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Monday, 8 April 2019

हरिद्वारः कितना सुखद होता है न बार-बार एक ही जगह पर आना

आसमान हर रोज हमारे साथ होता है लेकिन उस आसमान की लालिमा को हम हमेशा अनुभव नहीं कर पाते हैं। वो यात्रायें ही तो होती है जहां गलियां भी सुस्त होती हैं और हम भी। पौ फटते ही सूरज को देखना, चलते-चलते रूक जाना, मेरे लिये यही यात्रा है। मैं उन बादलों और बहती नदी को देखने के लिए यात्रा करता-रहता हूं। इस बार मैं अपने पुराने शहर की नई जगहों पर गया। कुछ हरिद्वार को देखा और कुछ ऋषिकेश को।


23 मार्च 2019। रात के 11 बजे आनंद विहार में एक बस में बैठा था लेकिन इस बार, मैं अकेला नहीं था। मेरे साथ थे मेरे सफर के साथी, जिन्होंने हरिद्वार-ऋषिकेश का प्लान बनाया था। मैं न जाता तभी भी ये लोग जाते लेकिन मैं जा रहा था एक बार फिर से हरिद्वार। बस साढ़े 11 बजे आनंद विहार से चली और कुछ ही घंटो के सफर के बाद हम हरिद्वार के प्राइवेट बस स्टैंड पर थे। हरिद्वार तो मेरे लिये घर जैसा है, आता-जाता रहता हूं, नया था तो मेरे इन साथियों के लिये। सामान किसी के पास ज्यादा था नहीं, सो होटल रूकने के बजाय हर की पौड़ी जाना ही तय किया।

शहर के गलियों में


मैं कुछ दिन पहले ही हरिद्वार आया था, तब सुबह की ठंडी हवा ने मुझे सर्दी का एहसास कराया था। लेकिन आज न हवा थी और न ही ठंड का एहसास। धीरे-धीरे हमने रेलवे स्टेशन और फिर दो चौराहे पार किये। हम उन्हीं गलियों में चल रहे थे, जहां दिन में बहुत शोर और भीड़ होती है। अभी सब कुछ शांत था, हमारे आगे भी कुछ लोग चल रहे थे। शायद वे भी हरकी पौड़ी जा रहे थे। कुछ गलियों को पार करने के बाद हम गंगा के घाट पर आ गये। हरकी पौड़ी अभी दूर था लेकिन गंगा सामने ही बह रही थी।

गंगा किनारे घाट
मैं तो अभी हरकी पौड़ी जाना चाह रहा था लेकिन हममें से एक को यहीं बैठने का मन हुआ। चलते-चलते अचानक बेहद खूबसूरत दृश्य आ जाता है, तब हम वहीं कुछ देर ठहर जाते हैं। यात्रा करते समय ऐसा अक्सर होता है कि शहर की पपड़ी गिरने में काफी वक्त लगता है। लेकिन एक बारजब हम उस जगह में ढल जाते है तो फिर सब कुछ बेहद साफ दिखने लगता है। हर दृश्य सुंदर लगता है फिर कदम-कदम रूकने की कोई वजह नहीं होती। कुछ देर ठहरने के बाद हम हरकी की पौड़ी की ओर चल दिये।

सुबह-सुबह हरकी पौड़ी
हरकी पौड़ी पर आज कुछ ज्यादा भीड़ थी। सुबह-सुबह मैं हरकी पौड़ी पर कई बार आ चुका था लेकिन आज कुछ अलग लग रही थी हरकी पौड़ी। आगे चले तो कुछ और बदला हुआ दिखाई दिया, हरकी पौड़ी का क्लाॅक टाॅवर। क्लाॅक टावर का रंग पूरा बदल दिया गया था, उसे सुनहरा कर दिया गया था। अब दूर से ही क्लाॅक टावर की चमक देखी जा सकती है। क्लाॅक टाॅवर पर इस सुनहरे रंग से कुछ आकृति भी उकेरी गई थीं लेकिन समझ नहीं आ रहा था आखिर बनाया क्या है? मैंने घड़ी में टाइम देखा साढे पांच बजे थे, क्लाॅक टाॅवर भी इतना ही बजा रही थी।

सफ़र के साथी

सभ्य शहर


क्लाॅक टाॅवर का सही समय देखकर मेरे एक साथी ने बताया अमिताभ बच्चन ने कहा है। ‘कोई शहर कितना सभ्य है, वो उस शहर की क्लाॅक टाॅवर देखकर बताया जा सकता है। घड़ी सही है तो उस शहर के लोग अच्छे हैं’। फिर तो हरिद्वार के लोग अच्छे हुये, मैंने हंसते हुये कहा। मुझे ये सुनकर मन ही मन अच्छा लग रहा था कि ये सभ्य शहर को मैं अपना कहता हूं। हम हरकी पौड़ी पर अब रूके थे तो बस आरती के लिये। आरती होने में अभी समय था इसलिए हरकी पौड़ी को इधर-उधर टहलकर देखने लगे।

नये रंग में क्लॉक टाॅवर
हरकी पौड़ी के दोनों तरफ बेहद सुंदर दृश्य था। मंशा देवी की ओर चन्द्रमा दिखाई दे रहा था और चंडी देवी का मंदिर जिस ओर है। वहां सूरज की लालिमा धीरे-धीरे फैल रही थी,अंधेरा अभी पूरी तरह से छंटा नहीं था। इस सुंदरता को सिर्फ देखकर महसूस किया जा सकता है, जिसे इस वक्त मैं कर पा रहा था। फिर भी हम ऐसे पलों को सहेजना चाहते हैं। हमने अपने-अपने हिस्से की खूबसूरती और लालिमा सहेज ली। वो सवेरे का दृश्य वाकई बेहद सुंदर था। अब आरती का समय हो गया था।

