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Thursday, 7 February 2019

प्रयागराज 9: स्वराज भवन में वैभवता से ज्यादा इंदिरा गांधी की बपैती दिखती है

ये यात्रा का आखिरी भाग है, पिछली यात्राओं के बारे में यहां पढ़ें।

इतिहास की एक मुख्य कड़ी को मैं अब तक देख चुका था। मैं तो यही सोच रहा था। आंनद भवन के जिस कोने में खड़ा था वहां से नीचे देखा तो लोग सामने के रास्ते पर जा रहे थे। नीचे उतरकर पता किया तो वो स्वराज भवन था। वो स्वराज भवन जो कभी नेहरू परिवार का घर हुआ करता था। बाद में कांग्रेस का मुख्यालय बन गया और आज वो संग्रहालय है। जहां सिर्फ इंदिरा हैं तस्वीरों में भी और किस्सो में भी।


इतिहास के पन्ने से


जिस आनंद भवन को हम देख चुके थे। उसकी एक कहानी है। 1857 की क्रांति के बाद अंग्रेजों ने शेख फय्याज अली से खुश होकर ये जमीन दे दी। जिसके बाद कई लोगों के पास ये आती-जाती रही और ये भवन भी एक मंजिला का बन गया था। साल 1899 में इसे मोतीलाल नेहरू ने इसे 20000 रूपये में खरीद लिया। इसके बाद 1927 में अपने भवन को कांग्र्रेस को दे दिया। जिसका नाम आनंद भवन था और फिर उसका नाम स्वराज भवन रख दिया।

तब नेहरू परिवार इस भवन में आया और इसका नाम रख दिया गया आनंद भवन। पहले ये भवन में एक ही तल का था, बाद में इसका दूसरा तल बनवाया गया। आनंद भवन में कई ऐतहासिक निर्णय लिये गये। यहीं पर मोतीलाल नेहरू ने अपना संविधान लिखा था। यहीं पर भारत छोड़ो आंदोलन की रूपरेखा तैयार की गई थी। ऐसे ही कई महान और ऐतहासिक निर्णयों का साक्षी रहा है ये भवन।

आनंद भवन से स्वराज भवन की ओर जाता रास्ता।
आजादी के बाद ये भवन कई सालों तक ये नेहरू परिवार के संरक्षण में रहा। बाद में 1970 में इंदिरा गांधी ने इसे भारत सरकार के संरक्षण में कर दिया। कुछ सालों बाद लोगों के लिये भी खोल दिया। ये फोटोग्राफी करना मना है और जगह-जगह पर सुरक्षा के लिये सुरक्षा गार्ड भी तैनात हैं। कुछ सालों तक यहां आने के लिये कोई टिकट नहीं है लेकिन अब आनंद भवन को देखने के लिये टिकट देना पड़ता है। अगर आप 70 रूपये देते हैं तभी स्वराज भवन देख सकते हैं।

स्वराज भवन


आनंद भवन के ठीक बगल पर स्वराज भवन है। जहां जाने का रास्ता आनंद भवन से गया हुआ है। स्वराज भवन एक प्रकार से इंदिरा भवन है। रास्ते में ही कुछ तख्तियां मिल जाती हैं जिस पर इंदिरा गांधी की तस्वीर लगी हुई है। हम आगे बड़ जाते हैं। मैं गार्ड को देखकर टिकट ढ़ूढ़ने लगता हूं। गार्ड हंसकर कहता है, हम समझ जाते हैं कौन गड़बड़ है? आप जाइये, मैं भी मुस्कुराकर धन्यवाद कहकर आगे बड़ जाता हूं।

तस्वीरों में इंदिरा गांधी।
आनंद भवन की तरह ही ये भवन भी काफी बड़ा दिख रहा है। बाहर एक बोर्ड लगा हुआ है- ‘इंदिरा गांधी की जन्म स्थली- स्वराज भवन’। इंदिरा गांधी का जन्म इसी भवन में हुआ था और उनका बचपन इसी भवन में बीता। मैं वहीं सीढ़ियों पर चढ़ने लगता हूं। पीछे से आवाजा आती है वो अंदर जाने का रास्ता नहीं है। आवाज उसी गार्ड की थी जिसने हमारा टिकट देखे बिना ही अंदर आने दिया था।

