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Friday, 4 February 2022

सिरपुर: इस छोटी सी जगह ने मेरी छत्तीसगढ़ की यात्रा को यादगार बना दिया

कुछ जगहें ऐसी होती हैं जो पहली नजर में ही भा जाती हैं। एक यात्री के तौर पर मैं किसी जगहों को लेकर पहले से कोई धारणा नहीं बनाता हं लेकिन देखने के बाद उस जगह के बारे में विचार जरूर करता हूं। कभी-कभी घूमने से ज्यादा उस जगह पर बिताये अनुभवों के बारे में सोचने से अच्छा महसूस होता है। छत्तीसगढ़ की जितनी भी जगहों को मैंने देखा है। उनमें से सिरपुर की यात्रा ने सबसे ज्यादा छाप छोड़ी है।

छत्तीसगढ़ के राजिम और चंपारण को देखने के बाद मैं वापस भिलाई आ गया था। मुझे कुछ दिनों में वापस अपने घर लौटना था। मैं चाहता था कि उससे पहले सिरपुर जरूर जाऊं। सिरपुर के बारे में मुझे एक दोस्त ने बताया था। मैंने इंटरनेट पर सिरपुर के बारे में पता किया तो देखने लायक जगह लगी। तब से मेरे दिमाग में सिरपुर की यात्रा का प्लान चलने लगा। रायपुर में मेरा एक दोस्त रहता था, उससे बात की तो वो भी चलने को तैयार हो गया।

लोकल ट्रेन

लोकल ट्रेन से रायपुर5 जनवरी 2022। यही वो तारीख थी जब मुझे भिलाई से रायपुर जाना था। भिलाई से रायपुर जाने के कई साधन थे लेकिन मैं ट्रेन से जाना चाहता था। भिलाई में 3-4 रेलवे स्टेशन हैं। जहां मैं रूका हुआ था, वहां से भिलाई नगर रेलवे स्टेशन पास में था। अगली सुबह 7 बजे मैं भिलाई नगर रेलवे स्टेशन पर था। पूरा स्टेशन कोहरे से ढंका हुआ था। कोहरे की वजह से रेलवे स्टेशन खूबसूरत लग रहा था। कुछ देर बाद लोकल ट्रेन आ गई और दो मिनट बाद चल भी पड़ी।

इससे पहले मैं बंगाल की लोकल ट्रेन में बैठा था। शायद सुबह होने की वजह से ट्रेन में भीड़ कम थी। ट्रेन अपनी गति से चली जा रही थी और मैं बाहर के नजारे को देख रहा था। मैंने रायपुर के अपने दोस्त तेज को कॉल लगाया लेकिन उसका फोन स्विच ऑफ आ रहा था। मैं फिर कॉल लगाया, फिर वही जवाब मिला। मैं परेशान हो गया कि कॉल क्यों नहीं लग रहा है? व्हॉटसएप पर भी मैसेज और कॉल किया लेकिन बात नहीं हुई।

आगे कैसे जाऊंगा?

रायपुर।
तेज से बात होने की वजह से मैंने सिरपुर जाने के लिए दूसरे साधन के बारे में सोचा नहीं था। तेज से बात नहीं हो पा रही थी इसलिए मैंने इंटरनेट पर बस के बारे में पता किया लेकिन कुछ खास मिला नहीं। ट्रेन महासमुंद तक जा रही थी लेकिन वो दिन में थी। मैं तेज को बार-बार कॉल लगाये जा रहा था। मैंने सोच लिया था कि रायपुर पहुंचने के बाद भी अगर तेज का कॉल स्विच ऑफ आया तो बस अड्डा चला जाऊंगा।

भिलाई से रायपुर पहुंचने में 1 घंटे का समय लगा। रेलवे स्टेशन से बाहर आकर मैंने परेशान मन से तेज को कॉल लगाया और इस बार मुझे घंटी सुनाई दे रही थी। घंटी की आवाज सुनकर अलग ही खुशी मिली। तेज से बात हुई और उसने कुछ देर इंतजार करने को बोला। कुछ देर बाद तेज की मोटरसाइकिल पर हम दोनों रायपुर की सड़कों पर थे। तेज मुझे रायपुर के बारे में बता रहा था और मुझे 2018 की छत्तीसगढ़ की यात्रा याद आ रही थी। कुछ देर बाद में तेज के ऑफिस में था।

