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Monday, 8 April 2019

हरिद्वारः कितना सुखद होता है न बार-बार एक ही जगह पर आना

आसमान हर रोज हमारे साथ होता है लेकिन उस आसमान की लालिमा को हम हमेशा अनुभव नहीं कर पाते हैं। वो यात्रायें ही तो होती है जहां गलियां भी सुस्त होती हैं और हम भी। पौ फटते ही सूरज को देखना, चलते-चलते रूक जाना, मेरे लिये यही यात्रा है। मैं उन बादलों और बहती नदी को देखने के लिए यात्रा करता-रहता हूं। इस बार मैं अपने पुराने शहर की नई जगहों पर गया। कुछ हरिद्वार को देखा और कुछ ऋषिकेश को।


23 मार्च 2019। रात के 11 बजे आनंद विहार में एक बस में बैठा था लेकिन इस बार, मैं अकेला नहीं था। मेरे साथ थे मेरे सफर के साथी, जिन्होंने हरिद्वार-ऋषिकेश का प्लान बनाया था। मैं न जाता तभी भी ये लोग जाते लेकिन मैं जा रहा था एक बार फिर से हरिद्वार। बस साढ़े 11 बजे आनंद विहार से चली और कुछ ही घंटो के सफर के बाद हम हरिद्वार के प्राइवेट बस स्टैंड पर थे। हरिद्वार तो मेरे लिये घर जैसा है, आता-जाता रहता हूं, नया था तो मेरे इन साथियों के लिये। सामान किसी के पास ज्यादा था नहीं, सो होटल रूकने के बजाय हर की पौड़ी जाना ही तय किया।

शहर के गलियों में


मैं कुछ दिन पहले ही हरिद्वार आया था, तब सुबह की ठंडी हवा ने मुझे सर्दी का एहसास कराया था। लेकिन आज न हवा थी और न ही ठंड का एहसास। धीरे-धीरे हमने रेलवे स्टेशन और फिर दो चौराहे पार किये। हम उन्हीं गलियों में चल रहे थे, जहां दिन में बहुत शोर और भीड़ होती है। अभी सब कुछ शांत था, हमारे आगे भी कुछ लोग चल रहे थे। शायद वे भी हरकी पौड़ी जा रहे थे। कुछ गलियों को पार करने के बाद हम गंगा के घाट पर आ गये। हरकी पौड़ी अभी दूर था लेकिन गंगा सामने ही बह रही थी।

गंगा किनारे घाट
मैं तो अभी हरकी पौड़ी जाना चाह रहा था लेकिन हममें से एक को यहीं बैठने का मन हुआ। चलते-चलते अचानक बेहद खूबसूरत दृश्य आ जाता है, तब हम वहीं कुछ देर ठहर जाते हैं। यात्रा करते समय ऐसा अक्सर होता है कि शहर की पपड़ी गिरने में काफी वक्त लगता है। लेकिन एक बारजब हम उस जगह में ढल जाते है तो फिर सब कुछ बेहद साफ दिखने लगता है। हर दृश्य सुंदर लगता है फिर कदम-कदम रूकने की कोई वजह नहीं होती। कुछ देर ठहरने के बाद हम हरकी की पौड़ी की ओर चल दिये।

सुबह-सुबह हरकी पौड़ी
हरकी पौड़ी पर आज कुछ ज्यादा भीड़ थी। सुबह-सुबह मैं हरकी पौड़ी पर कई बार आ चुका था लेकिन आज कुछ अलग लग रही थी हरकी पौड़ी। आगे चले तो कुछ और बदला हुआ दिखाई दिया, हरकी पौड़ी का क्लाॅक टाॅवर। क्लाॅक टावर का रंग पूरा बदल दिया गया था, उसे सुनहरा कर दिया गया था। अब दूर से ही क्लाॅक टावर की चमक देखी जा सकती है। क्लाॅक टाॅवर पर इस सुनहरे रंग से कुछ आकृति भी उकेरी गई थीं लेकिन समझ नहीं आ रहा था आखिर बनाया क्या है? मैंने घड़ी में टाइम देखा साढे पांच बजे थे, क्लाॅक टाॅवर भी इतना ही बजा रही थी।

