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Saturday, 19 February 2022

चंदेरी 2: बावड़ियों के इस शहर में मैंने खूब सारे महल और किले देखे

यात्रा का पिछला भाग यहां पढ़ें।

चंदेरी मध्य प्रदेश के अशोक नगर जिले का एक छोटा-सा शहर है। किसी भी नई जगह पर होना एक अलग ही एहसास देता है। वैसा ही एहसास चंदेरी में भी हो रहा था। लगभग 1 घंटे बाद नींद टूटी। पहले तो मन किया कि लेटा रहता हूं फिर सोचा लेटकर क्या ही करना है? इस शहर को थोड़ा-बहुत देख लेते हैं। बादल महल पास में है तो वहीं से शुरू करता हूं। बादल महल का टिकट 25 रुपए का लिया और अंदर चला गया। बादल महल में महल जैसा कुछ नहीं है। बादल महल का पूरा परिसर हरा-भरा है और एक बड़ा-सा गेट बना हुआ है। पहले दूर से देखता हूं और फिर पास से देखता हूं।


बादल महल में बने 100 फुट ऊंचे इस दरवाजे को 15वीं शताब्दी में मालवा के राजा महमूद शाह खिलजी ने अपनी विजय की याद में बनवाया था। गेट की नक्काशी शानदार है। गेट के पीछे पहाड़ी पर किला दिखाई देता है। उसे देखने के लिए जैसे ही बाहर निकलता हूं। टिकट घर से आवाज आती है। मैं पास जाता हूं तो कैमरा देखकर 25 रुपए का टिकट लेने के लिए कहता है। 

बादल महल का गार्ड कहता है कि चंदेरी में यहीं पर टिकट बनता है। यहाँ टिकट लेने का बाद म्यूजियम को छोड़कर कहीं और टिकट नहीं लेना पड़ता है। म्यूजियम में अलग से टिकट लेना पड़ता है। 25 रुपए का टिकट लेता हूं और किला का शॉर्टकट रास्ता पूछकर आगे बढ़ जाता हूं। पास में जामा मस्जिद है तो पहले वो देखने के लिए बढ़ जाता हूं।

जामा मस्जिद


जामा मस्जिद बाहर से काफी खूबसूरत लग रही थी। नक्काशी देखकर मन खुश हो गया। मस्जिद के अंदर गया तो बड़ा-सा बरामदा और एक पुराना पेड़ लगा हुआ था। पेड़ के पीछे तीन बड़े-बड़े गुंबद दिखाई दे रहे थे जो वाकई में खूबसूरत लग रहे थे। चंदेरी की जामा मस्जिद भारत की एकमात्र बिना मीनार की जामा मस्जिद है। 

मस्जिद में बड़े-बड़े मेहराब, गलियारे और छज्जे हैं। जामा मस्जिद मध्य प्रदेश की सबसे बड़ी मस्जिदों में से एक है। मस्जिद की आर्किटेक्चर और बारीकी नक्काशी को देखकर मैं बाहर निकल आया। मैं बादल महल की दीवार को रखकर आगे बढ़ने लगा। कुछ ही दूर चला था कि कुछ पुरानी-सी इमारत दिखाई दी। जिसके बाहर लिखा था, संत निजामुद्दीन के वंशज की कब्रें। 

कब्रें ही कब्रें

घूमते हुए कभी-कभी ऐसी जगहें मिल जाती हैं जिनके बारे में आपको न तो इंटरनेट पर पता चलता है और न ही वो जगह आपके प्लान में होती हैं। मैं ऐसी ही शानदार जगह को देखने वाला था। अंदर घुसा तो चारों तरफ कब्रें ही कब्रें दिखाई दे रही थीं। अंदर कई मकबरें बने थे जिसके अंदर और बाहर कब्र ही कब्र थीं। 

मकबरों और पत्थरों पर बेजोड़ नक्काशी उकरी हुई थी। मैंने सभी मकबरों को अच्छे से देखा। गुंबदनुमा मकबरे कुछ टूटे हुए भी थे। मकबरों में सुंदर जाली वाली खिड़की भी बनी हुई हैं। 15वीं शताब्दी की बनीं कब्रों को देखकर मैं फिर से चंदेरी की गलियों में था। बादल महल के गॉर्ड ने बताया था कि बादल महल के दीवार को रखकर आप शॉर्टकट रास्ते से किला पहुँच जाएंगे।

चंदेरी किला

लोगों से पूछते हुए आगे बढ़ता गया। कुछ देर बाद एक पुराना सा गेट मिला। जिसके पास में एक बोर्ड पर लिखा हुआ था, केन्द्रीय संरक्षित स्मारक चंदेरी किला। आगे चलने पर  लंबा-सा पथरीला रास्ता दिखाई दिया। किले तक जाने के लिए थोड़ी ऊंची चढ़ाई थी। एक तरफ किला दिखाई दे रहा था और दूसरी तरफ चंदेरी शहर दिखाई दे रहा था। किले से औरतें अपने सिर पर लकड़ियां रखकर नीचे उतर रहीं थीं और मैं ऊपर की ओर जा रहा था। 

शहर से 71 मीटर की ऊंचाई पर एक पहाड़ी पर स्थित है ये किला। 5 किमी लंबी दीवार से घिरे इस किले को 11वीं शताब्दी में राजा कीर्ति पाल ने बनवाया था। 13वीं शताब्दी तक ये किला हिंदू राजाओं के अधीन रहा। 1304 में अलाउद्दीन खिलजी के जनरल आइन-उल-मुल्क ने इस पर कब्जा कर लिया। 1520 में चित्तौड़ के शासक राणा सांगा ने इस पर कब्जा करके मेदिनी राय को सौंप दिया।

इसके बाद 1527 में मुगल शासक बाबर ने चंदेरी के युद्ध में इस पर कब्जा कर लिया। 1540 में ये किला शेरशाह सूरी के अधीन आ गया और उसने सुजात खान को यहां का गवर्नर नियुक्त किया। बाद में चंदेरी किला पर बुंदेलों और सिंधिया राजाओं का शासन रहा। 1944 में चंदेरी अंग्रेजों के अधीन आ गया। किले में जाने के तीन प्रवेश द्वार हैं, हवापुर, खूनी दरवाजा और कट्टी-पट्टी। 

कुछ देर बाद किला का बड़ा-सा गेट दिखाई दिया। अंदर घुसा तो कुछ छोटी-छोटी इमारतें दिखाई दीं। मैं जिस गेट से घुसा था वो किले का पीछे वाला रास्ता था और मैं जिस जगह पर खड़ा था उसे खूनी दरवाजा कहा जाता था। मुझे ये बात उस समय ये बात पता नहीं थी। हम पीछे के रास्ते से आए इसलिए हमें इसके बारे में पता भी नहीं था। कहा जाता है कि यहाँ पर गुनाहकारों को फांसी की सजा दी जाती थी। 

जौहर स्मारक


आगे बढ़ा तो लंबा-सा रास्ता दिखाई दिया। हमें यहीं पर पता चला कि जो जगह अभी देखी है वो खूनी दरवाजा थी। यहाँ पर चंदेरी किले के बारे में लिखा था। मैं अभी मुख्य किले के अंदर नहीं गया था। किले के परिसर से चंदेरी बेहद खूबसूरत दिख रहा था। यहीं पर जौहर स्मारक भी है। कहा जाता है कि 1528 में बाबर ने चंदेरी के राजा मेदनी राय का मार दिया। 

चंदेरी की रानी मणिमाला को ये पता चला कि राजा नहीं रहे। बाबर अपनी सेना के साथ किले में प्रवेश कर रहा है तो 1600 क्षत्राणियों के साथ रानी आग में कूद गईं। उस जौहर की याद में इस स्मारक को बनवाया गया था। जौहर स्मारक के पास में ही संगीत सम्राट वैजू बावरा की समाधि भी है। इसे देखने के बाद किले की मुख्य इमारत की ओर बढ़ गया। 

दिन ढल रहा है!

