यह मेरी पहली उत्तराखण्ड के पहाड़ों और जंगलों की यात्रा थी और इसकी सबसे खास बात थी कि मैं अकेला नहीं था। मेरे साथ मेरे सभी सहपाठी(आकांक्षा, स्वीटी और अंशिका के अलावा)और अध्यापक(सुखनंदन सर, मुकेश बोरा सर, मुकेश तोगड़िया सर और सौरभ सर) साथ थे। उत्तराखण्ड के पहाड़ों के बारे में लोगों से यहां के सौंदर्य और वातावरण के बारे में काफी कुछ सुन चुका था, तो हर बार मन में यही टीस रहती थी कि हरिद्वार में होकर भी ऐसे अद्वितीय स्थान पर नहीं जा पा रहा हूँ। लेकिन मेरी और मेरे सभी सहपाठियों की यह इच्छा पूर्ण हो पाई हमारे विभागाध्यक्ष सुखनंदन सर, मुकेश बोरा सर, मुकेश तोगड़िया सर और सौरभ सर के सहयोग से। यह यात्रा मेरे लिए कई मायनों में अद्वितीय और विशिष्ट रही। मैं इस एकदिनी यात्रा को अपने जीवन का सबसे अच्छा और सुखकारी दिन मानता हूँ। हम सब इस यात्रा में एक प्रकार से नवागुंतक थे। अधिकतर सहपाठी पहली बार पहाड़ों पर यात्रा करने जा रहे थे। लेकिन किसी के चेहरे पर डर की कोई शिकन नहीं थी, बल्कि सबके सब जोश और आनंद से ओत-प्रोत थे और डर किस बात का हमारे साथ अनुभवी लोगों का जत्था था, जो इन पहाड़ों से पूरी तरह चिरप्रतीत थे। कुल मिलाकर यह यात्रा अपने साथियों, अध्यापको और विभागाध्यक्ष सुखनंदन सर के साथ से एक कठिन यादगार और शिक्षाप्रद रही।
1. कुंजा देवी की यात्राः
हम सब हरिद्वार से ऋषिकेश बस स्टैंड पहुँचे। यहां से हमको कुंजा देवी के लिए बस से जाना चाहते थे जो वहां से 23 किमी. की दूरी पर था। लेकिन कोई बस वाला हमें ले जाने को तैयार नहीं था क्योंकि हम संख्या में बहुत थे और बस लंबे दौरे पर चलने वाली थी। अंत में इधर-उधर घूमने के बाद हम सबको गाड़ी बुक करनी पड़ी, जो हम नहीं करना चाहते थे लेकिन हमारे पास इसके अलावा कोई उपाय भी तो नहीं था। हम सब गाड़ी से गोल-गोल घूमे जा रहे थे, तो स्वाभाविक था कि कई लोगों को चक्कर भी आने वाले थे उसमें मैं भी था लेकिन मैं गाड़ी के बाहर के कारण नहीं बल्कि जो अंदर चल रहा था उससे परेशान था। हम जैसे-जैसे ऊपर जा रहे था नीचे की चीजें चींटी के समान प्रतीत हो रही थी, हम पहाड़ के बिल्कुल करीब थे, यह दृश्य मनोरमा के समान था।
1. कुंजा देवी की यात्राः
हम सब हरिद्वार से ऋषिकेश बस स्टैंड पहुँचे। यहां से हमको कुंजा देवी के लिए बस से जाना चाहते थे जो वहां से 23 किमी. की दूरी पर था। लेकिन कोई बस वाला हमें ले जाने को तैयार नहीं था क्योंकि हम संख्या में बहुत थे और बस लंबे दौरे पर चलने वाली थी। अंत में इधर-उधर घूमने के बाद हम सबको गाड़ी बुक करनी पड़ी, जो हम नहीं करना चाहते थे लेकिन हमारे पास इसके अलावा कोई उपाय भी तो नहीं था। हम सब गाड़ी से गोल-गोल घूमे जा रहे थे, तो स्वाभाविक था कि कई लोगों को चक्कर भी आने वाले थे उसमें मैं भी था लेकिन मैं गाड़ी के बाहर के कारण नहीं बल्कि जो अंदर चल रहा था उससे परेशान था। हम जैसे-जैसे ऊपर जा रहे था नीचे की चीजें चींटी के समान प्रतीत हो रही थी, हम पहाड़ के बिल्कुल करीब थे, यह दृश्य मनोरमा के समान था।
