Saturday 6 May 2017

संघर्ष और रोमांच से भरी यादगार कुंजा यात्रा


 


यह मेरी पहली उत्तराखण्ड के पहाड़ों और जंगलों की यात्रा थी और इसकी सबसे खास बात थी कि मैं अकेला नहीं था। मेरे साथ मेरे सभी सहपाठी(आकांक्षा, स्वीटी और अंशिका के अलावा)और अध्यापक(सुखनंदन सर, मुकेश बोरा सर, मुकेश तोगड़िया सर और सौरभ सर) साथ थे। उत्तराखण्ड के पहाड़ों के बारे में लोगों से यहां के सौंदर्य और वातावरण के बारे में काफी कुछ सुन चुका था, तो हर बार मन में यही टीस रहती थी कि हरिद्वार में होकर भी ऐसे अद्वितीय स्थान पर नहीं जा पा रहा हूँ। लेकिन मेरी और मेरे सभी सहपाठियों की यह इच्छा पूर्ण हो पाई हमारे विभागाध्यक्ष सुखनंदन सर, मुकेश बोरा सर, मुकेश तोगड़िया सर और सौरभ सर के सहयोग से। यह यात्रा मेरे लिए कई मायनों में अद्वितीय और विशिष्ट रही। मैं इस एकदिनी यात्रा को अपने जीवन का सबसे अच्छा और सुखकारी दिन मानता हूँ। हम सब इस यात्रा में एक प्रकार से नवागुंतक थे। अधिकतर सहपाठी पहली बार पहाड़ों पर यात्रा करने जा रहे थे। लेकिन किसी के चेहरे पर डर की कोई शिकन नहीं थी, बल्कि सबके सब जोश और आनंद से ओत-प्रोत थे और डर किस बात का हमारे साथ अनुभवी लोगों का जत्था था, जो इन पहाड़ों से पूरी तरह चिरप्रतीत थे। कुल मिलाकर यह यात्रा अपने साथियों, अध्यापको और विभागाध्यक्ष सुखनंदन सर के साथ से एक कठिन यादगार और शिक्षाप्रद रही।


1. कुंजा देवी की यात्राः
हम सब हरिद्वार से ऋषिकेश बस स्टैंड पहुँचे। यहां से हमको कुंजा देवी के लिए बस से जाना चाहते थे जो वहां से 23 किमी. की दूरी पर था। लेकिन कोई बस वाला हमें ले जाने को तैयार नहीं था क्योंकि हम संख्या में बहुत थे और बस लंबे दौरे पर चलने वाली थी। अंत में इधर-उधर घूमने के बाद हम सबको गाड़ी बुक करनी पड़ी, जो हम नहीं करना चाहते थे लेकिन हमारे पास इसके अलावा कोई उपाय भी तो नहीं था। हम सब गाड़ी से गोल-गोल घूमे जा रहे थे, तो स्वाभाविक था कि कई लोगों को चक्कर भी आने वाले थे उसमें मैं भी था लेकिन मैं गाड़ी के बाहर के कारण नहीं बल्कि जो अंदर चल रहा था उससे परेशान था। हम जैसे-जैसे ऊपर जा रहे था नीचे की चीजें चींटी के समान प्रतीत हो रही थी, हम पहाड़ के बिल्कुल करीब थे, यह दृश्य मनोरमा के समान था।

1 घंटे की गोल-मोल यात्रा के बाद हम सब उस रूट पर पहुँचे जहां से हम सबको कुंजा देवी के लिए कूच करना था। हमने यहां से जरूरत का समान खरीदा, जो रास्ते में हमें मदद कर सके। हम बनाने के लिए मैगी तो ले आए थे, लेकिन जिसमें बनाना था वो ही नहीं लाए। फिर क्या भारतीयों की प्रकृति ही होती है जुगाड़ करना हमने भी वही किया, एक टीन के कनस्तर को दुकान से खरीद लिया। अब यही कनस्तर हमें मैगी खिलाने वाला था। यहां से हमारी प्रारंभ हुई कुंजा देवी के मंदिर तक की असली यात्रा। अब हम सबको 5 किमी. जंगलों के बीच से पैदल चलकर जाना था। सबके पीठ पर बैग था, हाथ में चढ़ाई के सहायता के लिए डंडा। सब लोग अपने-अपने तरीकों से रोमांचनक से भरी यात्रा का आनंद ले रहे थे। कई लोग पहाड़ों के मनोहर दृश्य को अपने कैमरे में सजों के रख रहे थे, तो हमारे बीच पहाड़ों के जानकर सुखनंदन सर और  कविता अस्वाल(पहाड़ों में रहने वाली) थे जो हमें नए-नए पेड़ों और फलों के बारे में बता रहे थे। रास्ते में आने वाली मोड़ें और नीचे दिखने वाली घाटियां हमें बार-बार रोमांचित कर रही थी साथ ही साथ हमारे बीच कुछ निरूअआ वेशभूषा वाले भी थे ।