स्वराज भवन इंदिरा गांधी की तस्वीरों का संग्रहालय है,स्वराज भवन।
मैं नीचे उतरा और दाईं तरफ बढ़ गया। जहां से रास्ता था। अंदर घुसते ही तस्वीरों के बीच में आ जाता हूं। तस्वीर एक ही शख्स की, इंदिरा गांधी की। हर कमरे में गार्ड हैं। जो देख रहे हैं कि कोई तस्वीर न ले पायें। मैं तस्वीरों को देखने लगता हूं। तस्वीरों में इंदिरा गांधी अभी छोटी हैं। फिर तस्वीर इंदिरा गांधी और फिरोज गांधी के विवाह की दिखती है। मैं उस तस्वीर से ज्यादा उस चबूतरे को ध्यान से देखता हूं जिसे मैंने अभी कुछ ही देर पहले देखा है।

इंदिरा, राजीव और संजय।
उसके बाद कुछ तस्वीरें फिरोज और इंदिरा की होती हैं। एक तस्वीर है जिसमें इंदिरा गांधी हैं। जिसके बारे में लिखा है इसे फिरोज गांधी ने खींची है। इसी तरह की तस्वीर फिरोज गांधी की है। उस कमरे की तस्वीर देखने के बाद दूसरे कमरे में आ जाता हूं। इसमें इंदिरा गांधी की बहुत बड़ी तस्वीर है। इंदिरा गांधी इस तस्वीर में मुस्कुरा रही हैं। इस कमरे की सबसे बड़ी तस्वीर यही है, मैं फोटो खींचना चाहता हूं लेकिन गाॅर्ड खड़ा है। मैं आगे वाले कमरे में आ जाता हूं।

ये चुपके से खींची गई फोटो हैं।
इस कमरे में कोई गार्ड नहीं है। यहां से मैं वो तस्वीर खींचता हूं। उसके बाद इंदिरा गांधी की सभी तस्वीरें राजनैतिक हैं। कुछ तस्वीरें अपने बेटों राजीव और संजय के साथ हैं। तो कुछ में वे विदेश दौरे में हैं। कहीं वे मुस्कुरा रही हैं, कहीं अभिवादन कर रही हैं। इन्हीं बहुत सारी तस्वीरों को देखकर मैं आगे बढ़ जाता हूं। ये बाहर जाने का रास्ता है। लेकिन ये भवन इतना ही नहीं है। भवन और भी बड़ा है लेकिन लोगों के लिये वो खोला नहीं गया है। इस भवन में मुझे सबसे अच्छी लगी ये जगह। जहां से पूरा भवन दिख रहा है, भवन के बीच में खुला बरामदा है। बरामदे के बीच में एक फव्वारा लगा हुआ है। मैं कुछ पल वहां रूका और वहां से निकल आया।

स्वराज भवन की सबसे बेहतरीन जगह।
मैंने इन दो दिनों में इस शहर की दो धारायें देखी थी। एक संगम की धारा। जहां गंगा और यमुना हमें एकता में मिलने का संदेश दे रही है। वहीं ये भवन, जिसने कई सालों तक हमारे देश का संचालन किया। मुझे इंदिरा गांधी की वो बात याद आ रही है जिसे मैंने बचपन मे पढ़ा था कि जब तक मेरे खून का एक-एक कतरा रहेगा। मैं इस देश की सेवा करती रहूंगी। वो गांधी परिवार आज भी है, बस चेहरा और पीढ़ी बदल गये हैं। मैं शहर को काफी हद तक देख चुका था, कुछ था जो अभी बाकी रह गया था। वैसे इतने कम समय में मैं हर चीज को तो नहीं देख सकता लेकिज जो देखा जी भर देखा। अब चलने का वक्त हो गया था, एक नये सफर पर।

