Sunday 16 April 2017

सफल व्यक्तित्व की कठिनाईयों से भरी यात्रा

               आओ हम भी लौटाएं कुछ मासूमों का बचपन

खुशी क्या होती है? हम अभी तक यही सोचते थे कि अपने लिए कुछ पाने के बाद जो मुस्कान आती है, मेरे लिए उससे बेहतर खुशी हो ही नहीं सकती थी। लेकिन जब से देव संस्कृति विश्वविद्यालय के पंचम दीक्षांत समारोह के सांस्कृतिक कार्यक्रम में नोबेल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी की प्रखर वाणी को सुना। उन्होंने बताया कि जब हाईकोर्ट ने उन 36 को आजाद कर दिया, तब मैं उन्हें पैदल अपने आॅफिस ले जा रहा था। उनकी आजाद होने की खुशी को देखकर लग रहा था कि मैं उन्हें आजाद करके नहीं लौट रहा हूँ, बल्कि उन्होंने मुझे आजाद किया है। जब उनकी आजादी की पहली मुस्कान देखी तो वह खुशी  ऐसी थी जैसे किसी मां को अपने बेटे से मिलने की खुशी होती है। वह आजादी का खुशी से मिलन था। उनकी खुशी के अनुभवों को सुनकर मुझे  अपनी खुशी मुझे ओछी लगने लगी। मुझे लगा कि यही है वास्तविक खुशी। मुझे उसी वक्त लगा कि मेरा देव संस्कृति विश्वविद्यालय में आना सफल हो गया, मैं उनके उन अनुभवों को सुनने का साक्षी बना, जहां से उन्होंने अपने ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ की शुरूआत की थी।
आज हम 21वीं सदी में भारत को देखते हैं तो हमें अपने देश पर गर्व होता है कि हम आज इतने सक्षम हैं कि हम जमीन से लेकर आकाश तक जा सकते हैं। आज हमारे पास सूचनाओं का इतना भंडार हो गया है कि पूरी दुनिया हथेली के समान सिमट गई है। हम भौतिक विकास में बहुत आगे बढ़ चुके हैं लेकिन इन सबके बावजूद भी आज हम जिसमें पिछड़ रहे हैं वह है मानवता। हम उस महीषी स्वामी विवेकानंद जी के देश से हैं जिन्होंने शिकागो में जाकर पूरी दुनिया को भारतीय मानवता का पाठ पढ़ाया था। लेकिन उसी महान व्यक्ति के देश के लोग मानवता को तार-तार करने पर तुले हुए हैं। मैं कोई सुनी-सुनाई या उड़ी-उड़ाई बात नहीं कर रहा हूं। अगर आपको मेरी बातें गलत लगती हैं, तो ज्यादा नहीं आज का समाचार-पत्र पढ़ लीजिए या टी.वी. की हेडलाइन ही देख लीजिए। दोनों में आपको मानवता का हनन ही देखने को मिलेगा। ये बलात्कार, बाल उत्पीड़न जैसे मामले में कहीं न कहीं हमारी भी गलती है। हम सब हर रोज ऐसी खबरें पड़ते हैं जिसमें रिश्ते और मानवता को बार-बार तार किया जाता है। लेकिन हम ये सब देखते हुए आवाज क्यों नहीं उठाते हैं? इसके दो ही कारण हो सकते हैं कि ऐसा हमारी माता-बहिन के साथ तो हुआ नहीं है, हम क्यों इसमें पड़े? या फिर हमने यह गंदे कृत्य इतने देख-सुन लिए हैं कि हमें यह नाॅर्मल लगता है। हम अपने आस-पास देखते ही होंगे कि कितने ही बच्चों से गरीबी, पिछड़ेपन, जाति की आड़ में फायदा देखते हुए उन मासूमों से मजदूरी करवाई जाती है। जिस उम्र में उनके हाथ में किताबें होनी चाहिए, उस वक्त उनके हाथ में कटोरा पकड़ा दिया जाता है। हम बार-बार सुनते हैं कि जगह-जगह कोठे और वैश्याओं के घर हैं, लोग गुलाम बनाये जा रहे हैं। क्या हमने कभी सोचा है कि ये लोग कहां से आ रहे हैं? क्या ऐसे कृत्य वे स्वयं करना चाहते हैं, नहीं। कौन ऐसा होगा जो अपनी जिंदगी को  नरक बनाना चाहेगा। हाल ही में सरकार द्वारा एक रिपोर्ट जारी की गई थी जिसमें बताया गया था कि भारत में पश्चिम बंगाल, मानव तस्करी के मामले में सबसे आगे है। हम सब यही सोचते हैं कि आज के दौर में कहां गुलामी की जंजीरें होंगी लेकिन यह भी लोकतंत्र की एक ऐसी तस्वीर है जिसे बहुत लोग जानते भी नहीं हैं। आज महानगरों की लड़कियां भी अपने आपको सुरक्षित महसूस नहीं कर पाती हैं हम दिल्ली के ‘‘दामिनी केस’’ में देख चुके हैं। यह सब देखकर हम चुप ही रहेंगे क्योंकि हम भारतीयों की प्रवृत्ति शालीनता की है ना। लेकिन कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जो इन कृत्यों को देखकर चुप नहीं रहते हैं बल्कि उसके लिए आवाज उठाते हैं और लड़ते हैं। ऐसे ही व्यक्ति हैं- ‘कैलाश सत्यार्थी’।          
