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Sunday, 13 October 2019

बारिश में रात के अंधेरे में ट्रेकिंग की है कभी?

यात्रा का पिछला भाग यहां पढ़ें। 

एक सफर में कई कहानियां घूमती रहती हैं। कभी वो कहानी दूसरों से सुनते हो तो कभी कुछ ऐसा हो जाता है। जो आपके लिए कहानी बन जाती है। यात्रा के बाद सफर ऐसी ही कहानियों से याद रहते हैं। जरूरी नहीं ये कहानी अच्छी ही हों, यात्राओं में काफी कुछ खराब भी होता है। इस सुंदर और खूबसूरत सफर की एक कहानी मेरी भी है। एक रात की कहानी, जिसे मैं याद नहीं करना चाहता। मेरे बस में होता तो मैं उस रात को किसी और तरीके से लिखना चाहता। अब जब भी आकाश को देखता हूं तो वो रात याद आ जाती है। लगता है कि फिर से बारिश होगी और मैं फिर से पहाड़ों से निकलने की कोशिश करुंगा।


फूलों की घाटी का ट्रेक पूरा करके हम चार बजे तक नीचे आ गये थे। हम अपने बिस्तर पर आराम कर रहे थे। अब हमें कहीं और नहीं जाना था। अब हमें लौटना था। लौटना, यात्राओं का वो सच है जिसे हर कोई अपनाता है। ऐसी खूबसूरत यात्राओं के बाद हम जहां लौटते हैं वो हमारा घर होता है। कई बार लौटने पर दुख होता है तो कई बार सुकून। तब एक एहसास की परत होती है जिसे कोई कैमरा, कोई शब्द बयां नहीं कर सकते। हम आपस में चर्चा कर रहे थे कि लौटना आज है या कल? मेरा मानना था कि आज ही लौटना चाहिए। उतरने में ज्यादा समय नहीं लगता है। आखिर में हमने रात को बेकार न करने के लिए उसी शाम को चलने का फैसला किया।

एक बेवकूफी भरा निर्णय


हम जब गुरूद्वारे से निकल रहे थे। वहां के स्थानीय लोगों ने हमें कहा, आज की रात यहीं गुजारो, सवेरे होते ही नीचे उतरना। उन्होंने कहा रात को जाना समझदारी भरा निर्णय नहीं है। रास्ते में जंगली जानवर का खतरा भी है। मेरे साथी ने मुझसे पूछा क्या करें? मैं तो अब भी अपनी बात पर टिका हुआ था। शाम के 6 बजे हम घांघरिया से पुलना के लिए नीचे चलने लगे। हम जल्दी-जल्दी चल रहे थे, हमने एक किलोमीटर का रास्ता कुछ ही मिनटों में तय कर लिया था। रास्ते में हमें थके हुए लोग मिल रहे थे। सब हमसे वही सवाल पूछ रहे थे, जो कुछ दिन पहले हम पूछ रहे थे। ‘अभी घांघरिया कितना दूर है।’


रास्ता ढलान वाला था, इसलिए हम रास्ते के फ्लो में धड़कते जा रहे थे। मैं चाहता था कि 5 किलोमीटर का ये रास्ता अंधेरा होना से पहले तय कर लूं। इस रास्ते पर पहले हम चल रहे थे, बाद में भाग रहे थे। हमारे तेज चलने से हमारा एक साथी पीछे रह गया था। हमने एक बार रूककर उसका इंतजार किया। कुछ मिनटों बाद हम तीनों रास्तों पर बढ़ रहे थे लेकिन कुछ ही मिनटों के बाद हम फिर से अलग हो गए। हमें डर अंधेरे का नहीं था, डर था तो बस जंगली जानवरों का। रास्ते में हमें कुछ दुकानें और लोग मिलें। उन्होंने बताया कि रास्ते में जंगली जानवरों का कोई खतरा नहीं है। इस रास्ते में अभी तक ऐसा कुछ नहीं हुआ है।

घुप्प अंधेरा और बारिश


तेज गति से चलते-चलते एक घंटा हो गया था, अंधेरा भी होने वाला था। थोड़े ही आगे चलने पर नदी के बहने की आवाज सुनाई दी। नदी की कलकल आवाज सुनकर लग रहा था कि भ्युंडार गांव आने वाला है। थोड़ी देर बाद हम जंगल से बाहर निकलकर खुले मैदान में आ गए थे। यहां पहुंचकर मुझे बहुत खुशी हो रही थी। ये खुशी वैसी ही थी, जैसी प्यासे को पानी मिलने पर होती है। ऐसा लगा कि कुछ पा लिया हो। थोड़ी देर बाद हम उसी गांव की पहली दुकान पर बैठे थे। हम अपने तीसरे साथी का इंतजार कर रहे थे। थोड़ी देर बाद घाटी में अंधेरा उतरा आया। आज हमारी किस्मत अच्छी नहीं थी इसलिए रात भी चांदनी नहीं थी। दूर-दूर तक घुप्प अंधेरा और सन्नाटा पसरा हुआ था। हमें आगे बढ़ने से ज्यादा, अपने तीसरे साथी की फिक्र हो रही थी।


थोड़ी देर में बारिश होने लगी, हमें लगा कि थोड़ी देर में रूक जाएगी। लेकिन बारिश रूकने का नाम ही नहीं ले रही थी। हम अब तक खुशनसीब थे क्योंकि हमने लगातार बारिश का सामना कहीं नहीं किया था। अब हमें उसी बारिश का सामना करना था। कुछ देर बाद हमारा तीसरा साथी भी आ गया, जो काफी थका हुआ था। वो जब तक आराम कर रहा था। हम बारिश से बचने के इंतजाम में लगे हुए थे। पोंचा और रेनकोट अब हमारे काम आने वाला था। अब आगे का रास्ता हमें अंधेरे और बारिश के बीच तय करना था। हम सबका इस तरह का पहला अनुभव था।

बारिश में ट्रेकिंग


मुझे मन ही मन लग रहा था कि घांघरिया में उन लोगों की बात मान लेनी चाहिए थी। हम मोबाइल की टाॅर्च से अंधेरे में ही आगे बढ़ गए। चलने में अब परेशानी हो रही थी। रास्ता पूरा गीला हो चुका था और अंधेरे की वजह से हम धीरे-धीरे चल रहे थे। अब हम एक-दूसरे से दूर नहीं भाग सकते थे। हम एक साथ, आराम-आराम से आगे बढ़ रहे थे। अब हमें सिर्फ उतरना नहीं था, रास्ता चढ़ाई वाला भी था। डर इस बात का भी था कि पानी की वजह से पत्थर पर पैर फिसल भी सकता है। अंधेर में सब कुछ एक जैसा लग रहा था, खौफनाक। हमें कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। हम सिर्फ सुन पा रहे थे। हम सुनाई दे रही थी नदी की आवाज और बारिश की बूंदों का गिरना। 


मोबाइल की लाइट में हम बढ़े जा रहे थे। बारिश तभी अच्छी लगती है जब आप उसे देख रहे होते हैं। तब तो और अच्छी लगती है जब पहाड़ों में किसी होटल की बालकनी से देखते हैं। लेकिन भारी बारिश में चलना बहुत खतरनाक होता है। उसी भयानक और खतरनाक रास्ते में हम चले जा रहे थे। बारिश के साथ-साथ थकावट भी हम पर हावी थी, इस वजह से हमें बार-बार रूकना भी पड़ रहा था। हमें रास्ते में पानी से बचने की एक जगह मिली। वहां पहुंचे तो 6-7 कुत्ते पहले से ही डेरा डाले हुए थे। कुछ देर वहां रूकने के बाद हम आगे बढ़ गए। पानी रेनकोट से अंदर जाने लगा था। ये बारिश हमें बीमार भी कर सकती थी लेकिन अभी तो हमें यहां से निकलना था।

सिरहन पैदा करने वाला नजारा 


चलते-चलते ऐसी जगह पहुंचे, जहां रास्ता में झरना बन गया था। हमने एक-दूसरे को पकड़कर वो रास्ता तय किया। थोड़ा आगे बढ़े तो जो देखा उसके बाद शरीर में सिहरन-सी दौड़ गई। सामने दो बड़ी-बड़ी चट्टानें गिरी हुई थीं, रास्ता बंद था। पानी की वजह से कुछ देर पहले ही ये पहाड़ यहां गिरा होगा। हमने जल्दी-से वो पत्थर पार किया और तेज कदमों से आगे बढ़ने लगे। डर क्या होता है? वो बस मेरी दिल की धड़कन बता रही थीं। ऐसा कुछ देखने के बाद सफर के खुशनुमा और खूबसूरत वाले नजारे गायब हो जाते हैं। हम बस उस खतरे से बाहर निकलना चाहते थे। अगर हम जल्दी आ गए होते तो हो सकता था कि इन पत्थरों को गिरते हुए देख पाते।


हम तेज कदमों से तो चल रहे थे लेकिन नजरें पहाड़ पर थी। अब हमें हर पल पहाड़ और खतरनाक लग रहा था। डर हम सबको लग रहा था और हम जाहिर भी कर रहे थे। रात के पहर में हमारा सुरक्षित निकलना बहुत जरूरी था। क्योंकि दूूूर-दूर तक हमारी मदद करने वाला कोई नहीं था। हमें पूरे रास्ते में कोई नहीं मिला था। हम तीन ही थे जो इस खतरनाक और खौफनाक रात में चल रहे थे। जब ऐसा कुछ होता है तो वैसा ही कुछ दिमाग में भी चलने लगता है। मुझे टी.वी. पर चलने वाली खबरें याद आने लगी थीं। ये सब होने के बाद हौंसला ही होता है जो आपको जूझने के लिए तैयार रखता है। यही वो समय होता है जब आपको सबसे ज्यादा हिम्मत दिखानी होती है।

पहली बार मैंने आंखों से प्रकृति का ऐसा रूप देखा था। अब लग रहा था कि सफर कुछ ज्यादा ही रोमांचक हो गया था।लग रहा था कि ये सफर कुछ ज्यादा ही लंबा हो गया है। पहली बार मैं इस सफर को खत्म करने के लिए बेसब्र था। थोड़ी देर बाद हम पुलना की सड़कों पर चल रहे थे। हम सड़क पर बैचेन होकर होटल और होमस्टे खोज रहे थे। हमें कुछ भी नहीं मिल रहा था। तभी हमें एक जगह होमस्टे का बोर्ड लगा हुआ दिखाई दिया। उसके नीचे नंबर भी लिखा हुआ था। उसे देखकर एक आशा जगी। मैंने नंबर लगा दिया, फिर याद आया यहां तो नेटवर्क नहीं है।

रोमांच के आखिरी पल


अगर पुलना में नहीं रूके तो फिर 4 किलोमीटर चलकर गोबिंदघाट जाना पड़ता। ऐसा करने की हममें से किसी की भी हिम्मत नहीं थी। जहां ये बोर्ड था, उसी के बगल से सीढ़ियां गईं हुई थीं। हम सीढ़िया उतरकर घर के मालिक को बुलाने लगे। एक शख्स बाहर आया, उसने बताया कि मेरा ही होमस्टे है। तब लगा कि अब कुछ आराम मिलेगा। हमें हमारा कमरा दे दिया गया। हमारे सारे कपड़े गीले हो चुके थे। हमने कपड़ों को कमरे में जगह-जगह टांग दिया। लाइट न होने की वजह से मोमबत्ती की रोशनी में बिस्तर पर जा गिरे। ये अगर और कोई दिन होता तो इस रात की तारीफ की जा सकती थी लेकिन अभी तो गिरी हुई चट्टान नजरों के सामने आ रही थी। थकान इतनी थी कि हमने ये भी नहीं पूछा कि कमरे का पैसा कितना होगा? हमें तो कहीं ठहरना था और हम इस घुप्प अंधेरे में बिस्तर पर पड़ गए।