अपने हिस्से की खूबसूरती सहजते
गंगा मैया की आरती शुरू हो गई थी। हमारे सामने ही आरती हो रही थी और गंगा बीच में अपनी अविरल धारा में बह रहीं थीं। आरती के साथ ही हरकी पौड़ी लूटने की कोशिश में लग जाती है। कोई गंगा मैया के नाम पर तो कोई तिलक लगाने के झोल में। मैंने, सबको ये बात बता दी थी कुछ महिलायें आयेंगी और तिलक लगाने की कोशिश करेंगी। उनको मना करके लूटने से बचना है। आरती के बीच में एक महिला आई और हमारे एक साथी के माथे पर तिलक लगा दिया। अब जो तिलक लग गया था तो पैसा तो देना ही था। ये लुटाई, हर आस्था के केन्द्रों पर होती है, बस हमें बचना आना चाहिये।

आरती के वक्त हरकी पौड़ी

सुबह की सरपट


आरती खत्म होते-होते सवेरे का उजाला फैलने लगा था लेकिन दूर तलक आसमां अभी भी लालिमा से भरा हुआ था। ये लालिमा, छंट कर आ रही थी, आने वाला सब कुछ सुंदर लग रहा था। उसी सुंदरता को देखते-देखते हम वापस उसी रास्ते पर आ गये, जहां से आये थे। हम फिर से वहीं बैठ गये, जहां हरकी पौड़ी जाते वक्त बैठे थे। हमने अपने पैर, पानी में डाल लिये। पानी बहुत ठंडा था, कुछ देर बाद लगा कि पैरों में शून्यता आ गई है। इस एहसास को लेकर हम वापस पतली गलियों में आ गये।


हरिद्वार आये कई घंटे बीत गये थे और कुछ खाया नहीं था। अब बारी थी, हरिद्वार में सवेरे के नाश्ते की। हरकी पौड़ी आते हुये कश्यप कचौड़ी का ठेला मिला था। मैंने सुन रखा था कि कश्यप की कचौड़ी बेहद अच्छी होती है। हम सबसे पहले वहीं पहुंच गये और टेस्ट करने के लिए सिर्फ एक ही प्लेट कचौड़ी लगाने को बोला। कुछ देर बाद गर्म-गर्म कचौड़ी, सब्जी के साथ आ गई, उपर से नारियल की गरी को भी डाला गया था।

भोर का नाश्ता
मुझे कचौड़ी से ज्यादा समोसे पसंद हैं लेकिन सच में इस कचौड़ी के सामने वो भी फेल थे। सब कुछ अच्छा था, ये गली, ये पत्ते का दोना जिसमें हम कचौड़ी खा रहे थे। कचौड़ी का स्वाद अच्छा लगा था, सो हमने एक-एक प्लेट और मंगा ली। कश्यप कचौड़ी का स्वाद लेकर हम रेलवे स्टेशन की ओर बढ़ गये। हम अब कुछ देर आराम करना चाहते थे और फिर आगे बढ़ना चाहते थे। इस शहर में बार-बार आना अपने पुराने को याद करने जैसा है। इस शहर में आकर मैं अपने आज और कल में अंतर कर पाता हूं। कितना सुखद होता है न बार-बार एक ही जगह पर आना, जबकि वो तुम्हारा घर न हो। हरिद्वार मेरा घर नहीं है लेकिन मेरा अपना शहर है।

Friday, 22 March 2019

हरिद्वार में कहीं इन ठोकरों पर जाना तो नहीं भूल गये

जब-जब मुझे लगता है कि जिंदगी में बोरियत आ रही है तो मैंं एक सफर पर निकल जाता हूं। कभी वो सफर लंबा होता है तो कभी बहुत छोटा। हरिद्वार मेरे लिये घर जैसा है। यहां की हर गली और दुकान सेे वाकिफ हूं। मैं इस शहर में कभी घूमने के लिहाज से नहीं आया। इस बार भी मैं हरिद्वार घूमने नहीं गया लेकिन खुशी है कि पुरानी गलियों और रास्तों को फिर से पैदल नाप आया हूं। हरिद्वार में सिर्फ हर की पौड़ी और गंगा नहीं है, यहां तो शोर और लुटाई के अलावा कुछ नहीं मिलेगा। असली हरिद्वार तो उन घाटों पर है। जहां लोग होते हुये भी नहीं जाते।


10 मार्च 2019। मैं आराम से दिल्ली में अपने रूम पर हफ्ते भर की थकान दूर कर रहा था। तभी मुझे एक काॅल आया और मैं हरिद्वार जाने के लिये तैयारी करने में लग गया। मैंने रात को 12 बजे कश्मीरी गेट से हरिद्वार के लिये बस पकड़ी और चल पड़ा फिर हरिद्वार के सफर पर। रास्ता जाना-पहचाना था, बस समय निकालना था। गाजियाबाद, मेरठ, मुजफ्फरनगर पार करते हुये बस आगे बढ़ गई। दिल्ली से आने पर जब रूड़की का आता है तो फिर लगता है अब हरिद्वार दूर नहीं है। रात के अंधेरे में सब शांत था सिवाय हाइवे पर दौड़ती गाड़ियों के। सुबह के 5 बजे होंगे बस ने मुझे एक चौराहे पर उतार दिया।

