Showing posts with label budelkhand villages in dipawali. Show all posts
Showing posts with label budelkhand villages in dipawali. Show all posts

Tuesday, 6 November 2018

दिवारी नृत्यः बुंदेलखंड के इस लोक नृत्य में पूरा गांव झूमता रहता है

अल्वी उस्ताद की मृदंग, ढोलकी पर पड़ती थाप, हल्काईं भैय्या झकझोरने वाला झीका, बसोर दद्दा की कांसे की बजती कसारी, ढीमर कक्का की हास्य विनोद करती सारंगी, सुक्के कुमार की जोकरी और डांगी चचा का रमतूला। ये सभी जब बजते तो पूरी प्रकृति झंकार करने लगती। इन्हीं मधुर झंकार के बीच शांति, समानता और लोक परंपरा से होता है दिवारी नृत्य(बुंदेलखंड में दीपावली को दिवारी कहते हैं)।

दिवारी नृत्य
बुंदेलखंड में दीपावली तब तक अधूरी ही मानी जाती है। जब तक दिवारी नृत्य नहीं होता है। जब तक हमारे गांव के भरतू बब्बा उछल-उछलकर नाचते नहीं है, दीवाली अधूरी सी लगती है। नृत्य ऐसा कि आज के जवानों को भी पीछे छोड़ दें। इसे देखकर एक जोश सा आ जाता है और लगता है हम भी इसी लोक नृत्य में शामिल हों जायें।

मैं इस दिवारी नृत्य को बचपन से ही देखता आ रहा हूं। मैं दीवाली का इंतजार पटाखे से ज्यादा इस नृत्य के लिए करता था। हमें दिवारी खेलनी(दिवारी नृत्य) नहीं आती थी लेकिन उछल-कूद किया करते थे। इस नृत्य में सभी खुशी-खुशी शामिल होते हैं और उल्लास और प्रेम से अपनी लोक परंपरा में भीने रहते हैं।

परंपरा गाय की


बुंदेलखंड के गांव में दीपावली के अगले दिन ज्यादा चहल-पहल रहती है। पूरा गांव एक सार्वजनिक स्थल पर जमा होते हैं और गइया का खेल देखते हैं। यह एक ऐसी परंपरा है जो वर्षों से चली आ रही है। जिसमें गांव वालों का आपसी भाईचारा और प्रेम देखने को मिलता है।


इसमें गाय और बछड़े को सार्वजनिक स्थल पर लाया जाता है। वहां गाय के बछड़े को उसकी मां से अलग किया जाता है। गाय के आगे मोर के पंख लहराये जाते हैं। ऐसा तब तक किया जाता है जब तक रमाती नहीं है। यानि कि अपने बछड़े को पुकारती नहीं है। लोगों का मानना है कि गाय के रमाती है तो वो साल उनके लिए अच्छा होता है। ऐसा होते ही गांव में उत्सव होने लगता है।

मौनिया जिनके हाथों में मोर के पंख होते हैं वे कई गांव के चक्कर लगाने के लिए भागते हैं और जो बीच में बोल गया। उस मोर के पंख मारकर याद दिलाया जाता है कि बोलना नहीं है।  
 इन मौनियों के पास मोर पंख का गुच्छा होता है। जिससे पता चलता है कि कि उन्होंने कितनी बार दीपावली पर व्रत किया है। जिसकी संख्या हर साल बढ़ती जाती है। ये लोग पूरे दिन व्रत रहते हैं। इन्हें प्यास लगती है तो हाथ पीछे करके गाय की तरह पानी पीते हैं। इनका ये व्रत शाम की पूजा के बाद पूरा होता है। मुनियों के इस झुंड को देखना शुभ माना जाता है।

दिवारी नृत्य


गाय खेलते ही गांव में दिवारी नृत्य शुरू हो जाता है। कुछ लोग जो एक विशेष प्रकार की पोशाक पहने रहते हैं। वो नाचना और गाना शुरू कर देते हैं और गांव वाले उसको देखकर मन ही मन खुश होते हैं।

इस नृत्य की एक पूरी विधि है और इसके लिए वस्त्र भी हैं। नृत्य करने वाले कमर में झेला बांधे रहते हैं जो घंटीनुमा होता है जो नाचते समय आवाज करता है। लौंगा झूमर वस्त्र होता है जिसे हनुमान जी पहनते थे। इसको पहनने के पहले और उतरने के बाद प्रणाम करते हैं। लोग इसको पहनकर मल-मूत्र को नहीं जाते हैं। इस दिवारी के साथ मृदंग, ढोलक, मजीरा, झीका, नगड़िया, कांसे की थाली, रमतूला जैसे वाद्ययंत्रों के बीच लोगों दिवारी नृत्य में झूमते हैं।

