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Saturday, 15 January 2022

छत्तीसगढ़ का प्रयाग कहे जाने वाला राजिम वाकई में देखने लायक है

मेरे ख्याल में छत्तीसगढ़ अपने देश के सबसे खूबसूरत राज्यों में से एक है। ये मैंने अपनी बस्तर की यात्रा के दौरान जाना। पहाड़, जंगल, नदी और झरने सब कुछ तो है यहाँ। ये दुर्भाग्य है कि कम लोग ही छत्तीसगढ़ जाने का मन बनाते हैं। मैंने बस्तर को तो कुछ कुछ देखा था लेकिन छत्तीसगढ़ के बाकी संभाग मेरे लिए अनदेखे थे। मैं जाने के बारे में सोचता था लेकिन जा नहीं पाया। इस बार मेरी किस्मत अच्छी थी मेरे खास रिश्तेदार भिलाई पहुँच गए। मैंने भी जल्द प्लान बनाया और भिलाई पहुँच गया।

कुछ दिन दुर्ग भिलाई को देखने की कोशिश की। दुर्ग भिलाई आपस में ऐसे जुड़े हैं जैसे दिल्ली और नोएडा। मेरे दिमाग में कुछ जगहें थीं जिनको एक्सप्लोर करना था। नये साल के 1 दिन पहले मैंने राजिम जाने के बारे में सोचा। अगले दिन सुबह उठा, तैयार हुआ। जहाँ ठहरा था उनकी स्कूटी भी मुझे मिल गई। मैं राजिम की रोड ट्रिप के लिए निकल पड़ा।

मेरे लिए मुश्किल ये था कि मुझे राजिम जाने का रास्ता पता नहीं था। स्थानीय लोगों से बात करने पर रास्ता पता चल गया। थोड़ी ही आगे चला तो देखा कि एक कार और ट्रक की आपस में टक्कर हुई थी। मुझे ये दुर्घटना अपने लिए चेतावनी जैसी लगी। कुछ दूर आगे चला तो एक व्यक्ति ने लिफ्ट मांगी। मैंने भी कंपनी के लिए बैठा लिया।

अकेले क्यों?

भिलाई में सड़क दुर्घटना।

उन्होंने ही बताया कि जिस रास्ते से मैं जा रहा हूं उस रास्ते का हालत अच्छी नहीं है। उस व्यक्ति ने मुझे हाईवे से जाने को कहा। मैं भी हाईवे से ही जाने के पक्ष में था। बात करने पर पता चला कि वो रायपुर की एक कंपनी में काम करते हैं और उनका परिवार दुर्ग में रहता है। वो छुट्टियों में घर आते रहते हैं। मैंने उनको बताया कि घूमने जा रहा हूं तो उनका सवाल था अकेले? पहली बार ये सवाल मुझसे नहीं पूछा जा रहा था। मेरे समाज में ये धारणा है कि घूमना समय की बर्बादी है और अगर घूमना ही तो है कुछ लोगों के साथ जाओ। अकेले घूमने में क्या मजा आएगा?

मैंने उनको बड़े आराम से कहा कि मुझे अकेले घूमना ज्यादा पसंद है। उन्होंने बताया कि घूमना उन्हें भी पसंद है लेकिन परिवार की जिम्मेदारी की वजह से घूमना नहीं हो पाता है। रास्ते में खारून नदी मिली। मेरे साथ बैठे भाई ने बताया कि खारून नदी महानदी की सहायक नदी है। उन्होंने ही बताया कि राजिम में महानदी है। अब तक हम पचपैड़ी नाका पहुँच चुके थे। उनको यहीं पर उतरना था। उनको यहाँ छोड़कर आगे बढ़ गया।

अभनपुर 


मुझे अब इतना पता था कि पहले अभनपुर आएगा, उसके बाद राजिम। अब मैं अकेला अभनपुर के रास्ते पर बढ़ता जा रहा था। रास्ते में लोगों से पूछता भी जा रहा था। ये हाईवे काफी चल रहा था। गाड़ियों की आवाजाही बहुत ज्यादा थी। रास्ते में एक दुकान पर रूका। मैंने यहाँ बड़ा-चटनी खाया और फिर आगे बढ़ गया। कुछ देर बाद अभनपुर पहुँच गया।

अभनपुर से आगे निकला तो देखा एक जगह से चंपारण जाने का रास्ता है। मुझे चंपारण भी जाना था लेकिन मुझे नहीं पता था कि चंपारण राजिम के पास में ही है। मैंने मन ही मन में समय गणित लगाया और चंपारण जाने का मन बना लिया। कुछ देर बाद मैं राजिम पहुँच गया। राजिम की सबसे फेमस जगह है, राजीव लोचन मंदिर। राजीव लोचन मंदिर के लिए आगे बढ़ा तो रास्ते में पुल मिला। ये पुल महानदी पर बना हुआ था।