जानी-पहचानी जगह


ये हरिद्वार का प्राइवेट बस स्टैंड है। प्राइवेट बसें यहीं तक आती हैं और यहीं से ऋषिकेश, देहरादून के लिये निकल जाती हैं। शहर के अंदर सरकारी बस ही जाती है। जो पहली बार हरिद्वार आयेगा वो पक्का कन्फ्यूज हो जायेगा कि कहां जाया जाये? मुझे रास्ता पता था सो मैं पैदल ही बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन की ओर बढ़ गया। हरिद्वार यहां पूरी तरह शांत था। रास्ते में प्रेस क्लब  है जहां मैं काॅलेज के समय में कई बार आया था। यहीं दीवारों पर तस्वीरें उकेरी गई थीं। जिसमें एक योग के बारे में थी और एक भारत रत्न मदन मोहन मालवीय जी की थी। यूं ही चलते-चलते मैं बस स्टैंड और रेलवे स्टेशन के सामने आ गया था।

हरिद्वार की गलियों में।

मैं पैदल ही आगे चलने लगा। कुछ लोग बार-बार आये जिनमें कुछ होटल में रूकने के लिये कह रहे थे और कुछ हर की पौड़ी तक छोड़ने की बात कह रहे थे। मैंने दोनों चीजों के लिये मना कर दिया। मुझे हर की पौड़ी तो जाना था लेकिन मुझे पता था कि अंधेरे में हरिद्वार ठगने को तैयार बैठा रहता है। मैं पैदल ही हर की पौड़ी की ओर बढ़ गया। पहले के ही तरह मैं एक बार फिर अंधेरे की खामोशी में हरिद्वार देख रहा था। मैं उन्हीं गलियों में फिर से चल रहा था जहां दिन के उजाले में भीड़ और शोर-शराबा रहता है। इस बार फर्क इतना था कि इन गलियों में मैं भटक नहीं सकता था। इसलिये मैं जल्दी ही हर की पौड़ी पहुंच गया।

सुबह-सुबह हर की पौड़ी।

इतने महीनों से दिल्ली में रह रहा था तो सोचता था कि हरिद्वार और दिल्ली का मौसम एक जैसा है, देहरादून थोड़ा ठंडा है। यही सोचकर मैं बिना गर्म कपड़े के हरिद्वार आ गया था लेकिन अब ठंडी-ठंडी हवा मुझे कपा रही थी। मुझे समझ आ गया था कि हरिद्वार, हमेशा से दिल्ली से ज्यादा ठंडा रहता है। हर की पौड़ी का दृश्य वैसा ही था जैसा मैं हमेशा देखते आया था। कुछ लूटमारी, कुछ भक्ति और गंगा की कलकल करती आवाज। कुछ अलग था तो हर की पौड़ी पर बंदूक लिये तैनात सेना के कुछ जवान। शायद देश का इस समय जो माहौल है उसी को देखते हुये सुरक्षा के इंतजाम किये गये हैं।

सुबह-सुबह अविरल गंगा।

घाटों की सैर

सुबह के 6 बजते ही गंगा मैया की आरती शुरु हो गई। आरती देखने के बाद मैं हर की पौड़ी पर ही घाट के किनारे बैठ गया। हर की पौड़ी पर आने का सबसे बेहतर वक्त यही है। इस समय सबसे कम भीड़ रहती है और आराम से घाट पर बैठा जा सकता है। अब कुछ उजाला हो चला था कि मैं पुल पर आ गया और पार करते हुये हर की पौड़ी से बाहर निकल आया। कभी-कभी रास्ते ही अपनी मंजिल बना लेते हैं। वैसे ही मेरे रास्ते ने मेरी मंजिल बदल दी थी। मैं तो आटो पकड़ना चाह रहा था लेकिन कुछ पैदल चला तो एक नया रास्ता दिख गया और नई मंजिल।

हर की पौड़ी पर गंगा और शिव।

मैं इसी रास्ते पर आगे बढ़ गया। अब तक धूप भी आ चुकी थी लेकिन इतनी नहीं कि गर्मी लगे। मैं आराम से इस धूप में चल सकता था। कुछ आगे बढ़ा तो मुझे कुछ घाट दिखे। तभी मैंने प्लान बनाया कि अब इन घाटों को फिर से देखना है। सबसे पहले जो घाट मिला है उसका नाम है ‘स्व. श्रीमती फूलपति स्मृति घाट’। घाट पूरी तरह से पक्का बना हुआ है। नाम से ही पता चल रहा है कि इस घाट को किसी की स्मृति में बनाया गया है। घाट पर उनकी मूर्ति भी बनी हुई है। उसके बगल में ही श्री स्वामी गुप्ता नंद घाट है।

श्री स्वामी गुप्ता नंद घाट

यहां गंगा और लोग दोनों शांत हैं। यहां हर की पौड़ी की तरह न कलकल करती ध्वनि है और न ही लोगों का शोर। इसी घाट पर भगवान शिव का छोटा-सा मंदिर भी है और उस पर लिखा है- शिव की पौड़ी। घाट पूरी तरह साफ-सुथरा है और पक्का भी। यहां आराम से सीढ़ियों पर बैठा जा सकता है और गंगा को निहारा जा सकता है। यहीं पर सर्वानंद घाट है। अब तक मुझे मिले घाटों में सबसे बड़ा और अच्छा घाट। यहां पर भगवान शंकर का मंदिर है और उसके पुजारी मंदिर में जल चढ़ा रहे हैं। यहां सीढ़ियों के बाद एक बैरक बनाई गई है, सुरक्षा के लिये। यहीं से एक पुल दिख रहा है जहां से गाड़ियां, बसें जा रही हैं। ये घाट दिखने में तो अच्छा है लेकिन हाईवे होने के कारण शोर बहुत है। यहां कुल चार घाट हैं उनको देखने के बाद मैं हाइवे पर आ गया।

घाट से ऐसी दिखती है गंगा।

घाट नहीं, ठोकर है


रोड पार करके मैं अपनी-जानी पहचानी सड़क की ओर जाने लगा। तभी मुझे वो कच्चा पुल दिखा और मेरे एक दोस्त की मानें तो लवर प्वाइंट। जिसके कहने पर हम यहां एक बार चले आये थे और बाद में खुद पर हंस रहे थे। पुरानी जगहों पर आकर पुराने दिन और बातें याद आने लगती हैं। मैं उसी लवर प्वाइंट पर पहुंच गया। यहां से दूर-दूर तक गंगा, पहाड़ और जंगल ही दिखता है। कुछ देर यहां बिताने के बाद मैं वापस अपनी जानी-पहचाने रास्ते पर चलने लगा। मुझे पता था ये रास्ता मुझे कहां ले जायेगा?


