं बाहर निकल आया। मैं बादल महल की दीवार को रखकर आगे बढ़ने लगा। कुछ ही दूर चला था कि कुछ पुरानी-सी इमारत दिखाई दी। जिसके बाहर लिखा था, संत निजामुद्दीन के वंशज की कब्रें। 

कब्रें ही कब्रें

घूमते हुए कभी-कभी ऐसी जगहें मिल जाती हैं जिनके बारे में आपको न तो इंटरनेट पर पता चलता है और न ही वो जगह आपके प्लान में होती हैं। मैं ऐसी ही शानदार जगह को देखने वाला था। अंदर घुसा तो चारों तरफ कब्रें ही कब्रें दिखाई दे रही थीं। अंदर कई मकबरें बने थे जिसके अंदर और बाहर कब्र ही कब्र थीं। 

मकबरों और पत्थरों पर बेजोड़ नक्काशी उकरी हुई थी। मैंने सभी मकबरों को अच्छे से देखा। गुंबदनुमा मकबरे कुछ टूटे हुए भी थे। मकबरों में सुंदर जाली वाली खिड़की भी बनी हुई हैं। 15वीं शताब्दी की बनीं कब्रों को देखकर मैं फिर से चंदेरी की गलियों में था। बादल महल के गॉर्ड ने बताया था कि बादल महल के दीवार को रखकर आप शॉर्टकट रास्ते से किला पहुँच जाएंगे।

चंदेरी किला

लोगों से पूछते हुए आगे बढ़ता गया। कुछ देर बाद एक पुराना सा गेट मिला। जिसके पास में एक बोर्ड पर लिखा हुआ था, केन्द्रीय संरक्षित स्मारक चंदेरी किला। आगे चलने पर  लंबा-सा पथरीला रास्ता दिखाई दिया। किले तक जाने के लिए थोड़ी ऊंची चढ़ाई थी। एक तरफ किला दिखाई दे रहा था और दूसरी तरफ चंदेरी शहर दिखाई दे रहा था। किले से औरतें अपने सिर पर लकड़ियां रखकर नीचे उतर रहीं थीं और मैं ऊपर की ओर जा रहा था। 

शहर से 71 मीटर की ऊंचाई पर एक पहाड़ी पर स्थित है ये किला। 5 किमी लंबी दीवार से घिरे इस किले को 11वीं शताब्दी में राजा कीर्ति पाल ने बनवाया था। 13वीं शताब्दी तक ये किला हिंदू राजाओं के अधीन रहा। 1304 में अलाउद्दीन खिलजी के जनरल आइन-उल-मुल्क ने इस पर कब्जा कर लिया। 1520 में चित्तौड़ के शासक राणा सांगा ने इस पर कब्जा करके मेदिनी राय को सौंप दिया।

इसके बाद 1527 में मुगल शासक बाबर ने चंदेरी के युद्ध में इस पर कब्जा कर लिया। 1540 में ये किला शेरशाह सूरी के अधीन आ गया और उसने सुजात खान को यहां का गवर्नर नियुक्त किया। बाद में चंदेरी किला पर बुंदेलों और सिंधिया राजाओं का शासन रहा। 1944 में चंदेरी अंग्रेजों के अधीन आ गया। किले में जाने के तीन प्रवेश द्वार हैं, हवापुर, खूनी दरवाजा और कट्टी-पट्टी। 

कुछ देर बाद किला का बड़ा-सा गेट दिखाई दिया। अंदर घुसा तो कुछ छोटी-छोटी इमारतें दिखाई दीं। मैं जिस गेट से घुसा था वो किले का पीछे वाला रास्ता था और मैं जिस जगह पर खड़ा था उसे खूनी दरवाजा कहा जाता था। मुझे ये बात उस समय ये बात पता नहीं थी। हम पीछे के रास्ते से आए इसलिए हमें इसके बारे में पता भी नहीं था। कहा जाता है कि यहाँ पर गुनाहकारों को फांसी की सजा दी जाती थी। 

जौहर स्मारक


आगे बढ़ा तो लंबा-सा रास्ता दिखाई दिया। हमें यहीं पर पता चला कि जो जगह अभी देखी है वो खूनी दरवाजा थी। यहाँ पर चंदेरी किले के बारे में लिखा था। मैं अभी मुख्य किले के अंदर नहीं गया था। किले के परिसर से चंदेरी बेहद खूबसूरत दिख रहा था। यहीं पर जौहर स्मारक भी है। कहा जाता है कि 1528 में बाबर ने चंदेरी के राजा मेदनी राय का मार दिया। 

चंदेरी की रानी मणिमाला को ये पता चला कि राजा नहीं रहे। बाबर अपनी सेना के साथ किले में प्रवेश कर रहा है तो 1600 क्षत्राणियों के साथ रानी आग में कूद गईं। उस जौहर की याद में इस स्मारक को बनवाया गया था। जौहर स्मारक के पास में ही संगीत सम्राट वैजू बावरा की समाधि भी है। इसे देखने के बाद किले की मुख्य इमारत की ओर बढ़ गया। 

दिन ढल रहा है!

चंदेरी किले को 11वीं शताब्दी में राजा कीर्ति पाल ने बनवाया था। 1504 में अलाउद्दीन खिलजी के जनरल आइन उल मुल्क ने अपने अधिकार में ले लिया। 1520 में चित्तौड़ के राजा राणा सांगा ने इस पर कब्जा किया। बाद में शेरशाह सूरी, बुंदेला और सिंधिया राजाओं के बाद अंग्रेजों के अधीन हो गया।


किले के अंदर घुसा तो बीच में छोटी-सी बावड़ी देखी। किले में बहुत कम लोग थे। ईंटों के इस किले का सबसे खूबसूरत नजारा सबसे ऊंची जगह से दिखाई देता है। इसी किले से मैंने सूरज को डूबते हुए देखा। जब सूरज लाल होकर दूर तलक पहाड़ियों में छिप रहा था और आसमां में लालिमा फैला रहा था। उस समय चंदेरी मुझे और भी खूबसूरत लग रहा था। थोड़ी देर में अंधेरा हो गया। होटल तक पहुँचने में चंदेरी में अंधियारा झुक गया था। कुछ देर चंदेरी की सड़कों पर टहला और फिर से कमरे में वापस आ गया। खाना खाने के बाद बेड पर लेटते ही कब नींद आ गई पता ही नहीं चला। अब बस चंदेरी की सुबह का इंतजार था।

सुबह की सैर

सुबह 7 बजे नींद खुली। जल्दी-जल्दी तैयार होकर चंदेरी की सड़कों पर आ गया। सड़कें सुनसान थीं और दुकानें भी बंद थीं। सबसे पहले मैंने कटी पहाड़ी जाने का मन बनाया। कटी पहाड़ी शहर से थोड़ी दूर थी इसलिए सुबह-सुबह पैदल ही जाने का मन बन लिया। एक जगह चाय मिल रही थी तो चाय और पोहा लिया। दुकानदार ने बातों-बातों में कौशक महल, कटी पहाड़ी और बावड़ियों के बारे में बताया। उन्हों बताया कि कटी पहाड़ी से 2 किमी. दूर एक गांव है, रामनगर। वहाँ भी एक किला है। अब मुझे उसी रास्ते पर दो जगहें देखनी थी।


