Friday 19 October 2018

कुछ अलग तरीके से मनाते हैं बुंदेलखंड में दशहरा

आज पूरे देश में में दशहरा धूमधाम से मनाया जा रहा है। कहीं रावण को जला रहे हैं, कहीं पूजा की जा रही है और कहीं पीटा जा रहा है। अलग-अलग जगह की अपनी-अपनी मान्यताएं हैं। ऐसे में मुझे अपने बुंदेलखंड याद रहा है, अपना घर और अपना गांव याद आ रहा है। जो दशहरा पर दिवाली की तरह सज जाता है। बुंदेलखंड तो हमेशा से परंपरा को निभाते आ रहा है। आज भी बुंदेलखंड में गांव की संस्कृति देखी जा सकती है और ये सब देखकर मुझे देखकर गर्व होता है कि मैं उसी बुंदेलखंड धरा से हूं। उसी बुंदेलखंड में दशहरा को सिर्फ रावण जलाकर नहीं मनाते। हम उस दिन खुशियां आपस में बांटते हैं।


पान


पान जिसमें रसता और मिठास का गुण पाया जाता है। वो पान दशहरा पर हम मिठास के रूप् में खाते हैं। उस पान को पाने का भी एक तरीका है। ये नहीं कि दुकान पर गये और खरीदकर खा लिये। उस दिन हम प्यार के रूप में सबको खिलाते हैं। बुंदेलखंड की इस पान की संस्कृति पर विस्तार से बात करते हैं।

दशहरा के कुछ दिन पहले ही गांव के लोग बाजार जाकर पान लगाने का पूरा सामान खरीद लेते हैं। दशहरे के दिन पहले रावण दहन होता है उसके बाद घर में पूजा होती है। पूजा में बाजार से लाये हुये पान में एक पान लगाकर भगवान को चढ़ाते हैं और फिर अपनी पोटली लाकर घर के बाहर बैठ जाते हैं।


पान की दुकान पर जो सुपाड़ी, कत्था मिलता है, वही सामान होता है। पूजा करने के बाद लोग एक-दूसरे के यहां जाते हैं और दशहरा की बधाई विशेष संबोधन ‘दशहरा की राम-राम’ से करते हैं। इसके बाद सामने वाला उत्तर देता है और एक मीठा पान लगाकर उसे दे देता है। पूरे गांव में, सभी के घर के बाहर ऐसी दुकानें लगा होता है। मुझे याद है जब मैं छोटा था तो पूरे गांव के घर-घर घूमकर इतना पान खाया था कि अगली सुबह मेरा मुंह दर्द कर रहा था और गाल सुपाड़ी से छिल गया था।

घर के बड़े यह दुकान लगाते हैं तो वे ध्यान रखते हैं कि किसे कौन-सा पान खिलाना है। जो बड़े लोग होते हैं उनको चूना लगा पान लगाया जाता है और हम जैसे बच्चों को सादा पान दिया जाता था। तब हम बड़े गुस्से उनको देखते थे कि हमारे साथ ऐसा पक्षपात क्यों?

रावण दहन भी होता है।

बुंदेलखंड के दशहरे की दिन की शुरूआत की अलग ढंग से होती है। सुबह-सुबह कुछ शुभ  देखने की एक परंपरा रहती है। मछुआरे एक डिब्बे में मछली को पानी में डालकर घर-घर जाकर दिखाते हैं और गांव वाले उनको कुछ अंश देते हैं जो उनकी अजीविका भी होती है। कहा जाता है कि इस दिन मछली के दर्शन करने से आपका साल अच्छा बना रहता है।

इसके बाद शाम को रावण के दहन के बाद पूजा होती है। पूजा के बाद लोग एक-दूसरे के सम्मान के लिए पान खिलाते हैं। दशहरा में इस पान का बुंदेलखंड में बहुत महत्व है। पहले राजदरबार में अतिथि के स्वागत के लिए पान खिलाने का ही चलन था। आज के दिन मुझे वो पान बड़ा याद आ रहा है। हमें दशहरा के दिन रावण को जलाने की खुशी नहीं होती थी जितनी घर-घर जाकर ‘दशहरा की राम-राम’ कहकर पान खान की। आज दशहरे पर मैं रावण को जलते हुए तो देख लूंगा लेकिन वो गांव का पान कहां से आएगा जो बिना कहे ही मेरे मुंह में ठूंस दिया जाता था। उस पान की टीस एक बुंदेलखंड का ही व्यक्ति ही समझ सकता है। जैसे कि इस समय मैं।

Wednesday 17 October 2018

तुंगनाथ 2: ये चढ़ाई वो भीना स्पर्श देती है जो यादों की दुनिया में ले जाता है

पहाड़ सुनकर मेरे दिल को जाने क्यों सुकून मिल जाता है। हर बार पहाड़ों में जाना एक नया एहसास होता है जो पैदल चलते हुये रास्तों में होता है, डंडों के टेक से संभलते पैरों में होता है और वो एहसास नयापन ला देता है। ऐसा ही सफर था तुंगनाथ।


हरिद्वार से चोपता की यात्रा बेहद सुकून और थकी भरी रही थी। वजह भी थी इतने घंटों से हम बस गोल-गोल घूमे जा रहे थे। रास्ते में सफेद चादर ने जरूर एनर्जी भर दी थी। हम सफेद चादर को देखकर खुश हो रहे थे क्योंकि हमें लग रहा था वो दूर तलक की सफेद पहाड़ी केदारनाथ की है। लेकिन वो सफेद पहाड़ी को हम कुछ ही देर बाद बिल्कुल नजदीक से देखने वाले थे। वो सफेद चादर हमारा तुंगनाथ में इंतार कर रही थी और हम इस बात से बिल्कुल बेखबर थे।

