Tuesday 23 August 2022

काजा से लागंजा गांव, हिक्किम, कोमिक और धनकर मोनेस्ट्री की यात्रा

हर घूमने वाला व्यक्ति नई-नई जगहों पर जाना चाहता है। ऐसे ही सफर की तलाश में कहीं न कहीं निकल जाते हैं। ऐसे ही सफर पर मैं निकला था जो दिल्ली से शुरू होकर हिमाचल की स्पीति घाटी में पहुँच गया। स्पीति वैली के काजा शहर में पैदल चला तो लगा कि ये जगह तो लोगों से भरी हुई है लेकिन ऊँचाई से देखने पर ये शहर सुंदर-सा लगा। अब काजा नहीं हमें स्पीति की यात्रा करनी थी।

काजा को हमने लगभग एक्सप्लोर कर लिया था और बुलेट के लिए दुकानदार से बात भी हो गई थी। हम अगले दिन सुबह-सुबह तैयार होकर दुकान पर पहुँच गए। दुकान पर पहुँचे तो दुकान बंद मिली। हमने नंबर लगाया तो उठा नहीं। कुछ देर में हमारी तरह दो लोग और आ गए। उन्होंने कॉल किया तो किस्मत से फोन उठ गया। कुछ देर में दुकान खुल गई। हमने कल की बुकिंग के बारे में बताया। उसने गाड़ी चेक की और हमें टेस्ट ड्राइव के लिए दे दी।

हम काजा से निकलकर एक ऑफ रोड पर टेस्ट ड्राइव के लिए निकल पड़े। मुझे तो बाइक चलानी आती नहीं है तो देवेश को ही पूरे दिन गाड़ी चलानी है। हम फिर से दुकान लौटे और ओके बोलकर निकल पड़े। हम काजा में ही थे की एक जगह हमारी गाड़ी फिसलकर गिर गई। हालांकि हमें कुछ नहीं हुआ और गाड़ी भी ठीक थी। हम थोड़ी देर में पेट्रोल पंप पर पहुँचे। हमने अपनी जरूरत के अनुसार पेट्रोल भरवाया और फिर निकल पड़े स्पीति की यात्रा पर।

रोमांच तो है!

काजा से निकलते ही रास्ता एकदम शानदार मिला। चारों तरफ ऊँची पहाड़ी, बगल में स्पीति नदी और हम इन वादियों के बीच में सरपट दौड़ते है। मैंने सोचा कि पूरा ऐसा रास्ता तो हमारा सफर तो मजेदार हो जाएगा। रास्ते में एक जगह तिराहा मिला। वहाँ एक बोर्ड भी लगा हुआ था। सीधा जाने पर लांगजा पहुँचेंगे और दाहिने तरफ जाने वाला रास्ता कोमिक जा रहा था। हमने लांगजा वाला रास्ता पकड़ लिया। अब यहाँ से कच्चा रास्ता शुरू हो गया।

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पहाड़ों में बाइक चलाने का एक अलग अनुभव होता है। खासकर स्पीति और लद्दाख के इलाके में। हम दोनों को ही वो अनुभव नहीं था। अब तक रास्ता पक्का था तो बुलेट चलाने में दिक्कत नहीं हो रही थी लेकिन कच्चा रास्ते आते ही दिक्कतें शुरू होने लगी। हमारी गाड़ी बार-बार रूक जा रही थी। मोड़ पर सबसे ज्यादा परेशानी हो रही थी। ऐसे ही रूकते हुए हम बढ़ते जा रहे थे। जिनको पहाड़ों में गाड़ी चलाने का अनुभव है, वो हमसे आगे निकलते जा रहे थे।

लांगजा

रास्ता कच्चा तो था ही, साथ में बड़े-बड़े पत्थर भी पड़े हुए थे जिससे काफी परेशानी हो रही थी। नजारे तो खूबसूरत ही थे लेकिन ऑफ रोड वाला ये रास्ता काफी परेशान कर रहा था। रास्ते में कुछ जगहों पर काम भी चल रहा था। काफी घुमावदार रास्तों को पार करने के बाद सीधा रास्ता शुरू हो गया। कुछ देर में हमें दूर से लांगजा गाँव दिखाई देने लगा। लांगजा गाँव से थोड़ी देर पहले पक्का रोड भी शुरू हो गया। हम कुछ देर में लांगजा पहुँच गए।

लांगजा स्पीति की सबसे ऊँचाई पर स्थित गाँव है। समुद्र तल से 14,500 फीट की ऊँचाई पर स्थित इस गाँव में पहुँचकर गाड़ी अपनी रोड किनारे लगाई। इसके बाद हम पैदल-पैदल बौद्ध स्टैच्यू की ओर निकल पड़े। बौद्ध स्टैच्यू लांगजा गाँव का मुख्य आकर्षण है। लांगजा तेज और सर्द हवा चल रही थी। स्टैच्यू वाकई में शानदार था। पहाड़ों के बीच में स्थित इतनी बड़ी मूर्ति मुख्य आकर्षण तो होना ही था।

बौद्ध स्टैच्यू को देखने के बाद हम पैदल-पैदल गाँव घूमने लगे। लांगजा गाँव में पारंपरिक मडहाउस बने दिखाई दे रहे थे और सभी पर होमस्टे का बोर्ड लगा हुआ था। हम एक जगह बैठे थे। तभी एक कच्चे घर से औरत निकली और चाय के बारे में पूछा। हम मना नहीं कर पाए और उस कच्चे घर में पहुँच गए। बात करने पर पता चला कि गाँव की कुछ महिलाओं ने मिलकर इस कैफे को शुरू किया है। हमने यहाँ चाय पी और जौ का लड्डू भी खाया। इसके बाद हम वापस अपनी बाइक के पास पहुँच गए। अब हमें यहाँ से हिक्कम जाना था।

हिक्किम

लांगजा की तरह हिक्किम भी एक छोटा-सा गाँव है। जहाँ पर दुनिया की सबसे ऊँचाई पर स्थित डाकघर है। अब उसी डाकघर को देखने के लिए हम निकल पड़े। रास्ता पक्का तो था तो गाड़ी भी बढ़िया चल रही थी और नजारे तो ऐसे कि हर जगह रूकने का मन कर रहा था। चेहरे पर पड़ने वाली ठंडी-ठंडी हवाएँ इस सफर को और भी शानदार बना रही थी। कुछ देर बाद दो रास्ते दिखाई दिए। पक्का रास्ता कोमिक ले जाता और कच्चा रास्ता हिक्किम के लिए था। हमने कच्चा रास्ता पकड़ लिया।