चंदेरी किले को 11वीं शताब्दी में राजा कीर्ति पाल ने बनवाया था। 1504 में अलाउद्दीन खिलजी के जनरल आइन उल मुल्क ने अपने अधिकार में ले लिया। 1520 में चित्तौड़ के राजा राणा सांगा ने इस पर कब्जा किया। बाद में शेरशाह सूरी, बुंदेला और सिंधिया राजाओं के बाद अंग्रेजों के अधीन हो गया।


किले के अंदर घुसा तो बीच में छोटी-सी बावड़ी देखी। किले में बहुत कम लोग थे। ईंटों के इस किले का सबसे खूबसूरत नजारा सबसे ऊंची जगह से दिखाई देता है। इसी किले से मैंने सूरज को डूबते हुए देखा। जब सूरज लाल होकर दूर तलक पहाड़ियों में छिप रहा था और आसमां में लालिमा फैला रहा था। उस समय चंदेरी मुझे और भी खूबसूरत लग रहा था। थोड़ी देर में अंधेरा हो गया। होटल तक पहुँचने में चंदेरी में अंधियारा झुक गया था। कुछ देर चंदेरी की सड़कों पर टहला और फिर से कमरे में वापस आ गया। खाना खाने के बाद बेड पर लेटते ही कब नींद आ गई पता ही नहीं चला। अब बस चंदेरी की सुबह का इंतजार था।

सुबह की सैर

सुबह 7 बजे नींद खुली। जल्दी-जल्दी तैयार होकर चंदेरी की सड़कों पर आ गया। सड़कें सुनसान थीं और दुकानें भी बंद थीं। सबसे पहले मैंने कटी पहाड़ी जाने का मन बनाया। कटी पहाड़ी शहर से थोड़ी दूर थी इसलिए सुबह-सुबह पैदल ही जाने का मन बन लिया। एक जगह चाय मिल रही थी तो चाय और पोहा लिया। दुकानदार ने बातों-बातों में कौशक महल, कटी पहाड़ी और बावड़ियों के बारे में बताया। उन्हों बताया कि कटी पहाड़ी से 2 किमी. दूर एक गांव है, रामनगर। वहाँ भी एक किला है। अब मुझे उसी रास्ते पर दो जगहें देखनी थी।


आगे बढ़ा तो सड़क किनारे एक छत्री दिखाई दी। 12 खंभों पर बनी इस छत्री में दो कब्रें भी बनी हुई हैं। मुगल और बुंदेली शैली में बनी इस छत्री को देखकर आगे बढ़े तो एक और छत्री दिखाई दी। ये पिछली वाली से कुछ बड़ी थी। दोनों छत्रियों का आर्किटेक्चर एक जैसा ही था। छत्रियों में साफ-सफाई की कमी थी। बाकी तो देखने लायक थीं। आगे चलने पर एक चौराहा आया। जहाँ से एक रास्ता कटी पहाड़ी की ओर और दूसरा रास्ता कौशक महल की ओर जाता है। मैं कटी पहाड़ी की ओर चल पड़ा।

कटी पहाड़ी


कटी पहाड़ी की ओर आगे बढ़ा तो मिर्जा खानदान की कब्र दिखाई दी। खेतों और पेड़ों के बीच बनी ये कब्र वाकई में शानदार थी। कब्र पर गंदगी भी बहुत थी और मेहराब में चमगादड़ों का घर भी बना हुआ था। सड़क की दूसरी तरफ एक तालाब मिला। जहाँ एक आदमी किनारे पर मछली पकड़ रहा था और दूसरा व्यक्ति नाव से मछली पकड़कर आया। मछली बड़ी और छोटी दोनों प्रकार की थीं। मुझे मछलियों के बारे में बिल्कुल जानकारी नहीं है।

आगे बढ़ने पर चंदेरी पीछे छूट गया। दोनों तरफ हरियाली और आगे पहाड़ दिखाई दे रहा था। कुछ देर बाद पैदल-पैदल कटी पहाड़ी पहुँच गया। पहाड़ को काटकर रास्ता बनाया गया था और एक बड़ा-सा दरवाजा भी बना हुआ था। 80 फीट ऊंचा, 39 फीट चौड़ी और 192 फीट लंबाई में पहाड़ को काटकर प्रवेश द्वार बनाया गया था। कटी पहाड़ी को 1490 में मालवा के राजा सुल्तान गयासशाह के शासनकाल में जिमन खां द्वारा बनवाया गया था।

रामनगर पैलेस

अब मुझे रामनगर किला जाना था जो लगभग 2 किमी. दूर था। चंदेरी की तरफ से मोटरसाइकिल आई। मैंने रामगर छोड़ने को कहा और वो तैयार हो गया। कुछ ही मिनटों में मैं रामनगर गांव में था। किला गांव को पार करने के बाद था। गांव में पैदल-पैदल चले जा रहा था। लोग अपने कामों में लगे हुए थे। बुंदेलखंड में जिस तरह के गांव होता है, वैसा ही गांव दिखाई दे रहा था।


कुछ देर बाद मैं एक पुरानी से इमारत के गेट पर खड़ा था। रामनगर महल को 1698 में चंदेरी के बुंदेला शासक दुर्जन सिंह ने बनवाया था। बाद में 1925 में ग्वालियर के शासक माधवराव सिंधिया ने इसका जीर्णोद्धार करवाया था। तीन मंजिला महल में घुसा तो पहले तो खूब सारे पेड़ मिले। महल में खूब सारे खंभे हैं। महल के पीछे बना तालाब नजारा खूबसूरत है। तालाब में नावें भी चलती हुई दिख रहीं है।

वापस चंदेरी

महल के दूसरे मंजिल पर बने कमरों में टूटा हुआ सामान बिखरा हुआ है। महल से बाहर निकलकर तालाब किनारे गया। वहाँ बैठे लोगों से नाव की सैर का रेट पूछा तो 100 रुपए बताया और कहा- नाव चलाने वाला आदमी 1 घंटे बाद आएगा। मैं उल्टे पांव लौट गया। अब मुझे वापस चंदेरी जाना था। रामनगर गांव को पैदल ही पैदल पार किया।


कुछ मोटरसाइकिल वाले चंदेरी की ओर गए लेकिन उन्होंने मोटरसाइकिल नहीं रोकी। काफी देर बाद एक व्यक्ति ने मेरे लिए गाड़ी रोक दी। कुछ ही मिनटों में चंदेरी लौट आया। बादल महल पर उतरा और चंदेरी की सड़कों पर चलने लगा। अब भूख लगने लगी थी। एक दुकान पर समोसा और कचौड़ी खाई और फिर एक नई जगह की ओर बढ़ गया। अब मुझे राजा रानी महल देखना था। रास्ते में ढोलिया दरवाजा मिला। मैं फिर से चंदेरी की गलियों में था। काफी चलने के बाद राजा रानी महल आ गया।

राजा रानी महल

राजा रानी महल एक नहीं बल्कि दो महल हैं। राजा महल सात मंजिला की इमारत है जिसमें नक्काशी शानदार है। इस ऊंचे से महल को देखने में मुझे काफी समय लग गया। राजा महल के पास में ही एक छोटा-सा महल है जिसे रानी महल के नाम से जाना जाता है। राजा रानी महल भूलभुलैया की तरह है। किले में बड़े-बड़े आंगन, नक्काशीदार खंभे और खूब सारी सीढ़ियां हैं। सफेद और स्लेटी बलुआ पत्थर से बना ये महल वाकई में खूबसूरत है। 


पास में ही चकला बावड़ी भी थी तो उसको देखने के लिए निकल पड़ा। रास्ते में ऊंट की सार और पुरानी कचहरी मिली। रास्ते में मुझे एक घर में साड़ी बनती हुई दिखाई दी। मैंने उनसे उनको काम को देखने की अनुमति मांगी तो उन्होंने अंदर बुला लिया। नरेन्द्र कोली और उनकी मां अंदर थीं। मां जी ने बताया कि चंदेरी में साड़ियों का ही काम होता है। हम बनाकर दुकानदारों को देते हैं और वे बेचते हैं।

पूछने पर नरेन्द्र कोली ने बताया कि एक साड़ी को तैयार करने में 3-4 दिन लगते हैं। कुछ देर बाद मैं चकला बावड़ी के बाहर था। चकला बावड़ी काफी बड़ी थी और पानी भी काफी था। चंदेरी को बावड़ियों का शहर कहा जाता है। वहीं पर एक आदमी सफाई कर रहा था। उन्होंने बत्तीसी बावड़ी, मूसा और गोल पहाड़ी के बारे में बताया। मैं इन सभी बावड़ियों को देखना चाहता था लेकिन उससे पहले कौशक महल और म्यूजियम देखना जरूरी लग रहा था।

कौशक महल


कटी पहाड़ी की ओर जाने वाले चौराहे से कौशक महल के लिए ऑटो मिल गई। 10 रुपए और कुछ ही मिनटों में कौशक महल पहुँच गया। कौशक महल प्लस के आकार में बना हुआ है और चार बराबर-बराबर खंडों में बंटा हुआ है। अफगान शैली में बने इस महल की तीन मंजिल पूरी बनी हुई हैं और चौथी मंजिल अधूरी है। 15वीं शताब्दी में कौशक महल को मालवा के सुल्तान महमूद शाह खिलजी प्रथम ने जौनपुर विजय के उपलक्ष्य में बनवाया था।

कौशक महल की नक्काशी शानदार है। महल की चारों इमारतें एक जैसी बनी हुई हैं। इतनी ऊंची इमारत का 15वीं शताब्दी में बनना किसी अचंभे से कम नहीं है। ये महल उस समय के आर्किटेक्चर के बारे में बताता है। यहाँ हवा भी काफी चल रही थी और ठंडक भी थी। अब मुझे म्यूजियम देखना था। फिर से एक ऑटो ली और म्यूजियम पहुँच गया।