कोई व्यक्ति दीपावली गाता है जो असल में रामायण और कबीर के दोहे, छंद होते हैं। जिनमें उपदेशात्मक बातें छिपी होती हैं। होती हैं। जिनको सुनकर लोग दिवारी नृत्य के आनंद में पूरे गांव में नाचते रहते हैं।


ये नृत्य इतना लयबद्ध होता है कि आपके पैर भी थिरकने लगेंगे। ढोलक की थाप पर लोगों के डड़े आपस में टकराते हैं। जोशीले अंदाज में एक-दूसरे पर लाठी से प्रहार करते हैं। ताबड़तोड़ लाठियां बरसने के बाद भी किसी को भी चोट नहीं आती। जब ये आपस में टकराते हैं तो सुनकर मजा ही आ जाता है। इस नृत्य के सामने वो बालीवुड वाला संगीत भी बौना लगता है।

अब जा रही है ये परंपरा


शहर में लोगों के बसने के कारण दिवारी अब नौजवानों को नहीं आती। क्योंकि दीवारी कोई सिखाने की चीज नहीं है यह तो मस्ती-मस्ती में आ जाती है। लेकिन जब गांव में रहेंगे ही नहीं तो आयेगी कैसे? इसलिए दीपावली के दिन लोग इस नृत्य को देखने आते हैं। आधुनिकता ने इस नृत्य पर भी कठोराघात किया है।

इस आधुनिकता के बीच आज भी इस दीवारी का हमारे गांव में होना एक सुकून की बात है कि लोग भले ही घरों में पटाखे और दिये जलाकर दीपावली मना रहे हों। उसमें मेरा गांव आज भी लोक संस्कृति को आगे बढ़ा रहा है। कुछ युवा हैं जो इस लोक परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। ऐसे दीवारी नृत्य ही तो हमारे बुंदेलखंड की शान हैं जो हमें हर त्यौहार पर कुछ खास करने का मौका देते हैं। उस दिन दीवारी की थाप ऐसी गूंजती है जो पूरे साल भर बनी रहती है।

समय-समय की बात है, समय बहुत बलवाने
भीलन लूटी गोपियां वेई अर्जुन, वेई बाने।

Saturday, 3 November 2018

बुंदेलखंड की दीवाली में लोक परंपरा का सहकार लोगों में प्यार बांटता है

दीपावली हमारा ऐसा पर्व है जो हमारे अंदर खुशियां भर देता है। इस दिन हर गली, चौक, मोहल्ला जगमग रहते हैं। दीपावली ऐसा पर्व है जिसे हर कोई खास बनाना चाहता है इसलिये तो हम इन खुशियों को बांटते हैं, दोस्तों के साथ, परिवार के साथ। दीपावली हर जगह अलग-अलग तरीके से मनाई जाती है। शहरों में एक ही तरह की होती है, पटाखों वानी। लेकिन दीपावली तो दीपों का पर्व है इस दिन तो बस दीप जलने चाहिये मन के भी और घर के भी।


अगर दीपों वाली दीपावली देखनी है, परिवार वाली दीपावली देखनी है तो बुंदेलखंड के गांवों में आना चाहिये। यहां दीपावली ऐसे मनाई जाती है जैसे कोई जलसा हो। शहर में रहने वाले लोग सोचते हैं कि रात में पूजा करना ही दीवाली है। लेकिन दीपावली तो सूरज के पहर से ही शुरू हो जाती है। वो बात अलग है कि शहर में बसावट के कारण अपनी मौलिक परंपरा को भूलते जा रहे हैं। लेकिन बुंदेलखंड के गांव आज भी उन्हीं परंपराओं में जगमग होकर दीपावली मनाते हैं।

दशहरे से तैयारी


दशहरे के साथ बुंदेलखंड में दीपावली की तैयारियां शुरू होने लगती हैं। चूने, मिट्टी से बने घरों की मरम्मत करके उनको साफ किया जाता है। हर हाल में सफाई दीपावली से पहले हो जाती है। अगर गांव में किसी की सफाई रह जाती है तो एक-दूसरे की मदद करके पूरा किया जाता है।

दीपावली में बुंदेलखंड के गांवों में रौनक रहती है। जो नौजवान रोजगार के लिए साल भर शहर में रहते हैं। वे दीपावली को जरूर आते हैं। उन्हीं लोगों के साथ गांव चौक चौबंद होने लगते हैं। घर में हंसी के पटाखे छूटने लगते हैं।