सफ़र के साथी

सभ्य शहर


क्लाॅक टाॅवर का सही समय देखकर मेरे एक साथी ने बताया अमिताभ बच्चन ने कहा है। ‘कोई शहर कितना सभ्य है, वो उस शहर की क्लाॅक टाॅवर देखकर बताया जा सकता है। घड़ी सही है तो उस शहर के लोग अच्छे हैं’। फिर तो हरिद्वार के लोग अच्छे हुये, मैंने हंसते हुये कहा। मुझे ये सुनकर मन ही मन अच्छा लग रहा था कि ये सभ्य शहर को मैं अपना कहता हूं। हम हरकी पौड़ी पर अब रूके थे तो बस आरती के लिये। आरती होने में अभी समय था इसलिए हरकी पौड़ी को इधर-उधर टहलकर देखने लगे।

नये रंग में क्लॉक टाॅवर
हरकी पौड़ी के दोनों तरफ बेहद सुंदर दृश्य था। मंशा देवी की ओर चन्द्रमा दिखाई दे रहा था और चंडी देवी का मंदिर जिस ओर है। वहां सूरज की लालिमा धीरे-धीरे फैल रही थी,अंधेरा अभी पूरी तरह से छंटा नहीं था। इस सुंदरता को सिर्फ देखकर महसूस किया जा सकता है, जिसे इस वक्त मैं कर पा रहा था। फिर भी हम ऐसे पलों को सहेजना चाहते हैं। हमने अपने-अपने हिस्से की खूबसूरती और लालिमा सहेज ली। वो सवेरे का दृश्य वाकई बेहद सुंदर था। अब आरती का समय हो गया था।

अपने हिस्से की खूबसूरती सहजते
गंगा मैया की आरती शुरू हो गई थी। हमारे सामने ही आरती हो रही थी और गंगा बीच में अपनी अविरल धारा में बह रहीं थीं। आरती के साथ ही हरकी पौड़ी लूटने की कोशिश में लग जाती है। कोई गंगा मैया के नाम पर तो कोई तिलक लगाने के झोल में। मैंने, सबको ये बात बता दी थी कुछ महिलायें आयेंगी और तिलक लगाने की कोशिश करेंगी। उनको मना करके लूटने से बचना है। आरती के बीच में एक महिला आई और हमारे एक साथी के माथे पर तिलक लगा दिया। अब जो तिलक लग गया था तो पैसा तो देना ही था। ये लुटाई, हर आस्था के केन्द्रों पर होती है, बस हमें बचना आना चाहिये।

आरती के वक्त हरकी पौड़ी

सुबह की सरपट


आरती खत्म होते-होते सवेरे का उजाला फैलने लगा था लेकिन दूर तलक आसमां अभी भी लालिमा से भरा हुआ था। ये लालिमा, छंट कर आ रही थी, आने वाला सब कुछ सुंदर लग रहा था। उसी सुंदरता को देखते-देखते हम वापस उसी रास्ते पर आ गये, जहां से आये थे। हम फिर से वहीं बैठ गये, जहां हरकी पौड़ी जाते वक्त बैठे थे। हमने अपने पैर, पानी में डाल लिये। पानी बहुत ठंडा था, कुछ देर बाद लगा कि पैरों में शून्यता आ गई है। इस एहसास को लेकर हम वापस पतली गलियों में आ गये।


हरिद्वार आये कई घंटे बीत गये थे और कुछ खाया नहीं था। अब बारी थी, हरिद्वार में सवेरे के नाश्ते की। हरकी पौड़ी आते हुये कश्यप कचौड़ी का ठेला मिला था। मैंने सुन रखा था कि कश्यप की कचौड़ी बेहद अच्छी होती है। हम सबसे पहले वहीं पहुंच गये और टेस्ट करने के लिए सिर्फ एक ही प्लेट कचौड़ी लगाने को बोला। कुछ देर बाद गर्म-गर्म कचौड़ी, सब्जी के साथ आ गई, उपर से नारियल की गरी को भी डाला गया था।