ये पूरी यात्रा कई मायनों में सीखने के लिए बहुत अच्छी रही। इस यात्रा से मैंने कई अनुभव जुटाए। यात्रा की कई अच्छी और बुुरी बात जानी। ये भी कि अनहोनी को टालने से हमेशा बचो। सफर में जोश से ज्यादा, होश का होना बहुत जरूरी है। आपका एक बुरा निर्णय, कई लोगों को मुश्किल में डाल सकता है। इन मुश्किलों के बाद भी हम बचकर सही सलामत आ गए थे। अब मैं सोचता हूं कि उस रात जो हुआ। उसने मेरी इस यात्रा को और रोचक और यादगार बना दिया। जब मैं वापस लौट रहा था तो पिछले कुछ दिनों में जो-जो पाया था। उसकी छवि दिमाग में चल रही थीं। इन तमाम मुश्किलों के बाद मैं फिर से ऐसी ही किसी यात्रा पर जाने के लिए तैयार हूं।

Sunday, 6 October 2019

फूलों की घाटीः इस खूबसूरती के आगे सब कुछ फीका

यात्रा का पिछला भाग यहां पढ़ें।

कठिन है, बहुत ही कठिन है किसी एक जगह पर टिके रहना। अगर आसान है तो भीड़ में खुद को अकेला पाना, पर अकेले में अकेले न होना कठिन है। ये सब मुमकिन है तो बस यात्राओं में। यात्राएं होती हैं खुद को बह जाने के लिए, खुद को आजाद करने के लिए। किसी सफर पर खुद को ले जाने से पहले अपने मन को ले जाना पड़ता है। उसके बाद हर सफर खूबसूरत लगने लगता है। यात्राएं कितनी बेहतरीन चीज है न। यहां अकेले होने के बावजूद अकेलापन महसूस नहीं होता है। एक खूबसूरत नजारे को घंटों देखता रहना भी कम लगता है और अगर ऐसा हो जब चारों तरफ ही ऐसे खूबसूरत नजारें हों तब। मैं ऐसे ही खूबसूरत नजारों की घाटी को देखने वाला था, एकटक।

फूलों की घाटी।

हेमकुंड साहिब के ट्रेक ने मुझे इतना थका दिया था कि मेरा कहीं और जाने का मन ही नहीं हो रहा था। सुबह हो चुकी थी और मेरी नींद भी खुल चुकी थी। मैं और मेरे दोनों साथी अपना सामान पैक कर रहे थे। उनके और मेरे बैग पैक करने में अंतर था। वो कहीं जाने के लिए तैयार थे और मैं लौटने की तैयारी कर रहा था। मेरे मन में बहुत कुछ चल रहा था। एक मन कह रहा था कि मुझे इनके साथ ही जाना चाहिए। दूसरी तरफ ये भी लग रहा था कि ये चढ़ाई कठिन हुई तो उतरना मुश्किल होगा। जब आप मन से थके हुए हों और घबरा रहे हों। तब आपके पास एक दोस्त होना चाहिए जो आपका हौंसला बढ़ा सके। खुशकिस्मती से मेरे पास ऐसा ही दोस्त था। उसने मुझे हौंसला दिया कि हम इस जगह के लिए ही तो आए थे, इसको पूरा किए बिना वापस नहीं जा सकते। उसकी बातें सुनकर मैंने भी हां कर दी। इस बार हमारा सफर था, फूलों की घाटी।

चलें एक और सफर पर 


सुबह कल ही तरह खूबसूरत थी। यहां घूमने आने वाले लोग हमारे साथ चल रहे थे। रास्ते के किनारे बहुत से लोग बैठे भी थे और खिलखिला रहे थे। ये स्थानीय लोग थे, इनकी हंसी देखकर अंदर से तो अच्छा लग रहा था। लेकिन दिमाग भारी होने की वजह से चेहरे पर हंसी नहीं आ पा रही थी। मैंने अपने दोस्त से तो चढ़ाई के लिए तो हां कर दी थी। लेकिन मन ही मन सोच लिया था कि चढ़ाई कठिन रही थी बीच से ही वापिस लौट आऊंगा। मैंने फिर से उसी झरने का पार किया जो कल बेहद खूबसूरत लग रहा था। पानी की कलकल अब भी वही थी लेकिन हर रोज देखने पर शायद हमारा नजरिया बदल जाता है। करीब आधा किलोमीटर चलने के बाद वो जगह आई। जहां से हमें फूलो की घाटी के लिए जाना था। मैं उसी रास्ते पर चलने लगा। ये रास्ता संकरा जरूर था लेकिन आसान था। ऐसे ही रास्ते पर कुछ देर चलने के बाद एक टिकट काउंटर आया। यहां कुछ बोर्ड लगे हुए थे। जिसमें फूलों की घाटी का नक्शा और उसकी जानकारी दी हुई थी।

यहीं से शुरु होता है सफर।

यहां एक परमिट बनता है फूलों की घाटी में प्रवेश के लिए। ये टिकट काउंटर सुबह 7 बजे से 12 बजे तक खुलता है। उसके बाद फूलों की घाटी में जाना मना है। भारतीयों के लिए ये टिकट 150 रुपए का है और विदेशी नागरिकों के लिए 650 रुपए का। हमने वो परमिट लिया और फूलों की घाटी की ओर चल पड़े। सही मायने में फूलों की घाटी का सफर अब शुरू हुआ था। हम जंगल के बीचों बीच चल रहे थे और आसपास के ऊंचे-ऊंचे पेड़ों को देखते जा रहे थे। अचानक हम अंधेरे से निकलकर उजाले में आ गए। यहां एक नदी बह रही थी, जो इस समय एक धारा बनकर निकल रही थी। पहाड़ों में पानी ऐसे ही बहता है, अलग-अलग जगह पर। यहां पानी का स्रोत सिर्फ नदी नहीं होते, जंगल और जमीन भी अपना काम करते-रहते हैं।

फूलों की घाटी जाने का परमिट।


जंगल के बीच से 


कई पेड़ों पर छोटे-छोटे बोर्ड लगे हुए थे, जिनमें उनकी प्रजाति का नाम लिखा हुआ था। ऐसी ही एक पत्थर पर लिखा हुआ था, ब्लू पोपी स्पाॅट। हम सोच रहे थे कि ब्लू पोपी कोई प्यारा जानवर है। बाद में पता चला कि ब्लू पोपी, एक खूबसूरत फूल होता है। हालांकि उस जगह पर न फूल था और न ही कोई जानवर। हम फिर से जंगल से खुले आसमान के नीचे आ गए थे। ये नजारे बदलने का काम कर रही थी एक नदी। इस नदी का नाम पुष्पवती है। पहले इस घाटी को इसी नाम से जाना जाता था, बाद में इसे फूलों की घाटी कहने लगे। इस नाम बदलने की एक कहानी है। 1931 में ब्रिटेन के पर्वतारोही फ्रैंक एस स्मिथ अपने दोस्त आर एल होल्डसवर्थ के साथ कामेट पर्वत के अभियान से लौट रहे थे। तब उनको रास्ते में ये घाटी मिली, इसकी खूबसूरती ने उनको दंग कर दिया। 1937 में वे वापस इसी घाटी को देखने आए और इस पर एक किताब लिखी, फूलों की घाटी। तब से ये जगह फूलों की घाटी कहलाने लगी।

पहाड़ों के बीच से बहती नदी।

अभी तक रास्ता बहुत आसान लग रहा था लेकिन पुल को पार करने के बाद चढ़ाई शुरू हो गई। हमें इस चढ़ाई में मुश्किल नहीं हो रही थी क्योंकि हेमकुंड की कठिन चढ़ाई ने बहुत कुछ सिखा दिया था। ये नदी का जाबर दृश्य बेहद ही खूबसूरत है। दो ऊंची चटटानों के बीच से बहती एक नदी। इससे पहले ऐसे नजारे सिर्फ फिल्मों में देखे थे। तब मन ही मन कहता था, कभी जाऊँगा इन जगहों पर। अब मन की बात को आंखों से देख रहा था। मैं बहुत थका हुआ था लेकिन ऐसे नजारे सारी थकान भुला देते हैं। थकान अगर हार है तो ये नदी, ये पहाड़ जीतते रहने की एक आशा है।

खूबसरत नजारे


एक जगह से चलकर, दूसरी जगह तक पहुंचने में कितना समय होता है। इस समय में आप अपने साथ होते हैं, खुद से बात कर रहे होते हैं, खुद के बारे में सोच रहे होते हैं। मैं तब हरे-भरे मैदान के बारे में सोच रहा था, फूलों की घाटी के बारे में सोच रहा था और साथ चलते लोगों के बारे में भी। ऐसे ही चलते-चलते हम रूक भी रहे थे, कभी थकान की वजह से तो कभी खूबसूरत नजारों की वजह से। रास्ते में ऐसी ही एक खूबसूरत जगह आई, जिसको हम देखते ही रह गए। दूर तलक हरियाली के मैदान थे, उसके साथ चारों तरफ पहाड़ और उनमें तैरते बादल। ये सब देखने में जितना अच्छा लगता है उससे कहीं ज्यादा खुशी उस पल को याद करने से होती है। सफर यही तो है, चलना और रूकना।

कभी चढ़ना तो कभी उतरना, यही तो सफर है।

वैली ऑफ फ्लावर के लिए हम अकेले नहीं जा रहे थे। इस संकरे रास्ते पर बहुत सारे लोग हमारे साथ थे। उन सबके बीच मेरी नजर एक बच्चे पर चली गई। जिस उम्र में हम स्कूल भी साइकिल से जाते थे वो पैदल फूलों की घाटी जा रहा था। वो चढ़ तो रहा था लेकिन थकान उस पर हावी थी। वो बार-बार अपनी मां से रूकने को कह रहा था और उसकी मां उसे चलने पर जोर दे रही थीं। कुछ आगे बढ़े तो एक जगह आई जहां लिखा था टिपरा ग्लेशियर को देखें। लेकिन इस समय कोई टिपरा ग्लेशियर नहीं था। थोड़ा आगे बढ़े तो एक गुफा मिली, बामण घौड़ गुफा। बारिश के समय इसके नीचे लोग रूकते और इंतजार करते हैं, बारिश के कम होने का। ऐसे ही रास्तों को पार करने के बाद हम फूलों की घाटी में प्रवेश कर गए।

फूलों से भरी एक दुनिया


फूलों की घाटी में जैसे ही घुसे, चारों तरफ कुहरा छाने लगा। ऐसे लगा जैसे मौसम की मेरे साथ कोई दुश्मनी हो। पहले हेमकुंड साहिब पहुंचा तो कुहरा था, अब फूलों की घाटी में भी वही हाल था। कहते हैं जब आसमां साफ हो न हो, वो अपना ही लगता है। कुछ न कुछ वो हमेशा देता ही रहता है। इस धुंध में भी एक खूबसूरत खुशबू बह रही थी। उसी खुशबू को देखते हुए मैं आगे बढ़ रहा था। मेरे चारों तरफ अब सिर्फ फूल ही फूल थे। ऐसे फूल जो मैंने कभी देखे नहीं थे। मैं ऐसी ही खूबसूरती को देखते हुए बढ़ता रहा और भोजपत्र के पेड़ के नीचे बैठ गया। कुछ देर बाद वहां एक टूरिस्ट गाइड आया। उसने बताया कि आगे इसी नदी का छोर है, वहां तक जरूर जाना चाहिए। मैं फिर से चलने के लिए तैयार हो गया।

फूलों की भी एक दुनिया होती है।

काॅलेज के समय से मैं फूलों की घाटी का नाम सुनता आ रहा था। तब लगता कि कहीं हिमालय के बीच होगी और वहां जाना नामुमकिन होगा। अब मैं उसी फूलों की घाटी को निहारते हुए, रूकते हुए, चल रहा था। आगे बढ़ा तो फिर से रास्ते में पानी मिला। इस बार कोई पुल नहीं था, पत्थरों पर कदम रखकर आगे बढ़ना था। पानी को पार करने के बाद मैं फिर से फूलों के बीच था। चलते-चलते एक ऐसी जगह आई, जहां से दो रास्ते गए थे। वहीं एक बोर्ड लगा हुआ था, जिसमें टिपरा की ओर और लेगी की ओर रास्ता था। मैं सीधे रास्ते पर चलने लगा जो टिपरा की ओर जा रहा था। इतने दूर चलने पर अब कम ही लोग रास्ते में दिख रहे थे। कहते हैं न कठिन रास्ते पर कम ही लोग जाते है। जितना आप आगे जाते हैं सुकून उतना ज्यादा पाते हैं। फूलों की घाटी में चलते-चलते ऐसी जगह आ गया जहां नदी गिर नहीं बह रही थी। हम उसी नदी के पास जाकर बैठ गए।