1 घंटे की गोल-मोल यात्रा के बाद हम सब उस रूट पर पहुँचे जहां से हम सबको कुंजा देवी के लिए कूच करना था। हमने यहां से जरूरत का समान खरीदा, जो रास्ते में हमें मदद कर सके। हम बनाने के लिए मैगी तो ले आए थे, लेकिन जिसमें बनाना था वो ही नहीं लाए। फिर क्या भारतीयों की प्रकृति ही होती है जुगाड़ करना हमने भी वही किया, एक टीन के कनस्तर को दुकान से खरीद लिया। अब यही कनस्तर हमें मैगी खिलाने वाला था। यहां से हमारी प्रारंभ हुई कुंजा देवी के मंदिर तक की असली यात्रा। अब हम सबको 5 किमी. जंगलों के बीच से पैदल चलकर जाना था। सबके पीठ पर बैग था, हाथ में चढ़ाई के सहायता के लिए डंडा। सब लोग अपने-अपने तरीकों से रोमांचनक से भरी यात्रा का आनंद ले रहे थे। कई लोग पहाड़ों के मनोहर दृश्य को अपने कैमरे में सजों के रख रहे थे, तो हमारे बीच पहाड़ों के जानकर सुखनंदन सर और कविता अस्वाल(पहाड़ों में रहने वाली) थे जो हमें नए-नए पेड़ों और फलों के बारे में बता रहे थे। रास्ते में आने वाली मोड़ें और नीचे दिखने वाली घाटियां हमें बार-बार रोमांचित कर रही थी साथ ही साथ हमारे बीच कुछ निरूअआ वेशभूषा वाले भी थे ।
धूप जैसे-जैसे तेज होती जा रही थी, सबका उत्साह भी बढ़ता जा रहा था। जोश बढ़ाने के लिए बीच-बीच में बाहुबली का प्रसिद्ध उद्घोष ‘‘जय माहिष्मती’’ लगाया जा रहा था। पूरे रास्ते में हमें कोई भी इंसान नहीं मिला, लेकिन बंदर और लंगूर जरूर देखने को मिल जाते थे जो अपनी उछल-कूद से हमें मनोरंजित कर रहे थे। हम इस दृश्य को कैमरे में कैद करना चाहते थे लेकिन वे एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर इतनी तेज उछल-कूद कर रहे थे कि उसे कैद नहीं कर पाये। चलते-चलते हम सब पसीने से तर हो चुके थे। जैसे ही हम धूप से छाव में पहुँचे, उस छाव में हवा अंर्तमन तक ठंडक दे रही थी। इतनी ठंडी हवा का और प्रकृति का सानिध्य पाकर मानो लग रहा था कि बस यही घूमते ही रहें। रास्ते में बहुतयात चीड़ के पेड़ दिखाई पड़ रहे थे जिसके बारे में हम सब सुन चुके थे कि उत्तराखंड के जंगलों में आग लगने का सबसे बड़ा कारण यही पेड़ है। दो घंटे की कठिन और रोमांचित यात्रा के बाद हम अपनी मंजिल कुंजा देवी के मंदिर पहुँच ही गए। पहाडी पर बसा मंदिर, नीचे दूर-दूर तक दिखाई देते हरे-भरे जंगल, धुंध से भरी पहाड़ियां सबको देख कर मानों लग रहा था कि हम एक नई दुनिया में प्रवेश कर रहे हैं। मंदिर से ऋषिकेश में प्रवााहित गंगा पूर्णतः हरीमय दिखाई पड़ रही थी जो जंगल के समान ही लग रही थी।मंदिर में हम सबने पूजा-अर्चना और दर्शन करने के बाद, मुकेश बोरा सर के
फोटोग्राफी स्किल से हम सबकी अलग-अलग पोज में समूह और एकल फोटो ली गई। इतनी
लंबी यात्रा के बाद हम सबको भूख लग चुकी थी, मंदिर के चबूतरे पर ही किचन
का रूप दे दिया गया। सभी लोग अलग-अलग कामों में अपनी भागीदीरी देने लगे।
रवि और स्नेह टमाटर, खीरा, मिर्च और आदि को काटने काकाम कर रहे थे और
