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Tuesday, 29 January 2019

प्रयागराज 4: इस जगह पर आकर आजाद और इलाहाबाद एक हो जाते हैं

 ये यात्रा का चौथा भाग है, यात्रा का तीसरा भाग यहां पढ़ें।

प्रयागराज शहर में हम अब तक बहुत सारी गलियों में घूम चुके थे। मैं कुंभ के चक्कर में इस शहर का इतिहास दिमाग में नहीं आ रहा था। मुझे नहीं याद आ रहा था चन्द्रशेखर आजाद का वो बलिदान। जब अंग्रेजों के सामने अकेले ही भिड़ गये थे और आखिर में आखिरी बची गोली पर अपना नाम लिख दिया। मैं जब उस पार्क के पास ही था और समय भी था तो हमने तय किया कि वो जगह देखी जायेगी। जहां साहस के प्रतीक, देशभक्त चन्द्रशेखर आजाद ने अपनी कुर्बानी दी थी।


मेरे स्थानीय दोस्त के पास स्कूटी थी। मैं उनके साथ ही पार्क निकल पड़ा। कुछ ही देर बाद हम चन्द्रशेखर आजाद पार्क के गेट नं. 3 पर खड़े थे। हमने टिकट विंडो से अंदर जाने के लिये टिकट लिया जो 10 रूपये का था। हम अंदर चल दिये। अंदर घुसते ही ठीक सामने ही चन्द्रशेखर आजाद की वो मूर्ति दिखती है। जिसमें वो अपनी मूंछों पर ताव दे रहे हैं।

साहस के प्रतीक आजाद


पार्क बेहद की करीने से सजाया हुआ था। चन्द्रशेखर आजाद की मूर्ति के ठीक आगे बहुत सारे फूल लगे हुये हैं। जो उस जगह को और अच्छा बनाता है। मूर्ति के पास जाने के लिये एक चबूतरा चढ़ना पड़ता है। हर कोई उस चबूतरे पर जूते-चप्पल उतारकर जा रहा था, मानो किसी मंदिर पर जा रहे हों। मंदिर जैसा ही तो है ये सब और आजादी के लिये कुछ कर गुजरने वालों के लिये मूंछे ऐंठने वाला प्रेरणास्रोत है।

मेरे साथी ने बताया कि इस समय पार्क के कुल पांच गेट हैं। पहले सिर्फ दो गेट थे। बाद में बाकी गेटों को बनवाया है। इन गेटों के नाम चन्द्रशेखर आजाद के साथियों के नाम पर हैं। जैसे रामप्रसाद बिस्मिल, सुखदेव, राजगुरू और भगत सिंह। मूर्ति के पीछे मुझे एक बड़ा-सा पेड़ था। मैंने अपने साथी से कहा, अच्छा ये वही पेड़ है जिसके पीछे खड़े होकर चन्द्रशेखर आजाद ने कुछ सिपाहियों को मार गिराया था। दोस्त ने बताया कि ये वो पेड़ नहीं है, दरअसल अब वो पेड़ है ही नहीं।

अल्फ्रेड पार्क में चन्द्रशेखर आजाद की मूर्ति।
जिस जगह पर आज चन्द्रशेखर आजाद की मूर्ति बनी हुई है, वहीं पेड़ था। लेकिन जब पेड़ नहीं रहा तो चन्द्रशेखर आजाद की मूर्ति बना दी गई। मैं चन्द्रशेखर आजाद की इस मूर्ति और ओरछा के आजादपुर में बनी मूर्ति की तुलना करने लगा। मुझे इस मूर्ति में वो बलिष्ठता नहीं दिख रही थी जो ओरछा में दिखी थी। लेकिन फिर भी इस जगह पर आकर इतिहास के पन्ने को देख रहा था।