हमारी बस चोपता शाम के तीन बजे पहुंची। बस के बाहर उतरे तो अचानक सर्द ने हम पर हमला कर दिया। मौसम पूरा सर्द से भरा हुआ था। हमने सोचा नहीं था कि मई के महीने में तुंगनाथ हमारा ठंड से स्वागत करेगा। हम सब अपने गर्म कपड़े लाये थे। थोड़ी ही देर में हम तुंगनाथ की ओर जाने के लिए तैयार हो गये। चोपता के चौराहे पर हम खड़े हुये थे, आसपास कुछ ही दुकानें थे। मैंने अपने काम की दुकान देखी और पहुंच गया डंडा लेने। तुंगनाथ की चढ़ाई चोपता से 3-4 किलोमीटर है लेकिन बस की थकावट हावी थी इसलिए डंडा चढ़ाई करने में कामगर था।

तुंगनाथ चढ़ाई


हम सब एक पक्के रोड पर चलने लगे जो शायद तुंगनाथ तक बना हुआ था। शुरूआत में सबकी बड़ी परेशानी थी, थकान। जो हमारे चलने की गति को धीमा कर रही थी और हमें अंधेरे होने से पहले नीचे भी आना था। हमें पहले ही निर्देश मिल चुका था जो जहां तक चढ़ पाये चढ़े और वापसी में इन्हीं लोगों के साथ वापस आ जाये। मैं हार नहीं मानने वाला था। मैं नहीं चाहता था कि तुंगनाथ आकर भी तस्वीर में ही उस जगह को देखूं।


मैं धीरे-धीरे चलने लगा बिल्कुल सामान्य। मैं नहीं चाहता था कि स्पीड के कारण इस सफर का आनंद न ले सकूं। शुरूआत में सबके दिमाग पर थकान छाई हुई थी लेकिन थोड़ी देर बाद हम उस चढ़ाई और थकान में ढलने लगे। हम उस चढ़ाई को एंजाय करने लगे।

मैं जिस सफेद चादर के लिए बस में उछल-कूद कर रहा था वो हमारे सामने ही थी। हम उसके ही पास जा रहे थे। छोटे से रास्ते में बहुत कुछ अच्छा था सुहाना मौसम, शांति और हरा-भरा फैला हुआ मैदान और सफेदी ओढे़ हुये पहाड़। पेड़ों के बीच पहाड़ सुंदर लगते हैं लेकिन सफेदी के लेप में पहाड़ में एक आकर्षण आ जाता है। पहाड़ की इस सुंदरता को देखकर हम असमय ही उसकी तारीफ करने लगते हैं। हम भी वही कर रहे थे कुछ अपने मुंह से तो कुछ तस्वीरों में सहेजकर।

हरा मैदान


पक्की सड़क पर चलते-चलते काफी देर हो गई थी। अचानक सड़क से मिलता हुआ हरा-भरा मैदान मिला। जहां से चलकर हम आगे जा सकते थे। हम थोड़े आगे चले और वहीं लोट हो गये। देखा-देखी जो भी आता वहीं लोट हो जाता। कुछ देर मखमली हरी-घास पर आराम करने के बाद हमने फिर अपने कदम बढ़ाये। अब चढ़ाई थोड़ी खड़ी हो गई थी जो कुछ लोगों के लिए परेशानी भी थी।


मौसम सर्द पहले से ही था और हम जैसे-जैसे आगे बढ़ रहे थे ऊंचाई की वजह से मौसम और ठंडा हो रहा था, सर्द हवायें भी चल रहीं थीं। चलते-चलते शरीर में गर्मी आ जाती है लेकिन ऊंचाई के कारण हालत खराब होने वाली थी। इन सारी दिक्कतों के कारण चढ़ना और भी मुश्किल हो रहा था। लेकिन हम बीच में रूककर आराम करते और फिर चलते।

रास्ते में बहुत ही कम लोग थे जो हमारे लिए अच्छी बात थी। हम आराम से चल रहे थे भीड़ चलने में परेशानी देती है। रास्ते में हमें एक दुकान मिली जहां हमने कुछ खाने को लिया जो हमें आगे चलने में मदद करता रहे।


भीनी-भीनी बर्फ


हम चलते-चलते काफी ऊपर आ गये थे। यहां से चारो तरफ सुंदरता फैली हुई थी। सामने देखते तो एक लंबा रास्ता और सफेद चादर में लिपटा पहाड़ दिखता जो हमारा इंतजार कर रहा था। पीछे देखते तो अनेकों पहाड़ियां दिखतीं एक के पीछे एक। जो एक दूसरे में एकाकार हो रही थी। यही वो नजारा था जो हमें धीरे-धीरे चला रहा था। हम हर पल को, हर कदम को जी कर चलते जा रहे थे।

हम चल ही रहे थे अचानक चेहरे पर कुछ स्पर्श हुआ, लगा कि शायद बारिश होने वाली है। कुछ देर बाद वो स्पर्श बढ़ गया। वो सफेद सा स्पर्श हमारे चारों-तरफ फैलने लगा। हम इसको देखकर खुशी से चिल्ला ही उठे, हम वहीं रूककर उसी सफेदी में एक-दूसरे को, पहाड़ों को देखने लगे। हमने नहीं सोचा था कि मई के महीने में हमारे चारों तरफ भीनी-भीनी सफेदी बरस रही होगी।

चढ़ाई के बीच में कुछ ठहराव।

उस सफेद बारिश के बाद मौसम में और ठंड होने लगी लेकिन अब हमें ये मुश्किल अच्छी लग रही थी। मुकेश सर हमें धकेलते और फिर खुद हमारे साथ ही हो लेते। हमें अभी तक सफेद पहाड़ दिख रहे थे लेकिन इतनी ऊंचाई पर पहुंचकर अब तस्वीर साफ होने लगी थी।