नदी के छेार पर


यहां मैं घंटों बैठा रह सकता था और कुछ हुआ भी वैसा ही। नदी के किनारे पत्थरों की टेक पर मैं कभी बैठा पहाड़ों को निहार रहा था तो कभी छलांग लगा रहा था। घंटों यहां गुजारने के बाद हम वापस उसी जगह आ गए। जहां से टिपरा के लिए गए थे। अब हम लेगी की ओर जा रहे थे। मुझे नहीं पता था इस रास्ते पर क्या है? जब वो खूबसूरत रास्ता खत्म हुआ तो वहां एक समाधि दिखी। उसके सामने ही कुछ कुर्सियां बनी हुईं थी। ये समाधि है, जाॅन मार्गरेट लेग। लेग लंदन में फूलों पर अध्ययन कर रही थीं। 1939 में वे फूलों की घाटी में फूलों पर स्टडी कर रही थीं। फूलों की इकट्ठा करते समय वे गिर गईं और उनकी मौत हो गई। उनकी खोज में उनकी बहन यहां आई और यही उनकी समाधि स्थल बनाई।

           जाॅन मार्गरेट लेग की समाधि

यहां जो भी आता है, उनको श्रद्धांजलि जरूर देता है, हमने भी वही किया। कहते हैं कि मरने के बाद स्वर्ग या नरक कुछ मिलता है। लेकिन लेग बड़ी खुशकिस्मत हैं वो हमेशा जन्नत जैसी जगह में रहती है। पहाड़ों को और फूलों के बीच खुद को समेट लिया है। हमें यहीं एक अमेरिकी मिला। जिसने बताया कि वो आज ही पुलना से चलकर घांघरिया आया और अब फूलों की घाटी। हमने ये सब दो दिन में किया और इसने एक दिन में। खूबसूरती को जितना निहारो उतना कम है, हमारे लिए भी कम ही था। हम इस खुबसूरती को लेकर लौट चले। फूलों की घाटी से नीचे उतरना कठिन नहीं है। हम शाम से पहले ही घांघरिया पहुंच गए।

ऐसी जगह पर रूकना तो बनता है। 

घांघरिया लौटकर एक अजीब-सा सुख था। लग रहा था जो पाने आये थे, जो करने आया था, वो कर लिया है। जीवन की उस यात्रा को पा लिया था, जहां ट्रेफिक का कोई शोर नहीं था। यहां नदियां थीं, खूबसूरत झरने, जंगल और ग्लेशियर। ऐसा लग रहा था कि इस सफर से पहले मैं एक गुफा में था। यहां आकर मैं उस गुफा से बाहर निकल आया हूं। लेकिन सफर अभी खत्म नहीं हुआ था, सफर कभी खत्म होना भी नहीं था। अभी मुझे एक हासिल और कठिन अंधेरी यात्रा भी करनी थी।

Sunday, 22 September 2019

घांघरिया ट्रेक 2: सफर को यादगार बनाते हैं ये खूबसूरत ठहराव

इस यात्रा का पिछला भाग यहां पढ़ें।

मेरे लिए सफर में सबसे मुश्किल काम है, ठहरना। मैं मंजिल पर जाकर ही ठहरना पसंद करता हूं। लेकिन इस सफर की खूबसूरती ने मुझे कई जगह रोका। यात्रा में लौटना जितना बड़ा सच है, उतना ही बड़ा सच है ठहराव। ये वो पड़ाव हैं जो हमारी यात्राओं के रास्ते में पड़ते हैं। जहां ठहरने की अवधि कभी ज्यादा होती है तो कभी बहुत कम। जहां ठहरते ही इसलिए हैं क्योंकि आगे बढ़ा जाए। ऐसी जगह पर मैं दोबारा तैयार हो जाता हूं कि आगे चलने के लिए। घांघरिया हमारे सफर का वही पड़ाव था।


हम दोनों जल्दी-जल्दी चल रहे थे क्योंकि हमें अपने तीसरे साथी तक पहुंचना था। हम कुछ दूर चले तो एक गांव आया भुंडार। यहां लक्ष्मण गंगा अपने पूरे उफान पर थी। यहां हम एक बार फिर रूके क्योंकि हमें हमारा तीसरा साथी मिल चुका था। अब तक हम जंगल के छोटे-छोटे रास्ते में चल रहे थे। जहां प्रकृति को कम देख पा रहे थे। यहां अचानक हम खुले मैदान में आ गये थे। चारों तरफ हरे-भरे पहाड़ थे और वहीं से उफनती आ रही थी, लक्ष्मण गंगा। यहां दो नदियों का संगम था, लक्ष्मण गंगा और शिव गंगा। मुझे इस संगम से ज्यादा अच्छा लग रहा था वो छोटा-सा पुल जिसे हम पार करने वाले थे। मुझे ये कच्चे पुल जाने क्यों पसंद हैं? मुझे ऐसे पुलों पर रूकने से ज्यादा इनको देखना बहुत पसंद है।

सुंदर तस्वीर-सा दृश्य


अभी तो हम ठहरे हुए थे और देख रहे थे उन पहाड़ों को। पहले मुझे हर जगह के पहाड़ एक जैसे लगते थे लेकिन अब इन पहाड़ों का अंतर समझता हूं। यहां पहाड़ों में खूबसूरती भी है और शांति भी। खूबसूरत दृश्य था, पहाड़ों से कलकल करती नीचे आती नदी, आसपास पहाड़ और उसके बीच में एक कच्चा पुल। यहां आकर हर कोई एकटक इस नजारे को देखना चाहेगा। हम कुछ देर वहां ठहरे और इस सुंदर तस्वीर से विदा ली। हमने वो कच्चा पुल पार किया और आगे बढ़ चले। पहाड़ों में, खासकर नदी किनारे एक चीज आम है। छोटे-छोटे पत्थरों से एक श्रृंखला बनाना। पुल के पार भी यहां बड़े पत्थरों से ऐसा ही कुछ बना हुआ था। मैं उसको देखने के लिए करीब गया। वहीं खड़े स्थानीय व्यक्ति ने बताया उसको छूना नहीं। अगर वो गिर गया तो एक हजार रुपए देने पड़ेंगे।



पहाड़ों में आकर शहर की हर चीज छूट गई थी लेकिन ये जुर्माना नहीं पीछे नहीं छूट रहा था। उन पत्थरों को दूर से देखकर हम आगे बढ़ गये। हम आधा रास्ता तय कर चुके थे और आधा अभी बाकी था। सूरज न होने के बावजूद शाम होने की थी। हम अंधेरे से पहले पहुंचना चाहते थे। लेकिन अब वो असंभव सा प्रतीत हो रहा था। हम यहां भी कुछ देर ठहरे और फिर से आगे बढ़ पड़े। कभी-कभी रास्ता इतना खूबसूरत होता है कि हम मंजिल की फिक्र करना छोड़ देते हैं। ऐसा ही कुछ हमारे साथ हुआ।

एक और संगम।

हम रास्ते में इतना ज्यादा रूके कि शाम होने को थी और हम अभी भी अपने सफर पर थे। अब हमने तय किया कि कम रूकेंगे। जिससे जल्दी-जल्दी घांघरिया पहुंच सकें। हम घांघरिया जल्दी पहुंचने की सोच रहे थे और आगे का रास्ता हमें रोकने के लिए तैयार खड़ा था। अब तक हम जिस रास्ते पर चल रहे थे। उस पर कभी ढलान थी और कभी चढ़ाई। लेकिन अब रास्ता सिर्फ चढ़ाई का था और उपर से अंधेरा। अंधेरा तो था लेकिन हमें चलना तो था ही इसलिए हम आगे बढ़ने लगे। मैं और बाबा साथ थे और हमारा तीसरा साथी हमेशा की तरह आगे निकल गया था। हम और बाबा आपस में बात कर रहे थे और सुन रहे थे बगल में बह रही नदी की आवाज। अब देखने के लिए बचा था तो सिर्फ अंधेरा। उसी अंधेरे में हम बढ़ते जा रहे थे। 


हम अपनी बातों में इतने मग्न थे कि अंधेरे के बारे में कुछ फिक्र ही नहीं कर रहे थे। थोड़ी देर बाद देखा कि एक लड़का दौड़ता हुआ हमारी तरफ आ रहा है। पास आया तो देखा कि ये तो हमारा ही दोस्त है। मैंने पूछा क्या हुआ, वापस क्यों लौट आये? उसने बताया कि मैं बहुत देर से तुम लोगों का इंतजार कर रहा था। जब तुम नहीं आये तो फिक्र हो रही थी। तब वही कुछ लोगों ने बताया कि अंधेरे में यहां भालू मिल सकता है। अब हम तीनों साथ तो थे लेकिन भालू का डर भी था। चांदनी रात की वजह से रास्ता खोजने में परेशानी नहीं हो रही थी। हम तो अब भी सही से चल रहे थे लेकिन बाबा धीमा हो गया था। शायद थकावट उस पर हावी हो गई थी।

रात का सन्नाटा


हम अब थोड़ी देर चलते और ज्यादा देर रूकते। हम जब रूकते तो मैं वो आसमान की तरफ देखता। मैंने इतनी खूबसूरत रात और इतना खूबसूरत आसमान नहीं देखा था। मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं एक रात किसी पहाड़ पर चढ़ते हुए चांदनी रात देखूंगा। चांदनी रात की वजह से नदी दूधिया सफेद लग रही थी। इन सबके बावजूद एक सन्नाटा चारों तरफ पसरा हुआ था। जो थोड़ा-थोड़ा डर भी दे रहे थे। उसी सन्नाटे के बीच से हम आगे बढ़ते जा रहे थे। हम कुछ आगे बढ़े थे तभी सामने कुछ चमकता हुआ दिखाई दिया। उस चीज को देखकर हमारे कदम ठिठक गये।


हमें अंदाजा भी नहीं था कि वो चीज क्या है? ऐसा लग रहा था कि वो किसी जानवर की आंखे हैं। हम कुछ देर वहीं खड़े रहे। जब वो चीज हिली नहीं तो हम डरते-डरते आगे बढ़े। उस जगह पर पहुंचकर देखा तो पता चला कि पत्थर पर सफेद चाक का निशान है। हम फिर से आगे बढने लगे। इस घने जंगल में दूर-दूर तक कोई नहीं दिखाई दे रहा था। तभी पीछे-से कुछ आवाजें सुनाई दी। कुछ हमारे जैसे नौजवान थे, इनको देखकर अच्छा लगा। अब हमारे भीतर से डर थोड़ा कम हो गया था और घांघरिया पहुंचने का जज्बा शुरू हो गया था।

नदी के पार जिंदगी।

हम उनके साथ ही चलना चाहते थे लेकिन हम नहीं चल पाये। बाबा बार-बार रूक रहा था और हमें भी रूकना पड़ रहा था। फिर भी हम साथ थे तो कोई दिक्कत नहीं थी। कुछ देर बाद ऐसी जगह आई जहां दुकानें थीं। बहुत देर बाद लगा कि इस जंगल में भी कोई रहता है। हम वहां बहुत देर ठहरे रहे और फिर से आगे बढ़ चले। रात के अंधेरे के बाद हमारी चाल कुछ यूं थी कि पहले हम अपनी चाल में चल रहे थे, फिर खच्चर की तरह खुद को ढो रहे थे और अब रेंग रहे थे। बाबा हम दोनों को सहारा बनकर चल रहा था।