आगे बढ़ा तो सड़क किनारे एक छत्री दिखाई दी। 12 खंभों पर बनी इस छत्री में दो कब्रें भी बनी हुई हैं। मुगल और बुंदेली शैली में बनी इस छत्री को देखकर आगे बढ़े तो एक और छत्री दिखाई दी। ये पिछली वाली से कुछ बड़ी थी। दोनों छत्रियों का आर्किटेक्चर एक जैसा ही था। छत्रियों में साफ-सफाई की कमी थी। बाकी तो देखने लायक थीं। आगे चलने पर एक चौराहा आया। जहाँ से एक रास्ता कटी पहाड़ी की ओर और दूसरा रास्ता कौशक महल की ओर जाता है। मैं कटी पहाड़ी की ओर चल पड़ा।

कटी पहाड़ी


कटी पहाड़ी की ओर आगे बढ़ा तो मिर्जा खानदान की कब्र दिखाई दी। खेतों और पेड़ों के बीच बनी ये कब्र वाकई में शानदार थी। कब्र पर गंदगी भी बहुत थी और मेहराब में चमगादड़ों का घर भी बना हुआ था। सड़क की दूसरी तरफ एक तालाब मिला। जहाँ एक आदमी किनारे पर मछली पकड़ रहा था और दूसरा व्यक्ति नाव से मछली पकड़कर आया। मछली बड़ी और छोटी दोनों प्रकार की थीं। मुझे मछलियों के बारे में बिल्कुल जानकारी नहीं है।

आगे बढ़ने पर चंदेरी पीछे छूट गया। दोनों तरफ हरियाली और आगे पहाड़ दिखाई दे रहा था। कुछ देर बाद पैदल-पैदल कटी पहाड़ी पहुँच गया। पहाड़ को काटकर रास्ता बनाया गया था और एक बड़ा-सा दरवाजा भी बना हुआ था। 80 फीट ऊंचा, 39 फीट चौड़ी और 192 फीट लंबाई में पहाड़ को काटकर प्रवेश द्वार बनाया गया था। कटी पहाड़ी को 1490 में मालवा के राजा सुल्तान गयासशाह के शासनकाल में जिमन खां द्वारा बनवाया गया था।

रामनगर पैलेस

अब मुझे रामनगर किला जाना था जो लगभग 2 किमी. दूर था। चंदेरी की तरफ से मोटरसाइकिल आई। मैंने रामगर छोड़ने को कहा और वो तैयार हो गया। कुछ ही मिनटों में मैं रामनगर गांव में था। किला गांव को पार करने के बाद था। गांव में पैदल-पैदल चले जा रहा था। लोग अपने कामों में लगे हुए थे। बुंदेलखंड में जिस तरह के गांव होता है, वैसा ही गांव दिखाई दे रहा था।


कुछ देर बाद मैं एक पुरानी से इमारत के गेट पर खड़ा था। रामनगर महल को 1698 में चंदेरी के बुंदेला शासक दुर्जन सिंह ने बनवाया था। बाद में 1925 में ग्वालियर के शासक माधवराव सिंधिया ने इसका जीर्णोद्धार करवाया था। तीन मंजिला महल में घुसा तो पहले तो खूब सारे पेड़ मिले। महल में खूब सारे खंभे हैं। महल के पीछे बना तालाब नजारा खूबसूरत है। तालाब में नावें भी चलती हुई दिख रहीं है।

वापस चंदेरी

महल के दूसरे मंजिल पर बने कमरों में टूटा हुआ सामान बिखरा हुआ है। महल से बाहर निकलकर तालाब किनारे गया। वहाँ बैठे लोगों से नाव की सैर का रेट पूछा तो 100 रुपए बताया और कहा- नाव चलाने वाला आदमी 1 घंटे बाद आएगा। मैं उल्टे पांव लौट गया। अब मुझे वापस चंदेरी जाना था। रामनगर गांव को पैदल ही पैदल पार किया।


कुछ मोटरसाइकिल वाले चंदेरी की ओर गए लेकिन उन्होंने मोटरसाइकिल नहीं रोकी। काफी देर बाद एक व्यक्ति ने मेरे लिए गाड़ी रोक दी। कुछ ही मिनटों में चंदेरी लौट आया। बादल महल पर उतरा और चंदेरी की सड़कों पर चलने लगा। अब भूख लगने लगी थी। एक दुकान पर समोसा और कचौड़ी खाई और फिर एक नई जगह की ओर बढ़ गया। अब मुझे राजा रानी महल देखना था। रास्ते में ढोलिया दरवाजा मिला। मैं फिर से चंदेरी की गलियों में था। काफी चलने के बाद राजा रानी महल आ गया।

राजा रानी महल

राजा रानी महल एक नहीं बल्कि दो महल हैं। राजा महल सात मंजिला की इमारत है जिसमें नक्काशी शानदार है। इस ऊंचे से महल को देखने में मुझे काफी समय लग गया। राजा महल के पास में ही एक छोटा-सा महल है जिसे रानी महल के नाम से जाना जाता है। राजा रानी महल भूलभुलैया की तरह है। किले में बड़े-बड़े आंगन, नक्काशीदार खंभे और खूब सारी सीढ़ियां हैं। सफेद और स्लेटी बलुआ पत्थर से बना ये महल वाकई में खूबसूरत है। 


पास में ही चकला बावड़ी भी थी तो उसको देखने के लिए निकल पड़ा। रास्ते में ऊंट की सार और पुरानी कचहरी मिली। रास्ते में मुझे एक घर में साड़ी बनती हुई दिखाई दी। मैंने उनसे उनको काम को देखने की अनुमति मांगी तो उन्होंने अंदर बुला लिया। नरेन्द्र कोली और उनकी मां अंदर थीं। मां जी ने बताया कि चंदेरी में साड़ियों का ही काम होता है। हम बनाकर दुकानदारों को देते हैं और वे बेचते हैं।

पूछने पर नरेन्द्र कोली ने बताया कि एक साड़ी को तैयार करने में 3-4 दिन लगते हैं। कुछ देर बाद मैं चकला बावड़ी के बाहर था। चकला बावड़ी काफी बड़ी थी और पानी भी काफी था। चंदेरी को बावड़ियों का शहर कहा जाता है। वहीं पर एक आदमी सफाई कर रहा था। उन्होंने बत्तीसी बावड़ी, मूसा और गोल पहाड़ी के बारे में बताया। मैं इन सभी बावड़ियों को देखना चाहता था लेकिन उससे पहले कौशक महल और म्यूजियम देखना जरूरी लग रहा था।

कौशक महल


कटी पहाड़ी की ओर जाने वाले चौराहे से कौशक महल के लिए ऑटो मिल गई। 10 रुपए और कुछ ही मिनटों में कौशक महल पहुँच गया। कौशक महल प्लस के आकार में बना हुआ है और चार बराबर-बराबर खंडों में बंटा हुआ है। अफगान शैली में बने इस महल की तीन मंजिल पूरी बनी हुई हैं और चौथी मंजिल अधूरी है। 15वीं शताब्दी में कौशक महल को मालवा के सुल्तान महमूद शाह खिलजी प्रथम ने जौनपुर विजय के उपलक्ष्य में बनवाया था।

