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Monday, 15 July 2019

चकराता: मंजिल से ज्यादा खूबसूरत और सुंदर ये सफर है

मैं जब भी पहाड़ों की ओर जाता हूं तो हर बार कुछ अलग पाता हूं। मैं कभी नहीं कह पाता कि पहाड़ों मे कहीं भी चले जाओ सब एक जैसा। ये सब वैसे ही जैसे मौसम, कभी धूप है तो कभी छांव, बस ऐसा ही कुछ पहाड़ है। मुझसे अक्सर लोग पूछते हैं पहाड़ में कहां जाना चाहिए, वो उस जगह के बारे में पूछते हैं। मैं नहीं बता पाता हूं, उन लोगों को पता ही नहीं है कि पहाड़ में मंजिल उतनी खूबसूरत नहीं होती, जितना कि सफर। ऐसी ही खूबसूरती और कई रंगों को दिखाता है चकराता का सफर। यहां देवदार का सुंदर जंगल है, घुमावदार रास्ते और इन खूबसूरत रास्तों के चारों तरफ फैले थे, हरियाली से लदे पहाड़।


14 जुलाई 2019 को मौसम बहुत सुहाना था और उसी सुहाने मौसम में हम निकल पड़े चकराता की ओर। चकराता देहरादून से 90 किमी. दूर है और उसे हम तय करने वाले थे बाइक से। मैं दूसरी बार रोड ट्रिप पर पर जा रहा था लेकिन यहां जाने का उत्साह बहुत ज्यादा था। मुझे चकराता के बारे में ज्यादा पता नहीं था लेकिन इतना पता था कि हिल स्टेशन है तो खूबसूरत जरूर होगा। सुबह का सुहानापन अपने सुरूर में था और उसी के फाहे में हम आगे बढ़ते जा रहे थे। देहरादून से बाहर निकलने के बाद भी वो हममें बना ही हुआ था। शहर से निकलने के बाद भी वो कुछ देर बना ही रहता है।

देहरादून से पहाड़ों तक पहुंचने में एक लंबा रास्ता तय करना पड़ता है। ये रास्ते उन आदतों को दूर करने के लिए होते हैं जिनको हम अपनी जिंदगी मान लेते हैं और जब हम इस रास्ते को तय कर लेते हैं तो हम जहां पहुंचते हैं वो जगह सबसे खूबसूरत होती है लेकिन अभी तो हमें खूबसूरती से पहले एक लंबे रास्ते को तय करना था। देहरादून से निकलने पर सबसे सुद्धौवाला मिलता है। लोग दिन की शुरूआत कर रहे थे और हम एक सफर पर निकले हुए थे। थोड़ा आगे बड़े तो से 
सेलाकुई आया। हम देहरादून शहर से बाहर थे लेकिन उसका इंडस्ट्रियल क्षेत्र अब भी बना हुआ था। उत्तराखंड के तीन बड़े इंडस्ट्रियल क्षेत्र हैं, देहरादून, हरिद्वार और रूद्रपुुर। विकास पैदा करने वाली ऐसी ही एक जगह से हम गुजर रहे थे, यहीं वो होटल भी मिला जहां भारतीय क्रिकेटर महेन्द्र सिंह धोनी की शादी हुई थी।


मैदान के बाद है खूबसूरती

देहरादून से 40 किमी. दूर है विकासनगर। विकासनगर भी देहराूदन की तरह ही एक विकसित शहर है। बड़ी-बड़ी दुकानें, बहुत सारे चौराहे, होटल और रोड पर लगता जमा ये बताने के लिए काफी है कि ये बड़ा शहर है। हम मोटरसाइकिल से जा रहे थे सो हमारा जहां मन हो रहा था हम वहां रूक रहे थे। अभी तक हम जहां-जहां रूके भी तो सिर्फ अकड़न दूर करने के लिए। वैसी खूबसूरती और सुंदरता अब तक नहीं आई थी जिसके लिए हम रूकते। विकासनगर से आगे चले तो मिला कालसी। कालसी में हमने वो नजारा देखा जिसके लिए हमें रूकना ही पड़ा। किसान अपने खेत में हल चला रहा था, ग्रामीण भारत का ये नजारा बेहद खूबसूरत था। कालसी आखिरी मैदानी जगह थी, अब हम पहाड़ों की गोद में आ चुके थे।