राजिम के मंदिर

इस पुल पर कुछ देर ठहरने के बाद हम अपनी मंजिल की ओर बढ़ गये। आगे मंदिर मिला और हमने अपनी गाड़ी पार्किंग में लगा दी। जैसे ही गेट के अंदर घुसे तो राजिम मंदिर समूह के बारे में एक बोर्ड लगा था। जिस पर इस जगह की पूरी जानकारी दी गई थी। इस मंदिर के भीतर दो अभिलेख हैं। पहले अभिलेख में विष्णु के मंदिर के बारे में जानकारी है। दूसरा अभिलेख राजिम के रामलोचन मंदिर के निर्माण के बारे में है। 

राजीव लोचन मंदिर।

राजिम छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिले में स्थित है और राजधानी रायपुर से 50 किमी. की दूरी पर है। राजिम तीन नदियों महानदी, पैरी और सौंदुर के संगम पर बसा हुआ है। त्रिवेणी संगम होने की वजह से राजिम को छत्तीसगढ़ का प्रयाग भी कहा जाता है। यहाँ पर हर साल माघ पूर्णिमा को कुंभ मेला लगता है जो शिवरात्रि तक चलता है। बोर्ड को पढ़कर आगे बढ़ा तो पहली नजर में खूब सारे मंदिर दिखे जो बाहर से सफेद दिखाई दे रहे थे। इन मंदिरों को देखकर खजुराहों के मंदिर जेहन में आ गए। कुछ कुछ मंदिर वैसे ही बने हुए थे। मंदिरों की दीवारों पर नक्काशी कमाल की थी। खंभों पर भी किसी दूसरी भाषा में उकेरा हुआ था। 

इस जगह का सबसे लोकप्रिय मंदिर है, राजीव लोचन। इस मंदिर में काफी भीड़ थी। सातवीं शताब्दी में बना ये मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित है। मंदिर के गर्भ गृह में विष्णु भगवान की काले पत्थर की मूर्ति स्थापित है। पूरे मंदिर में बारीक नक्काशी देखने को मिली। बाहर से मंदिर सफेद मारबल का बना हुआ है। इस मंदिर में भगवान विष्णु के अलावा कई देवी-देवताओं की मूर्ति हैं। मंदिर की परिक्रमा करके मैं बाहर निकल आया।

रामचन्द्र मंदिर


राजीव लोचन मंदिर के बाद रामचन्द्र मंदिर को देखने निकल पड़ा। राजिम मंदिर समूह में राजीव लोचन मंदिर के ठीक सामने रामचन्द्र मंदिर हैं। कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण 400 साल पहले गोविंद लाल ने करवाया था। गोविंद लाल को रायपुर का बैंकर कहा जाता है। मंदिर के खंभों और दीवारों पर सुंदर और बेहद शानदार नक्काशी देखने को मिलती है। इस मंदिर में कई प्राचीन मूर्तियां भी स्थापित हैं।

इसी मंदिर समूह में कुछ हरियाली वाली जगह भी थी। जहाँ कुछ लोग खाना खा रहे थे। इस मंदिर को देखने के बाद नदी की ओर बढ़ा तो दो मंदिर और दिखाई दे। एक मंदिर का नाम तो बढ़ा दिलचस्प था, मामा भांजा मंदिर। इस मंदिर के बारे में यहाँ कुछ नहीं लिखा हुआ था। दीवार पर लिखा था, कुलेश्वर नाथ के मामा के मंदिर। राजीव लोचन के बाद राजिम का दूसरा सबसे फेमस मंदिर है कुलेश्वर मंदिर। 

कुलेश्वर मंदिर

कुलेश्वर नाथ मंदिर।

कुलेश्वर मंदिर नदी के उस पार था। मंदिर दूर से दिखाई दे रहा था। नदी में ज्यादा पानी नहीं था इसलिए लोग पैदल नदी पार करके मंदिर जा रहे थे। मैं भी पैदल ही जाने का सोच रहा था लेकिन गाड़ी के लिए फिर से यहीं आना पड़ता। मैं वाया रोड कुलेश्वर मंदिर की ओर निकल गया। गाड़ी से कुलेश्वर मंदिर पहुँचने के लिए लंबा रास्ता लेना पड़ा। इस मंदिर में काफी भीड़ थी। दूर से मंदिर अच्छा लग रहा था। मंदिर पेड़ के नीचे एक बड़े चबूतरे पर बना हुआ था।

मंदिर में कुलेश्वर नाथ के अलावा कई देवी देवताओं की मूर्ति थी। इस मंदिर में एक शिलालेख भी है जो 8वीं और 9वीं शताब्दी का है। बड़े से चबूतरे पर पेड़ के नीचे स्थित ये मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। इस मंदिर के गर्भ में भगवान शिव की शिवलिंग है। कहा जाता है कि वनवास के दौरान राम, लक्ष्मण और सीता यहाँ पर आए थे। उन्होंने ही इस मंदिर की स्थापना की थी। इस मंदिर में भगवान गणेश, विष्णु, गंगा और यमुना जी की मूर्ति भी हैं। इस प्राचीन मंदिर को देखने के बाद मुझे चंपारण निकलना था। मुझे उस समय पता नहीं था कि राजिम से ही चंपारण का रास्ता है और मैं अभनपुर के लिए निकल पड़ा।  छत्तीसगढ़ का सफर अभी पूरा नहीं हुआ था। अभी तक शानदार मंदिर और खूबसूरत ऐतहासिक जगहों से मुलाकात करनी थी।