कौशक महल की नक्काशी शानदार है। महल की चारों इमारतें एक जैसी बनी हुई हैं। इतनी ऊंची इमारत का 15वीं शताब्दी में बनना किसी अचंभे से कम नहीं है। ये महल उस समय के आर्किटेक्चर के बारे में बताता है। यहाँ हवा भी काफी चल रही थी और ठंडक भी थी। अब मुझे म्यूजियम देखना था। फिर से एक ऑटो ली और म्यूजियम पहुँच गया।

चंदेरी म्यूजियम


किसी भी नई जगह पर जाओ तो वहाँ के संग्रहालय में जरूर जाना चाहिए। म्यूजियम के लिए 5 रुपए का टिकट लिया और संग्रहालय देखने के लिए चल पड़ा। चंदेरी के संग्रहालय में कई जगहों से स्मारक और मूर्तियां लाई गईं है। इस म्यूजियम को 3 अप्रैल 1999 में लोगों के लिए खोला गया था। 

म्यूजियम में वैष्णव दीर्घा, शैव और बौद्ध दीर्घा हैं। जिसमें बहुत सारी मूर्तियां हैं। इसके अलावी पूरे चंदेरी संग्रहालय परिसर में बेहद पुरानी पुरानी मूर्तियां हैं। पूरे म्यूजियम को देखने में काफी समय लग गया। चंदेरी को पैदल-पैदल घूमते हुए थकान होने लगी थी और पैर भी जवाब देने लगे थे। चंदेरी को अभी भी पूरा नहीं देख पाया। शायद एक बार और इस जगह पर आना पड़ेगा। चंदेरी के बारे में इब्नबतूता ने ठीक ही कहा है, नगर बहुत बड़ा है और बाजारों में हमेशा बहुत भीड़ रहती है।


चंदेरी: उत्तर प्रदेश से मध्य प्रदेश तक का सफर काफी लंबा लेकिन अच्छा रहा

घुमक्कड़ी का एक अजीब ही दस्तूर होता है। हमको जो जगह अजनबी लगती है, वहाँ पहुँचने के कुछ घंटों के बाद वो जगह, वहाँ की गलियां सब कुछ अपना लगने लगता है। हम उस जगह, गांव या कस्बे में ऐसे बेपरवाह चलते हैं जैसे हम यहाँ सालों से रह रहे हैं। घूमते हुए ऐसे ही कई जगहें अपनी हो जाती हैं। इन जगहों से पहली बार मिलना अजीब होता है लेकिन उत्सुकता भी होती है। मैंने कुछ दिन पहले ऐसी ही एक शानदार जगह की यात्रा की। जगह का नाम है, चंदेरी।

मध्य प्रदेश का एक छोटा-सा शहर है, चंदेरी। हाल ही में मैंने इस जगह के बारे में सुना था। तब से इस जगह पर जाने का बड़ा मन था। किसी न किसी कारण से नहीं जा पा रहा था। फिर आया 2022 का फरवरी महीना और तारीख 11 फरवरी। मेरे घर से चंदेरी लगभग 250 किमी. दूर है। पहले हम दो लोग जाने वाले थे इसलिए स्कूटी से जाने का प्लान था लेकिन आखिरी वक्त में मैं अकेला रह गया। उसके बाद मैं बस से चंदेरी की यात्रा करने का मन बनाया।

5:40 की बस

11 फरवरी को सुबह 5 बजे उठा। मम्मी मुझसे भी पहले उठ चुकी थीं। उन्होंने रास्ते के लिए खाना बना दिया था। घर से कहीं जाओ तो मम्मी मना करने के बाद भी खाना बना ही देती हैं। अपना छोटा-सा पिठ्ठू बैग लेकर घुप्प अंधेरे में बस वाली जगह पर पहुँच गया। मैंने खिड़की वाली सीट पकड़ ली। बस में कुछ लोग थे और कुछ लोग मेरे बाद आए। 5:40 होते ही रोडवेज बस अंधेरे में चल पड़ी।

लोग इतने शांत थे कि बस के पुर्जे-पुर्जे की आवाज सुनाई दे रही थी। बस को खस्ता हालत में माना जा सकता है लेकिन हमें तो इसकी आदत है। जब तक उजाला नहीं हुआ, हमें बाहर का कुछ नहीं दिखाई दे रहा था। थोड़ी देर बाद उजाला भी हो गया। बस हरे-भरे खेत और गांव के बीच से गुजरती जा रही थी। मेरा दिमाग तो तब झन्ना गया जब मुझे कुछ बदबू आई। मुड़कर देखा तो पीछे वाली सीट पर दो लोग बीड़ी पी रहे थे। कुछ देर बाद बीड़ी फंकना बंद हो गया और मैं फिर से बाहर देखने लगा। लगभग 8 बजे बस ने झांसी पहुँचा दिया।

ललितपुर के लिए बस 

झांसी।
झांसी से मुझे अब ललितपुर जाना था। ललितपुर बस या ट्रेन दोनों से जाया जा सकता है लेकिन इस समय कोई ट्रेन नहीं थी इसलिए बस से जाना मुझे ठीक लगा। झांसी बस स्टैंड काफी बड़ा है। मैं कभी ललितपुर गया नहीं था इसलिए बस का कुछ आइडिया नहीं था। पता किया तो अभी बस लगी नहीं थी। मैंने सुबह से कुछ नहीं खाया था इसलिए पास की दुकान से समोसा रायता ले लिया। रायते के साथ समोसा मेरा पसंदीदा नाश्ता है।

थोड़ी देर में बस आ गई और मैंने ड्राइवर के पास वाली सीट पकड़ ली। विधानसभा चुनाव की वजह से रोडवेज बस चुनाव में लगी हुई थी इसलिए बस में भीड़ भी ज्यादा थी। 8:55 पर बस ललितपुर के लिए चल पड़ी। झांसी के जेल चौराहे से होते हुए बबीना की ओर बढ़ चली। बस हाईवे पर दौड़ रही थी। सड़क के दोनों तरफ हरियाली ही हरियाली दिखाई दे रही थी। मुझे बस में खिड़की वाली सीट पर बैठना पसंद है। सबसे आगे कम ही बैठा था। यहाँ से बस का सफर और भी अच्छा लग रहा था।

फिर से बस...