कुछ देर चलने के बाद मैं फिर से एक घाट पर आ गया। इस घाट का नाम गुरू कार्षिणि घाट है। मुझे पहला घाट मिला जहां बहुत सारे पेड़ लगे थे। मैं हरिद्वार के भूपतवाला इलाके में आ गया था। यहां घाट पर एक बोर्ड लगा था, जिस पर लिखा था- घाट पर अस्थियां विसर्जित करना मना है। एक-दो घाट पार करने के बाद कुछ घाट कच्चे हो गये थे। अब घाट की जगह ठोकर ने ले ली थी। ठोकर थे तो घाट ही लेकिन उनको कहा ठोकर ही जाता था। मैं ठोकर नंबर 5 पर आ गया था। यहां से गंगा बहुत अच्छी दिख रही थी।

ठोकर नंबर 5 से दिखती गंगा।

ये पूरा इलाका साधु-संतों से भरा हुआ है। सबकी कुटिया बनी हुई है और कुछ की तो कुटिया हाई-फाई बनी हुई है। जिनकी कुटिया पर टाटा स्काई और डिश टीवी की छतरी देखी जा सकती है और कुछ में से तो टीवी चलने की आवाज भी सुनाई देती है। इसके बाद महाराजा अग्रसेन घाट, सच्चिदानंद घाट, गीता कुटीर घाट मिले। इस लाइन में 16 घाट हैं। ये घाट तब तक मिलते-रहते हैं जब तक भारत माता मंदिर नहीं आ जाता। मैंने पहली बार इन घाटों को एक-साथ देखा था। पहले तो बस गंगा किनारे आता था। आज वही गंगा किनारा शांति और शोर में अंतर समझा रही थीं। हरिद्वार अध्यात्मिक क्षेत्र है। यहां शोर से बचना है तो इन घाटों पर आना चाहिये।

Thursday, 30 August 2018

रात को हरिद्वार को शांति से देखा और जाना जा सकता है

हरिद्वार, उत्तराखंड का और हिमगिरि का प्रवेश द्वार है। अक्सर हरिद्वार को मैंने दिन में ही देखा है। पूरा भीड़ वाला सीन याद आ जाता है और आपको हर तरफ से लूटने की पुरजोर कोशिश होती है। हरिद्वार में गंगा बहती है और लोग आते भी इसलिए हैं कि अपने पाप धो सकें। मगर हरिद्वार में इतना शोर है कि गंगा की कलकल करने वाली आवाज आपको सुनाई नहीं देगी। सुनाई देगी तो लोग सुनने नहीं देंगे। उनको अगर हरिद्वार दर्शन करना है तो रात को निकलिये बिल्कुल मुसाफिर की तरह, इस बार मैंने भी कुछ ऐसा ही किया है हरिद्वार दर्शन।

हरकी पैड़ी पर गंगा माँ को निहारती एक महिला। 

दिल्ली के कश्मीरी गेट से 27 अगस्त 2018 को रात 10 बजे उत्तराखंड परिवहन की बस पकड़ी और चल पड़ा हरिद्वार के सफर पर। दिल्ली से हरिद्वार पहुंचना आसान भी है और सस्ता भी। मैंने हरिद्वार में तीन साल बिताये थे तो मैं शहर के बारे में सब जानता हूँ। अगर आप रात में पहुँचते हैं तो ऑटो वालों का किराया हाई-फाई हो जाता है। हरकी पैड़ी जो बस स्टैंड और रेलवे स्टेशन से कुछ ही दूरी पर है। आपसे 150-200 रुपया किराया मांगेंगे। हरिद्वार का धर्म नगरी होने उनके लिए एक प्रकार से फायदा है कि दबाकर लुटाई मचाते हैं। सफर में एक ढाबे पर बस रुकी करीब 12 बजे। बस में गर्मी थी सो बाहर आकर हवा लेने लगा, कुछ लोग खाना खा रहे थे और कुछ हवा में उड़ा रहे थे। करीब आधे घंटे के बाद फिर से अपनी और मेरी मंजिल की ओर बढ़ चली।

सबका अनुमान था कि बस लगभग 6 बजे पहुंचाएगी लेकिन जिस रफ्तार से बस भाग रही थी लग रहा था थोड़े ही देर में हरिद्वार पहुंचा देगी। जब सुबह के 2 बज रहे थे। मैंने देखा हम रुड़की पहुंच गये हैं। कुछ समय बाद बाबा रामदेव का पतंजलि आया। जिस तरह से पतंजलि देश में बढ़ता जा रहा है, यहां इंफ्रास्ट्रक्चर भी बढ़ता जा रहा है। कुछ देर बाद मैं हरिद्वार में था, लगभग पांच महीने बाद। लेकिन फिर भी वही अपनेपन का एहसास हो रहा था। आज अकेला था तो कोई जल्दी जाने की जल्दी नहीं थी, बस पैदल ही इस शहर को नापने का मन कर गया।