धूप जैसे-जैसे तेज होती जा रही थी, सबका उत्साह भी बढ़ता जा रहा था। जोश बढ़ाने के लिए बीच-बीच में बाहुबली का प्रसिद्ध उद्घोष ‘‘जय माहिष्मती’’ लगाया जा रहा था। पूरे रास्ते में हमें कोई भी इंसान नहीं मिला, लेकिन बंदर और लंगूर जरूर देखने को मिल जाते थे जो अपनी उछल-कूद से हमें मनोरंजित कर रहे थे। हम इस दृश्य को कैमरे में कैद करना चाहते थे लेकिन वे एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर इतनी तेज उछल-कूद कर रहे थे कि उसे कैद नहीं कर पाये। चलते-चलते हम सब पसीने से तर हो चुके थे। जैसे ही हम धूप से छाव में पहुँचे, उस छाव में हवा अंर्तमन तक ठंडक दे रही थी। इतनी ठंडी हवा का और प्रकृति का सानिध्य पाकर मानो लग रहा था कि बस यही घूमते ही रहें। रास्ते में बहुतयात चीड़ के पेड़ दिखाई पड़ रहे थे जिसके बारे में हम सब सुन चुके थे कि उत्तराखंड के जंगलों में आग लगने का सबसे बड़ा कारण यही पेड़ है। दो घंटे की कठिन और रोमांचित यात्रा के बाद हम अपनी मंजिल कुंजा देवी के मंदिर पहुँच ही गए। पहाडी पर बसा मंदिर, नीचे दूर-दूर तक दिखाई देते हरे-भरे जंगल, धुंध से भरी पहाड़ियां सबको देख कर मानों लग रहा था कि हम एक नई दुनिया में प्रवेश कर रहे हैं। मंदिर से ऋषिकेश में प्रवााहित गंगा पूर्णतः हरीमय दिखाई पड़ रही थी जो जंगल के समान ही लग रही थी।मंदिर में हम सबने पूजा-अर्चना और दर्शन करने के बाद, मुकेश बोरा सर के फोटोग्राफी स्किल से हम सबकी अलग-अलग पोज में समूह और एकल फोटो ली गई। इतनी लंबी यात्रा के बाद हम सबको भूख लग चुकी थी, मंदिर के चबूतरे पर ही किचन का रूप दे दिया गया। सभी लोग अलग-अलग कामों में अपनी भागीदीरी देने लगे। रवि और स्नेह टमाटर, खीरा, मिर्च और आदि को काटने काकाम कर रहे थे और सुखनंदन सर और सौरभ सर इन सबको
लाई(मुर्रा),नमकीन में मिलाकर झालमुड़ी का रूप देने का प्रयत्न कर रहे थे। कुछ लोग ऐसे पल को अपने कैमरे में लेने में भी भागीदारी दे रहे थे। सबके प्रयास के बाद हमारी झालमुड़ी तैयार थी, हम सबने उसको स्वाद और मजे से खाया। यहां से पहाड़िया का दूरदर्शन मन में समा गया था। हमारे पास यहां अधिक रूकने का समय नहीं था, सो बेस्वाद गर्म चाय से ऊर्जा से भरे अपनी अगली मंजिल की ओर निकल पड़े।                   

2. गांवों से होकर यात्राः
सुखनंदन सर और मुकेश सर ने मंदिर पर ही एक स्थानीय व्यक्ति से नीचे जाने का पैदल रास्ते के बारे में पता लगाया। अब हमें सबसे कठिन पड़ाव की ओर जाना था जो पांच गावों के बीच(धारकोट, दंगूल, अखोड़, नीरगुडडी) होकर है। सर जब बता रहे थे कि अब इम्तहान का समय है तो हम यही सोच रहे थे कि जैसे आ गए हैं वैसे पहुँच भी जाएंगे। लेकिन जब नीचे की ओर ऊतर रहे थे तब लग रहा था कि सर का कथन उचित ही था। फिर मेरा एक ही लक्ष्य था कि सर के साथ चलकर जितना सीख सकूं उतना अच्छा होगा। लेकिन आलोक नीचे जाते वक्त डर और लड़खड़ा रहा था, तब कुछ  देर के लिए उसको नीचे उतरने में मदद करने लगा। आलोक का कहना था कि यह उसके जीवन का सबसे अच्छा और बुरा अनुभव है। नीचे का रास्ता संकरा और कंकड़ों से भरा हुआ था, इसलिए यहां सावधानी और एक-दूसरे की सहायता करते हुए चलना ही आवश्यक है। यह रास्ता मोड़ों और चीड़ के पेड़ों के साथ-साथ देवधार के पेड़ों से भरा हुआ है। सुखनंदन सर ने बताया कि मेरे लिए ‘‘पहाड़ की परिभाषा- देवधार के पेड़ हैं।’’ नीचे दिखने वाले तेड़े-मेड़े रास्ते और ऊपर आसमान को छूती चोटियां सफर को सुहाना बना रही थी। लगभग 1 घंटे की यात्रा के बाद हमने पहले गांव धारकोट में प्रवेश किया। पहाड़ पर बसे गांव, हरे-भरे जंगल, सब पहाड़ों के गांवों में होने का एहसास करा रहे थे। सौरभ सर हमारी यात्रा के वीडियो एक्सपर्ट रहे, उन्होंने पूरी यात्रा के प्रत्येक क्षण को यादगार और ऐतहासिक बना दिया।