सुखनंदन सर और सौरभ सर इन सबको
लाई(मुर्रा),नमकीन में मिलाकर झालमुड़ी का रूप देने का प्रयत्न कर रहे थे। कुछ लोग ऐसे पल को अपने कैमरे में लेने में भी भागीदारी दे रहे थे। सबके प्रयास के बाद हमारी झालमुड़ी तैयार थी, हम सबने उसको स्वाद और मजे से खाया। यहां से पहाड़िया का दूरदर्शन मन में समा गया था। हमारे पास यहां अधिक रूकने का समय नहीं था, सो बेस्वाद गर्म चाय से ऊर्जा से भरे अपनी अगली मंजिल की ओर निकल पड़े।
सुखनंदन सर और मुकेश सर ने मंदिर पर ही एक स्थानीय व्यक्ति से नीचे जाने का पैदल रास्ते के बारे में पता लगाया। अब हमें सबसे कठिन पड़ाव की ओर जाना था जो पांच गावों के बीच(धारकोट, दंगूल, अखोड़, नीरगुडडी) होकर है। सर जब बता रहे थे कि अब इम्तहान का समय है तो हम यही सोच रहे थे कि जैसे आ गए हैं वैसे पहुँच भी जाएंगे। लेकिन जब नीचे की ओर ऊतर रहे थे तब लग रहा था कि सर का कथन उचित ही था। फिर मेरा एक ही लक्ष्य था कि सर के साथ चलकर जितना सीख सकूं उतना अच्छा होगा। लेकिन आलोक नीचे जाते वक्त डर और लड़खड़ा रहा था, तब कुछ देर के लिए उसको नीचे उतरने में मदद करने लगा। आलोक का कहना था कि यह उसके जीवन का सबसे अच्छा और बुरा अनुभव है। नीचे का रास्ता संकरा और कंकड़ों से भरा हुआ था, इसलिए यहां सावधानी और एक-दूसरे की सहायता करते हुए चलना ही आवश्यक है। यह रास्ता मोड़ों और चीड़ के पेड़ों के साथ-साथ देवधार के पेड़ों से भरा हुआ है। सुखनंदन सर ने बताया कि मेरे लिए ‘‘पहाड़ की परिभाषा- देवधार के पेड़ हैं।’’ नीचे दिखने वाले तेड़े-मेड़े रास्ते और ऊपर आसमान को छूती चोटियां सफर को सुहाना बना रही थी। लगभग 1 घंटे की यात्रा के बाद हमने पहले गांव धारकोट में प्रवेश किया। पहाड़ पर बसे गांव, हरे-भरे जंगल, सब पहाड़ों के गांवों में होने का एहसास करा रहे थे। सौरभ सर हमारी यात्रा के वीडियो एक्सपर्ट रहे, उन्होंने पूरी यात्रा के प्रत्येक क्षण को यादगार और ऐतहासिक बना दिया।
रास्ता लंबा था लम्हे और दृश्य सुहावने थे। कुछ लोग इसे यादगार बनाने के लिए कैद कर रहे थे तो कुछ इसे महसूस कर रहे थे। चलते-चलते पूरा एक समूह दो समूहों में बंट गया। पहला सुखनंदन सर के नेतृत्व में जिसमें रवि, सिद्धी, रचना, कविता, मृत्युंजय, प्रतिभा और मैं था। दूसरे ग्रुप का नेतृत्व मुकेश बोरा सर कर रहे थे जिसमें मृदुल, वैशाली, आलोक, युक्ति, स्नेह, विपुल, रोशनी, विवेक और हिमांशु भइया थे। दूसरे ग्रुप में संख्या में अधिक थे और धीरे चलने वाले भी थे। ये लोग पूरी मस्ती करते हुए फोटो और चिल्लाते हुए आ रहे थे। जो सुखनंदन सर के साथ जा रहे थे वो तेज चलने वाले लोग थे वो मस्ती नहीं कर रहे थे आनंद ने रहे थे। वो आनंद ले रहे थे प्रकृति का, पहाड़ों का और सबसे अहम एचओडी सर के अनुभवों का। दोनों ही ग्रुप अपनी अपनी मस्ती में चले जा रहा था, बीच में रूक रूककर मिलते, आराम करते और अगले पड़ाव के लिए निकल पड़ते। हम जबसे कुंजा देवी से चले थे वहां से भरा हुआ पूरा पानी हम पी चुके थे। सभी के गले प्यास के कारण सूखे जा रहे थे।