रायपुर से दूर

सिरपुर के रास्ते में।
तेज ने कुछ दिन पहले ही अपना नया दफ्तर खोला था। तेज के ऑफिस को देखने और बाकी काम में 1 घंटे का समय लग गया। कुछ देर बाद हम रायपुर से दूर एक सफर पर चल पड़े। रायपुर से निकलने में ही काफी समय लग गया। जब हम हाईवे पर आये तो तेज हवा से बातें करने लगा। तेज मोटरसाइकिल तेज चला रहा था और मेरे बाल खराब हो रहे थे।

हाईवे के किनारे वाले नजारों को देखते हुए हम बढ़े जा रहे थे। कुछ देर बाद हम आरंग पहुंच गये। हमने सुबह से कुछ नहीं खाया था इसलिए एक दुकान पर रूके। यहां हमने दुकान वाले को समोसा और कचौड़ी के लिए बोल दिया। तेज ने बताया कि आरंग एक ऐतहासिक जगह है। भगवान कृष्ण ने ऋषि का वेश धारण करके यहां के राजा से अपने शेर के लिए उनके बेटे का मांस मांगा था। राजा ने अपने बेटे का सिर काटकर शेर के आगे डाल दिया था। जिसके बाद भगवान कृष्ण ने उनके बेटे का जिंदा कर दिया था। समोसा और कचौड़ी के लाजवाब स्वाद ने इस सफर को और भी शानदार बना दिया।


सिरपुर

कुछ देर बाद हम फिर से अपनी मंजिल की ओर बढ़े जा रहे था। रास्ते में एक पुल मिला। पुल के दोनों तरफ दूर तक महानदी दिखाई दे रही थी हालांकि नदी में पानी बहुत ज्यादा नहीं था। कुछ देर बाद हमने हाईवे को छोड़कर गांवों वाला रास्ता पकड़ लिया। सड़क के दोनों तरफ खूबसूरत जंगल भी मिल रहा था जो वाकई में सुंदर लग रहा था। काफी देर बाद हमें सिरपुर का बोर्ड दिखाई दिया। कुछ ही मिनटों बाद हम सिरपुर के चौराहे पर खड़े थे।

सिरपुर का चौराहा।
पहली नजर में सिरपुर बिल्कुल छोटी-सी जगह लगा। ऐसा लगा कि कोई सिरपुर कोई गांव हो। आगे बढ़े तो समझ में भी आ गया कि सिरपुर एक गांव ही है। हम दायीं तरफ चल पड़े। सड़क के दोनों तरफ कई पुरातत्विक साईट दिखाईं दे रही थीं। जहां सिरपुर खत्म हुआ, हमने उसके सबसे पास वाली जगह को देखने को पक्का किया।

लक्ष्मण मंदिर

लक्ष्मण मंदिर।
हम सबसे पहले लक्ष्मण मंदिर को देखने जा रहे थे। मंदिर परिसर के बायीं तरफ टिकट घर था। 25 रुपए का टिकट लेने के बाद आगे बढ़े तो तेज को अपने गांव का दोस्त मिल गया। वो इसी जगह पर काम करता है। कुछ देर बातें करने के बाद हम मंदिर को देखने के लिए बढ़ गए। ईंटों से बने इस लक्ष्मण मंदिर को महान पाण्डु वंशीय शासक हर्षगुप्त की पत्नी वासटा ने अपने पति की याद में 6वीं शताब्दी में बनवाया था। इस मंदिर में भगवान विष्णु की मूर्ति है।नागर शैली में बनाया गया यह मंदिर भारत का पहला ऐसा मंदिर माना जाता है, जिसका निर्माण लाल ईंटों से हुआ था। लक्ष्मण मंदिर की विशेषता है कि इस मंदिर में ईंटों पर नक्काशी करके कलाकृतियाँ निर्मित की गई हैं, जो बेहद खूबसूरत है। 12वीं शताब्दी में सिरपुर में आए विनाशकारी भूकंप में पूरा श्रीपुर नष्ट हो गया था लेकिन यह लक्ष्मण मंदिर जस का तस रहा।

हमारे गाइड।
हमें यहां एक गाइड मिले जो काफी बुजुर्ग मिले। उन्होंने बताया कि वो आधिकारिक रूप से प्रशिक्षित गाइड नहीं है लेकिन उनके पिताजी गाइड थे। उन्होंने बताया कि ये मंदिर जंगल में छिपा हुआ था। पहले यहां सिर्फ जंगल हुआ करता था। मंदिर में ताला लगा रहता है । उन्होंने बताया कि एक बार मंदिर की मूर्तियां चोरी हो गईं थी इसलिए अब ताला लगा रहा था। मंदिर की दीवारों पर खूबसूरत नक्काशी थी।