रास्ता लंबा था लम्हे और दृश्य सुहावने थे। कुछ लोग इसे यादगार बनाने के लिए कैद कर रहे थे तो कुछ इसे महसूस कर रहे थे। चलते-चलते पूरा एक समूह दो समूहों में बंट गया। पहला सुखनंदन सर के नेतृत्व में जिसमें रवि, सिद्धी, रचना, कविता, मृत्युंजय, प्रतिभा और मैं था। दूसरे ग्रुप का नेतृत्व मुकेश बोरा सर कर रहे थे जिसमें मृदुल, वैशाली, आलोक, युक्ति, स्नेह, विपुल, रोशनी, विवेक और हिमांशु भइया थे। दूसरे ग्रुप में संख्या में अधिक थे और धीरे चलने वाले भी थे। ये लोग पूरी मस्ती करते हुए फोटो और चिल्लाते हुए आ रहे थे। जो सुखनंदन सर के साथ जा रहे थे वो तेज चलने वाले लोग थे वो मस्ती नहीं कर रहे थे आनंद ने रहे थे। वो आनंद ले रहे थे प्रकृति का, पहाड़ों का और सबसे अहम एचओडी सर के अनुभवों का। दोनों ही ग्रुप अपनी अपनी मस्ती में चले जा रहा था, बीच में रूक रूककर मिलते, आराम करते और अगले पड़ाव के लिए निकल पड़ते। हम जबसे कुंजा देवी से चले थे वहां से भरा हुआ पूरा पानी हम पी चुके थे। सभी के गले प्यास के कारण सूखे जा रहे थे।दूर-दूर तक हमें पानी का स्रोत नहीं मिल रहा था, फिर भी हम आगे बढ़े जा रहे थे। हम चलते गए कि पानी कहीं तो मिलेगा और आखिरकार जब हमने एक गांव में प्रवेश किया तो वहां हमें एक पाइप से पानी आ रहा था, जिसे पीकर सबने प्यास बुझाई। सबको प्यास इतनी जोर की लगी थी कि मैं बोतल भरते जा रहा था और वहां से खाली होकर आती जा रही थी। बाद में सुखनंदन सर ने बताया कि प्यास इतनी जोर की थी कि पूरी गंगा ही पी जाऊं। जल के स्रोत से पानी कम आ रहा था इससे पता लग सकता हैै कि यहां पानी की विकट समस्या है। यहां खेती तो नहीं दिखाई पड़ रही थी लेकिन सभी मकानों के आस-पास सब्जियां जरूर देखी जा सकती हैं। थोड़ा विश्राम करने के बाद हम अपने अगले पड़ाव के लिए निकल पड़े।
3. अगला पड़ाव- नीर झरना
हम नीर गांव में सड़क के रास्ते से प्रवेश किया। यहां रूक कर हम गर्म चाय पीकर तरोताजा होना चाहते थे लेकिन समय की कमी होने के कारण हम आगे बढ़ गए। वहां से हम मुख्य सड़क से हटकर नीचे की ओर चलने लगे। यहां पलायन का दंश साफ झलक रहा था, विद्यालय दिखाई पड़ रहे थे लेकिन सबके सब खाली पड़े थे।यहां हमें रास्ते में दैनिक कार्य करते हुए महिलाएं मिली। लेकिन इतनी बड़ी यात्रा में कहीं भी खेती का नामोनिशान नहीं था, हमें मिल रहा था तो बस जंगल और बंजर जमीनें। हमने यहां एक व्यक्ति से बात की उसने बताया कि यहां धान की खेती की जाती है। जब यहां धान की खेती हो सकती है तो फिर बाकी फसलें भी उगाई जा सकती हैं लेकिन लोग जानवरों के डर सये और ना करने की आदत से इस उपजाऊ जमीन को बंजर रखे हुए हैं। इस पर सरकार को अपना रूख करना होगा तभी यहां के लोगों का भला होगा।  हमें झरने के पास जाना था सो हम किनारे-किनारे नाले के रास्ते नीचे की ओर चलने लगे। लग रहा था कि झरना पास ही है लेकिन मंजिल अभी दूर थी। सभी लोग थक कर चूर हो गए थे, कुछ लोगों के पैर लड़खड़ाने लगे थे। लेकिन फिर भी सभी चले जा रहे थे क्योंकि ‘‘चलना है क्योंकि चलना पड़ रहा है।’’ कविता कह रही थी कि इतनी छोटी-सी धारा कैसे बड़े झरने का रूप ले सकती है? लेकिन बीच-बीच में हमें कई पारंपरिक स्रोत मिले जिससे कविता की शंका का हल जल्दी ही हो गया। हम जैसे-जैसे झरने के पास जा रहे थे, पानी की कलकल की आवाज अंतर्मन तक सुख की अनुभूति करवा रही थी। जैसे ही हमें झरने की आवाज सुनाई देनी लगी हमें ज्ञात हो गया कि झरना अब ज्यादा दूर नहीं। अब वही पैर जल्दी-जल्दी चलने लगे जो कुछ देर पहले तक लड़खड़ा रहे थे। झरने की आवाज ने पैरों में नई ऊर्जा और जान डाल दी थी। कुछ देर के चलने के बाद आखिरकार हम झरने पर पहुँच ही गए। झरने का दृश्य अस्मरणीय था। झरने को देखकर बस लग रहा था कि कूद जाऊं बस देर थी सर की अनुमति की। सर ने एक बार अनुमति भी दे दी थी कि लेकिन अंत समय में मनाही हो गई क्योंकि अगर मैं नहाऊंगा तो लड़कियां भी नहीं मानेगी। झरने पर सभी ने पानी में पैर डालकर आनंद लिया। यहां घंटों तक सभी पानी में पैर डालकर बैठे रहे। हमने यहां मैगी बनाई जो हमने अपने जुगाड़ु कनंस्तर में बनाई। हमारे पास चलाने के लिए चम्मच नहीं थी तो हमने डंडे से ही मैगी बना डाली। हम सबने प्रयोगशील मैगी को खाया जिसे कहीं से नहीं कहा जा सकता कि वह खराब बनी है। हम सबको पहले से ही देर हो चुके थे।
4. हम लौट चले चाँदनी रात मे ऋषिकेश
हम सब अभी भी जंगल में थे, रात को हो चुकी थी। ऋषिकेश यहां से 2 किमी. की दूरी पर था। अब सबको एक साथ चलना जरूरी भी था क्योंकि रात का समय था। हम संख्या में इतने अधिक थे अगर हमारे सामने जानवर भी आ जाए तो वह भी डर जाए। आगे से हमारा नेतृत्व सुखनंदन सर और पीछे से मुकेश बोरा सर कर रहे थे। रात में जानवरों के अलावा कोई खतरा नहीं था, रात भी हमारे साथ थी। पूरा आसमान तारों से भरा हुआ था, चांदनी रात थी। नदी की कलकल आवाज सभी के कानों को प्रिय लग रही थी, यह रात यहां उपस्थित हर व्यक्ति को जिंदगी भर याद रहने वाली है ऐसा विहंगमीय दृश्य कौन भूल पाएगा भला। सुखनंदन सर बताते हैं कि यह 2 किमी. की यात्रा मेरी हिमकुण्ड की यात्रा की याद दिलाती है, वही समय, वही दृश्य। ऐसी ही कई यात्राओं और अनुभवों को जानने का लाभ जानने को मौका मिला। कई लोगों को इस यात्रा में डर रहे थे जैसे कि कविता अस्वाल। वह गिरने से नहीं डर रही थी बल्कि गुलदार आदि जानवरों के भय से कांप रही थी। कांच की रोशनी को देखकर उसे किसी जानवर का आभास होता और वह डर जाती। उसने बताया कि उसके घर-परिवार में ऐसी ही कई घटनाएं हो चुकी हैं इसलिए उसे ऐसे स्थानों पर डर लगता है।
1 घंटे की पैदल यात्रा के बाद हम रोड पर आ गए। अब हम भय से सुरक्षित थे, लेकिन अब समस्या थी कि बस स्टैंड कैसे पहुँचे? आसपास कहीं भी टैक्सी नहीं थी, एक बार फिर हमें टैक्सी की खोज में पैदल चलना था। लगभग 2-3 किमी. पैदल चलने के बाद हमें टैक्सी मिली। उससे झिकझिक करने के बाद हमने टैक्सी ली और उसी से देव संस्कृति विश्वविद्यालय भी आ गए। ये मेरे और सभी सहपाठियों की यादगार यात्रा रही। इस यात्रा में हम सबको हजारों पल ऐसे मिले होंगे जिनको हम याद करके हमेशा खुश होते रहेंगे। इस यात्रा के बाद अब मुझे और यात्रा करने का मन हो रहा है लेकिन अकेला नहीं यही सारे लोग मेरे साथ होने चाहिए। मैं ऐसी ऐतहासिक यात्रा के लिए अपने विभागाध्यक्ष सुखनंदन सर, मुकेश बोरा सर और सौरभ सर का तहे दिल से धन्यवाद देता हूँ, जिनके कारण यह यात्रा सफल हो सकी। मैं अपने साथियों का भी धन्यवाद देता हूँ, जिनके कारण यह यात्रा रोमांचित और मनोरंजन से भरी रही।


Thursday 20 April 2017

एक महिला के दर्द ने बना दिया जगत सिंह को ‘जंगली‘।

मेरी बातों को जंगल के शेर-बाघ तो समझ लेते हैं लेकिन लोग नहीं समझ पाते हैं।’’ ये दर्द वही बयां कर सकता है, जिसको जंगल से प्यार हो। ऐसे ही एक शख्सयित हैं जिन्हें  लोग ‘जंगली’ कहकर पुकारते हैं। लेकिन वे इसको बुरा नहीं मानते, बल्कि इसको एक सम्मान के साथ धारण करते हैं। कहते हैं कि जंगल को नष्ट करना तो आसान है लेकिन उसको बनाना बहुत ही मुश्किल काम है। ऐसा ही कुछ काम किया है उत्तराखण्ड के ग्रीन एंबेसडर जगत सिंह ‘जंगली’ जी ने।