पहाड़ में ग्रामीण भारत।

जगहों के साथ-साथ मौसम भी अपनी करवट बदल रहा था, कभी धूप हो रही थी तो कभी घने बादल। पहाड़ के आते ही सिर्फ मौसम नहीं बदल देता, यहां आना वाले लोग भी बदल जाते हैं। इन हरे-भरे पहाड़ को देखकर हम खुश होने लगते है, खुली आंखों से इस खूबसूरती को देखना एक सुंदर एहसास है। जैसे-जैसे आगे बढ़ते हैं खूबसूरती अपे परवान होती है। तब लगता ठीक-ठीक सुंदरता या यूं कहें पूरी सुंदरता कुछ नहीं होती है। हर कोई सुंदरता की इसी चौखट पर आना चाहता है। उत्तराखंड में दो मंडल है गढ़वाल और कुमाऊं। गढ़वाल के अंदर ही एक संस्कृति आती है, जौनसार।  जौनसार के बारे में कम  लोग जानते हैं लेकिन जौनसारी कल्चर सबसे रिच कल्चर माना जाता है, यहां के लोग आज भी अपनी परंपराओं को भूले नहीं है। उसी खूबसरत जौनसार में हम चले जा रहे थे।

हरियाली से लदे पहाड़

मुझे हरियाली बहुत पसंद है और हरे-भरे पहाड़ तो बेहद खूबसूरत लगते हैं। उजाड़ और बंजर पहाड़ से मैं जी चुराता और हरे-भरे पहाड़ को देखते रहने का मन करता है। हम जैसे-जैसे आगे बढ़ रहे थे, पहाड़ हरियाली से लदते जा रहे थे। ऐसा लग रहा था कि बुग्याली की हरियाली को खड़े पहाड़ में पलट दिया हो। पहाड़ की नीचाई में कोई छोटी नदी बह रही थी, जिसे पहाड़ों में गदेरो कहते हैं। घुमावदार रास्ते और घुमावदार होते जा रहे थे और खूबसूरत भी। रास्ते में कुछ छोटे-छोटे गांव मिले, इस समय हर जगह खेती हो रही थी। देखकर लग रहा था कि जौनसार में खूब खेती होती है खासकर जब सड़क किनारे टमाटर ही टमाटर दिख रहे हों।

हरियाली ही हरियाली।

हम साहिया और हय्या को पार कर चुके थे। अभी भी चकराता काफी दूर था लेकिन हमारे पास में थी तो ये खूबसूरती, जिसको बहुत दिनों बाद देख रहा था। ऐसा लग रहा था कि अपनापन शहरों में नहीं, पहाड़ों में है। लेकिन पहाड़ों में रहने का मतलब है मुश्किल हालातों का सामना करना। पहाड़ों में अपनी गाड़ी से आकर कुछ घंटे बिताने के बाद वो जगह खूबसूरत तो लगती है लेकिन आसान नहीं है। पहाड़ ‘दूर के ढोल के सुहाने’ की तरह है यहां खूबसूरती तो है लेकिन यहां के लोगों के लिए नहीं।

नजर हटी, दुर्घटना घटी

रास्ते  एक में एक जगह खूब भीड़ थी। आगे बढ़े तो एंबुलेंस और पुलिस भी खड़े थे, कुछ  लोग रस्सी खींच रहे थे। कुछ दूर जाकर हम भी रूक गये, वहीं खड़े लोगों ने बताया एक गाड़ी रात को खाई में गिर गई थी और अब निकालने की कोशिश की जा रही है। पहाड़ की ये भी एक सच्चाई है, थोड़ी-सी भी कोताही सीधे खाई में पहुंचा देती है। थोड़ी देर उस खतरनाक दृश्य को देखा और आगे बढ़ गये। हम फिर से पहाड़ों के घुमावदार रास्ते और मोड़ों में गुम होने लगे। मुझे बार-बार पलटकर देखना पसंद है, कुछ छूट गया हो तो पूरा हो जायेगा।