दूर-दूर तक हमें पानी का स्रोत नहीं मिल रहा था, फिर भी हम आगे बढ़े जा रहे थे। हम चलते गए कि पानी कहीं तो मिलेगा और आखिरकार जब हमने एक गांव में प्रवेश किया तो वहां हमें एक पाइप से पानी आ रहा था, जिसे पीकर सबने प्यास बुझाई। सबको प्यास इतनी जोर की लगी थी कि मैं बोतल भरते जा रहा था और वहां से खाली होकर आती जा रही थी। बाद में सुखनंदन सर ने बताया कि प्यास इतनी जोर की थी कि पूरी गंगा ही पी जाऊं। जल के स्रोत से पानी कम आ रहा था इससे पता लग सकता हैै कि यहां पानी की विकट समस्या है। यहां खेती तो नहीं दिखाई पड़ रही थी लेकिन सभी मकानों के आस-पास सब्जियां जरूर देखी जा सकती हैं। थोड़ा विश्राम करने के बाद हम अपने अगले पड़ाव के लिए निकल पड़े।
3. अगला पड़ाव- नीर झरना
हम नीर गांव में सड़क के रास्ते से प्रवेश किया। यहां रूक कर हम गर्म चाय पीकर तरोताजा होना चाहते थे लेकिन समय की कमी होने के कारण हम आगे बढ़ गए। वहां से हम मुख्य सड़क से हटकर नीचे की ओर चलने लगे। यहां पलायन का दंश साफ झलक रहा था, विद्यालय दिखाई पड़ रहे थे लेकिन सबके सब खाली पड़े थे।यहां हमें रास्ते में दैनिक कार्य करते हुए महिलाएं मिली। लेकिन इतनी बड़ी यात्रा में कहीं भी खेती का नामोनिशान नहीं था, हमें मिल रहा था तो बस जंगल और बंजर जमीनें। हमने यहां एक व्यक्ति से बात की उसने बताया कि यहां धान की खेती की जाती है। जब यहां धान की खेती हो सकती है तो फिर बाकी फसलें भी उगाई जा सकती हैं लेकिन लोग जानवरों के डर सये और ना करने की आदत से इस उपजाऊ जमीन को बंजर रखे हुए हैं। इस पर सरकार को अपना रूख करना होगा तभी यहां के लोगों का भला होगा। हमें झरने के पास जाना था सो हम किनारे-किनारे नाले के रास्ते नीचे की ओर चलने लगे। लग रहा था कि झरना पास ही है लेकिन मंजिल अभी दूर थी। सभी लोग थक कर चूर हो गए थे, कुछ लोगों के पैर लड़खड़ाने लगे थे। लेकिन फिर भी सभी चले जा रहे थे क्योंकि ‘‘चलना है क्योंकि चलना पड़ रहा है।’’ कविता कह रही थी कि इतनी छोटी-सी धारा कैसे बड़े झरने का रूप ले सकती है? लेकिन बीच-बीच में हमें कई पारंपरिक स्रोत मिले जिससे कविता की शंका का हल जल्दी ही हो गया। हम जैसे-जैसे झरने के पास जा रहे थे, पानी की कलकल की आवाज अंतर्मन तक सुख की अनुभूति करवा रही थी। जैसे ही हमें झरने की आवाज सुनाई देनी लगी हमें ज्ञात हो गया कि झरना अब ज्यादा दूर नहीं। अब वही पैर जल्दी-जल्दी चलने लगे जो कुछ देर पहले तक लड़खड़ा रहे थे। झरने की आवाज ने पैरों में नई ऊर्जा और जान डाल दी थी। कुछ देर के चलने के बाद आखिरकार हम झरने पर पहुँच ही गए। झरने का दृश्य अस्मरणीय था। झरने को देखकर बस लग रहा था कि कूद जाऊं बस देर थी सर की अनुमति की। सर ने एक बार अनुमति भी दे दी थी कि लेकिन अंत समय में मनाही हो गई क्योंकि अगर मैं नहाऊंगा तो लड़कियां भी नहीं मानेगी। झरने पर सभी ने पानी में पैर डालकर आनंद लिया। यहां घंटों तक सभी पानी में पैर डालकर बैठे रहे। हमने यहां मैगी बनाई जो हमने अपने जुगाड़ु कनंस्तर में बनाई। हमारे पास चलाने के लिए चम्मच नहीं थी तो हमने डंडे से ही मैगी बना डाली। हम सबने प्रयोगशील मैगी को खाया जिसे कहीं से नहीं कहा जा सकता कि वह खराब बनी है। हम सबको पहले से ही देर हो चुके थे।
