Showing posts with label ground report. Show all posts
Showing posts with label ground report. Show all posts

Tuesday, 16 October 2018

उस टिहरी की बात ही अलग थी, इस डैम ने मेरा घर छीन लिया

आँखों में नमी, शब्दों में पुरानी यादों की झलकियां और अपने आज को खोने का डर। बस यही कुछ कहानी बयां करती है टिहरी। टिहरी जहां आप आयेंगे तो पहाड़ों की सुंदरता, ठंडी हवाओं में वो सुगंध कि यही हमेशा बस जाने का जी करेगा। लेकिन जो लोग यहां रहते हैं वही यहां का दर्द जानते हैं और महसूस करते हैं। जब उनका दर्द उनकी आंखों में आता है तो वह आंसू के बहाव में निकल आता है


जिस टिहरी को हम और आप देखते हैं वो दरअसल 2002 में अस्तित्व में आई। उससे पहले यहां एक सांस्कृतिक विरासत थी, जिसे टिहरी के नाम से जाना जाता है, लेकिन जब टिहरी डैम बना तो सबको अपना घर, अपना गांव, वो यादें सबको देश के लिए छोड़ आये। सरकार ने पुरानी टिहरी की जगह नई टिहरी तो बसा दी, लेकिन इस टिहरी में वो बात नहीं है। ऐसा ही कुछ कहते हैं यहां के रहने वाले लोग जो पहले कभी पुरानी टिहरी में रहते थे। बुराडी में फोटो स्टूडियो की दुकान खोलें सुनील कुटियाल बताते हैं-
‘‘ पुरानी टिहरी में मेरी दुकान थी। मैंने सबसे बाद में टिहरी को छोड़ा था। हमने सोचा था कि डैम नहीं बनेगा, लेकिन जब हमारी दुकान डूबने लगी तो हमको आनन-फानन में अपना घर छोड़ना पड़ा।’’
वहीं नई टिहरी में केदार बद्री होटल खोलें डोभाल अपनी नम आँखों से उस डैम के कारण हुये अपने नुकसान को बताते हैं। वह कहते हैं कि उस डैम के कारण पूरा देश तो रोशन हो रहा है, लेकिन यहां रहने वाले लोग हमेशा अंधेरे में रहते हैं। वो अंधेरा बिजली नहीं है। उनका अंधेरा है रोजगार, पलायन और सुविधाओं के नाम पर ठगी। टिहरी कभी एक पर्यटन का क्षेत्र हुआ करता था लेकिन यहां पर डैम बनने के कारण यहां का रास्ता ही अलग-थलग कर दिया गया है। जिससे लोगों को यहां के बारे में ही पता ही नहीं है।
विस्थापित जगदीश प्रसाद डोभाल

मंसूरी और नैनीताल जैसे शहरों को अंग्रेजों ने बसाया है जहां घूमने और रहने के लिए लाखों पर्यटक आते-रहते हैं। लेकिन उससे भी सुंदर है ‘टिहरी’। लेकिन टिहरी में कमी है तो टूरिस्ट स्पाॅट की। जैसे मंसूरी में कई कृत्रिम झील हैं ऐसे ही कई टूरिस्ट स्पाॅट यहां भी बनाये जायें। ये काम सरकार के अलावा कोई नहीं कर सकता।
2002 में नई टिहरी बसी और उसके साथ ही बस गया लोगों में खालीपन और नमी। सरकार ने उनको जैसा वादा किया था, वैसा शहर उनको नहीं दे पाये। हनुमंत राय समिति ने उनको वादा किया था कि उनको रोजगार मिलेगा और बिजली पानी फ्री मिलेगी। जो पुरानी टिहरी से विस्थापित लोगों के लिए एक तोहफा के समान था। इन सब पर विस्थापित जगदीश प्रसाद डोभाल कहते हैं-
‘‘हमने इस जगह पर रहने का फैसला लिया था, क्योंकि ये हमारा घर था। लेकिन सरकार ने जिस तरह हमसे मुंह मोड़ लिया, उससे ऐसा लगता है कि काश! हम यहां से चले गये होते तो अच्छा होता। मेरे बेटे पढ़े-लिखे होने के बावजूद बेरोजगार बैठे हुये हैं।’’
नई टिहरी उनको वो नहीं दे पाई, जो उनकी उस टिहरी में था। जो आज जलमग्न हो चुकी है। वहां से निकले विस्थापित लोग बस यही कहते हैं कि उस टिहरी की बात ही अलग थी, इस डैम ने मेरा घर छीन लिया।