भोर का नाश्ता
मुझे कचौड़ी से ज्यादा समोसे पसंद हैं लेकिन सच में इस कचौड़ी के सामने वो भी फेल थे। सब कुछ अच्छा था, ये गली, ये पत्ते का दोना जिसमें हम कचौड़ी खा रहे थे। कचौड़ी का स्वाद अच्छा लगा था, सो हमने एक-एक प्लेट और मंगा ली। कश्यप कचौड़ी का स्वाद लेकर हम रेलवे स्टेशन की ओर बढ़ गये। हम अब कुछ देर आराम करना चाहते थे और फिर आगे बढ़ना चाहते थे। इस शहर में बार-बार आना अपने पुराने को याद करने जैसा है। इस शहर में आकर मैं अपने आज और कल में अंतर कर पाता हूं। कितना सुखद होता है न बार-बार एक ही जगह पर आना, जबकि वो तुम्हारा घर न हो। हरिद्वार मेरा घर नहीं है लेकिन मेरा अपना शहर है।

Friday, 22 March 2019

हरिद्वार में कहीं इन ठोकरों पर जाना तो नहीं भूल गये

जब-जब मुझे लगता है कि जिंदगी में बोरियत आ रही है तो मैंं एक सफर पर निकल जाता हूं। कभी वो सफर लंबा होता है तो कभी बहुत छोटा। हरिद्वार मेरे लिये घर जैसा है। यहां की हर गली और दुकान सेे वाकिफ हूं। मैं इस शहर में कभी घूमने के लिहाज से नहीं आया। इस बार भी मैं हरिद्वार घूमने नहीं गया लेकिन खुशी है कि पुरानी गलियों और रास्तों को फिर से पैदल नाप आया हूं। हरिद्वार में सिर्फ हर की पौड़ी और गंगा नहीं है, यहां तो शोर और लुटाई के अलावा कुछ नहीं मिलेगा। असली हरिद्वार तो उन घाटों पर है। जहां लोग होते हुये भी नहीं जाते।


10 मार्च 2019। मैं आराम से दिल्ली में अपने रूम पर हफ्ते भर की थकान दूर कर रहा था। तभी मुझे एक काॅल आया और मैं हरिद्वार जाने के लिये तैयारी करने में लग गया। मैंने रात को 12 बजे कश्मीरी गेट से हरिद्वार के लिये बस पकड़ी और चल पड़ा फिर हरिद्वार के सफर पर। रास्ता जाना-पहचाना था, बस समय निकालना था। गाजियाबाद, मेरठ, मुजफ्फरनगर पार करते हुये बस आगे बढ़ गई। दिल्ली से आने पर जब रूड़की का आता है तो फिर लगता है अब हरिद्वार दूर नहीं है। रात के अंधेरे में सब शांत था सिवाय हाइवे पर दौड़ती गाड़ियों के। सुबह के 5 बजे होंगे बस ने मुझे एक चौराहे पर उतार दिया।

जानी-पहचानी जगह


ये हरिद्वार का प्राइवेट बस स्टैंड है। प्राइवेट बसें यहीं तक आती हैं और यहीं से ऋषिकेश, देहरादून के लिये निकल जाती हैं। शहर के अंदर सरकारी बस ही जाती है। जो पहली बार हरिद्वार आयेगा वो पक्का कन्फ्यूज हो जायेगा कि कहां जाया जाये? मुझे रास्ता पता था सो मैं पैदल ही बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन की ओर बढ़ गया। हरिद्वार यहां पूरी तरह शांत था। रास्ते में प्रेस क्लब  है जहां मैं काॅलेज के समय में कई बार आया था। यहीं दीवारों पर तस्वीरें उकेरी गई थीं। जिसमें एक योग के बारे में थी और एक भारत रत्न मदन मोहन मालवीय जी की थी। यूं ही चलते-चलते मैं बस स्टैंड और रेलवे स्टेशन के सामने आ गया था।