चंदेरी म्यूजियम


किसी भी नई जगह पर जाओ तो वहाँ के संग्रहालय में जरूर जाना चाहिए। म्यूजियम के लिए 5 रुपए का टिकट लिया और संग्रहालय देखने के लिए चल पड़ा। चंदेरी के संग्रहालय में कई जगहों से स्मारक और मूर्तियां लाई गईं है। इस म्यूजियम को 3 अप्रैल 1999 में लोगों के लिए खोला गया था। 

म्यूजियम में वैष्णव दीर्घा, शैव और बौद्ध दीर्घा हैं। जिसमें बहुत सारी मूर्तियां हैं। इसके अलावी पूरे चंदेरी संग्रहालय परिसर में बेहद पुरानी पुरानी मूर्तियां हैं। पूरे म्यूजियम को देखने में काफी समय लग गया। चंदेरी को पैदल-पैदल घूमते हुए थकान होने लगी थी और पैर भी जवाब देने लगे थे। चंदेरी को अभी भी पूरा नहीं देख पाया। शायद एक बार और इस जगह पर आना पड़ेगा। चंदेरी के बारे में इब्नबतूता ने ठीक ही कहा है, नगर बहुत बड़ा है और बाजारों में हमेशा बहुत भीड़ रहती है।


चंदेरी: उत्तर प्रदेश से मध्य प्रदेश तक का सफर काफी लंबा लेकिन अच्छा रहा

घुमक्कड़ी का एक अजीब ही दस्तूर होता है। हमको जो जगह अजनबी लगती है, वहाँ पहुँचने के कुछ घंटों के बाद वो जगह, वहाँ की गलियां सब कुछ अपना लगने लगता है। हम उस जगह, गांव या कस्बे में ऐसे बेपरवाह चलते हैं जैसे हम यहाँ सालों से रह रहे हैं। घूमते हुए ऐसे ही कई जगहें अपनी हो जाती हैं। इन जगहों से पहली बार मिलना अजीब होता है लेकिन उत्सुकता भी होती है। मैंने कुछ दिन पहले ऐसी ही एक शानदार जगह की यात्रा की। जगह का नाम है, चंदेरी।

मध्य प्रदेश का एक छोटा-सा शहर है, चंदेरी। हाल ही में मैंने इस जगह के बारे में सुना था। तब से इस जगह पर जाने का बड़ा मन था। किसी न किसी कारण से नहीं जा पा रहा था। फिर आया 2022 का फरवरी महीना और तारीख 11 फरवरी। मेरे घर से चंदेरी लगभग 250 किमी. दूर है। पहले हम दो लोग जाने वाले थे इसलिए स्कूटी से जाने का प्लान था लेकिन आखिरी वक्त में मैं अकेला रह गया। उसके बाद मैं बस से चंदेरी की यात्रा करने का मन बनाया।

5:40 की बस

11 फरवरी को सुबह 5 बजे उठा। मम्मी मुझसे भी पहले उठ चुकी थीं। उन्होंने रास्ते के लिए खाना बना दिया था। घर से कहीं जाओ तो मम्मी मना करने के बाद भी खाना बना ही देती हैं। अपना छोटा-सा पिठ्ठू बैग लेकर घुप्प अंधेरे में बस वाली जगह पर पहुँच गया। मैंने खिड़की वाली सीट पकड़ ली। बस में कुछ लोग थे और कुछ लोग मेरे बाद आए। 5:40 होते ही रोडवेज बस अंधेरे में चल पड़ी।

लोग इतने शांत थे कि बस के पुर्जे-पुर्जे की आवाज सुनाई दे रही थी। बस को खस्ता हालत में माना जा सकता है लेकिन हमें तो इसकी आदत है। जब तक उजाला नहीं हुआ, हमें बाहर का कुछ नहीं दिखाई दे रहा था। थोड़ी देर बाद उजाला भी हो गया। बस हरे-भरे खेत और गांव के बीच से गुजरती जा रही थी। मेरा दिमाग तो तब झन्ना गया जब मुझे कुछ बदबू आई। मुड़कर देखा तो पीछे वाली सीट पर दो लोग बीड़ी पी रहे थे। कुछ देर बाद बीड़ी फंकना बंद हो गया और मैं फिर से बाहर देखने लगा। लगभग 8 बजे बस ने झांसी पहुँचा दिया।

ललितपुर के लिए बस 

झांसी।
झांसी से मुझे अब ललितपुर जाना था। ललितपुर बस या ट्रेन दोनों से जाया जा सकता है लेकिन इस समय कोई ट्रेन नहीं थी इसलिए बस से जाना मुझे ठीक लगा। झांसी बस स्टैंड काफी बड़ा है। मैं कभी ललितपुर गया नहीं था इसलिए बस का कुछ आइडिया नहीं था। पता किया तो अभी बस लगी नहीं थी। मैंने सुबह से कुछ नहीं खाया था इसलिए पास की दुकान से समोसा रायता ले लिया। रायते के साथ समोसा मेरा पसंदीदा नाश्ता है।

थोड़ी देर में बस आ गई और मैंने ड्राइवर के पास वाली सीट पकड़ ली। विधानसभा चुनाव की वजह से रोडवेज बस चुनाव में लगी हुई थी इसलिए बस में भीड़ भी ज्यादा थी। 8:55 पर बस ललितपुर के लिए चल पड़ी। झांसी के जेल चौराहे से होते हुए बबीना की ओर बढ़ चली। बस हाईवे पर दौड़ रही थी। सड़क के दोनों तरफ हरियाली ही हरियाली दिखाई दे रही थी। मुझे बस में खिड़की वाली सीट पर बैठना पसंद है। सबसे आगे कम ही बैठा था। यहाँ से बस का सफर और भी अच्छा लग रहा था।

फिर से बस...


रास्ते में एक टोल प्लाजा भी मिला। रास्ते में बबीना, तालबेहट और बंसी जैसी जगहें मिलीं। दो घंटे के सफर के बाद मैं ललितपुर बस स्टैंड पर पहुँच चुका था। अब यहाँ से चंदेरी के लिए बस लेनी थी। ललितपुर से चंदेरी लगभग 40 किमी. की दूरी पर है। लोगों से पता किया तो चंदेरी जाने वाली बस की जगह बता दी लेकिन वहाँ बस नहीं थी। बात करने पर पता चला कि थोड़ी देर में बस आएगी।

फरवरी के महीने में भी तेज धूप थी। थोड़ी देर बाद चंदेरी की बस आ गई। मैंने फिर से ड्राइवर के बगल वाली सीट पकड़ ली। इस बस में खूब भीड़ थी। लग ही नहीं रहा था कि यहाँ कोरोना जैसी कोई चीज है। थोड़ी देर बाद बस ललितपुर को छोड़कर चंदेरी की ओर बढ़ गई थी। रास्ता सुंदर लग रहा था, वही खेत और हरियाली। 

उत्तर प्रदेश से मध्य प्रदेश


रास्ते में एक जगह मिली राजघाट। राजघाट में बेतवा नदी पर बांध भी बना हुआ है। नदी के इस पार उत्तर प्रदेश है और पुल पार करते ही मध्य प्रदेश शुरू हो जाता है। मध्य प्रदेश में घुसते ही नजारे बदलने लगे थे। सड़क के दोनों तरफ हरियाली अब भी थी लेकिन समतल इलाके की जगह छोटे-छोटे पहाड़ दिखाई देने लगे थे। रोड भी काफी सपाट थी। बस अपनी स्पीड से बड़ी जा रही थी।

थोड़ी देर बाद चंदेरी का बोर्ड दिखाई दिया। पूछने पर बगल में बैठे आदमी ने दूर तलक दिखने वाली पहाड़ी की ओर इशारा किया और कहा, उस पहाड़ी के पार चंदेरी। मेरे मन में चंदेरी की ओरछा जैसी छवि थी। उस छवि को बरकरार रखने या तोड़ने के लिए चंदेरी जा रहा था। थोड़ी देर बाद मध्य प्रदेश टूरिज्म का ताना बाना होटल दिखाई दिया। घूमते हुए ऐसे आलीशान होटलों में ठहरना मुझे पैसों की बर्बादी लगती है। मुझे तो बस एक छोटा-सा कमरा चाहिए जिसमें रात को नींद ले सकूं।

चंदेरी

थोड़ी देर बाद चंदेरी आ गया। चंदेरी में एक तरफ ऊंची पहाड़ी दिखाई दे रही थी जिस पर किला जैसा कुछ बना हुआ था। चंदेरी में कई जगह पर सवारियों को उतारने के बाद बस चंदेरी के नये बस स्टैंड पर पहुँच गई। मैंने अपने लिए पहले से एक सस्ता होटल खोज लिया था जो बस स्टैंड से 1 किमी. था। लोगों से श्रीकुंज होटल का रास्ता पता किया और पैदल ही चल दिया।


