Sunday 30 December 2018

दिल्ली का ऐतहासिक महल गुमनामी में विलुप्त होने की कगार पर है

हमारा इतिहास इतना विशाल है कि जहां देखो उसकी इमारतें हमें दिख ही जाती हैं। कुछ इतिहास को हमारी व्यवस्था बचा पा रही है और कुछ समय के साथ जर्जर होते जा रहे हैं। हमारी सरकार भी उन्हीं ऐतहासिक इमारतों पर ध्यान देती है जहां पर्यटक अधिक आते हैं। देश की राजधानी तो ऐसी ऐतहासिक इमारतों से भरी पड़ी है। उसी भीड़ में कुछ गुमनाम हो रही हैं। ऐसी ही एक गुमनामी की विरासत है, जहाज महल।


30 दिसंबर। दिन रविवार। दिल्ली में अपने कमरे पर खाली बैठा हुआ था। अचानक दिमाग में खाली बैठने से अच्छा है कुछ नया देख लिया जाए। इंटरनेट पर खोजबीन की और जगह चुनी जहाज महल। इस महल के बारे में इंटरनेट पर कम लिखा हुआ है। सभी ने इस महल के बारे में बस नाम भर की खाना-पूर्ति की है। अपने कुछ घुमक्कड़ दोस्तों से इस जगह के बारे में चर्चा की। उन्हें भी इस जगह के बारे में नहीं पता था। मैं समझ गया कि इन्हें नहीं पता तो बहुत कम ही होंगे जिन्हें इस जगह के बारे में पता है।

कैसे पहुंचें


थोड़ी ही देर में मैं छतरपुर  स्टेशन के बाहर गया। अब यहां से मुझे महरौली जाना था। जो स्टेशन से करीब आधा किलोमीटर की दूरी पर है। लगभग पांच मिनट पैदल चलने के बाद मैं महरौली के मुहाने पर पहुंच गया। सामने बड़ा-सा बोर्ड लगा था ‘ऐतहासिक शहर महरौली में आपका स्वागत है’। आगे का जो दृश्य था जिसे तनिक भी नहीं लग रहा था कि मैं इतिहास के गर्त में हूं। भीड़ वाली गली, आस-पास लगा हुआ बाजार सब आधुनिकता की ही झलक थी।

जहाज़ महल का दरवाजा।
दिल्ली की हर भीड़ वाली गली की तरह यहां भी वही माहौल था। कुछ दूर चलने पर एक पुरानी इमारत दिखाई दी। वो जामा मस्जिद सोन बुर्ज थी। जिसे देखकर पहली बार लगा कुछ तो बाकी है इतिहास का। कुछ आगे चला तो एक बड़ी-सी इतिहासिक इमारत दिखाई दी। जिसका लाल बलुआ पत्थर का बड़ा-सा दरवाजा है। वो इमारत एक तरफ से खुली हुई थी, बस यही तो है जहाज महल।

व्यवस्था की अनदेखी


मैं उस जहाज महल के बड़े-से गेट से अंदर हो लिया। जैसे घर में घुसते ही एक आंगन होता है। इस महल का भी एक छोटा-सा आंगन है। आंगन से अंदर जाते हैं सब आसमान की तरह साफ दिखने लगता है। जहाज महल के दो तल हैं। पहले तल पर बहुत सारे कमरे हैं और दूसरे तल पर कुछ गुंबद बने हैं। महल की दीवारें पूरी तरह से लाल बलुआ पत्थर की नहीं है। कुछ जरूरी जगह पर ही लाल बलुआ पत्थर का उपयोग किया गया है।

जहाज़ महल का दूसरा तल। 
नीचे कमरों की खिड़की भी दरवाजे जितनी ही लंबी है। महल की हालत कुछ सही नहीं दिखती है। ऐसा नहीं है कि महल खंडर बन चुका है या जर्जर बन चुका है। हालत इस लिहाज से सही नहीं है कि पूरे तल पर मकड़जालों का कब्जा है। छत की तरफ देखने पर नक्काशी बाद में पहले जाला दिखाई पड़ता है। दीवारों पर कुछ प्रेम की बातें लिखीं हुई हैं। महल में कोई भी पर्यटक नहीं है जबकि ये महल सिर्फ रविवार के दिन ही खुलता है। किले में कुछ लड़के हैं जो टिकटोक वाली वीडियो में बनाने में व्यस्त है। महल के बगल में एक पार्क है। वहां पर लोगों का जमावड़ा है जबकि ये ऐतहासिक इमारत सुनसान पड़ी हुई है।

जहाज महल क्यों


15वीं शताब्दी में लोदी वंश ने इस जगह पर एक धर्मशाला बनाई थी। जहां वे रास्ता तय करने के बाद आराम करते और अपना समय बिताते। इस धर्मशाला को जहाज़ महल इसलिए कहते हैं क्योकि बरसात में इसके चारों तरफ बने कुंड में पानी भर जाता है। उस कुंड में इस महल का जो प्रतिबंब बनता है वो जहाज जैसा दिखाई पड़ता है।

जहाज़ महल अंदर से।
नीचे की जर्जर तस्वीर देखने के बाद मैं दूसरी मंजिल के गुंबद को देखने जाने लगा। जहां सीढ़ियां थीं वहीं एक गाॅर्ड बैठा हुआ था। गाॅर्ड ने मुझे  ऊपर जाने से मना कर दिया। ऊपरी तल ही तो सुंदर लग रहा था और वहीं जाने की मनाही है। गाॅर्ड ने बताया मैं सिर्फ इसलिए यहां हूं कि कोई ऊपर ना जाने पाये। अब बाकी इस छोटी-सी धर्मशाला को मैं देख चुका था।

ये जहाज महल में कोई नहीं आता क्योंकि लोगों को इस जगह के बारे में नहीं पता है। दिल्ली में गुमनामी में  ये महल सुनसान पड़ा हुआ है। ऐसी जगहों पर हमको जाना चाहिए। ये हमारा इतिहास है, हमारी विरासत है। जब मैं लौट रहा था तो महल के ऊपर कुछ पक्षी मंडरा रहे थे। वे वैसे ही प्रतीत हो रहे थे जैसे मृत देह के उपर गिद्ध मंडराते हैं।


Saturday 22 December 2018

बंगाल 3: लोकल ट्रेन में सफर जिंदगी की भागदौड़ की कहानी बयां करती है

सफर जो कई पहलुओं से, कई लोगों से, कई भाषाओं से मिलवाता है। मैं इस समय बंगाल के लोकल में था। यहां की रहन-सहन, भाषा और लोगों को समझने की कोशिश कर रहा था। बंगाल बड़ा ही खूबसूरत राज्य है। हरी-भरी जमीन और हंसते-मुस्कुराते लोग। ऐसे ही तो सफर और जिंदगी चलती-रहती है। एक दिन आराम करने के बाद अगला पड़ाव होने वाला था कोलकाता। कोलकाता तक जाने के लिए लोकल ट्रेन से जाना था।


बर्धमान तक का लंबा सफर ट्रेन का ही था। लेकिन लोकल ट्रेन के इतने किस्से सुन रखे थे कि मुझे भी वही किस्सोगई बनना था। मैंने लोकल ट्रेन को अब तक फिल्मों में ही देखा था। एकाध-बार किसी स्टेशन पर भी खड़े देखा था। वो मेटो जैसे लटकते हैंडल मुझे बहुत भाते थे। उसी लोकल का हिस्सा मैं भी होने वाला था। कृष्णानगर से अपना बैग और टिकट लेकर प्लेटफाॅर्म की ओर बढ़ गया।\

भीड़ वाली लोकल ट्रेन


मुझे सामने ही हरी-पीली लोकल ट्रेन दिखी। इस लोकल ट्रेन का गेट आम ट्रेनों की तुलना में काफी बड़ा था। शुरू के डिब्बे महिलाओं के लिए आरक्षित थे। उन डिब्बों के आगे वाले डिब्बों में चढ़कर अपने लिए सीट देखता। सीट न मिलने पर आगे वाले डिब्बों की ओर बढ़ जाता। कुछ डिब्बों के बाद मुझे सीट मिली तो आधी। लोकल ट्रेन में सीटें आमने-सामने होती हैं। जिस पर बैठ तो तीन लोग ही सकते हैं लेकिन बैठते चार लोग हैं और वो चौथा मैं था।

लोकल ट्रेन की भीड़ सफर के अंत तक बनी रहती है

ट्रेन कुछ देर में चलने वाली थी और भीड़ भी अपनी जगह बना रही थी। कुछ लोग तो जल्दी आने के चक्कर में दूसरे गेट से चढ़ रहे थे। जो जोखिम भरा था लेकिन लोकल में तो ये आम बात है। ये ट्रेन सियालदाह तक जा रही थी। कुछ देर में ट्रेन भीड़ से खचाखच भर चुकी थी। सीट के बीच में जगह थी सो मैंने अपना बैग वहीं रख दिया। कुछ देर में ट्रेन चल पड़ी।