आगे की यात्रा के बारे में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।


Sunday, 4 November 2018

छत्तीसगढ़ः इन कच्चे रास्तों में एक ही बात अच्छी थी मन मोहते दृश्य

छत्तीसगढ़ में घूमते-घूमते वहां के जंगल, वहां के रास्ते अच्छे लगने लगे थे। छत्तीसगढ़ की सुंदरता को लोग समझ ही नहीं सके। यहां की सुन्दरता हरे में हैं और वो हरापन देखने में एक अलग ही सुकून है। जो आपके चेहरे पर मुस्कान और मन में सुकून सा देता है। अबूझमाड़ का पूरा क्षेत्र नमी से भरा रहता है। सितंबर के दिनों में छत्तीसगढ़ घूमने लायक है वैसे ही जैसे हिमाचल और उत्तराखंड।


छत्तीसगढ़ में अधिकतर इलाका मैदानी है जहां आप पहाड़ की चोटी पर जाने की नहीं सोच सकते। लेकिन यहां के जंगलों को नापा जा सकता है। जो आपको उतना नहीं थकाता जितना कि पहाड़। हम घूमते वक्त चाहते हैं यहीं न कि नया अनुभव हो, नई चीजें देखने को मिलें। छत्तीसगढ़ आपको उन सारे अनुभवों से रूबरू कराता है, संस्कृति की सुंदरता से लेकर प्रकृति की सुंदरता तक।

कच्चा रास्ता- डर या सुंदरता


22 सितंबर 2018 के दिन हम छत्तीसगढ़ के नारायणपुर के गांवों के बीच से सफर कर रहे थे। बारिश हमारा खुलकर स्वागत कर रही थी, हम गाड़ी में थे इसलिए हमें बाहर देखकर आनंद आ रहा था। ओरछा को पार करने के बाद हम ऐसी जगह पर जगह पर रूक गये। जहां से गाड़ी का जाना मुश्किल था। अब हमें समझ में आ रहा था बारिश मुश्किलें भी खड़ी कर सकती है।

आगे का रास्ता कच्चा था जो दिखने में जंगल जैसा लग रहा था। हमारे कुछ साथियों ने आगे जाकर रास्ते का जायजा लिया और फिर जो होगा देखा जायेगा कहकर पैदल चलने लगे।


रास्ता बिल्कुल छोटा था मोटर साइकिल के चलने लायक। हम उसी रास्ते पर पैदल चल रहे थे। रास्ता पूरा सुनसानियत से भरा हुआ था और आशीष अपने मन की बातें बताने लगा। शायद अपने डर को हमारे साथ बांटने की कोशिश कर रहा था। पानी के कारण रास्ता कीचड़नुमा हो गया था। हमारे एक साथी को तो हाथ में चप्पल तक लेनी पड़ी। कुछ लंबा रास्ता तय करने के बाद अचानक जंगल से हम खुले में आ गये।

खुली सुंदरता की झलक


रास्ता अब भी कच्चा ही था लेकिन कीचड़नुमा नहीं था। अब हमें नीचे नहीं देखना पड़ रहा था। इस खुले मौसम की ताजगी हमारे मन में भी आने लगी। एक बार फिर से हमारे सामने पहाड़ खड़ा था जो अपने आस-पास सफेद सुंदर चादर लगाये हुआ था। आस-पास का पूरा क्षेत्र हरा-भरा था। जिसे देखकर हमने अनुमान लगाया कि हम गांव के पास ही हैं।

कुछ आगे चले तो रास्ते के किनारे कुछ कपड़े लटके हुये दिखाई दिये। उनके आस-पास कुछ समाधि भी बनी हुईं थीं। हमें पता नहीं था क्या है सो हम बस अंदाजा लगाने लगे।

हरा-भरा गांव


थोड़ी देर चलने के बाद हम गुदाड़ी गांव पहुंच गये। हमने कुछ देर इस गांव में बिताया। गांव को देखकर लग रहा था कि सबने हरी-भरी झाड़ियो में अपना ठिकाना बना रखा है। गांव का रस्ता कच्चा ही था। गांव को देखकर लग रहा था कि कोई रहता ही नहीं है बस घर बना दिये हैं। गांव वाली चहल-पहल दिख ही नहीं रही थी। बात करने पर पता चला कि सभी काम पर गये हैं शाम को ही लौटेंगे।

कुछ देर गांव में रहने के बाद हम उसी कच्चे रास्ते पर वापिस चलने लगे। जिससे आये थे। लौटते वक्त भी मौसम वैसा ही था सुंदर। रास्ते में गायें भी मिलीं जो शायद अब अपने घर को वापस लौट रहीं थीं।

गाड़ी कहां गई?