पैदल चलने का एक फायदा ये था चंदेरी को जानने में आसानी होगी। कहीं पढ़ा था कि किसी नई जगह को अच्छे-से जानना है तो उस जगह को पैदल नापें। पहली नजर में चंदेरी काफी विकसित और बड़ा लग रहा था। लोगों और गाड़ियों की भीड़ भी बहुत थी। कुछ देर बाद मैं श्रीकुंज होटल के सामने खड़ा था। होटल काफी बड़ा था। रिसप्शेन पर पता किया तो कमरा 400 से लेकर 2800 रुपए तक का था। मैंने 400 वाला रूम देखा और बात पक्की कर दी।

होटल के कमरे में टीवी था लेकिन चल नहीं रहा था, मुझे जरूरत भी नहीं था। बाकी मेरे जरूरत की सारी चीजें कमरे में थीं। घर से खाना लाया था तो उसे खाया। चंदेरी को घूमने जाने का मन था लेकिन लंबे सफर की वजह से सिर दर्द हो रहा था। दिमाम में कुछ गुणा भाग किया और थोड़ी देर के लिए लेट गया। अभी तो मध्य प्रदेश के इस ऐतिहासिक और पुराने शहर में सिर्फ एंट्री हुई थी। इस शहर का गलियां, किले, महल और बावड़ियों को देखना था।

आगे की यात्रा पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

Monday, 6 December 2021

बुंदेलखंड के अनछुए अम्मरगढ़, समथर और लोहागढ़ किले की बेहतरीन रोड ट्रिप

मुझे हमेशा से इस बात का मलाल रहा है कि मैं जगह-जगह पर घूमने जाता हूँ लेकिन अब तक अपने बुंदेलखंड को सही से नहीं देख पाया हूं। बुंदेलखंड को घूमने के नाम पर अब तक मैं ओरछा, खजुराहो और गढ़कुण्डार ही गया हूं। इन सबके अलावा बुंदेलखंड में ऐसे अनगिनत किले हैं जिनके बारे में कम लोगों को ही पता है। खुशकिस्मती से मुझे इनमें से कुछ के बारे में पता है। अपने मलाल को दूर करने के लिए बुंदेलखंड के कुछ किलों को देखने के लिए निकल पड़ा।

रोड ट्रिप

रोड ट्रिप मुझे हमेशा से पसंद आती है। ये आपको आजादी देने का काम करती है। मैंने इस रोड ट्रिप में अपने भाई को भी शामिल कर लिया। हमारी यात्रा झांसी की एक छोटी सी जगह गरौठा से शुरु हुई। हमने सबसे पहले अम्मरगढ़ किले को देखने के बारे में सोचा है। मुझे इसके बारे में सिर्फ इतना पता था कि ये मोंठ के आसपास है। हम गाँव के रास्ते से होते हुए बढ़ते जा रहे थे। दोनों तरफ खेत थे जिनमें थोड़ी-थोड़ी हरियाली आई थी।

जहाँ हमें आगे का रास्ता समझ नहीं आता था स्थानीय लोगों से पूछ लेते। यहाँ के लोग ही मेरे लिए गूगल मैप थे। कुछ देर बाद हम एक तिगैला पर पहुँचे। यहाँ पर एक समोसे का ठेला लगा हुआ। मुझे अपनी खजुराहो की यात्रा याद आ गई, जब मैंने पांडव फॉल जाते हुए ऐसी ही किसी दुकान पर समोसा खाया था। यहाँ के समोसे में नमक थोड़ा ज्यादा लग रहा था।

नदी

हम फिर से अपने रास्ते पर चल रहे थे। कुछ देर बाद हम खिरका घाट पर पहुँचे। घाट के नीचे कई जगह नदी का पानी रुका हुआ था लेकिन कुछ जगहों पर तेज धार पर चल रही थी। सुबह-सुबह नदी की कलकल करती आवाज को सुनकर अच्छा लग रहा था, एक मधुर ध्वनि की तरह। कुछ देर नदी किनारे पत्थरों पर बैठने के बाद हम आगे बढ़ गए।

कुछ समय बाद हम मोंठ में खड़े थे लेकिन हमें किले के बारे में पता नहीं था। लोगों से पूछा तो उन्होंने बताया कि मोंठ से 10 किमी. की दूरी पर अम्मरगढ़ गाँव में ही किला है। कुछ देर हम हाईवे पर बढ़े जा रहे थे। हाईवे से ही किला दिखाई दे रहा था। जब हम उस गाँव में पहुँचे तो पता चला कि इसे अमरा गाँव के नाम से जाना जाता है।

अम्मरगढ़ किला

गाँव के बीच में ही एक मंदिर के बगल से हमने रास्ता ले लिया। इस रास्ते पर चलकर लग रहा था कि हम किसी जंगल में जा रहे हैं। कुछ देर बाद किला एक बड़ा सा गेट दिखाई दिया। जंगलों के बीच से होकर हम किले के दरवाजे पर पहुँचे। बाहर से देखने पर लग रहा था कि किला काफी बड़ा है। ये किला पहाड़ी के पत्थरों पर बनाया गया था।

अमरगढ़ किला लगभग 250 साल पुराना है। इस किले को राजा अमर मल ने बनवाया था और उन्हीं के नाम पर इस किले का नाम रखा गया था। किले के बाहर इस किले का कोई बोर्ड या उसकी जानकारी नहीं मिली। एक छोटे से गेट से हम अंदर घुसे और सीढियों से आगे बढ़ने लगे। किले के अंदर पहुँचे तो चारों तरफ घास ही घास दिखाई दे रही थी।

जंगल है या किला

किले में ही धूप सेंक रहे बाबाजी ने बुलाया और अम्मर गुरू मंदिर के दर्शन कराए। उन्होंने बताया कि ये मंदिर आल्हा और ऊदल के गुरु का है। मंदिर को देखने के बाद आगे बढ़े तो किले में ही एक जगह पर बाबा जी का चूल्हा बना हुआ था। आगे बढ़े तो बड़ी-बड़ी घास के बीच से चलना पड़ा। उसके बाद किले की इमारत आई।

किला कहीं से जर्जर या खंडहर नहीं हुआ था लेकिन रखरखाव बिल्कुल भी नहीं था। यहाँ आकर मुझे काफी बुरा लग रहा था कि इतना अच्छा किला जंगल में बदलता जा रहा है। यहाँ तक कि किले की छत पर भी घास ही घास थी। किले के सबसे नीचे वाले तल में कूड़े का ढेर पड़ा हुआ था। सबसे ऊपरी तल की दीवारों पर लोगों ने अपनी और अपने प्यार की निशानी दी हुई थी। तीन मंजिल के इस किले की हालत वाकई खराब थी।  

फिर से सफर

इस किले के बाद हमारा अगला लक्ष्य मोंठ का किला और समथर किले को देखना था। कुछ देर बाद हम मोंठ कस्बे में घूम रहे थे। कुछ देर बाद हम एक चौराहे पर रुके और मिठाई बाले से मोंठ किले के बारे में पूछा तो पता चला कि किला पीछे छूट गया है। यहाँ से आगे समथर का रास्ता जाता है।

उस मिठाई वाले ने जवाब देने के बाद कहा कि आप ऋषभ देव है न। मैंने कहा हाँ, तुम नवोदय से हो क्या?  पता चला कि जब मैं नवोदय में 12 में था वो कक्षा 8 में था। इस मुलाकात के बाद हमने सोचा कि पहले समथर किला चलते हैं लौटते हुए इस किले को देखा जाएगा। मोंठ को छोड़कर हम समथर की ओर चल पड़े। मोंठ से समथर 15 किमी. है लेकिन रास्ता इतना खराब था कि गाड़ी तेज चला ही नहीं पा रहा था। कुछ मिनटों का रास्ता हमने घंटे भर में पूरा किया।

समथर किला

समथर भी एक छोटा सा कस्बा है। लोगों से पूछते हुए हम समथर किले के पास जा रहे थे। जब हम बाजार में थे तो दूर से ही किला दिखाई दे रहा था। समथर पहले बुंदेलखंड की एक छोटी-सी रियासत हुआ करती थी। दतिया के महाराजा के शासनकाल में समथर में गुर्जर राज्य की स्थापना हुई। समथर की किलेदारी मर्दन सिंह को सौंपी गई। बाद में समथर एक अलग रियासत बन गई।

इस किले के कुछ हिस्से में राजा और उनका परिवार रहा करता है। हम किले के अंदर गए तो देखा कि जहाँ राजा का परिवार रहता है वहाँ तो सब कुछ बेहतरीन है। किले के पीछे तरफ भी बहुत सारी इमारतें बनी हुई हैं लेकिन वहाँ आपको गंदगी और जंगल मिलेगा। इस किले के अंदर एक स्कूल भी चलता है।