रात का हरिद्वार

रात के तीन बजे लगभग पूरा हरिद्वार नींद के आगोश में था। स्टेशन पर कुछ ऑटो वाले खड़े थे कि कोई आये और लंबा हाथ मारा जाये। मैंने तो पैदल नापने का मन बना लिया था सो चल पड़ा। मुझे वो डोसा प्लाज़ा और पंजाबी होटल मिले। जहां मैं अपने दोस्तों के साथ कई बार आया हालांकि वो अभी बंद था। उसके बाद थोड़े ही आगे चला तो वो पुल जिसमें पानी नहीं था। कदम थोड़े ही बढ़े थे कि कानों में एक मधुर सी आवाज आ रही थी, एक दम सुकून देने वाली, मुझे उस ओर आकर्षित करने वाली। मैंने ये आवाज पहले भी कई बार सुनी थी। ये गंगा की कलकल करती धारा थी जिसके पास जाने का मन कर रहा था, निहारने का जी चाह रहा था। मैं उस आवाज की ओर चल पड़ा, पतित पावनी गंगा के पास।

हरकी पैड़ी पर गंगा। 
मैं जब पुल से नीचे उतरकर हरकी पैड़ी के रास्ते गंगा पहुंच गया लेकिन वो छोटा सा गया था। मैं पीछे मुड़ गया और हरिद्वार की गलियों में घूमने लगा जो मुझे हरकी पैड़ी पहुंचाती। वो गालियां जो दिन में दुकानदारों से गुलजार रहती हैं, पर्यटक घूमते-फिरते रहते हैं। जहां अंगूठी, कड़े, मालाएँ, मूर्तियां मिलती हैं वहाँ सन्नाटा पसरा हुआ था लेकिन मैं खुश था क्योंकि हरिद्वार का एक अलग रूप देख रहा था जो कभी नहीं देख पाया था। रास्ता आसान था क्योंकि भीड़ नहीं थी, मैं बस चले जा रहा था।

आगे बढ़ने पर एक बोर्ड मिला, मंशा देवी जाने के लिए पैदल रास्ता यहां से है। तीन साल में कई बार मैं मंशा देवी गया था लेकिन ये बोर्ड नहीं था। ये बोर्ड उन कावड़ यात्रियों के लिए था जो कुछ दिनों तक हरिद्वार में अपनी भक्ति दिखा रहे थे। ऐसी चीजों को देखते-देखते में बढ़ता जा रहा था लोग सो रहे थे लेकिन कुछ कुत्ते जरूर चहल-पहल कर रहे थे। मैं देख रहा था कि कहीं तो हरकी पैड़ी का रास्ता मिले। फिर अचानक वही जानी-पहचानी आवाज कानों में पड़ी जो कुछ देर पहले पड़ी थी, कलकल, धारा, प्रवाहित गंगा। मैं सीढ़ियों से नीचे उतर गया, अपने आप को ठंडा महसूस कर रहा था, मेरे सामने गंगा थी, मैं बस किनारे पर बैठ गया और बस निहारने लगा। अरसे बाद लगा कि घर आ गया। 

Saturday, 6 May 2017

संघर्ष और रोमांच से भरी यादगार कुंजा यात्रा


 


यह मेरी पहली उत्तराखण्ड के पहाड़ों और जंगलों की यात्रा थी और इसकी सबसे खास बात थी कि मैं अकेला नहीं था। मेरे साथ मेरे सभी सहपाठी(आकांक्षा, स्वीटी और अंशिका के अलावा)और अध्यापक(सुखनंदन सर, मुकेश बोरा सर, मुकेश तोगड़िया सर और सौरभ सर) साथ थे। उत्तराखण्ड के पहाड़ों के बारे में लोगों से यहां के सौंदर्य और वातावरण के बारे में काफी कुछ सुन चुका था, तो हर बार मन में यही टीस रहती थी कि हरिद्वार में होकर भी ऐसे अद्वितीय स्थान पर नहीं जा पा रहा हूँ। लेकिन मेरी और मेरे सभी सहपाठियों की यह इच्छा पूर्ण हो पाई हमारे विभागाध्यक्ष सुखनंदन सर, मुकेश बोरा सर, मुकेश तोगड़िया सर और सौरभ सर के सहयोग से। यह यात्रा मेरे लिए कई मायनों में अद्वितीय और विशिष्ट रही। मैं इस एकदिनी यात्रा को अपने जीवन का सबसे अच्छा और सुखकारी दिन मानता हूँ। हम सब इस यात्रा में एक प्रकार से नवागुंतक थे। अधिकतर सहपाठी पहली बार पहाड़ों पर यात्रा करने जा रहे थे। लेकिन किसी के चेहरे पर डर की कोई शिकन नहीं थी, बल्कि सबके सब जोश और आनंद से ओत-प्रोत थे और डर किस बात का हमारे साथ अनुभवी लोगों का जत्था था, जो इन पहाड़ों से पूरी तरह चिरप्रतीत थे। कुल मिलाकर यह यात्रा अपने साथियों, अध्यापको और विभागाध्यक्ष सुखनंदन सर के साथ से एक कठिन यादगार और शिक्षाप्रद रही।