हम जैसे-जैसे आगे आ रहे थे दूर तलक दिखने वाले रास्ते ऐसे लग रहे  थे जैसे खेत के बीच में होती है, पतली-सी मेड़। रास्ते में कुछ खतरनाक पहाड़ भी मिले जहां बारिश के मौसम में लैंसलाइडिंग होती है और रास्ते बंद हो जाते हैं। अब हम चकराता से कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर थे। हम फिर से एक जगह रूके और सड़क किनारे लगे पहाड़ी किलमोड़ी तोड़कर खाई और पास के ही रिसोर्ट को देखने लगे। इससे खूबसूरत लोकेशन क्या होगी? चारों तरफ पहाड़, पास में ही चकराता और आसपास होती खेती। यहां टमाटर की खेपों की खेपे देखे जा सकती हैं। इस खूबसूरत रास्तों के बीच से हमने एक और दौड़ लगाई और पहुंच गये चकराता हिल स्टेशन।

मंजिल से पहले रास्ता होता है, उस रास्ते के सबके अपने-अपने किस्से होते हैं और इन्हीं किस्सों में तो जिंदगी बंटी होती है। हम एक रास्ता तय कर चुके थे और एक रास्ता तय करना बाकी था। इस जगह को तराशने का रास्ता। यहां हमें बहुत कुछ नया मिलने वाला था और वही नयापन तो खूबसूरती होती है, खूशबू से भरी खूबसूरती।                 

Saturday, 2 February 2019

प्रयागराज 6ः आस्था के इस संगम में भी प्रतिस्पर्धा है अपने लाभ की

ये यात्रा का छठा भाग है। पांचवां भाग यहां पढ़ें।

रात को सोते समय मैंने सोच लिया था कि कल सुबह 4 बजे उठना है। कुंभ बार-बार नहीं आता और न ही ये शाही स्नान। मैं सबेरे-सबेरे अखाड़ों के शाही स्नान को देखना चाहता था। लेकिन जब वो सब हो रहा था तब मुझे मेरी नींद सहला रही थी। मैं नहीं उठ पाया और नहीं देख पाया वो अखाड़ों का शाही स्नान। फिर भी मुझे अभी सुंदरता के संगम में जाना था जहां से कुछ अलग दिखता है।


15 जनवरी 2019 को कुंभ का पहला शाही स्नान है। जब मेरी नींद खुली तब घड़ी में नौ बज रहे थे। उठते ही एक अफसोस हुआ मैं शाही स्नान न देख सका। मैंने अपने साथी को उठाने की कोशिश की। वो उठे लेकिन बहुत जतन करने के बाद। इन्हीं कुछ कारणों की वजह से लगता है कि अकेले घूमना ही बेहतर होता है। दूसरों को साथ ले जाने की चिंता नहीं होती।

शाही स्नान की आस्था


हम कमरे से चलते-चलते सिविल लाइन के रोड पर आ गये। कुछ ही दूर चले तो सामने जो देखा उसने तो मेरे होश ही उड़ा दिये। कल जो हुजूम कुंभ क्षेत्र में था वो आज प्रयागराज की सड़कों पर दिख रहा था। सामने की भीड़ को देखकर लग रहा था कुंभ के रंग में प्रयागराज रंग रहा है। इतने भीड़ के कारण बसें और टैक्सी को बंद कर दिया गया था। कल जो ऑटो चुंगी तक जा रही थी वो आज आधे रास्ते से ही लौट आ रही थी।

भीड़ बहुत थी। भीड़ इस तरफ दो-तरफा थी एक संगम की ओर जाने वाली और एक वहां से लौटने वाली। लौटने वालों को देखकर फिर वही अफसोस होने लगता कि सबेरे न जागकर बड़ी गलती हो गई। हम ऐसे ही भीड़ देखते हुये आगे बड़े जा रहे थे। थोड़ी देर बाद एक चैक आया जहां पुलिस खड़ी थी। वो लोगों को रास्ता बता रही थी और गाड़ियों को आगे जाने से रोक रही थी। तभी एक सफेद गाड़ी आगे जाने की कोशिश करती है, पुलिस रोक देती है। गाड़ी से आवाज आती है नेताजी की गाड़ी है। पुलिस वाला भी सख्ती से बोला, कोई भी हो पैदल ही जाना पड़ेगा। गाड़ी को वहीं रोक दिया गया।