रास्ते में एक टोल प्लाजा भी मिला। रास्ते में बबीना, तालबेहट और बंसी जैसी जगहें मिलीं। दो घंटे के सफर के बाद मैं ललितपुर बस स्टैंड पर पहुँच चुका था। अब यहाँ से चंदेरी के लिए बस लेनी थी। ललितपुर से चंदेरी लगभग 40 किमी. की दूरी पर है। लोगों से पता किया तो चंदेरी जाने वाली बस की जगह बता दी लेकिन वहाँ बस नहीं थी। बात करने पर पता चला कि थोड़ी देर में बस आएगी।

फरवरी के महीने में भी तेज धूप थी। थोड़ी देर बाद चंदेरी की बस आ गई। मैंने फिर से ड्राइवर के बगल वाली सीट पकड़ ली। इस बस में खूब भीड़ थी। लग ही नहीं रहा था कि यहाँ कोरोना जैसी कोई चीज है। थोड़ी देर बाद बस ललितपुर को छोड़कर चंदेरी की ओर बढ़ गई थी। रास्ता सुंदर लग रहा था, वही खेत और हरियाली। 

उत्तर प्रदेश से मध्य प्रदेश


रास्ते में एक जगह मिली राजघाट। राजघाट में बेतवा नदी पर बांध भी बना हुआ है। नदी के इस पार उत्तर प्रदेश है और पुल पार करते ही मध्य प्रदेश शुरू हो जाता है। मध्य प्रदेश में घुसते ही नजारे बदलने लगे थे। सड़क के दोनों तरफ हरियाली अब भी थी लेकिन समतल इलाके की जगह छोटे-छोटे पहाड़ दिखाई देने लगे थे। रोड भी काफी सपाट थी। बस अपनी स्पीड से बड़ी जा रही थी।

थोड़ी देर बाद चंदेरी का बोर्ड दिखाई दिया। पूछने पर बगल में बैठे आदमी ने दूर तलक दिखने वाली पहाड़ी की ओर इशारा किया और कहा, उस पहाड़ी के पार चंदेरी। मेरे मन में चंदेरी की ओरछा जैसी छवि थी। उस छवि को बरकरार रखने या तोड़ने के लिए चंदेरी जा रहा था। थोड़ी देर बाद मध्य प्रदेश टूरिज्म का ताना बाना होटल दिखाई दिया। घूमते हुए ऐसे आलीशान होटलों में ठहरना मुझे पैसों की बर्बादी लगती है। मुझे तो बस एक छोटा-सा कमरा चाहिए जिसमें रात को नींद ले सकूं।

चंदेरी

थोड़ी देर बाद चंदेरी आ गया। चंदेरी में एक तरफ ऊंची पहाड़ी दिखाई दे रही थी जिस पर किला जैसा कुछ बना हुआ था। चंदेरी में कई जगह पर सवारियों को उतारने के बाद बस चंदेरी के नये बस स्टैंड पर पहुँच गई। मैंने अपने लिए पहले से एक सस्ता होटल खोज लिया था जो बस स्टैंड से 1 किमी. था। लोगों से श्रीकुंज होटल का रास्ता पता किया और पैदल ही चल दिया।


पैदल चलने का एक फायदा ये था चंदेरी को जानने में आसानी होगी। कहीं पढ़ा था कि किसी नई जगह को अच्छे-से जानना है तो उस जगह को पैदल नापें। पहली नजर में चंदेरी काफी विकसित और बड़ा लग रहा था। लोगों और गाड़ियों की भीड़ भी बहुत थी। कुछ देर बाद मैं श्रीकुंज होटल के सामने खड़ा था। होटल काफी बड़ा था। रिसप्शेन पर पता किया तो कमरा 400 से लेकर 2800 रुपए तक का था। मैंने 400 वाला रूम देखा और बात पक्की कर दी।

होटल के कमरे में टीवी था लेकिन चल नहीं रहा था, मुझे जरूरत भी नहीं था। बाकी मेरे जरूरत की सारी चीजें कमरे में थीं। घर से खाना लाया था तो उसे खाया। चंदेरी को घूमने जाने का मन था लेकिन लंबे सफर की वजह से सिर दर्द हो रहा था। दिमाम में कुछ गुणा भाग किया और थोड़ी देर के लिए लेट गया। अभी तो मध्य प्रदेश के इस ऐतिहासिक और पुराने शहर में सिर्फ एंट्री हुई थी। इस शहर का गलियां, किले, महल और बावड़ियों को देखना था।

आगे की यात्रा पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

Monday, 6 December 2021

बुंदेलखंड के अनछुए अम्मरगढ़, समथर और लोहागढ़ किले की बेहतरीन रोड ट्रिप

मुझे हमेशा से इस बात का मलाल रहा है कि मैं जगह-जगह पर घूमने जाता हूँ लेकिन अब तक अपने बुंदेलखंड को सही से नहीं देख पाया हूं। बुंदेलखंड को घूमने के नाम पर अब तक मैं ओरछा, खजुराहो और गढ़कुण्डार ही गया हूं। इन सबके अलावा बुंदेलखंड में ऐसे अनगिनत किले हैं जिनके बारे में कम लोगों को ही पता है। खुशकिस्मती से मुझे इनमें से कुछ के बारे में पता है। अपने मलाल को दूर करने के लिए बुंदेलखंड के कुछ किलों को देखने के लिए निकल पड़ा।

रोड ट्रिप

रोड ट्रिप मुझे हमेशा से पसंद आती है। ये आपको आजादी देने का काम करती है। मैंने इस रोड ट्रिप में अपने भाई को भी शामिल कर लिया। हमारी यात्रा झांसी की एक छोटी सी जगह गरौठा से शुरु हुई। हमने सबसे पहले अम्मरगढ़ किले को देखने के बारे में सोचा है। मुझे इसके बारे में सिर्फ इतना पता था कि ये मोंठ के आसपास है। हम गाँव के रास्ते से होते हुए बढ़ते जा रहे थे। दोनों तरफ खेत थे जिनमें थोड़ी-थोड़ी हरियाली आई थी।

जहाँ हमें आगे का रास्ता समझ नहीं आता था स्थानीय लोगों से पूछ लेते। यहाँ के लोग ही मेरे लिए गूगल मैप थे। कुछ देर बाद हम एक तिगैला पर पहुँचे। यहाँ पर एक समोसे का ठेला लगा हुआ। मुझे अपनी खजुराहो की यात्रा याद आ गई, जब मैंने पांडव फॉल जाते हुए ऐसी ही किसी दुकान पर समोसा खाया था। यहाँ के समोसे में नमक थोड़ा ज्यादा लग रहा था।

नदी

हम फिर से अपने रास्ते पर चल रहे थे। कुछ देर बाद हम खिरका घाट पर पहुँचे। घाट के नीचे कई जगह नदी का पानी रुका हुआ था लेकिन कुछ जगहों पर तेज धार पर चल रही थी। सुबह-सुबह नदी की कलकल करती आवाज को सुनकर अच्छा लग रहा था, एक मधुर ध्वनि की तरह। कुछ देर नदी किनारे पत्थरों पर बैठने के बाद हम आगे बढ़ गए।

कुछ समय बाद हम मोंठ में खड़े थे लेकिन हमें किले के बारे में पता नहीं था। लोगों से पूछा तो उन्होंने बताया कि मोंठ से 10 किमी. की दूरी पर अम्मरगढ़ गाँव में ही किला है। कुछ देर हम हाईवे पर बढ़े जा रहे थे। हाईवे से ही किला दिखाई दे रहा था। जब हम उस गाँव में पहुँचे तो पता चला कि इसे अमरा गाँव के नाम से जाना जाता है।

अम्मरगढ़ किला

गाँव के बीच में ही एक मंदिर के बगल से हमने रास्ता ले लिया। इस रास्ते पर चलकर लग रहा था कि हम किसी जंगल में जा रहे हैं। कुछ देर बाद किला एक बड़ा सा गेट दिखाई दिया। जंगलों के बीच से होकर हम किले के दरवाजे पर पहुँचे। बाहर से देखने पर लग रहा था कि किला काफी बड़ा है। ये किला पहाड़ी के पत्थरों पर बनाया गया था।