1. कुंजा देवी की यात्राः
हम सब हरिद्वार से ऋषिकेश बस स्टैंड पहुँचे। यहां से हमको कुंजा देवी के लिए बस से जाना चाहते थे जो वहां से 23 किमी. की दूरी पर था। लेकिन कोई बस वाला हमें ले जाने को तैयार नहीं था क्योंकि हम संख्या में बहुत थे और बस लंबे दौरे पर चलने वाली थी। अंत में इधर-उधर घूमने के बाद हम सबको गाड़ी बुक करनी पड़ी, जो हम नहीं करना चाहते थे लेकिन हमारे पास इसके अलावा कोई उपाय भी तो नहीं था। हम सब गाड़ी से गोल-गोल घूमे जा रहे थे, तो स्वाभाविक था कि कई लोगों को चक्कर भी आने वाले थे उसमें मैं भी था लेकिन मैं गाड़ी के बाहर के कारण नहीं बल्कि जो अंदर चल रहा था उससे परेशान था। हम जैसे-जैसे ऊपर जा रहे था नीचे की चीजें चींटी के समान प्रतीत हो रही थी, हम पहाड़ के बिल्कुल करीब थे, यह दृश्य मनोरमा के समान था।

1 घंटे की गोल-मोल यात्रा के बाद हम सब उस रूट पर पहुँचे जहां से हम सबको कुंजा देवी के लिए कूच करना था। हमने यहां से जरूरत का समान खरीदा, जो रास्ते में हमें मदद कर सके। हम बनाने के लिए मैगी तो ले आए थे, लेकिन जिसमें बनाना था वो ही नहीं लाए। फिर क्या भारतीयों की प्रकृति ही होती है जुगाड़ करना हमने भी वही किया, एक टीन के कनस्तर को दुकान से खरीद लिया। अब यही कनस्तर हमें मैगी खिलाने वाला था। यहां से हमारी प्रारंभ हुई कुंजा देवी के मंदिर तक की असली यात्रा। अब हम सबको 5 किमी. जंगलों के बीच से पैदल चलकर जाना था। सबके पीठ पर बैग था, हाथ में चढ़ाई के सहायता के लिए डंडा। सब लोग अपने-अपने तरीकों से रोमांचनक से भरी यात्रा का आनंद ले रहे थे। कई लोग पहाड़ों के मनोहर दृश्य को अपने कैमरे में सजों के रख रहे थे, तो हमारे बीच पहाड़ों के जानकर सुखनंदन सर और  कविता अस्वाल(पहाड़ों में रहने वाली) थे जो हमें नए-नए पेड़ों और फलों के बारे में बता रहे थे। रास्ते में आने वाली मोड़ें और नीचे दिखने वाली घाटियां हमें बार-बार रोमांचित कर रही थी साथ ही साथ हमारे बीच कुछ निरूअआ वेशभूषा वाले भी थे ।
धूप जैसे-जैसे तेज होती जा रही थी, सबका उत्साह भी बढ़ता जा रहा था। जोश बढ़ाने के लिए बीच-बीच में बाहुबली का प्रसिद्ध उद्घोष ‘‘जय माहिष्मती’’ लगाया जा रहा था। पूरे रास्ते में हमें कोई भी इंसान नहीं मिला, लेकिन बंदर और लंगूर जरूर देखने को मिल जाते थे जो अपनी उछल-कूद से हमें मनोरंजित कर रहे थे। हम इस दृश्य को कैमरे में कैद करना चाहते थे लेकिन वे एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर इतनी तेज उछल-कूद कर रहे थे कि उसे कैद नहीं कर पाये। चलते-चलते हम सब पसीने से तर हो चुके थे। जैसे ही हम धूप से छाव में पहुँचे, उस छाव में हवा अंर्तमन तक ठंडक दे रही थी। इतनी ठंडी हवा का और प्रकृति का सानिध्य पाकर मानो लग रहा था कि बस यही घूमते ही रहें। रास्ते में बहुतयात चीड़ के पेड़ दिखाई पड़ रहे थे जिसके बारे में हम सब सुन चुके थे कि उत्तराखंड के जंगलों में आग लगने का सबसे बड़ा कारण यही पेड़ है। दो घंटे की कठिन और रोमांचित यात्रा के बाद हम अपनी मंजिल कुंजा देवी के मंदिर पहुँच ही गए। पहाडी पर बसा मंदिर, नीचे दूर-दूर तक दिखाई देते हरे-भरे जंगल, धुंध से भरी पहाड़ियां सबको देख कर मानों लग रहा था कि हम एक नई दुनिया में प्रवेश कर रहे हैं। मंदिर से ऋषिकेश में प्रवााहित गंगा पूर्णतः हरीमय दिखाई पड़ रही थी जो जंगल के समान ही लग रही थी।मंदिर में हम सबने पूजा-अर्चना और दर्शन करने के बाद, मुकेश बोरा सर के फोटोग्राफी स्किल से हम सबकी अलग-अलग पोज में समूह और एकल फोटो ली गई। इतनी लंबी यात्रा के बाद हम सबको भूख लग चुकी थी, मंदिर के चबूतरे पर ही किचन का रूप दे दिया गया। सभी लोग अलग-अलग कामों में अपनी भागीदीरी देने लगे। रवि और स्नेह टमाटर, खीरा, मिर्च और आदि को काटने काकाम कर रहे थे और सुखनंदन सर और सौरभ सर इन सबको
लाई(मुर्रा),नमकीन में मिलाकर झालमुड़ी का रूप देने का प्रयत्न कर रहे थे। कुछ लोग ऐसे पल को अपने कैमरे में लेने में भी भागीदारी दे रहे थे। सबके प्रयास के बाद हमारी झालमुड़ी तैयार थी, हम सबने उसको स्वाद और मजे से खाया। यहां से पहाड़िया का दूरदर्शन मन में समा गया था। हमारे पास यहां अधिक रूकने का समय नहीं था, सो बेस्वाद गर्म चाय से ऊर्जा से भरे अपनी अगली मंजिल की ओर निकल पड़े।                   