मैं दो साल से देव संस्कृति विश्वविद्यालय में पढ़ रहा हूं।  हर सप्ताह कुलाधिपति डा.प्रणव पण्डया  गीता और ध्यान की कक्षा में हमें बताते हैं कि हमें धर्म और कर्म के बारे में बोलने वाले नहीं, बल्कि कार्य करके समाज को बदलने वाले व्यक्ति चाहिए। ऐसे व्यक्ति जो संकट में डरे नहीं बल्कि डटे रहे। जिन्होंने धर्म और कर्म को जिया हो। जब मैं कैलाश सत्यार्थी जी को सुन रहा था तो मुझे यही लगा कि ये तो उन्हीं व्यक्तियों में से हैं जो सिर्फ समाज के कल्याण के लिए बने हैं। ये सब जानते हैं कि कैलाश सत्यार्थी जी को नोबेल पुरस्कार मिला। लेकिन वहां तक पहुंचने में उन्हें कैसी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, ये कम ही लोग जानते हैं। जब वह 26 की उम्र में नौकरी छोड़कर समाज सेवा की ओर आ रहे थे, तब उनको अपनी माता की ममता को छोड़ना पड़ा। लेकिन उनको समाज के लिए  बड़ा करना था। महापुरूष रिश्तों से अधिक समाज को अहमियत देते हैं और यही कैलाश सत्यार्थी जी ने किया। जब वह बच्चों को बचाने के लिए जाते थे तो वे वहां से पिटकर आते थे इसी कारण उनके पूरे शरीर में चोट ही चोट हैं, लेकिन वो उन चोट खाने के बावजूद कभी डरे नहीं, वो डटे रहे और अपने बचपन बचाओ आंदोलन से 85,000 बच्चों को अपना बचपन दिला दिया है। लेकिन एक बड़ा सवाल सामने था कि इन बच्चों को शिक्षा कैसे दिलाई जाए? शिक्षा के बिना ये समाज से कटकर पीछे चलेंगे। लेकिन समस्या यह थी कि उस वक्त शिक्षा मौलिक अधिकार तो थी नहीं, इसलिए सरकारी स्कूल इनका दाखिला नहीं कर रहे थे। तब उनके पास एक ही विचार आया कि शि क्षा अगर मौलिक अधिकार बन जाए तो ये बच्चे भी शिक्षा पा सकेंगे। शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाने के लिए कन्याकुमारी से दिल्ली तक एक यात्रा निकाली गई, जिसको 163 सांसदों ने अपना समर्थन दिया और इसी कारण 2001 में संसद में यह प्रस्ताव रखा गया और शिक्षा मौैलिक अधिकार बन  गई शिक्षा।                  
कैलाश सत्यार्थी के इस बचपन बचाओ आंदोलन के कारण ही 36 साल पहले पूरी दुनिया में जो  गुलामी में जकड़े बच्चों की संख्या 26 करोड़ थी वो घटकर 16 करोड़ हो गई है। इसी तरह भारत में भी सवा करोड़ से घटकर 45 लाख बची है। ये तो कैलाश सत्यार्थी जी की समाज में बदलाव लाने की गाथा है। उसके बावजूद भी हमारे  पास कुछ सवाल छूट जाते हैं कि यह कैसी मानवता है जहां बच्चों को कैद करके बेचा जा रहा है। हमारे प्रशासन और सरकार की भी कमी है कि देष में 18 करोड़ लोग बेरोजगार हैं, फिर क्यों बाल मजदूरी करवाई जा रही है? हम बाल मजदूरी का विरोध तो करते हैं लेकिन अब तक इसमें सजा कम ही मिलती हैं। कहीं न कहीं शासन इसको अनदेखा करके कई बच्चों के बचपन को उजाड़ रही है। हम सभी आम नागरिक हैं हमारा भी काम है कि इसको कम से कम अपने क्षेत्र में रोका जाए। हम सभी आज सोशल मीडिया से जुड़े हुए हैं हम अपनी बात को प्रशासन तक आसानी से पहुँचा सकते हैं। हम सभी ढाबों और होटलों में खाने जाते हैं तो हमें वहां कई ‘छोटू’ मिल जाते हैं। हमें उनके बचपन को लौटाने में मदद करनी चाहिए और वह सब तभी होगा जब हमारे भीतर भी एक कैलाश सत्यार्थी आ जाए। कैलाश सत्यार्थी जी का स्वयं कहना है कि अब बहुत हो गया ये अत्याचार अब इसको बदलना चाहिए। हमें भी कुछ ऐसा करना चाहिए कि उन मासूमों को उनकी खोई मुस्कान लौटा सकें। उनके द्वारा सुनाई गई दुष्यंत की कुछ पंक्तियां यही व्यक्त करती हैं -
                                               ‘‘हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
                                                  इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
                                                   सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
                                                   सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
                                                    मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
                                                   हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।’’

7 comments:

  1. Well done Rishabh...keep it up.

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    1. शानदार भाव अभिव्यक्ति।

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    2. शानदार भाव अभिव्यक्ति।

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  2. 'शिक्षा मौलिक अधिकार बन गई शिक्षा' में पहले वाले शिक्षा शब्द को हटाने से वाक्य रचना भाषायी दृष्टि से उत्तम रहती।

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  3. 'शिक्षा मौलिक अधिकार बन गई शिक्षा' में पहले वाले शिक्षा शब्द को हटाने से वाक्य रचना भाषायी दृष्टि से उत्तम रहती।

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    1. सुझाव के लिए धन्यवाद

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