अब हम धीरे-धीरे कच्चे रास्ते पर बढ़ते जा रहे थे। कुछ देर बाद हम हिक्कि पहुँच गए। यहाँ आकर देखा तो लोगों का हुजूम उमड़ा था। यहाँ पोस्टकार्ड मिल रहे थे। जिन पर स्पीति के मुख्य आकर्षणों की फोटो बनी हुई थी। 30-35 रुपए में मिल रहे पोस्टकार्ड को खरीदा और फिर कुछ लिखा भी। अब हम हिक्किम गाँ की ओर बढ़ चले। डाकघर के पीछे की तरफ मुहर लगवाई और फिर आगे की तरफ जाकर डाकघर के डिब्बे में डाल दिया। मैं डाकघर के अंदर भी गया। दो महिलाएँ थीं, उन्होंने बताया कि ये उनका ही घर है और इसी में एक कमरे में डाकघर है।

कोमिक

हिक्किम से एक रास्ता सीधा कोमिक की ओर जाता है। हमने उसी कच्चे रास्ते को पकड़ लिया। कुछ देर बाद ये रास्ता पक्के रास्ते से मिल गया। इतनी ऊँचाई पर होना अपने आप में एक शानदार एहसास है। रास्ते में हरे-भरे बुग्याल थे। इतना साफ और सुनहरा आसमान शायद ही मैंने पहले कभी देखा था। कुछ मिनटों में हम कोमिक पहुँच गए। कोमिक दुनिया की सबसे ऊँचाई पर स्थित जगह है जहाँ तक मोटरेबल रोड है। कोमिक समुद्र तल से 15,550 फीट की ऊँचाई पर स्थित है।

कोमिक में दुनिया की सबसे ऊँचाई पर स्थित रेस्टोरेंट भी है। हम सबसे पहले इसी जगह पर पहुँचे। जाहिर है कि यहाँ हर चीज बहुत महंगी थी। हमने यहाँ कुछ नहीं खाया। इस जगह को देखने के बाद मोनेस्ट्री देखने के लिए निकल पड़े। मोनेस्ट्री का गेट बंद था लेकिन यहाँ से सुंदर नजारा देखने को मिला। इस नजारे को देखने के बाद हम एक और मोनेस्ट्री में गए। ये कोई मोनेस्ट्री नहीं है बल्कि लामा यहाँ रहते हैं। यहाँ बहुत सारे कमरे भी बने हुए हैं। इस जगह को देखने के बाद हम वापस लौटने लगे। हमने तय किया कि अब हम किब्बर की तरफ जाएँगे।

काजा

रास्ता शानदार था तो पता ही नहीं चली कि अब लांगजा गाँव पार कर गए। लांगजा गाँव के पार करने के बाद फिर से कच्चा रास्ता शुरू हो गया। हम आराम आराम से चलते जा रहे थे लेकिन एक मोड़ पर हमारा गिरना लिखा हुआ था। मैं, देवेश और गाड़ी तीनों जमीन पर पड़े हुए थे। हल्की-हल्की चोट आई और गाड़ी को भी कुछ चोट आ गई। गिरकर हम उठे और धीरे-धीरे बढ़ने लगे। दिमाग एकदम खराब हो गया और हमें जाना था किब्बर की तरफ लेकिन हम काजा लौट आए।

हमने यहाँ लंच किया और फिर धनकर मोनेस्ट्री देखने का तय किया। धनकर ताबो की तरफ है। उसी रास्ते से हम बस से काजा आए थे तो हमें रास्ता पता था। थोड़ी देर बाद हम उसी रास्ते से धनकर की ओर बढ़ते जा रहे थे। देवेश गिरने से पहले कच्चे रास्तों पर भी गाड़ी भगा रहा था लेकिन अब कोई गाड़ी आती तो देवेश बुलेट को एकदम धीमा कर लेता। लंगती गाँव पार करने के बाद हमें रास्ते में एक खूबसूरत झरना दिखाई दिया।

धनकर

इस वाटरफॉल को देखने के बाद हम घनकर की तरफ बढ़ चले। कुछ देर बाद हम धनकर गोंपा गेट पर पहुँच गए। गेट से धनकर 8 किमी. है। अब इस 8 किमी. के रास्ते को तय करने के लिए हम बढ़ने लगे। धनकर का रास्ता एकदम पक्का था लेकिन घुमावदार भी बहुत था। हम हर मोड़ के बाद ऊँचाई पर चले जा रहे थे। काफी देर बाद हमें धनकर दूर से दिखाई देने लगा और कुछ देर बाद हम धनकर पहुँच गए। इस जगह को दूर से देखने पर लगता कि मिट्टी के पहाड़ पर ये जगह बसी हुई है।

हम सीधे मोनेस्ट्री की तरफ बढ़ते चले गए। मोनेस्ट्री के अंदर फोटो और वीडियो लेना मना है तो हमने वो काम नहीं किया। मोनेस्ट्री के एक कमरे में घुसा तो वहाँ कोई नहीं था सिर्फ एक मूर्ति थी। दूसरे तल पर गया तो वहाँ कुछ लोग और लामा थे। एक कमरे में लामा मंत्र पढ़ रहे थे। मुझे कुछ समझ तो नहीं आया लेकिन मन को अच्छा ही लगा। शाम होने को थी और हमें काजा लौटना था। धनकर में लेक भी है लेकिन उसके लिए ट्रेक करना पड़ता है और हमारे पास उसका समय नहीं है।

हम शाम 7 बजे से पहले काजा पहुँच गए और बाइक भी लौटा दी। अब हमें लौटना था। हमारे पास दो रास्ते थे। पहला कि जिस रास्ते से आए हैं उसी से लौटे। काजा से शिमला होते हुए लौटना काफी लंबा और टाइम ले रहा था। दूसरा काजा से मनाली के लिए एक बस सुबह-सुबह जाती है। हमने रात में ही बस में टिकट बुक कर ली थी। जब मडहाउस लौटा तो दिन भर में काफी कुछ जी चुका था। कई खूबसूरत जगहें देखीं और गिरा भी तो हूं। स्पीति की कुछ जगहें अभी भी रह गई हैं जो अगली यात्रा के लिए छोड़ दिया हूं।

  

Saturday 20 August 2022

काजा: स्पीति घाटी की सबसे शानदार जगह, अलग-सा सुकून है यहाँ

पहाड़ों में हर बार जाकर सुकून-सा महसूस होता है। बहुत सारे लोग कहते हैं कि पहाड़ों में सभी जगहें एक जैसी ही तो होती है लेकिन मुझे तो पहाड़ों में हर जगह की अलग ही लगती है। हर जगह की अपनी खासियत होती है और अपनी सुरूर होता है। हिमाचल प्रदेश की स्पीति घाटी का भी एक अलग सुरूर है। तभी तो इस घाटी की सैर हर घुमक्कड़ करना चाहता है।