2. गांवों से होकर यात्राः
सुखनंदन सर और मुकेश सर ने मंदिर पर ही एक स्थानीय व्यक्ति से नीचे जाने का पैदल रास्ते के बारे में पता लगाया। अब हमें सबसे कठिन पड़ाव की ओर जाना था जो पांच गावों के बीच(धारकोट, दंगूल, अखोड़, नीरगुडडी) होकर है। सर जब बता रहे थे कि अब इम्तहान का समय है तो हम यही सोच रहे थे कि जैसे आ गए हैं वैसे पहुँच भी जाएंगे। लेकिन जब नीचे की ओर ऊतर रहे थे तब लग रहा था कि सर का कथन उचित ही था। फिर मेरा एक ही लक्ष्य था कि सर के साथ चलकर जितना सीख सकूं उतना अच्छा होगा। लेकिन आलोक नीचे जाते वक्त डर और लड़खड़ा रहा था, तब कुछ  देर के लिए उसको नीचे उतरने में मदद करने लगा। आलोक का कहना था कि यह उसके जीवन का सबसे अच्छा और बुरा अनुभव है। नीचे का रास्ता संकरा और कंकड़ों से भरा हुआ था, इसलिए यहां सावधानी और एक-दूसरे की सहायता करते हुए चलना ही आवश्यक है। यह रास्ता मोड़ों और चीड़ के पेड़ों के साथ-साथ देवधार के पेड़ों से भरा हुआ है। सुखनंदन सर ने बताया कि मेरे लिए ‘‘पहाड़ की परिभाषा- देवधार के पेड़ हैं।’’ नीचे दिखने वाले तेड़े-मेड़े रास्ते और ऊपर आसमान को छूती चोटियां सफर को सुहाना बना रही थी। लगभग 1 घंटे की यात्रा के बाद हमने पहले गांव धारकोट में प्रवेश किया। पहाड़ पर बसे गांव, हरे-भरे जंगल, सब पहाड़ों के गांवों में होने का एहसास करा रहे थे। सौरभ सर हमारी यात्रा के वीडियो एक्सपर्ट रहे, उन्होंने पूरी यात्रा के प्रत्येक क्षण को यादगार और ऐतहासिक बना दिया।
रास्ता लंबा था लम्हे और दृश्य सुहावने थे। कुछ लोग इसे यादगार बनाने के लिए कैद कर रहे थे तो कुछ इसे महसूस कर रहे थे। चलते-चलते पूरा एक समूह दो समूहों में बंट गया। पहला सुखनंदन सर के नेतृत्व में जिसमें रवि, सिद्धी, रचना, कविता, मृत्युंजय, प्रतिभा और मैं था। दूसरे ग्रुप का नेतृत्व मुकेश बोरा सर कर रहे थे जिसमें मृदुल, वैशाली, आलोक, युक्ति, स्नेह, विपुल, रोशनी, विवेक और हिमांशु भइया थे। दूसरे ग्रुप में संख्या में अधिक थे और धीरे चलने वाले भी थे। ये लोग पूरी मस्ती करते हुए फोटो और चिल्लाते हुए आ रहे थे। जो सुखनंदन सर के साथ जा रहे थे वो तेज चलने वाले लोग थे वो मस्ती नहीं कर रहे थे आनंद ने रहे थे। वो आनंद ले रहे थे प्रकृति का, पहाड़ों का और सबसे अहम एचओडी सर के अनुभवों का। दोनों ही ग्रुप अपनी अपनी मस्ती में चले जा रहा था, बीच में रूक रूककर मिलते, आराम करते और अगले पड़ाव के लिए निकल पड़ते। हम जबसे कुंजा देवी से चले थे वहां से भरा हुआ पूरा पानी हम पी चुके थे। सभी के गले प्यास के कारण सूखे जा रहे थे।दूर-दूर तक हमें पानी का स्रोत नहीं मिल रहा था, फिर भी हम आगे बढ़े जा रहे थे। हम चलते गए कि पानी कहीं तो मिलेगा और आखिरकार जब हमने एक गांव में प्रवेश किया तो वहां हमें एक पाइप से पानी आ रहा था, जिसे पीकर सबने प्यास बुझाई। सबको प्यास इतनी जोर की लगी थी कि मैं बोतल भरते जा रहा था और वहां से खाली होकर आती जा रही थी। बाद में सुखनंदन सर ने बताया कि प्यास इतनी जोर की थी कि पूरी गंगा ही पी जाऊं। जल के स्रोत से पानी कम आ रहा था इससे पता लग सकता हैै कि यहां पानी की विकट समस्या है। यहां खेती तो नहीं दिखाई पड़ रही थी लेकिन सभी मकानों के आस-पास सब्जियां जरूर देखी जा सकती हैं। थोड़ा विश्राम करने के बाद हम अपने अगले पड़ाव के लिए निकल पड़े।
3. अगला पड़ाव- नीर झरना
हम नीर गांव में सड़क के रास्ते से प्रवेश किया। यहां रूक कर हम गर्म चाय पीकर तरोताजा होना चाहते थे लेकिन समय की कमी होने के कारण हम आगे बढ़ गए। वहां से हम मुख्य सड़क से हटकर नीचे की ओर चलने लगे। यहां पलायन का दंश साफ झलक रहा था, विद्यालय दिखाई पड़ रहे थे लेकिन सबके सब खाली पड़े थे।यहां हमें रास्ते में दैनिक कार्य करते हुए महिलाएं मिली। लेकिन इतनी बड़ी यात्रा में कहीं भी खेती का नामोनिशान नहीं था, हमें मिल रहा था तो बस जंगल और बंजर जमीनें। हमने यहां एक व्यक्ति से बात की उसने बताया कि यहां धान की खेती की जाती है। जब यहां धान की खेती हो सकती है तो फिर बाकी फसलें भी उगाई जा सकती हैं लेकिन लोग जानवरों के डर सये और ना करने की आदत से इस उपजाऊ जमीन को बंजर रखे हुए हैं। इस पर सरकार को अपना रूख करना होगा तभी यहां के लोगों का भला होगा।  