तुंगनाथ और ठंड


हम चलते जा रहे थे लेकिन हमें मंदिर अभी तक नहीं दिख रहा था। कुछ ही देर बाद हम ऐसी जगह पहुंचे जहां से हमें मंदिर दिखाई दे रहा था। कुछ देर बाद हम मंदिर के रास्ते पर ही थे। मंदिर के नीचे कुछ दुकानें थीं जो मंदिर के लिए प्रसाद लेने के लिए थी। मंदिर वैसा ही था जैसा उत्तराखंड में सभी केदार हैं।


जब मंदिर जाने के लिये जूते उतारे और जमीन पर पैर रखा तो ठंड के कारण अचानक कपकपी उठी। अब जमीन पर चलना बर्फ की सिल्ली पर चलना लग रहा था। थोड़ी ही देर में ठंड ने मेरी घिग्घी बांध दी। जब मंदिर के अंदर गया तो चैन मिला और जब बाहर आकर वही हाल हो रहा था तो जल्दी से अपने जूतों में पैर डालकर उनको सुकून दिया।

तुंगनाथ से सामने सफेद सुंदरता ओढ़े पहाड़ दिख रहे थे। सफेद आसमान को छूते पहाड़ बहुत सुंदर लग रहे थे। हम अब नीचे की ओर आ रहे थे। हम बार-बार मुड़-मुड़कर उस जगह को देख रहे थे जहां हम अभी कुछ देर पहले खड़े थे।

हम कुछ दूर ही चले तो हमें एक पक्षी दिखा, बिल्कुल मोर की तरह बस छोटा था। मुकेश सर ने बताया कि ये ‘मोनाल’ पक्षी है, उत्तराखंड का राज्यीय पक्षी। अंधेरा होने लगा था और हम नीचे चलते जा रहे थे। इस अंधेरे के साथ ही सफर खत्म हो जाना था लेकिन भीनी सफेदी का स्पर्श हमेशा ताजा रहने वाला था, ताउम्र।


Tuesday 16 October 2018

उस टिहरी की बात ही अलग थी, इस डैम ने मेरा घर छीन लिया

आँखों में नमी, शब्दों में पुरानी यादों की झलकियां और अपने आज को खोने का डर। बस यही कुछ कहानी बयां करती है टिहरी। टिहरी जहां आप आयेंगे तो पहाड़ों की सुंदरता, ठंडी हवाओं में वो सुगंध कि यही हमेशा बस जाने का जी करेगा। लेकिन जो लोग यहां रहते हैं वही यहां का दर्द जानते हैं और महसूस करते हैं। जब उनका दर्द उनकी आंखों में आता है तो वह आंसू के बहाव में निकल आता है


जिस टिहरी को हम और आप देखते हैं वो दरअसल 2002 में अस्तित्व में आई। उससे पहले यहां एक सांस्कृतिक विरासत थी, जिसे टिहरी के नाम से जाना जाता है, लेकिन जब टिहरी डैम बना तो सबको अपना घर, अपना गांव, वो यादें सबको देश के लिए छोड़ आये। सरकार ने पुरानी टिहरी की जगह नई टिहरी तो बसा दी, लेकिन इस टिहरी में वो बात नहीं है। ऐसा ही कुछ कहते हैं यहां के रहने वाले लोग जो पहले कभी पुरानी टिहरी में रहते थे। बुराडी में फोटो स्टूडियो की दुकान खोलें सुनील कुटियाल बताते हैं-
‘‘ पुरानी टिहरी में मेरी दुकान थी। मैंने सबसे बाद में टिहरी को छोड़ा था। हमने सोचा था कि डैम नहीं बनेगा, लेकिन जब हमारी दुकान डूबने लगी तो हमको आनन-फानन में अपना घर छोड़ना पड़ा।’’
वहीं नई टिहरी में केदार बद्री होटल खोलें डोभाल अपनी नम आँखों से उस डैम के कारण हुये अपने नुकसान को बताते हैं। वह कहते हैं कि उस डैम के कारण पूरा देश तो रोशन हो रहा है, लेकिन यहां रहने वाले लोग हमेशा अंधेरे में रहते हैं। वो अंधेरा बिजली नहीं है। उनका अंधेरा है रोजगार, पलायन और सुविधाओं के नाम पर ठगी। टिहरी कभी एक पर्यटन का क्षेत्र हुआ करता था लेकिन यहां पर डैम बनने के कारण यहां का रास्ता ही अलग-थलग कर दिया गया है। जिससे लोगों को यहां के बारे में ही पता ही नहीं है।
विस्थापित जगदीश प्रसाद डोभाल

मंसूरी और नैनीताल जैसे शहरों को अंग्रेजों ने बसाया है जहां घूमने और रहने के लिए लाखों पर्यटक आते-रहते हैं। लेकिन उससे भी सुंदर है ‘टिहरी’। लेकिन टिहरी में कमी है तो टूरिस्ट स्पाॅट की। जैसे मंसूरी में कई कृत्रिम झील हैं ऐसे ही कई टूरिस्ट स्पाॅट यहां भी बनाये जायें। ये काम सरकार के अलावा कोई नहीं कर सकता।
2002 में नई टिहरी बसी और उसके साथ ही बस गया लोगों में खालीपन और नमी। सरकार ने उनको जैसा वादा किया था, वैसा शहर उनको नहीं दे पाये। हनुमंत राय समिति ने उनको वादा किया था कि उनको रोजगार मिलेगा और बिजली पानी फ्री मिलेगी। जो पुरानी टिहरी से विस्थापित लोगों के लिए एक तोहफा के समान था। इन सब पर विस्थापित जगदीश प्रसाद डोभाल कहते हैं-
‘‘हमने इस जगह पर रहने का फैसला लिया था, क्योंकि ये हमारा घर था। लेकिन सरकार ने जिस तरह हमसे मुंह मोड़ लिया, उससे ऐसा लगता है कि काश! हम यहां से चले गये होते तो अच्छा होता। मेरे बेटे पढ़े-लिखे होने के बावजूद बेरोजगार बैठे हुये हैं।’’
नई टिहरी उनको वो नहीं दे पाई, जो उनकी उस टिहरी में था। जो आज जलमग्न हो चुकी है। वहां से निकले विस्थापित लोग बस यही कहते हैं कि उस टिहरी की बात ही अलग थी, इस डैम ने मेरा घर छीन लिया।