हर वर्ष हम पर्यावरण और वन बचाओ पर कितने ही सेमिनार, संगोष्ठियां आयोजित की जाती हैं। उस दिन तो सभी अपने दर्द को सांझा करके चले जाते हैं, लेकिन उसके बाद क्या? उनका काम सिर्फ एक दिन लेक्चर देने तक ही था क्या? राजनेता भी जन-जन तक संदेश पहुँचाते है, लाखों पेड़ भी उनके द्वारा रोपित किये जाते हैं और संकल्प लेते हैं कि इन सभी पेड़ों की रक्षा हम करेंगे। पर्यावरण बचाने में अपना योगदान दे सकेंगे। लेकिन वे पेड़ कभी नहीं बन पाते हैं, उनको तोड़के फेंक दिया जाता है। हां, इतना जरूर है कि वह राजनीति दल इसे अपने चुनावी प्रचार-प्रसार में जरूर जिक्र करता है कि हमने इतने पेड़ लगाकर वल्र्ड रिकाॅर्ड बनाया और पर्यावरण को स्वच्छ करने में योगउान कर रहे है। जैसा कि हाल ही में उत्तर प्रदेश में सपा शासन ने किया था। लेकिन समाज में कुछ ऐसे भी व्यक्ति होते हैं जिनको पेड़ लगाने के लिए किसी वन दिवस की आवश्यकता नहीं होती है, उनके लिए हर दिन पर्यावरण को बचाने का दिन होता है। ऐसे ही पर्यावरण प्रेमी हैं जगत सिंह ‘जंगली’ जी।
मैं यहां एक ऐसे व्यक्ति की बात कर रहा हूँ जिसने कभी हारना नहीं सीखा। जो बिना लोभ के समाज के लिए कार्य करता रहा। जिस उम्र में हम नौकरी के लिए पागलों की तरह दौड़ कर रहे हैं, उस आयु में उन्होंने नौकरी छोड़कर गांव में आकर जंगल बसाने की सोची। सोचिए वो कैसा विचार होगा? ऐसे विचार आने वालों को तो लोग पागल ही कहेंगे, जगत सिंह को भी लोगो ने ऐसा ही किया लेकिन आज दुनिया उनके कार्य को सलाम कर रही है। जगत सिंहजी जब नौकरी से छुट्टियों में अपने गांव आए तो उनको  पहाड़ों में एक महिला की चोट के बारे में सुना तो उनके दिल में एक टीस बैठ गई कि गांवों से  जंगल दूर होने के कारण महिलाओं को चूल्हा जलाने के लिए लकड़ी और पशुओं के लिए चारा लेने में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। ऐसा देखकर जगत सिंह जंगली जी ने अपने गांव, कोटमल्ला में एक जंगल बनाने की ठान लिया। उसी वक्त जगतजी ने 24 वर्ष की आयु से एक ऐसा जंगल बनाने में लग गए जो प्रकृति के लिए अनुकूल हो। जगत सिंह जंगली ने 2 हेक्टेयर ही भूमि पर ऐसा वन खड़ा किया है जो पूरे देश के लिए एक ऐसे माॅडल के रूप में उभरा है जो कई और जगह पर इसको लागू किया जा रहा है। जगत सिंह जंगली का मानना है कि पहाड़ के आस-पास अगर मिश्रित वन होंगे तो गांव के लोगों को चारे-लकड़ी लाने में परेशानी नहीं होगी, उन्होंने सूखी पत्तियों में गोबर डालकर जैविक खाद का भी निर्माण किया है। उन्होंने ऊबड़-खाबड़ पथरीली को ही हरा-भरा नहीं किया, बल्कि पर्यावरण और इस क्षेत्र के जाने-माने वैज्ञानिकों की सोच बदल डाली। जगतजी ने अपने 40 सालों में अब तक  60 प्रकार के प्रजातियों के 40,000 पेड़ों को लगाया और 40 प्रकार की घासों को लगाया।
उत्तराखण्ड के जंगलों में हमेशा यही शिकायत रहती है कि यहां पर आग बहुत लगती है । क्योंकि उत्तराखण्ड के जंगलों में चीड़ के पेड़ बहुत हैं जो आग बहुत जल्दी पकड़ती है। जब पूरे उत्तराखण्ड के जंगल आग से धधक रहे थे, तब सिर्फ जगत सिंह जी का ही एकमात्र जंगल था जहां आग नहीं थी। जगत सिंह ने अपने जंगल को एक मिश्रित जंगल के रूप में बनाया है जहां हर प्रकार के पेड़ हैं। यहां पर हमें जैतून, ब्रह्मकमल, बुरांश, अश्वगंधा और एलोवेरा जैसे पेड़ मिलते हैं, जो जंगल के लिए उपयोगी भी हैं और ये आग के प्रतिकूल भी होते हैं, जो जल्दी आग नहीं पकड़ते। जगत सिंह जंगली का यह भी कहना है कि उत्तराखण्ड के जंगलों में गार-गदेरे भी नदियों में एक प्रकार से सहायक नदी के रूप में कार्य करते हैं। हम सोचते हैं कि नदियों में पानी ग्लेशियर के माध्यम से आता है लेकिन जगत सिंह जी का कहना है कि ग्लेशियर हमेशा नहीं पिघलते, नदियों में पानी को बढ़ाने के लिए गार-गदेरे भी अपनी भूमिका निभाते हैं। गार-गदेरों पर कोई ध्यान नहीं देता है जबकि हमें नदियों को बचाने के लिए गार-गदेरों को भी बचाना पड़ेगा।