म्यूजियम

संग्रहालय।
लक्ष्मण मंदिर परिसर में म्यूजियम भी है। गाइड अंकल ने बताया कि इस म्यूजियम की मूर्तियां खुदाई में मिली थीं। संग्रहालय में बहुत सारी मूर्ति थी। महात्मा बुद्ध, महावीर स्वामी, विष्णु, शिव समेत अनगिनत देवी-देवताओं की मूर्ति इस म्यूजियम में देखने को मिलीं। दो बड़े-बड़े कमरे में ऐसे ही मूर्तियां रखी हुई थी। एक कमरे में कई शिवलिंग रखे हुए थे। लक्ष्मण मंदिर परिसर काफी बड़ा है। मंदिर परिसर में चारों तरफ हरियाली ही हरियाली थी। 

राम मंदिर

राम मंदिर।
कुछ देर में हम लक्ष्मण मंदिर परिसर के बाहर थे। सिरपुर चौराहे की तरफ बढ़े तो हमें एक और पुरातात्विक जगह दिखी। बाहर बोर्ड पर राम मंदिर लिखा हुआ था। अच्छी बात ये थी कि अब हमें किसी और जगह को टिकट नहीं लेना था। इस मंदिर को 7वीं शताब्दी में बनवाया गया था लेकिन हमें मंदिर की जगह सिर्फ खंडहर देखने को मिला। 2003-04 की खुदाई में ये मंदिर मिला था। राम मंदिर का चबूतरा बना हुआ था लेकिन दीवारें टूटी हुई थी। राम मंदिर को देखकर हम आगे बढ़ गये।

राम मंदिर के पास में ही बौद्ध विहार है। इस जगह पर बौद्ध धर्म से संबंधित कई जगहें हैं। कुछ देर में हम बौद्ध विहार में थे। इन जगहों को देखकर लग रहा था कि हम अतीत के गलियारे में गोते लगा रहे हैं। कभी-कभी हमें अपना इतिहास हैरान कर देता है। मैं इतिहास का विद्धार्थी नहीं रहा हूं लेकिन शुरू से ही इतिहास में दिलचस्पी रही है। मुझे इतिहास की किताबें भी पसंद हैं और ऐसी जगहों पर आना भी अच्छा लगता है।

बुद्ध विहार

बुद्ध विहार।
बुद्ध विहार में प्रवेश करते ही सामने टीन की चद्दर के नीचे कुछ संरचनाएं बनी हुईं थीं। ये संरचना छतिग्रस्त तो थी लेकिन काफी कुछ बना हुआ भी था। बुद्ध विहार के इस गेट पर बहुत सारी मूर्तियां उकेरी गईं थीं। गेट के अंदर सामने महात्मा बुद्ध की बड़ी-सी मूर्ति रखी हुई थी। बीच में बहुत सारे खंभे बने हुए थे जो टूटे हुए थे। जिससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि यहां कभी मंदिर हुआ करता होगा। बुद्ध विहार का आर्किटेक्चर काफी अच्छा है। खंभों पर बनी नक्काशी तो कमाल की है।

बुद्ध विहार में इसी प्रकार की 4 संरचनाएं हमने देखीं। टीन की चद्दर के नीचे वाली संरचना को छोड़ दें तो बाकी संरचनाएं ज्यादा ही क्षतिग्रस्त हैं। एक संरचना में तो सिर्फ छोटे-छोटे कमरें हैं। इन दोनों से दूर एक संरचना में बुद्ध की बड़ी-सी मूर्ति है और सामने छोटे-छोटे खंभे दिखाई देते थे। ऐसी जगहों को देखकर अंदाजा ही लगाया जा सकता है कि यहां क्या हुआ करता होगा? हालांकि नोटिस बोर्ड पर इस जगह के बारे में काफी जानकारी मिलती है।ईसा पूर्व छठवीं शताब्दी में चीनी यात्री ह्वेनसांग सिरपुर आए थे। उन्होंने अपने यात्रा वृत्तांत में सिरपुर का वर्णन करते हुए लिखा है कि 'दक्षिण कोसल की राजधानी में सौ संघाराम थे। इस क्षेत्र का राजा हिंदू था और यहां सभी धर्मों का सम्मान किया जाता था। यहां सोने-चांदी के गहने बनाने के सांचे, अस्पताल, बंदरगाह आदि के अवशेष मिले हैं।