यात्रा में बहस


दो-दो मिनट में ट्रेन रूक रही थी। अब शायद ही कोई कोना बचा हो जो भीड़ से खाली हो। अब लोग सीटों के बीच में खड़े होने लगे थे। थोड़ी देर में सभी सीटों का दृश्य ऐसा ही था। मेरी सीट बची थी क्योंकि मेरा बैग अड़ंगा बना हुआ था। थोड़ी देर में तीन नए लड़के आये और बैग हटाने को कहा। मैंने भी तेज आवाज में कह दिया बैग तो यहीं रहेगा। वो बोलने लगे कि ये जगह खड़े होने के लिए है। मैं फिर भी अड़ा रहा और कहा, आपको जाना है तो इस बैग को पार करके चले जाइए।


थोड़ी देर बाद बैग अंदर पहुंच गया और कुछ लोग मेरी सीट के बीच में भी खड़े हो गये। लोकल ट्रेन में इतनी भीड़ होती है कि आपको अपने स्टेशन पर उतरने के लिए सीट से कुछ स्टेशन पहले उठ जाना होता है। तभी आप अपने स्टेशन पर उतर पाएंगे। छोटी-मोटी धक्का-मुक्की और लड़ाई-झगड़ा तो यहां आम बात है। जो अपनी सीट छोड़ते उनकी जगह सामने खड़ा व्यक्ति ले लेता है। लोगों की गप्पे चल ही रही थीं मैं उनकी बातें समझने की कोशिश कर रहा था। लेकिन बांग्ला भाषा इतनी आसान नहीं थी जो मैं समझ सकूं।

मैं सबसे ज्यादा परेशान हो रहा था झाल-मूड़ी वाले से और दाने बेचने वाले से। यहीं मैंने पहली बार झाल-मूड़ी खाई थी। मुझे पहली बार में झाल मूड़ी अच्छी नहीं लगी थी। बाद में मुझे ये बेहद अच्छी लगने लगी। इनकी अपनी कला होती है भीड़ से निकलने की। दाने वाला तो अपना हैंडल लेकर चलता है और आराम से सामान बेचता है। इसके दानों में मटर से लेकर नमकीन, मूंगफली सब मिलता है।

आखिरी पड़ाव- सियालदाह


कुछ स्टेशनों के बाद लग रहा था ट्रेन गलियों में घूम रही है और घरों के सामने रूक रही है। स्टेशन के नाम पर माइक, बोर्ड और कुछ कुर्सियां ही थीं। बाकी तो गली-मोहल्ला साथ दे रहा था। कृष्णानगर से सियालदाह तक का सफर ढाई घंटे का था। अगर सफर लंबा होता तो मैं परेशान हो जाता। जिन नौजवानों से मेरा झगड़ा हुआ था वे थे तो बंगाल के ही। उनकी बातें हिंदी में ही चल रहीं थीं। अपने आॅफिस से शुरू होकर वे नरेन्द्र मोदी और ममता बनर्जी पर आ गये।

असली संघर्ष तो यहीं होता है।

उसके बाद वे माॅल की, खाने की और अपने घूमने की बातें करने लगे। इनकी बातें सुनकर लग रहा था कि कोलकाता पास ही है। थोड़ी देर में दमदम आ गया और उसके बाद सियालदाह। इस लोकल ट्रेन का आखिरी स्टेशन। थोड़ी ही देर में ट्रेन ऐसे खाली हो गई जैसे यहां कोई था ही नहीं। ऐसा लग रहा था मानो सबका कहीं न कहीं जाने की जल्दी थी, सिवाय मेरे। मैंने अपना बड़ा-सा बैग उठाया और आगे के सफर के लिए निकल पड़ा।



Tuesday 18 December 2018

बंगाल 2ः वास्तविक बंगाल तो यहां के गांव की गलियों में दिखता है

मैंने जाने कितनी ही बार बंगाल जाने का सोचा है, वहां की गलियों में फिरने का मन किया है। वहां की लहलहाती फसल को देखने का मन किया है और अब मैं उसी बंगाल की धरती पर खड़ा था। जहां की संस्कृति के बारे में न जाने कितना सुन चुका हूं। उस संस्कृति को, उस धरा को देखने के लिए मैं बंगाल के गांवों की ओर जाना चाहता था। जहां मुझे वो बंगाल दिखे जो सच में बंगाल की परिभाषा है।


जब मैं बर्धमान स्टेशन के बाहर निकला तो पूरा स्टेशन सो रहा था। अंधेरा भी अभी पूरी तरह से छंटा नहीं था। सिर्फ समाचार-पत्र की खबरें जाग रही थीं और जाग रहे थे उनको इकट्ठा करने वाले। एक महिला भी समाचार-पत्र को अपनी जगह लगा रही थी। मुझे ये देखकर आश्चर्य भी हुआ और खुशी भी हुई। आश्चर्य इसलिए क्योंकि क्षेत्र में अखबार पहुंचाने का काम पुरूष को देखा था। महिला को अखबार का काम करते देख मैं आगे बढ़ चला। मुझे अपनी मंजिल पता था सीमानगर, बंगाल का एक कोना।

सफर में बंगाल


उस गांव तक पहुंचने के लिए एक लंबा रास्ता और कई बसों में बैठना था। स्टेशन से बाहर निकलकर मैंने कृष्णानगर की बस ले ली। अंदर गया तो बस पूरी तरह से खाली पड़ी थी। मैंने खिड़की वाली सीट ले ली। जिससे वक्त और रास्ता बाहर का नजारा देखते हुये गुजरे। लेकिन खिड़की कुछ ऐसी थी कि मैं खोल ही नहीं पा रहा था। मैं अब तक जिन बसों में बैठा था उनके शीशे साइड में जाते थे। लेकिन बंगाल की बसों के शीशे कुछ अलग ही थे। कोई बस में था ही नहीं तो मैंने ही दिमाग लगाया और खिसकाकर नीचे किया तो तेजी से नीचे गिर गया।

बंगाल के रास्ते में एक बस स्टैंड।

कुछ देर में बस बर्धमान की सड़कों को छोड़कर गांवों के रास्ते चलने लगी। सुबह-सुबह ठंड थी लेकिन मैं खिड़की बंद नहीं करना चाह रहा था। मेरी खुली खिड़की से बाकी लोगों को परेशानी हो रही थी। उन्होंने बांग्ला में कुछ कहा। क्या कहा ये तो नहीं समझ पाया पर इतना जरूर पता चल गया था कि खिड़की बंद करनी पड़ेगी।

सुपरफास्ट बसें


बंगाल की सड़क चाहे जैसी हो अच्छी या खराब। बस अपनी ही स्पीड से ही चलती है सैरसपाटे की। अगर आप पहली बार इन बसों में बैठ रहे हैं तो पक्का आप सीट पकड़कर बैठना चाहिए। बसों की स्पीड जितनी तेज है, किराया उतना ही कम है। बंगाल के बस कंडक्टरों की अलग ही कला है। वे हमारे नोटों को ऐसे मोड़कर रखते हैं जैसे पैसे नहीं बस कागज हों। उनके हाथ में जाते ही नया नोट भी पुराना हो जाता है।

लहलहाते खेत।

बंगाल अपनी सुबह में बढ़ रहा था। लोग अपना-अपना काम कर रहे थे। मेरे लिए बहुत कुछ नया था तो बहुत कुछ अपने जैसा। बंगाल के ज्यादातर लोग लुंगी में दिख रहे थे। लुंगी यहां का पारंपरिक पोशाक है, जैसे साइकिल यहां घर में दिख जाती है। पानी यहां ऐसा है जैसे हमारे यहां नल। कुछ घरों को छोड़कर तालाब, नहर दिख ही जा रही थी। पानी ज्यादा था इसलिए खेती भी बेशुमार थी। कुछ खेत कटे हुये रखे थे तो कुछ लहलहा रहे थे। सुबह का कुहरा दूर-दूर तक पसरा हुआ था।

गांव के स्टैंड की दुनिया


अब तक शानदार नजारे से सफर गुजर रहा था। तभी हरे-भरे खेत और पेड़ लाल रंग में पुते हुए दिखाई दिया। ऐसा लग रहा था कि किसी ने पूरी जगह पर लाल रेत उड़ेल दी हो। आस-पास कुछ झोपड़ी और खेत थे। यहां कोई इंडस्ट्री भी नहीं थी। मैं उस चित्र को जेहन में लेकर आगे बढ़ गया। कुछ देर बाद एक बड़ा-सा पुल आया। मां गंगा को हरिद्वार के बाद यहां देख पाया। कुहरे की वजह से दूर तक कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा था सिर्फ पानी और रेत ही दिख रही थी। 