जगत सिंह जंगली जी का कहना है कि पहाड़ों में मिश्रित वनों के लगाने से जंगल से मृदा अपरदन को तो बचाया ही था, साथ साथ इसने नदी के जल स्रोत को भी बढ़ाने में  सहायता की है। जगत सिंह को ऐसे कार्यों के लिए अब तक छोटे-बड़े 36 अवाॅर्ड मिल चुके हैं, लेकिन वह अपना सबसे बड़ा अवाॅर्ड ‘जंगली’ की उपाधि को मानते हैं जो उन्हें एक छोटे स्कूल में मिली थी। जगत सिंह जी का कहना है कि वह अपने काम से खुश हैं, उनके अपने काम पर आज खुशी होती है कि उनके इस माॅडल को आज हर कोई अपना रहा है। अलग-अलग विश्वविद्यालय के बच्चे और शोधार्थी उनके पास इस जंगल को देखने आते हैं। जगत सिंह ‘जंगली’ जी का कहना है कि हमने तो देश को जलवायु परिवर्तन का समाधान दे दिया है। लेकिन अब हमारी सरकार का काम है वह पर्यावरण के लिए एक ठोस नीति बनाए और उसको सही से लागू करे। क्योंकि हमारी राजनीति की एक ऐसी विडंबना है कि हमारी सरकार एक तो सोचती बहुत है और दूसरी यह नीति तो जल्दी बना देती से लेकिन इसको ठोस तरीके से कैसे करवाया जाए? ऐसा कम ही देखने को मिलता है।
जंगली जी का मानना है कि अगर सरकार इस मिश्रित वन के माॅडल को उत्तराखण्ड सहित पूरे देश में लागू करे तो पर्यावरण संरक्षण के साथ वनों को और अधिक उत्पादक बनाने में एक क्रांतिकारी कदम होगा। जगतजी का मानना है कि जंगल हमें स्वरोजगार करनेद का माध्यम देता है लेकिन हम स्वयं इसे ठुकरा देते हैं। उनका कहना है कि आज का मनुष्य बीमारियों से घिरा हुआ है, जबकि बूढ़े-पुराने लोग अधिक उम्र होने पर भी पूर्ण तरीके से स्वस्थ रहते हैं क्योंकि वे लोग प्रकृति-जंगल से जुड़े हुए हैंै। उन्हें कोई आवश्यकता नहीं है महँगी-महँगी दवाईयों की, उन्हें तो जंगल की घास मिल जाएं उसी से ठीक हो जाते हैं। इसलिए आज हमें भी जंगली जैसे बनने की आवश्यकता है जो एक बार ठान लें तो करक ही दम लेते हैं। हमने कागजी कार्य तो बहुत देख लिए लेकिन जमीन पर जो कार्य उतार सके उसे ही जंगली जैसी उपाधि दी जाती हैं। हमें इस माॅडल को ऐसे फैलाना है जो सिर्फ किताबों में ना रह जाए बल्कि यह लोगों के द्वारा कार्यों में शुमार हो जाए। इसके लिए हमें एक सोच की आवश्यकता है, जो हमें हौसला देती है, कार्य को अंजाम तक पहुँचाने तक दृढ़ शक्ति देती है। जंगली जी ने हम सबको बता दिया कि प्रकृति से बड़ा कोई शिक्षक नहींे। इसलिए हमें प्रकृति से दूर नहीं, प्रकृति से जुड़े रहना चाहिए।








Sunday 16 April 2017

सफल व्यक्तित्व की कठिनाईयों से भरी यात्रा

               आओ हम भी लौटाएं कुछ मासूमों का बचपन

खुशी क्या होती है? हम अभी तक यही सोचते थे कि अपने लिए कुछ पाने के बाद जो मुस्कान आती है, मेरे लिए उससे बेहतर खुशी हो ही नहीं सकती थी। लेकिन जब से देव संस्कृति विश्वविद्यालय के पंचम दीक्षांत समारोह के सांस्कृतिक कार्यक्रम में नोबेल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी की प्रखर वाणी को सुना। उन्होंने बताया कि जब हाईकोर्ट ने उन 36 को आजाद कर दिया, तब मैं उन्हें पैदल अपने आॅफिस ले जा रहा था। उनकी आजाद होने की खुशी को देखकर लग रहा था कि मैं उन्हें आजाद करके नहीं लौट रहा हूँ, बल्कि उन्होंने मुझे आजाद किया है। जब उनकी आजादी की पहली मुस्कान देखी तो वह खुशी  ऐसी थी जैसे किसी मां को अपने बेटे से मिलने की खुशी होती है। वह आजादी का खुशी से मिलन था। उनकी खुशी के अनुभवों को सुनकर मुझे  अपनी खुशी मुझे ओछी लगने लगी। मुझे लगा कि यही है वास्तविक खुशी। मुझे उसी वक्त लगा कि मेरा देव संस्कृति विश्वविद्यालय में आना सफल हो गया, मैं उनके उन अनुभवों को सुनने का साक्षी बना, जहां से उन्होंने अपने ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ की शुरूआत की थी।
