अल्वी उस्ताद की मृदंग, ढोलकी पर पड़ती थाप, हल्काईं भैय्या झकझोरने वाला झीका, बसोर दद्दा की कांसे की बजती कसारी, ढीमर कक्का की हास्य विनोद करती सारंगी, सुक्के कुमार की जोकरी और डांगी चचा का रमतूला। ये सभी जब बजते तो पूरी प्रकृति झंकार करने लगती। इन्हीं मधुर झंकार के बीच शांति, समानता और लोक परंपरा से होता है दिवारी नृत्य(बुंदेलखंड में दीपावली को दिवारी कहते हैं)।
बुंदेलखंड में दीपावली तब तक अधूरी ही मानी जाती है। जब तक दिवारी नृत्य नहीं होता है। जब तक हमारे गांव के भरतू बब्बा उछल-उछलकर नाचते नहीं है, दीवाली अधूरी सी लगती है। नृत्य ऐसा कि आज के जवानों को भी पीछे छोड़ दें। इसे देखकर एक जोश सा आ जाता है और लगता है हम भी इसी लोक नृत्य में शामिल हों जायें।
मैं इस दिवारी नृत्य को बचपन से ही देखता आ रहा हूं। मैं दीवाली का इंतजार पटाखे से ज्यादा इस नृत्य के लिए करता था। हमें दिवारी खेलनी(दिवारी नृत्य) नहीं आती थी लेकिन उछल-कूद किया करते थे। इस नृत्य में सभी खुशी-खुशी शामिल होते हैं और उल्लास और प्रेम से अपनी लोक परंपरा में भीने रहते हैं।
बुंदेलखंड के गांव में दीपावली के अगले दिन ज्यादा चहल-पहल रहती है। पूरा गांव एक सार्वजनिक स्थल पर जमा होते हैं और गइया का खेल देखते हैं। यह एक ऐसी परंपरा है जो वर्षों से चली आ रही है। जिसमें गांव वालों का आपसी भाईचारा और प्रेम देखने को मिलता है।
इसमें गाय और बछड़े को सार्वजनिक स्थल पर लाया जाता है। वहां गाय के बछड़े को उसकी मां से अलग किया जाता है। गाय के आगे मोर के पंख लहराये जाते हैं। ऐसा तब तक किया जाता है जब तक रमाती नहीं है। यानि कि अपने बछड़े को पुकारती नहीं है। लोगों का मानना है कि गाय के रमाती है तो वो साल उनके लिए अच्छा होता है। ऐसा होते ही गांव में उत्सव होने लगता है।
गाय खेलते ही गांव में दिवारी नृत्य शुरू हो जाता है। कुछ लोग जो एक विशेष प्रकार की पोशाक पहने रहते हैं। वो नाचना और गाना शुरू कर देते हैं और गांव वाले उसको देखकर मन ही मन खुश होते हैं।
इस नृत्य की एक पूरी विधि है और इसके लिए वस्त्र भी हैं। नृत्य करने वाले कमर में झेला बांधे रहते हैं जो घंटीनुमा होता है जो नाचते समय आवाज करता है। लौंगा झूमर वस्त्र होता है जिसे हनुमान जी पहनते थे। इसको पहनने के पहले और उतरने के बाद प्रणाम करते हैं। लोग इसको पहनकर मल-मूत्र को नहीं जाते हैं। इस दिवारी के साथ मृदंग, ढोलक, मजीरा, झीका, नगड़िया, कांसे की थाली, रमतूला जैसे वाद्ययंत्रों के बीच लोगों दिवारी नृत्य में झूमते हैं।
कोई व्यक्ति दीपावली गाता है जो असल में रामायण और कबीर के दोहे, छंद होते हैं। जिनमें उपदेशात्मक बातें छिपी होती हैं। होती हैं। जिनको सुनकर लोग दिवारी नृत्य के आनंद में पूरे गांव में नाचते रहते हैं।
ये नृत्य इतना लयबद्ध होता है कि आपके पैर भी थिरकने लगेंगे। ढोलक की थाप पर लोगों के डड़े आपस में टकराते हैं। जोशीले अंदाज में एक-दूसरे पर लाठी से प्रहार करते हैं। ताबड़तोड़ लाठियां बरसने के बाद भी किसी को भी चोट नहीं आती। जब ये आपस में टकराते हैं तो सुनकर मजा ही आ जाता है। इस नृत्य के सामने वो बालीवुड वाला संगीत भी बौना लगता है।
शहर में लोगों के बसने के कारण दिवारी अब नौजवानों को नहीं आती। क्योंकि दीवारी कोई सिखाने की चीज नहीं है यह तो मस्ती-मस्ती में आ जाती है। लेकिन जब गांव में रहेंगे ही नहीं तो आयेगी कैसे? इसलिए दीपावली के दिन लोग इस नृत्य को देखने आते हैं। आधुनिकता ने इस नृत्य पर भी कठोराघात किया है।
इस आधुनिकता के बीच आज भी इस दीवारी का हमारे गांव में होना एक सुकून की बात है कि लोग भले ही घरों में पटाखे और दिये जलाकर दीपावली मना रहे हों। उसमें मेरा गांव आज भी लोक संस्कृति को आगे बढ़ा रहा है। कुछ युवा हैं जो इस लोक परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। ऐसे दीवारी नृत्य ही तो हमारे बुंदेलखंड की शान हैं जो हमें हर त्यौहार पर कुछ खास करने का मौका देते हैं। उस दिन दीवारी की थाप ऐसी गूंजती है जो पूरे साल भर बनी रहती है।
समय-समय की बात है, समय बहुत बलवाने