संगम की ओर जाते लोग।
देखकर अच्छा लगा कि व्यवस्था के आड़े कोई भी आये, उसे सही तरीका बता देना चाहिये। कल संगम तक जाने के लिये हमें सिर्फ 3 किलोमीटर चलना पड़ा था, आज वो दूरी बढ़कर 5-6 किलोमीटर हो गई। कुंभ में आने वाले लोग चलते नहीं हैं, भागते हैं। शायद यही तो कुंभ है और शाही स्नान। जिस दिन हर कोई यहां आकर स्नान करना चाहता है। मैं जल्दी घाट पहुंचना चाहता था, शायद कुछ कल से अलग दिख जाये।

एकला चलो रे


मेरे साथी जिनके पास अपने कैमरे थे। ये कैमरे वालों को जाने क्या हो जाता है? छोटा-सा रास्ता तय करने में बहुत वक्त लगाते हैं। थोड़ा चलते हैं, ज्यादा रूकते हैं। मुझे उनके साथ रहना अपना वक्त बर्बाद होना लग रहा था। जब वे ऐसे ही नंदी द्वार के पास रूके हुये थे, मैं उनको बिना बताये निकल आया। कुंभ में वैसे भी गुम होना बड़ा आसान है और ढ़ूढ़ना बहुत मुश्किल। ऐसे ही किसी भीड़ के साथ मैं गुम होकर आगे बड़ गया।

संगम में आते-जाते लोग।
अकेले कहीं भी पहुंचना बड़ा आसान होता है, आप अपने हिसाब से अपने कदम तय करने लगते हैं। ऐसे ही मैं भी जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाने लगा। रास्ता पर आज चलना थोड़ा मुश्किल हो रहा था। लोगों से चाल मिलाकर मुझे चलना पड़ रहा था। ऐसे ही आगे-पीछे होते हुये मैं अचानक से भीड़ से हटकर मैदान में आ गया। जहां से आगे भीड़ एक लंबे घाट में बंट गई थी। मैं घाट के किनारे-किनारे चलने लगा। चलते-चलते मैं उस जगह पहुंच गया, जहां दिव्य कुंभ भव्य कुंभ लिखा हुआ है।

कल का जो दृश्य था वही आज का भी दृश्य था। पूरी नदी में नावें और साइबेरियन पक्षियों का डेरा बना हुआ था। मैं वहीं खड़ा हो गया। नाव वाले आपस में लड़ रहे थे, एक-दूसरे को गरिया रहे थे। सब चाह रहे थे कि उनका नंबर पहले लगे और पर्यटकों को संगम तक ले जायें। कुछ नाविक चाहते थे कि कोई उनकी नाव बुक कर ले और नंबर लगाने की नौबत ही न आये। मैं भी ऐसी ही एक नाव में बैठ गया जो अभी-अभी नंबर पर लगी थी। संगम तक जाने के लिये 60 रूपये देने थे। मुझे लग रहा था कि ज्यादा हैं लेकिन मुझे जाना तो था ही सो मैं मान गया।

घाट में अपने नंबर का इंतजार करती नावें।
जिस संगम के बिना इस शहर में आना अधूरा रहता है। जिस संगम के बारे में कहा जाता है कि अगर आप यहां स्नान करते हैं तो आपके सारे पाप धुल जाते हैं। ऐसे ही पापों को धोने बहुत लोग आये थे। मगर मैं तो इस शहर को देखने आया, हर तरफ से चाहे वो इतिहास का पन्ना हो या वर्तमान का कोना।

ये यात्रा का छठा भाग है, आगे की यात्रा यहां पढें।

Tuesday, 29 January 2019

प्रयागराज 4: इस जगह पर आकर आजाद और इलाहाबाद एक हो जाते हैं

 ये यात्रा का चौथा भाग है, यात्रा का तीसरा भाग यहां पढ़ें।

प्रयागराज शहर में हम अब तक बहुत सारी गलियों में घूम चुके थे। मैं कुंभ के चक्कर में इस शहर का इतिहास दिमाग में नहीं आ रहा था। मुझे नहीं याद आ रहा था चन्द्रशेखर आजाद का वो बलिदान। जब अंग्रेजों के सामने अकेले ही भिड़ गये थे और आखिर में आखिरी बची गोली पर अपना नाम लिख दिया। मैं जब उस पार्क के पास ही था और समय भी था तो हमने तय किया कि वो जगह देखी जायेगी। जहां साहस के प्रतीक, देशभक्त चन्द्रशेखर आजाद ने अपनी कुर्बानी दी थी।