इतिहास के पन्ने से


27 फरवरी 1931 तारीख थी। चन्द्रशेखर आजाद अपने साथी सुखदेव के साथ आनंद भवन से मीटिंग करके इस पार्क में आकर बैठ गये। उस समय भगत सिंह जेल में थे। उनको जेल से छुड़ाने की योजना पर बात कर रहे थे। तभी किसी ने अंग्रेजों को इसकी खबर कर दी। थोड़ी ही देर में अंग्रेजों ने पार्क को घेर लिया। आजाद को जैसे ही इस बात का आभास हुआ। उन्होंने सुखदेव को निकलने को कहा और खुद पेड़ के पीछे छिपकर अंग्रेजों का सामना करने लगे।

दोनों तरफ से फायरिंग होने लगी। आजाद ने अपनी गोली से कई सिपाहियों को निशाना बना लिया था। जब उनके पास सिर्फ एक ही गोली बची थी तो उन्होंने वो साहसी काम किया। खुद को गोली मारकर देश के लिये कुर्बान कर दिया। उन्होंने कहा था कि अंग्रेज मुझे कभी जिंदा नहीं पकड़ पायेंगे। मैं आजाद हूं और आजाद रहूंगा। उसी आजादी का प्रतीक है ये पार्क। जो पहले कंपनी गार्डन और फिर अल्फ्रेड पार्क और अब चन्द्रशेखर आजाद प्रतीक है।


मैं तो कुंभ देखने आया था लेकिन अब इस शहर के महान इतिहास को जान रहा था। जो इस जगह पर आये बिना हो ही नहीं सकता था। जो इस शहर में आये तो संगम जायें तो जायें पर इस जगह पर आना न भूलें। ये हमारा अतीत है, महान अतीत। ये धरा है आजाद के बलिदान की, ये शहर इलाहाबाद है। सरकार चाहे जितने नाम बदल ले, लेकिन इस जगह पर आकर आजाद और इलाहाबाद ही निकलेगा। मैं पार्क से निकल आया लेकिन जेहन में मूंछ ऐंठते हुये चेहरा छाप छोड़ गया।

ये यात्रा का चौथा भाग है, आगे की यात्रा यहां पढ़ें।

Monday, 17 December 2018

ओरछा 3: वो जगह जहां ‘चन्द्रशेखर आजाद’ अपने अज्ञातवास में रहे थे

ओरछा बुंदेलखंड का ऐतहासिक इतिहास है। जो आज भी अपने को समेटे हुए दिखाई पड़ता है। किला और महल बड़ा पर्यटन केन्द्र बन गया है तो कुछ किलों को व्यवस्थता की मार ने चौपट कर दिया है। ये नगर इतिहास से भरी पड़ी है। पहले बुंदेलों का गढ़, रामराजा सरकार का गढ़ और फिर गवाह बना आजाद का गढ़।


गढ़ ओरछा


हम अब तक ओरछा का बहुत भाग देख चुके थे। कुछ महल और बुंदेली इतिहास को आज भी बयां कर रहा है। वहीं कुछ के सिर्फ अवशेष बचे हैं। कुछ जगह को हमने छोड़ दिया अगली बार के लिए। ओरछा की मंदिर वाली भीड़ को पार करके हम मुख्य रास्ते पर चलने लगे। ये रास्ता ओरछा तिगैला की ओर जाता है जहां से हमें अपने घर जाना था। समय हमारे पास काफी था इसलिए हमने पैदल ही रास्ता नापना तय किया।

ओरछा वो जगह नहीं है जहां बड़ी-बड़ी दुकानें हों, माॅल हो और आधुनिकता का पूरा रंग हो। ओरछा एक छोटा-सा नगर है जो बस अपने इतिहास के कारण प्रसिद्ध है। यहां दुकानों के नाम पर मिठाई की दुकान, ढाबारूपी होटल मिल जाएंगे। बड़ी इमारत के नाम पर होटल ही हैं जहां पर्यटक ठहरते हैं। बाकी तो कच्चे-पक्के घर हैं और दिखेगा ग्रामीण परिवेश। सड़क पर गाय-भैंस का जमावड़ा मिल जायेगा। जो आपके सफर को खूबसूरत कर देगा। इसी खूबसूरती को देखते-देखते आगे बढ़ रहे थे।