अमरगढ़ किला लगभग 250 साल पुराना है। इस किले को राजा अमर मल ने बनवाया था और उन्हीं के नाम पर इस किले का नाम रखा गया था। किले के बाहर इस किले का कोई बोर्ड या उसकी जानकारी नहीं मिली। एक छोटे से गेट से हम अंदर घुसे और सीढियों से आगे बढ़ने लगे। किले के अंदर पहुँचे तो चारों तरफ घास ही घास दिखाई दे रही थी।

जंगल है या किला

किले में ही धूप सेंक रहे बाबाजी ने बुलाया और अम्मर गुरू मंदिर के दर्शन कराए। उन्होंने बताया कि ये मंदिर आल्हा और ऊदल के गुरु का है। मंदिर को देखने के बाद आगे बढ़े तो किले में ही एक जगह पर बाबा जी का चूल्हा बना हुआ था। आगे बढ़े तो बड़ी-बड़ी घास के बीच से चलना पड़ा। उसके बाद किले की इमारत आई।

किला कहीं से जर्जर या खंडहर नहीं हुआ था लेकिन रखरखाव बिल्कुल भी नहीं था। यहाँ आकर मुझे काफी बुरा लग रहा था कि इतना अच्छा किला जंगल में बदलता जा रहा है। यहाँ तक कि किले की छत पर भी घास ही घास थी। किले के सबसे नीचे वाले तल में कूड़े का ढेर पड़ा हुआ था। सबसे ऊपरी तल की दीवारों पर लोगों ने अपनी और अपने प्यार की निशानी दी हुई थी। तीन मंजिल के इस किले की हालत वाकई खराब थी।  

फिर से सफर

इस किले के बाद हमारा अगला लक्ष्य मोंठ का किला और समथर किले को देखना था। कुछ देर बाद हम मोंठ कस्बे में घूम रहे थे। कुछ देर बाद हम एक चौराहे पर रुके और मिठाई बाले से मोंठ किले के बारे में पूछा तो पता चला कि किला पीछे छूट गया है। यहाँ से आगे समथर का रास्ता जाता है।

उस मिठाई वाले ने जवाब देने के बाद कहा कि आप ऋषभ देव है न। मैंने कहा हाँ, तुम नवोदय से हो क्या?  पता चला कि जब मैं नवोदय में 12 में था वो कक्षा 8 में था। इस मुलाकात के बाद हमने सोचा कि पहले समथर किला चलते हैं लौटते हुए इस किले को देखा जाएगा। मोंठ को छोड़कर हम समथर की ओर चल पड़े। मोंठ से समथर 15 किमी. है लेकिन रास्ता इतना खराब था कि गाड़ी तेज चला ही नहीं पा रहा था। कुछ मिनटों का रास्ता हमने घंटे भर में पूरा किया।

समथर किला

समथर भी एक छोटा सा कस्बा है। लोगों से पूछते हुए हम समथर किले के पास जा रहे थे। जब हम बाजार में थे तो दूर से ही किला दिखाई दे रहा था। समथर पहले बुंदेलखंड की एक छोटी-सी रियासत हुआ करती थी। दतिया के महाराजा के शासनकाल में समथर में गुर्जर राज्य की स्थापना हुई। समथर की किलेदारी मर्दन सिंह को सौंपी गई। बाद में समथर एक अलग रियासत बन गई।

इस किले के कुछ हिस्से में राजा और उनका परिवार रहा करता है। हम किले के अंदर गए तो देखा कि जहाँ राजा का परिवार रहता है वहाँ तो सब कुछ बेहतरीन है। किले के पीछे तरफ भी बहुत सारी इमारतें बनी हुई हैं लेकिन वहाँ आपको गंदगी और जंगल मिलेगा। इस किले के अंदर एक स्कूल भी चलता है।

किले में जहाँ राजघराना रहता है वहाँ जाने की मनाही है और जहाँ घूमा जा सकता है वहाँ सब कुछ जर्जर हो चुका है। अमरगढ़ किले की तरह यहाँ भी किले के बारे में कोई जानकारी नहीं दी गई थी। जब हम मोंठ मे थे तो एक बोर्ड पर लोहागढ़ किले का नाम पढ़ा। समथर के बाद हमने उसी किले को देखने का मन बनाया।

एक और किला


समथर छोड़कर हम हाईवे पर दौड़े जा रहे थे। मुझे लगा कि इस रास्ते से हम कुछ मिनटों में ही अपनी मंजिल पर पहुँच जाएंगे लेकिन ये मेरी गलतफहमी थी। हमारी स्पीड फिर से धीमी हो गई थी क्योंकि टूटे-फूटे रास्ते से होकर हम गुजर रहे थे। हमें ये भी नहीं पता था कि लोहागढ़ किला कितना दूर है। रास्ते में लोगों से पूछते हुए चले जा रहे थे। कुछ देर बाद दूर से एक पहाड़ी पर बेहद पुरानी छोटी सी इमारत दिखाई दी थी।

लोहागढ़ का किला लोहागढ़ गाँव में स्थित है। कुछ देर बाद हम गाँव से होते हुए किले तक पहुँच गए। ये किला एक कोठी की तरह लग रहा था जिसमे कुछ कमरे थे और एक छत थी। किले रुपी इस इमारत में एक पेड़ भी लगा हुआ था। कमरे में कुछ गड्ढे भी थे। हमने अंदाजा लगाया कि खजाना खोजने के लिए लोगों ने खुदाई की होगी।

लोहागढ़ की छत से पूरा गाँव और हरे-भरे खेत दिखाई दे रहे थे। किला बहुत छोटा था और जर्जर भी बहुत था। इंटरनेट पर जब लोहागढ़ किले के बारे में पता किया तो दूसरों राज्यों के लोहागढ़ किले के बारे में दिखाई दे रहा था लेकिन इस लोहागढ़ के बारे में कोई जानकारी थी। इस किले में हमें कोई दिखाई भी नहीं दिया, जिससे हम ये सब पूछ सकते।

इस किले को देखने के बाद हम वापस लौट चले। हमें मोंठ का किला देखना था लेकिन वक्त की कमी की वजह से हमने अगली बार के लिए टाल दिया। इस रोड ट्रिप में हमने बुंदेलखंड के तीन अनछुए किलों को देखा। किलों ही हालत देखकर निराशा जरुर हुई लेकिन इन किलों को देखा जाना चाहिए क्योंकि यही हमारी धरोहर हैं।