Thursday 11 October 2018

बस्तर यात्राः यहां तक तो सब ठीक है बस यहां से आगे मत जाना।

20 सितंबर 2018, नारायणपुर।

मैं बस्तर के नारायणपुर जिले में था। नारायणपुर जिला इस क्षेत्र का सबसे विकसित शहर है। आस-पास के लोग अपना जरूरत का सामान यहीं से लेने आते हैं। यहां बाजार है, दुकानें हैं और सभी प्रशासनिक भवन। बस्तर इलाके का एक विकसित शहर जो मुझे उजाड़ लग रहा था। मैंने अभी तक जिला पंचायतें देखीं जो बहुत भारी-भरकम रहती हैं। जो देर रात तक जागती है और देर सुबह शुरू होती है। लेकिन नारायणपुर पूरे गांव की तरह से चल रहा था जो बहुत जल्दी उठता है और शाम होते ही बंद हो जाता है।


हमारे साथ यहां के स्थानीय लोग थे जो हमें आस-पास के क्षेत्र के बारे में बता रहे थे। थोड़ी ही देर में हमारी गाड़ी गांव की ओर निकल पड़ी। थोड़ी ही आगे चले थे कि पक्का रोड खत्म हो गया। अब हम लाल मिट्टी वाले कच्चे रास्ते पर थे। रास्ते में हमें रोड किनारे कुछ घर दिख रहे थे। जो गांव का पूरा खाका खींचे हुए थे, उनके पास गाय थीं। रास्ते में हमें महिलाएं खेतों में काम करती हुई दिख रहीं थीं तो लड़कियां भी बस्ते पहनकर स्कूल जा रहीं थीं।

फिर अचानक!

हम ऐसे ही रास्ते में चलते जा रहे थे। हमारे स्थानीय साथी ने बताया, जिस कच्चे रोड पर हम चल रहे हैं वो कुछ महीने पहले बना है। इससे पहले तो यहां की हालत और भी खराब थी। फिर अचानक एक ऐसी जगह आई जहां गाड़ी रोक दी गई। रास्ता एक दम घाटी हो गया था और बीच में एक नहर थी। गाड़ी नहर को पार नहीं कर सकती थी इसलिए हम पैदल ही आगे का रास्ता नापने लगे।

जब हम पैदल चलने लगे तब हमें लगा कि हम बस्तर में हैं, गाड़ी में बाहर का एहसास नहीं होता। पैदल रास्ता लंबा था, गांव 4-5 किलोमीटर की दूरी पर था। हमें उस कच्चे रास्ते में कोई नहीं दिख रहा था। पूरा जंगल वाला दृश्य था लेकिन दोपहिया वाहन की आवाजाही बता रही थी कि रास्ता आमजन का ही है। हम कुछ ही दूर चले थे कि हमें एक टूटा पुल मिला। जो अपनी कहानी बयां कर रहा था कि यहां तक आने में परेशानी क्यों है? टूटे पुल के पास ही गिट्टी और एक पानी का टैंकर रखा था। जो बता रहा था कि शुरूआत तो हुई है लेकिन काम अधूरा ही रह गया।


हम आगे चले तो हमें कुछ घर दिखाई दिए। हम मोरहापार गांव में आ गये थे। यहां हम गांव वालों से बातें करने लगे। इस गांव में गोंडी जनजाति के लोग रहते हैं। हिंदी ज्यादा नहीं आती लेकिन कामचलाऊ वाली बोल लेते हैं। इस गांव में कोई अस्पताल तो नहीं हैं लेकिन मितानिन है। मितानिन बिल्कुल आशा जैसा ही काॅन्सेप्ट है। मितानिन जो गांव की ही एक महिला रहती है। उसे जिला अस्पताल में प्रशिक्षण दिया जाता है और वो छोटी-मोटी बीमारी  के लिए गांव वालों को दवा देती है।

गांव के प्राथमिक स्कूल में गये। जहां 4-5 ही बच्चे थे और उससे भी बड़ी बात कि उन 4-5 बच्चों के बीच दो अध्यापक थे। जो हमारी सिस्टम की गड़बड़ी को बता रहे थे। सरकार को ऐसी जगह पर टीचर भेजने चाहिए जहां कमी हैं। यहां दो टीचर क्या बच्चे को पढ़ाते होंगे वे तो यहां समय निकालकर पैसे बनाने की फिराक में रह रहे हैं।

सरकार की योजनाओं पर गांव वाले

गांव में सोलर प्लेट सभी के घर पर दिख रहीं थीं जो सरकार ने गांव वालों को बिजली के लिए दी थी। उज्ज्वला योजना के बारे में गांव वालों को जानकारी है उन्होंने गैस कनेक्शन के लिए फाॅर्म भी भरा लेकिन अभी तक किसी को भी गैस नहीं मिला। गांव में सभी खपरैल और कच्चे घर थे। बीच-बीच में कुछ पक्के घर भी दिखे। स्थानीय लोगों ने बताया कि इंदिरा आवास के तहत ये घर गांव के कुछ लोंगों को मिले हैं।