किले में जहाँ राजघराना रहता है वहाँ जाने की मनाही है और जहाँ घूमा जा सकता है वहाँ सब कुछ जर्जर हो चुका है। अमरगढ़ किले की तरह यहाँ भी किले के बारे में कोई जानकारी नहीं दी गई थी। जब हम मोंठ मे थे तो एक बोर्ड पर लोहागढ़ किले का नाम पढ़ा। समथर के बाद हमने उसी किले को देखने का मन बनाया।

एक और किला


समथर छोड़कर हम हाईवे पर दौड़े जा रहे थे। मुझे लगा कि इस रास्ते से हम कुछ मिनटों में ही अपनी मंजिल पर पहुँच जाएंगे लेकिन ये मेरी गलतफहमी थी। हमारी स्पीड फिर से धीमी हो गई थी क्योंकि टूटे-फूटे रास्ते से होकर हम गुजर रहे थे। हमें ये भी नहीं पता था कि लोहागढ़ किला कितना दूर है। रास्ते में लोगों से पूछते हुए चले जा रहे थे। कुछ देर बाद दूर से एक पहाड़ी पर बेहद पुरानी छोटी सी इमारत दिखाई दी थी।

लोहागढ़ का किला लोहागढ़ गाँव में स्थित है। कुछ देर बाद हम गाँव से होते हुए किले तक पहुँच गए। ये किला एक कोठी की तरह लग रहा था जिसमे कुछ कमरे थे और एक छत थी। किले रुपी इस इमारत में एक पेड़ भी लगा हुआ था। कमरे में कुछ गड्ढे भी थे। हमने अंदाजा लगाया कि खजाना खोजने के लिए लोगों ने खुदाई की होगी।

लोहागढ़ की छत से पूरा गाँव और हरे-भरे खेत दिखाई दे रहे थे। किला बहुत छोटा था और जर्जर भी बहुत था। इंटरनेट पर जब लोहागढ़ किले के बारे में पता किया तो दूसरों राज्यों के लोहागढ़ किले के बारे में दिखाई दे रहा था लेकिन इस लोहागढ़ के बारे में कोई जानकारी थी। इस किले में हमें कोई दिखाई भी नहीं दिया, जिससे हम ये सब पूछ सकते।

इस किले को देखने के बाद हम वापस लौट चले। हमें मोंठ का किला देखना था लेकिन वक्त की कमी की वजह से हमने अगली बार के लिए टाल दिया। इस रोड ट्रिप में हमने बुंदेलखंड के तीन अनछुए किलों को देखा। किलों ही हालत देखकर निराशा जरुर हुई लेकिन इन किलों को देखा जाना चाहिए क्योंकि यही हमारी धरोहर हैं।

Saturday, 16 October 2021

ओरछा: खूबसूरती भरे इस ऐतहासिक शहर में दोबारा जाना वाकई शानदार रहा

एक ही जगह पर दोबारा जाना एक अलग प्रकार का सुकून देता है। आपको उस जगह के बारे में सब कुछ पता होता है। वहां का खाना, जगहें, रास्ते और ठिकाना सब कुछ आप जानते हैं। फिर भी ऐसी जगहों पर आकर खुशी मिलती हो। मैं ऐसी जगहों पर ऐसे फिरता हूं जैसे कि मेरा घर हो। ऐसी कम ही जगह हैं जहां मैं दोबारा गया हूं। उन कम जगहों में ओरछा सबसे ऊपर है। ओरछा एक ऐतहासिक और धार्मिक स्थल दोनों है। घूमते हुए आप दोनों के बारे में जान सकते हैं। मैंने भी इस बार ओरछा की वैभवता को जानने की भरसक कोशिश की।

ओरछा का प्लान 


तो हुआ यूं कि मेरी अपने एक खास दोस्त से बात हुई। वो चाह रही थी कि दोनों सोनभद्र घूमने चलें और मैं खजुराहो चलने पर जोर दे रहा था। मेरे पास इतना समय नहीं था कि सोनभद्र जा सकूं और खजुराहो उसके लिए दूर पड़ रहा था। सो मैंने उसे ओरछा आने के लिए कहा। फोन पर चर्चा होने के बाद आखिर ओरछा जाने का प्लान पक्का हो गया। मेरे घर से ओरछा लगभग 60 किमी. की दूरी पर है। जिस दिन उसे आना था, मैं झांसी गया। देर रात होने की वजह से हमने रात झांसी में ही बिताई। इसके बाद अगली सुबह झांसी बस स्टैंड से ओरछा के लिए शेयर्ड ऑटो में बैठ गए।

झांसी से ओरछा का रास्ता बेहद खूबसूरत है। चारों तरफ आपको हरियाली ही हरियाली मिलेगी। रोड ट्रिप के लिए ये रास्ता परफेक्ट है। अगर मौसम सुहावना रहता है तब तो ये जगह और भी खूबसूरत हो जाती है। हम इतने खूशनसीब नहीं थे लेकिन रास्ता फिर भी अच्छा लग रहा था। आधा घंटे के बाद हम हाइवे को छोड़कर ओरछा के रास्ते पर आ गए। इस रास्ते पर जाते हुए सारी पुरानी यादें जेहन में चलने लगीं। कुछ ही देर बाद हम ओरछा में थे।

सबसे पहले क्या?

पूड़ी-सब्जी।
हमने सबसे पहले अपने होटल में चेक इन किया और बाहर जाने के लिए तैयार हो गये। हमने सुबह से कुछ खाया नहीं था इसलिए पेट पूजा भी बहुत जरूरी थी। हम किसी होटल में नहीं जाना चाहता था इसलिए रामराजा मंदिर के सामने छोटी-सी दुकान है। जहां की सब्जी-पूड़ी खाए बिना ओरछा की यात्रा पूरी नहीं मानी जा सकती। सब्जी-पूड़ी के साथ मिर्च नींबू का अचार और रायते ने स्वाद को और भी बढ़ा दिया। इसके बाद हमने सबसे पहले किले को घूमने का प्लान बनाया।

धूप तेज थी और गर्मी भी काफी लग रही थी लेकिन अब आ गए थे तो कमरे में तो नहीं बैठ सकते थे। पुल पार करने के बाद किले के पुराने गेट से होकर टिकट काउंटर पर पहुंच गए। टिकट लिया, जेब में डाला और निकल पड़े किला घूमने। किले में घुसते हर दायीं तरफ एक बड़ी इमारत आती है जहां कभी राजा का दरबार लगता था। किले की ये जगह मायूस कर देती है। इमारत की छज्जों पर नक्काशी देखने लायक है लेकिन चारों तरफ गंदगी ही गंदगी है। यहां से हम राजा महल की तरफ बढ़ गए।

टिकट कहां गया?


जहांगीर महल से पहले राजा महल आता है। हम महल के बड़े-से गेट से अंदर घुसे। अंदर गार्ड ने टिकट मांगा। मैंने जेब में हाथ डाला लेकिन टिकट नहीं मिला। मैंने फिर दूसरी जेब देखी, पर्स देखा लेकिन टिकट नहीं मिला। गार्ड ने कहा, चले जाओ अंदर लेकिन मैं परेशान था कि टिकट गया कहां? हम टिकट खोजने के लिए उसी रास्ते पर चलने लगे, जिससे आए थे। जब मुझे लगने लगा कि अब टिकट नहीं मिलेगा, तभी सीढ़ियों पर मुझे छोटा-सा कागज दिखाई दिया। उसे उठाया तो देखा कि वो मेरा ही टिकट है। चेहरे पर एक मुस्कान तैर गई।

हम वापस लौटे और राजा महल के अंदर आए। राजा महल की नींव राजा रुद्र प्रताप ने 1531 में रखी थी। इसका पूरा निर्माण उनके बेटे भारती चन्द्र ने करवाया। बाद में राजा मधुकर शाह ने महल को अंतिम रूप दिया। इस महल में आवास कक्ष, दीवान-ए-आम और दीवान-ए-खास है। हम इन्हीं महलों को घूम रहे थे। किले का आर्किटेक्चर देखकर हम हैरान थे। छज्जे और दीवार पर रामलीला और कृष्ण लीला का उकेरा गया था जो वाकई शानदार लग रहा था। बुंदेली शैली में बना ये किला वाकई शानदार था।

किले के उपरी भाग पर नजारा भी शानदार था और हवा भी काफी ठंडी चल रही थी। यहां से हमें रामराजा मंदिर, चतुर्भुज मंदिर और जहांगीर महल तो दिख ही रहा था। वहीं दूसरी तरफ हमें हरा-भरा ओरछा दिखाई दे रहा था। चारों तरफ ऐसी हरियाली देखकर मन पुलकित हो उठा। बीच-बीच में मौसम भी हमारा साथ दे रहा था। कुछ घंटे घूमने के बाद हम किले के बाहर थे।