मेरे स्थानीय दोस्त के पास स्कूटी थी। मैं उनके साथ ही पार्क निकल पड़ा। कुछ ही देर बाद हम चन्द्रशेखर आजाद पार्क के गेट नं. 3 पर खड़े थे। हमने टिकट विंडो से अंदर जाने के लिये टिकट लिया जो 10 रूपये का था। हम अंदर चल दिये। अंदर घुसते ही ठीक सामने ही चन्द्रशेखर आजाद की वो मूर्ति दिखती है। जिसमें वो अपनी मूंछों पर ताव दे रहे हैं।

साहस के प्रतीक आजाद


पार्क बेहद की करीने से सजाया हुआ था। चन्द्रशेखर आजाद की मूर्ति के ठीक आगे बहुत सारे फूल लगे हुये हैं। जो उस जगह को और अच्छा बनाता है। मूर्ति के पास जाने के लिये एक चबूतरा चढ़ना पड़ता है। हर कोई उस चबूतरे पर जूते-चप्पल उतारकर जा रहा था, मानो किसी मंदिर पर जा रहे हों। मंदिर जैसा ही तो है ये सब और आजादी के लिये कुछ कर गुजरने वालों के लिये मूंछे ऐंठने वाला प्रेरणास्रोत है।

मेरे साथी ने बताया कि इस समय पार्क के कुल पांच गेट हैं। पहले सिर्फ दो गेट थे। बाद में बाकी गेटों को बनवाया है। इन गेटों के नाम चन्द्रशेखर आजाद के साथियों के नाम पर हैं। जैसे रामप्रसाद बिस्मिल, सुखदेव, राजगुरू और भगत सिंह। मूर्ति के पीछे मुझे एक बड़ा-सा पेड़ था। मैंने अपने साथी से कहा, अच्छा ये वही पेड़ है जिसके पीछे खड़े होकर चन्द्रशेखर आजाद ने कुछ सिपाहियों को मार गिराया था। दोस्त ने बताया कि ये वो पेड़ नहीं है, दरअसल अब वो पेड़ है ही नहीं।

अल्फ्रेड पार्क में चन्द्रशेखर आजाद की मूर्ति।
जिस जगह पर आज चन्द्रशेखर आजाद की मूर्ति बनी हुई है, वहीं पेड़ था। लेकिन जब पेड़ नहीं रहा तो चन्द्रशेखर आजाद की मूर्ति बना दी गई। मैं चन्द्रशेखर आजाद की इस मूर्ति और ओरछा के आजादपुर में बनी मूर्ति की तुलना करने लगा। मुझे इस मूर्ति में वो बलिष्ठता नहीं दिख रही थी जो ओरछा में दिखी थी। लेकिन फिर भी इस जगह पर आकर इतिहास के पन्ने को देख रहा था।

इतिहास के पन्ने से


27 फरवरी 1931 तारीख थी। चन्द्रशेखर आजाद अपने साथी सुखदेव के साथ आनंद भवन से मीटिंग करके इस पार्क में आकर बैठ गये। उस समय भगत सिंह जेल में थे। उनको जेल से छुड़ाने की योजना पर बात कर रहे थे। तभी किसी ने अंग्रेजों को इसकी खबर कर दी। थोड़ी ही देर में अंग्रेजों ने पार्क को घेर लिया। आजाद को जैसे ही इस बात का आभास हुआ। उन्होंने सुखदेव को निकलने को कहा और खुद पेड़ के पीछे छिपकर अंग्रेजों का सामना करने लगे।