किन्नौर घाटी के नाको गाँव से मैं बस से स्पीति घाटी के काजा पहुँच गया। काजा स्पीति घाटी की सबसे लोकप्रिय जगहों में से एक है। काजा समुद्र तल से 3,800 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। अब तक मैं हिमाचल प्रदेश की जिन जगहों पर गया, वहाँ लोगों की भीड़ कम थी। काजा में उतरते ही ऐसा लगा कि किसी मेले में आ गया हूं। हिमाचल प्रदेश के इतने अंदरूनी इलाके में होने की वजह से यहाँ भीड़भाड़ बहुत थी। अब इसी भीड़भाड़ वाले काजा में हमें रहने का ठिकाना खोजना था।

गाड़ी और कमरा

काजा में रहने के ठिकाने से पहले किराये पर मिलने वाली बाइक के बारे में पता करना चाहते थे। आसपास काफी खोजबीन के बाद एक दुकान मिली, बीडी एंड ट्रेवल्स। उस दुकान पर गए तो पता चला कि उनके पास 11 गाड़ियाँ हैं और सभी सुबह चली गई हैं। उन्होंने बताया कि शाम 7 बजे सभी गाड़ियाँ वापस आएंगी तभी आपकी कल के लिए बुकिंग की जा सकती है। जानकारी से ये भी पता चला कि काजा में वो एकमात्र दुकान है, जहाँ किराए पर बाइक मिलती है। काजा में पहले कई दुकानें थीं, जहाँ बाइक किराए पर मिलती थीं लेकिन अब कॉमर्शियल इस्तेमाल के लिए पीले रंग की नंबर प्लेट वाली गाड़ियाँ होती हैं। काजा में अभी बीडी एंड ट्रेवल्स के पास ही पीले रंग की नंबर प्लेट वाली गाड़ियाँ हैं।

अब इतना तो पक्का हो गया था कि हमें काजा में ही रहना है तो अब हमारा अगला लक्ष्य रहने का ठिकाना खोजना था। मैं और देवेश अलग-अलग जगहों पर रहने की जगह खोजने लगे। देवेश को एक जगह सफलता मिल गई। हमने एक मडहाउस देखा और रहने के लिए फाइनल कर दिया। पहाड़ों में मडहाउस के बारे में मैंने सिर्फ सुना था लेकिन पहली बार उसमें ठहर रहा था। जिस व्यक्ति का मडहाउस है, उनका परिवार भी इसमें रहता है। मडहाउस की छत इतनी नीचे थी कि हमें झुक कर चलना पड़ रहा था। एक कमरे में 5 बिस्तर लगे हुए थे, जिसमें से 2 बिस्तर हम दोनों के थे।

काजा शहर

हम लोगों ने अपना सामान मडहाउस में रखा और काजा में घूमने के लिए निकल पड़े। काजा में इतनी भीड़ देखकर एकदम घुटन-सी हो रही थी। काजा में ज्यादातर लोग हमारे जैसे ही थे, घूमने वाले। हम काजा में बस ऐसे ही चलते जा रहे थे। मुझे एक मोनेस्ट्री दिखाई दी। हम लोग उसी मोनेस्ट्री की तरफ बढ़ने लगे। मोनेस्ट्री से पहले एक मोनेस्ट्री जैसी इमारत दिखाई दी। वहाँ काम कर रहे लोगों से बात करने पर पता चला कि ये लामाओ का स्कूल बनकर तैयार हो गया है जो जल्दी ही शुरू हो जाएगा। उन्होंने लामाओ के पुराने स्कूल की इमारत भी दिखाई।

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इसी रास्ते पर बढ़ते हुए हमें ऊपर की तरफ बौद्ध की मूर्ति दिखाई दी। काजा में ठंडी-ठंडी हवा चल रही थी जिससे आंखों में एकदम से जलन होने लगी। मैंने देवेश से थोड़ी देर के लिए चश्मा ले लिया। अब आंखों में राहत थी। हम बौद्ध की उसी मूर्ति की तरफ आगे बढ़ने लगे। वहाँ तक पहुँचने के लिए थोड़ी चढ़ाई भी करनी पड़ी। मूर्ति पर कुछ लोग काम कर रहे थे। बात करने पर पता चला कि इसी मूर्ति को हाल ही में रखा गया है। हम काजा कस्बे की सबसे ऊँची जगह पर थे।

यहाँ से पूरा काजा दिखाई दे रहा था। ऊँचाई से हर चीज अच्छी लगती है और ये पहाड़ है। नजारा वाकई में बेहद सुंदर है। दूर-दूर तक ऊँचे-ऊँचे पहाड़, उसके नीचे बहती स्पीति नदी और फिर ढेर सारे क्रंकीट की इमारतें। शाम होने को चली थी हालांकि अभी सनसेट नहीं हुआ था। हमें काजा मोनेस्ट्री भी देखनी थी। हम लोग नीचे उतरने लगे। कुछ ही मिनटों में हम नीचे उतर आए और फिर मोनेस्ट्री भी पहुँच गए। मोनेस्ट्री एकदम खाली थी। इसे काजा साक्या मोनेस्ट्री भी कहा जाता है।

काजा मोनेस्ट्री

काजा मोनेस्ट्री बेहद बड़ी है। मैंने जितनी मोनेस्ट्री देखी हैं उन सबमें काजा मोनेस्ट्री सबसे बड़ी है। इस मोनेस्ट्री का उद्घाटन 2009 में 14वें दलाई लामा ने किया था। शाम होने की वजह से मोनेस्ट्री का गेट बंद था। मैं सिर्फ अंदाजा लगा सकता हूं कि काजा मोनेस्ट्री बाहर से इतनी खूबसूरत है तो अंदर से कितनी सुंदर होगी। काजा मोनेस्ट्री के परिसर में कई इमारतें हैं जिनमें लामा रहते भी हैं।

कुछ देर काजा मोनेस्ट्री में बिताने के बाद हम बाहर आ गए। मोनेस्ट्री के सामने ही रोड पार आई लव स्पीति लिखा हुआ है। उसके पीछे आठ सुंदर-सुंदर स्तूप बने हुए हैं। ये सभी 8 स्तूप महात्मा बुद्ध के जीवन की प्रमुख घटनाओं को ध्यान में रखकर बनाए गए हैं। इसके पास में ही एक पेट्रोल पंप भी है। यहाँ पर गाड़ियों की लंबी लाइन लगी हुई थी। घड़ी में समय देखा तो 7 बज चुके थे। हम वापस लौटने लगे और थोड़ी देर बाद बाइक वाले की दुकान पर पहुँच गए। कड़ी मशक्कत के बाद हमें एक बुलेट गाड़ी मिल गई। हमें अगले दिन सुबह 8 बजे आकर इस गाड़ी को यहीं से लेना था।