दाऊजी की कोठी

राजा महल के दायीं तरफ एक रास्ता गया था। इस तरफ दाउ जी की कोठी थी। कुछ ही मिनटों के बाद हम दाउजी की कोठी के बाहर थे। ये कोठी बुंदेल राज्य के सैन्य अधिकारी और मंत्री बलवंत दाउ की थी। अंदर गया तो पाया कि कोठी तो काफी बड़ी है लेकिन रखरखाव बहुत अच्छा नहीं है। कोठी की छत नहीं है लेकिन एक बार देखने लायक है। इसके बाद जहांगीर महल की ओर चल पड़े।

मैंने राजस्थान के कई किले देखे हैं। वो किले काफी खूबसूरत होते हैं लेकिन मुझे सुकून ओरछा के किले ही देते हैं। यहां के किलों में मन बसता है। हम जहांगीर किले के गेट से घुसे। घुसते ही हमें ओरछा की वैभवता दिखाई दी। इस खूबसूरत किले के बनने की एक कहानी है। मुगल शासक अकबर ने अपने सेनापति अबुल फज़ल को अपने विद्रोही बेटे को पकड़ने का आदेश दिया। जहांगीर को खतरे के बारे में पता चल गया। 

जहांगीर ने ओरछा के राजा वीर सिंह को अबुल फज़ल से निपटने को कहा। वीर सिंह ने अबुल फज़ल को हमेशा के लिए जहांगीर के रास्ते से हटा दिया। वीर सिंह से जहांगीर इतने खुश हुए कि कई जागीर उन्हें दे दी। बाद में जब जहांगीर ओरछा आने वाले थे तो उनके स्वागत में ये भव्य जहांगीर महल बनवाया गया। हम किले की छत पर गए और ओरछा नगर की भव्यता को देखा। इस महल से ओरछा और भी खूबसूरत लग रहा था।

अब कल घूमेंगे

ओरछा आने से पहले ही प्लान बना लिया था कि दिन में घूमेंगे और शाम में काम करेंगे। जहांगीर महल और प्रवीण राय महल को देखने के बाद हम अपने होटल में वापस लौट आए। बाकी कुछ बताने के लिए नहीं, बस काम करते हुए रात हो गई और फिर नींद की आगोश में चले गए। सुबह आराम से उठे, तैयार हुए और निकल पड़े रामराजा मंदिर। रामराजा मंदिर भी बेहद शानदार है। इस मंदिर में अंदर फोटो खींचना मना है। 

इस मंदिर की भी एक कहानी है। महाराजा मधुकर शाह कृष्ण के भक्त थे और रानी श्रीराम की। एक दिन दोनों में बहस छिड़ गई कि दोनों में श्रेष्ठ कौन है। रानी ने प्रतिज्ञा कर ली कि वे श्रीराम को ओरछा लेकर आएँगी। श्रीराम के लिए चतुर्भुज मंदिर का निर्माण भी शुरू कर दिया। रानी अवध गईं और सरयू नदी के किनारे कठिन तपस्या की। जब भगवान प्रसन्न नहीं हुए तो अंत में सरयू में प्राण देने लगीं। तभी एक झूला नदी से निकला जिसमें बालक रूपी राम थे। 

कहा जाता है कि भगवान ने शर्त रखी कि वो एक बार जहां विराजमान हो जाएंगे, वहीं रहेंगे। जब रानी ओरछा आईं तो चतुर्भुज मंदिर बनकर तैयार नहीं हुआ था। रानी ने महल की किचन में भगवान राम को रख दिया। शर्त के अनुसार, वे महल में ही विराजमान हो गये। तब से ये महल रामराजा मंदिर कहलाने लगा। मंदिर में भीड़ नहीं थी इसलिए जल्दी घूमकर बाहर निकल आए।

चतुर्भुज मंदिर

राम राजा मंदिर के बगल से एक रास्ता गया है जो चतुर्भुज मंदिर गया है। हम दोनों चतुर्भुज मंदिर के लिए निकल पड़े। अगर आपने महल के लिए टिकट लिया है तो उसी टिकट से इस मंदिर को देख सकते हैं। इस मंदिर को भूलभुलैया भी कहते हैं। ऐसा क्यों कहते हैं ये आपको मंदिर घूमते हुए समझ आ जाएगा। कई मुश्किलों का सामना करने के बाद हम मंदिर की छत पर पहुंच गए। जहां से हमें पूरा ओरछा दिख रहा था। कुछ मिनट रूकने के बाद हम नीचे उतरने लगे। 

मंदिर से नीचे उतरना भी एक टास्क था। हम जिस रास्ते जा रहे थे, वापस लौटकर वहीं आ जा रहे थे। कड़़ी मशक्कत के बाद हमें आखिर रास्ता मिल ही गया और मंदिर से बाहर आ गए। ओरछा का स्टीट फूड शानदार है। अगर आपने यहां ही चाट नहीं खाई तो कुछ भी नहीं खाया। मुझे मामा चाट भंडार की चाट बहुत पसंद है। पत्ते के दोने में मिलने वाली चाट का स्वाद बेजोड़ है। आप एक बार खाओगे बार-बार खाने का मन करता हैं। चाट के बाद हमने समोसा रायते का भी स्वाद लिया। 

लक्ष्मी मंदिर देखा

हमें आज ही झांसी के लिए निकलना था। जहां से हम दोनों को अपने-अपने घर जाना था। उससे पहले थोड़ा समय था इसलिए लक्ष्मी मंदिर देखने के लिए निकल गए। ओरछा के इस मंदिर को देखने के लिए कम ही लोग आते हैं लेकिन मेरी नजर में ये बेहद शानदार जगह है। आर्किटेक्चर देखकर तो मन खुश हो जाएगा इस मंदिर की दीवारों पर देवी-देवताओं के चित्र बने हुए है। 

लक्ष्मी मंदिर।
मंदिर के छत से ओरछा के नजारे और ठंडी हवा का लुत्फ उठाया जा सकता है। हमने कुछ देर यहां का लुत्फ उठाया। इस बार मैंने कंचना घाट और छतरियां नहीं देख पाया। मेरा मानना है हर जगह पर कुछ जगहें रह जानी चाहिए। ये जगहें ही हमें उस जगह पर वापस आने का मौका देती हैं। अगली बार इन जगहों पर जरूर जाउंगा। हमनें ओरछा से झांसी के लिए टैक्सी ली और निकल पड़े एक और सफर के लिए। ओरछा मेरे लिए हमेशा से ही खूबसूरत शहर रहा है। मुझे पहाड़ बहुत पसंद हैं लेकिन ओरछा मेरे घर और दिल दोनों के बहुत करीब है। इसलिए जब भी मौका मिलता है ओरछा चला आता हूं।

 

Monday, 17 December 2018

ओरछा 3: वो जगह जहां ‘चन्द्रशेखर आजाद’ अपने अज्ञातवास में रहे थे

ओरछा बुंदेलखंड का ऐतहासिक इतिहास है। जो आज भी अपने को समेटे हुए दिखाई पड़ता है। किला और महल बड़ा पर्यटन केन्द्र बन गया है तो कुछ किलों को व्यवस्थता की मार ने चौपट कर दिया है। ये नगर इतिहास से भरी पड़ी है। पहले बुंदेलों का गढ़, रामराजा सरकार का गढ़ और फिर गवाह बना आजाद का गढ़।


गढ़ ओरछा


हम अब तक ओरछा का बहुत भाग देख चुके थे। कुछ महल और बुंदेली इतिहास को आज भी बयां कर रहा है। वहीं कुछ के सिर्फ अवशेष बचे हैं। कुछ जगह को हमने छोड़ दिया अगली बार के लिए। ओरछा की मंदिर वाली भीड़ को पार करके हम मुख्य रास्ते पर चलने लगे। ये रास्ता ओरछा तिगैला की ओर जाता है जहां से हमें अपने घर जाना था। समय हमारे पास काफी था इसलिए हमने पैदल ही रास्ता नापना तय किया।

ओरछा वो जगह नहीं है जहां बड़ी-बड़ी दुकानें हों, माॅल हो और आधुनिकता का पूरा रंग हो। ओरछा एक छोटा-सा नगर है जो बस अपने इतिहास के कारण प्रसिद्ध है। यहां दुकानों के नाम पर मिठाई की दुकान, ढाबारूपी होटल मिल जाएंगे। बड़ी इमारत के नाम पर होटल ही हैं जहां पर्यटक ठहरते हैं। बाकी तो कच्चे-पक्के घर हैं और दिखेगा ग्रामीण परिवेश। सड़क पर गाय-भैंस का जमावड़ा मिल जायेगा। जो आपके सफर को खूबसूरत कर देगा। इसी खूबसूरती को देखते-देखते आगे बढ़ रहे थे।