हम नीर गांव में सड़क के रास्ते से प्रवेश किया। यहां रूक कर हम गर्म चाय पीकर तरोताजा होना चाहते थे लेकिन समय की कमी होने के कारण हम आगे बढ़ गए। वहां से हम मुख्य सड़क से हटकर नीचे की ओर चलने लगे। यहां पलायन का दंश साफ झलक रहा था, विद्यालय दिखाई पड़ रहे थे लेकिन सबके सब खाली पड़े थे।यहां हमें रास्ते में दैनिक कार्य करते हुए महिलाएं मिली। लेकिन इतनी बड़ी यात्रा में कहीं भी खेती का नामोनिशान नहीं था, हमें मिल रहा था तो बस जंगल और बंजर जमीनें। हमने यहां एक व्यक्ति से बात की उसने बताया कि यहां धान की खेती की जाती है। जब यहां धान की खेती हो सकती है तो फिर बाकी फसलें भी उगाई जा सकती हैं लेकिन लोग जानवरों के डर सये और ना करने की आदत से इस उपजाऊ जमीन को बंजर रखे हुए हैं। इस पर सरकार को अपना रूख करना होगा तभी यहां के लोगों का भला होगा। हमें झरने के पास जाना था सो हम किनारे-किनारे नाले के रास्ते नीचे की ओर चलने लगे। लग रहा था कि झरना पास ही है लेकिन मंजिल अभी दूर थी। सभी लोग थक कर चूर हो गए थे, कुछ लोगों के पैर लड़खड़ाने लगे थे। लेकिन फिर भी सभी चले जा रहे थे क्योंकि ‘‘चलना है क्योंकि चलना पड़ रहा है।’’ कविता कह रही थी कि इतनी छोटी-सी धारा कैसे बड़े झरने का रूप ले सकती है? लेकिन बीच-बीच में हमें कई पारंपरिक स्रोत मिले जिससे कविता की शंका का हल जल्दी ही हो गया। हम जैसे-जैसे झरने के पास जा रहे थे, पानी की कलकल की आवाज अंतर्मन तक सुख की अनुभूति करवा रही थी। जैसे ही हमें झरने की आवाज सुनाई देनी लगी हमें ज्ञात हो गया कि झरना अब ज्यादा दूर नहीं। अब वही पैर जल्दी-जल्दी चलने लगे जो कुछ देर पहले तक लड़खड़ा रहे थे। झरने की आवाज ने पैरों में नई ऊर्जा और जान डाल दी थी। कुछ देर के चलने के बाद आखिरकार हम झरने पर पहुँच ही गए। झरने का दृश्य अस्मरणीय था। झरने को देखकर बस लग रहा था कि कूद जाऊं बस देर थी सर की अनुमति की। सर ने एक बार अनुमति भी दे दी थी कि लेकिन अंत समय में मनाही हो गई क्योंकि अगर मैं नहाऊंगा तो लड़कियां भी नहीं मानेगी। झरने पर सभी ने पानी में पैर डालकर आनंद लिया। यहां घंटों तक सभी पानी में पैर डालकर बैठे रहे। हमने यहां मैगी बनाई जो हमने अपने जुगाड़ु कनंस्तर में बनाई। हमारे पास चलाने के लिए चम्मच नहीं थी तो हमने डंडे से ही मैगी बना डाली। हम सबने प्रयोगशील मैगी को खाया जिसे कहीं से नहीं कहा जा सकता कि वह खराब बनी है। हम सबको पहले से ही देर हो चुके थे।