कुछ देर बाद हमें कुछ रोशनी दिखाई दी। अचानक चेहरे पर खुशी आ गई। ये ठीक वैसे ही खुशी थी जैसी घर जाने पर होती है।हम आगे बढ़ ही रहे थे तभी आस-पास के पहाड़ों को देखने की कोशिश की। रात के अंधेरे की वजह से सब कुछ साफ-साफ नहीं दिख रहा था। फिर भी ये पहाड़ आसमान से बातें कर रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे बाहुबली का दृश्य सामने चल रहा हो। आसमान से बातें करता ये पहाड़ और उससे गिरता झरना। मैं इस विशालकाय पहाड़ को देखकर अवाक था। मैं बस उसे देखकर मुस्कुराये जा रहा था। हम कुछ देर रूककर उसी पहाड़ को देखने लगे।

रात का घनघोर छंटा


कुछ आगे बढ़े तो रोशनी के पास आये तो देखा चारों तरफ सिर्फ टेंट ही टेंट लगे हुए हैं। यहां टूरिस्ट टेंट में आसमान के नीचे रात गुजारते हैं। लेकिन हमें तो घांघरिया जाना था जो अभी भी एक किलोमीटर दूर था। मेरे साथ अक्सर ऐसा होता है जब मंजिल पास आती है तो चाल धीमी हो जाती है। घांघरिया दूर नहीं था इसलिए हम धीमे-धीमे चले जा रहे थे। हम फिर से जंगल में आ गये थे। हम जब तक घांघरिया नहीं पहुंचे, हम उस विशालकाय पहाड़ के बारे में बात करने लगे। हमने एक-दूसरे से कहा, सुबह सबसे पहले इस जगह को देखने आएंगे।



थोड़ी देर बाद हम एक गली में खड़े थे और वहीं एक बोर्ड पर लिखा था, घांघरिया। हम घांघरिया आ चुके थे लेकिन सफर अभी खत्म नहीं हुआ था। उस सफर पर जाने से पहले हम बिस्तर पर पसरने के लिए ठिकाना ढूंढ़ना था। घांघरिया की गलियों में ठिकाना खोजते-खोजते एक जगह मिल गई। जगह अच्छी नहीं थी। लेकिन रात ही गुजारनी थी इसलिए हमने यहीं रूकने का फैसला लिया।

रात में हमारे दो साथी।

इस गहरी रात से पहले मैंने बहुत कुछ पा लिया था। इसे लंबे सफर में बहुत सारे ठहराव थे। कुछ आराम करने के लिए, कुछ खूबसूरती को निहारने के लिए। इस रात के बाद ही पता चला कि खूबसूरत सिर्फ दिन ही नहीं होते, रात भी होती है। मैंने आज के सफर को एक मुस्कुराहट के साथ वापस याद किया और कल के सफर के लिए तैयार होने लगा। अब तक हमारा सफर पड़ाव का था, असली सफर तो अब शुरू होने वाला था। खूबसूरती का सफर, चुनौती का सफर। 

आगे की यात्रा यहां पढ़ें। 

Tuesday, 10 September 2019

घांघरिया ट्रेक: यात्राएं अगर जीवन बन जाएं तो कितना अच्छा हो

इस सफर का पहला भाग यहां पढ़ें।

घूमना, मेरी अब तक की जिंदगी में सबसे अच्छी चीज हुई है। जिंदगी में हर कोई घूमता ही रहता है लेकिन घूमने को ही मकसद बनाना बहुत कम लोग करते हैं। घुमक्कड़ी ऐसी चीज है जो हर बार कुछ नया देती है। नई जगह, नये एहसास लेकर आती है। नये लोगों से मिलने का मौका देती है, उस जगह के बारे में सोचने का, समझने का मौका देती है। अगर वो सफर पहाड़ों का हो तो इससे बेहतर सफर मेरे लिए कुछ नहीं हो सकता। यहां न कहीं जल्दी भागने की फिक्र है और न ही शहर का शोर। यहां आकर तो मैं एक अलग ही यात्रा पर निकल पड़ता हूं। मैं एक बार फिर से उसी यात्रा के लिए पहाड़ों के बीच आ चुका था।

घांघरिया ट्रेक।

शाम हो चुकी है और मैं जोशीमठ के तिराहे पर खड़ा हूं। क्योंकि मुझे इंतजार है अपने दोस्त का जिसके स्टेट्स को देखकर मैं यहां तक चला आया। उसे आने में देर थी तो मैं इस शहर को देखने लगा। पहाड़ पर होने वाले बाकी शहरों की तरह ही है ये शहर। जहां शांति और सुकून होता है। लेकिन ऐसा नहीं है कि इन शहरों में कुछ नहीं होता है। यहां हर जरूरत का सामान मिल जाता है। शाम का वक्त और सफर के थकान की वजह से मैं ज्यादा दूर नहीं गया। मैं फिर से उसी तिराहे पर लौट आया और इंतजार करने लगा। इस बार ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा। क्योंकि मैं जिसका इंतजार कर रहा था वो आ चुका था। उसके साथ एक और दोस्त था जो हमारे सफर को और भी रोमांचकारी बनाने वाला था।

प्रकृति की गोद में जोशीमठ


सबसे पहले वहीं तिराहे पर ही एक होटल लिया और फिर गपशप शुरू हो गई। जिस तीसरे दोस्त से मुलाकात हुई, उसे हम बाबा कह रहे थे और वो भी हमको बाबा कह रहा था। रात हुई तो खाना खाने के लिए बाहर निकले। कुछ घंटे फिर से इस शहर को पैदल नापा और फिर चल दिए वापस अपने कमरे में। कल के सफर के बारे में बात हुई। उसके बाद तो तो बस बातें होती रहीं। बातें करते-करते कब नींद लग गई पता ही नहीं चला। सुबह जब नींद खुली तो मैं बालकनी में आ गया। ये जगह कितनी खूबसूरत है ये मैं सुबह की साफगोई में देख पा रहा था। चारों तरफ ऊंचे-ऊंचे हरे-भरे पहाड़ हैं और उनके आसपास तैरते बादल। ये सब देखकर लग रहा था किसी ने मेरे सामने कैनवास में एक तस्वीर उकेरी दी हो। जिसमें खूबसूरती के लिए जो-जो किया जा सकता था, वो सब डाल दिया। पहाड़ से गिरता पानी इस दृश्य को और भी खूबसूरत बना रहा था।

खूबसूरत जोशीमठ।

मैं पहाड़ में कई जगह जा चुका था लेकिन इतना खूबसूरत नजारा पहली बार देख रहा था। लेकिन ये तो बस शुरूआत थी ये सफर मुझे बार-बार अचंभित करने वाला था। हमें अपने सफर पर बहुत जल्दी निकलना था लेकिन किसी न किसी वजह से देर होती जा रही थी। हम वो सब सामान ले रहे थे जो अगले तीन दिन हमारे काम आने वाला था। हम तीन दिन इस सभ्यता से कटने वाले थे, जहां से न हम किसी को संपर्क कर सकते थे और न कोई हमें। अब फोन का एक ही काम बचा था, तस्वीरें लेना। हम कुछ देर बाद एक जीप मैं बैठ गये जो हमें 20 किमी. दूर गोविंदघाट तक ले जाने वाला था। हम फिर से गोल-गोल घूमने लगे। मैं पहाड़ों और पास में बहती नदी को देख रहा था। यहां अलकनंदा का एक अलग ही रूप देखने को मिल रहा था। पानी का प्रवाह इतना तेज था कि वो देखने में भयानक लग रहा था।

चुनौती की शुरूआत


कुछ ही देर बाद जीप से हम गोविंदघाट पहुंच गये। यहां से हमें दूसरी जीप पकड़नी थी जो हमें पुलना ले जाने वाली थी। गोविंदघाट से हमने डंडे खरीदे जिससे ट्रेकिंग करने में मदद मिलती है। हमें गोविंदघाट के स्टैंड जाना था, जो कुछ दूरी पर था। हमारा सफर शुरू हो चुका था, हम पैदल चल रहे थे। थोड़ा आगे चले तो एक हमें एक और संगम मिला। ये संगम अलकनंदा और लक्ष्मणगंगा के बीच था। हम समुद्रतल से 6,000 फीट की ऊंचाई पर आ चुके थे। हम उस जगह पर आ चुके थे जहां से हमें पुलना के लिए जीप लेनी थी। गोविंदघाट से पुलना की दूरी 4 किमी. है। आगे बहुत ज्यादा चलना होता है इसी वजह से ज्यादातर लोग जीप से ही जाते हैं। हम जिस जीप में बैठे थे उसने बताया कि गोविंदघाट से आगे कोई अपनी गाड़ी नहीं ला सकता। जो पुलना के स्थानीय निवासी हैं सिर्फ वही अपनी गाड़ी यहां ला सकते हैं। जो गाड़ी चलाते हैं, उन जीप की संख्या की भी सीमा है। जिसे परमिशन मिलती है वो ही जीप चला सकता है।

अलकनंदा-लक्ष्मणगंगा का संगम।

ये सब होने की वजह से ही सिर्फ 4 किमी. का किराया 40 रुपए है। थोड़ी देर बाद हम पुलना पहुंच गये। यहां से हमारी असली परीक्षा होने वाली थी। अब आजाद होने का समय आ गया था, अपने घुमक्कड़पने के रास्ते पर चलने का रास्ता मिल चुका था। यहां से हमें घांघरिया तक का ट्रेक करना था जो पुलना से 10 किमी. था। चुनौती ये नहीं थी कि हमें 10 किमी. चलना है, चुनौती थी अपने-अपने भारी बैग लेकर चलना। हमारा ट्रेक शुरू हो चुका था। हम रास्ते पर चल नहीं, चढ़ रहे थे। ये रास्ता पेड़ों से घिरा हुआ था जिस वजह से धूप नीचे तक नहीं आ पा रही थी। रास्ते में हमें खच्चर भी मिल रहे थे जो लोगों की मदद के लिए थे। बूढ़े, बच्चे और महिलाएं खच्चर से जाएं तो सही लगता है। लेकिन जब हट्टे-कठ्ठे नौजवान भी ऐसा करते तो मुझे बड़ा आश्चर्य होता है। रास्ता हरा-भरा है और पहाड़ों की ऊंचाई भी अच्छी-खासी है। बाबा बार-बार थक रहा था और उसके साथ के लिए मैं भी रूक रहा था।

कुछ देर बाद हमें कई दुकानें मिलीं। जिसमें से किसी एक में हम रूक गये। यहां हमने मैगी खाई और प्रकृति को निहारा। सामने ही पहाड़ से बहते पानी को देखकर अच्छा लग रहा था। सुकून क्या होता है, थकावट के बाद आराम क्या होता है? ये सब इस दुकान पर आकर समझ में आ रहे थे। चलते-चलते कभी-कभी रास्ता इतना शांत हो जाता कि लगता जैसे सिर्फ हम ही चल रहे हों। तब शांति इतनी होती कि थकावट भी आपको सुनाई देती है। हम चले जा रहे थे लेकिन रूकते-रूकते। हम तीनों लोग एक साथ चल रहे थे और फिर हम सिर्फ दो बचे, मैं और बाबा। हमसे एक आगे निकल गया, बहुत आगे। लेकिन हम परेशान नहीं थे क्योंकि मुझे पता था कि आगे मिल ही जायेगा। इस जगह पर कोई भटकता नहीं है, हर कोई बढ़ता जाता है। वैसे ही जैसे हमारे बगल से नदी आगे बढ़ रही थी। हम अलकनंदा की विपरीत दिशा में बढ़ रहे थे। जिदंगी में और क्या चाहिए? ऐसा खूबसूरत सफर हो और उसमें पैदल चलता मैं।