पुल से सुबह का नजारा।

पुल पार करने के बाद नबाद्वीप आया। जहां से आगे जाने के लिए मैंने दूसरी बस पकड़ी। बस के अंदर ज्यादातर लोग ग्रामीण ही थे। बस आगे बढ़ती कुछ लोग उतर जाते और उनकी जगह कुछ लोग आ जाते। अधिकतर लोंगों के पास जूट का बैग दिखाई पड़ रहा था। गांव के बस स्टैंड को देखकर अच्छा लग रहा था। प्रत्येक गांव के बाहर 10-12 रिक्शे खड़े ही दिखाई दिये। जो लोगों को घर तक पहुंचाने में सहुलियत के लिए थे। स्टैंड पर एक बड़ी सी दुकान भी थी जहां से बहुत सारा सामान खरीदा जा सकता है। मेरे गांव के स्टैंड से बंगाल के स्टैंड बेहद बेहतर स्थिति में थे।

मजेदार सब्जी-पूड़ी


थोड़ी देर बाद गांव की गलियों को छोड़कर मैं शहर में घुस पड़ा। शहर जहां से मुझे अगली बस पकड़नी थी, कृष्णानगर। कृष्णानगर नाडिया जिले में पड़ता है। कई चैराहों से घूमते हुए बस अपने स्टैंड पहुंच गई। चैराहे पर कुछ मूर्तियां भी बनी हुईं थी लेकिन बांग्ला में लिखे होने के कारण मैं कुछ समझ नहीं पाया। बस से उतरकर मैंने सबसे पहले सब्जी-पूड़ी खाई। सस्ते में इतना स्वादिष्ट खाना कि मैंने एक प्लेट और ले ली।

बस स्टैंड की सब्जी-पूड़ी।

वहां से चलकर सीमानगर जाने वाली बस पर बैठ गया। सीमानगर जहां बीएसएफ का कैंप है। जो बंग्लादेश की सीमा को संभालाने का काम करते हैं। मेरा पड़ाव भी उसी कैंप के लिए थे। गांव की रोजमर्रा जीवन को देखते हुए मैं कुछ देर बाद बीएसएफ कैंप के सामने खड़ा था और सामने कुछ जवान थे जो मुस्तैद दिखाई पड़ रहे थे। अब तक का सफर बढ़िया रहा था। गांव में असली बंगाल दिख रहा था। चहचहाहट वाली सुबह देखी, अलग वेशभूषा देखी और प्रकृति तो हमारे साथ ही थी। जो मेरे सफर का रोचक बना रही थी।

शुरू से यात्रा यहां पड़ें।

Monday 17 December 2018

ओरछा 3: वो जगह जहां ‘चन्द्रशेखर आजाद’ अपने अज्ञातवास में रहे थे

ओरछा बुंदेलखंड का ऐतहासिक इतिहास है। जो आज भी अपने को समेटे हुए दिखाई पड़ता है। किला और महल बड़ा पर्यटन केन्द्र बन गया है तो कुछ किलों को व्यवस्थता की मार ने चौपट कर दिया है। ये नगर इतिहास से भरी पड़ी है। पहले बुंदेलों का गढ़, रामराजा सरकार का गढ़ और फिर गवाह बना आजाद का गढ़।


गढ़ ओरछा


हम अब तक ओरछा का बहुत भाग देख चुके थे। कुछ महल और बुंदेली इतिहास को आज भी बयां कर रहा है। वहीं कुछ के सिर्फ अवशेष बचे हैं। कुछ जगह को हमने छोड़ दिया अगली बार के लिए। ओरछा की मंदिर वाली भीड़ को पार करके हम मुख्य रास्ते पर चलने लगे। ये रास्ता ओरछा तिगैला की ओर जाता है जहां से हमें अपने घर जाना था। समय हमारे पास काफी था इसलिए हमने पैदल ही रास्ता नापना तय किया।

ओरछा वो जगह नहीं है जहां बड़ी-बड़ी दुकानें हों, माॅल हो और आधुनिकता का पूरा रंग हो। ओरछा एक छोटा-सा नगर है जो बस अपने इतिहास के कारण प्रसिद्ध है। यहां दुकानों के नाम पर मिठाई की दुकान, ढाबारूपी होटल मिल जाएंगे। बड़ी इमारत के नाम पर होटल ही हैं जहां पर्यटक ठहरते हैं। बाकी तो कच्चे-पक्के घर हैं और दिखेगा ग्रामीण परिवेश। सड़क पर गाय-भैंस का जमावड़ा मिल जायेगा। जो आपके सफर को खूबसूरत कर देगा। इसी खूबसूरती को देखते-देखते आगे बढ़ रहे थे।

ओरछा गेट।

हमें पैदल चलना जितना-आसान लग रहा था उतना आसान हो नहीं रहा था। गर्मी हम पर हावी हो रही थी। बार-बार हमें पानी का सहारा लेना पड़ रहा था और पेड़ की छांव में सुस्ता रहे थे। पहाड़ों पर चलते वक्त इतनी थकान नहीं होती थी जितनी सीधे रास्ते पर हो रही थी। आस-पास खेत और जंगल ही दिखाई पड़ रहे थे। ओरछा आते वक्त मुझे पता चला था कि यहां आस-पास कोई ‘आजाद पार्क’ है। मुझे वो देखना नहीं था क्योंकि पार्क तो हर शहर, गांव में सरकार बनवा ही देती है। लेकिन मुझे उसका इतिहास मालूम नहीं था अगर मालूम होता तो सबसे पहले वहीं जाता।

आजाद पार्क


हमने रास्ते में कुछ लोगों से उस पार्क के बारे में पूछा तो वे सोच में पड़ गये। सब लोगों को एक ही जवाब था यहां ऐसा कुछ भी नहीं है। मैंने भी मान लिया कि ये लोग सही कह रहे हैं। हम ओरछा तिगैला की ओर चल दिए। हम कुछ ही दूर चले थे कि मुझे एक बड़ी सी मूर्ति दिखाई पड़ी। मूर्ति चन्द्रशेखर आजाद की थी और पार्क का नाम था आजाद पार्क। ये पार्क सातार गांव में पड़ता है। पार्क के अंदर जाते ही एक बोर्ड लगा हुआ था। बोर्ड पर इस जगह की महत्वता लिखी पड़ी थी। उसमें लिखा था कि चन्द्रशेखर आजाद 1928 में इस जगह पर भेष बदलकर रहे थे।

इस जगह के बारे में।

आजाद यहां एक कुटिया में रहते थे जो आज भी है। उस कुटिया में आज उनकी फोटो लगी हुई है।
पार्क के पीछे तरफ चलते हैं तो हनुमान मंदिर मिलता है। उसके पास में छोटा-सा कुआ बना हुआ है। जिसे चन्द्रशेखर आजाद ने खोदा था जो आज भी पानी दे रहा है। यहां आजाद लगभग डेढ़ साल रहे थे। वे यहां के जंगलों में गुरिल्ला अभ्यास करते थे और अंग्रेजों से लड़ने की रणनीति बनाते थे। पार्क के आगे की तरफ उनकी बलिष्ठता की प्रतीक में उनकी मूर्ति बनी हुई है। जिसका अनावरण 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने किया था।

चन्द्रशेखर आजाद के द्वारा बनाया कुआं।

पार्क में बड़ी शांति है, कुछ चिड़िया चहचहां रही है, पार्क के बगल से ही बेतवा नदी का रास्ता बना हुआ है। यहां सब कुछ अच्छा है सिवाय यहां की जानकारी के। लोग ओरछा घूमने आते हैं लेकिन इस जगह पर नहीं आते हैं क्योंकि उन्हें इस जगह के बारे में पता ही नहीं रहता। कमी सरकार की तो है ही कुछ यहां रहने वाले लोगों की है। जब यहां के लोगों को इस जगह के बारे में पता नहीं है तो पर्यटकों की बात ही छोड़ दीजिए। जो लोग ओरछा घूमने आते हैं उन्हें इस ऐतहासिक जगह पर भी आना चाहिए। हमारा इतिहास है, हमें नहीं भूलना चाहिए।

यात्रा का पिछला भाग यहां पढ़ें।

Thursday 6 December 2018

बंगाल यात्रा 1: हर बार सफर कुछ नये अनुभवों से रूबरू कराता है

बंगाल मुझे बार-बार बुलाता है लेकिन कभी घूम नहीं पाया, सही से देख नहीं पाया। इस बार अचानक ही मैंने बंगाल घूमने का प्लान बना लिया। कुछ दिन पहले 6 दिसंबर के लिए रिज़र्वेशन करवा लिया। जो आखिरी वक्त तक कन्फ़र्म नहीं हुआ था। जब कन्फ़र्म की सूचना मिली तो राहत की सांस ली। मेरे घर से रेलवे स्टेशन 40 किलोमीटर दूर है। ट्रेन छूटने के डर से मैं मऊरानीपुर स्टेशन समय से दो घंटे पहले ही पहुंच गया था। करीब ढाई घंटे के इंतजार के बाद चंबल एक्सप्रेस आई और इस तरह मैं निकल गया बंगाल यात्रा पर।