हम सब अभी भी जंगल में थे, रात को हो चुकी थी। ऋषिकेश यहां से 2 किमी. की दूरी पर था। अब सबको एक साथ चलना जरूरी भी था क्योंकि रात का समय था। हम संख्या में इतने अधिक थे अगर हमारे सामने जानवर भी आ जाए तो वह भी डर जाए। आगे से हमारा नेतृत्व सुखनंदन सर और पीछे से मुकेश बोरा सर कर रहे थे। रात में जानवरों के अलावा कोई खतरा नहीं था, रात भी हमारे साथ थी। पूरा आसमान तारों से भरा हुआ था, चांदनी रात थी। नदी की कलकल आवाज सभी के कानों को प्रिय लग रही थी, यह रात यहां उपस्थित हर व्यक्ति को जिंदगी भर याद रहने वाली है ऐसा विहंगमीय दृश्य कौन भूल पाएगा भला। सुखनंदन सर बताते हैं कि यह 2 किमी. की यात्रा मेरी हिमकुण्ड की यात्रा की याद दिलाती है, वही समय, वही दृश्य। ऐसी ही कई यात्राओं और अनुभवों को जानने का लाभ जानने को मौका मिला। कई लोगों को इस यात्रा में डर रहे थे जैसे कि कविता अस्वाल। वह गिरने से नहीं डर रही थी बल्कि गुलदार आदि जानवरों के भय से कांप रही थी। कांच की रोशनी को देखकर उसे किसी जानवर का आभास होता और वह डर जाती। उसने बताया कि उसके घर-परिवार में ऐसी ही कई घटनाएं हो चुकी हैं इसलिए उसे ऐसे स्थानों पर डर लगता है।
1 घंटे की पैदल यात्रा के बाद हम रोड पर आ गए। अब हम भय से सुरक्षित थे, लेकिन अब समस्या थी कि बस स्टैंड कैसे पहुँचे? आसपास कहीं भी टैक्सी नहीं थी, एक बार फिर हमें टैक्सी की खोज में पैदल चलना था। लगभग 2-3 किमी. पैदल चलने के बाद हमें टैक्सी मिली। उससे झिकझिक करने के बाद हमने टैक्सी ली और उसी से देव संस्कृति विश्वविद्यालय भी आ गए। ये मेरे और सभी सहपाठियों की यादगार यात्रा रही। इस यात्रा में हम सबको हजारों पल ऐसे मिले होंगे जिनको हम याद करके हमेशा खुश होते रहेंगे। इस यात्रा के बाद अब मुझे और यात्रा करने का मन हो रहा है लेकिन अकेला नहीं यही सारे लोग मेरे साथ होने चाहिए। मैं ऐसी ऐतहासिक यात्रा के लिए अपने विभागाध्यक्ष सुखनंदन सर, मुकेश बोरा सर और सौरभ सर का तहे दिल से धन्यवाद देता हूँ, जिनके कारण यह यात्रा सफल हो सकी। मैं अपने साथियों का भी धन्यवाद देता हूँ, जिनके कारण यह यात्रा रोमांचित और मनोरंजन से भरी रही।
1 घंटे की पैदल यात्रा के बाद हम रोड पर आ गए। अब हम भय से सुरक्षित थे, लेकिन अब समस्या थी कि बस स्टैंड कैसे पहुँचे? आसपास कहीं भी टैक्सी नहीं थी, एक बार फिर हमें टैक्सी की खोज में पैदल चलना था। लगभग 2-3 किमी. पैदल चलने के बाद हमें टैक्सी मिली। उससे झिकझिक करने के बाद हमने टैक्सी ली और उसी से देव संस्कृति विश्वविद्यालय भी आ गए। ये मेरे और सभी सहपाठियों की यादगार यात्रा रही। इस यात्रा में हम सबको हजारों पल ऐसे मिले होंगे जिनको हम याद करके हमेशा खुश होते रहेंगे। इस यात्रा के बाद अब मुझे और यात्रा करने का मन हो रहा है लेकिन अकेला नहीं यही सारे लोग मेरे साथ होने चाहिए। मैं ऐसी ऐतहासिक यात्रा के लिए अपने विभागाध्यक्ष सुखनंदन सर, मुकेश बोरा सर और सौरभ सर का तहे दिल से धन्यवाद देता हूँ, जिनके कारण यह यात्रा सफल हो सकी। मैं अपने साथियों का भी धन्यवाद देता हूँ, जिनके कारण यह यात्रा रोमांचित और मनोरंजन से भरी रही।