वापिस लौटते वक्त हम लोग बातों-बातों में आगे-पीछे हो गये। जब हमारा कच्चा रास्ता खत्म हो गया तो वहां पहुंचकर हम अचंभित थे कि गाड़ी कहां गई? हम निराश भी हो गये कि अभी तो और चलना है।


हम गांव के गांव कदम बढ़ाने लगे। रास्ते में एक छोटा पुल मिला। जिसके नीचे नहर बह रही थी। नहर की धार बहुत तेज थी। नहर के किनारे गांव के मछुआरे मछली पकड़ रहे थे। हम एक लंबी चढ़ाई के बाद गांव पहुंचे। बाद में वहां गाड़ी आई और हम फिर से खिड़की के सहारे छत्तीसगढ़ को निहारने लगे।

Thursday, 11 October 2018

बस्तर यात्राः यहां तक तो सब ठीक है बस यहां से आगे मत जाना।

20 सितंबर 2018, नारायणपुर।

मैं बस्तर के नारायणपुर जिले में था। नारायणपुर जिला इस क्षेत्र का सबसे विकसित शहर है। आस-पास के लोग अपना जरूरत का सामान यहीं से लेने आते हैं। यहां बाजार है, दुकानें हैं और सभी प्रशासनिक भवन। बस्तर इलाके का एक विकसित शहर जो मुझे उजाड़ लग रहा था। मैंने अभी तक जिला पंचायतें देखीं जो बहुत भारी-भरकम रहती हैं। जो देर रात तक जागती है और देर सुबह शुरू होती है। लेकिन नारायणपुर पूरे गांव की तरह से चल रहा था जो बहुत जल्दी उठता है और शाम होते ही बंद हो जाता है।


हमारे साथ यहां के स्थानीय लोग थे जो हमें आस-पास के क्षेत्र के बारे में बता रहे थे। थोड़ी ही देर में हमारी गाड़ी गांव की ओर निकल पड़ी। थोड़ी ही आगे चले थे कि पक्का रोड खत्म हो गया। अब हम लाल मिट्टी वाले कच्चे रास्ते पर थे। रास्ते में हमें रोड किनारे कुछ घर दिख रहे थे। जो गांव का पूरा खाका खींचे हुए थे, उनके पास गाय थीं। रास्ते में हमें महिलाएं खेतों में काम करती हुई दिख रहीं थीं तो लड़कियां भी बस्ते पहनकर स्कूल जा रहीं थीं।

फिर अचानक!

हम ऐसे ही रास्ते में चलते जा रहे थे। हमारे स्थानीय साथी ने बताया, जिस कच्चे रोड पर हम चल रहे हैं वो कुछ महीने पहले बना है। इससे पहले तो यहां की हालत और भी खराब थी। फिर अचानक एक ऐसी जगह आई जहां गाड़ी रोक दी गई। रास्ता एक दम घाटी हो गया था और बीच में एक नहर थी। गाड़ी नहर को पार नहीं कर सकती थी इसलिए हम पैदल ही आगे का रास्ता नापने लगे।

जब हम पैदल चलने लगे तब हमें लगा कि हम बस्तर में हैं, गाड़ी में बाहर का एहसास नहीं होता। पैदल रास्ता लंबा था, गांव 4-5 किलोमीटर की दूरी पर था। हमें उस कच्चे रास्ते में कोई नहीं दिख रहा था। पूरा जंगल वाला दृश्य था लेकिन दोपहिया वाहन की आवाजाही बता रही थी कि रास्ता आमजन का ही है। हम कुछ ही दूर चले थे कि हमें एक टूटा पुल मिला। जो अपनी कहानी बयां कर रहा था कि यहां तक आने में परेशानी क्यों है? टूटे पुल के पास ही गिट्टी और एक पानी का टैंकर रखा था। जो बता रहा था कि शुरूआत तो हुई है लेकिन काम अधूरा ही रह गया।


हम आगे चले तो हमें कुछ घर दिखाई दिए। हम मोरहापार गांव में आ गये थे। यहां हम गांव वालों से बातें करने लगे। इस गांव में गोंडी जनजाति के लोग रहते हैं। हिंदी ज्यादा नहीं आती लेकिन कामचलाऊ वाली बोल लेते हैं। इस गांव में कोई अस्पताल तो नहीं हैं लेकिन मितानिन है। मितानिन बिल्कुल आशा जैसा ही काॅन्सेप्ट है। मितानिन जो गांव की ही एक महिला रहती है। उसे जिला अस्पताल में प्रशिक्षण दिया जाता है और वो छोटी-मोटी बीमारी  के लिए गांव वालों को दवा देती है।

गांव के प्राथमिक स्कूल में गये। जहां 4-5 ही बच्चे थे और उससे भी बड़ी बात कि उन 4-5 बच्चों के बीच दो अध्यापक थे। जो हमारी सिस्टम की गड़बड़ी को बता रहे थे। सरकार को ऐसी जगह पर टीचर भेजने चाहिए जहां कमी हैं। यहां दो टीचर क्या बच्चे को पढ़ाते होंगे वे तो यहां समय निकालकर पैसे बनाने की फिराक में रह रहे हैं।