हरिद्वार की गलियों में।

मैं पैदल ही आगे चलने लगा। कुछ लोग बार-बार आये जिनमें कुछ होटल में रूकने के लिये कह रहे थे और कुछ हर की पौड़ी तक छोड़ने की बात कह रहे थे। मैंने दोनों चीजों के लिये मना कर दिया। मुझे हर की पौड़ी तो जाना था लेकिन मुझे पता था कि अंधेरे में हरिद्वार ठगने को तैयार बैठा रहता है। मैं पैदल ही हर की पौड़ी की ओर बढ़ गया। पहले के ही तरह मैं एक बार फिर अंधेरे की खामोशी में हरिद्वार देख रहा था। मैं उन्हीं गलियों में फिर से चल रहा था जहां दिन के उजाले में भीड़ और शोर-शराबा रहता है। इस बार फर्क इतना था कि इन गलियों में मैं भटक नहीं सकता था। इसलिये मैं जल्दी ही हर की पौड़ी पहुंच गया।

सुबह-सुबह हर की पौड़ी।

इतने महीनों से दिल्ली में रह रहा था तो सोचता था कि हरिद्वार और दिल्ली का मौसम एक जैसा है, देहरादून थोड़ा ठंडा है। यही सोचकर मैं बिना गर्म कपड़े के हरिद्वार आ गया था लेकिन अब ठंडी-ठंडी हवा मुझे कपा रही थी। मुझे समझ आ गया था कि हरिद्वार, हमेशा से दिल्ली से ज्यादा ठंडा रहता है। हर की पौड़ी का दृश्य वैसा ही था जैसा मैं हमेशा देखते आया था। कुछ लूटमारी, कुछ भक्ति और गंगा की कलकल करती आवाज। कुछ अलग था तो हर की पौड़ी पर बंदूक लिये तैनात सेना के कुछ जवान। शायद देश का इस समय जो माहौल है उसी को देखते हुये सुरक्षा के इंतजाम किये गये हैं।

सुबह-सुबह अविरल गंगा।

घाटों की सैर

सुबह के 6 बजते ही गंगा मैया की आरती शुरु हो गई। आरती देखने के बाद मैं हर की पौड़ी पर ही घाट के किनारे बैठ गया। हर की पौड़ी पर आने का सबसे बेहतर वक्त यही है। इस समय सबसे कम भीड़ रहती है और आराम से घाट पर बैठा जा सकता है। अब कुछ उजाला हो चला था कि मैं पुल पर आ गया और पार करते हुये हर की पौड़ी से बाहर निकल आया। कभी-कभी रास्ते ही अपनी मंजिल बना लेते हैं। वैसे ही मेरे रास्ते ने मेरी मंजिल बदल दी थी। मैं तो आटो पकड़ना चाह रहा था लेकिन कुछ पैदल चला तो एक नया रास्ता दिख गया और नई मंजिल।

हर की पौड़ी पर गंगा और शिव।

मैं इसी रास्ते पर आगे बढ़ गया। अब तक धूप भी आ चुकी थी लेकिन इतनी नहीं कि गर्मी लगे। मैं आराम से इस धूप में चल सकता था। कुछ आगे बढ़ा तो मुझे कुछ घाट दिखे। तभी मैंने प्लान बनाया कि अब इन घाटों को फिर से देखना है। सबसे पहले जो घाट मिला है उसका नाम है ‘स्व. श्रीमती फूलपति स्मृति घाट’। घाट पूरी तरह से पक्का बना हुआ है। नाम से ही पता चल रहा है कि इस घाट को किसी की स्मृति में बनाया गया है। घाट पर उनकी मूर्ति भी बनी हुई है। उसके बगल में ही श्री स्वामी गुप्ता नंद घाट है।