पहाड़ों की गोद में मंदिर।

आगे बड़े-सी चट्टान पर छोटा-सा मंदिर मिला। पहाड़ों पर ऐसे छोटे-से मंदिर हर जगह मिल ही जाते हैं। मुझे इस मंदिर को देखकर तुंगनाथ का रास्ता याद आ गया। जब वहां भी इसी तरह का एक छोटा-सा मंदिर मिला था। रास्ते में जगह-जगह से पानी गिर रहा था। अगर वो जगह हमारी पहुंच में होती तो वो वाटरफाॅल बन जाता। वाटरफाॅल से खूबसूरत तो पहाड़ों से गिरने वाले पानी का ये दृश्य होता है। रास्ता कुछ ऐसा था कि पहले हम ऊपर की ओर चढ़ रहे थे और फिर नीचे की ओर उतर रहे थे। आगे बार-बार ऐसा हो रहा था। जब हम चढ़ते थे तब हमारी चलने स्पीड ज्यादा हो जाती और रूकने की संख्या ज्यादा हो रही थी। जब उतरते थे तब हम चलते भी तेज थे और रूकते भी कम थे।

एक मोड़ और खूबसूरत नजारा


मैं सफर में बार-बार मुड़कर देखता हूं, शायद कुछ छूट गया हो तो पा लूं। हम दोनों जब चलते ही जा रहे थे तब ऐसा ही एक मोड़ मिला जो नीचे की ओर जा रहा था। ये रास्ता लकड़ी से बंद था, इसलिए कोई इस रास्ते पर जाने की सोच नहीं रहा था। मैं सोच ही रहा था कि इधरा जाया जाए या नहीं। तभी बाबा ने कहा, चलते हैं जो होगा देखा जाएगा। किसी के साथ चलने का यही फायदा होता है। एक उम्मीद होती है साथ मिलकर भटकने की, साथ मिलकर ढूढ़ने की और सुस्ताने के भी। हम दोनों भी रास्ते से अलग हटकर नीचे जाने लगे। हम जैसे-जैसे आगे जा रहे थे मेरी उत्सुकता बढ़ने लगी क्योंकि नदी की आवाज मेरे कानों में पड़ने लगी थी। अब मुझे उस रास्ते की खोज से ज्यादा, उस नदी तक जाना था। ये रास्ता जहां खत्म हुआ, वहां भगवान शिव का एक छोटा-सा मंदिर था। उसके सामने ही एक अंधेरी गुफा थी जिसमें बनी हुई थी। लेकिन आसपास कोई नहीं था। कुछ कदम दूर नदी थी, मैं उसी ओर चल दिया। नदी किनारे जाकर हम बैठ गये और इस दृश्य को देखने लगे। यहां कोई बादल नहीं थे लेकिन इस सफर का सबसे खूबसूरत दृश्य यही था।

पहाड़ और नदी।

मेरे पैर पानी में थे और मैं उसे बहते देख रहा था। फुरसत से किसी चीज को देखते रहने का मतलब है, आप उससे मंत्रमुग्ध हो गये हैं। मैं इस जगह पर आकर मंत्रमुग्ध हो चुका था। मेरे बगल से कलकल करती नदी बह रही थी मेरे चारों तरफ ऊंचे-ऊंचे हरे-भरे पहाड़ थे। सामने जंगल था, इन सबको देख रहा था मैं। मेरे जूते वहीं रेत पर पड़े थे, बैग को उसी मंदिर पर छोड़ आया था और मैं यहां बैठा था। ऐसा लग रहा था कि ये वक्त ठहरा रहे और मैं कुछ और ज्यादा देर यहां रूक सकें। मै बचपन में नदी किनारे एक खेल जरूर खेला करता था। पत्थर को पानी में फेंककर गुलाटी करते देखना। हम यहां भी वही करने लगे, बड़ा अच्छा लग रहा था फिर से बचपन में लौटकर। यहां आकर लग रहा था कि नीचे उतरने का फैसला सही था। इसलिए तो मैं कहता हूं कि कभी-कभी रास्ता छोड़कर पगडंडी वाला रास्ता ले लेना चाहिए। नजारे बदलने से नजरिया बदल जाता है। अगर वो रास्ता गलत भी होता है तो आपके पास वापस लौटने का भी एक रास्ता होता है। हमें भी लौटना था लेकिन यहां आकर एक बात तो समझ में आ गई थी कि जरूरी नहीं मंजिल ही खूबसूरत हो। कभी-कभी बीच में पड़ने वाले पड़ाव मंजिल से ज्यादा खूबसूरत होते हैं।

अभी तो सफर और भी है।

यहां के पहाड़ों और नदी के बीच रूके हुए हमें काफी वक्त हो गया था। शायद कुछ देर के लिए हम भूल ही गये थे कि हमारी मंजिल अभी आई नहीं है। हमें इस खूबसूरती के बीच में याद ही नहीं रहा कि हमारा एक साथी आगे हमारा इंतजार कर रहा है। हम जितने खुश हैं, शायद वो उतना ही परेशान हो। कुछ देर के लिए थमा हमारा सफर फिर से शुरू हो गया, हम फिर से चलने लगे। हम चल रहे थे क्योंकि हमारी मंजिल नहीं आई थी। हम चल रहे थे क्योंकि हमारा एक साथी हमारे इंतजार में था। सबसे बड़ी बात अंधेरा होने लगा था। ये अंधेरा हमारे सफर को और भी रोमांचक बनाने वाला था।

आगे की यात्रा यहां पढ़ें।

Friday, 6 September 2019

जोशीमठ:इन खूबसूरत वादियों के बीच चलते रहना ही तो मकसद है

रात का अंधेरा था, रास्ता जाना-पहचाना था और मैं चला जा रहा था एक नये सफर पर। उस रात के बारे में सोचता हूं तो खुशी होती है कि मैं उस दिन लौटा नहीं। अगर लौट आता तो बहुत कुछ मिस कर देता। मैं दूसरों को यही सलाह देता हूं कि जहां भी जाइए पूरी तैयारी के साथ जाइए। जब मैं अपने सभी सफरों के बारे में सोचता हूं तो लगता है कि मेरी घुमक्कड़ी में प्लानिंग जैसी कोई चीज रही नहीं है। मैं जहां भी गया उसके पीछे कोई लंबी-खासी प्लानिंग और तैयारी नहीं रही। मन हुआ तो निकल गया एक सफर पर। इस बार भी मेरे साथ ऐसा ही हुआ और फिर क्या? कुछ ही घंटों के बाद हिमालय को लपककर छूने की कोशिश में था, खूबसूरत और बेधड़क वादियों के बीच।


शाम का वक्त था, मैं दिल्ली में ही था। तभी मैंने व्हाट्सएप्प पर अपने दोस्त का  स्टे्टस देखा, वो उत्तराखंड के जोशीमठ में था। मैंने उसे काॅल किया तो उसने बताया, फूलों की घाटी जा रहा है। भूख लगी हो और खाना मिल जाने पर जो सुकून मिलता है, वही सुकून मुझे अपने दोस्त की इन बातों से मिल रहा था। मैं बहुत दिनों से कहीं जाने की सोच रहा था, लेकिन जगह नहीं खोज पा रहा था। एक स्टेट्स की वजह से मुझे एक नया सफर और छोटी-छोटी मंजिलें मिल गईं थीं। मैंने मन ही मन सोच लिया था कि मुझे वहीं पहुंचना हैं, पहाड़ों के बीच। दोस्त ने भी आने को बोल दिया। अपने रूम आया और रकसैक बैग में कुछ कपड़े रखे और निकल पड़ा बस स्टैंड की ओर।

मैदान से पहाड़ तक


मैं उत्तराखंड जा रहा था और महीना था अगस्त। यानी कि खूब बारिश हो रही थी। बारिश रास्ता बंद कर देती है और तब सब कुछ अस्त-व्यस्त हो जाता है। जिनको भी मैंने उत्तराखंड जाने के बारे में बताया, वो सभी जाने को मना कर रहे थे। इसलिए जब मैं बस स्टैंड जा रहा था, तो दिमाग में दो ही ख्याल आ रहे थे। एक तो वापस लौटने के बारे में था और दूसरा ख्याल पहाड़ का था। पहाड़ों की खूबसूरती के बारे में सोचकर मैंने जाने का निश्चय कर लिया। रात को आईएसबीटी कश्मीरी गेट से हरिद्वार के लिए बस पकड़ी। दिल्ली से हरिद्वार जाते वक्त ऐसा लगता है कि अपनी ही जगह जा रहा हूं। लेकिन इस बार ऐसा नहीं लग रहा था। शायद इसलिए क्योंकि इस बार सफर हरिद्वार से बहुत आगे था।

ऋषिकेश।

मैं जिस सीट पर बैठा था, मेरे पीछे वाली सीट पर मेरी ही उम्र के लड़के थे। आपस में खूब हंसी-ठिठोली कर रहे थे, इन सबमें मैं सुन रहा था उनकी बातें। वो तुंगनाथ के बारे में बात कर रहे थे। उनमें से एक बाकी को तुंगनाथ की खूबसूरती के बारे में बता रहा था। मुझे अपना तुंगनाथ का सफर याद आ गया था, शायद मुझे घूमने का कीड़ा वहीं से लगा था। उनकी बातों में सबसे बुरा था, नशा। वो पहाड़ों पर जाकर हरे-भरे बुग्याल में नशा करने की बात कर रहे थे। घूमना बहुत अच्छी बात है। लेकिन बेहतरीन जगहों पर धुंआ उड़ाना बेहूदा लोगों की पहचान है। कुछ देर बाद मुझे नींद लग गई। सुबह आंख खुली तो हरिद्वार आ चुका था, मेरी पहली मंजिल।

ताजगी भरी सुबह


मैं बस से नीचे उतर गया, मैं बद्रीनाथ जाने वाली बस देख रहा था। मेरी किस्मत इतनी अच्छी निकली कि कुछ ही मिनटों में मुझे बस मिल गई और कुछ ही मिनटों बाद बस चल पड़ी। मैं अभी-अभी सफर करके आया था। अब फिर से एक और सफर पर निकल पड़ा। ये सफर काफी लंबा होने वाला था करीब 12 घंटे का सफर। जैसे-जैसे बस आगे बढ़ रही थी, अंधेरा भी छंटता जा रहा था। यहां की सुबह की ताजगी को मैं महसूस कर पा रहा था। दिल्ली और उत्तराखंड में एक बड़ा अंतर है, हवा का अंतर। इसी हवा को पाने के लिए लोग यहां आते हैं। सूरज निकल आया था और उसकी रोशनी हमारे चारों तरफ फैलनी लगी थी। सूरज के लिए ये दुनिया एक दिन और पुरानी हो गई थी। अभी तो सूरज से लंबी मुलाकात होने वाली थी, आज पूरा दिन इसी सूरज के साथ ही तो चलना था।

हरे-भरे पहाड़।

कुछ ही घंटों में बस पहाड़ों के बीच चल रही थी। मुझे अक्सर सफर के दौरान नींद नहीं आती है लेकिन इस सफर में बहुत ज्यादा नींद आ रही थी। ऐसा लग रहा था थकान हो रही है लेकिन अभी तो सफर शुरू ही नहीं हुआ था। बीच-बीच में झटका लगता तो नींद खुल जाती और आंख खुलने पर एक ही चीज दिखती, पहाड़। यहां पहाड़ को देखकर खुशी नहीं, गुस्सा आ रहा था। रोड को चौड़ा किया जा रहा था और उसके लिए पहाड़ को काटा जा रहा था। जो पहाड़ पिछले साल तक सुंदर दिखते थे, वो अब बंजर लग रहा था। ऐसा लग रहा था कि किसी ने इसके चिथड़े कर दिए हों। हालांकि ये चैड़ीकरण अभी ज्यादा दूर नहीं गया है, लेकिन ऐसा ही विकास चलता रहा तो यहां की प्रकृति का सत्यानाश हो जाएगा। आगे चलने पर प्रकृति के सुंदर नजारे आने लगे थे। कुछ ही देर में देवप्रयाग आने वाला था। देवप्रयाग, वो जगह है जहां अलकनंदा और भागीरथी का संगम होता है। इन दोनों के संगम के बाद जो नदी बनती है, वो गंगा कहलाती है।

