Friday, 18 January 2019

प्रयागराज 2: कुंभ में स्नान और संगम से बेहतर तो अखाड़े में चलते रहना रहा

 ये यात्रा का दूसरा भाग है, पहला भाग यहां पढ़ें।

प्रयागराज में आये हुये अभी कुछ घंटे ही बीते थे। इतने कम समय में बहुत कुछ दिखा गया था, कुंभ। कुंभ बस प्रयागराज का कुंभ नहीं है, कुंभ सिर्फ प्रयागराज के लिए नहीं है। ये तो समागम है जहां लोग आते हैं और पवित्रता की डुबकी लगाते हैं। लाखों लोग के इस समागम का एक छोटा-सा तिनका मैं भी बन गया था। मैं चलते-चलते ऐसी जगह पहुंच गया। जहां से सामने का नजारा देखकर मेरे चेहरे पर मुस्कुराहट फैल गई। मैं मन ही मन कह उठा- अच्छा, ये है कुंभ।


मुझे सामने दिख रही थी कुंभ की आस्था। जो भीड़ का रूप लिये हुये थी। कुछ आने वाले लोग थे तो कुछ लौट रहे थे। पहाड़ों में घूमते-घूमते एक ऐसी जगह आती है। जहां खड़े होकर हम अवाक हो जाते हैं। जहां कुछ पल रूककर सब कुछ देख लेना चाहते हैं। क्योंकि कुछ देर बाद हम उस जगह खुद होते हैं जिसे देखकर कुछ देर पहले खुशी मिल रही थी। बस कुछ ऐसा ही मैं कुंभ के एक कोने पर खड़े होकर महसूस कर रहा था।

मां गंगा


दूर-दूर तक बस लोग ही लोग नजर आ रहे थे। पीपे के पुल, टेंट, सफेद रेत और एक रास्ता जो सबका गंतव्य था। मैं कुंभ में प्रवेश कर चुका था। अब उस जगह जाने का मन था। जहां जाने के लिए सब यहां आते हैं, पतित पावनी मां गंगा के पास। मैं भी गंगा के घाटों के पास जाना चाहता था, जहां से बस मुझे सामने तांकते रहना था। रास्ते कई बने हुये हैं लेकिन सही रास्ता केवल एक ही होता है और मैं उसी रास्ते पर चल दिया।

जगह-जगह पर आपको पुलिस कर्मी मिलेंगे। यहां मुझे पुलिस का अलग ही रूप देखने को मिला। जो पुलिस हमेशा गरियाने के लिए जानी जाती है वो बड़े प्यार से सही रास्ते के बारे में बता रहे थे। आर्मी, पुलिस रास्ते में कई जगह खड़े हुये थे। सरकार ने व्यवस्था को अच्छा बनाने की पूरी कोशिश की थी। कुछ देर चलने के बाद मैं रेत के रास्ते पर आ गया।

कुंभ में सुबह-सुबह।
अब सामने रेत और भीड़ नजर आ रही थी। पहले और इस समय की भीड़ में अंतर था। मेरे सामने जो भीड़ थी वो एक जगह रूकी हुई थी। यानि कि मैं घाट के बिल्कुल करीब ही था। कुछ कदम नापने के बाद मैं उसी भीड़ का हिस्सा बन गया। मकर संक्राति का दिन था, लोग गंगा में डुबकी लगाकर अपने आपको पवित्र करना चाह रहे थे। घाट लंबी दूरी पर फैले हुये थे। उन सबको छोड़कर कुछ देखने लायक था तो वो था सामने का दृश्य। जो पानी किनारे पर लोगों ने गंदा कर दिया था, सामने बिल्कुल साफ नजर आ रहा था।

दूर तलक सजीला


साफ बहता पानी, पानी पर चलती नावें और चारों तरफ बस पक्षी ही पक्षी। साइबेरियन पक्षी इस दृश्य को सुन्दर बना रहे थे। कुछ नाव से संगम को देखने जा रहे थे तो कुछ उस दृश्य को करीब से देखना चाह रहे थे। मैं करीब से देखने वालों में से था लेकिन मैंने पहले कुंभ को देखने का मन बनाया। घाट पर लोग श्रद्धा से जितनी जल्दी फूल नदी में डाल रहे थे। उससे जल्दी वहां निकालने वाले खड़े थे। नदी किनारे सुरक्षा को अच्छा-खासा ध्यान रखा गया था जल पुलिस से लेकर गोताखोर, एंबुलेंस सब पानी में ही चौकसी लगाये हुये थे।

पंडे अपना वाचन लेकर जगह-जगह बैठे नजर आ रहे थे। इन बाबाओं में मुझे बस ठगी ही नजर आती है। जहां ऐसी ही पूजा चल रही थी, मैं वहीं पेड़ के नीचे खड़ा हो गया। कुछ ही मिनटों में पूजा खत्म हुई। अब बारी आई दक्षिणा देने की। बूढ़ी औरत ने कुछ रुपये दिये, कम पैसे देखकर बाबाजी भड़क गये। गुस्से में बोले कि अभी गंगा मइया से ऐसा कुछ करवा दूंगा। इतना कहना था कि दो बड़े नोट आये और कृपा मुस्कुराहट में आनी शुरू हो गई।