ओरछा गेट।

हमें पैदल चलना जितना-आसान लग रहा था उतना आसान हो नहीं रहा था। गर्मी हम पर हावी हो रही थी। बार-बार हमें पानी का सहारा लेना पड़ रहा था और पेड़ की छांव में सुस्ता रहे थे। पहाड़ों पर चलते वक्त इतनी थकान नहीं होती थी जितनी सीधे रास्ते पर हो रही थी। आस-पास खेत और जंगल ही दिखाई पड़ रहे थे। ओरछा आते वक्त मुझे पता चला था कि यहां आस-पास कोई ‘आजाद पार्क’ है। मुझे वो देखना नहीं था क्योंकि पार्क तो हर शहर, गांव में सरकार बनवा ही देती है। लेकिन मुझे उसका इतिहास मालूम नहीं था अगर मालूम होता तो सबसे पहले वहीं जाता।

आजाद पार्क


हमने रास्ते में कुछ लोगों से उस पार्क के बारे में पूछा तो वे सोच में पड़ गये। सब लोगों को एक ही जवाब था यहां ऐसा कुछ भी नहीं है। मैंने भी मान लिया कि ये लोग सही कह रहे हैं। हम ओरछा तिगैला की ओर चल दिए। हम कुछ ही दूर चले थे कि मुझे एक बड़ी सी मूर्ति दिखाई पड़ी। मूर्ति चन्द्रशेखर आजाद की थी और पार्क का नाम था आजाद पार्क। ये पार्क सातार गांव में पड़ता है। पार्क के अंदर जाते ही एक बोर्ड लगा हुआ था। बोर्ड पर इस जगह की महत्वता लिखी पड़ी थी। उसमें लिखा था कि चन्द्रशेखर आजाद 1928 में इस जगह पर भेष बदलकर रहे थे।

इस जगह के बारे में।

आजाद यहां एक कुटिया में रहते थे जो आज भी है। उस कुटिया में आज उनकी फोटो लगी हुई है।
पार्क के पीछे तरफ चलते हैं तो हनुमान मंदिर मिलता है। उसके पास में छोटा-सा कुआ बना हुआ है। जिसे चन्द्रशेखर आजाद ने खोदा था जो आज भी पानी दे रहा है। यहां आजाद लगभग डेढ़ साल रहे थे। वे यहां के जंगलों में गुरिल्ला अभ्यास करते थे और अंग्रेजों से लड़ने की रणनीति बनाते थे। पार्क के आगे की तरफ उनकी बलिष्ठता की प्रतीक में उनकी मूर्ति बनी हुई है। जिसका अनावरण 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने किया था।

चन्द्रशेखर आजाद के द्वारा बनाया कुआं।

पार्क में बड़ी शांति है, कुछ चिड़िया चहचहां रही है, पार्क के बगल से ही बेतवा नदी का रास्ता बना हुआ है। यहां सब कुछ अच्छा है सिवाय यहां की जानकारी के। लोग ओरछा घूमने आते हैं लेकिन इस जगह पर नहीं आते हैं क्योंकि उन्हें इस जगह के बारे में पता ही नहीं रहता। कमी सरकार की तो है ही कुछ यहां रहने वाले लोगों की है। जब यहां के लोगों को इस जगह के बारे में पता नहीं है तो पर्यटकों की बात ही छोड़ दीजिए। जो लोग ओरछा घूमने आते हैं उन्हें इस ऐतहासिक जगह पर भी आना चाहिए। हमारा इतिहास है, हमें नहीं भूलना चाहिए।

यात्रा का पिछला भाग यहां पढ़ें।

Friday, 30 November 2018

ओरछा 2: ओरछा की प्राचीनता आज भी इन किलों की दीवारों पर देखी जा सकती है

ओरछा ने अब तक प्राचीनता की जर्जर तस्वीर दिखाई और दीवार पर बुंदेली नक्काशी। मैं राजस्थान नहीं वहां के किले नहीं देखे। फिर भी मुझे पता है ओरछा जैसे ही होंगे किले। जिनमें प्राचीनता झलक रही होगी आधुनिकता की पुटीन इन किलों पर नहीं चढ़ पाती है। अब तक मैं ओरछा की वो जगहें देख चुका था। जहां कम ही लोग जाते। अब मुझे भी उस जगह जाना था जहां सभी जाते हैं किला और जहांगीर महल।



जहांगीर महल


जहांगीर महल ओरछा का सबसे बड़ा आकर्षण का केन्द्र है। इसका मुख्य द्वार पर बड़ा सा गेट। दरवाजा के दोनों तरफ बड़े-बड़े हाथी बने हुये हैं। खास बात ये है कि दोनों हाथी का सिर झुका हुआ है। इस महल के कहानी रोचक है।

मुगल शासक अकबर ने अपने सेनापति अबुल फजल को अपने विद्रोही बेटे को पकड़ने का आदेश दिया। जहांगीर को खतरे के बारे में पता चल गया। जहांगीर ने ओरछा के राजा वीर सिंह को अबुल फजल से निपटने को कहा। वीरसिंह ने अबुल फजल को हमेशा के लिए जहांगीर के रस्ते से हटा दिया। वीर सिंह से जहांगीर इतने खुश हुए कि कई जागीर उन्हें दे दी। बाद में जब जहांगीर ओरछा आने वाले थे तो उनके स्वागत में ये भव्य जहांगीर महल बनवाया।

जहांगीर महल
जहांगीर महल ओरछा का सबसे बड़ा आकर्षण का केन्द्र है। महल की छत पर चढ़कर पूरे नगर को देखा जा सकता है। दीवारों पर कुछ नक्काशी भी बनी हुई है। देश-विदेश से पर्यटक इसी महल को देखने आते हैं। जहांगीर महल किले के अंदर ही है। महल की मोटी दीवार और बाहर का सुंदर नजारा बेहद खुशनुमा होता है। गर्मी में किले के लाल पत्थर ठंडक महसूस करवाते हैं। किले को देखने का बाद हम राजमहल की ओर बढ़ गये।

राजमहल


किले के अंदर जाते ही सबसे पहले राजमहल ही मिलता है। उसके ठीक सामने है जहांगीर महल। जहांगीर महल के भांति यहां भी एक बड़ा सा गेट है। महल के बीचों-बीच एक चबूतरा बना है। महल दो भागों में बंटा हुआ है। महल भूल-भुलैया टाइप का है। आप जिस जायेंगे लगेगा मैं इधर तो अभी-अभी आया था। इस महल में भी नक्काशी दिखाई देती है। दीवार कला और संस्कृति से पटी हुई है, ऐसा ही कुछ हान छज्जों का भी है।


किला पांच मंजिल का है। हमारे पास में खड़ा गाइड कुछ पर्यटकों को बता रहा था। राजा की 100 रानियां थीं और सभी का अलग-अलग कमरा था। राजा का एक अलग कमरा था। मुझे उसकी बातों पर विश्वास नहीं हुआ। मैंने ओरछा का इतिहास पढ़ा है। मुझे ऐसी जानकारी कहीं न मिली। न ही किताब में और न ही इंटरनेट पर।  इस महल को महाराजा मधुकर शाह ने पूरा करवाया था।

महल से बाहर निकलकर हम बाहर की ओर जाने लगे। हमें तभी एक बड़ा-सा कमरा दिखाई दिया। जो बहुत बड़ा था। उस बड़े से हाॅल में कई मोटे-मोटे खंभे थे। आगे बढ़ने पर एक पत्थर की बनी हुई गद्दी दिखाई दी। मुझे समझने में देर नहीं लगी कि ये राजदरबार है। यहीं बैठकर राजा अपना राजदरबार चलाते होंगे। यहां के छज्जे पर भी रंगीन नक्काशी दिखाई दे रही थी। लेकिन राज दरबार किले के कोने पर होने पर यहां अंधेरा था।


रामराजा मंदिर


ओरछा बुंदेलखंड की आस्था का केन्द्र है। वजह है यहां का रामराजा मंदिर। पुख के दिन ओरछा किसी मेले के समान सज जाता है। रामराजा मंदिर देखकर अमृतसर का स्वर्ण मंदिर याद आता है। बिल्कुल संगमरमर सा सफेद मंदिर और सोने के समान चमकती चोटियां। रामराजा मंदिर में भगवान श्रीराम विराजे हुये हैं। इस मंदिर की भी एक रोचक कहानी है।

रामराजा मंदिर
महाराजा मधुकर शाह कृष्ण के भक्त थे और रानी श्रीराम की। एक दिन दोनों में बहस छिड़ गई कि दोनों में श्रेष्ठ कौन है? रानी ने प्रतिज्ञा कर ली कि वे श्रीराम को ओरछा लेकर आयेंगी। श्रीराम के लिए चतुर्भुज मंदिर का निर्माण भी शुरू कर दिया। रानी अवध गईं और सरयू नदी के किनारे कठिन तपस्या की। जब भगवान प्रसन्न नहीं हुये तो अंत में सरयू में प्राण देने लगीं। तभी एक झूला नदी से निकला जिसमें बालक रूपी राम थे।