आज हम 21वीं सदी में भारत को देखते हैं तो हमें अपने देश पर गर्व होता है कि हम आज इतने सक्षम हैं कि हम जमीन से लेकर आकाश तक जा सकते हैं। आज हमारे पास सूचनाओं का इतना भंडार हो गया है कि पूरी दुनिया हथेली के समान सिमट गई है। हम भौतिक विकास में बहुत आगे बढ़ चुके हैं लेकिन इन सबके बावजूद भी आज हम जिसमें पिछड़ रहे हैं वह है मानवता। हम उस महीषी स्वामी विवेकानंद जी के देश से हैं जिन्होंने शिकागो में जाकर पूरी दुनिया को भारतीय मानवता का पाठ पढ़ाया था। लेकिन उसी महान व्यक्ति के देश के लोग मानवता को तार-तार करने पर तुले हुए हैं। मैं कोई सुनी-सुनाई या उड़ी-उड़ाई बात नहीं कर रहा हूं। अगर आपको मेरी बातें गलत लगती हैं, तो ज्यादा नहीं आज का समाचार-पत्र पढ़ लीजिए या टी.वी. की हेडलाइन ही देख लीजिए। दोनों में आपको मानवता का हनन ही देखने को मिलेगा। ये बलात्कार, बाल उत्पीड़न जैसे मामले में कहीं न कहीं हमारी भी गलती है। हम सब हर रोज ऐसी खबरें पड़ते हैं जिसमें रिश्ते और मानवता को बार-बार तार किया जाता है। लेकिन हम ये सब देखते हुए आवाज क्यों नहीं उठाते हैं? इसके दो ही कारण हो सकते हैं कि ऐसा हमारी माता-बहिन के साथ तो हुआ नहीं है, हम क्यों इसमें पड़े? या फिर हमने यह गंदे कृत्य इतने देख-सुन लिए हैं कि हमें यह नाॅर्मल लगता है। हम अपने आस-पास देखते ही होंगे कि कितने ही बच्चों से गरीबी, पिछड़ेपन, जाति की आड़ में फायदा देखते हुए उन मासूमों से मजदूरी करवाई जाती है। जिस उम्र में उनके हाथ में किताबें होनी चाहिए, उस वक्त उनके हाथ में कटोरा पकड़ा दिया जाता है। हम बार-बार सुनते हैं कि जगह-जगह कोठे और वैश्याओं के घर हैं, लोग गुलाम बनाये जा रहे हैं। क्या हमने कभी सोचा है कि ये लोग कहां से आ रहे हैं? क्या ऐसे कृत्य वे स्वयं करना चाहते हैं, नहीं। कौन ऐसा होगा जो अपनी जिंदगी को  नरक बनाना चाहेगा। हाल ही में सरकार द्वारा एक रिपोर्ट जारी की गई थी जिसमें बताया गया था कि भारत में पश्चिम बंगाल, मानव तस्करी के मामले में सबसे आगे है। हम सब यही सोचते हैं कि आज के दौर में कहां गुलामी की जंजीरें होंगी लेकिन यह भी लोकतंत्र की एक ऐसी तस्वीर है जिसे बहुत लोग जानते भी नहीं हैं। आज महानगरों की लड़कियां भी अपने आपको सुरक्षित महसूस नहीं कर पाती हैं हम दिल्ली के ‘‘दामिनी केस’’ में देख चुके हैं। यह सब देखकर हम चुप ही रहेंगे क्योंकि हम भारतीयों की प्रवृत्ति शालीनता की है ना। लेकिन कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जो इन कृत्यों को देखकर चुप नहीं रहते हैं बल्कि उसके लिए आवाज उठाते हैं और लड़ते हैं। ऐसे ही व्यक्ति हैं- ‘कैलाश सत्यार्थी’।          
मैं दो साल से देव संस्कृति विश्वविद्यालय में पढ़ रहा हूं।  हर सप्ताह कुलाधिपति डा.