2003 में खुदाई के दौरान ये बुद्भ स्थल सबके सामने आया था। बौद्ध विहार सिरपुर के राम मंदिर के पास में ही है। सिरपुर के बौद्ध स्थल को दुनिया के सबसे बड़े बौद्ध स्थल के रूप में जाना जाता है। इस बौद्ध विहार का निर्माण छठवीं शताब्दी में सोमवंशी शासक तीवरदेव के समय में हुआ था। इसे तीवरदेव बौद्ध बिहार के नाम से जाना जाता है। इस बौद्ध बिहार में कई संरचनाएं और मूर्तियां हैं। बुद्ध विहार में प्रवेश करते ही सामने टीन की चद्दर के नीचे कुछ संरचनाएं बनी हुईं थीं। ये संरचना छतिग्रस्त तो थी लेकिन काफी कुछ बना हुआ भी था। बुद्ध विहार के इस गेट पर बहुत सारी मूर्तियां उकेरी गईं थीं। गेट के अंदर सामने महात्मा बुद्ध की बड़ी-सी मूर्ति रखी हुई थी। बीच में बहुत सारे खंभे बने हुए थे जो टूटे हुए थे। जिससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि यहां कभी मंदिर हुआ करता होगा। बुद्ध विहार का आर्किटेक्चर काफी अच्छा है। खंभों पर बनी नक्काशी तो कमाल की है।

गंधेश्वर महादेव मंदिर

नदी किनारे बना मंदिर।
तेज का बचपन इसी जगह पर बीता है इसलिए वो इस जगह को अच्छे से जानता है। वो मुझे इस जगह के बारे में बता रहा था। बौद्ध विहार के बाद हम नदी किनारे एक पेड़ के नीचे रुके। उस जगह के बारे में और सामने बनी यज्ञशाला के बारे में कुछ किस्से सुनाये। थोड़ी देर बाद हम दोनों गंधेश्वर महादेव मंदिर के गेट पर थे। अंदर घुसे तो प्रसाद लेने की कुछ दुकानें लगीं थीं। मैं घूमते समय मंदिर को भी घुमक्कड़ की नजर से ही देखता हूं। अगर अनिवार्य न हो तो मैं प्रसाद नहीं लेता हूं। वैसा ही कुछ मैंने यहां किया।

महानदी के तट पर भगवान शिव का एक प्राचीन मंदिर निर्मित है, जिसे गंधेश्वर महादेव का मंदिर कहा जाता है। इस मंदिर का निर्माण सिरपुर के पुराने मंदिरों और बौद्ध विहार की अवशेष सामग्री को एकत्रित कर किया गया है। मंदिर में विभिन्न कलात्मक मूर्तियां बुद्ध, नटराज, शिव, बराह, गरूड़, नारायण, महिषासुर की मूर्तियां देखने योग्य है।महानदी तट से बिल्कुल लगे इस मंदिर का निर्माण 8 वीं शताब्दी में बालार्जुन के समय में बाणासुर ने कराया था। गंधेश्वर महादेव मंदिर में स्थित शिवलिंग 4 फीट लंबा है। मंदिर के खंभे पर शानदार नक्काशी की गई है।

राजिम समूह मंदिर की तरह गंधेश्वर महादेव मंदिर बाहर से पूरा सफेद था। मंदिर के खंभे लाल बलुआ के पत्थर के बने हुए थे। मंदिर के खंभों पर नक्काशी भी बेहद शानदार थी। मंदिर के सामने एक छोटा-सा मंदिर था। वहीं मंदिर के पास में कई देवी-देवताओं की मूर्ति बनी हुई थी। मंदिर के पीछे नदी थी। नदी में पानी कम था लेकिन नजारा खूबसूरत था। नदी के इस किनारे पर दो लोग खड़े थे और बीच नदी में एक लड़का और लड़की चल रहे थे। थोड़ी देर बाद वो नदी के एक कोने पर पहुंच गये। इस ओर खड़े दो लोग चिल्लाकर उनको पुकार रहे थे लेकिन शायद सुन नहीं रहे थे या आवाज नहीं पहुंच रही थी। कुछ देर बाद वो दोनों फिर से नदी में थे।