दोनों तरफ से फायरिंग होने लगी। आजाद ने अपनी गोली से कई सिपाहियों को निशाना बना लिया था। जब उनके पास सिर्फ एक ही गोली बची थी तो उन्होंने वो साहसी काम किया। खुद को गोली मारकर देश के लिये कुर्बान कर दिया। उन्होंने कहा था कि अंग्रेज मुझे कभी जिंदा नहीं पकड़ पायेंगे। मैं आजाद हूं और आजाद रहूंगा। उसी आजादी का प्रतीक है ये पार्क। जो पहले कंपनी गार्डन और फिर अल्फ्रेड पार्क और अब चन्द्रशेखर आजाद प्रतीक है।


मैं तो कुंभ देखने आया था लेकिन अब इस शहर के महान इतिहास को जान रहा था। जो इस जगह पर आये बिना हो ही नहीं सकता था। जो इस शहर में आये तो संगम जायें तो जायें पर इस जगह पर आना न भूलें। ये हमारा अतीत है, महान अतीत। ये धरा है आजाद के बलिदान की, ये शहर इलाहाबाद है। सरकार चाहे जितने नाम बदल ले, लेकिन इस जगह पर आकर आजाद और इलाहाबाद ही निकलेगा। मैं पार्क से निकल आया लेकिन जेहन में मूंछ ऐंठते हुये चेहरा छाप छोड़ गया।

ये यात्रा का चौथा भाग है, आगे की यात्रा यहां पढ़ें।

Wednesday, 16 January 2019

प्रयागराज 1ः मैंने कुंभ को अपना एक सफर बना लिया, बस चलते रहने के लिए

मैं ऐसी जगह जाना पसंद करता हूं जहां सुकून हो, शांति हो और सबसे बड़ी बात भीड़ न हो। लेकिन जबसे कुंभ के बारे में पता चला था तो दिमाग में बस जाने का सुरूर चढ़ा हुआ था। बस तय नहीं कर पा रहा था कि कब जाऊं? एक दिन अचानक प्लान बना और कुंभ जाना पक्का हो गया। कुंभ इस बार प्रयागराज में हो रहा था। मुझे उस जगह को अच्छी तरह से देखना था।


13 जनवरी 2019 की रात को मैं दिल्ली से प्रयागराज के लिए निकल पड़ा। रात का सफर मुझे भाता नहीं है क्योंकि अंधेरा सब अपने में समेट लेता और मैं देख पाता हूं तो अंधेरा और सुनसान सड़क। 12 बजे बस किसी ढाबे पर रूकी। मेरा कुछ लेने का मन नहीं था क्योंकि इधर से कुछ लेना मतलब जेब ढीली करना। तभी मेरी नजर कुल्हड़ वाली चाय पर पड़ी। मुझे चाय पसंद नहीं है लेकिन कुल्हड़ वाली चाय को मना भी नहीं कर पाता।

कुल्हड़ वाली चाय मंहगी होनी थी। मैं ये देखकर दंग था कि कुल्हड़ वाली चाय सस्ती और सादा चाय महंगी थी। मैंने चाय की पहली सीप ली कि मन गद-गद हो गया। मैंने कभी भी इतनी अच्छी चाय नहीं पी थी। लग रहा था कि मलाईदार चाय पी रहा हूं। उसी चाय के बारे में सोचते-सोचते आंख लग गई। आंख खुली तो सब कुछ साफ नजर आ रहा था। दुकानें हमारे प्रयागराज में होने का इशारा कर रहीं थीं। थोड़ी देर में हम सड़क किनारे खड़े थे।

रास्ते में चाय का मजा।
हम सोच रहे थे कि अब सीधे कुंभ मेले ही जाना है। लेकिन अभी तो हम प्रयागराज शहर ही नहीं पहुंचे थे। हम अण्डवा बाई-पास पर खड़े थे। कई आॅटो वाले से मोल-भाव करने के बाद एक आॅटो जाने को तैयार हो गया। लगभग 1 घंटे की यात्रा के बाद हम शहर में ब्रिज के नीचे खडे़ थे। ब्रिज के खंभों पर ऋषियों-देवताओं के चित्रों उकेरे हुए थे। सच में ये चित्रकारी सुंदर लग रही थी। वहां से मैं अपने दोस्त के कमरे पर पहुंचा जो सिविल लाइंस में था।