सुविधायें अच्छी नजर आ रही थी। अब मुझे अखाड़े की तरफ जाना था। मुझे पता चला कि दिगंबर अखाड़े में सिलेंडर फटने से आग लग गई है। अब तो मुझे जल्द ही उस जगह पर पहुंचना था। तभी मेरे एक दोस्त का फोन आया, वो संगम आ चुका था। मैं उसे कोई जगह नहीं बता पा रहा था कि घाट के पास सब कुछ एक जैसा ही था- नावें, खंभे, रेत और पुलिस, सब कुछ एक। उसने मुझे लाइव लोकेशन भेजी फिर भी उसे ढ़ूढ़ नहीं सका। तब लगा कि तकनीक होते हुये भी हर जगह साथ नहीं देती।

अखाड़े की खोज में


मैं अपने दोस्त के साथ ये कुंभ देखने वाला था क्योंकि मिलकर बहुत कुछ आसान हो जाता है। नये खोजने में आसानी होती है और सुस्ताने में भी। कुछ देर बाद हम मिले और अखाड़े की तरफ बढ़ दिये। अखाड़े की ओर जाने के लिए हमें पीपे के पुल को पार करना था। पीपे के पुल बहुत मजबूत थे, चार पहिया की गाड़ी भी इसके उपर से आसानी से निकल रही थी। बात करते-करते हमने पुल पार किया और अखाड़ों की ओर पहुंच गये।

यहां का माहौल कुछ अलग था, यहां भीड़ कम थी। यहां लोग कम, संत ज्यादा नजर आ रहे थे। ऐसे ही एक अखाड़े की गली में हम घुस गये। धर्मात्मा अपने-अपने टेंट में बैठे हुये थे। सबकी अपनी-अपनी वेशभूषा थी, कुछ जटाओं में बंधे थे तो कुछ मालाओं से पिरोये हुये थे। सबसे ज्यादा लोग नागा बाबा के टेंट के बाहर खड़े थे। श्रद्धालु उनसे आशीर्वाद लेने जा रहे थे। ऐसे ही घूमते-घूमते हमने कुछ अखाड़े देख लिये थे।

अखाड़े से एक दृश्य।
इस बार सबसे ज्यादा चर्चे में किन्नर अखाड़ा रहा है। पहली बार कुंभ में इस अखाड़े को जगह दी गई है। मैं वो अखाड़ा देखना चाहता था। हम पूछते-पूछते आगे बढ़ रहे थे। रास्ते में कई मीडिया चैनल की सड़क पर ही बाबाओं से चर्चा चल रही थी। मीडिया के लिए कुंभ एक अच्छा जरिया है। जहां आराम से सभी संतों से राम मंदिर, गौ रक्षा पर बात की जा सकती है। मेरे साथ चल रहे सहयोगी ने कल्पवास कर रहे है टेंटों को दिखाया। जो यहीं मार्च तक रहने वाले थे।

थका रहा था कुंभ


कुंभ का ये रास्ता हमें लंबा लगने लगा था। हम जिससे भी किन्नर अखाड़े के बारे में पूछते, वो आगे जाने को कह देते। लेकिन वो आगे का रास्ता खत्म ही नहीं हो रहा था। शास्त्री पुल के बाद एक और पुल पार कर लिया था लेकिन अभी तक हम अखाड़े तक नहीं पहुंच पाये थे। अब मुझे समझ आ रहा था कि किन्नर अखाड़े को जगह कैसे मिल गई? सबसे अलग और सबसे दूर किन्नर अखाड़ा ही था। तभी हमें ई-रिक्शा दिखा। हमने उसे किन्नर अखाड़े तक जाने का कहा। उसने भी अपने हाई-रेट के दर्शन करा दिये।

कुंभ थकाता है लेकिन रूकाता नहीं।
लंबी बहस और मोल-भाव के बाद आखिर में बात बन ही गई। कई घंटे के बाद पैर को आराम मिला था, बैठते ही सुकून आ गया। कुछ मिनटों में ही हम किन्नर अखाड़ा पहुंच गये। अखाड़े का गेट बंद था। अखाड़े के बाहर एक किन्नर थी, सब उससे आशीर्वाद ले रहे थे। हमने पता किया तो पता चला कि अभी सभी लोग घूमने गये हैं रात को ही आयेंगे। यहां तक आने के बाद भी निराशा ही हाथ लगी। अब बहुत तेज भूख लगी थी और वो भी प्रयागराज की गलियों की चटखारे की।

कुंभ यात्रा का ये दूसरा भाग है, आगे की यात्रा यहां पढ़ें।

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