विकास का बदतर रूप 


मुझे साइड लोअर सीट मिली थी। मुझे यह सीट बड़ी पसंद है। यहां से बाहर का नजारा साफ-साफ देख सकते हैं। यहां से ट्रेन के अंदर की गतिविधियां भी दिखती रहती हैं। रेल यात्रा हर बार नए अनुभव करवाती है, नये-नये लोगों से मिलवाती है। यहां अजनबी होते हुए भी कोई अजनबी नहीं होता। यहां देश की राजनीति पर भी चर्चा सुनी जा सकती है और अध्यात्म संवाद भी देखा जा सकता है।


ट्रेन अपनी रफ्तार से बढ़ रही थी। सामने के दृश्य वैसे ही थे। जिसे मैं रोज ही देखता। बुंदेलखंड हर जगह एक जैसा है समस्याओं के बीच समाधान खोजता। थोड़ी देर बाद मैं उसी इलाके के बांदा, महोबा के बीच में था। ये इलाका बुंदेलखंड का सबसे सूखे क्षेत्रों में आता है। एक जगह क्रेन मशीन से पठार तोड़ी जा रही थी। जो पठार कभी देखने में कभी खूबसूरत लगती होगी। उसे विकास ने उजाड़ कर दिया।

प्रियतम प्रकृति 


ये जाने कैसा विकास है जो देने के बदले में हमारा बहुत कुछ छीन लेता है। फिर भी बाहर देखने में अच्छा लग रहा था। विंध्याचल पर्वत की श्रेणी हमारे सामने से गुजरकर पीछे छूट रही थी। बाहर देखने को बहुत कुछ था जंगल, खेती, पहाड़, नदियां और लोग। सब अपने में संतुलित था। हम यहां अंदर बैठे अपना संतुलन खोह रहे थे और बाहर दृश्य अपने में संतुलन बैठा रहा था। पल-पल में दृश्य बदल रहे थे जिससे बाहर देखने में बोरियत नहीं हो रही थी।


मेरे सामने वाली सीट पर एक बंगाली दंपत्ति थी। बाकी सीटों पर लोग आते और बदलते जा रहे थे। मेरे पास की सीट पर कुछ लोग राजनीति पर समागम कर रहे थे। उनमे से एक अपने को सबसे ज्ञानी होने का परिचय दे रहा था। अपने को किसी पार्टी से जुड़ा हुआ कह रहा था और दोनों ही बड़ी पार्टियों की बखियां उधेड़ रहा था। उनकी बातों का तुक नहीं बैठ रहा था लेकिन ट्रेन में ऐसी बातें होनी चाहिए। जिससे सफर बिना बोरियत के आराम से काट लिया जाए।

इलाहाबाद है! 


अब तक हम बुंदेलखंड को छोड़कर इलाहाबाद(प्रयागराज) के आसपास आ गए थे। मैं उस बोर्ड को देखना चाहता था जिस पर अब प्रयागराज लिख दिया गया है। बोर्ड आया लेकिन प्रयागराज का नहीं कोई इलाहाबाद छिवकी का। शायद ये ट्रेन इलाहाबाद होकर नहीं जाती।


इलाहाबाद से निकलते वक्त शाम हो चली थी। सामने सूरज ढल रहा था और अपने चारों और लालिमा बिखेर रहा था। सूरज अठखेलियां करते हुए हमसे दूर जा रहा था किसी नई जगह पर। सूरज डूब चुका था लेकिन अभी भी बाहर साफ-साफ दिखाई दे रहा था। शाम बड़ी बड़ी प्यारी लग रही थी। खेती वाला क्षेत्र अभी चल ही रहा था। किसी के खेतों की बुवाई हो रही थी तो कहीं सिंचाई हो रही थी।

लोगों की जुबां केसरी- मुगलसराय 


अब तक मुझे भूख लग आई थी। मुझे खास चेतावनी दी गई थी बाहर का कुछ भी मत खाना। घर से लाया हुआ खाना खाया और फिर अंधेरे में डूबे शहर-गाँव को देखने लगा। कुछ देर बाद मिर्जापुर आ गया, कालीन भैया वाला मिर्जापुर। आजकल फिल्मों से शहरों को जाना जाता है और सब इसे बदलाव का नाम दे देते हैं। ये बदलाव नहीं छाप है जानकारी के अभाव की।


मिर्जापुर से निकले तो स्टेशन आने की भनक मिल गई। जो न्यूज में नाम को लेकर बड़ा छाया रहा था, दीनदयाल उपाध्याय जंक्शन(मुगलसराय)। ट्रेन की बातों में अब लग रहा था कि पूर्वांचल में हैं। सरकार ने अपने कागजों से तो मुगलसराय का नाम हटा दिया। लेकिन लोग की जबान से नहीं हटा सके। मेरे कान में एक आवाज नहीं आई जिसने दीनदयाल उपाध्याय नाम लिया हो। चारों तरफ बस एक ही नाम सुनाई दे रहा था, मुगलसराय।

बर्धमान 


अब तक रात का पहर अपने आगोश में था और हवादार ठंड ने कंबल में घुसा दिया। अपनी लापरवाही के कारण कई बार ठंड के मजे ले चुका हूं। इसलिए अब मेरा बैग में कंबल जरूर रहता है। मुगलसराय के बाद रात हिलते-डुलते कटी। जब कभी नींद खुलती तो पता चलता है स्टेशन गया(बिहार) है। उसके बाद नींद खुलती है तो स्टेशन का अनाउंस बता देता है कि बंगाल में प्रवेश कर चुका हूं। बंगाल का सबसे पहले पड़ने वाला रेलवे स्टेशन आसनसोल है।



मैं जल्दी ही बर्धमान पहुंचने वाला था। लेकिन नींद ने मुझे आगोश में ले लिया। अचानक मेरी आँख खुली तो देखा मेरे आसपास सबके सामान पैक थे, मोबाइल पर कुछ मिस्ड कॉल पड़ी थीं। मैं समझ गया था बर्धमान आने ही वाला है। ये ट्रेन हावड़ा जा रही थी और फिलहाल मुझे हावड़ा नहीं, बर्धमान जाना था। मैं कुछ मिनट और सोता रहता तो हावड़ा पहुंच जाता। थोड़ी देर बाद स्टेशन आया बर्धमान। मैं जल्दी ही बंगाल की धरती पर पर आ गया। अब बस कुछ दिन बंगाल की आबोहवा को देखना था।

Friday 30 November 2018

ओरछा 2: ओरछा की प्राचीनता आज भी इन किलों की दीवारों पर देखी जा सकती है

ओरछा ने अब तक प्राचीनता की जर्जर तस्वीर दिखाई और दीवार पर बुंदेली नक्काशी। मैं राजस्थान नहीं वहां के किले नहीं देखे। फिर भी मुझे पता है ओरछा जैसे ही होंगे किले। जिनमें प्राचीनता झलक रही होगी आधुनिकता की पुटीन इन किलों पर नहीं चढ़ पाती है। अब तक मैं ओरछा की वो जगहें देख चुका था। जहां कम ही लोग जाते। अब मुझे भी उस जगह जाना था जहां सभी जाते हैं किला और जहांगीर महल।



जहांगीर महल


जहांगीर महल ओरछा का सबसे बड़ा आकर्षण का केन्द्र है। इसका मुख्य द्वार पर बड़ा सा गेट। दरवाजा के दोनों तरफ बड़े-बड़े हाथी बने हुये हैं। खास बात ये है कि दोनों हाथी का सिर झुका हुआ है। इस महल के कहानी रोचक है।

मुगल शासक अकबर ने अपने सेनापति अबुल फजल को अपने विद्रोही बेटे को पकड़ने का आदेश दिया। जहांगीर को खतरे के बारे में पता चल गया। जहांगीर ने ओरछा के राजा वीर सिंह को अबुल फजल से निपटने को कहा। वीरसिंह ने अबुल फजल को हमेशा के लिए जहांगीर के रस्ते से हटा दिया। वीर सिंह से जहांगीर इतने खुश हुए कि कई जागीर उन्हें दे दी। बाद में जब जहांगीर ओरछा आने वाले थे तो उनके स्वागत में ये भव्य जहांगीर महल बनवाया।

जहांगीर महल
जहांगीर महल ओरछा का सबसे बड़ा आकर्षण का केन्द्र है। महल की छत पर चढ़कर पूरे नगर को देखा जा सकता है। दीवारों पर कुछ नक्काशी भी बनी हुई है। देश-विदेश से पर्यटक इसी महल को देखने आते हैं। जहांगीर महल किले के अंदर ही है। महल की मोटी दीवार और बाहर का सुंदर नजारा बेहद खुशनुमा होता है। गर्मी में किले के लाल पत्थर ठंडक महसूस करवाते हैं। किले को देखने का बाद हम राजमहल की ओर बढ़ गये।