सूखते कुकरमुत्ते।

स्थानीय लोगों ने इसके बारे में बताया कि हर साल 4-5 लोगों को चुना जाता है और उसे घर बनाने की रकम जो कि डेढ़ लाख है किश्तों में दी जाती है। गांव वालों की शिकायत है कि उनको पूरी रकम नहीं मिलती। डेढ़ लाख में उनको 1 लाख 20 हजार ही मिलते हैं।

इंदिरा आवास इस गांव में जिसको मिला हम उनके घर गये। उस समय घर में सिर्फ महिला ही थीं। उनके पति काम करने खेत गए थे। घर के बरामदे में कुछ सूख रहा था तो बताया गया कि यह जंगली कुकरमुता है इसे सुखा कर अचार बनाया जाता है। घर एक परिवार के लिए पर्याप्त था लेकिन टाॅयलेट जल्दी-जल्दी में बनाई गई थी। टाॅयलेट इतनी छोटी थी कि सब शौच के लिए बाहर ही जाते हैं।

गांव पूरा गोल शेप में बसा हुआ था। हम उसी गोल शेप में चलते-चलते लोगों से बात कर रहे थे। रास्ते में हमें एक तालाब मिला। हमारे साथ उसी गांव के दो लड़के भी थे जिन्होंने बताया कि पूरे गांव ने पैसा जोड़कर यह तालाब खुदाया और अब इसमें मछली पालन करते हैं। कुछ देर बाद हमने वो गोला पार कर लिया। जब रास्ते के हमें छोर पर आ गये तो हमारे स्थानीय साथी ने गांव वाले से पूछा, यहां का माहौल कैसा है? गांव वाला पहले तो झिझका और बोला, यहां तो सब ठीक है। बस यहां से आगे मत जाना, आगे सोनपुर में खतरा है।

गांव का तालाब।

उसी गांव वाले ने बताया कि सोनपुर यहां से लगभग 6-7 किलोमीटर की दूरी पर था। हमें यहीं शाम हो गई थी। हमने सोनपुर जाना टाल दिया और वापस नहर की ओर बढ़ गये। जहां हमारी गाड़ी खड़ी थी।

Sunday 7 October 2018

तुंगनाथः वो सफर जिसके खत्म होने की चाहत नहीं हो रही थी

पहाड़ों में हर बार जाकर लगता कि कुछ रह सा गया है थोड़ा और आगे जाना चाहिये था। जब मैंने टिहरी के पहाड़ देखे तो लगा कि इससे अच्छा और सुंदर क्या हो सकता है? लेकिन जब आप आगे और आगे जाते हैं तो पता चलता है कि सबसे सुन्दर कुछ नहीं होता है। बस वो तो क्षणिक भर की सुन्दरता होती है जो आपको उस जगह की याद दिलाती है। इन्हीं पहाड़ों में घूमते-घूमते मैंने वो पहाड़ी देखी, वो चढ़ाई कि जो उस पल की याद दिलाता है जो बार-बार उस बर्फानी चोटी की ओर मुझे आकर्षित कर रही थी। हममें से हर कोई बस यही कह रहा था कि ये पल और ये दिन भूला नहीं जायेगा। उस दिन हमने वो असमान से छूती तुंगनाथ की चढ़ाई की।

फोटो साभारः मुकेश बोरा।

हमारा काॅलेज के फाइनल पेपर खत्म हो गये थे। हमारे साथी और टीचर हम सब एक बार फिर से एक अच्छे सफर की तैयारी कर रहे थे लेकिन उसमें भी कई परेशानी आ रहीं थीं। कहीं समस्या पैसे की थी तो कहीं जगह की। आखिर में हमारे कुछ सीनियर हमारे साथ आ गये तो पैसे की दिक्कत कुछ कम हो गई और जाने के दिन तक जगह भी तय हो गई, तुंगनाथ।

तुंगनाथ के बारे में बहुत सुना था कि वो भारत का स्विट्जरलैंड है। हम सब उत्साह और ऊर्जा से भरे हुये थे। तुंगनाथ तक पहुंचाने के लिये हमने एक बस को बुक किया था। हम 9 मई 2018 को सुबह-सुबह लगभग 30-35 लोगों के साथ एक बेहतरीन सफर के लिए निकल पड़े। जो आगे चलकर कुछ को चक्कर दिलाने वाला था और कुछ को नींद।

हरिद्वार से हमारी बस चोपता तक जानी थी और हमें आज ही पहुंचकर चढ़ाई भी करनी थी। इसलिये हमें कम जगह रूकना था जिसे जल्दी चोपता पहुंच सकें। मैं पहली बार इस तरफ जा रहा था। इस तरफ मैं सिर्फ ऋषिकेश पहले भी कई बार आ चुका था। ऋषिकेश से बाहर गाड़ी बाहर निकलने पर कुछ नया लग रहा था। सूरज सिर पर चढ़ आया था और घुमावदार सड़क भी शुरू हो गई थी। रास्ते बेहद ही सुंदर नजारों से गुजर रहा था। हम पहाड़ के लिए, पहाड़ के रास्ते जा रहे थे। तेज धूप थी जो अच्छे मौसम का संकेत था और हमारे सफर का। हमें देवप्रयाग, रूद्रप्रयाग के रास्ते चोपता पहुंचना था। ऋषिकेश से देवप्रयाग 70 किमी. की दूरी पर था। देवप्रयाग पहुंचने से पहले हम रास्ते में एक जगह रूके जहां हमने कुछ अपनी अकड़न दूर की और फिर चल पड़े पहाड़ों के बीच।