सरकार की योजनाओं पर गांव वाले

गांव में सोलर प्लेट सभी के घर पर दिख रहीं थीं जो सरकार ने गांव वालों को बिजली के लिए दी थी। उज्ज्वला योजना के बारे में गांव वालों को जानकारी है उन्होंने गैस कनेक्शन के लिए फाॅर्म भी भरा लेकिन अभी तक किसी को भी गैस नहीं मिला। गांव में सभी खपरैल और कच्चे घर थे। बीच-बीच में कुछ पक्के घर भी दिखे। स्थानीय लोगों ने बताया कि इंदिरा आवास के तहत ये घर गांव के कुछ लोंगों को मिले हैं।

सूखते कुकरमुत्ते।

स्थानीय लोगों ने इसके बारे में बताया कि हर साल 4-5 लोगों को चुना जाता है और उसे घर बनाने की रकम जो कि डेढ़ लाख है किश्तों में दी जाती है। गांव वालों की शिकायत है कि उनको पूरी रकम नहीं मिलती। डेढ़ लाख में उनको 1 लाख 20 हजार ही मिलते हैं।

इंदिरा आवास इस गांव में जिसको मिला हम उनके घर गये। उस समय घर में सिर्फ महिला ही थीं। उनके पति काम करने खेत गए थे। घर के बरामदे में कुछ सूख रहा था तो बताया गया कि यह जंगली कुकरमुता है इसे सुखा कर अचार बनाया जाता है। घर एक परिवार के लिए पर्याप्त था लेकिन टाॅयलेट जल्दी-जल्दी में बनाई गई थी। टाॅयलेट इतनी छोटी थी कि सब शौच के लिए बाहर ही जाते हैं।

गांव पूरा गोल शेप में बसा हुआ था। हम उसी गोल शेप में चलते-चलते लोगों से बात कर रहे थे। रास्ते में हमें एक तालाब मिला। हमारे साथ उसी गांव के दो लड़के भी थे जिन्होंने बताया कि पूरे गांव ने पैसा जोड़कर यह तालाब खुदाया और अब इसमें मछली पालन करते हैं। कुछ देर बाद हमने वो गोला पार कर लिया। जब रास्ते के हमें छोर पर आ गये तो हमारे स्थानीय साथी ने गांव वाले से पूछा, यहां का माहौल कैसा है? गांव वाला पहले तो झिझका और बोला, यहां तो सब ठीक है। बस यहां से आगे मत जाना, आगे सोनपुर में खतरा है।

गांव का तालाब।

उसी गांव वाले ने बताया कि सोनपुर यहां से लगभग 6-7 किलोमीटर की दूरी पर था। हमें यहीं शाम हो गई थी। हमने सोनपुर जाना टाल दिया और वापस नहर की ओर बढ़ गये। जहां हमारी गाड़ी खड़ी थी।

Wednesday, 3 October 2018

छत्तीसगढ़ः अबूझमाड़ की गोल चक्कर पहाड़ियां हिमाचल और उत्तराखंड की याद दिला रही थी

जब भी पहाड़ों में सुंदरता खोजने की बात आती है तो हमें उत्तराखंड और हिमाचल ही याद आता है। मैं भी यही सोचकर उत्तराखंड के पहाड़ों में कई बार घूमा हूं। उत्तराखंड और हिमचाल की सुंदरता को टक्कर देने का काम कर रहा अबूझमाड़ जंगल। अबूझमाड़ छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके में फैला हुआ है। अबूझमाड़ का जंगल पहाड़ों से घिरा हुआ जंगल है जो दिन में तो हरा-भरा दिखता है और शाम में काला और रोशनदार। जिसमें सफेद बादल चार चांद लगा देते हैं।


22 सितंबर 2018 को मैं अपने कुछ साथियों के साथ उसी अबूझमाड़ से घिरे रास्ते से जा रहे थे। हम जैसी ही अपनी गाड़ी से ओरछा की ओर चले तो बारिश ने हमारा स्वागत किया। मैं सोचता था कि छत्तीसगढ़ गर्म क्षेत्र होगा जो गर्मी से हमें झुलसा देगा। लेकिन यहां आकर ऐसा मौसम देखा तो दिल खुश हो गया। आसपास घास की तरह धान खेतों में दिख रही थी जो बड़ी सुंदर लग रही थी और उसी धान से दूर तलक दिख रही थीं अबूझमाड़ की पहाड़ियां। अबूझमाड़ की पहाड़ी में सुंदरता का रस है जो इस क्षेत्र को सुंदरता से भरा रहता है।

कुछ देर बाद हम उस सुहानेपन से निकलकर एक गांव में आ गये। यहां रोड किनारे कुछ घर दिखे। हम सभी वहीं उतर गये और लोगों से बात करने लगे। यहां के गांव में कम ही घर थे और सभी घर दूर-दूर थे। अधिकतर लोग धान की खेती करते थे। मैं अक्सर यही सोचता था कि कितने खुशनसीब हैं कि इतने अच्छे क्षेत्र में रहते हैं। शायद ये भी हमारे बारे में यही सोचते होंगे कि यहां ऐसा क्या है? जो यहां ये लोग आते हैं। कहते हैं न कि कोई भी अच्छी जगह घूमते वक्त ही अच्छी लगती है, वहां रहो तब पता चलता है कि हर अच्छी जगह भी दिक्कतों से भरी है।