इसके बाद हमने एक ढाबे पर खाना खाया और फिर वापस अपने मडहाउस में लौट आए। काजा में बाहर इतनी सर्दी थी लेकिन मडहाउस में ठंड का एहसास भी नहीं हो रहा था। बर्फबारी के दौरान काजा में इन घरों में सर्दी कम ही लगती होगी। काजा में आए हुए हमें कुछ ही घंटे हुए थे लेकिन काफी कुछ देख लिया था। स्पीति की असली यात्रा तो अभी शुरू भी नहीं हुई थी।

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Thursday 18 August 2022

किन्नौर वैली के नाको गांव से स्पीति घाटी के काजा तक की यात्रा, कल्पना से भी सुंदर

घुमक्कड़ों के लिए हिमाचल प्रदेश किसी खजाने से कम नहीं है। वैसे भी पहाड़ तो हर किसी को लुभाते हैं। कई सारी जगहों के होने के बावजूद लोग जाने क्यों चुनिंदा जगहों पर ही जाते हैं। हिमाचल प्रदेश की इन लोकप्रिय जगहों पर आपको सिर्फ भीड़ ही भीड़ मिलेगी। मैं पहली बार हिमाचल की यात्रा पर आया तो इन फेमस जगहों को छोड़कर कुछ छोटी जगहों पर गया। रामपुर बुशहर से यात्रा को शुरू किया। रिकांगपिओ और कल्पा होते हुए नाको पहुंचा। नाको के बाद अब मुझे स्पीति घाटी की यात्रा पर जाना है।

सुबह-सुबह हम नाको में उठ गए। नाको से स्पीति जाने वाली पहली बस सुबह 9:30 बजे आती है। ये बस काजा तक जाती है। पहले हम ताबो जाने वाले थे लेकिन अब हम काजा जा रहे हैं। होटल से चेक आउट करके हम सुबह 8 बजे ही नाको बस स्टैंड पहुंच गए। हमने सोचा कि बस से पहले कुछ और साधन मिल गया तो उससे काजा निकल जाएंगे। मैं आने जाने वाली गाड़ियों से लिफ्ट मांगने लगा। मैंने काजा की ओर जा रहे ट्रैक्टर से भी लिफ्ट मांगी। लगभग 1 घंटे तक जब सफलता नहीं मिली तो पास के ढाबे पर बैठ गया।

बस आ गई

सुबह से नाश्ता नहीं किया था इसलिए ढाबे पर परांठे का नाश्ता किया और बस का इंतजार करने लगे। 9:30 बज गए लेकिन बस नहीं आई। 10 बज गए लेकिन फिर भी बस नहीं दिखाई दी। मैंने सोचा कि रास्ते में बस बिगड़ तो नहीं गई। ऐसा ही कुछ सोच रहा था तभी सामने से बस आते हुए दिखाई दी। नाको में बस आधे घंटे के लिए रूकती है। हमने पीछे वाली सीट पकड़ ली। तभी एक विदेशी व्यक्ति भी बस में घुसा। उसका नाम तोमरे है और वो इजराइल का है। तोमरे एक महीने से पूरे हिमाचल में घूम रहा है और अब धनकर जा रहा है।

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लगभग 10:30 बजे बस काजा के लिए चल पड़ी। हम फिर से घुमावदार रास्ते पर थे। बस में बिहार के कई लोग बैठे थे जो दशकों से स्पीति में काम कर रहे थे। बस के बाहर नजारा वाकई में खूबसूरत था। रास्ता बेहद खराब मिल रहा था। बस के सामने कोई गाड़ी आ जाती तो बड़ी सावधानी के साथ दोनों गाड़ियां निकलतीं। कई जगहों पर कच्चे रास्तों पर काम भी हो रहा था। इन रास्तों पर गाड़ी चलाना कोई आसान काम नहीं है।

थोड़ी देर बाद हम ऊंचाई से समतल रास्ते पर आ गए। रास्ते के बगल से नदी भी बह रही है। नाको से काजा की दूरी 110 किमी. है। मैंने अनुमान लगाया कि 1 या 2 बजे तक हम काजा पहुंच जाएंगे लेकिन जैसा रास्ता मिल रहा है, उससे अनुमान हो गया काजा पहुंचने में समय लगेगा। अच्छी बात ये थी कि इतने अंदरूनी इलाके में बिजली और नेटवर्क अच्छा था। हर गांव में मुझे एक टावर लगा हुआ दिखाई दे रहा था। कई घंटों की यात्रा के बाद एक आईटीबीपी का चेक पोस्ट आया। यहां पर विदेश से आए लोगों का परमिट चेक किया जाता है। तोमरे का भी परमिट देखा गया।

दोपहर के 12:30 बजे हमारी बस हुरलिंग में रूकी। हुरलिंग स्पीति वैली का एक छोटा-सा गांव है। धूप बहुत तेज थी और यहां गर्म हवा भी चल रही थी। ऐसा लगा कि पतझड़ का मौसम शुरू हो गया है। हुरलिंग में कुछ होमस्टे दिखाई दे रहे थे। हम तोमरे के साथ एक ढाबे में बैठे। मैंने सूप पिया और तोमरे ने इंडियन थाली मंगवाई। लगभग आधे घंटे के बाद बस फिर से चल पड़ी। अब रास्ते में खूब सारे गांव दिखाई दे रहे थे। गांव का बोर्ड भी रोड पर लगा हुआ था। जिस पर गांव की जनसंख्या भी लिखी है। कुछ गांव की जनसंख्या तो सिर्फ 30 थी। ये गांव वाकई में अद्भुत थे।

काजा अब आएगा

लगभग 2 बजे हमारी बस ताबो में रूकी। एक बार तो मन किया कि यहीं पर उतर जाऊं लेकिन फिर मन को समझाया और बस में बैठकर ही दूर से ही ताबो देखा। गर गांव के बाहर बस रूकती। कुछ लोग उतरते और कुछ लोग चढ़ते। थोड़ी देर बाद सिचलिंग आया और धनकर गोंपा गेट आया। यहीं से धनकर मोनेस्ट्री के लिए रास्ता जाता है। धनकर गोंपा गेट से धनकर 8 किमी. की दूरी पर है। घनकर के पार करते ही खूबसूरत रास्ता शुरू हो गया। जरा कल्पना करिए, चारों तरफ पहाड़ ही पहाड़, पास मे बहती नदी और आपकी कल्पना से भी साफ आसमान। इससे खूबसूरत रास्ता क्या ही होगा?