पहाड़-नजारे


हम जैसे गोल-गोल घूमकर ऊपर जाते हमें कुछ ऐसे नजारे मिलते। जिसे देखकर लगता कि इसे इत्मीनान से देखना चाहिए। ऐसी जगह पर बस की बजाए, दोपहिया वाहन से आना चाहिये। हमारे रोड के साथ बगल में ही गंगा बह रही थी। हम नदी की उल्टी दिशा में जा रहे थे, वो हरिद्वार की ओर जा रही थी और हम चोपता की ओर। ऊंचाई से सब कुछ छोटा लगता है लेकिन सुंदर भी लगता है जैसे कि वो पुल जो नदी के बीचोंबीच बना है। कहीं-कहीं पहाड़ों को तोड़कर चौड़ीकरण किया जा रहा था, जिस पर हमारे एक पत्रकार महाशय अपनी टिप्पणी दे रहे थे।

शिवपुरी होते हुये हम कुछ घंटों में देवप्रयाग के रास्ते आ गये। जब हमको वो संगम दिखा तो सोने वाले जागकर खिड़की से वो संगम देखने लगे। संगम में अलकनंदा और भागीरथी का संगम होता है। हम ऊपर से उस संगम को देख रहे थे। मुझे अफसोस हो रहा था कि आंखों के सामने होने के बावजूद, संगम जा नहीं पाया। देवप्रयाग और संगम को छोड़ते हुये हम रूद्रप्रयाग के रास्ते पर आ गये थे। अब दोपहर होने को थी, अब रास्ते में भीड़ देखी जा सकती थी। पहाड़ों के शहर कुछ अलग होते हैं बहुत जल्दी ही खत्म होने वाले। हम ऐसे ही रास्तों को पार करने के बाद रूद्रपयाग छोड़ चुके थे।

ऐसे नजारे पूरे रास्ते मिलेंगे।

ये गोल पहाड़ी रास्ते



हम जैसे ही इन पहाड़ी रास्ते पर गुजर रहे थे कुछ लोगों की हालत शुरू से ही खराब होने लगी थी। कुछ साथियों ने खिड़की का सहारा लिया और कुछ ने नींद ने। सौरभ सर को अपनी हालत का पहले ही अंदाजा था इसलिए वे रास्ते भर सोते ही रहे। मुझे भी अपने आप पर विश्वास था कि मैं भी ऐसा ही करूंगा। इसलिए गोल रास्तों से बचने के लिए मैंने खिड़की का सहारा लिया। जब मुझे लगता कि पल्टी होने वाली है मैं अपना सिर खिड़की से बाहर निकाल लेता जो मुझे सुकून देता और पूरे रास्ते मैंने यही किया।

कुछ देर बाद हम एक होटल पर रूके जो सड़क किनारे था। हम सबने वहां खाना खाया और कुछ जरूरी काम निपटाये जो सफर में परेशान करते हैं। खाना सबने अपनी पसंद का खाया, मैंने कम खाया क्योंकि मुझे डर था कि ज्यादा खाने से मुझे परेशानी हो सकती है। खाना खाने के बाद हम एक बार फिर से अपने सफर की ओर निकल पड़े।

सफेद चादर


कुछ साथी जो आगे बैठे थे वे बातों में लगे थे और पीछे वाले सोने में। हिमांशु भैया अपने अनुभव से रास्ते के बारे में बता रहे थे। मैं भी उनकी बातें सुनना चाहता था इसलिए जब सभी बस पर चढ़े तो मैं आगे ही बैठ गया। मुकेश सर से बातें भी हो रहीं थीं और जानने को भी मिल रहा था। आगे का नजारा सुंदर होने लगा था। एक तरफ तो बिल्कुल पहाड़ हमसे चिपक गया था और दूसरी तरफ नदी बह रही थी और दूर तलक हरा-भरा पहाड़ नजर आ रहा था। अभी भी पहाड़ों पर धूप सीधी पड़ रही थी जो हालात खराब करने के लिये काफी थी।

जब हम कुछ दूर आगे निकले तो अचानक मुझे एक सफेद चादर सी दिखी। पहले तो मुझे लगा कि शायद आसमान है लेकिन ध्यान से देखा तो वो सफेद चादर पहाड़ थे जिसे देखकर मैं चिल्ला पड़ा। सभी की नजर उसी ओर जा पड़ी। वो हमसे बहुत दूर थे लेकिन पहली बार ऐसा देखने पर खुशी बहुत होती है। मैं सोच रहा था कि वो शायद केदारनाथ वाला रास्ता है इसलिये मैं उसे मोबाइल में कैद करना चाहता था।


बर्फ वाला पहाड़ दिखने के बाद अचानक मौसम और रास्ते ने मोड़ ले लिया। मौसम में अंधेरापन छाने लगा और रास्ता बीहड़ सा हो गया। रास्ता पेड़ों से घिरा हुआ चला जा रहा था। पेड़ अंधेरे की वजह से काले नजर आ रहे थे और उसके पीछे दिखती सफेद चाद सुंदरता की छंटा बिखेर रही थी। ऊंखीमठ को पार करते हुये चोपता के नजदीक आ चुके थे। हमें रास्ता बेहद ही सुंदर नजर आ रहा था। हरे-भरे पेड़ और दूर तलक जहां देखो पहाड़ ही नजर आ रहे थे। अचानक बदले हुये मौसम ने सबके अंदर एक एनर्जी भर दी थी जो तुंगनाथ ट्रैक के लिए थी। कुछ देर बाद हम चोपता पहुंच गये थे, अब हमारा अगला पड़ाव था-तुंगनाथ ट्रैक।

Wednesday 3 October 2018

छत्तीसगढ़ः अबूझमाड़ की गोल चक्कर पहाड़ियां हिमाचल और उत्तराखंड की याद दिला रही थी

जब भी पहाड़ों में सुंदरता खोजने की बात आती है तो हमें उत्तराखंड और हिमाचल ही याद आता है। मैं भी यही सोचकर उत्तराखंड के पहाड़ों में कई बार घूमा हूं। उत्तराखंड और हिमचाल की सुंदरता को टक्कर देने का काम कर रहा अबूझमाड़ जंगल। अबूझमाड़ छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके में फैला हुआ है। अबूझमाड़ का जंगल पहाड़ों से घिरा हुआ जंगल है जो दिन में तो हरा-भरा दिखता है और शाम में काला और रोशनदार। जिसमें सफेद बादल चार चांद लगा देते हैं।