बहती नदी और वादियां


मैं इस बारिश में संगम देखना चाहता था। मैं देखना चाहता था कि इस मौसम में भी अलकनंदा और भागीरथी अलग-अलग रंग की रहती है या मटमैले रंग की। यही सोचते-सोचते आंख लग गई, जब आंख खुली तो रूद्रप्रयाग पार कर चुके थे। उत्तराखंड में होने के बावजूद गर्मी बहुत थी, धूप भी बहुत तेज थी। कुछ घंटों के सफर के बाद बस चमोली आ पहंची थी। यहां से मौसम ने करवट ले ली। बारिश शुरू हो गई थी। बारिश के दौरान पहाड़ों में जाना जोखिम भरा तो है, लेकिन इस मौसम में पहाड़ सबसे ज्यादा खूबसूरत लगने लगते हैं। बारिश की वजह से नदियां लबालब भरी हुईं थीं। हम जहा से जा रहे थे उसके ठीक नीच नदी बह रही थी और दूर तलक हरे-भरे जंगल दिखाई दे रहे थी।

पहाड़ों के बीच बहती नदी।

कभी-कभी मैं समझ नहीं पाता हूं कि पहाड़ में ज्यादा खूबसूरत क्या है? बर्फ या हरियाली। जिस रूप में पहाड़ दिखता है, खूबसूरत लगने लगता है। शायद ये पहाड़ की खासियत है कि वो दोनों ही रूप में ढल जाता है। अब पहाड़ अचानक से बदलने लगे थे। हरियाली अब थी, वे खूबसूरत अब भी लग रहे थे लेकिन अब उन्हें पूरा देखने के लिए गर्दन ऊंची करनी पड़ रही थी। मैंने इतने ऊंचे और खूबसूरत पहाड़ कभी नहीं देखे थे। रास्ते में कई गांव मिले और वहीं पहाड़ों पर हो रही सीढ़ीनुमा खेती भी देखने को मिली। यहां के गांव भी बेहद सुकून भरे लग रहे थे। चारों तरफ हरियाली से घिरे हुये और हरियाली के बीच ही उनके घर। इन घरों को देखकर ऐसा लग रहा था कि सारा सुकून भगवान ने यहीं पटक दिया हो। यहां बंजर का नाम मात्र भी नहीं था, मौसम, प्रकृति और रास्ता सब कुछ शानदार था।

मैं दस घंटे के सफर में जितना बोर हुआ था, इन नजारों को देखकर सब कुछ छूमंतर हो गया था। अब तो न थकावट थी और न ही नींद। शायद यही है कुछ नया देखने की ललक। अब जब इतना कुछ खूबसूरत और नया दिख रहा था तो लग रहा था कि सफर थोड़ा लंबा हो जाए। रास्ते में भूस्खलन भी हो रहा था, कई जगह तो बड़े-बड़े पत्थर गिर गये थे। जिसे हटाने में समय लगा और तब हमारी बस आगे बढ़ पाई। बड़े-बड़े पहाड़ दूर जाकर वादियों का रूप ले रहे थे। रास्ते में कई झरने भी गिर रहे थे। पहाड़ों से ऐसे गिरने वाले झरनों का कोई नाम नहीं होते। इनको देखकर बस खुश हुआ जा सकता है। यहां आकर तो परेशान व्यक्ति भी मुस्कुरा उठेगा। मैं तो आया ही इसलिए ही था और वही हो रहा था।

ये चमोली की खूबसूरती है।

जिंदगी में सुकून अगर कहीं है तो ऐसे ही खूबसूरत सफर में है। पहाड़ों में मंजिल से ज्यादा खूबसूरत सफर होता है। लेकिन इस बार मैं जिस सफर पर निकला था, उसकी मंजिल भी बेहद खूबसूरत थी। थोड़ी देर बाद बस ने मुझे मेरे पड़ाव पर छोड़ दिया, पड़ाव आगे के सफर का। जोशीमठ में मुझे मेरा दोस्त मिलने वाला था और यहीं रात भी यहीं गुजारनी थी। अगले दिन हमें लंबा सफर तय करना था लेकिन अब सफर बैठकर नहीं चलकर तय करना था। इसी चुनौती के लिए तो 20 घंटा सफर तय करके यहां आया था। अगले दिन हमारे पास रास्ता था लेकिन कभी-कभी रास्ता पता होने के बावजूद इस पर चलना आसान नहीं होता है। ये चुनौती ही तो हमें फूलों की घाटी तक ले जाने वाली थी। लेकिन उससे पहले अभी मुझे सबसे कठिन चीज करनी थी, इंतजार।

इस यात्रा की अगली कड़ी यहां पढ़ें।

Friday, 9 August 2019

चकराता 2: सुर्ख स्याहे के बीच से झलकती है यहां की खूबसूरती

मैंने कहीं पढ़ा था घुमक्कड़ से बड़ा दुनिया में कोई धर्म नहीं होता। मैं उस धर्म में बंधे रहने की कोशिश में लगा रहता हूँ। मेरे लिए ये कोई मायने नहीं रखता कि वो जगह पहाड़ है या मैदानी। मैं तो बस घूमना चाहता हूं और घूम वही पाता है जो निश्चियंत होता है। घूमना हमेशा कूल नहीं होता है, इसकी भी अपनी परेशानियां होती हैं और खट्टे-मीठे अनुभव। लेकिन वो अनुभव बेहद प्यारे होते हैं। जाने क्यों वो अनुभव बेहद सुखद होते हैं, उनको याद करता हूं तो मुस्कुराहट खुद-ब-खुद चेहरे पर तैर जाती है। चकराता का अनुभव मेरे लिए कुछ ऐसा ही है। पहली बार घूमते हुए बारिश का सामना किया था। लेकिन उससे पहले चकराता को जिस तरह से देखा वो बेहद खूबसूरत था। बारिश की फुहारों के बीच चलना एक अनंत यात्रा थी जो खत्म न होती तो अच्छा होता और मैं उस रास्ते पर बस चलता रहता।


देहरादून से चकराता हम कुछ घंटों में पहुंच गये थे। यहां तक आने का रास्ता भी बेहद खूबसूरत था। यहां की हवा में जादू था जो शहर के शोर को हममें से झाड़ रही थी। चकराता हिल स्टेशन पहुंचकर देखा कि सड़कें पूरी तरह से खाली थीं और कुछ दुकानें सामने दिख रहीं थीं। सामने कुछ आर्मी वाले दिख रहे थे, जिससे पता लग चुका था कि ये आर्मी का इलाका है। चकराता के आज में जाने से पहले इतिहास में चलना चाहिए। इतिहास जाने बिना यात्राएं अधूरी रह जाती हैं। चकराता समुद्र तल से 7,000 फीट की उंचाई पर स्थित है। अंग्रेजों की सेना गर्मियों में इस जगह को अपना बेस बनाते थे। तब चकराता की स्थापना कर्नल ह्यूम और उनके कुछ सहयोगियों ने की थी। बाद में भारत आजाद हो गया और ये जगह भारतीय सेना का बेस कैंप बन गया। यहां सेना के जवान ट्रेनिंग करते हैं शायद इसलिए इस खूबसूरत जगह पर किसी भी विदेशी नागरिक को आने की अनुमति नहीं है। अब आज में आते हैं।

टाइगर फाल तक का सफर


यात्राएं जितना हल्का करती हैं, उतना भर भी देती हैं। चकराता की खूबसूरती मेरे अंदर कुछ ख्याल भर रही थी। चकराता हिल स्टेशन भीड़ भाड़ वाली जगह नहीं है, अगर आप बेहद शांत और खूबसूरत जगह की खोज में हैं तो मेरे ख्याल से आपको चकराता जरूर जाना चाहिए। हमें यहां की कुछ बेहतरीन जगहों पर जाना था लेकिन दिक्कत ये थी सभी जगहें एक-दूसरे से बहुत दूर थीं। देववन, टाईगर फाल, कनासर और लाखामंडल में से किसी एक को चुनना था। जिसमें से हमने चुना टाइगर फाल। टाइगर फाल, चकराता से 30 किलोमीटर की दूरी पर था। मौसम साफ था रास्ते में जरूर कुछ बूंदा-बांदी हुई थी। बारिश की उन फुहार से मौसम और ये पहाड़ दोनों खूबसूरत लगने लगे थे।

चकराता हिल स्टेशन।

हम एक बार फिर से यात्रा पर थे। इस बार सफर चकराता हिल स्टेशन से टाइगर फाॅल तक का था। ये सफर भी खूबसूरत नजारों से भरा हुआ था। ऊंचे-ऊंचे पहाड़ और उन पर तैरते सफेद बादल, ये नजारा देखकर तो कोई भी खुशी से नहीं समायेगा। रास्ते में वो मुंडेर भी मिलती है जहां रूककर आप कुछ देर ठहरना चाहते हैं और इस जगह को अनुभव करना चाहते हैं। पहाड़ों में घुमावदार रास्तों पर मोड़ बहुत हैं। हर मोड़ पर मुझे अपना कुछ जिया हुआ दिखता है। मैं इन दृश्यों को समेटने की कोशिश में था। गाड़ी भागी जा रही थी लेकिन मैं उस भागे हुए रास्ते में अपने लिए कुछ जगह ढ़ूंढ ही ले रहा था। वैसे भी सफर में पूरा कोई भी नहीं पा पाता है कुछ न कुछ छूट जाता है। ये छूटना भी सफर की एक खूबसूरती है।

खूबसूरत नजारों से भरी ये घाटी


हरे-भरे पहाड़ों के बीच कुछ घर थे जो देखने में बेहद खूबसूरत लग रहे थे। शहर में रहने वाला हर शख्स इन घरों को देखकर सोचता है कि काश! उसका भी घर इन पहाड़ों के बीच होता। अगर शहर के लोगों को यहां की समस्याओं के बारे में पता होता तो वो ऐसा कभी नहीं कहते। पहाड़ में एक कहावत है, पहाड़ का पानी यहां के लोगों के काम नहीं आता। वैसे ही पहाड़ की खूबसूरती भी यहां के लोगों के लिए नहीं है। कभी यहां के लोगों से बात कीजिए वो बताएंगे अपनी और पहाड़ की परेशानी। लेकिन हम तो कुछ दिन के लिए यहां की खूबसूरती को देखते हैं और वही खूबसूरती को लेकर चले जाते हैं। हम कई किलोमीटर चल चुके थे धूप अब भी निकली हुई थी लेकिन ये धूप सुकून वाली थी। इसमें गर्मी का थोड़ा-सा भी एहसास नहीं था। हम नीचे थे और दूर तलक पहाड़ और बस पहाड़ थे।


हम रास्ते में कई जगह रूक रहे थे और इसकी वजह थी यहां की सुंदरता। खूबसूरती की कोई परिभाषा नहीं होती लेकिन मेरे हिसाब से जिस जगह पर आपके कदम रूक जाएं, वही खूबसूरती है। वहां बैठना भी अच्छा लगता है और पसरना भी, हम दोनों ही कर रहे थे। रास्ते में गाड़ियों का आना-जाना लगा हुआ था। पहली वजह ये टूरिस्ट प्लेस है और दूसरी वजह हम वीकेंड के समय पर यहां आए थे। यहां की हरियाली देखकर कोई भी मोहित हो जाए। पहाड़ आसमानों से बातें कर रहे थे। कुछ आगे बढ़े तो एक बहुत बड़ा बोर्ड दिखा। जिस पर लिखा हुआ था, वेलकम टू टाइगर फाल।

वेलकम टू टाइगर फाल। 

अब मौसम ने भी करवट ले ली थी। कुछ देर पहले जहां बहुत तेज धूप थी, अब चारों तरफ अंधेरा छाने लगा था। हम कुछ देर बाद ऐसी जगह पहुंचे जहां से टाइगर फाॅल की दूरी 2-3 किलोमीटर ही थी। यहां से जाने के दो रास्ते थे एक अपनी गाड़ी से और दूसरा पैदल। मैं पैदल जाना चाहता था लेकिन मेरे साथी गाड़ी से जाने की कह रहे थे। हम गाड़ी से ही आगे बढ़ चले। थोड़ा ही आगे बढ़े तो अचानक तेज बारिश होने लगी, बारिश इतनी तेज थी कि छुपने की जगह ढ़ूढ़ने पड़ी। सामने लकड़ी का एक छोटा-सा घर दिखा, हम वहीं रूक गये। गेट खुला हुआ था अंदर एक बुजुर्ग व्यक्ति था जो सब्जियों को बोरे में भर रहा था। उस शख्स ने बताया कि वो किसान है, इन आलू और टमाटर को विकासनगर की मंडी में भेजता है। जब तक बारिश होती रही, हम उनकी बातें सुनते रहे और वो हमारी। जब हम आने लगे तो कुछ आलू भी दिए, हमारे पास जगह तो थी नहीं लेकिन कुछ आलू ले लिए।