राजमहल


किले के अंदर जाते ही सबसे पहले राजमहल ही मिलता है। उसके ठीक सामने है जहांगीर महल। जहांगीर महल के भांति यहां भी एक बड़ा सा गेट है। महल के बीचों-बीच एक चबूतरा बना है। महल दो भागों में बंटा हुआ है। महल भूल-भुलैया टाइप का है। आप जिस जायेंगे लगेगा मैं इधर तो अभी-अभी आया था। इस महल में भी नक्काशी दिखाई देती है। दीवार कला और संस्कृति से पटी हुई है, ऐसा ही कुछ हान छज्जों का भी है।


किला पांच मंजिल का है। हमारे पास में खड़ा गाइड कुछ पर्यटकों को बता रहा था। राजा की 100 रानियां थीं और सभी का अलग-अलग कमरा था। राजा का एक अलग कमरा था। मुझे उसकी बातों पर विश्वास नहीं हुआ। मैंने ओरछा का इतिहास पढ़ा है। मुझे ऐसी जानकारी कहीं न मिली। न ही किताब में और न ही इंटरनेट पर।  इस महल को महाराजा मधुकर शाह ने पूरा करवाया था।

महल से बाहर निकलकर हम बाहर की ओर जाने लगे। हमें तभी एक बड़ा-सा कमरा दिखाई दिया। जो बहुत बड़ा था। उस बड़े से हाॅल में कई मोटे-मोटे खंभे थे। आगे बढ़ने पर एक पत्थर की बनी हुई गद्दी दिखाई दी। मुझे समझने में देर नहीं लगी कि ये राजदरबार है। यहीं बैठकर राजा अपना राजदरबार चलाते होंगे। यहां के छज्जे पर भी रंगीन नक्काशी दिखाई दे रही थी। लेकिन राज दरबार किले के कोने पर होने पर यहां अंधेरा था।


रामराजा मंदिर


ओरछा बुंदेलखंड की आस्था का केन्द्र है। वजह है यहां का रामराजा मंदिर। पुख के दिन ओरछा किसी मेले के समान सज जाता है। रामराजा मंदिर देखकर अमृतसर का स्वर्ण मंदिर याद आता है। बिल्कुल संगमरमर सा सफेद मंदिर और सोने के समान चमकती चोटियां। रामराजा मंदिर में भगवान श्रीराम विराजे हुये हैं। इस मंदिर की भी एक रोचक कहानी है।

रामराजा मंदिर
महाराजा मधुकर शाह कृष्ण के भक्त थे और रानी श्रीराम की। एक दिन दोनों में बहस छिड़ गई कि दोनों में श्रेष्ठ कौन है? रानी ने प्रतिज्ञा कर ली कि वे श्रीराम को ओरछा लेकर आयेंगी। श्रीराम के लिए चतुर्भुज मंदिर का निर्माण भी शुरू कर दिया। रानी अवध गईं और सरयू नदी के किनारे कठिन तपस्या की। जब भगवान प्रसन्न नहीं हुये तो अंत में सरयू में प्राण देने लगीं। तभी एक झूला नदी से निकला जिसमें बालक रूपी राम थे।


भगवान श्रीराम जब ओरछा आये तो वे महल में ही विराजमान हो गये। तब से वो महल रामराजा मंदिर कहलाने लगा। भगवान रामराजा के दर्शन किए और ओरछा से वापस चल दिये। ओरछा में देखने लायक बहुत कुछ था लेकिन शाम होने को थी और हमें लंबा रास्ता तय करना था, गांव का रास्ता।

यात्रा का पहला भाग यहां पढें।

Monday 26 November 2018

ओरछा 1ः बुंदेलखंड की विरासत की शान का बहुमूल्य नगीना है ये नगर

मैं अक्सर अपने बुंदेलखंड के बारे में सोचता-रहता हूं कभी सूखे के बारे में, तो कभी अपने विशेष पर्व के बारे में। मुझे लगता है बुंदेलखंड आज अपनी कला और संस्कृति में इतना परंपरागत है। तो बुंदेलों-हरबोलों में तो यह चरम पर होगा। उस समय के बुंदेलखंड को किताबों में देखा जा सकता है और किलों में। जहां का ढांचा और नक्काशी इतिहास के पन्नों में ले ही जाती है। ऐसे ही बुंदेलों के इतिहास में ओरछा का नाम है। ओरछा बुंदेलखंड का वो तिकोना है जिसमें किले ही किले हैं।


11 नवंबर 2018। मैंने एक रात पहले सोचा कल ओरछा जाना है। ओरछा को कभी अच्छी तरह से नहीं देखा। आज उस शहर और वहां की नक्काशी को देखने की योजना बनाई। मेरे घर से ओरछा करीब 100 किलोमीटर की दूरी पर है। सुबह 7 बजे मैं झांसी जाने वाली गाड़ी पर बैठा। मऊरानीपुर होते हुये साढ़े नौ बजे ओरछा तिगैला ’ऐसी जगह जहां तीन दिशा में रास्ते हों’ पर हम पहुंच गये। झांसी से आरेछा लगभग 10 किलोमीटर की दूरी पर है। जो दिल्ली से ओरछा देखने आता है उसके लिए झांसी पहले आना पड़ता है।

ओरछा कूच


ओरछा तिगैला से ओरछा जाने के लिए आॅटो में जगह ली। आॅटो भरी हुई थी तो पीछे खड़े होकर जाना पड़ रहा था। बुंदेलखंड में गेट पर लटककर यात्रा करने वाला दृश्य आम है। मुझे जल्दी पहुंचना था इसलिए मैंने भी वही रास्ता अपनाया। सुबह-सुबह मौसम भी सुहाना था और रास्ता भी छायादार। रोड के दोनों तरफ बड़े-बड़े पेड़ लगे थे। ओरछा से पहले रास्ते में कई गांव मिलते हैं। इस समय गांव की दीवारों पर कुछ नारे लगे हुए थे। ओरछा मध्य प्रदेश में आता है। इस समय यहां चुनाव का माहौल है दीवारें भी चुनाव के आबोहवा में रंग गई हैं।


थोड़ी देर बाद एक बड़ा-सा पुराना दरवाजा दिखता है। जो किसीसमय नगर का प्रवेश द्वार होगा। आज भी यही बड़ा गेट नगर का द्वार है। उसके बाद लगातार तीन बड़े गेट आते हैं। एक पर गणेश भगवान की मूर्ति उकेरी गई है। शहर में आते ही हम अचानक भीड़ से घिर गये। ओरछा देखने में बहुत छोटा-सा नगर है। कुछ घर हैं, कुछ होटल हैं, दुकानों की यहां भरमार है। लोग बड़े प्यारे हैं, वे ठगी से पैसा तो कमाते हैं लेकिन बात करने में घबराते नहीं है। छोटी जगह का यही फायदा होता है, बड़े शहर की तरह यहां डर नहीं होता है। सब पास-पास ही स्थित होता है।

हम नगर को छोड़कर घाटों की तरफ बढ़ने लगे। जहां बेतवा नदी अपने तेज प्रवाह में बह रही है। आज यहां बहुत भीड़ थी। ओरछा में दो प्रकार के लोग आते हैं एक, किले की खूबसूरती को देखने आते हैं। दूसरा, धार्मिक आस्था जो रामराजा मंदिर के प्रति अगाध है। हम उन्हीं घाटों पर चलने लगे। बुंदेलखंड के घाटों में सबसे बड़ी कमी है, सफाई। एक बार बनने के बाद इसका रख रखाव सही से नहीं होता है। उसी गंदगी को पार करके हम पहुंचे, कंचना घाट।

बुंदेली प्रतीक


कंचना घाट, नगर का आखिरी पड़ाव है। उसके आगे नदी, जंगल और छोटे पहाड़ दिखाई देते हैं। सबसे ज्यादा भीड़ इसी जगह पर रहती है। अक्सर ओरछा आने वाले पर्यटक कंचना घाट नहीं आते हैं। मुझे लगता है कि किले को देखने के पहले उन्हें इसी जगह पर आना चाहिए। कंचना में सबसे खूबसूरत हैं राजाओं की छत्री।


गुंबदनुमे बड़े-बड़े टीले दिखाई देते हैं जिन्हें महल की तरह बनाया गया है। ऐसे ही 15 किले बने हुए हैं। सभी देखने में एक-दूसरे के कार्बन काॅपी। अलग है तो उनकी नक्काशी और अंदर बनीं चित्रकारी। छत्री का अर्थ होता है समाधि। कंचना घाट पर ओरछा के राजाओं की छत्री हैं। एक छत्री को राजा वीरसिंह ने बनवाया है और बाकी मधुकर शाह ने। ये छत्री तीनमंजिला तक बनाई गईं थीं। इस समय उपर जाने का रास्ता बंद किया हुआ है।

