Thursday 6 December 2018

बंगाल यात्रा 1: हर बार सफर कुछ नये अनुभवों से रूबरू कराता है

बंगाल मुझे बार-बार बुलाता है लेकिन कभी घूम नहीं पाया, सही से देख नहीं पाया। इस बार अचानक ही मैंने बंगाल घूमने का प्लान बना लिया। कुछ दिन पहले 6 दिसंबर के लिए रिज़र्वेशन करवा लिया। जो आखिरी वक्त तक कन्फ़र्म नहीं हुआ था। जब कन्फ़र्म की सूचना मिली तो राहत की सांस ली। मेरे घर से रेलवे स्टेशन 40 किलोमीटर दूर है। ट्रेन छूटने के डर से मैं मऊरानीपुर स्टेशन समय से दो घंटे पहले ही पहुंच गया था। करीब ढाई घंटे के इंतजार के बाद चंबल एक्सप्रेस आई और इस तरह मैं निकल गया बंगाल यात्रा पर।


विकास का बदतर रूप 


मुझे साइड लोअर सीट मिली थी। मुझे यह सीट बड़ी पसंद है। यहां से बाहर का नजारा साफ-साफ देख सकते हैं। यहां से ट्रेन के अंदर की गतिविधियां भी दिखती रहती हैं। रेल यात्रा हर बार नए अनुभव करवाती है, नये-नये लोगों से मिलवाती है। यहां अजनबी होते हुए भी कोई अजनबी नहीं होता। यहां देश की राजनीति पर भी चर्चा सुनी जा सकती है और अध्यात्म संवाद भी देखा जा सकता है।


ट्रेन अपनी रफ्तार से बढ़ रही थी। सामने के दृश्य वैसे ही थे। जिसे मैं रोज ही देखता। बुंदेलखंड हर जगह एक जैसा है समस्याओं के बीच समाधान खोजता। थोड़ी देर बाद मैं उसी इलाके के बांदा, महोबा के बीच में था। ये इलाका बुंदेलखंड का सबसे सूखे क्षेत्रों में आता है। एक जगह क्रेन मशीन से पठार तोड़ी जा रही थी। जो पठार कभी देखने में कभी खूबसूरत लगती होगी। उसे विकास ने उजाड़ कर दिया।

प्रियतम प्रकृति 


ये जाने कैसा विकास है जो देने के बदले में हमारा बहुत कुछ छीन लेता है। फिर भी बाहर देखने में अच्छा लग रहा था। विंध्याचल पर्वत की श्रेणी हमारे सामने से गुजरकर पीछे छूट रही थी। बाहर देखने को बहुत कुछ था जंगल, खेती, पहाड़, नदियां और लोग। सब अपने में संतुलित था। हम यहां अंदर बैठे अपना संतुलन खोह रहे थे और बाहर दृश्य अपने में संतुलन बैठा रहा था। पल-पल में दृश्य बदल रहे थे जिससे बाहर देखने में बोरियत नहीं हो रही थी।


मेरे सामने वाली सीट पर एक बंगाली दंपत्ति थी। बाकी सीटों पर लोग आते और बदलते जा रहे थे। मेरे पास की सीट पर कुछ लोग राजनीति पर समागम कर रहे थे। उनमे से एक अपने को सबसे ज्ञानी होने का परिचय दे रहा था। अपने को किसी पार्टी से जुड़ा हुआ कह रहा था और दोनों ही बड़ी पार्टियों की बखियां उधेड़ रहा था। उनकी बातों का तुक नहीं बैठ रहा था लेकिन ट्रेन में ऐसी बातें होनी चाहिए। जिससे सफर बिना बोरियत के आराम से काट लिया जाए।

इलाहाबाद है! 