आसमां से गिरता पानी


ये ढलान वाला रास्ता बहुत संकरीला और गड्ढों वाला था, जिससे गाड़ी धीरे-धीरे ले जानी पड़ रही थी। कुछ देर में हम उस जगह पर पहुंच गये, जहां बहुत-सी गाड़ी खड़ी हुई थी। हमने भी वहीं गाड़ी रख दी और चल पड़े टाइगर फाल को देखने। रास्ते में कुछ घर भी थे और खेत भी। धान के ये खेत पहाड़ों के बीच बेहद खूबसूरत लग रहे थे। आगे चले तो वो जगह आई जिसे देखने हम 30 किमी. नीचे आये थे, टाइगर फाल। बहुत ऊंचाई से एक धार में गिरता पानी शोर कर रहा था। पानी की ये आवाज रौबीली थी जिसे देखने में हमें अपनी नजर बहुत ऊपर ले जानी पड़ रही थी। यहां कुछ लोग नहा रहे थे तो कुछ लोग इस झरने को बस देख ही रहे थे। हम भी कुछ ही देर यहां ठहरे और वापस लौट आये। मुझे उस वाटरफाल से खूबसूरत बहता हुआ पानी अच्छा लग रहा था, जो शांति से बहा जा रहा था।

टाइगर फाल।

बारिश फिर से शुरू हो गई थी और हम इससे बचने के लिए कुछ देर यहीं ठहर गये। बारिश रूकी तो हम चकराता की ओर वापस आने लगे। पहाड़ों से वापस लौटना सबसे कठिन काम होता है लेकिन मैं मन ही मन में वायदा करता हूं कि वापस फिर आउंगा। रास्ते में जो सीढ़ीदार रास्ते खेत दिख रहे थे वो इस सफर का सबसे खूबसूरत नजारा था। बादल से घिरे पहाड़ों से भी खूबसूरत। लौटते हुए शाम होने लगी थी लेकिन पहाड़ों की शाम तो सूरज ढलते ही हो जाती है और सूरज तो जाने कब का ढल चुका था। रास्ते में जब पहाड़ों के आसपास बादलों को देख रहा था। तो अपने आपको बड़ा खुशनसीब समझ रहा था और सोच रहा था कि ‘यही यथार्थ है’ जो मैं देख रहा हूं।

सीढ़ीदार खेत।

हम चकराता पहुंचने ही वाले थे तभी सामने जो देखा उसे देखकर विश्वास नहीं हो रहा था। सामने धुंध ही धुंध थी, ऐसा लग ही नहीं रहा था कि ये सब जुलाई में हो रहा है। जिस कोहरे को सर्दियों में देखते हैं, वो यहां जुलाई के महीने में था। कुछ घंटे पहले मैं इसी रास्ते से गुजरा था तब यहां धुंध का नामोनिशान नहीं था। ये सब विचित्र था लेकिन देखकर खुशी हो रही थी। उसी धुंध को पार करते हुए हम चकराता पहुंच गये। अब हमें देहरादून के लिए निकलना था लेकिन एक बार फिर बारिश ने हमें रोक लिया। कुछ देर बाद बारिश रूकी और हम देहरादून की ओर चल दिये। हम थोड़ा ही आगे चले थे कि बारिश फिर से चालू हो गई, लेकिन इस बार हम रूके नहीं। बारिश में भीगते रहे और चलते रहे। जैसे-जैसे हम देहरादून के पास आ रहे थे बारिश और तेज होती जा रही थी। बारिश इतनी तेज थी कि वो थपेड़े की तरह लग रही थी। जब हम वापस देहरादून पहुंचे तो पूरी तरह से भीगे हुए थे लेकिन खुशी इस बात की थी कि इस छोटी-सी यात्रा ने कई मोड़ लिए और सफर खूबसूरत हो गया।


चकराता को मैं पूरी तरह से नहीं देख पाया। बहुत कुछ छूट गया है, ये मेरे साथ हमेशा होता है। तमाम जगहों को देखने के बाद कुछ जगह रह ही जाती है, रह ही जानी चाहिए अगली बार के लिए। चकराता आने का मतलब है दो-तीन दिन का समय निकालना। अगली बार जब यहां आउंगा तो हर जगह को अच्छी तरह से नापूंगा। यहां के आसमान ने बहुत कुछ दिखाया था ये सब मेरे साथ पहली बार हुआ था। ऐसे ही कई और सफर पर जाने की तमन्ना है काफी पहाड़ों के बीच तो काफी जंगलों के बीच।

Monday, 15 July 2019

चकराता: मंजिल से ज्यादा खूबसूरत और सुंदर ये सफर है

मैं जब भी पहाड़ों की ओर जाता हूं तो हर बार कुछ अलग पाता हूं। मैं कभी नहीं कह पाता कि पहाड़ों मे कहीं भी चले जाओ सब एक जैसा। ये सब वैसे ही जैसे मौसम, कभी धूप है तो कभी छांव, बस ऐसा ही कुछ पहाड़ है। मुझसे अक्सर लोग पूछते हैं पहाड़ में कहां जाना चाहिए, वो उस जगह के बारे में पूछते हैं। मैं नहीं बता पाता हूं, उन लोगों को पता ही नहीं है कि पहाड़ में मंजिल उतनी खूबसूरत नहीं होती, जितना कि सफर। ऐसी ही खूबसूरती और कई रंगों को दिखाता है चकराता का सफर। यहां देवदार का सुंदर जंगल है, घुमावदार रास्ते और इन खूबसूरत रास्तों के चारों तरफ फैले थे, हरियाली से लदे पहाड़।


14 जुलाई 2019 को मौसम बहुत सुहाना था और उसी सुहाने मौसम में हम निकल पड़े चकराता की ओर। चकराता देहरादून से 90 किमी. दूर है और उसे हम तय करने वाले थे बाइक से। मैं दूसरी बार रोड ट्रिप पर पर जा रहा था लेकिन यहां जाने का उत्साह बहुत ज्यादा था। मुझे चकराता के बारे में ज्यादा पता नहीं था लेकिन इतना पता था कि हिल स्टेशन है तो खूबसूरत जरूर होगा। सुबह का सुहानापन अपने सुरूर में था और उसी के फाहे में हम आगे बढ़ते जा रहे थे। देहरादून से बाहर निकलने के बाद भी वो हममें बना ही हुआ था। शहर से निकलने के बाद भी वो कुछ देर बना ही रहता है।

देहरादून से पहाड़ों तक पहुंचने में एक लंबा रास्ता तय करना पड़ता है। ये रास्ते उन आदतों को दूर करने के लिए होते हैं जिनको हम अपनी जिंदगी मान लेते हैं और जब हम इस रास्ते को तय कर लेते हैं तो हम जहां पहुंचते हैं वो जगह सबसे खूबसूरत होती है लेकिन अभी तो हमें खूबसूरती से पहले एक लंबे रास्ते को तय करना था। देहरादून से निकलने पर सबसे सुद्धौवाला मिलता है। लोग दिन की शुरूआत कर रहे थे और हम एक सफर पर निकले हुए थे। थोड़ा आगे बड़े तो से 
सेलाकुई आया। हम देहरादून शहर से बाहर थे लेकिन उसका इंडस्ट्रियल क्षेत्र अब भी बना हुआ था। उत्तराखंड के तीन बड़े इंडस्ट्रियल क्षेत्र हैं, देहरादून, हरिद्वार और रूद्रपुुर। विकास पैदा करने वाली ऐसी ही एक जगह से हम गुजर रहे थे, यहीं वो होटल भी मिला जहां भारतीय क्रिकेटर महेन्द्र सिंह धोनी की शादी हुई थी।


मैदान के बाद है खूबसूरती

देहरादून से 40 किमी. दूर है विकासनगर। विकासनगर भी देहराूदन की तरह ही एक विकसित शहर है। बड़ी-बड़ी दुकानें, बहुत सारे चौराहे, होटल और रोड पर लगता जमा ये बताने के लिए काफी है कि ये बड़ा शहर है। हम मोटरसाइकिल से जा रहे थे सो हमारा जहां मन हो रहा था हम वहां रूक रहे थे। अभी तक हम जहां-जहां रूके भी तो सिर्फ अकड़न दूर करने के लिए। वैसी खूबसूरती और सुंदरता अब तक नहीं आई थी जिसके लिए हम रूकते। विकासनगर से आगे चले तो मिला कालसी। कालसी में हमने वो नजारा देखा जिसके लिए हमें रूकना ही पड़ा। किसान अपने खेत में हल चला रहा था, ग्रामीण भारत का ये नजारा बेहद खूबसूरत था। कालसी आखिरी मैदानी जगह थी, अब हम पहाड़ों की गोद में आ चुके थे।

पहाड़ में ग्रामीण भारत।

जगहों के साथ-साथ मौसम भी अपनी करवट बदल रहा था, कभी धूप हो रही थी तो कभी घने बादल। पहाड़ के आते ही सिर्फ मौसम नहीं बदल देता, यहां आना वाले लोग भी बदल जाते हैं। इन हरे-भरे पहाड़ को देखकर हम खुश होने लगते है, खुली आंखों से इस खूबसूरती को देखना एक सुंदर एहसास है। जैसे-जैसे आगे बढ़ते हैं खूबसूरती अपे परवान होती है। तब लगता ठीक-ठीक सुंदरता या यूं कहें पूरी सुंदरता कुछ नहीं होती है। हर कोई सुंदरता की इसी चौखट पर आना चाहता है। उत्तराखंड में दो मंडल है गढ़वाल और कुमाऊं। गढ़वाल के अंदर ही एक संस्कृति आती है, जौनसार।  जौनसार के बारे में कम  लोग जानते हैं लेकिन जौनसारी कल्चर सबसे रिच कल्चर माना जाता है, यहां के लोग आज भी अपनी परंपराओं को भूले नहीं है। उसी खूबसरत जौनसार में हम चले जा रहे थे।

हरियाली से लदे पहाड़

मुझे हरियाली बहुत पसंद है और हरे-भरे पहाड़ तो बेहद खूबसूरत लगते हैं। उजाड़ और बंजर पहाड़ से मैं जी चुराता और हरे-भरे पहाड़ को देखते रहने का मन करता है। हम जैसे-जैसे आगे बढ़ रहे थे, पहाड़ हरियाली से लदते जा रहे थे। ऐसा लग रहा था कि बुग्याली की हरियाली को खड़े पहाड़ में पलट दिया हो। पहाड़ की नीचाई में कोई छोटी नदी बह रही थी, जिसे पहाड़ों में गदेरो कहते हैं। घुमावदार रास्ते और घुमावदार होते जा रहे थे और खूबसूरत भी। रास्ते में कुछ छोटे-छोटे गांव मिले, इस समय हर जगह खेती हो रही थी। देखकर लग रहा था कि जौनसार में खूब खेती होती है खासकर जब सड़क किनारे टमाटर ही टमाटर दिख रहे हों।

हरियाली ही हरियाली।

हम साहिया और हय्या को पार कर चुके थे। अभी भी चकराता काफी दूर था लेकिन हमारे पास में थी तो ये खूबसूरती, जिसको बहुत दिनों बाद देख रहा था। ऐसा लग रहा था कि अपनापन शहरों में नहीं, पहाड़ों में है। लेकिन पहाड़ों में रहने का मतलब है मुश्किल हालातों का सामना करना। पहाड़ों में अपनी गाड़ी से आकर कुछ घंटे बिताने के बाद वो जगह खूबसूरत तो लगती है लेकिन आसान नहीं है। पहाड़ ‘दूर के ढोल के सुहाने’ की तरह है यहां खूबसूरती तो है लेकिन यहां के लोगों के लिए नहीं।