गोल-गोल घूम जा


जो उत्तराखंड गये हों उन्हें वहां की सड़कें अच्छी तरह से याद होंगी। जो बहुत छोटी रहती हैं और चक्कर खाते हुये गाड़ी आगे बढ़ती जाती है। बिल्कुल वही फील मुझे थोड़ा आगे बढ़ने पर हुआ। मौसम में अभी भी नमी थी रास्ते के किनारे-किनारे कोई नदी बह रही थी। उसका नाम पता नहीं, शायद इन्द्रावती ही होगी जो पूरे बस्तर में फैली हुई है। उस रास्ते पर हम सब एक अच्छा सुहाना सफर देख रहे थे। गाड़ी में बैठे कुछ साथी बता रहे थे कि बिल्कुल ऐसा ही धर्मशाला में है।

उस गोलचक्कर को पार करने के बाद हम सादा रास्ते पर आ गये। यहां भी सुंदरता का अबूझमाड़ फैला हुआ था। जो हम सब को मोहित कर रहा था। ऐसे में इस सुंदरता के साथ फोटो तो होनी ही चाहिये थी। उसी सुंदरता को हमने अपने मोबाइल में अपने साथियों के साथ बटोर लिया किसी ने इमली के साथ तो किसी ने हल्दी के पौधे के साथ। हमारा अधिकतर समय गाड़ी में ही गुजरता था और वहीं से इस अबूझमाड़ की सुंदरता को निहारते थे।
रास्ते में कई झीलें, नहरें मिलीं जो साफ बता रही थी कि इस इलाके में पानी की कमी तो नहीं है। पीने वाले पानी की कमी हो सकती है क्योंकि सभी नहरें और झीलें मटमैली थी जिसमें मछुआरे मछली पकड़ रहे थे।

बारिश से अलहदा हुआ हमारी गाड़ी का शीशा।

रोड पर गाड़ी सनसनाती दौड़ रही थी। आसपास बहुत से पेड़ हमसे होकर गुजर रहे थे। उन पेड़ों के झुरमुट से सामने दिखता पहाड़ बेहद सुंदर लग रहा था। मैं चाहकर भी उस दृश्य को सहेज नहीं सकता था क्योंकि गाड़ी में मैं सबसे पीछे बैठा था। जहां से बाहर देखा तो जा सकता था लेकिन फोटो नहीं खींची जा सकती थी। फिर भी मैं खुश था कि कम से कम इस दृश्य को देख तो पा रहा था। अबूझमाड़ की सुंदरता देखकर हम बस एक ही बात बोल रहे थे ‘अरी दादा’।

Tuesday, 2 October 2018

बस्तर के बारे में हम लुटियंस दिल्ली वालों को अपनी राय बदल लेनी चाहिए

दिल्ली देश की राजधानी है यहां से जो बात निकलकर आती है वो सच मानी जाती है। नीति से लेकर रीति तक हर बात इसी लुटियंस दिल्ली से होकर गुजरती है। इस लुटियंस की रीत को पूरा देश सच मानता है। छत्तीसगढ़ के बस्तर के बारे में भी दिल्ली लुटियंस में वो हवा फैली है लो बीस साल पहले फैली थी। इस हवा को सबसे ज्यादा फैलाया है मीडिया ने। इस मीडिया ने वो कभी बताया नहीं जो इस समय बस्तर में घट रहा है। इस समय बस्तर के क्या हालात हैं? ये कभी मीडिया में आता ही नहीं है।


हम लुटियंस दिल्ली वालों को लगता है रायपुर से हमने बाहर कदम रखा तो कुछ बंदूकधारी उनको निशाना बनाये बैठे हों। रायपुर के बाहर बस जंगल है न रोड है और न ही मकान। यहां तो वो आदिवासी हैं जो हिंदी भी नहीं जानते, आज भी वे पेड़-पत्ते खाते हैं। इसी डर को मन में बैठा रखे हैं हम दिल्ली वाले। यही कारण है जब मैंने अपने दोस्तों और परिवार वालों को बस्तर जाने के बारे में बताया तो वे जाने के लिये मना करने लगे। कहने लगे कि वहां छोड़कर कहीं और चले जाओ। मेरे दोस्त कह रहे थे कि जंगल में क्या करोगे जाकर? वहां से जान बचाकर वापस आना। ऐसी बातें सुनने के बाद भी मैं छत्तीसगढ़ के उस इलाके में गया जहां के बारे में आये दिन सुर्खियां आती रहती हैं।

बस्तर में मैं लगभग 14 दिन रहा और लगभग हर जिले में गया। बस्तर में अब सनसनाती रोड भी हैं और लोगों के पक्के मकान भी। ये जो लोग अच्छे कपड़े और घर में रह रहे हैं वे वनवासी ही हैं जो अब अपना विकास चाहते हैं। जो खुद को इस देश की मुख्यधारा से जोड़ना चाहते हैं। लेकिन हम दिल्ली वालों को बस नक्सल के अलावा कुछ नहीं दिखता। हमें इन लोगों का विकास नहीं दिखता। हमें इन लोगों की वो परेशानी नहीं दिखती जो आज देश के हर कोने की है।