अब तक हम बुंदेलखंड को छोड़कर इलाहाबाद(प्रयागराज) के आसपास आ गए थे। मैं उस बोर्ड को देखना चाहता था जिस पर अब प्रयागराज लिख दिया गया है। बोर्ड आया लेकिन प्रयागराज का नहीं कोई इलाहाबाद छिवकी का। शायद ये ट्रेन इलाहाबाद होकर नहीं जाती।


इलाहाबाद से निकलते वक्त शाम हो चली थी। सामने सूरज ढल रहा था और अपने चारों और लालिमा बिखेर रहा था। सूरज अठखेलियां करते हुए हमसे दूर जा रहा था किसी नई जगह पर। सूरज डूब चुका था लेकिन अभी भी बाहर साफ-साफ दिखाई दे रहा था। शाम बड़ी बड़ी प्यारी लग रही थी। खेती वाला क्षेत्र अभी चल ही रहा था। किसी के खेतों की बुवाई हो रही थी तो कहीं सिंचाई हो रही थी।

लोगों की जुबां केसरी- मुगलसराय 


अब तक मुझे भूख लग आई थी। मुझे खास चेतावनी दी गई थी बाहर का कुछ भी मत खाना। घर से लाया हुआ खाना खाया और फिर अंधेरे में डूबे शहर-गाँव को देखने लगा। कुछ देर बाद मिर्जापुर आ गया, कालीन भैया वाला मिर्जापुर। आजकल फिल्मों से शहरों को जाना जाता है और सब इसे बदलाव का नाम दे देते हैं। ये बदलाव नहीं छाप है जानकारी के अभाव की।


मिर्जापुर से निकले तो स्टेशन आने की भनक मिल गई। जो न्यूज में नाम को लेकर बड़ा छाया रहा था, दीनदयाल उपाध्याय जंक्शन(मुगलसराय)। ट्रेन की बातों में अब लग रहा था कि पूर्वांचल में हैं। सरकार ने अपने कागजों से तो मुगलसराय का नाम हटा दिया। लेकिन लोग की जबान से नहीं हटा सके। मेरे कान में एक आवाज नहीं आई जिसने दीनदयाल उपाध्याय नाम लिया हो। चारों तरफ बस एक ही नाम सुनाई दे रहा था, मुगलसराय।

बर्धमान 


अब तक रात का पहर अपने आगोश में था और हवादार ठंड ने कंबल में घुसा दिया। अपनी लापरवाही के कारण कई बार ठंड के मजे ले चुका हूं। इसलिए अब मेरा बैग में कंबल जरूर रहता है। मुगलसराय के बाद रात हिलते-डुलते कटी। जब कभी नींद खुलती तो पता चलता है स्टेशन गया(बिहार) है। उसके बाद नींद खुलती है तो स्टेशन का अनाउंस बता देता है कि बंगाल में प्रवेश कर चुका हूं। बंगाल का सबसे पहले पड़ने वाला रेलवे स्टेशन आसनसोल है।



मैं जल्दी ही बर्धमान पहुंचने वाला था। लेकिन नींद ने मुझे आगोश में ले लिया। अचानक मेरी आँख खुली तो देखा मेरे आसपास सबके सामान पैक थे, मोबाइल पर कुछ मिस्ड कॉल पड़ी थीं। मैं समझ गया था बर्धमान आने ही वाला है। ये ट्रेन हावड़ा जा रही थी और फिलहाल मुझे हावड़ा नहीं, बर्धमान जाना था। मैं कुछ मिनट और सोता रहता तो हावड़ा पहुंच जाता। थोड़ी देर बाद स्टेशन आया बर्धमान। मैं जल्दी ही बंगाल की धरती पर पर आ गया। अब बस कुछ दिन बंगाल की आबोहवा को देखना था।

1 comment:

  1. वाह आपने अपनी ट्रैन यात्रा में आने वाले रेलवे स्टेशन का बखूबी वर्णन किया...मुझे भी साइड लोअर birth बहुत पसंद है....चंबल एक्सप्रेस अक्सर बहुत late होती है...

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