ऐसे ही खूबसूरती को निहारने के लिए एक जगह बस 10 मिनट के लिए रूकी और फिर चल पड़ी। सुबह 10 बजे से हम बस में बैठे थे और बढ़े ही जा रहे थे लेकिन काजा आने का नाम ही नहीं ले रहा था। लगभग 4 बजे हमारी बस काजा में घुस गई। हम काजा के बस स्टैंड पर पहुंच गए। हमारी स्पीति की यात्रा इसी काजा से शुरू होने थी। स्पीति की यात्रा में कई रोमांचकारी और सुंदर पल आने अभी बाकी थे।

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Friday 12 August 2022

हिमाचल प्रदेश का एक सीक्रेट ट्रेक, जहां से मैंने देखा अपनी जिंदगी का सबसे प्यारा सूर्यास्त

मेरा ऐसा मानना है कि हिमालय पूरी दुनिया का सबसे खूबसूरत खजाना है। हिमाचल प्रदेश की किन्नौर वैली का नाको गांव इसी हिमालय का शानदार नगीना है। हमने जब हिमाचल प्रदेश की यात्रा का प्लान बनाया था तो ये तय किया था कि सिर्फ शहर और गांव देखेंगे, कोई ट्रेक नहीं करेंगे। उसके के लिए बाद में अलग से प्लान बनाएंगे लेकिन नाको गांव में हमने एक शानदार ट्रेक किया। मैंने नाको में एक ऊंची पहाड़ी से अपनी जिंदगी का सबसे खूबसूरत सूर्यास्त देखा।

नाको में हम सुबह से हैं। सबसे पहले हमने नाको झील देखी, उसके बाद एक गोंपा देखा और आखिर में शानदार नाको मोनेस्ट्री देखी। 4 बज चुके थे और हम अपने होटल के कमरे में बैठे थे। हमने नाको की किसी ऊंची जगह से सूर्यास्त देखने का प्लान बनाया। काफी सोच-विचार के बाद हमने गोंपा की तरफ जाने का मन बनाया। आपको बता दें कि नाको एक छोटा-सा गांव है। यहां ना कोई एटीएम और न ही पेट्रोल पंप है। नेटवर्क की बात करें तो वोडाफोन को छोड़ दिया जाए तो सारे नेटवर्क अच्छे आ रहे हैं।

नाको में क्रिकेट

क्रिकेट का मैदान।
हम पैदल चलते-चलते गोंपा के पास में आ गए। यहां खूब सारे पत्थर रखे हुए हैं जिन पर शायद तिब्बती भाषा में कुछ लिखा हुआ है। सुबह ही हमने यहां बोर्ड पर पढ़ा था कि ये नाको पवित्र क्षेत्र है। हम इन पत्थरों को देखते हुए आगे बढ़े तो एक रास्ता ऊपर की ओर जाता हुआ दिखाई दिया। ऊंचाई की ओर जाने वाला ये रास्ता पूरी तरह से ट्रेक की तरह लग रहा था। हमारे पास समय था तो हमने उस रास्ते पर चलने का तय किया।

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कुछ ही आगे बढ़े तो स्थानीय महिलाएं मिलीं। उन्होंने हमसे पूछा कि कहां जा रहे हो? हमने बताया कि ऐसे ही घूम रहे हैं। उन्होंने बताया कि पास में क्रिकेट टूर्नामेंट हो रहा है, उसे देख आओ। हम क्रिकेट देखने के लिए आगे बढ़ गए। थोड़ी देर में हम क्रिकेट के मैदान पर तो पहुंच गए लेकिन वहां कोई मैच नहीं हो रहा था। मैदान के एक तरफ कुछ लोग बैठे हुए थे और एक तरफ टेंट लगा हुआ था। एक लड़का माइक से हिन्दी गाना गा रहा था। एक लड़के से बात करने पर पता चला कि इन्टरविलेज टूर्नामेंट हो रहा है और आज पहला मैच हुआ। मलिंग ने नाको को हरा दिया।

नाको ट्रेक

हमने उस लड़के से विदा ली और आगे बढ़ गए। नाको में अभी तेज धूप थी तो हम चाह रहे थे कि सबसे ऊंची जगह से सूर्यास्त देखा जाए। रास्ता काफी पतला है और पत्थर भी बहुत सारे पड़े हुए हैं। हम धीरे-धीरे बढ़ते जा रहे हैं। हम जितना चल रहे हैं नाको गांव और लोग छोटे-छोटे दिखाई देने लगे। हम थोड़ी देर में एक जगह पहुंचे जहां झंडा लगा हुआ था। इतनी ऊंचाई पर आकर हवा काफी तेज चल रही थी। नजारा यहां से खूबसूरत था लेकिन मेरा मन और ऊपर जाने का था।

हमारे पास वक्त था तो फिर से आगे बढ़ने लगे। कुछ आगे चले तो सामने से बहुत सारी भेड़ आती हुई दिखाई दी। साथ में एक चरवाहा भी है। उससे बात करने पर पता चला कि वो हर रोज इतनी ऊंचाई पर भेड़ चराने आता है। हमारे पूछने पर उसने बताया कि जून से भेड़ के बाल काटने शुरू कर देते हैं और सितंबर में बाल फिर से आने शुरू हो जाते हैं। ऊन से गर्म कपड़े, कंबल और रजाई बनाते हैं और गांव में ही बेचते हैं, बाहर कहीं बेचने नहीं जाते हैं। उन्होंने ये भी बताया कि हम लोग से भेड़ से दूध नहीं निकालते हैं।

काफी बात करने के बाद हम आगे फिर से बढ़ने लगे। हम धीरे-धीरे चल रहे थे लेकिन सांस काफी फूल रही थी। नाको समुद्र तल से 3,600 मीटर से भी ज्यादा की ऊंचाई पर स्थित है। जब इतनी ऊंचाई पर ट्रेक करते हैं तो ऑक्सीजन की कमी की वजह से थकावट जल्दी होती है। वैसे ही मेरे साथ हो रहा था। काफी देर के बाद चढ़ाई खत्म हो गई लेकिन ट्रेक अभी खत्म नहीं हुआ था। अब हमारे सामने एक लंबा घास का मैदान था।

