हरिद्वार, उत्तराखंड का और हिमगिरि का प्रवेश द्वार है। अक्सर हरिद्वार को मैंने दिन में ही देखा है। पूरा भीड़ वाला सीन याद आ जाता है और आपको हर तरफ से लूटने की पुरजोर कोशिश होती है। हरिद्वार में गंगा बहती है और लोग आते भी इसलिए हैं कि अपने पाप धो सकें। मगर हरिद्वार में इतना शोर है कि गंगा की कलकल करने वाली आवाज आपको सुनाई नहीं देगी। सुनाई देगी तो लोग सुनने नहीं देंगे। उनको अगर हरिद्वार दर्शन करना है तो रात को निकलिये बिल्कुल मुसाफिर की तरह, इस बार मैंने भी कुछ ऐसा ही किया है हरिद्वार दर्शन।
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हरकी पैड़ी पर गंगा माँ को निहारती एक महिला। |
दिल्ली के कश्मीरी गेट से 27 अगस्त 2018 को रात 10 बजे उत्तराखंड परिवहन की बस पकड़ी और चल पड़ा हरिद्वार के सफर पर। दिल्ली से हरिद्वार पहुंचना आसान भी है और सस्ता भी। मैंने हरिद्वार में तीन साल बिताये थे तो मैं शहर के बारे में सब जानता हूँ। अगर आप रात में पहुँचते हैं तो ऑटो वालों का किराया हाई-फाई हो जाता है। हरकी पैड़ी जो बस स्टैंड और रेलवे स्टेशन से कुछ ही दूरी पर है। आपसे 150-200 रुपया किराया मांगेंगे। हरिद्वार का धर्म नगरी होने उनके लिए एक प्रकार से फायदा है कि दबाकर लुटाई मचाते हैं। सफर में एक ढाबे पर बस रुकी करीब 12 बजे। बस में गर्मी थी सो बाहर आकर हवा लेने लगा, कुछ लोग खाना खा रहे थे और कुछ हवा में उड़ा रहे थे। करीब आधे घंटे के बाद फिर से अपनी और मेरी मंजिल की ओर बढ़ चली।
सबका अनुमान था कि बस लगभग 6 बजे पहुंचाएगी लेकिन जिस रफ्तार से बस भाग रही थी लग रहा था थोड़े ही देर में हरिद्वार पहुंचा देगी। जब सुबह के 2 बज रहे थे। मैंने देखा हम रुड़की पहुंच गये हैं। कुछ समय बाद बाबा रामदेव का पतंजलि आया। जिस तरह से पतंजलि देश में बढ़ता जा रहा है, यहां इंफ्रास्ट्रक्चर भी बढ़ता जा रहा है। कुछ देर बाद मैं हरिद्वार में था, लगभग पांच महीने बाद। लेकिन फिर भी वही अपनेपन का एहसास हो रहा था। आज अकेला था तो कोई जल्दी जाने की जल्दी नहीं थी, बस पैदल ही इस शहर को नापने का मन कर गया।
रात का हरिद्वार
रात के तीन बजे लगभग पूरा हरिद्वार नींद के आगोश में था। स्टेशन पर कुछ ऑटो वाले खड़े थे कि कोई आये और लंबा हाथ मारा जाये। मैंने तो पैदल नापने का मन बना लिया था सो चल पड़ा। मुझे वो डोसा प्लाज़ा और पंजाबी होटल मिले। जहां मैं अपने दोस्तों के साथ कई बार आया हालांकि वो अभी बंद था। उसके बाद थोड़े ही आगे चला तो वो पुल जिसमें पानी नहीं था। कदम थोड़े ही बढ़े थे कि कानों में एक मधुर सी आवाज आ रही थी, एक दम सुकून देने वाली, मुझे उस ओर आकर्षित करने वाली। मैंने ये आवाज पहले भी कई बार सुनी थी। ये गंगा की कलकल करती धारा थी जिसके पास जाने का मन कर रहा था, निहारने का जी चाह रहा था। मैं उस आवाज की ओर चल पड़ा, पतित पावनी गंगा के पास।
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हरकी पैड़ी पर गंगा। |
मैं जब पुल से नीचे उतरकर हरकी पैड़ी के रास्ते गंगा पहुंच गया लेकिन वो छोटा सा गया था। मैं पीछे मुड़ गया और हरिद्वार की गलियों में घूमने लगा जो मुझे हरकी पैड़ी पहुंचाती। वो गालियां जो दिन में दुकानदारों से गुलजार रहती हैं, पर्यटक घूमते-फिरते रहते हैं। जहां अंगूठी, कड़े, मालाएँ, मूर्तियां मिलती हैं वहाँ सन्नाटा पसरा हुआ था लेकिन मैं खुश था क्योंकि हरिद्वार का एक अलग रूप देख रहा था जो कभी नहीं देख पाया था। रास्ता आसान था क्योंकि भीड़ नहीं थी, मैं बस चले जा रहा था।
आगे बढ़ने पर एक बोर्ड मिला, मंशा देवी जाने के लिए पैदल रास्ता यहां से है। तीन साल में कई बार मैं मंशा देवी गया था लेकिन ये बोर्ड नहीं था। ये बोर्ड उन कावड़ यात्रियों के लिए था जो कुछ दिनों तक हरिद्वार में अपनी भक्ति दिखा रहे थे। ऐसी चीजों को देखते-देखते में बढ़ता जा रहा था लोग सो रहे थे लेकिन कुछ कुत्ते जरूर चहल-पहल कर रहे थे। मैं देख रहा था कि कहीं तो हरकी पैड़ी का रास्ता मिले। फिर अचानक वही जानी-पहचानी आवाज कानों में पड़ी जो कुछ देर पहले पड़ी थी, कलकल, धारा, प्रवाहित गंगा। मैं सीढ़ियों से नीचे उतर गया, अपने आप को ठंडा महसूस कर रहा था, मेरे सामने गंगा थी, मैं बस किनारे पर बैठ गया और बस निहारने लगा। अरसे बाद लगा कि घर आ गया।