22 सितंबर 2018 को मैं अपने कुछ साथियों के साथ उसी अबूझमाड़ से घिरे रास्ते से जा रहे थे। हम जैसी ही अपनी गाड़ी से ओरछा की ओर चले तो बारिश ने हमारा स्वागत किया। मैं सोचता था कि छत्तीसगढ़ गर्म क्षेत्र होगा जो गर्मी से हमें झुलसा देगा। लेकिन यहां आकर ऐसा मौसम देखा तो दिल खुश हो गया। आसपास घास की तरह धान खेतों में दिख रही थी जो बड़ी सुंदर लग रही थी और उसी धान से दूर तलक दिख रही थीं अबूझमाड़ की पहाड़ियां। अबूझमाड़ की पहाड़ी में सुंदरता का रस है जो इस क्षेत्र को सुंदरता से भरा रहता है।

कुछ देर बाद हम उस सुहानेपन से निकलकर एक गांव में आ गये। यहां रोड किनारे कुछ घर दिखे। हम सभी वहीं उतर गये और लोगों से बात करने लगे। यहां के गांव में कम ही घर थे और सभी घर दूर-दूर थे। अधिकतर लोग धान की खेती करते थे। मैं अक्सर यही सोचता था कि कितने खुशनसीब हैं कि इतने अच्छे क्षेत्र में रहते हैं। शायद ये भी हमारे बारे में यही सोचते होंगे कि यहां ऐसा क्या है? जो यहां ये लोग आते हैं। कहते हैं न कि कोई भी अच्छी जगह घूमते वक्त ही अच्छी लगती है, वहां रहो तब पता चलता है कि हर अच्छी जगह भी दिक्कतों से भरी है।

गोल-गोल घूम जा


जो उत्तराखंड गये हों उन्हें वहां की सड़कें अच्छी तरह से याद होंगी। जो बहुत छोटी रहती हैं और चक्कर खाते हुये गाड़ी आगे बढ़ती जाती है। बिल्कुल वही फील मुझे थोड़ा आगे बढ़ने पर हुआ। मौसम में अभी भी नमी थी रास्ते के किनारे-किनारे कोई नदी बह रही थी। उसका नाम पता नहीं, शायद इन्द्रावती ही होगी जो पूरे बस्तर में फैली हुई है। उस रास्ते पर हम सब एक अच्छा सुहाना सफर देख रहे थे। गाड़ी में बैठे कुछ साथी बता रहे थे कि बिल्कुल ऐसा ही धर्मशाला में है।

उस गोलचक्कर को पार करने के बाद हम सादा रास्ते पर आ गये। यहां भी सुंदरता का अबूझमाड़ फैला हुआ था। जो हम सब को मोहित कर रहा था। ऐसे में इस सुंदरता के साथ फोटो तो होनी ही चाहिये थी। उसी सुंदरता को हमने अपने मोबाइल में अपने साथियों के साथ बटोर लिया किसी ने इमली के साथ तो किसी ने हल्दी के पौधे के साथ। हमारा अधिकतर समय गाड़ी में ही गुजरता था और वहीं से इस अबूझमाड़ की सुंदरता को निहारते थे।
रास्ते में कई झीलें, नहरें मिलीं जो साफ बता रही थी कि इस इलाके में पानी की कमी तो नहीं है। पीने वाले पानी की कमी हो सकती है क्योंकि सभी नहरें और झीलें मटमैली थी जिसमें मछुआरे मछली पकड़ रहे थे।

बारिश से अलहदा हुआ हमारी गाड़ी का शीशा।

रोड पर गाड़ी सनसनाती दौड़ रही थी। आसपास बहुत से पेड़ हमसे होकर गुजर रहे थे। उन पेड़ों के झुरमुट से सामने दिखता पहाड़ बेहद सुंदर लग रहा था। मैं चाहकर भी उस दृश्य को सहेज नहीं सकता था क्योंकि गाड़ी में मैं सबसे पीछे बैठा था। जहां से बाहर देखा तो जा सकता था लेकिन फोटो नहीं खींची जा सकती थी। फिर भी मैं खुश था कि कम से कम इस दृश्य को देख तो पा रहा था। अबूझमाड़ की सुंदरता देखकर हम बस एक ही बात बोल रहे थे ‘अरी दादा’।

Tuesday 2 October 2018

बस्तर के बारे में हम लुटियंस दिल्ली वालों को अपनी राय बदल लेनी चाहिए

दिल्ली देश की राजधानी है यहां से जो बात निकलकर आती है वो सच मानी जाती है। नीति से लेकर रीति तक हर बात इसी लुटियंस दिल्ली से होकर गुजरती है। इस लुटियंस की रीत को पूरा देश सच मानता है। छत्तीसगढ़ के बस्तर के बारे में भी दिल्ली लुटियंस में वो हवा फैली है लो बीस साल पहले फैली थी। इस हवा को सबसे ज्यादा फैलाया है मीडिया ने। इस मीडिया ने वो कभी बताया नहीं जो इस समय बस्तर में घट रहा है। इस समय बस्तर के क्या हालात हैं? ये कभी मीडिया में आता ही नहीं है।