प्रणव पण्डया  गीता और ध्यान की कक्षा में हमें बताते हैं कि हमें धर्म और कर्म के बारे में बोलने वाले नहीं, बल्कि कार्य करके समाज को बदलने वाले व्यक्ति चाहिए। ऐसे व्यक्ति जो संकट में डरे नहीं बल्कि डटे रहे। जिन्होंने धर्म और कर्म को जिया हो। जब मैं कैलाश सत्यार्थी जी को सुन रहा था तो मुझे यही लगा कि ये तो उन्हीं व्यक्तियों में से हैं जो सिर्फ समाज के कल्याण के लिए बने हैं। ये सब जानते हैं कि कैलाश सत्यार्थी जी को नोबेल पुरस्कार मिला। लेकिन वहां तक पहुंचने में उन्हें कैसी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, ये कम ही लोग जानते हैं। जब वह 26 की उम्र में नौकरी छोड़कर समाज सेवा की ओर आ रहे थे, तब उनको अपनी माता की ममता को छोड़ना पड़ा। लेकिन उनको समाज के लिए  बड़ा करना था। महापुरूष रिश्तों से अधिक समाज को अहमियत देते हैं और यही कैलाश सत्यार्थी जी ने किया। जब वह बच्चों को बचाने के लिए जाते थे तो वे वहां से पिटकर आते थे इसी कारण उनके पूरे शरीर में चोट ही चोट हैं, लेकिन वो उन चोट खाने के बावजूद कभी डरे नहीं, वो डटे रहे और अपने बचपन बचाओ आंदोलन से 85,000 बच्चों को अपना बचपन दिला दिया है। लेकिन एक बड़ा सवाल सामने था कि इन बच्चों को शिक्षा कैसे दिलाई जाए? शिक्षा के बिना ये समाज से कटकर पीछे चलेंगे। लेकिन समस्या यह थी कि उस वक्त शिक्षा मौलिक अधिकार तो थी नहीं, इसलिए सरकारी स्कूल इनका दाखिला नहीं कर रहे थे। तब उनके पास एक ही विचार आया कि शि क्षा अगर मौलिक अधिकार बन जाए तो ये बच्चे भी शिक्षा पा सकेंगे। शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाने के लिए कन्याकुमारी से दिल्ली तक एक यात्रा निकाली गई, जिसको 163 सांसदों ने अपना समर्थन दिया और इसी कारण 2001 में संसद में यह प्रस्ताव रखा गया और शिक्षा मौैलिक अधिकार बन  गई शिक्षा।                  
कैलाश सत्यार्थी के इस बचपन बचाओ आंदोलन के कारण ही 36 साल पहले पूरी दुनिया में जो  गुलामी में जकड़े बच्चों की संख्या 26 करोड़ थी वो घटकर 16 करोड़ हो गई है। इसी तरह भारत में भी सवा करोड़ से घटकर 45 लाख बची है। ये तो कैलाश सत्यार्थी जी की समाज में बदलाव लाने की गाथा है। उसके बावजूद भी हमारे  पास कुछ सवाल छूट जाते हैं कि यह कैसी मानवता है जहां बच्चों को कैद करके बेचा जा रहा है। हमारे प्रशासन और सरकार की भी कमी है कि देष में 18 करोड़ लोग बेरोजगार हैं, फिर क्यों बाल मजदूरी करवाई जा रही है? हम बाल मजदूरी का विरोध तो करते हैं लेकिन अब तक इसमें सजा कम ही मिलती हैं। कहीं न कहीं शासन इसको अनदेखा करके कई बच्चों के बचपन को उजाड़ रही है। हम सभी आम नागरिक हैं हमारा भी काम है कि इसको कम से कम अपने क्षेत्र में रोका जाए। हम सभी आज सोशल मीडिया से जुड़े हुए हैं हम अपनी बात को प्रशासन तक आसानी से पहुँचा सकते हैं। हम सभी ढाबों और होटलों में खाने जाते हैं तो हमें वहां कई ‘छोटू’ मिल जाते हैं। हमें उनके बचपन को लौटाने में मदद करनी चाहिए और वह सब तभी होगा जब हमारे भीतर भी एक कैलाश सत्यार्थी आ जाए। कैलाश सत्यार्थी जी का स्वयं कहना है कि अब बहुत हो गया ये अत्याचार अब इसको बदलना चाहिए। हमें भी कुछ ऐसा करना चाहिए कि उन मासूमों को उनकी खोई मुस्कान लौटा सकें। उनके द्वारा सुनाई गई दुष्यंत की कुछ पंक्तियां यही व्यक्त करती हैं -
                                               ‘‘हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
                                                  इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
                                                   सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
                                                   सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
                                                    मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
                                                   हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।’’