एक आखिरी चढ़ाई

घास के मैदान पर एक काला घोड़ा घास खाने में लगा हुआ था। उसने हमारी तरफ देखा तक नहीं। हम जिस पहाड़ पर पहुंचना था उसके लिए इस घास के मैदान को पार करना था। मैं कई सालों बाद ऐसे छिपे हुए ट्रेक को कर रहा था। वाकई में मजा आ रहा था लेकिन किसी भी हालत में सनसेट के पहले उस पहाड़ी तक पहुंचना था। हम जल्दी-जल्दी आगे बढ़ रहे थे। कुछ ही देर बाद हमने घास का मैदान पार कर लिया।

घास के मैदान को पार करने के बाद हमारे सामने एक चुनौती और आ गई। पहले तो हमें बड़-बड़े पत्थर मिले जिनको कुछ ही देर में पार कर लिया। उसके बाद एक खड़ी चढ़ाई थी, जिसका कोई रास्ता नहीं था। हमें रास्ता बनाकर चलना था। अब यहां तक आ गए थे तो ऊपर तो जाना ही था। हिम्मत बांधकर खड़ी पहाड़ी पर चढ़ने लगे। कुछ ही मिनटों में हमने उस खड़ी पहाड़ी को पार कर लिया।

खूबसूरत सूर्यास्त

इस आखिरी चढ़ाई को पार करने के बाद जो नजारा देखने को मिला, वो वाकई में बेहद खूबसूरत था। इस नजारे को शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता सिर्फ महसूस किया जा सकता है। चारों तरफ ऊंचे-ऊंचे पहाड़, जहां देखो बस पहाड़ ही पहाड़। सामने से डूबता हुआ सूरज और आसमां में फैली हुई लालिमा इस नजारे को और भी शानदार बना रही थी। इतनी ऊंचाई पर हवा भी काफी तेज चल रही थी। हमारे आसपास लगे झंडे लहरा रहे थे।

इतना लंबा रास्ता तय करने के बाद ऐसा नजारा दिख जाए तो सफर यादगार बन जाता है। मैंने नाको में अपनी जिंदगी का सबसे खूबसूरत सूर्यास्त देखा है। इस ट्रेक को किए बिना नाको की यात्रा अधूरी ही मानी जाएगी। हर किसी को नाको में एक दिन ठहरना चाहिए और इस ट्रेक को जरूर करना चाहिए। सूर्यास्त होने के बाद हम नीचे उतरने लगे। नाको गांव पहुंचते-पहुंचते अंधेरा हो गया। थकान इतनी ज्यादा थी कि बेड पर लेटते ही नींद के आगोश में चला गया। हिमाचल का सफर अभी खत्म नहीं हुआ था। एक लंबा सफर अभी भी बाकी था।

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Tuesday 9 August 2022

हिमाचल में सुंदर वादियों और झील किनारे बसा नाको गांव, कहीं नहीं मिलेगी ऐसी जगह

हिमाचल प्रदेश तो वैसे भी खूबसूरती का नगीना है, यहां की हर जगह प्रकृति का शानदार तोहफा है। हिमाचल में सुंदरता का एहसास करना हो तो आपको मेरी तरह किन्नौर घाटी के नाको गांव जरूर जाना चाहिए। यहां की सुंदरता ने तो मेरा मन मोह लिया। यहां घूमते हुए लगता है कि कुछ दिन इस गांव में ही ठहरा जाए। इस गांव में आना किसी खूबसूरत सपने से कम नहीं है।

रिकांगपिओ में मैंने बस स्टैंड पर जाकर बस के बारे में पता कर लिया था। रिकांगपिओ से काजा के लिए पहले बस सुबह साढ़े 5 बजे जाती है जो नाको होते हुए जाती है। इसके बाद अगली बस 4 घंटे बाद साढ़े 9 बजे निकलती है। हम सुबह-सुबह जल्दी उठे और तैयार होकर बस स्टैंड की ओर निकलने लगे। कमरे से बाहर आकर देखा तो पता चला कि होटल का मेन गेट बंद है। कोई रिसपेशन पर था भी नहीं तो हम दीवार फांदकर बाहर निकले।

कुछ ही मिनटों में हम रिकांगपिओ बस स्टैंड पहुंच गए। यहां बहुत भीड़ थी। लोगों ने 1 घंटे पहले टिकट बुक करा ली थी। बड़ी मुश्किल से मुझे सबसे पीछे वाली सीट मिली। अच्छी बात ये थी कि मुझे खिड़की वाली सीट मिली। अगर आप आगे वाले सीट चाहते हैं तो सुबह 4 बजे आकर टिकट ले लें। 9:30 बजे बस अपने तय समय पर चल पड़ी। मेरे बगल में बिहार और झारखंड के कुछ लोग बैठे थे जो काम करने के लिए हिमाचल आए थे। इस बस से काजा और ताबो जा रहे हैं।

स्पीलो गांव

खूबसूरत वादियों से होकर हमारी बस आगे बढ़ती जा रही है। ऊंचे-ऊंचे पहाड़ और बगल में बहती नदी। वैसे तो सुबह-सुबह तो हर शहर अच्छ लगता है और ये तो पहाड़ हैं। 7 बजे हमारी बस स्पीलो में रूकी। स्पीलो गांव में हमने पराठा और चाय पी। 15-20 मिनट के बाद बस चल पड़ी। धूप निकल चुकी थी जो वाकई में अच्छी लग रही थी। कुछ देर बाद खाब आया। इसके बाद शानदार सड़क आई। पहाड़ को काटकर बनाई गई ये सड़क ठीक वैसी ही थी जैसी रामपुर से रिकांगपिओ आते समय मिली थी।

यहां के पहाड़ संगमरमर की तरह दिखाई दे रहे थे। इस रास्ते को देखकर मजा आ रहा था। कुछ देर बाद वो रास्ता खत्म हो गया और घुमावदार रास्ता शुरू हो गया। रास्ता इतना घुमावदार था कि बस बहुत धीमे चल रही थी। धीरे-धीरे बस ऊपर की ओर चढ़ती जा रही थी। कई बार तो लगता था कि बस चल नहीं धड़क रही है। यहां से पहाड़ बंजर हो गए थे लेकिन बेहद खूबसूरत लग रहे थे। मैं पहली बार बंजर पहाड़ों को देख रहा था। लगभग साढ़े 9 बजे हमारी बस नाको पहुंच गई।