जहां ये छत्री बनी हुई हैं। वहां का आसपास का वातावरण बेहद खूबसूरत और मनमोहक है। चारों तरफ हरियाली है और रंग-बिरंगे फूल है। सबसे बड़ी बात यहां शांति है। किले से दूर होने के कारण यहां कम ही लोग आते हैं। बहुतों का तो इस जगह के बारे में पता ही नहीं है। राजाओं की छत्री को इत्मीनान से देखने के बाद हम किले की ओ बढ़ गये।


हम अपनी विरासत को नहीं बचा पा रहे


हम किले की ओर बढ़ गये। किले और शहर के बीच एक पुल है बहुत चौड़ा और बहुत मोटा। इतना मजबूत है कि इसे आसानी से तोड़ा नहीं जा सकता। पुल उस समय की कारीगरी का एक बेहतरीन नमूना है। उसके आगे चलते हैं तो किले का भारी भरकम प्रवेश द्वार मिलता है। आज वो भारीभरकम गेट अपने भार की वजह से एक तरफ रखा हुआ है। ये गेट हमारे कच्चे घरों के उस दरवाजे की तरह हो गया है। जहां आना-जाना बहुत है इसलिए हमने उसको एक तरफ रख दिया है।


किले को देखने का टिकट मात्र दस रूपए का है। गेट पर गाइड की भरमार है जो विदेशी पर्यटकों के साथ घूमते-बतियाते मिल जाते हैं। हम किले में घुसने के पहले उसके बायें तरफ एक बोर्ड दिख गया। जिसमें लिखा था कि इस तरफ भी कुछ है। हम उसी रास्ते पर चल दिये। कुछ देर बाद एक बोर्ड दिखा ‘श्याम दउआ की कोठी’। बोर्ड तो वहीं था लेकिन अब कोठी खंडहर हो गई थी। उसके कुछ अवशेष  ही दिख रहे थे। आगे चले तो एक और कोठी दिखाई दी। ये कोठी सही-सलामत थी और अच्छी भी दिख रही थी। कमी थी तो बस लोगों के आने की।


इस तरफ कोई भी पर्यटक नहीं दिख रहा था। हम उस कोठी में चल दिए। ये छोटा-सा महल देखने में सुंदर था ही यहां की दीवारें भी नक्काशी से घिर हुईं थीं। इसके दूसरी मंजिल पर गये तो वहां भी नक्काशी थी। जिसमें एक तरफ किसी राजा का चित्र था दूसरी तरफ नृतकी का। बाहर देखने पर लग रहा था ये कोई उद्यान रहा होगा। जहां राजा अपना कुछ समय बिताते होंगे।


कुछ आगे चले तो ऊंटों को रखने का एक बड़ा सा महल दिखाई दिया। देखने पर लग रहा था कि इतना बड़ा तो राज दरबार ही हो सकता है। लेकिन बाहर लिखा था ‘उंटों को रखने की जगह’। हम वहां से आगे बढ़ गये उस किले की ओर जहां पर्यटक सबसे पहले जाना पसंद करता है ‘जहांगीर महल’।

Tuesday 6 November 2018

दिवारी नृत्यः बुंदेलखंड के इस लोक नृत्य में पूरा गांव झूमता रहता है

अल्वी उस्ताद की मृदंग, ढोलकी पर पड़ती थाप, हल्काईं भैय्या झकझोरने वाला झीका, बसोर दद्दा की कांसे की बजती कसारी, ढीमर कक्का की हास्य विनोद करती सारंगी, सुक्के कुमार की जोकरी और डांगी चचा का रमतूला। ये सभी जब बजते तो पूरी प्रकृति झंकार करने लगती। इन्हीं मधुर झंकार के बीच शांति, समानता और लोक परंपरा से होता है दिवारी नृत्य(बुंदेलखंड में दीपावली को दिवारी कहते हैं)।

दिवारी नृत्य
बुंदेलखंड में दीपावली तब तक अधूरी ही मानी जाती है। जब तक दिवारी नृत्य नहीं होता है। जब तक हमारे गांव के भरतू बब्बा उछल-उछलकर नाचते नहीं है, दीवाली अधूरी सी लगती है। नृत्य ऐसा कि आज के जवानों को भी पीछे छोड़ दें। इसे देखकर एक जोश सा आ जाता है और लगता है हम भी इसी लोक नृत्य में शामिल हों जायें।

मैं इस दिवारी नृत्य को बचपन से ही देखता आ रहा हूं। मैं दीवाली का इंतजार पटाखे से ज्यादा इस नृत्य के लिए करता था। हमें दिवारी खेलनी(दिवारी नृत्य) नहीं आती थी लेकिन उछल-कूद किया करते थे। इस नृत्य में सभी खुशी-खुशी शामिल होते हैं और उल्लास और प्रेम से अपनी लोक परंपरा में भीने रहते हैं।

परंपरा गाय की


बुंदेलखंड के गांव में दीपावली के अगले दिन ज्यादा चहल-पहल रहती है। पूरा गांव एक सार्वजनिक स्थल पर जमा होते हैं और गइया का खेल देखते हैं। यह एक ऐसी परंपरा है जो वर्षों से चली आ रही है। जिसमें गांव वालों का आपसी भाईचारा और प्रेम देखने को मिलता है।


इसमें गाय और बछड़े को सार्वजनिक स्थल पर लाया जाता है। वहां गाय के बछड़े को उसकी मां से अलग किया जाता है। गाय के आगे मोर के पंख लहराये जाते हैं। ऐसा तब तक किया जाता है जब तक रमाती नहीं है। यानि कि अपने बछड़े को पुकारती नहीं है। लोगों का मानना है कि गाय के रमाती है तो वो साल उनके लिए अच्छा होता है। ऐसा होते ही गांव में उत्सव होने लगता है।

मौनिया जिनके हाथों में मोर के पंख होते हैं वे कई गांव के चक्कर लगाने के लिए भागते हैं और जो बीच में बोल गया। उस मोर के पंख मारकर याद दिलाया जाता है कि बोलना नहीं है।  
 इन मौनियों के पास मोर पंख का गुच्छा होता है। जिससे पता चलता है कि कि उन्होंने कितनी बार दीपावली पर व्रत किया है। जिसकी संख्या हर साल बढ़ती जाती है। ये लोग पूरे दिन व्रत रहते हैं। इन्हें प्यास लगती है तो हाथ पीछे करके गाय की तरह पानी पीते हैं। इनका ये व्रत शाम की पूजा के बाद पूरा होता है। मुनियों के इस झुंड को देखना शुभ माना जाता है।

दिवारी नृत्य


गाय खेलते ही गांव में दिवारी नृत्य शुरू हो जाता है। कुछ लोग जो एक विशेष प्रकार की पोशाक पहने रहते हैं। वो नाचना और गाना शुरू कर देते हैं और गांव वाले उसको देखकर मन ही मन खुश होते हैं।

इस नृत्य की एक पूरी विधि है और इसके लिए वस्त्र भी हैं। नृत्य करने वाले कमर में झेला बांधे रहते हैं जो घंटीनुमा होता है जो नाचते समय आवाज करता है। लौंगा झूमर वस्त्र होता है जिसे हनुमान जी पहनते थे। इसको पहनने के पहले और उतरने के बाद प्रणाम करते हैं। लोग इसको पहनकर मल-मूत्र को नहीं जाते हैं। इस दिवारी के साथ मृदंग, ढोलक, मजीरा, झीका, नगड़िया, कांसे की थाली, रमतूला जैसे वाद्ययंत्रों के बीच लोगों दिवारी नृत्य में झूमते हैं।

कोई व्यक्ति दीपावली गाता है जो असल में रामायण और कबीर के दोहे, छंद होते हैं। जिनमें उपदेशात्मक बातें छिपी होती हैं। होती हैं। जिनको सुनकर लोग दिवारी नृत्य के आनंद में पूरे गांव में नाचते रहते हैं।


ये नृत्य इतना लयबद्ध होता है कि आपके पैर भी थिरकने लगेंगे। ढोलक की थाप पर लोगों के डड़े आपस में टकराते हैं। जोशीले अंदाज में एक-दूसरे पर लाठी से प्रहार करते हैं। ताबड़तोड़ लाठियां बरसने के बाद भी किसी को भी चोट नहीं आती। जब ये आपस में टकराते हैं तो सुनकर मजा ही आ जाता है। इस नृत्य के सामने वो बालीवुड वाला संगीत भी बौना लगता है।