मुझे खुशी तब हुई जब नारायणपुर का एक दसवीं का छात्र मेरे पास आता है और कहता है ‘सर मुझे कलेक्टर बनना है और अपने गांव के लिये काम करना है।’ उस लड़के के सवाल में अपने लिये सपना था जो पूरा करने के लिए एक रास्ता ढ़ूंढ़ रहा था। ऐसे ही सपने पाले हुए कई बच्चे पूरे बस्तर में हैं बस जरूरत है उन्हें सही दिशा देने की।

यही है वो जिज्ञासु छात्र।

सुकमा, बीजापुर, दंतेवाड़ा इन तीनों क्षेत्रों को सबसे संवेदनशील जोन कहा जाता है। लेकिन मैं सच कह रहा हूं जितना विकास इन तीन क्षेत्रों में मुझे दिखा वो तो मेरे क्षेत्र में भी कई जगह नहीं है। हालांकि वो विकास सिर्फ शहर तक ही सीमित है। जैसे ही मैंने गांव की ओर कदम बढ़ाये तो विकास के नाम पर संसाधन तो दिखे लेकिन तरक्की नहीं। बच्चे किताबें नहीं पढ़ पा रहे हैं, स्कूल को सिर्फ टीचर पैसे के लिये और बच्चे खाने के लिये आते हैं। शिक्षा के क्षेत्र में शहरों में एजुकेशन हब बनाये जा रहे हैं लेकिन इन हबों में बच्चे जायें इसकी जागरूकता लाने के लिये काम नहीं हो रहा है। यहां की शिक्षा व्यवस्था टेढ़ी खीर की तरह है जिसको जानना बेहद जरूरी है। सरकार को रोजगार इन इलाकों के लिये अलग से बनाने चाहिये। यहां शिक्षा की पूरी जिम्मेदारी पोटा केबिन और आश्रम संभाले हुये हैं।

बस्तर में डर नहीं


बस्तर के बारे में हम बस वो लाल सुर्खियों से भरी खबरें पड़ पाते हैं इसलिये दिल्ली या अन्य जगहों से कोई वहां जाना नहीं चाहता। लेकिन आज की तारीख में मेरा सच ये है कि वहां अब डर नहीं है। अब बस्तर अपनी उस छवि से निकलने की कोशिश कर रहा है जो हम दिल्ली वालों ने बना रखी है। अब हम लोगों को डर निकालकर उस बस्तर की संस्कृति में जाना चाहिये जो कह रही है कि आओ यहां, हम सब एक ही हैं।

ये बस्तर में विकास हुआ है ऐसा मैं क्यों कह पा रहा हू? और दूसरी बात कि मैं अगर कहूं कि नक्सलवाद खत्म हो गया है तो पक्की बात है कि मैं झूठ बोल रहा हूं। लेकिन इतना पक्का है कि अब बस्तर में वो डर नहीं है। हमारे यहां भी गुंडों की गुंडागर्दी चलती-रहती है वैसा ही प्रभाव नक्सल का रह गया है जो छुटपुट घटनाओं से पूरा देश का ध्यान केन्द्रित कर देते हैं।

इस नक्सल को खत्म कर रहा है विकास और शिक्षा। शिक्षा पर काम हो रहा है लेकिन गुणवत्ता की कमी साफ-साफ दिख रही है। बाहर से टीचर भेजेंगे तो भाषा की समस्या आएगी तो साफ है कि वहीं के नौजवानों को ही शिक्षक बनाया जाए। नारायणपुर के ओरछा में मुझे एक गांव में एक नौजवान मिला जिसने बीए किया हुआ है। वो उस क्षेत्र का सबसे शिक्षित व्यक्ति है। वो शिक्षित व्यक्ति गांव में दुकान चला रहा है क्योंकि प्रतियोगी परीक्षायें इतनी कठिन हैं कि वो उस स्तर तक नहीं पहुंच सकता। सरकार को ऐसे नौजवानों को उस क्षेत्र के विकास के लिये आगे लाना चाहिये।

शिक्षा से बस्तर आगे बढ़ रहा है वही बच्चे बंदूक पकड़ते हैं जिनको कलम नहीं दी जाती। अगर बच्चे कलम पकड़ लें तो वो माओवाद वाली विचारधारा खत्म हो जायेगी। हम दिल्ली वालों को ऐसी बातें सरकार को बतानी चाहिये जो बस्तर की एक नई छवि बनायें जो मुझे वहां के लोगों में दिखी। वो छवि है विकास की, आगे बढ़ने की और बस्तर को एक नया रूप् देने की।