ओरछा गेट।

हमें पैदल चलना जितना-आसान लग रहा था उतना आसान हो नहीं रहा था। गर्मी हम पर हावी हो रही थी। बार-बार हमें पानी का सहारा लेना पड़ रहा था और पेड़ की छांव में सुस्ता रहे थे। पहाड़ों पर चलते वक्त इतनी थकान नहीं होती थी जितनी सीधे रास्ते पर हो रही थी। आस-पास खेत और जंगल ही दिखाई पड़ रहे थे। ओरछा आते वक्त मुझे पता चला था कि यहां आस-पास कोई ‘आजाद पार्क’ है। मुझे वो देखना नहीं था क्योंकि पार्क तो हर शहर, गांव में सरकार बनवा ही देती है। लेकिन मुझे उसका इतिहास मालूम नहीं था अगर मालूम होता तो सबसे पहले वहीं जाता।

आजाद पार्क


हमने रास्ते में कुछ लोगों से उस पार्क के बारे में पूछा तो वे सोच में पड़ गये। सब लोगों को एक ही जवाब था यहां ऐसा कुछ भी नहीं है। मैंने भी मान लिया कि ये लोग सही कह रहे हैं। हम ओरछा तिगैला की ओर चल दिए। हम कुछ ही दूर चले थे कि मुझे एक बड़ी सी मूर्ति दिखाई पड़ी। मूर्ति चन्द्रशेखर आजाद की थी और पार्क का नाम था आजाद पार्क। ये पार्क सातार गांव में पड़ता है। पार्क के अंदर जाते ही एक बोर्ड लगा हुआ था। बोर्ड पर इस जगह की महत्वता लिखी पड़ी थी। उसमें लिखा था कि चन्द्रशेखर आजाद 1928 में इस जगह पर भेष बदलकर रहे थे।

इस जगह के बारे में।

आजाद यहां एक कुटिया में रहते थे जो आज भी है। उस कुटिया में आज उनकी फोटो लगी हुई है।
पार्क के पीछे तरफ चलते हैं तो हनुमान मंदिर मिलता है। उसके पास में छोटा-सा कुआ बना हुआ है। जिसे चन्द्रशेखर आजाद ने खोदा था जो आज भी पानी दे रहा है। यहां आजाद लगभग डेढ़ साल रहे थे। वे यहां के जंगलों में गुरिल्ला अभ्यास करते थे और अंग्रेजों से लड़ने की रणनीति बनाते थे। पार्क के आगे की तरफ उनकी बलिष्ठता की प्रतीक में उनकी मूर्ति बनी हुई है। जिसका अनावरण 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने किया था।

चन्द्रशेखर आजाद के द्वारा बनाया कुआं।

पार्क में बड़ी शांति है, कुछ चिड़िया चहचहां रही है, पार्क के बगल से ही बेतवा नदी का रास्ता बना हुआ है। यहां सब कुछ अच्छा है सिवाय यहां की जानकारी के। लोग ओरछा घूमने आते हैं लेकिन इस जगह पर नहीं आते हैं क्योंकि उन्हें इस जगह के बारे में पता ही नहीं रहता। कमी सरकार की तो है ही कुछ यहां रहने वाले लोगों की है। जब यहां के लोगों को इस जगह के बारे में पता नहीं है तो पर्यटकों की बात ही छोड़ दीजिए। जो लोग ओरछा घूमने आते हैं उन्हें इस ऐतहासिक जगह पर भी आना चाहिए। हमारा इतिहास है, हमें नहीं भूलना चाहिए।

यात्रा का पिछला भाग यहां पढ़ें।