नाको गांव

नाको गांव।
जिस जगह बस रूकी थी वहां कुछ दुकानें थीं। हमें तो नाको गांव जाना था तो उस तरफ पैदल चल पड़े। आगे एक बड़ा सा गेट दिखाई दिया जिस पर लिखा है, ग्राम पंचायत नाको आपका हार्दिक स्वागत करती है। हम उस गेट से आगे बढ़ गए। नाको इंडो-चाइना बॉर्डर के पास में स्थित एक छोटा-सा गांव है समुद्र तल से 3,625 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। कुछ देर चलने के बाद होटल और होमस्टे आने शुरू हो गए। हने डेलेक हाउस होटल में 800 रुपए में एक कमरा ले लिया। कमरे से नाको का शानदार व्यू दिखाई दे रहा था।
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तैयार होने के बाद हम नाको को देखने के लिए निकल पड़े। हम सबसे पहले नाको गांव में नाको लेक को देखने जा रहे हैं। नाको एक छोटा-सा गांव है। यहां आपको कोई एटीएम और पेट्रोल पंप भी नहीं मिलेगा। सर्दियों में ये गांव बर्फ से ढंक जाता है। इस गांव में लोग खेती करते हुए दिखाई दिए। रास्ते में हमें कई छोटे-बड़े होटल और होमस्टे दिखाई दिए। बहुत सारे लोग नाको में लेक और मोनेस्ट्री को देखने के बाद चले जाते हैं। नाको की खूबसूरती यहां रूककर ही महसूस की जा सकती है।

नाको झील

नाको झील।
कुछ देर बाद एक रास्ता नीचे की ओर गया। हम उन सीढ़ियों को रखकर लेक के पास पहुंच गए। नाको लेक वाकई में खूबसूरत है पानी शीशे की तरफ साफ है। झील के चारों तरफ पहाड़ और हरियाली है। मुझे अच्छी बात ये लगी कि हमारे अलावा यहां सिर्फ 1-2 लोग ही हैं। कुछ देर में वो भी चले गए। लेक के किनारे एक कुत्ता आराम फरमा रहा था। हमने लेक का एक पूरा चकक्कर लगाया। कुछ देर यहां बैठे और फिर आगे बढ़ गए।

झील के पास से ही एक रास्ता ऊपर की ओर जा रहा है। हमें उस रास्ते से गोंपा की ओर जाना है। कुछ लंबी चढ़ाई के बाद गोंपा के पास आ गए। यहां कुछ लोग खड़े थे। उन्होंने हमसे पूछा कि क्या यही मोनेस्ट्री है? मैंने उनको बताया कि ये गोंपा है मोनेस्ट्री तो गांव में है। उन्होंने कहा कि फिर लोग यहां आते क्यों हैं? मैंने उनसे कुछ नहीं कहा कि लेकिन उनकी बात सुनकर हंसी जरूर आ गई। मैं तो बस नाको को अच्छे से देखना चाह रहा था और अभी वही कर रहा हूं।

नाको गांव।
इस गोंपा से दूर-दूर तक पहाड़ और नाको गांव दिखाई दे रहा था। पास में एक जगह है, जहां लिखा हुआ है आई लव नाको। इसके पास में कुछ पुराने गोंपा बने हुए हैं। यहां पर एक बोर्ड लगा हुआ है जिस पर लिखा हुआ है कि गर्भवती और महावारी के दौरान महिलाओं के लिए प्रतिबंधित क्षेत्र है। मुझे ऐसा कुछ दिखाई देता है तो अजीब लगता है लेकिन हर चीज को बदलने में समय लगता है। ये पुरानी सोच भी नये लोगों द्वारा शायद बदली जाएगी।

नाको मोनेस्ट्री

नाको के गोंपा को देखने के बाद हम नीचे की ओर लौटने लगे। अब हमारा अगला लक्ष्य नाको मोनेस्ट्री है। अब हम नाको गांव से होकर नाको मोनेस्ट्री की ओर चलने लगे। रास्ते में कच्चे घर, पुआल और बाड़े में बंधी गाय दिखाई दीं। काफी हद तक नाको वैसा ही है जैसा मेरा गांव है। बस यहां चारों तरफ पहाड़ ही पहाड़ हैं। रास्ते में एक महिला मिलीं उनसे मोनेस्ट्री का रास्ता पूछा तो उन्होंने साथ चलने को कहा। हम नाको गांव में चलते जा रहे थे।

उन्होंने एक जगह रूककर कहा, सीधे चले जाना मोनेस्ट्री आ जाएगी। कुछ देर में मोनेस्ट्री का गेट आ गया। गेट के पास दो प्यारे-से बच्चे बैठे थे। मठ परिसर में कई इमारतें देखने को मिलीं। इन मोनेस्ट्री का उद्घाटन 2007 में 14वें दलाई लामा और तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह ने किया था। मोनेस्ट्री की इमारत के गेट के ऊपर दलाई लामा की फोटो लगी है। 

मोनेस्ट्री के अंदर भी दलाई लामा भी एक फोटो है। मठ के अंदर वाकई में काफी शांति है। मोनेस्ट्री को कुछ देर हम देखते रहे। मोनेस्ट्री को देखने के बाद हम वापस कमरे पर लौट आए। सुबह से कुछ खाया नहीं था तो नाको बस स्टैंड पर गए और ढाबे पर दबाकर खाना खाया। नाको में हमने कई सारी चीचें देख लीं लेकिन अभी नाको की सबसे सुंदर जगह को देखना बाकी था जो हमारे प्लान में भी नहीं था। नाको जैसा खूबसूरत गांव रोज-रोज देखने को नहीं मिलते।

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Friday 5 August 2022

रिकांगपिओ: किन्नौर वैली का खूबसूरत कस्बा, यहाँ घूमना तो बनता है

जब खुली वादियों के बीच ठंडी हवाएं चेहरे को छूती है तो दिल बाग-बाग हो जाता है। शायद यही वजह है कि मौका मिलते ही लोग हिमाचल प्रदेश की ओर कूच कर जाते हैं। हिमाचल प्रदेश में घूमते हुए बहुत सी ऐसी जगहें मिलती हैं जिनका नाम सुनते ही वहाँ जाने की इच्छा होती है। हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले का रिकांगपिओ ऐसी ही शानदार जगह है।

कल्पा में एक दिन गुजारने के बाद मैंने 6 जून 2022 को होटल से चेक आउट किया। अब हमें रिकांगपिओ जाना था लेकिन उससे पहले चीनी गाँव जाना था। चीनी गाँव के लिए हमारे होटल के बगल से नीचे की ओर शॉर्टकट रास्ता गया था। हमने उसी रास्ते को पकड़ लिया और चीनी गाँव के रास्ते पर चल पड़े। रास्ते में सेब के बागान भी थे और कुछ घर भी बने हुए थे। कुछ ही मिनटों में हम चीनी गाँव पहुँच गए।