सुरंग टीला

सुरंग टीला।
मंदिर के पास में ही एक दो छोटे-छोटे मंदिर बने हुए हैं। अब हमें अपने सफर के आखिरी स्थान पर जाना था। थोड़ी देर बाद हम उस जगह के बाहर खड़े थे। गेट के अंदर उस जगह के बारे में थोड़ी जानकारी दी थी। जिसके अनुसार इस जगह को सुरंग टीला के नाम से जाना जाता है। 2006 की खुदाई में इस जगह के बारे में पता चला। आगे बढ़े तो एक छोटी-सी संरचना बनी हुई थी। बाकी जगहों की तरह ये संरचना भी क्षतिग्रस्त थी लेकिन खंभों पर बारीक नक्काशी देखने को मिली।

सिरपुर में चाट।
इसी संरचना के सामने एक बड़ा-सा मंदिर है। जिसके लिए काफी सीढ़िया भी बनी हुई हैं। शुरू की सीढ़िया तेढ़ी बनी हुई हैं। मंदिर के ऊपर से ये जगह और भी शानदार लग रही थी। इस मंदिर में तीन गर्भागृह हैं। एक में भगवान गणेश की मूर्ति है और बाकी में शिवलिंग हैं। गर्भागृह के बाहर कुछ मूर्तियां बनी हुई है। मंदिर में खूब सारे खंभे खड़े हुए हैं जिनमें बारीक नक्काशी और मूर्तियां उकेरी गई हैं। सुरंग टीला का आर्किटेक्चर शानदार है। मेरे लिए सुरंग टीला सिरपुर की सबसे शानदार जगहों में से एक है।

सुरंग टीला को देखने के बाद हमें वापस जाना था लेकिन आरंग के बाद से कुछ खाया नहीं था इसलिए भूख लग आई थी। हमने पास में ही खड़े ठेले पर चाट खाई और रायपुर के लिए वापस लौट चले। कुछ जगहें पहली नजर में ही खुशनुमा लगने लगती हैं और कुछ जगहें धीरे-धीरे अपनी छाप छोड़ती है। सिरपुर को जैसे-जैसे देखता गया और भी खूबसूरत लगता गया। अब सिरपुर के बारे में सोचता हूं तो एक शानदार सफर की याद आती है। ऐसे सफर पर मैं बार-बार जाना चाहता हूं।

Saturday, 22 December 2018

बंगाल 3: लोकल ट्रेन में सफर जिंदगी की भागदौड़ की कहानी बयां करती है

सफर जो कई पहलुओं से, कई लोगों से, कई भाषाओं से मिलवाता है। मैं इस समय बंगाल के लोकल में था। यहां की रहन-सहन, भाषा और लोगों को समझने की कोशिश कर रहा था। बंगाल बड़ा ही खूबसूरत राज्य है। हरी-भरी जमीन और हंसते-मुस्कुराते लोग। ऐसे ही तो सफर और जिंदगी चलती-रहती है। एक दिन आराम करने के बाद अगला पड़ाव होने वाला था कोलकाता। कोलकाता तक जाने के लिए लोकल ट्रेन से जाना था।


बर्धमान तक का लंबा सफर ट्रेन का ही था। लेकिन लोकल ट्रेन के इतने किस्से सुन रखे थे कि मुझे भी वही किस्सोगई बनना था। मैंने लोकल ट्रेन को अब तक फिल्मों में ही देखा था। एकाध-बार किसी स्टेशन पर भी खड़े देखा था। वो मेटो जैसे लटकते हैंडल मुझे बहुत भाते थे। उसी लोकल का हिस्सा मैं भी होने वाला था। कृष्णानगर से अपना बैग और टिकट लेकर प्लेटफाॅर्म की ओर बढ़ गया।\

भीड़ वाली लोकल ट्रेन


मुझे सामने ही हरी-पीली लोकल ट्रेन दिखी। इस लोकल ट्रेन का गेट आम ट्रेनों की तुलना में काफी बड़ा था। शुरू के डिब्बे महिलाओं के लिए आरक्षित थे। उन डिब्बों के आगे वाले डिब्बों में चढ़कर अपने लिए सीट देखता। सीट न मिलने पर आगे वाले डिब्बों की ओर बढ़ जाता। कुछ डिब्बों के बाद मुझे सीट मिली तो आधी। लोकल ट्रेन में सीटें आमने-सामने होती हैं। जिस पर बैठ तो तीन लोग ही सकते हैं लेकिन बैठते चार लोग हैं और वो चौथा मैं था।