शुरू से यात्रा यहां पढ़ें।

प्रयागराज 8: आनंद भवन जहां सिर्फ आलीशानता नहीं हमारा इतिहास बसता है

ये यात्रा का आठवां भाग है, सातवां भाग यहां पढ़ें।

प्रयागराज वो शहर जिसमें आज बसता है। इलाहाबाद वो शहर है जिसमें हमारा इतिहास बसता है। ये शहर कभी देश के केन्द्र में आता था, जिसने कई अहम फैसले लिये। इतिहास की जगहें लोग भूला देते हैं या वो इतनी जर्जर हो जाती है। जिनको देखकर दया आती है कि हमने क्या हाल कर दिया है। लेकिन इलाहाबाद का आनंद भवन आज भी आलीशनता की विरासत है। जो एक परिवार की विरासत है उससे ज्यादा ये हमारी आजादी का साक्षी है।

प्रहरी चट्टान

अब तक मैं कुंभ के लगभग हर कोने से रूबरू हो चुका था। तब मेरे एक दोस्त ने बताया कि इस शहर में हो तो वहां की ऐतहासिक जगहों को देख लो। चन्द्रशेखर आजाद पार्क देख लिया था, वहीं पर एक किला था अकबर का किला। वहां का रास्ता नही मिल रहा था तो हमने वहीं खड़े पुलिस वाले से रास्ता पूछा। उसने रास्ता तो बता दिया और साथ में बता दिया कि कुंभ के कारण किला बंद होगा। अब हमें जाना था आनंद भवन।

आनंद भवन का नाम मैंने उस दिन से पहले एक-दो बार ही सुना था। वो भी किताबों में। बस इतना पता था कि मोतीलाल नेहरू का घर है। कुंभ से निकलकर हम आनंद भवन की ओर निकल गये। अब तक हम भीड़ के हिस्सा थे फिर एक चैराहा आया और भीड़ से अलग चलने लगे। इस रास्ते पर आटो चल रहे थे, आनंद भवन जाने वाले आटो में हम भी बैठ गये। कुछ मिनटों के बाद हम आनंद भवन के सामने खड़े थे।

आलीशान आनंद भवन


बड़े से गेट को पार करके हम टिकट खिड़की पर पहुंचे। टिकट दो भागों में मिल रहा था। 20रूपये एक मंजिला तक जाने के लिये और 70रूपये पूरा आनंद भवन देखने के लिये। मेरे साथी ने कहा, भूतल ही देख लेते हैं। मैंने कहा जब यहां तक आ ही गये हैं तो पूरा देखकर चलते हैं। टिकट लिया और अंदर चल दिये। आनंद भवन की ओर जाते हुये, सबसे पहले आपको पत्थर की शिला मिलेगी। जिस पर जवाहर लाल नेहरू के इस भवन के बारे में कुछ बातें लिखी हैं।

वही चबूतरा जहां जवाहर लाल नेहरू की अस्थियां रखी गईं थीं।
इस शिला को ‘प्रहरी चट्टा’ का नाम दिया गया है। इस पर लिखा है ‘यह भवन ईंट-पत्थर के ढांचे से कहीं अधिक है। इसका हमारे राष्टीय संघर्ष से अंतरंग संबंध रहा है। इसकी चाहरदीवारी में महान निर्णय लिये गये और अंदर महान घटनाएं घटीं।’ हम उस ओर चल पड़े जहां आनंद भवन था। आनंद भवन ठीक बाहर एक गोल चबूतरा बना है जिस पर तुलसी का पेड़ लगा हुआ है। उस पर लिखा हुआ है- ‘संगम में विसर्जन से पूर्व जवाहर लाल नेहरू की अस्थियां यहां रखी गईं।’ इसके बाद हम आनंद भवन को देखने लगे।