Friday, 8 October 2021

खजुराहो 3: इस शहर में मंदिरों के अलावा भी बहुत कुछ है, कुदरत की खूबसूरती

अब कुछ भी अच्छा होता है तो उस पर विश्वास करना थोड़ा मुश्किल हो जाता है। मेरी अब तक की खजुराहो यात्रा लाजवाब रही थी। बीते दिन मैंने इस शहर से कई खूबसूरत और ऐतहासिक जगहें देखीं। इसके अलावा बेहिसाब अनुभव बटोरे। अगले दिन मेरी आंख जल्दी खुल गई लेकिन मैं उठा नहीं। मैंने रात को उठने को समय फिक्स किया था, अब बस उस वक्त का आने का इंतजार करने लगा। मैं कुछ देर ऐसे ही लेटा रहा लेकिन ज्यादा देर नहीं। मैं उठा और बालकनी में जाकर बैठ गया। बालकनी के बाहर हरे-भरे पेड़ दिखाई दे रहे थे और उन पर पड़ती धूप खूबसूरत बना रही थी। कुछ देर बाद मैं तैयार था आज के खजुराहो के सफर के लिए।


मेरे पास स्कूटी थी और खजुराहो से 25 किमी. दूर एक वाटरफाॅल को देखने जाना था, रानेह फाॅल्स। मैं कुछ देर बाद स्कूटी दनदनाता हुआ बढ़ा जा रहा था। सुबह ही ठंडी-ठंडी हवा चेहरे और पैर में लग रही थी। हाथ और कान को मैंने अच्छे-से ढंका हुआ था। लगभग चार किमी. के बाद एक बोर्ड आया जिसमें रानेह फाॅल के लिए दायीं और जाने के लिए कहा गया था। मैं दाहिनी ओर बढ़ गया। कुछ देर बाद मैं गांवों से होकर गुजरने लगा। सभी लोग अपने काम में लगे हुए थे। कुछ लोग कहीं जा रहे थे तो कुछ धूप ले रहे थे। रोड किनारे बसे छोटे-छोटे गांव, हरे-भरे खेत-खलिहान और उनके पीछे दूर तलक पहाड़। ये शानदार नजारा था जिसको देखने के लिए बार-बार रूक रहा था।

खूबसूरत रानेह फाॅल

रानेह फॉल के रास्ते।
रानेह फाॅल्स सुबह 9 बजे खुलता और शाम 5 बजे बंद होता है। अभी 9 बजने में समय था इसलिए मैं आराम-आराम से बढ़ रहा था। रानेह फाॅल जाने के लिए खजुराहो से पब्लिक टांसपोर्ट नहीं चलता है इसलिए आप खजुराहो से टैक्सी बुक कर सकते हैं जो बहुत महंगी होती है और दूसरा आप मेरी तरह स्कूटी रेट पर ले सकते हैं। जिसमें वाटरफाॅल तो देख ही पाएंगे, साथ में आपकी रोड टिप भी हो जाएगी। धूप थी लेकिन सर्द हवा की वजह से ठंड लग रही थी। आराम-आराम से बढ़ते हुए मैं 9 बजे रानेह फाॅल के टिकट काउंटर पर पहुंच गया।

केन घड़ियाल सैंक्चुरी का गेट।
यहां लिखा था कि रनेह फाॅल केन घड़ियाल सैंक्चुरी में है। अगर आप दोपहिया गाड़ी से हैं तो टिकट 200 रुपए का है चाहे आप अकेले हों या दो लोग। वहीं ऑटो रिक्शा का 400 रुपए और अधिकतम 3 लोग जा सकते हैं और चार पहिया वाहन का 600 रुपए है जिसमें अधिकतम 6 लोग जा सकते हैं। पैदल व्यक्ति का सिर्फ 50 रुपए लगेगा। इसके अलावा अगर आप पैदल और बाइक से नहीं हैं तो आपको गाइड करना अनिवार्य है जिसके आपको अलग से 100 रुपए देने होंगे। मेरे पास बाइक थी तो उसके 200 रुपए लगे और इस जगह के बारे में अच्छे से जानने के लिए एक गाइड कर लिया। गाइड भइया का नाम था पुष्पेन्द्र जो पास के नारायणपुर गांव के हैं। कुछ देर बाद सैंक्चुरी के बड़े-से गेट से हम अंदर हो लिए।

बिन पानी सब सून

हमारे गाइड।
कुछ देर बाद हम एक जगह पर रूके जहां पर मैंने टिकट दिखाया और गाॅर्ड ने एंटी कर ली। वहीं दायीं तरफ कुछ काॅटेज बने हुए थे। गाइड ने बताया कि सरकार ने लोगों के लिए रूकने की व्यवस्था की है जिसका एक रात का किराया 1800 रुपए है। मेरे हिसाब से ये कुछ ज्यादा ही महंगा था। टिकट काउंटर से रनेह फाॅल की दूरी 3 किमी. है और घड़ियाल प्वाइंट की दूरी 8 किमी. है। हम कुछ देर हमें बड़े-बड़े पत्थर दिखाई देने लगे, पार्किंग में गाड़ी पार्क की और वाटरफाॅल को देखने के लिए निकल पड़े। ये वाटरफाॅल बुधवार को दोपहर के बाद बंद रहता है, बाकी दिन सुबह 9 बजे से शाम 5 बजे तक खुला रहता है।


कुछ सीढ़ियां उतरने के बाद मैं उस वाटरफाॅल के सामने था जिसको इंटरनेट पर देखा था लेकिन यहां से कुछ ज्यादा ही दूर था। दूर-दूर तक पहाड़, जंगल और बिन पानी का वाटरफाॅल दिख रहा था। वाटरफाॅल की कुएंनुमा चट्टान में पानी तो था लेकिन इतना ज्यादा नहीं कि झरने के पानी के गिरने की आवाज सुनाई दे। वाटरफाॅल से धीरे-धीरे पानी नीचे गिर रहा था। मैंने इंटरनेट पर पड़ा था कि इस झरने का नाम महाराजा राणे के नाम पर पड़ा। वहीं गाइड भइया ने बताया कि पहले इसका नाम स्नेह वाटरफाॅल था लेकिन अब ये सिर्फ रैन मानसून सीजन में रहता है इसलिए इसका रनेह वाटरफाॅल हो गया।

मिनी नियाग्रा वाटरफाॅल


गाइड भइया ने बताया कि मानसून में सभी चट्टानें पानी से भर जाती हैं और हर जगह से वाटरफाॅल चलते हैं। उस समय यहां चट्टानें नहीं दिखाई देती हैं। इस समय चारों तरफ कैनियन दिखाई दे रही थीं। गाइड ने बताया कि ये वाॅल्केनो वाला इलाका है। पहला प्वाइंट देखने के बाद हम आगे के प्वाइंट पर बढ़ गए। गाइड ने बताया कि लाखों साल पहले यहां पर एक ज्वालामुखी फटा था जिससे ये कैनियन बना। इन चट्टानों को पांच प्रकार के अलग-अलग रंगों में देखा जा सकता है। गाइड ने बताया कि लगभग 110 मीटर उंचा ये वाल्केनो है जो 50 मीटर पानी के नीचे है और 60 मीटर पानी के उपर है। इसमें पांच अलग-अलग प्रकार के पत्थर हैं। जिसमें गुलाबी रंग का ग्रेनाइट है। इसके अलावा बेसाल्ट, क्वार्टज, डोनामाइट और जैस पर पत्थर हैं।