Tuesday, 2 October 2018

बस्तर के बारे में हम लुटियंस दिल्ली वालों को अपनी राय बदल लेनी चाहिए

दिल्ली देश की राजधानी है यहां से जो बात निकलकर आती है वो सच मानी जाती है। नीति से लेकर रीति तक हर बात इसी लुटियंस दिल्ली से होकर गुजरती है। इस लुटियंस की रीत को पूरा देश सच मानता है। छत्तीसगढ़ के बस्तर के बारे में भी दिल्ली लुटियंस में वो हवा फैली है लो बीस साल पहले फैली थी। इस हवा को सबसे ज्यादा फैलाया है मीडिया ने। इस मीडिया ने वो कभी बताया नहीं जो इस समय बस्तर में घट रहा है। इस समय बस्तर के क्या हालात हैं? ये कभी मीडिया में आता ही नहीं है।


हम लुटियंस दिल्ली वालों को लगता है रायपुर से हमने बाहर कदम रखा तो कुछ बंदूकधारी उनको निशाना बनाये बैठे हों। रायपुर के बाहर बस जंगल है न रोड है और न ही मकान। यहां तो वो आदिवासी हैं जो हिंदी भी नहीं जानते, आज भी वे पेड़-पत्ते खाते हैं। इसी डर को मन में बैठा रखे हैं हम दिल्ली वाले। यही कारण है जब मैंने अपने दोस्तों और परिवार वालों को बस्तर जाने के बारे में बताया तो वे जाने के लिये मना करने लगे। कहने लगे कि वहां छोड़कर कहीं और चले जाओ। मेरे दोस्त कह रहे थे कि जंगल में क्या करोगे जाकर? वहां से जान बचाकर वापस आना। ऐसी बातें सुनने के बाद भी मैं छत्तीसगढ़ के उस इलाके में गया जहां के बारे में आये दिन सुर्खियां आती रहती हैं।

बस्तर में मैं लगभग 14 दिन रहा और लगभग हर जिले में गया। बस्तर में अब सनसनाती रोड भी हैं और लोगों के पक्के मकान भी। ये जो लोग अच्छे कपड़े और घर में रह रहे हैं वे वनवासी ही हैं जो अब अपना विकास चाहते हैं। जो खुद को इस देश की मुख्यधारा से जोड़ना चाहते हैं। लेकिन हम दिल्ली वालों को बस नक्सल के अलावा कुछ नहीं दिखता। हमें इन लोगों का विकास नहीं दिखता। हमें इन लोगों की वो परेशानी नहीं दिखती जो आज देश के हर कोने की है।

मुझे खुशी तब हुई जब नारायणपुर का एक दसवीं का छात्र मेरे पास आता है और कहता है ‘सर मुझे कलेक्टर बनना है और अपने गांव के लिये काम करना है।’ उस लड़के के सवाल में अपने लिये सपना था जो पूरा करने के लिए एक रास्ता ढ़ूंढ़ रहा था। ऐसे ही सपने पाले हुए कई बच्चे पूरे बस्तर में हैं बस जरूरत है उन्हें सही दिशा देने की।