श्री स्वामी गुप्ता नंद घाट

यहां गंगा और लोग दोनों शांत हैं। यहां हर की पौड़ी की तरह न कलकल करती ध्वनि है और न ही लोगों का शोर। इसी घाट पर भगवान शिव का छोटा-सा मंदिर भी है और उस पर लिखा है- शिव की पौड़ी। घाट पूरी तरह साफ-सुथरा है और पक्का भी। यहां आराम से सीढ़ियों पर बैठा जा सकता है और गंगा को निहारा जा सकता है। यहीं पर सर्वानंद घाट है। अब तक मुझे मिले घाटों में सबसे बड़ा और अच्छा घाट। यहां पर भगवान शंकर का मंदिर है और उसके पुजारी मंदिर में जल चढ़ा रहे हैं। यहां सीढ़ियों के बाद एक बैरक बनाई गई है, सुरक्षा के लिये। यहीं से एक पुल दिख रहा है जहां से गाड़ियां, बसें जा रही हैं। ये घाट दिखने में तो अच्छा है लेकिन हाईवे होने के कारण शोर बहुत है। यहां कुल चार घाट हैं उनको देखने के बाद मैं हाइवे पर आ गया।

घाट से ऐसी दिखती है गंगा।

घाट नहीं, ठोकर है


रोड पार करके मैं अपनी-जानी पहचानी सड़क की ओर जाने लगा। तभी मुझे वो कच्चा पुल दिखा और मेरे एक दोस्त की मानें तो लवर प्वाइंट। जिसके कहने पर हम यहां एक बार चले आये थे और बाद में खुद पर हंस रहे थे। पुरानी जगहों पर आकर पुराने दिन और बातें याद आने लगती हैं। मैं उसी लवर प्वाइंट पर पहुंच गया। यहां से दूर-दूर तक गंगा, पहाड़ और जंगल ही दिखता है। कुछ देर यहां बिताने के बाद मैं वापस अपनी जानी-पहचाने रास्ते पर चलने लगा। मुझे पता था ये रास्ता मुझे कहां ले जायेगा?


कुछ देर चलने के बाद मैं फिर से एक घाट पर आ गया। इस घाट का नाम गुरू कार्षिणि घाट है। मुझे पहला घाट मिला जहां बहुत सारे पेड़ लगे थे। मैं हरिद्वार के भूपतवाला इलाके में आ गया था। यहां घाट पर एक बोर्ड लगा था, जिस पर लिखा था- घाट पर अस्थियां विसर्जित करना मना है। एक-दो घाट पार करने के बाद कुछ घाट कच्चे हो गये थे। अब घाट की जगह ठोकर ने ले ली थी। ठोकर थे तो घाट ही लेकिन उनको कहा ठोकर ही जाता था। मैं ठोकर नंबर 5 पर आ गया था। यहां से गंगा बहुत अच्छी दिख रही थी।

ठोकर नंबर 5 से दिखती गंगा।

ये पूरा इलाका साधु-संतों से भरा हुआ है। सबकी कुटिया बनी हुई है और कुछ की तो कुटिया हाई-फाई बनी हुई है। जिनकी कुटिया पर टाटा स्काई और डिश टीवी की छतरी देखी जा सकती है और कुछ में से तो टीवी चलने की आवाज भी सुनाई देती है। इसके बाद महाराजा अग्रसेन घाट, सच्चिदानंद घाट, गीता कुटीर घाट मिले। इस लाइन में 16 घाट हैं। ये घाट तब तक मिलते-रहते हैं जब तक भारत माता मंदिर नहीं आ जाता। मैंने पहली बार इन घाटों को एक-साथ देखा था। पहले तो बस गंगा किनारे आता था। आज वही गंगा किनारा शांति और शोर में अंतर समझा रही थीं। हरिद्वार अध्यात्मिक क्षेत्र है। यहां शोर से बचना है तो इन घाटों पर आना चाहिये।