नजर हटी, दुर्घटना घटी

रास्ते  एक में एक जगह खूब भीड़ थी। आगे बढ़े तो एंबुलेंस और पुलिस भी खड़े थे, कुछ  लोग रस्सी खींच रहे थे। कुछ दूर जाकर हम भी रूक गये, वहीं खड़े लोगों ने बताया एक गाड़ी रात को खाई में गिर गई थी और अब निकालने की कोशिश की जा रही है। पहाड़ की ये भी एक सच्चाई है, थोड़ी-सी भी कोताही सीधे खाई में पहुंचा देती है। थोड़ी देर उस खतरनाक दृश्य को देखा और आगे बढ़ गये। हम फिर से पहाड़ों के घुमावदार रास्ते और मोड़ों में गुम होने लगे। मुझे बार-बार पलटकर देखना पसंद है, कुछ छूट गया हो तो पूरा हो जायेगा।


हम जैसे-जैसे आगे आ रहे थे दूर तलक दिखने वाले रास्ते ऐसे लग रहे  थे जैसे खेत के बीच में होती है, पतली-सी मेड़। रास्ते में कुछ खतरनाक पहाड़ भी मिले जहां बारिश के मौसम में लैंसलाइडिंग होती है और रास्ते बंद हो जाते हैं। अब हम चकराता से कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर थे। हम फिर से एक जगह रूके और सड़क किनारे लगे पहाड़ी किलमोड़ी तोड़कर खाई और पास के ही रिसोर्ट को देखने लगे। इससे खूबसूरत लोकेशन क्या होगी? चारों तरफ पहाड़, पास में ही चकराता और आसपास होती खेती। यहां टमाटर की खेपों की खेपे देखे जा सकती हैं। इस खूबसूरत रास्तों के बीच से हमने एक और दौड़ लगाई और पहुंच गये चकराता हिल स्टेशन।

मंजिल से पहले रास्ता होता है, उस रास्ते के सबके अपने-अपने किस्से होते हैं और इन्हीं किस्सों में तो जिंदगी बंटी होती है। हम एक रास्ता तय कर चुके थे और एक रास्ता तय करना बाकी था। इस जगह को तराशने का रास्ता। यहां हमें बहुत कुछ नया मिलने वाला था और वही नयापन तो खूबसूरती होती है, खूशबू से भरी खूबसूरती।                 

Sunday, 19 May 2019

क्वानू: कल्पना और सुंदरता से परे हैं ये छोटा-सा गांव

सबके भीतर कुछ न कुछ होता है, कोई उसको बाहर निकल लेता है तो कोई उसे हमेशा के लिए दबा देता है। मेरे भीतर भी कुछ है नई जगह पर जाना है और जानना। पहाड़ों में अक्सर मेरा चक्कर लगता रहता है। पहाड़ों में मुझे पहाड़ देखना पसंद नहीं है, मैं तो पहाड़ पर खड़े होकर मैदान ढ़ूढ़ता हूं। उसके लिए बहुत गहरे में थाह लेनी पड़ती है। ऐसी जगह बहुत कम है लेकिन जहां भी हैं वो स्वर्ग के समान हैं। इस बार मैं ऐसी ही एक जगह पर गया, क्वानू।


17 मई 2019 को मैं देहरादून से निकल पड़ा एक ऐसी जगह की ओर जिसका मुझे बस नाम पता था। वो क्या है, वो कैसी है कुछ भी नहीं पता था। बस इतना पता था, जगह नई है तो जाना ही चाहिए। मई के महीने में खूब गर्मी पड़ रही है लेकिन देहरादून में मैदानी इलाकों की तुलना में कम गर्मी है। सुबह-सुबह 6 बजे तो हवा बिल्कुल साफ और ठंडी लग रही थी। देहरादून से बस पकड़ी और निकल पड़े विकास नगर की ओर। विकास नगर देहरादून से लगभग 40 किलोमीटर की दूरी पर है। घुमक्कड़ लोग ऐसे समझ सकते हैं कि अगर आप पोण्टा साहिब जा रहे हैं तो रास्ते में विकास नगर जरूर मिलता है।

पहाड़ से पहले मैदान


मुझते लगता था कि उत्तराखंड में आखिरी मेदानी शहर देहरादून है। उसके बाद जिस तरफ भी जाएं सिर्फ पहाड़ ही मिलेगा, लेकिन इस रास्ते पर आने पर मैं गलत हो गया। देहरादून से विकासनगर तक आना वैसा ही लगता है जैसे हरिद्वार से ऋषिकेश। विकासनगर पूरी तरह से मैदानी शहर है, बड़ी-बड़ी दुकानें, कई चौराहे और सुबह-सुबह ठेले वाला नाश्ता। ऐसे ही किसी एक ठेले पर मैंने नाश्ता किया और चल पड़ा अपनी मंजिल की ओर। मेरे साथ कुछ स्थानीय लोग थे जिनकी मदद से मैं क्वानू जा रहा था।

विकासनगर सुबह-सुबह।

विकासनगर थोड़ा ही आगे निकले तो सामने पहाड़ दिख रहे थे। अब हम पहाड़ों में जा रहे थे। मैंने गाड़ी की सीट पर सिर टिकाया और पहाड़ों को, पीछे छूटते हुए देखने लगा। ये सिर टिकाकर बाहर देखना कितना अच्छा लगता है, उस वक्त सोचना बंद हो जाता है, बस देखा जाता है, जैसे सोते हुए हम सपना देखते हैं। हम घुमावदार रास्ते से उपर चढ़ते जा रहे थे, अब पहाड़-जंगल उपर भी थे और नीचे भी। रास्ते बेहद सुंदर लग रहे थे खासकर वो जो बिल्कुल मोड़ की तरह बने थे, बिल्कुल सांप के आकार के।


आपस में बात करते-करते हम कोटी पहुंच गये। कोटी से आगे चले तो एक डैम मिला, ‘इच्छाड़ी बांध’। ये डैम टौंस नदी पर बना हुआ है, टौंस नदी को शापित नदी भी कहा जाता है क्योंकि इसके पानी को कोई उपयोग नहीं कर पाता है। ये डैम आजाद भारत का पहला डैम है और आज भी बिजली बना रहा है। यहां हम रूके और डैम को कुछ देर देखा। पानी रोकने की वजह से पूरी झील गहरी हरी लग रही थी, मानो किसी ने झील में हरा रंग उड़ेल दिया हो।

कोटी में बना इच्छाड़ी डैम।

आसमान को छूते पहाड़

यहां से आगे चले तो गाड़ी में एक नई बहस छिड़ गई, डैम देश के लिए विकास या विनाश। जो आगे जाकर मोदी, नेहरू होने लगी। कुछ देर हिस्सा बनकर मैं उस बहस से दूर हो गया और फिर से प्रकृति को देखने लगा। अब पहाड़ कुछ अलग थे, बहुत उंचे और खड़े। जिनको उपर तक देखने के लिए सिर उठाना पड़ रहा था। यहां पहाड़ इतने उंचे थे कि उन पर बादलों की छाया पड़ रही थी। मैंने ऐसा ही कुछ पुजार गांव में भी देखा था, ये सब देखना अलग तो था लेकिन अच्छा लग रहा था।


रास्ते में जगह-जगह पत्थर पड़े थे, जो बता रहा था कि यहां भूस्खलन होना आम बात है। पहाड़ पर कुछ पुराने घर दिख रहे थे, खपरैल वाले। मुझे ये दोपहर अच्छी लग रही थी क्योंकि टहलना शाम और सुबह का शब्द है। लेकिन दोपहर में टहला जाए तो वो खुशनुमा होती है। खड़े पहाड़, उन पर दिखते घने जंगल और पास में बहती नदी कितना अच्छा सफर है, यही सोचते हुए आगे बढ़ा जा रहा थां रास्ते में जगह-जगह से थोड़ा-थोड़ा पानी गिर रहा था। मेरे साथ चलने वाले स्थानीय ने बताया ये स्रोत है यानी प्राकृतिक जल, जिसे नौला धारा भी कहा जाता है। ऐसे ही एक स्रोत पर गाड़ी रूकी और हमने पानी पिया। पानी बहुत ठंडा और मीठा था, ठंडे के मामले में तो फ्रिज भी इसके सामने फेल है। उससे भी बड़ी बात ये पानी प्यास बुझाती है।

पहाड़ों के बीच बहती टौंस नदी।

थोड़ी ही देर में हमें पहाड़ों से घिरा मैदान दिखा। जहां दूर-दूर तक पहाड़ दिख रहे थे लेकिन सामने फैला मैदान थे। इस जगह का नाम है ‘क्वानू’। क्वानू में तीन गांव है मझगांव, कोटा और मैलोट, हम जिस गांव में खड़े थे वो मझगांव है। खेतों में गेहूं में पकी हुई फसल दिखाइ्र दे रही थी और उसमें काम करती हुईं कुछ महिलाएं। इस गांव में महासू मंदिर है जिसको देखने पर लगता है कि कोई बौद्ध मंदिर है। इस गांव में अस्पताल है, इंटरमीडिएट तक स्कूल है लेकिन सिर्फ ये अच्छी-अच्छी बातें हैं।

स्वर्ग को नरक बनाने की पहल


यहां का दूसरा पहला बुरा और खतरनाक है। मैं जहां खड़ा था सामने मैदान था और मैदान को घेरे सामने पहाड़ था। जो हिमाचल प्रदेश में आता था, यहां उत्तराखंड और हिमाचल एक-दूसरे के पड़ोसी हैं। दोनों राज्यों को बांटती हुई बीच से एक नदी जा रही है, इसमें कुछ बुरा नहीं है। बुरा वो है जो अब मैं बताने जा रहा हूं। सरकार इन दोनों राज्यों के बीच में एक डैम बनाने जा रही है, किशाउ बांध। किशाउ बांध एशिया का दूसरा सबसे बड़ा डैम होगा, जिसकी उंचाई 236 मीटर होगी। डैम के बनने से हिमाचल के आठ गांव और उत्तराखंड के नौ गांव जलमग्न हो जाएंगे।

क्वानू का एक गांव- मझगांव।

मैंने इस जगह को देखा तो बहुत दुख हुआ कि सरकार विकास के नाम पर स्वर्ग जैसी खूबसूरत जगह को डुबोने जा रही है। क्वानू के लोग नहीं चाहते हैं कि ये डैम बने। इस डैम को बनाने की सबसे बड़ी और बुरी वजह है ‘दिल्ली’। दिल्ली के लोंगों को पानी की आपूर्ति करने के लिए यहां डैम बनाया जाएगा। मैं तो यहीं चाहूंगा कि ये डैम न बने और क्वानू बच जाए। इसके अलावा यही बढ़िया आइडिया यहीं के एक स्थानीय ने दिया। वो कहते हैं, सरकार को अगर डैम बनाना ही तो छोटा डैम बनाये, बिल्कुल इच्छाड़ी डैम की तरह। जिससे डैम भी बन जाएगा, देश का विकास भी हो जाएगा और हमारा क्वानू भी बच जाएगा।


क्वानू से लौटते हुए मैं सोच रहा था, उत्तराखंड में लोग मशहूर और नाम वाली जगह क्यों नहीं जाते है? वो क्वानू जैसी जगह पर जाकर छुट्टियां क्यों नहीं मनाते हैं। जहां शांति है, प्रकृति का सुकून और बड़े ही प्यारे लोग हैं। मंसूरी को पहाड़ों की रानी जरूर कहा जाता है लेकिन पहाड़ों में स्वर्ग ‘क्वानू’ है। जहां इतना मैदान है कि आप चलते-चलते थक जायेंगे, यहां चारों तरफ पहाड़ हैं जहां आप चढ़कर आसमान देख सकते हैं और रात के समय टौंस नदी के किनारे खुले आसमान रात गुजार सकते हैं। यहां हिमाचल भी है और उत्तराखंड भी।