भीलन लूटी गोपियां वेई अर्जुन, वेई बाने।
दिवारी नृत्य |
मैं इस दिवारी नृत्य को बचपन से ही देखता आ रहा हूं। मैं दीवाली का इंतजार पटाखे से ज्यादा इस नृत्य के लिए करता था। हमें दिवारी खेलनी(दिवारी नृत्य) नहीं आती थी लेकिन उछल-कूद किया करते थे। इस नृत्य में सभी खुशी-खुशी शामिल होते हैं और उल्लास और प्रेम से अपनी लोक परंपरा में भीने रहते हैं।
परंपरा गाय की
बुंदेलखंड के गांव में दीपावली के अगले दिन ज्यादा चहल-पहल रहती है। पूरा गांव एक सार्वजनिक स्थल पर जमा होते हैं और गइया का खेल देखते हैं। यह एक ऐसी परंपरा है जो वर्षों से चली आ रही है। जिसमें गांव वालों का आपसी भाईचारा और प्रेम देखने को मिलता है।
इसमें गाय और बछड़े को सार्वजनिक स्थल पर लाया जाता है। वहां गाय के बछड़े को उसकी मां से अलग किया जाता है। गाय के आगे मोर के पंख लहराये जाते हैं। ऐसा तब तक किया जाता है जब तक रमाती नहीं है। यानि कि अपने बछड़े को पुकारती नहीं है। लोगों का मानना है कि गाय के रमाती है तो वो साल उनके लिए अच्छा होता है। ऐसा होते ही गांव में उत्सव होने लगता है।
मौनिया जिनके हाथों में मोर के पंख होते हैं वे कई गांव के चक्कर लगाने के लिए भागते हैं और जो बीच में बोल गया। उस मोर के पंख मारकर याद दिलाया जाता है कि बोलना नहीं है।इन मौनियों के पास मोर पंख का गुच्छा होता है। जिससे पता चलता है कि कि उन्होंने कितनी बार दीपावली पर व्रत किया है। जिसकी संख्या हर साल बढ़ती जाती है। ये लोग पूरे दिन व्रत रहते हैं। इन्हें प्यास लगती है तो हाथ पीछे करके गाय की तरह पानी पीते हैं। इनका ये व्रत शाम की पूजा के बाद पूरा होता है। मुनियों के इस झुंड को देखना शुभ माना जाता है।
दिवारी नृत्य
गाय खेलते ही गांव में दिवारी नृत्य शुरू हो जाता है। कुछ लोग जो एक विशेष प्रकार की पोशाक पहने रहते हैं। वो नाचना और गाना शुरू कर देते हैं और गांव वाले उसको देखकर मन ही मन खुश होते हैं।
इस नृत्य की एक पूरी विधि है और इसके लिए वस्त्र भी हैं। नृत्य करने वाले कमर में झेला बांधे रहते हैं जो घंटीनुमा होता है जो नाचते समय आवाज करता है। लौंगा झूमर वस्त्र होता है जिसे हनुमान जी पहनते थे। इसको पहनने के पहले और उतरने के बाद प्रणाम करते हैं। लोग इसको पहनकर मल-मूत्र को नहीं जाते हैं। इस दिवारी के साथ मृदंग, ढोलक, मजीरा, झीका, नगड़िया, कांसे की थाली, रमतूला जैसे वाद्ययंत्रों के बीच लोगों दिवारी नृत्य में झूमते हैं।
कोई व्यक्ति दीपावली गाता है जो असल में रामायण और कबीर के दोहे, छंद होते हैं। जिनमें उपदेशात्मक बातें छिपी होती हैं। होती हैं। जिनको सुनकर लोग दिवारी नृत्य के आनंद में पूरे गांव में नाचते रहते हैं।
ये नृत्य इतना लयबद्ध होता है कि आपके पैर भी थिरकने लगेंगे। ढोलक की थाप पर लोगों के डड़े आपस में टकराते हैं। जोशीले अंदाज में एक-दूसरे पर लाठी से प्रहार करते हैं। ताबड़तोड़ लाठियां बरसने के बाद भी किसी को भी चोट नहीं आती। जब ये आपस में टकराते हैं तो सुनकर मजा ही आ जाता है। इस नृत्य के सामने वो बालीवुड वाला संगीत भी बौना लगता है।
अब जा रही है ये परंपरा
शहर में लोगों के बसने के कारण दिवारी अब नौजवानों को नहीं आती। क्योंकि दीवारी कोई सिखाने की चीज नहीं है यह तो मस्ती-मस्ती में आ जाती है। लेकिन जब गांव में रहेंगे ही नहीं तो आयेगी कैसे? इसलिए दीपावली के दिन लोग इस नृत्य को देखने आते हैं। आधुनिकता ने इस नृत्य पर भी कठोराघात किया है।
इस आधुनिकता के बीच आज भी इस दीवारी का हमारे गांव में होना एक सुकून की बात है कि लोग भले ही घरों में पटाखे और दिये जलाकर दीपावली मना रहे हों। उसमें मेरा गांव आज भी लोक संस्कृति को आगे बढ़ा रहा है। कुछ युवा हैं जो इस लोक परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। ऐसे दीवारी नृत्य ही तो हमारे बुंदेलखंड की शान हैं जो हमें हर त्यौहार पर कुछ खास करने का मौका देते हैं। उस दिन दीवारी की थाप ऐसी गूंजती है जो पूरे साल भर बनी रहती है।
समय-समय की बात है, समय बहुत बलवाने
भीलन लूटी गोपियां वेई अर्जुन, वेई बाने।