Wednesday, 19 September 2018

मेरी पहली छत्तीसगढ़ यात्रा किसी फ़िल्म के सीन से कम नहीं रही

मैं कभी छत्तीसगढ़ नहीं गया था। बस सुना था खतरनाक है क्योंकि ये नक्सल क्षेत्र है। मैंने सोचा था कभी जाऊँगा और जैसे ही मुझे मौका मिला तो मैं एक समूह के साथ जाने के लिए तैयार हो गया। 18 सितंबर 2018 को हम राजधानी एक्सप्रेस से जाने वाले थे, पौने चार बजे की ट्रेन थी। सभी लोग स्टेशन पहुंच गए थे सिवाय मेरे। मुझे देर हो गई थी लग रहा था कि छत्तीसगढ़ जाना मेरे नसीब में नहीं है। मैं रोड पर दौड़ रहा था लेकिन पैर भाग ही नहीं रहे थे। एक्सेलटर पर पहुंचा तो देखा कि बहुत लंबी लाइन है और ट्रेन चलने में बस दो मिनट बचे थे।मैंने आखिरी जोर लगाया और सबको पार करकेही भागा और जैसे ही प्लैटफॉर्म पर पहुंचा, गाड़ी चलने लगी। भारी भरकम मेहनत करने के बाद आखिर मैं भी छत्तीसगढ़ के सफर के लिए निकल पड़ा।



दिल्ली से हम दस लोग एसी डिब्बे में बैठकर छत्तीसगढ़ के सफर पर जा रहे थे। खेत-खलिहान से चलते हुए हम शहर को पीछे छोड़ते जा रहे थे। ट्रेन के सफर में सबसे गड़बड़ या गलत चीज मुझे ये लगती है कि सब कुछ एक जैसा दिखता है। शहर,गली, खेत, रास्ते सब कुछ एक जैसा दिखता है। हम दर-दर कई राज्यों से घुसते हुए निकल रहे थे। हम दिल्ली से चलकर हरियाणा, राजस्थान, मध्य प्रदेश और झांसी तक उत्तर प्रदेश का क्षेत्र था।

शाम के वक्त हम चंबल की पहाड़ियों से गुजर रहे थे। चंबल का नाम सुनते ही हमें डाकू याद आते हैं जो पुलिस की नाक में दम करे रहते थे।हंसी-ठिठोली के बाद सभी लोग अपने-अपने मोबाइल में लग गये l प्रज्ञा मैम नेटफ़िलीक्स में घुस गईं और चन्द्रभूषण भैया कोई किताब पढ़ने लगे और मैं क्या करता? मैं बस यूंही बैठकर देख रहा था इन लोगों को और सोच रहा । कल तक जिनसे ज्यादा बात तक नहीं होती थी आज उनसे दोस्तों की तरह घुलमिल गये थे।

खेत, जंगल, नदियां, शहर और पर्वत शिखर से होते हुये ये सफर मेरे दिमाग में एक अनूठी छाप छोड़ रहा था। जो जिन्दगी भर मेरे दिमाग में अंकित रहने वाला था। मैं पहली बार छत्तीसगढ़ जा रहा था और पहली बार राजधानी से सफर कर रहा था। राजधानी में खाने-पीने की अच्छी व्यवस्था है लेकिन क्वालिटी नहीं है। रात को खाना खाने के बाद सभी लोग नाराज थे कि इतना पैसा लेने के बाद भी ऐसी व्यवस्था। मैनेजर जब समझाने आया तो लोगों ने उसको उसकी गलतियां बताई और शिकायत करने की धमकी दी। जिसके बाद मैनेजर शिकायत को दबाने के लिए चाय की पेशकश करने लगा। जिसके बाद सब उसको और गलत कहने लगे कि आपको उस खाने पर ध्यान देना चाहिए ना कि हमें फुसलाने में।


रात की आगोश के बाद जब सुबह जागा तो सुबह ने हमारा खूबसूरती ने स्वागत किया। वो खूबसूरती हमें महाराष्ट्र के हरे-भरे जंगलों में दिख रही थी। इन जंगलों में ऐसे पेड़ दिख रहे थे जिनको मैंने कभी नहीं देखा था। जंगलोंमें bबार-बार लंगूर का दिखना मुझे मुस्कुराने को मजबूर कर दिया। यहां का जंगल विशाल था,लेकिन tथोड़ी ही देर बाद मुझे विशाल पहाड़ दिखने लगे। थोड़ी देर बाद ट्रेन राजनंदगाँव रुकी। राजनंदगाँव, छत्तीसगढ़ का पहला स्टेशन है। स्टेशन की दीवारों पर छत्तीसगढ़ की संस्कृति को उकेरा हुआहहै, जो मुझे संस्कृति को बढ़ाने के लिए एक अच्छा उदाहरण लगा।

रायपुर आने में बस कुछ ही देर रह गई थी। शहर के पहले मुझे बस्तियां दिखी, खपरैल घर दिखे, नहर में नहाते लोग और कपड़े धोती महिलाएं दिखीं। जो लोगों की प्रवाहमान जीवन को बताता । इस अच्छे सफर को बनाने का काम किया था राजधानी एक्सप्रेस नेे। जिसने हमें सही समय पर रायपुर पहुंचा दिया था। अब कुछ हफ्ते मुझे इसी छत्तीसगढ़ में टहलना था।