लोकल ट्रेन की भीड़ सफर के अंत तक बनी रहती है

ट्रेन कुछ देर में चलने वाली थी और भीड़ भी अपनी जगह बना रही थी। कुछ लोग तो जल्दी आने के चक्कर में दूसरे गेट से चढ़ रहे थे। जो जोखिम भरा था लेकिन लोकल में तो ये आम बात है। ये ट्रेन सियालदाह तक जा रही थी। कुछ देर में ट्रेन भीड़ से खचाखच भर चुकी थी। सीट के बीच में जगह थी सो मैंने अपना बैग वहीं रख दिया। कुछ देर में ट्रेन चल पड़ी।

यात्रा में बहस


दो-दो मिनट में ट्रेन रूक रही थी। अब शायद ही कोई कोना बचा हो जो भीड़ से खाली हो। अब लोग सीटों के बीच में खड़े होने लगे थे। थोड़ी देर में सभी सीटों का दृश्य ऐसा ही था। मेरी सीट बची थी क्योंकि मेरा बैग अड़ंगा बना हुआ था। थोड़ी देर में तीन नए लड़के आये और बैग हटाने को कहा। मैंने भी तेज आवाज में कह दिया बैग तो यहीं रहेगा। वो बोलने लगे कि ये जगह खड़े होने के लिए है। मैं फिर भी अड़ा रहा और कहा, आपको जाना है तो इस बैग को पार करके चले जाइए।


थोड़ी देर बाद बैग अंदर पहुंच गया और कुछ लोग मेरी सीट के बीच में भी खड़े हो गये। लोकल ट्रेन में इतनी भीड़ होती है कि आपको अपने स्टेशन पर उतरने के लिए सीट से कुछ स्टेशन पहले उठ जाना होता है। तभी आप अपने स्टेशन पर उतर पाएंगे। छोटी-मोटी धक्का-मुक्की और लड़ाई-झगड़ा तो यहां आम बात है। जो अपनी सीट छोड़ते उनकी जगह सामने खड़ा व्यक्ति ले लेता है। लोगों की गप्पे चल ही रही थीं मैं उनकी बातें समझने की कोशिश कर रहा था। लेकिन बांग्ला भाषा इतनी आसान नहीं थी जो मैं समझ सकूं।

मैं सबसे ज्यादा परेशान हो रहा था झाल-मूड़ी वाले से और दाने बेचने वाले से। यहीं मैंने पहली बार झाल-मूड़ी खाई थी। मुझे पहली बार में झाल मूड़ी अच्छी नहीं लगी थी। बाद में मुझे ये बेहद अच्छी लगने लगी। इनकी अपनी कला होती है भीड़ से निकलने की। दाने वाला तो अपना हैंडल लेकर चलता है और आराम से सामान बेचता है। इसके दानों में मटर से लेकर नमकीन, मूंगफली सब मिलता है।

आखिरी पड़ाव- सियालदाह


कुछ स्टेशनों के बाद लग रहा था ट्रेन गलियों में घूम रही है और घरों के सामने रूक रही है। स्टेशन के नाम पर माइक, बोर्ड और कुछ कुर्सियां ही थीं। बाकी तो गली-मोहल्ला साथ दे रहा था। कृष्णानगर से सियालदाह तक का सफर ढाई घंटे का था। अगर सफर लंबा होता तो मैं परेशान हो जाता। जिन नौजवानों से मेरा झगड़ा हुआ था वे थे तो बंगाल के ही। उनकी बातें हिंदी में ही चल रहीं थीं। अपने आॅफिस से शुरू होकर वे नरेन्द्र मोदी और ममता बनर्जी पर आ गये।

असली संघर्ष तो यहीं होता है।

उसके बाद वे माॅल की, खाने की और अपने घूमने की बातें करने लगे। इनकी बातें सुनकर लग रहा था कि कोलकाता पास ही है। थोड़ी देर में दमदम आ गया और उसके बाद सियालदाह। इस लोकल ट्रेन का आखिरी स्टेशन। थोड़ी ही देर में ट्रेन ऐसे खाली हो गई जैसे यहां कोई था ही नहीं। ऐसा लग रहा था मानो सबका कहीं न कहीं जाने की जल्दी थी, सिवाय मेरे। मैंने अपना बड़ा-सा बैग उठाया और आगे के सफर के लिए निकल पड़ा।