शहर को देखकर लग नहीं रहा था कि ये वो शहर है जिसे मैंने 2015 में देखा था। शहर का तो पूरा कायापलट हो गया था। सड़के चैड़ी हो गईं थीं, कोई अतिक्रमण नहीं दिख रहा था। शहर में जगह-जगह शिवलिंग बने हुए हैं। सरकारी स्कूलों पर भी चित्रकारी की गई है। शहर किसी दुल्हन की भांति सजा हुआ प्रतीत हो रहा था। आॅटो में बैठे एक सज्जन कह रहे थे, कि ये सिर्फ राजनीति है। योगी आदित्यनाथ ने प्रयागराज कर दिया है। अखिलेश यादव की सरकार आयेगी तो फिर इलाहाबाद हो जायेगा। ऑटो-चालक को इलाहाबाद से गुरेज था। अब किसी की भी सरकार आ जाये, अब प्रयागराज ही रहेगा।

शहर में कलाकारी।

कुंभ चलें


सामान रखकर हम फिर से उसी ब्रिज के नीचे खड़े थे, जहां हम पहले थे। यहीं से अब 3 किलोमीटर चलना था तब संगम तक पहुंच सकता था। रास्ता लंबा जरूर था लेकिन थकाने वाला नहीं। मैं अकेला तो पैदल चल नहीं रहा था। मेरे साथ थे हजारों-लाखों लोग।

जगह नई हो तो पैदल चलने में भी कोई गुरेज नहीं होता। शुरूआत में ही पुलिस का कैंप दिखाई दिया। उसके साथ ही अग्नि-शमन का भी टेंट लगा हुआ था। माइक से लगातार आवाज आ रही थी, किसी का बच्चा खो गया है, तो किसी का सामान। लोगों के तो मिलने की तो सूचना आ रही थी लेकिन सामान खोने के बाद फिर मिले, ऐसी कोई सूचना अब तक नहीं सुनाई दी थी।

रास्ते में कई प्रकार की दुकानें लगीं थीं। यहां वो सब था जो एक आम मेले में मिलता है। दो-तीन जगह करतब भी हो रहे थे, वो रस्सी वाला। जिस पर एक बच्ची चलती है। कहीं बच्ची डंडा लेकर चल रही थी तो कहीं सिर पर कुछ सामान रखकर। बच्ची की हिम्मत और कला की तारीफ की जानी चाहिए। लेकिन एक छोटी-सी बच्ची से काम कराना सही है। ये अपराध है जो ऐसी जगह पर हो रहा था जिसका आयोजन सरकार ने किया था। चारो तरफ प्रशासन था लेकिन शायद इस तरफ उनकी आंखें बंद थीं।

कुंभ के रंग में रंग रहा है प्रयागराज।
कुछ आगे चले तो एक चढ़ाई चढ़नी थी। वहीं पर फिर एक कलाकारी दिखी। एक छोटी लड़की दुर्गा का रूप रखकर पैसा मांग रही थी। पैसा मांग नहीं रही थी छीन रही थी। वो छोटी-सी लड़की किसी का भी रास्ता रोककर खड़ी हो जाती और पैसा मांगती। जो नहीं देते, उनको पकड़ लेती। कुछ लोग दे देते और कुछ जोर लगाकर बच निकलते। उस लड़की के साथ एक औरत भी थी। जो अपने चेहरे पर काला रंग लगाकर काली मां बनी हुई थी। जब मैं पास गया तो साफ हुआ कि वो महिला नहीं कोई पुरूष है। ये पैसा भी न, क्या-क्या करवा देता है?

मुझे पहली बार कुंभ में आने का मौका मिला था। जब मैं हरिद्वार रहता था तब भी कुंभ हुआ था लेकिन भीड़ के डर से मैं बाहर ही नहीं निकला था। अब समय बदल चुका है और मैं भी। जिस कुंभ के लिये सात-समुंदर पार से लोग आ रहे हैं तो मैं क्यों नहीं। मैं भी उस कुंभ की भीड़ का एक हिस्सा बन गया था। मैं उनके पीछे-पीछे कदम बढ़ रहा था। ये मानकर कि ये कुंभ नहीं मेरी एक और यात्रा है।

कुंभ यात्रा का ये पहला भाग है, आगे की यात्रा यहां पढ़ें।