Thursday, 11 October 2018

बस्तर यात्राः यहां तक तो सब ठीक है बस यहां से आगे मत जाना।

20 सितंबर 2018, नारायणपुर।

मैं बस्तर के नारायणपुर जिले में था। नारायणपुर जिला इस क्षेत्र का सबसे विकसित शहर है। आस-पास के लोग अपना जरूरत का सामान यहीं से लेने आते हैं। यहां बाजार है, दुकानें हैं और सभी प्रशासनिक भवन। बस्तर इलाके का एक विकसित शहर जो मुझे उजाड़ लग रहा था। मैंने अभी तक जिला पंचायतें देखीं जो बहुत भारी-भरकम रहती हैं। जो देर रात तक जागती है और देर सुबह शुरू होती है। लेकिन नारायणपुर पूरे गांव की तरह से चल रहा था जो बहुत जल्दी उठता है और शाम होते ही बंद हो जाता है।


हमारे साथ यहां के स्थानीय लोग थे जो हमें आस-पास के क्षेत्र के बारे में बता रहे थे। थोड़ी ही देर में हमारी गाड़ी गांव की ओर निकल पड़ी। थोड़ी ही आगे चले थे कि पक्का रोड खत्म हो गया। अब हम लाल मिट्टी वाले कच्चे रास्ते पर थे। रास्ते में हमें रोड किनारे कुछ घर दिख रहे थे। जो गांव का पूरा खाका खींचे हुए थे, उनके पास गाय थीं। रास्ते में हमें महिलाएं खेतों में काम करती हुई दिख रहीं थीं तो लड़कियां भी बस्ते पहनकर स्कूल जा रहीं थीं।

फिर अचानक!

हम ऐसे ही रास्ते में चलते जा रहे थे। हमारे स्थानीय साथी ने बताया, जिस कच्चे रोड पर हम चल रहे हैं वो कुछ महीने पहले बना है। इससे पहले तो यहां की हालत और भी खराब थी। फिर अचानक एक ऐसी जगह आई जहां गाड़ी रोक दी गई। रास्ता एक दम घाटी हो गया था और बीच में एक नहर थी। गाड़ी नहर को पार नहीं कर सकती थी इसलिए हम पैदल ही आगे का रास्ता नापने लगे।

जब हम पैदल चलने लगे तब हमें लगा कि हम बस्तर में हैं, गाड़ी में बाहर का एहसास नहीं होता। पैदल रास्ता लंबा था, गांव 4-5 किलोमीटर की दूरी पर था। हमें उस कच्चे रास्ते में कोई नहीं दिख रहा था। पूरा जंगल वाला दृश्य था लेकिन दोपहिया वाहन की आवाजाही बता रही थी कि रास्ता आमजन का ही है। हम कुछ ही दूर चले थे कि हमें एक टूटा पुल मिला। जो अपनी कहानी बयां कर रहा था कि यहां तक आने में परेशानी क्यों है? टूटे पुल के पास ही गिट्टी और एक पानी का टैंकर रखा था। जो बता रहा था कि शुरूआत तो हुई है लेकिन काम अधूरा ही रह गया।


हम आगे चले तो हमें कुछ घर दिखाई दिए। हम मोरहापार गांव में आ गये थे। यहां हम गांव वालों से बातें करने लगे। इस गांव में गोंडी जनजाति के लोग रहते हैं। हिंदी ज्यादा नहीं आती लेकिन कामचलाऊ वाली बोल लेते हैं। इस गांव में कोई अस्पताल तो नहीं हैं लेकिन मितानिन है। मितानिन बिल्कुल आशा जैसा ही काॅन्सेप्ट है। मितानिन जो गांव की ही एक महिला रहती है। उसे जिला अस्पताल में प्रशिक्षण दिया जाता है और वो छोटी-मोटी बीमारी  के लिए गांव वालों को दवा देती है।

गांव के प्राथमिक स्कूल में गये। जहां 4-5 ही बच्चे थे और उससे भी बड़ी बात कि उन 4-5 बच्चों के बीच दो अध्यापक थे। जो हमारी सिस्टम की गड़बड़ी को बता रहे थे। सरकार को ऐसी जगह पर टीचर भेजने चाहिए जहां कमी हैं। यहां दो टीचर क्या बच्चे को पढ़ाते होंगे वे तो यहां समय निकालकर पैसे बनाने की फिराक में रह रहे हैं।

सरकार की योजनाओं पर गांव वाले

गांव में सोलर प्लेट सभी के घर पर दिख रहीं थीं जो सरकार ने गांव वालों को बिजली के लिए दी थी। उज्ज्वला योजना के बारे में गांव वालों को जानकारी है उन्होंने गैस कनेक्शन के लिए फाॅर्म भी भरा लेकिन अभी तक किसी को भी गैस नहीं मिला। गांव में सभी खपरैल और कच्चे घर थे। बीच-बीच में कुछ पक्के घर भी दिखे। स्थानीय लोगों ने बताया कि इंदिरा आवास के तहत ये घर गांव के कुछ लोंगों को मिले हैं।

सूखते कुकरमुत्ते।

स्थानीय लोगों ने इसके बारे में बताया कि हर साल 4-5 लोगों को चुना जाता है और उसे घर बनाने की रकम जो कि डेढ़ लाख है किश्तों में दी जाती है। गांव वालों की शिकायत है कि उनको पूरी रकम नहीं मिलती। डेढ़ लाख में उनको 1 लाख 20 हजार ही मिलते हैं।

इंदिरा आवास इस गांव में जिसको मिला हम उनके घर गये। उस समय घर में सिर्फ महिला ही थीं। उनके पति काम करने खेत गए थे। घर के बरामदे में कुछ सूख रहा था तो बताया गया कि यह जंगली कुकरमुता है इसे सुखा कर अचार बनाया जाता है। घर एक परिवार के लिए पर्याप्त था लेकिन टाॅयलेट जल्दी-जल्दी में बनाई गई थी। टाॅयलेट इतनी छोटी थी कि सब शौच के लिए बाहर ही जाते हैं।

गांव पूरा गोल शेप में बसा हुआ था। हम उसी गोल शेप में चलते-चलते लोगों से बात कर रहे थे। रास्ते में हमें एक तालाब मिला। हमारे साथ उसी गांव के दो लड़के भी थे जिन्होंने बताया कि पूरे गांव ने पैसा जोड़कर यह तालाब खुदाया और अब इसमें मछली पालन करते हैं। कुछ देर बाद हमने वो गोला पार कर लिया। जब रास्ते के हमें छोर पर आ गये तो हमारे स्थानीय साथी ने गांव वाले से पूछा, यहां का माहौल कैसा है? गांव वाला पहले तो झिझका और बोला, यहां तो सब ठीक है। बस यहां से आगे मत जाना, आगे सोनपुर में खतरा है।

गांव का तालाब।

उसी गांव वाले ने बताया कि सोनपुर यहां से लगभग 6-7 किलोमीटर की दूरी पर था। हमें यहीं शाम हो गई थी। हमने सोनपुर जाना टाल दिया और वापस नहर की ओर बढ़ गये। जहां हमारी गाड़ी खड़ी थी।

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