हमें झरने के पास जाना था सो हम किनारे-किनारे नाले के रास्ते नीचे की ओर चलने लगे। लग रहा था कि झरना पास ही है लेकिन मंजिल अभी दूर थी। सभी लोग थक कर चूर हो गए थे, कुछ लोगों के पैर लड़खड़ाने लगे थे। लेकिन फिर भी सभी चले जा रहे थे क्योंकि ‘‘चलना है क्योंकि चलना पड़ रहा है।’’ कविता कह रही थी कि इतनी छोटी-सी धारा कैसे बड़े झरने का रूप ले सकती है? लेकिन बीच-बीच में हमें कई पारंपरिक स्रोत मिले जिससे कविता की शंका का हल जल्दी ही हो गया। हम जैसे-जैसे झरने के पास जा रहे थे, पानी की कलकल की आवाज अंतर्मन तक सुख की अनुभूति करवा रही थी। जैसे ही हमें झरने की आवाज सुनाई देनी लगी हमें ज्ञात हो गया कि झरना अब ज्यादा दूर नहीं। अब वही पैर जल्दी-जल्दी चलने लगे जो कुछ देर पहले तक लड़खड़ा रहे थे। झरने की आवाज ने पैरों में नई ऊर्जा और जान डाल दी थी। कुछ देर के चलने के बाद आखिरकार हम झरने पर पहुँच ही गए। झरने का दृश्य अस्मरणीय था। झरने को देखकर बस लग रहा था कि कूद जाऊं बस देर थी सर की अनुमति की। सर ने एक बार अनुमति भी दे दी थी कि लेकिन अंत समय में मनाही हो गई क्योंकि अगर मैं नहाऊंगा तो लड़कियां भी नहीं मानेगी। झरने पर सभी ने पानी में पैर डालकर आनंद लिया। यहां घंटों तक सभी पानी में पैर डालकर बैठे रहे। हमने यहां मैगी बनाई जो हमने अपने जुगाड़ु कनंस्तर में बनाई। हमारे पास चलाने के लिए चम्मच नहीं थी तो हमने डंडे से ही मैगी बना डाली। हम सबने प्रयोगशील मैगी को खाया जिसे कहीं से नहीं कहा जा सकता कि वह खराब बनी है। हम सबको पहले से ही देर हो चुके थे।
4. हम लौट चले चाँदनी रात मे ऋषिकेश
हम सब अभी भी जंगल में थे, रात को हो चुकी थी। ऋषिकेश यहां से 2 किमी. की दूरी पर था। अब सबको एक साथ चलना जरूरी भी था क्योंकि रात का समय था। हम संख्या में इतने अधिक थे अगर हमारे सामने जानवर भी आ जाए तो वह भी डर जाए। आगे से हमारा नेतृत्व सुखनंदन सर और पीछे से मुकेश बोरा सर कर रहे थे। रात में जानवरों के अलावा कोई खतरा नहीं था, रात भी हमारे साथ थी। पूरा आसमान तारों से भरा हुआ था, चांदनी रात थी। नदी की कलकल आवाज सभी के कानों को प्रिय लग रही थी, यह रात यहां उपस्थित हर व्यक्ति को जिंदगी भर याद रहने वाली है ऐसा विहंगमीय दृश्य कौन भूल पाएगा भला। सुखनंदन सर बताते हैं कि यह 2 किमी. की यात्रा मेरी हिमकुण्ड की यात्रा की याद दिलाती है, वही समय, वही दृश्य। ऐसी ही कई यात्राओं और अनुभवों को जानने का लाभ जानने को मौका मिला। कई लोगों को इस यात्रा में डर रहे थे जैसे कि कविता अस्वाल। वह गिरने से नहीं डर रही थी बल्कि गुलदार आदि जानवरों के भय से कांप रही थी। कांच की रोशनी को देखकर उसे किसी जानवर का आभास होता और वह डर जाती। उसने बताया कि उसके घर-परिवार में ऐसी ही कई घटनाएं हो चुकी हैं इसलिए उसे ऐसे स्थानों पर डर लगता है।
1 घंटे की पैदल यात्रा के बाद हम रोड पर आ गए। अब हम भय से सुरक्षित थे, लेकिन अब समस्या थी कि बस स्टैंड कैसे पहुँचे? आसपास कहीं भी टैक्सी नहीं थी, एक बार फिर हमें टैक्सी की खोज में पैदल चलना था। लगभग 2-3 किमी. पैदल चलने के बाद हमें टैक्सी मिली। उससे झिकझिक करने के बाद हमने टैक्सी ली और उसी से देव संस्कृति विश्वविद्यालय भी आ गए। ये मेरे और सभी सहपाठियों की यादगार यात्रा रही। इस यात्रा में हम सबको हजारों पल ऐसे मिले होंगे जिनको हम याद करके हमेशा खुश होते रहेंगे। इस यात्रा के बाद अब मुझे और यात्रा करने का मन हो रहा है लेकिन अकेला नहीं यही सारे लोग मेरे साथ होने चाहिए। मैं ऐसी ऐतहासिक यात्रा के लिए अपने विभागाध्यक्ष सुखनंदन सर, मुकेश बोरा सर और सौरभ सर का तहे दिल से धन्यवाद देता हूँ, जिनके कारण यह यात्रा सफल हो सकी। मैं अपने साथियों का भी धन्यवाद देता हूँ, जिनके कारण यह यात्रा रोमांचित और मनोरंजन से भरी रही।