यही है वो जिज्ञासु छात्र।

सुकमा, बीजापुर, दंतेवाड़ा इन तीनों क्षेत्रों को सबसे संवेदनशील जोन कहा जाता है। लेकिन मैं सच कह रहा हूं जितना विकास इन तीन क्षेत्रों में मुझे दिखा वो तो मेरे क्षेत्र में भी कई जगह नहीं है। हालांकि वो विकास सिर्फ शहर तक ही सीमित है। जैसे ही मैंने गांव की ओर कदम बढ़ाये तो विकास के नाम पर संसाधन तो दिखे लेकिन तरक्की नहीं। बच्चे किताबें नहीं पढ़ पा रहे हैं, स्कूल को सिर्फ टीचर पैसे के लिये और बच्चे खाने के लिये आते हैं। शिक्षा के क्षेत्र में शहरों में एजुकेशन हब बनाये जा रहे हैं लेकिन इन हबों में बच्चे जायें इसकी जागरूकता लाने के लिये काम नहीं हो रहा है। यहां की शिक्षा व्यवस्था टेढ़ी खीर की तरह है जिसको जानना बेहद जरूरी है। सरकार को रोजगार इन इलाकों के लिये अलग से बनाने चाहिये। यहां शिक्षा की पूरी जिम्मेदारी पोटा केबिन और आश्रम संभाले हुये हैं।

बस्तर में डर नहीं


बस्तर के बारे में हम बस वो लाल सुर्खियों से भरी खबरें पड़ पाते हैं इसलिये दिल्ली या अन्य जगहों से कोई वहां जाना नहीं चाहता। लेकिन आज की तारीख में मेरा सच ये है कि वहां अब डर नहीं है। अब बस्तर अपनी उस छवि से निकलने की कोशिश कर रहा है जो हम दिल्ली वालों ने बना रखी है। अब हम लोगों को डर निकालकर उस बस्तर की संस्कृति में जाना चाहिये जो कह रही है कि आओ यहां, हम सब एक ही हैं।

ये बस्तर में विकास हुआ है ऐसा मैं क्यों कह पा रहा हू? और दूसरी बात कि मैं अगर कहूं कि नक्सलवाद खत्म हो गया है तो पक्की बात है कि मैं झूठ बोल रहा हूं। लेकिन इतना पक्का है कि अब बस्तर में वो डर नहीं है। हमारे यहां भी गुंडों की गुंडागर्दी चलती-रहती है वैसा ही प्रभाव नक्सल का रह गया है जो छुटपुट घटनाओं से पूरा देश का ध्यान केन्द्रित कर देते हैं।

इस नक्सल को खत्म कर रहा है विकास और शिक्षा। शिक्षा पर काम हो रहा है लेकिन गुणवत्ता की कमी साफ-साफ दिख रही है। बाहर से टीचर भेजेंगे तो भाषा की समस्या आएगी तो साफ है कि वहीं के नौजवानों को ही शिक्षक बनाया जाए। नारायणपुर के ओरछा में मुझे एक गांव में एक नौजवान मिला जिसने बीए किया हुआ है। वो उस क्षेत्र का सबसे शिक्षित व्यक्ति है। वो शिक्षित व्यक्ति गांव में दुकान चला रहा है क्योंकि प्रतियोगी परीक्षायें इतनी कठिन हैं कि वो उस स्तर तक नहीं पहुंच सकता। सरकार को ऐसे नौजवानों को उस क्षेत्र के विकास के लिये आगे लाना चाहिये।

शिक्षा से बस्तर आगे बढ़ रहा है वही बच्चे बंदूक पकड़ते हैं जिनको कलम नहीं दी जाती। अगर बच्चे कलम पकड़ लें तो वो माओवाद वाली विचारधारा खत्म हो जायेगी। हम दिल्ली वालों को ऐसी बातें सरकार को बतानी चाहिये जो बस्तर की एक नई छवि बनायें जो मुझे वहां के लोगों में दिखी। वो छवि है विकास की, आगे बढ़ने की और बस्तर को एक नया रूप् देने की।