भगवान श्रीराम जब ओरछा आये तो वे महल में ही विराजमान हो गये। तब से वो महल रामराजा मंदिर कहलाने लगा। भगवान रामराजा के दर्शन किए और ओरछा से वापस चल दिये। ओरछा में देखने लायक बहुत कुछ था लेकिन शाम होने को थी और हमें लंबा रास्ता तय करना था, गांव का रास्ता।

यात्रा का पहला भाग यहां पढें।

Monday, 26 November 2018

ओरछा 1ः बुंदेलखंड की विरासत की शान का बहुमूल्य नगीना है ये नगर

मैं अक्सर अपने बुंदेलखंड के बारे में सोचता-रहता हूं कभी सूखे के बारे में, तो कभी अपने विशेष पर्व के बारे में। मुझे लगता है बुंदेलखंड आज अपनी कला और संस्कृति में इतना परंपरागत है। तो बुंदेलों-हरबोलों में तो यह चरम पर होगा। उस समय के बुंदेलखंड को किताबों में देखा जा सकता है और किलों में। जहां का ढांचा और नक्काशी इतिहास के पन्नों में ले ही जाती है। ऐसे ही बुंदेलों के इतिहास में ओरछा का नाम है। ओरछा बुंदेलखंड का वो तिकोना है जिसमें किले ही किले हैं।


11 नवंबर 2018। मैंने एक रात पहले सोचा कल ओरछा जाना है। ओरछा को कभी अच्छी तरह से नहीं देखा। आज उस शहर और वहां की नक्काशी को देखने की योजना बनाई। मेरे घर से ओरछा करीब 100 किलोमीटर की दूरी पर है। सुबह 7 बजे मैं झांसी जाने वाली गाड़ी पर बैठा। मऊरानीपुर होते हुये साढ़े नौ बजे ओरछा तिगैला ’ऐसी जगह जहां तीन दिशा में रास्ते हों’ पर हम पहुंच गये। झांसी से आरेछा लगभग 10 किलोमीटर की दूरी पर है। जो दिल्ली से ओरछा देखने आता है उसके लिए झांसी पहले आना पड़ता है।

ओरछा कूच


ओरछा तिगैला से ओरछा जाने के लिए आॅटो में जगह ली। आॅटो भरी हुई थी तो पीछे खड़े होकर जाना पड़ रहा था। बुंदेलखंड में गेट पर लटककर यात्रा करने वाला दृश्य आम है। मुझे जल्दी पहुंचना था इसलिए मैंने भी वही रास्ता अपनाया। सुबह-सुबह मौसम भी सुहाना था और रास्ता भी छायादार। रोड के दोनों तरफ बड़े-बड़े पेड़ लगे थे। ओरछा से पहले रास्ते में कई गांव मिलते हैं। इस समय गांव की दीवारों पर कुछ नारे लगे हुए थे। ओरछा मध्य प्रदेश में आता है। इस समय यहां चुनाव का माहौल है दीवारें भी चुनाव के आबोहवा में रंग गई हैं।


थोड़ी देर बाद एक बड़ा-सा पुराना दरवाजा दिखता है। जो किसीसमय नगर का प्रवेश द्वार होगा। आज भी यही बड़ा गेट नगर का द्वार है। उसके बाद लगातार तीन बड़े गेट आते हैं। एक पर गणेश भगवान की मूर्ति उकेरी गई है। शहर में आते ही हम अचानक भीड़ से घिर गये। ओरछा देखने में बहुत छोटा-सा नगर है। कुछ घर हैं, कुछ होटल हैं, दुकानों की यहां भरमार है। लोग बड़े प्यारे हैं, वे ठगी से पैसा तो कमाते हैं लेकिन बात करने में घबराते नहीं है। छोटी जगह का यही फायदा होता है, बड़े शहर की तरह यहां डर नहीं होता है। सब पास-पास ही स्थित होता है।

हम नगर को छोड़कर घाटों की तरफ बढ़ने लगे। जहां बेतवा नदी अपने तेज प्रवाह में बह रही है। आज यहां बहुत भीड़ थी। ओरछा में दो प्रकार के लोग आते हैं एक, किले की खूबसूरती को देखने आते हैं। दूसरा, धार्मिक आस्था जो रामराजा मंदिर के प्रति अगाध है। हम उन्हीं घाटों पर चलने लगे। बुंदेलखंड के घाटों में सबसे बड़ी कमी है, सफाई। एक बार बनने के बाद इसका रख रखाव सही से नहीं होता है। उसी गंदगी को पार करके हम पहुंचे, कंचना घाट।

बुंदेली प्रतीक


कंचना घाट, नगर का आखिरी पड़ाव है। उसके आगे नदी, जंगल और छोटे पहाड़ दिखाई देते हैं। सबसे ज्यादा भीड़ इसी जगह पर रहती है। अक्सर ओरछा आने वाले पर्यटक कंचना घाट नहीं आते हैं। मुझे लगता है कि किले को देखने के पहले उन्हें इसी जगह पर आना चाहिए। कंचना में सबसे खूबसूरत हैं राजाओं की छत्री।


गुंबदनुमे बड़े-बड़े टीले दिखाई देते हैं जिन्हें महल की तरह बनाया गया है। ऐसे ही 15 किले बने हुए हैं। सभी देखने में एक-दूसरे के कार्बन काॅपी। अलग है तो उनकी नक्काशी और अंदर बनीं चित्रकारी। छत्री का अर्थ होता है समाधि। कंचना घाट पर ओरछा के राजाओं की छत्री हैं। एक छत्री को राजा वीरसिंह ने बनवाया है और बाकी मधुकर शाह ने। ये छत्री तीनमंजिला तक बनाई गईं थीं। इस समय उपर जाने का रास्ता बंद किया हुआ है।

जहां ये छत्री बनी हुई हैं। वहां का आसपास का वातावरण बेहद खूबसूरत और मनमोहक है। चारों तरफ हरियाली है और रंग-बिरंगे फूल है। सबसे बड़ी बात यहां शांति है। किले से दूर होने के कारण यहां कम ही लोग आते हैं। बहुतों का तो इस जगह के बारे में पता ही नहीं है। राजाओं की छत्री को इत्मीनान से देखने के बाद हम किले की ओ बढ़ गये।


हम अपनी विरासत को नहीं बचा पा रहे


हम किले की ओर बढ़ गये। किले और शहर के बीच एक पुल है बहुत चौड़ा और बहुत मोटा। इतना मजबूत है कि इसे आसानी से तोड़ा नहीं जा सकता। पुल उस समय की कारीगरी का एक बेहतरीन नमूना है। उसके आगे चलते हैं तो किले का भारी भरकम प्रवेश द्वार मिलता है। आज वो भारीभरकम गेट अपने भार की वजह से एक तरफ रखा हुआ है। ये गेट हमारे कच्चे घरों के उस दरवाजे की तरह हो गया है। जहां आना-जाना बहुत है इसलिए हमने उसको एक तरफ रख दिया है।


किले को देखने का टिकट मात्र दस रूपए का है। गेट पर गाइड की भरमार है जो विदेशी पर्यटकों के साथ घूमते-बतियाते मिल जाते हैं। हम किले में घुसने के पहले उसके बायें तरफ एक बोर्ड दिख गया। जिसमें लिखा था कि इस तरफ भी कुछ है। हम उसी रास्ते पर चल दिये। कुछ देर बाद एक बोर्ड दिखा ‘श्याम दउआ की कोठी’। बोर्ड तो वहीं था लेकिन अब कोठी खंडहर हो गई थी। उसके कुछ अवशेष  ही दिख रहे थे। आगे चले तो एक और कोठी दिखाई दी। ये कोठी सही-सलामत थी और अच्छी भी दिख रही थी। कमी थी तो बस लोगों के आने की।


इस तरफ कोई भी पर्यटक नहीं दिख रहा था। हम उस कोठी में चल दिए। ये छोटा-सा महल देखने में सुंदर था ही यहां की दीवारें भी नक्काशी से घिर हुईं थीं। इसके दूसरी मंजिल पर गये तो वहां भी नक्काशी थी। जिसमें एक तरफ किसी राजा का चित्र था दूसरी तरफ नृतकी का। बाहर देखने पर लग रहा था ये कोई उद्यान रहा होगा। जहां राजा अपना कुछ समय बिताते होंगे।


कुछ आगे चले तो ऊंटों को रखने का एक बड़ा सा महल दिखाई दिया। देखने पर लग रहा था कि इतना बड़ा तो राज दरबार ही हो सकता है। लेकिन बाहर लिखा था ‘उंटों को रखने की जगह’। हम वहां से आगे बढ़ गये उस किले की ओर जहां पर्यटक सबसे पहले जाना पसंद करता है ‘जहांगीर महल’।