नीचे घाटी में हरे रंग का पानी दिखाई दे रहा था जो केन नदी का पानी था जो 30 मीटर चीचे थी। केन नदी आगे जाकर बांदा में यमुना नदी में मिल जाती है और यमुना का संगम इलाहाबाद में होता है। केन नदी का पुराना नाम कर्णावती भी है। 5 किमी. लंबी कैनियन देखने लायक है। मानसून में यहां जगह-जगह से वाटरफाॅल चलते हैं लेकिन अभी सिर्फ दो जगहों से वाटरफाॅल चल रहे थे। एक को तो हमने साफ-साफ देखा। दूसरा 60 मीटर उंचा वाटरफाॅल हमें थोड़ा-सा वाटरफाॅल दिखाई दे रहा था। पहाड़ पीछे होने की वजह से उसे हम नहीं देख पाए लेकिन उसकी आवाज सुनाई दे रही थी। गाइड ने बताया कि पहले लोग वहां जा सकते थे लेकिन 2003 में एक कपल की नदी में गिरने से मौत हो गई थी। ऐसी ही कुछ और हादसे जिसके बाद लोगों का वहां जाना बंद कर दिया गया। कुछ और प्वाइंट से कैनियन को देखने के बाद हम घड़ियाल प्वाइंट के लिए बढ़ गए।

केन नदी और दूरबीन का तामझाम

केन घड़ियाल सैंक्चुरी
रनेह फाॅल से घड़ियाल प्वाइंट की दूरी 5 किमी. है। मैंने स्कूटी की चाबी गाइड भईया को दे दी। अब पुष्पेन्द्र भइया गाड़ी चला रहे थे और इस जंगल के बारे में बता रहे थे। रास्ता पूरी तरह से कच्चा था लेकिन गाड़ी चलने लायक रास्ता बना हुआ था। गाइड ने बताया कि बरसात के मौसम में यहां लोगों के लिए आना बंद कर दिया जाता है। उस समय आप सिर्फ रनेह फाॅल की देख सकते हैं। चारों तरफ सागौन के पेड़ लगे हुए थे। उन्होंने बताया कि यहां से लकड़िया ले जाना मना है। तभी कुछ औरतें लकड़ियां बीनती हुई दिखाई दीं। गाइड ने उनको झिड़की देते हुए कहा, कितनी बार कहा कि रोड किनारे मत आया करो। यहां लोगों के बीच तालमेल साफ दिखाई दे रहा था।

कुछ देर बाद कुछ हिरण दिखाई दिए। इतने पास से पहली बार मैंने हिरण देखे। उसके जंगली सुअर और सियार भी दिखाई दिया। पास में कुछ नीलगायें भी दिखाई दीं। गाइड ने बताया कि जिन नीलगायों के सींग होते हैं वो नर होते हैं और जिनके सींघ नहीं होते हैं वो फीमेल। कुछ पेड़ों पर गिद्ध बैठे हुए दिखाइ्र दिए। अब गिद्ध कम ही दिखाई देते हैं लेकिन यहां दिखाई दे रहे थे। कुछ देर बाद हम उस जगह पर पहुंच गए जहां किस्मत अच्छी रही तो घड़ियाल और मगरमच्छ को देखा जा सकता था।

केन नदी। 
गाड़ी को पार्क किया और देखने निकल पड़े घड़ियाल। दूर-दूर तक केन नदी और हरा-भरा जंगल दिखाई दे रहा था। मैंने चारों तरफ देखा लेकिन कहीं पर भी घड़ियाल नहीं दिखाई दिया। तभी गाइड भइया ने बताया कि वहां पत्थर पर एक घड़ियाल है लेकिन मुझे नहीं दिखाई दे रहा था। वो दूरबीन लाए फिर मुझ देखने को कहा। दूरबीन से साफ-याफ घड़ियाल धूप लेता हुआ दिखाई दे रहा था। इसके बाद मैंने एक मगरमच्छ और एक घड़ियाल का बच्चा भी देखा। वो बहुत दूर थे लेकिन दूरबीन से सब साफ-साफ दिखाई दे रहा था। पुष्पेन्द्र भइया ने बताया कि यहां मगरमच्छ पहले से घड़ियाल को दूसरी जगहों से लाया गया। कुछ देर देखने के बाद हम वापस चल पड़े। रास्ते में मुझे एक दीवार दिखाई दी। जिस पर गोंडवाना दीवार लिखा था जो 500 साल पहले आदिवासियों ने बनवाई थी। हम उस दीवार को पार करके कैनियन का शानदार व्यू देखा। उसके बाद हम सैंक्चुरी से बाहर आ गए।

पांडव वाटरफाॅल का सफर


अभी 11 भी नहीं बजे थे तो मेरे पास दो विकल्प थे पहला, खजुराहो का सफर खत्म करके वापस लौटा जाए। दूसरा, पांडव वाटरफाॅल को देखने जाया जाए। पांडव वाटरफाॅल खजुराहो से 35 किमी. की दूरी पर है। अब अगर मैं वापस खजुराहो जाता तो पांडव वाटरफाॅल की दूरी मेरे लिए 60 किमी. हो जाती। इसका बढ़िया समाधान बताया मेरे गाइड भइया ने। गाइड भइया ने बताया कि रनेह वाटरफाॅल से दायीं तरफ जाने वाला रास्ता आगे हाइवे पर मिलता है। वहां से सिर्फ 10 किमी. की दूरी पर पांडव वाटरफाॅल है। पांडव वाटरफाॅल के सफर से खजुराहो का सफर मेरे लिए एक दिन बढ़ गया था। मैं उसी रनेह फाॅल के बगल से गये रास्ते पर बढ़ गया।

रास्ता पूरी तरह से कच्चा और पत्थरों वाला था जिस वजह से मैं स्कूटी बिल्कुल आराम से चला रहा था। रास्ते में कई जगह मैं रूका और फिर आसपास के नजारे को देखने के बाद बढ़ पड़ता। लगभग 4 किमी. की दूरी के बाद कच्चा रास्ता खत्म हो गया और पक्का सड़क शुरू हो गई। यहां से लगभग 12 किमी. दूर हाइवे था। अच्छी रोड की वजह से गाड़ी की स्पीड तेज हो गई। आसपास वही बुंदेलखंड के गांव के नजारे दिख रहे थे। चारों तरफ हरे-भरे खेत और लोग अपनी गाय-भैंसों को चराने के लिए जा रहे थे। कुछ दूर आगे चला तो एक व्यक्ति मिला जो हाइवे तक जाना चाहते थे, मैंने उनको बिठाया और आगे बढ़ गया।


सफर में अनजान लोगों से मिलना और बातें करना सबसे अच्छी चीज होती है। उन्होंने बताया कि इस इलाके में बोर जमीन से पानी निकालना सफल नहीं है। 10 में से सिर्फ 1 ही बोर सक्सेस होती है। उस शख्स ने बताया कि यहां के कुओं में बहुत पानी है, लोग यहां पर पानी के लिए कुए बहुत खुदवाते हैं। जिस वजह यहां खेती अच्छी हो रही है, आसपास खेतों में हरियाली देखकर इसका अंदाजा भी लग रहा था। कुछ देर बाद मैं हाइवे पर पहुंच गया। हाइवे किनारे इस गांव का नाम टौरिया टेक है।