अब जा रही है ये परंपरा


शहर में लोगों के बसने के कारण दिवारी अब नौजवानों को नहीं आती। क्योंकि दीवारी कोई सिखाने की चीज नहीं है यह तो मस्ती-मस्ती में आ जाती है। लेकिन जब गांव में रहेंगे ही नहीं तो आयेगी कैसे? इसलिए दीपावली के दिन लोग इस नृत्य को देखने आते हैं। आधुनिकता ने इस नृत्य पर भी कठोराघात किया है।

इस आधुनिकता के बीच आज भी इस दीवारी का हमारे गांव में होना एक सुकून की बात है कि लोग भले ही घरों में पटाखे और दिये जलाकर दीपावली मना रहे हों। उसमें मेरा गांव आज भी लोक संस्कृति को आगे बढ़ा रहा है। कुछ युवा हैं जो इस लोक परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। ऐसे दीवारी नृत्य ही तो हमारे बुंदेलखंड की शान हैं जो हमें हर त्यौहार पर कुछ खास करने का मौका देते हैं। उस दिन दीवारी की थाप ऐसी गूंजती है जो पूरे साल भर बनी रहती है।

समय-समय की बात है, समय बहुत बलवाने
भीलन लूटी गोपियां वेई अर्जुन, वेई बाने।

Sunday 4 November 2018

छत्तीसगढ़ः इन कच्चे रास्तों में एक ही बात अच्छी थी मन मोहते दृश्य

छत्तीसगढ़ में घूमते-घूमते वहां के जंगल, वहां के रास्ते अच्छे लगने लगे थे। छत्तीसगढ़ की सुंदरता को लोग समझ ही नहीं सके। यहां की सुन्दरता हरे में हैं और वो हरापन देखने में एक अलग ही सुकून है। जो आपके चेहरे पर मुस्कान और मन में सुकून सा देता है। अबूझमाड़ का पूरा क्षेत्र नमी से भरा रहता है। सितंबर के दिनों में छत्तीसगढ़ घूमने लायक है वैसे ही जैसे हिमाचल और उत्तराखंड।


छत्तीसगढ़ में अधिकतर इलाका मैदानी है जहां आप पहाड़ की चोटी पर जाने की नहीं सोच सकते। लेकिन यहां के जंगलों को नापा जा सकता है। जो आपको उतना नहीं थकाता जितना कि पहाड़। हम घूमते वक्त चाहते हैं यहीं न कि नया अनुभव हो, नई चीजें देखने को मिलें। छत्तीसगढ़ आपको उन सारे अनुभवों से रूबरू कराता है, संस्कृति की सुंदरता से लेकर प्रकृति की सुंदरता तक।

कच्चा रास्ता- डर या सुंदरता


22 सितंबर 2018 के दिन हम छत्तीसगढ़ के नारायणपुर के गांवों के बीच से सफर कर रहे थे। बारिश हमारा खुलकर स्वागत कर रही थी, हम गाड़ी में थे इसलिए हमें बाहर देखकर आनंद आ रहा था। ओरछा को पार करने के बाद हम ऐसी जगह पर जगह पर रूक गये। जहां से गाड़ी का जाना मुश्किल था। अब हमें समझ में आ रहा था बारिश मुश्किलें भी खड़ी कर सकती है।

आगे का रास्ता कच्चा था जो दिखने में जंगल जैसा लग रहा था। हमारे कुछ साथियों ने आगे जाकर रास्ते का जायजा लिया और फिर जो होगा देखा जायेगा कहकर पैदल चलने लगे।


रास्ता बिल्कुल छोटा था मोटर साइकिल के चलने लायक। हम उसी रास्ते पर पैदल चल रहे थे। रास्ता पूरा सुनसानियत से भरा हुआ था और आशीष अपने मन की बातें बताने लगा। शायद अपने डर को हमारे साथ बांटने की कोशिश कर रहा था। पानी के कारण रास्ता कीचड़नुमा हो गया था। हमारे एक साथी को तो हाथ में चप्पल तक लेनी पड़ी। कुछ लंबा रास्ता तय करने के बाद अचानक जंगल से हम खुले में आ गये।

खुली सुंदरता की झलक


रास्ता अब भी कच्चा ही था लेकिन कीचड़नुमा नहीं था। अब हमें नीचे नहीं देखना पड़ रहा था। इस खुले मौसम की ताजगी हमारे मन में भी आने लगी। एक बार फिर से हमारे सामने पहाड़ खड़ा था जो अपने आस-पास सफेद सुंदर चादर लगाये हुआ था। आस-पास का पूरा क्षेत्र हरा-भरा था। जिसे देखकर हमने अनुमान लगाया कि हम गांव के पास ही हैं।

कुछ आगे चले तो रास्ते के किनारे कुछ कपड़े लटके हुये दिखाई दिये। उनके आस-पास कुछ समाधि भी बनी हुईं थीं। हमें पता नहीं था क्या है सो हम बस अंदाजा लगाने लगे।

हरा-भरा गांव


थोड़ी देर चलने के बाद हम गुदाड़ी गांव पहुंच गये। हमने कुछ देर इस गांव में बिताया। गांव को देखकर लग रहा था कि सबने हरी-भरी झाड़ियो में अपना ठिकाना बना रखा है। गांव का रस्ता कच्चा ही था। गांव को देखकर लग रहा था कि कोई रहता ही नहीं है बस घर बना दिये हैं। गांव वाली चहल-पहल दिख ही नहीं रही थी। बात करने पर पता चला कि सभी काम पर गये हैं शाम को ही लौटेंगे।

कुछ देर गांव में रहने के बाद हम उसी कच्चे रास्ते पर वापिस चलने लगे। जिससे आये थे। लौटते वक्त भी मौसम वैसा ही था सुंदर। रास्ते में गायें भी मिलीं जो शायद अब अपने घर को वापस लौट रहीं थीं।

गाड़ी कहां गई?


वापिस लौटते वक्त हम लोग बातों-बातों में आगे-पीछे हो गये। जब हमारा कच्चा रास्ता खत्म हो गया तो वहां पहुंचकर हम अचंभित थे कि गाड़ी कहां गई? हम निराश भी हो गये कि अभी तो और चलना है।


हम गांव के गांव कदम बढ़ाने लगे। रास्ते में एक छोटा पुल मिला। जिसके नीचे नहर बह रही थी। नहर की धार बहुत तेज थी। नहर के किनारे गांव के मछुआरे मछली पकड़ रहे थे। हम एक लंबी चढ़ाई के बाद गांव पहुंचे। बाद में वहां गाड़ी आई और हम फिर से खिड़की के सहारे छत्तीसगढ़ को निहारने लगे।

Saturday 3 November 2018

बुंदेलखंड की दीवाली में लोक परंपरा का सहकार लोगों में प्यार बांटता है

दीपावली हमारा ऐसा पर्व है जो हमारे अंदर खुशियां भर देता है। इस दिन हर गली, चौक, मोहल्ला जगमग रहते हैं। दीपावली ऐसा पर्व है जिसे हर कोई खास बनाना चाहता है इसलिये तो हम इन खुशियों को बांटते हैं, दोस्तों के साथ, परिवार के साथ। दीपावली हर जगह अलग-अलग तरीके से मनाई जाती है। शहरों में एक ही तरह की होती है, पटाखों वानी। लेकिन दीपावली तो दीपों का पर्व है इस दिन तो बस दीप जलने चाहिये मन के भी और घर के भी।


अगर दीपों वाली दीपावली देखनी है, परिवार वाली दीपावली देखनी है तो बुंदेलखंड के गांवों में आना चाहिये। यहां दीपावली ऐसे मनाई जाती है जैसे कोई जलसा हो। शहर में रहने वाले लोग सोचते हैं कि रात में पूजा करना ही दीवाली है। लेकिन दीपावली तो सूरज के पहर से ही शुरू हो जाती है। वो बात अलग है कि शहर में बसावट के कारण अपनी मौलिक परंपरा को भूलते जा रहे हैं। लेकिन बुंदेलखंड के गांव आज भी उन्हीं परंपराओं में जगमग होकर दीपावली मनाते हैं।

दशहरे से तैयारी


दशहरे के साथ बुंदेलखंड में दीपावली की तैयारियां शुरू होने लगती हैं। चूने, मिट्टी से बने घरों की मरम्मत करके उनको साफ किया जाता है। हर हाल में सफाई दीपावली से पहले हो जाती है। अगर गांव में किसी की सफाई रह जाती है तो एक-दूसरे की मदद करके पूरा किया जाता है।

दीपावली में बुंदेलखंड के गांवों में रौनक रहती है। जो नौजवान रोजगार के लिए साल भर शहर में रहते हैं। वे दीपावली को जरूर आते हैं। उन्हीं लोगों के साथ गांव चौक चौबंद होने लगते हैं। घर में हंसी के पटाखे छूटने लगते हैं।