हम लुटियंस दिल्ली वालों को लगता है रायपुर से हमने बाहर कदम रखा तो कुछ बंदूकधारी उनको निशाना बनाये बैठे हों। रायपुर के बाहर बस जंगल है न रोड है और न ही मकान। यहां तो वो आदिवासी हैं जो हिंदी भी नहीं जानते, आज भी वे पेड़-पत्ते खाते हैं। इसी डर को मन में बैठा रखे हैं हम दिल्ली वाले। यही कारण है जब मैंने अपने दोस्तों और परिवार वालों को बस्तर जाने के बारे में बताया तो वे जाने के लिये मना करने लगे। कहने लगे कि वहां छोड़कर कहीं और चले जाओ। मेरे दोस्त कह रहे थे कि जंगल में क्या करोगे जाकर? वहां से जान बचाकर वापस आना। ऐसी बातें सुनने के बाद भी मैं छत्तीसगढ़ के उस इलाके में गया जहां के बारे में आये दिन सुर्खियां आती रहती हैं।

बस्तर में मैं लगभग 14 दिन रहा और लगभग हर जिले में गया। बस्तर में अब सनसनाती रोड भी हैं और लोगों के पक्के मकान भी। ये जो लोग अच्छे कपड़े और घर में रह रहे हैं वे वनवासी ही हैं जो अब अपना विकास चाहते हैं। जो खुद को इस देश की मुख्यधारा से जोड़ना चाहते हैं। लेकिन हम दिल्ली वालों को बस नक्सल के अलावा कुछ नहीं दिखता। हमें इन लोगों का विकास नहीं दिखता। हमें इन लोगों की वो परेशानी नहीं दिखती जो आज देश के हर कोने की है।

मुझे खुशी तब हुई जब नारायणपुर का एक दसवीं का छात्र मेरे पास आता है और कहता है ‘सर मुझे कलेक्टर बनना है और अपने गांव के लिये काम करना है।’ उस लड़के के सवाल में अपने लिये सपना था जो पूरा करने के लिए एक रास्ता ढ़ूंढ़ रहा था। ऐसे ही सपने पाले हुए कई बच्चे पूरे बस्तर में हैं बस जरूरत है उन्हें सही दिशा देने की।

यही है वो जिज्ञासु छात्र।

सुकमा, बीजापुर, दंतेवाड़ा इन तीनों क्षेत्रों को सबसे संवेदनशील जोन कहा जाता है। लेकिन मैं सच कह रहा हूं जितना विकास इन तीन क्षेत्रों में मुझे दिखा वो तो मेरे क्षेत्र में भी कई जगह नहीं है। हालांकि वो विकास सिर्फ शहर तक ही सीमित है। जैसे ही मैंने गांव की ओर कदम बढ़ाये तो विकास के नाम पर संसाधन तो दिखे लेकिन तरक्की नहीं। बच्चे किताबें नहीं पढ़ पा रहे हैं, स्कूल को सिर्फ टीचर पैसे के लिये और बच्चे खाने के लिये आते हैं। शिक्षा के क्षेत्र में शहरों में एजुकेशन हब बनाये जा रहे हैं लेकिन इन हबों में बच्चे जायें इसकी जागरूकता लाने के लिये काम नहीं हो रहा है। यहां की शिक्षा व्यवस्था टेढ़ी खीर की तरह है जिसको जानना बेहद जरूरी है। सरकार को रोजगार इन इलाकों के लिये अलग से बनाने चाहिये। यहां शिक्षा की पूरी जिम्मेदारी पोटा केबिन और आश्रम संभाले हुये हैं।

बस्तर में डर नहीं


बस्तर के बारे में हम बस वो लाल सुर्खियों से भरी खबरें पड़ पाते हैं इसलिये दिल्ली या अन्य जगहों से कोई वहां जाना नहीं चाहता। लेकिन आज की तारीख में मेरा सच ये है कि वहां अब डर नहीं है। अब बस्तर अपनी उस छवि से निकलने की कोशिश कर रहा है जो हम दिल्ली वालों ने बना रखी है। अब हम लोगों को डर निकालकर उस बस्तर की संस्कृति में जाना चाहिये जो कह रही है कि आओ यहां, हम सब एक ही हैं।

ये बस्तर में विकास हुआ है ऐसा मैं क्यों कह पा रहा हू? और दूसरी बात कि मैं अगर कहूं कि नक्सलवाद खत्म हो गया है तो पक्की बात है कि मैं झूठ बोल रहा हूं। लेकिन इतना पक्का है कि अब बस्तर में वो डर नहीं है। हमारे यहां भी गुंडों की गुंडागर्दी चलती-रहती है वैसा ही प्रभाव नक्सल का रह गया है जो छुटपुट घटनाओं से पूरा देश का ध्यान केन्द्रित कर देते हैं।

इस नक्सल को खत्म कर रहा है विकास और शिक्षा। शिक्षा पर काम हो रहा है लेकिन गुणवत्ता की कमी साफ-साफ दिख रही है। बाहर से टीचर भेजेंगे तो भाषा की समस्या आएगी तो साफ है कि वहीं के नौजवानों को ही शिक्षक बनाया जाए। नारायणपुर के ओरछा में मुझे एक गांव में एक नौजवान मिला जिसने बीए किया हुआ है। वो उस क्षेत्र का सबसे शिक्षित व्यक्ति है। वो शिक्षित व्यक्ति गांव में दुकान चला रहा है क्योंकि प्रतियोगी परीक्षायें इतनी कठिन हैं कि वो उस स्तर तक नहीं पहुंच सकता। सरकार को ऐसे नौजवानों को उस क्षेत्र के विकास के लिये आगे लाना चाहिये।

शिक्षा से बस्तर आगे बढ़ रहा है वही बच्चे बंदूक पकड़ते हैं जिनको कलम नहीं दी जाती। अगर बच्चे कलम पकड़ लें तो वो माओवाद वाली विचारधारा खत्म हो जायेगी। हम दिल्ली वालों को ऐसी बातें सरकार को बतानी चाहिये जो बस्तर की एक नई छवि बनायें जो मुझे वहां के लोगों में दिखी। वो छवि है विकास की, आगे बढ़ने की और बस्तर को एक नया रूप् देने की।