सफर में लाजवाब समोसे

मैंने सुबह से कुछ नहीं खाया था। पास में ही एक दुकान थी जिस पर गर्म-गर्म समोसे बन रहे थे। रायते के साथ दो समोसे खाए, वो इतने अच्छे लगे कि दो और खा गया। फिर से सफर शुरू हो गया। मैंने उसी दुकान वाले से पूछा तो उसने पन्ना की ओर जाने को कहा। यहां से पांडव फाॅल 10 किमी. की दूरी पर है। मैं नेशनल हाइवे 39 पर पन्ना की ओर चल पड़ा। गाड़ी बहुत तेजी से आगे बढ़ रही थी। रास्ते में पुल मिला जो केन नदी पर बना हुआ था। पहाड़ और हरे-भरे जंगलों के बीच केन नदी बेहद खूबसूरत लग रही थी। कुछ मिनट यहां ठहरकर मैं आगे बढ़ गया।

पांडव केव और वाटरफॉल का गेट।
अकेले सफर करने की अपनी आजादी होती है, जो करना है, जैसे करना है सब अपने मन पर रहता है। उस समय आप सब कुछ भूलकर सिर्फ घूमने पर ध्यान लगाते हैं। कुछ आगे बढ़ा तो एक छोटा-सा कस्बा मिला, मडला। यहां से 700 मीटर दूर केन नदी का नजारा दिखाई देता है लेकिन मुझे पांडव वाटरफाॅल जाना था। पांडव वाटरफाॅल के पहले घाटी मिलती है। घाटी के चारों तरफ हरियाली ही हरियाली है। वहीं पूरी घाटी में मोड़ ही मोड़ है बिल्कुल पहाड़ के रास्ते जैसी, जो इस सफर को और भी खूबसूरत बना देती है। थोड़ी देर बाद पन्ना टाइगर रिजर्व का गेट आया। वहां पूछा तो पता चला कि थोड़ी आगे की पन्ना फाॅल है। कुछ दूरी के बाद पन्ना फाॅल और गुफाएं का गेट आ गया।

पांडव फाॅल और गुफाएं

झरने तक का रास्ता।
प्रवेश द्वार से पांडव फाॅल की दूरी 500 मीटर है। टिकट काउंटर पर पता चला कि अगर आप गाड़ी के साथ जाते हैं तो 100 रुपए देने होंगे और पैदल जाने पर सिर्फ 25 रुपए लगेंगे। गाड़ी को पार्किंग में लगाकर पैदल फाॅल को देखने के लिए निकल पड़ा। रास्ते में चारों तरफ हरे-भरे पेड़, पीली सूखी घास और चारों तरफ पहाड़ी हैं। ये वाटरफाॅल बुधवार को दोपहर के बाद बंद रहता है, बाकी दिन सुबह 9 बजे से शाम 5 बजे तक वाटरफाॅल खुला रहता है। कुछ देर बाद मैं वाटरफाॅल की पार्किंग में पहुंचा। पार्किंग में चन्द्रशेखर आजाद की एक मूर्ति है। इस मूर्ति पर लिखा है कि 4 सितंबर 1929 को यहां चन्द्रशेखर आजाद ने अपने साथियों के साथ मीटिंग की थी। आगे बढ़ा तो उस जगह पहुंच गया, जहां से 294 सीढ़ियां उतरनी थीं।


कुछ सीढ़ी उतरने पर वाटरफाॅल और नीचे बना तालाब दिखाई दिया। झरने का हाल रनेह फाॅल की तरह ही था। यहां के वाटरफाॅल में पानी कम था लेकिन तालाब में पानी होने की वजह से ये सुंदर लग रहा था। थोड़ी देर बाद मैं पांडव गुफा को देख रहा था। यहां बहुत सारी छोटी-छोटी गुफाएं बनी थीं जिसके उपर एक मंदिर भी था लेकिन उपर जाना मना था। गुफाएं की दीवारों और छतों में दरारें दिख रही थीं। शायद इसी वजह से उपर जाना अब मना है। माना जाता है पांडवों ने इसी जगह पर अपने वनवास के समय पर तपस्या की थी। उपर पहाड़ी से पानी धीरे-धीरे झिर रहा था जो गुफाओं पर गिर रहा था। इस वजह से यहां ठंडक महसूस हो रही थी।

वहीं पानी में मछलियां दिख रहीं थीं। मछलियों को पकड़ना और तालाब में नहाना मना है। यहां बहुत सारे लोग थे लेकिन किसी के भी चेहरे पर मास्क नहीं था जो मुझे गलत लगा। इसके अलावा जो भी यहां आ रहा था अलग-अलग पोज में अपनी फोटों खिंचवा रहा था। कोई भी इस जगह को सही से देखने और समझने की कोशिश नहीं कर रहा था। इसके बावजूद ये जगह बेहतरीन थी। लगभग घंटे भर यहां रहने के बाद मैं वापस लौट चला। पार्किंग के पास में टाॅयलेट बनी हुई है जो बाहर से बहुत अच्छी लग रही थी लेकिन अंदर से व्यवस्था खराब थी। टाॅयलेट गंदगी से भरी हुई थी और नल में पानी भी नहीं आ रहा था। कुछ देर बाद मैं पांडव वाटरफाॅल के गेट के बाहर था।

वापस खजुराहो


मैं खजुराहो जा ही रहा था, तभी एक गाइड ने मलाड तक साथ चलने को कहा, मैंने उसे बैठा लिया। उसी ने मुझे बताया कि हम लोग रजिस्टर्ड गाइड हैं सिर्फ भारत में केरल ही वो जगह है जहां सरकारी गाइड हैं। मलाड में गाइड को छोड़कर मैं केन नदी को देखने निकल पड़ा। केन नदी का शानदार नजारा यहां से साफ-साफ दिखाई दे रहा था। घाट के तरफ पानी भरा हुआ था और दूसरी तरफ सिर्फ पत्थर ही पत्थर दिख रहे थे। घाट पर कुछ लोग नदी में नहा रहे थे और कुछ औरतें कपड़े धो रही थीं। कुछ देर यहां ठहरने के बाद मैं वापस खजुराहो के लिए निकल पड़ा।

खजुराहो में आखिरी शाम।
शाम के 5 बजे मैं खजुराहो पहुंचा और बाइक को दुकान वाले का दे दिया। अब मेरे पास कुछ घंटे थे और मैं खजुराहो मंदिर का लाइट और साउंड शो देखना चाहता था लेकिन वो बहुत महंगा था इसलिए मैंने वो नहीं देखा। अब मैं अकेले सड़क पर पैदल चल रहा था। यूं अकेले चलने पर मेरे चेहरे पर खुशी थी। ये खुशी दो दिनों में बहुत कुछ नया पाने की थी, नये लोगों से मिलने और अनुभव बटोरने की थी। अब ये शहर मेरे लिए नया नहीं था, मैं यहां की गलियां, जगहों और कुछ लोगों को जानता था। मैं इस शहर के अंत में टहल रहा था। अब मुझे इस रात के बाद यहां से निकलना था। दो दिनों तक ये शहर मेरा हिस्सा बन गया था और ये शहर मेरा। अब मुझे किसी और नई जगह पर चलना है, उस जगह को देखना-समझना है बिल्कुल इस ऐतहासिक शहर की तरह।