दीपवाली का दिन


दीपावली के दिन सुबह होते ही गांव का जुलाहा गांव के हर घर में जाता है। चाहे किसी भी धर्म का हो। जुलाहा दीपक जलाने के लिए रूई दे जाता है। इसी प्रकार कुम्हार दीपक दे जाता है। शाम के समय लुहार घर-घर जाता है और दरवाजे की चौखट पर कील गाड़ता है। ये लोग इस काम के बदले पैसे नहीं लेते, उनको घर की महिला नाज(अन्न) देकर, उनके पैर पड़कर आशीर्वाद लेती हैं। ये परंपरा बुंदेलखंड गांव में आज भी है और इसका महत्व भी है।


इन परंपरा को इन गांवों में आज भी जिंदा रखा गया है क्योंकि इसे बड़े-बूढ़ों को सम्मान भी मिलता है। ऐसा करना बुंदेलखंड के गांव में शुभ माना जाता है।

गौ-पूजन


सूरज के ढलते ही गांव में पूजा की शुरूआत हो जाती है क्योंकि ये पूजा भी बहुत देर तक चलती है। इसमें सबसे पहले गाय की पूजा की जाती है। गाय के सींघों को हल्दी और घी से मड़ा जाता है और उनमें रस्सीनुमा मुड़कर बांधा जाता है। उसके बाद गाय को नमक खिलाया जाता है जो सबसे मुश्किल काम होता है। गाय के मुंह में हाथ डालकर नमक खिलाते हैं, सिर पर हल्दी चावल लगाकर उनका आशीर्वाद लेते हैं।

लक्ष्मी-पूजन


रात को होती है लक्ष्मी पूजन। जिसमें पूरा परिवार एक जगह इकट्ठा होता है और पूजा की सभी गतिविधियों में शामिल रहता है। लक्ष्मी पूजन घर का सबसे वृद्ध व्यक्ति करता है। पूजा करने के बाद सभी अपने से बड़ों का आशीर्वाद लेते हैं।


इसके बाद दीपकों को घर के हर कोने में रखा जाता है, हर कमरे में, यहां तक कि बाथरूम में भी। गांव में जहां-जहां परिवार की जगह होती है, सभी जगह दीपकों को रखा जाता है। जहां कूड़ा फेंकते हैं, अपने पूर्वजों की श्मशान स्थली पर, कुआं, तालाब पर। घर के सभी कोनों को इस दिन दीपक से रोशन किया जाता है। शायद इसलिए इसको दीपों का त्यौहार कहते हैं।

पूजा करने के बाद गांव के नौजवान पटाखे से आतिशबाजी करते है, जब तक घर की महिलायें सामूहिक भोजन की तैयारियां करती हैं। उसके बाद सभी लोग मिलकर एक साथ खुशी-खुशी खाना खाते हैं। ये बुंदेलखंड की दीपावली के दिन की परंपरा है। इसके कुछ दिनों तक ऐसी ही परंपराएं चलती रहती हैं। जिसमें गांव के लोगों की आपसी सहकारिता की झलक मिलती है।

गोधन पूजा


बुंदेलखंड में गोवर्धन पूजा को लेकर दो अलग-अलग मान्यताएं हैं। पहली मान्यता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने जमघट के दिन अपनी उंगली में गोवर्धन पर्वत उठा कर गोकुलवासियों की रक्षा की थी। तभी से पशुओं के गोबर का पर्वत बनाकर एक पखवाड़ा तक पूजा की जाने लगी।


दूसरी मान्यता है कि पशुओं का गोबर किसान का सबसे बड़ा धन है, इसलिए किसान गोबर की पूजा करता है।  गोवर्धन पर्वत में इस्तेमाल किए गए गोबर को एक पखवाड़ा बाद हर किसान अपने खेत में फेंककर अच्छी फसल की मन्नत मांगते हैं।

जो शहर जाते हैं वे फिर कभी गांव की उन मेड़ो की ओर लौट नहीं पाते हैं। लेकिन उन्हें खींचता है वो गांव जहां उनका एक कच्चा-पक्का घर है। उनको भी याद आते होंगे अपने गांव के दिन। जिसको शहर से हमेशा अच्छा ही कहा जाता है। उन लोगों को अब लौटना चाहिए क्योंकि दीपावली आ गई है और गांव बुला रहा है।

‘‘घरों को जोड़ने वाले ये रस्ते भले ही कच्चे हों,
पर यहां दिलों का जोड़ पक्का है,
इसलिए तेरे शहर से बुंदेलखंड के ये गांव अच्छे हैं।’’ 

Friday 19 October 2018

कुछ अलग तरीके से मनाते हैं बुंदेलखंड में दशहरा

आज पूरे देश में में दशहरा धूमधाम से मनाया जा रहा है। कहीं रावण को जला रहे हैं, कहीं पूजा की जा रही है और कहीं पीटा जा रहा है। अलग-अलग जगह की अपनी-अपनी मान्यताएं हैं। ऐसे में मुझे अपने बुंदेलखंड याद रहा है, अपना घर और अपना गांव याद आ रहा है। जो दशहरा पर दिवाली की तरह सज जाता है। बुंदेलखंड तो हमेशा से परंपरा को निभाते आ रहा है। आज भी बुंदेलखंड में गांव की संस्कृति देखी जा सकती है और ये सब देखकर मुझे देखकर गर्व होता है कि मैं उसी बुंदेलखंड धरा से हूं। उसी बुंदेलखंड में दशहरा को सिर्फ रावण जलाकर नहीं मनाते। हम उस दिन खुशियां आपस में बांटते हैं।


पान


पान जिसमें रसता और मिठास का गुण पाया जाता है। वो पान दशहरा पर हम मिठास के रूप् में खाते हैं। उस पान को पाने का भी एक तरीका है। ये नहीं कि दुकान पर गये और खरीदकर खा लिये। उस दिन हम प्यार के रूप में सबको खिलाते हैं। बुंदेलखंड की इस पान की संस्कृति पर विस्तार से बात करते हैं।

दशहरा के कुछ दिन पहले ही गांव के लोग बाजार जाकर पान लगाने का पूरा सामान खरीद लेते हैं। दशहरे के दिन पहले रावण दहन होता है उसके बाद घर में पूजा होती है। पूजा में बाजार से लाये हुये पान में एक पान लगाकर भगवान को चढ़ाते हैं और फिर अपनी पोटली लाकर घर के बाहर बैठ जाते हैं।


पान की दुकान पर जो सुपाड़ी, कत्था मिलता है, वही सामान होता है। पूजा करने के बाद लोग एक-दूसरे के यहां जाते हैं और दशहरा की बधाई विशेष संबोधन ‘दशहरा की राम-राम’ से करते हैं। इसके बाद सामने वाला उत्तर देता है और एक मीठा पान लगाकर उसे दे देता है। पूरे गांव में, सभी के घर के बाहर ऐसी दुकानें लगा होता है। मुझे याद है जब मैं छोटा था तो पूरे गांव के घर-घर घूमकर इतना पान खाया था कि अगली सुबह मेरा मुंह दर्द कर रहा था और गाल सुपाड़ी से छिल गया था।

घर के बड़े यह दुकान लगाते हैं तो वे ध्यान रखते हैं कि किसे कौन-सा पान खिलाना है। जो बड़े लोग होते हैं उनको चूना लगा पान लगाया जाता है और हम जैसे बच्चों को सादा पान दिया जाता था। तब हम बड़े गुस्से उनको देखते थे कि हमारे साथ ऐसा पक्षपात क्यों?

रावण दहन भी होता है।

बुंदेलखंड के दशहरे की दिन की शुरूआत की अलग ढंग से होती है। सुबह-सुबह कुछ शुभ  देखने की एक परंपरा रहती है। मछुआरे एक डिब्बे में मछली को पानी में डालकर घर-घर जाकर दिखाते हैं और गांव वाले उनको कुछ अंश देते हैं जो उनकी अजीविका भी होती है। कहा जाता है कि इस दिन मछली के दर्शन करने से आपका साल अच्छा बना रहता है।

इसके बाद शाम को रावण के दहन के बाद पूजा होती है। पूजा के बाद लोग एक-दूसरे के सम्मान के लिए पान खिलाते हैं। दशहरा में इस पान का बुंदेलखंड में बहुत महत्व है। पहले राजदरबार में अतिथि के स्वागत के लिए पान खिलाने का ही चलन था। आज के दिन मुझे वो पान बड़ा याद आ रहा है। हमें दशहरा के दिन रावण को जलाने की खुशी नहीं होती थी जितनी घर-घर जाकर ‘दशहरा की राम-राम’ कहकर पान खान की। आज दशहरे पर मैं रावण को जलते हुए तो देख लूंगा लेकिन वो गांव का पान कहां से आएगा जो बिना कहे ही मेरे मुंह में ठूंस दिया जाता था। उस पान की टीस एक बुंदेलखंड का ही व्यक्ति ही समझ सकता है। जैसे कि इस समय मैं।