दीपवाली का दिन


दीपावली के दिन सुबह होते ही गांव का जुलाहा गांव के हर घर में जाता है। चाहे किसी भी धर्म का हो। जुलाहा दीपक जलाने के लिए रूई दे जाता है। इसी प्रकार कुम्हार दीपक दे जाता है। शाम के समय लुहार घर-घर जाता है और दरवाजे की चौखट पर कील गाड़ता है। ये लोग इस काम के बदले पैसे नहीं लेते, उनको घर की महिला नाज(अन्न) देकर, उनके पैर पड़कर आशीर्वाद लेती हैं। ये परंपरा बुंदेलखंड गांव में आज भी है और इसका महत्व भी है।


इन परंपरा को इन गांवों में आज भी जिंदा रखा गया है क्योंकि इसे बड़े-बूढ़ों को सम्मान भी मिलता है। ऐसा करना बुंदेलखंड के गांव में शुभ माना जाता है।

गौ-पूजन


सूरज के ढलते ही गांव में पूजा की शुरूआत हो जाती है क्योंकि ये पूजा भी बहुत देर तक चलती है। इसमें सबसे पहले गाय की पूजा की जाती है। गाय के सींघों को हल्दी और घी से मड़ा जाता है और उनमें रस्सीनुमा मुड़कर बांधा जाता है। उसके बाद गाय को नमक खिलाया जाता है जो सबसे मुश्किल काम होता है। गाय के मुंह में हाथ डालकर नमक खिलाते हैं, सिर पर हल्दी चावल लगाकर उनका आशीर्वाद लेते हैं।

लक्ष्मी-पूजन


रात को होती है लक्ष्मी पूजन। जिसमें पूरा परिवार एक जगह इकट्ठा होता है और पूजा की सभी गतिविधियों में शामिल रहता है। लक्ष्मी पूजन घर का सबसे वृद्ध व्यक्ति करता है। पूजा करने के बाद सभी अपने से बड़ों का आशीर्वाद लेते हैं।


इसके बाद दीपकों को घर के हर कोने में रखा जाता है, हर कमरे में, यहां तक कि बाथरूम में भी। गांव में जहां-जहां परिवार की जगह होती है, सभी जगह दीपकों को रखा जाता है। जहां कूड़ा फेंकते हैं, अपने पूर्वजों की श्मशान स्थली पर, कुआं, तालाब पर। घर के सभी कोनों को इस दिन दीपक से रोशन किया जाता है। शायद इसलिए इसको दीपों का त्यौहार कहते हैं।

पूजा करने के बाद गांव के नौजवान पटाखे से आतिशबाजी करते है, जब तक घर की महिलायें सामूहिक भोजन की तैयारियां करती हैं। उसके बाद सभी लोग मिलकर एक साथ खुशी-खुशी खाना खाते हैं। ये बुंदेलखंड की दीपावली के दिन की परंपरा है। इसके कुछ दिनों तक ऐसी ही परंपराएं चलती रहती हैं। जिसमें गांव के लोगों की आपसी सहकारिता की झलक मिलती है।

गोधन पूजा


बुंदेलखंड में गोवर्धन पूजा को लेकर दो अलग-अलग मान्यताएं हैं। पहली मान्यता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने जमघट के दिन अपनी उंगली में गोवर्धन पर्वत उठा कर गोकुलवासियों की रक्षा की थी। तभी से पशुओं के गोबर का पर्वत बनाकर एक पखवाड़ा तक पूजा की जाने लगी।


दूसरी मान्यता है कि पशुओं का गोबर किसान का सबसे बड़ा धन है, इसलिए किसान गोबर की पूजा करता है।  गोवर्धन पर्वत में इस्तेमाल किए गए गोबर को एक पखवाड़ा बाद हर किसान अपने खेत में फेंककर अच्छी फसल की मन्नत मांगते हैं।

जो शहर जाते हैं वे फिर कभी गांव की उन मेड़ो की ओर लौट नहीं पाते हैं। लेकिन उन्हें खींचता है वो गांव जहां उनका एक कच्चा-पक्का घर है। उनको भी याद आते होंगे अपने गांव के दिन। जिसको शहर से हमेशा अच्छा ही कहा जाता है। उन लोगों को अब लौटना चाहिए क्योंकि दीपावली आ गई है और गांव बुला रहा है।

‘‘घरों को जोड़ने वाले ये रस्ते भले ही कच्चे हों,
पर यहां दिलों का जोड़ पक्का है,
इसलिए तेरे शहर से बुंदेलखंड के ये गांव अच्छे हैं।’’