चीनी गाँव

चीनी गाँव कल्पा में ही आता है। यहाँ पर एक गोम्पा है जिसे लोचावा का प्राचीन बौद्ध मंदिर भी कहा जाता है। मैं आपको इस गोंपा की कहानी बताता हूं। कहानी ऐसी है कि महानुवादक लोचावा रिनचेन 958-1055 ई. में गूगे साम्राज्य के राजा येशेद ओद के गुरू थे। लोचवा रिनचेन ने पश्चिमी हिमालय क्षेत्र में 108 गोंपाओं का निर्माण करवाया था। उसी दौरान चीनी गाँव में इस गोंपा को बनवाया था। 1959 में आग से ये गोंपा क्षतिग्रस्त हो गया था। बाद में इसका दोबारा निर्माण करवाया गया था।

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गोम्पा।
मंदिर का गेट तो बंद था लेकिन गोंपा पर लहराते झंडे वाकई में अच्छे लग रहे थे। गाँव में होने की वजह से कम लोगों को इसके बारे में पता है। इस गोंपा के आगे ही नाग मंदिर है। हम लोग उसको देखने के लिए आगे बढ़ गए। कुछ ही कदमों के बाद नाग नागिनी मंदिर आ गया। इसे नारायण नागिनी मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। मंदिर के बाहर एक बोर्ड लगा था जिस पर लिखा था कि त्यौहार पर मंदिर में महिलाएं दोहड़ी और टोपी पुरूष गच्छी व टोपी पहनकर आएं।

रिकांगपिओ

मंदिर बेहद शानदार है और लकड़ी और पत्थरों का बना हुआ है। मंदिरों की दीवारों पर नक्काशी भी बेहद शानदार है। कई सारी आकृतियां मंदिर की दीवारों पर उकेरी हुईं थी। मंदिर का गेट बंद था तो मैं मंदिर का चक्कर लगाकर बाहर आ गया। कुछ देर चलने के बाद ऐसी जगह आई जहाँ से बस रिकांगपिओ जा रही थी। हम उसी बस में बैठ गए। कुछ कुछ देर में बस चल पड़ी। मैंने नोटिस किया कि जब हम कल्पा से रिकांगपिओ आ रहे थे तो बस में महिलाएं ज्यादा थीं और अब लौटते समय सभी पुरूष थे।

उन्हीं घुमावदार रास्ते से होकर हम रिकांगपिओ जाने लगे। जब हम किसी जगह से लौटते हैं तो रास्तों पर उतना ध्यान नहीं देते हैं जितना आते समय देते हैं। लगभग आधे घंटे के बाद हमारी बस रिकांगपिओ बस स्टैंड के बाहर रूकी और हम यहीं पर उतर गए। सामने से एक स्कूल की रैली निकल रही थी। कुछ बच्चों के हाथ में पर्यावरण जागरूकता की तख्ती थीं और बाकी बच्चे नारे लगा रहे थे। मुझे अपना बचपन याद आ गया जब मैं भी ऐसी ही स्कूल की रैली में घूमता था, बड़ा मजा आता था।

रिकांगपिओ देखते हैं!

हमने सुबह से कुछ खाया नहीं था तो सबसे पहले बस स्टैंड के पास में ही उस दुकान पर गए जहाँ एक दिन पहले नाश्ता किया था। हमने फिर से परांठे का नाश्ता किया। अब हमें रिकांगपिओ में ठिकाना खोजना था। हमने दुकान वाले से ही पूछ तो उसने पास में सैराग होटल में हमें भेज दिया। हमने कई कमरे देखे और सबसे सस्ता वाला कमरा ले लिया। ये कमरा हमें 550 रुपए में मिला। इस कमरे से ना तो कोई पहाड़ों वाला व्यू था और ना ही ज्यादा खास था। हमें बस रिकांगपिओ में कमरा चाहिए तो ले लिया। तो अब रिकांगपिओ देखते हैं।

रिकांगपिओ के बारे में बता दूं तो रिकांगपिओ किन्नौर जिले का काफी बड़ा कस्बा है। यहाँ पर कई सारे बैंक, एटीएम और बाजार भी है। रिकांगपिओ शिमला से 235 किमी. की दूरी पर है। रिकांगपिओ दो शब्दों से मिलकर बना है रेकांग और पिओ। इसकी भी एक कहानी है। रेकांग किन्नौर के एक परिवार के उपनाम से लिया गया है। वहीं डीसी ऑफिस से लगती जमीन को पिओ के नाम से जाना जाता था। दोनों शब्दों को मिलाकर 1960 में इस जगह का नाम रिकांगपिओ रखा गया।

चन्द्रिका देवी मंदिर

रिकांगपिओ में कमरे में सामान रखकर हम बाहर निकल पड़े। रिकांगपिओ में हमें सबसे पहले चन्द्रिका देवी मंदिर जाना था। ये मंदिर पिओ के कोठी गाँव में है जो रिकांगपिओ से 2 किमी. की दूरी पर है। हम लोगों से पूछते हुए पैदल-पैदल चलने लगे। रास्ते में हमें छोटा-सा बाजार मिला और थोड़ी देर बाद एक पुराना-सा गेट मिला। उसी गेट से आगे बढ़े गए। अब रास्ते में घर कम किन्नौरी सेब के पेड़ कई सारे लगे हुए थे और पीछे खूबसूरत पहाड़ दिखाई दे रहे थे।

भैरों मंदिर।
कुछ देर में हम चन्द्रिका देवी मंदिर पहुँच गए। यहाँ पर मंदिर के बाहर एक बोर्ड लगा था। जिस पर लिखा था कि मंदिर के मुख्य गेट के अंदर अशुद्ध पुरूष और महिलाओं का प्रवेश निषेध है। इसके अलावा तीन गाँव की महिलाओं को बगैर दोड़ू पट्टू के आना मना है। मैं पहली बार मंदिर में ऐसी परंपरा और नियमों को देख रहा था। मंदिर के अंदर फोटोग्राफी करना मना था इसलिए हमने की भी नहीं। चन्द्रिका देवी मंदिर में कई सारे पुराने मंदिर थे। सभी के गेट बंद थे लेकिन नक्काशी शानदार है।

मंदिर को देखने के बाद हम बाहर आ गए। चन्द्रिका देवी मंदिर के सामने भैरों मंदिर है। इस मंदिर का गेट बंद था लेकिन बाहर से नक्काशी दिखाई दे रही थी। दोनों ही मंदिरों का आर्किटेक्चर की तारीफ तो बनती है। हम काफी देर से आए थे तो इसलिए शायद मंदिर का दरवाजा बंद था। मंदिर को देखने के बाद हम पूरे दिन ऐसे ही रिकांगपिओ में टहले, फिर कुछ काम किया और फिर आराम किया। अगले दिन हमें हिमाचल प्रदेश की एक और नई जगह पर निकलना था।

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