आनंद भवन के दूसरे तल पर है महात्मा गांधी का कमरा।

आनंद भवन दो मंजिला का आलीशान भवन है। जहां की हर चीज आज भी वैसी है जैसी आजादी के पहले थी। भवन का हर कमरा शीशे से बंद है। सबसे पहले वो कमरा दिखता है जिसमें नेहरू परिवार की बैठक होती थी। यहीं पर अतिथियों से मुलाकात होती थी और चर्चायें होती थीं। कमरे में गद्देदार कुर्सियां हैं। कमरे की दीवार पर मोतीलाल नेहरू की तस्वीर है।

इंदिरा गांधी को लिखे नेहरू के पत्र।
इसी भूतल पर मोतीलाल नेहरू का भी एक कमरा है और एक अध्ययन कक्ष भी है। जहां पर वे अध्ययन किया करते थे। उसके ठीक बगल में उनकी पत्नी स्वरूपरानी देवी का कमरा है। इस कमरे में एक बिस्तर है और दीवार पर एक तस्वीर है। जो शायद उनकी ही है। इस कमरे को देखने के बाद आगे बड़ते हैं तो एक बरामदा आता है जिस पर लिखा होता है- ‘यहां इंदिरा गांधी और फिरोज गांधी का विवाह संपन्न हुआ था। इसके बाद हम भवन के दूसरे तल पर जाते हैं।

यही जगह है जहां इंदिरा और फिरोज का विवाह हुआ था।

दूसरा तल


दूसरे तल पर जो पहला कमरा पड़ता है। उसमें इंदिरा गांधी की तस्वीर लगी है औ कुर्सी लगी है। शायद ये इंदिरा गांधी का कमरा है। इसके बगल में ही जो कमरा है उसमें सफेद चादर वाला कमरा पड़ता है। जिसके जमीन पर कुछ बैठने की पालकी बिछी हुई है। इस कमरे में गांधीजी के तीन बंदर भी बैठे हुये हैं। इसके कमरे की सबसे खूबसूरत है वो तस्वीर। जिसमें गांधीजी अपने बिस्तर पर बैठे हंस रहे हैं और उनके साथ बैठी हैं छोटी-सी इंदिरा।

विदेश दौरे पर जाने वाले जवाहर लाल नेहरू के कुछ संगी।

आगे चलने पर वो कमरा आता है जो कई महान निर्णयों का साक्षी बना। जिस कमरे में नेहरू, गांधी, पटेल और कांग्रेसी नेता चर्चाएं करते थे। ये कमरा अब तक के देखे सभी कमरों में सबसे बड़ा है। कमरे में दीवार के एक तरफ किताबें हैं जिन्हें देखकर लगता है कि कानून की किताबें हैं। बाकी पूरे कमरे के फर्श पर गद्दीदार बिस्तर लगा हुआ है।


इसके बाद जो कमरे हैं उसमें नेहरू परिवार की कुछ अहम चीजों को सहेज कर रखा गया है।आगे वाले कमरे में जवाहर लाल नेहरू की कुछ अहम चीजें हैं। जैसे विदेश पहनकर जाने वाले कपड़े, खाने की चम्मचें, स्त्री, चरखा, इंदिरा को लिखे कुछ पत्र भी हैं और वो बहुत बड़ा कलश भी है। जिसमें जवाहर लाल नेहरू की अस्थियां रखी गईं थीं। इसके आगे चलने पर आखिरी में जवाहर लाल नेहरू का अध्ययन रूम मिलता है। जिसमें कुर्सी, टेबल और किताबें रखीं हुई हैं और दीवार पर एक तस्वीर लगी हुई है। जिसमें जवाहर लाल नेहरू कुछ लिखतें हुये दिखाई दे रहे हैं।

जवाहर लाल नेहरू का अध्ययन कक्ष।
आनंद भवन को देखने के बाद मुझे इतिहास की झलक तो दिखी। लेकिन मैं बस यही सोच रहा था कि ये भवन आज इतना आलीशान है तो उस जमाने में तो इसका महत्व ज्यादा होगा। भवन की हर चीज सफेद है बिल्कुल संगमरमर की भांति। चीजें पुरानी होते हुये भी कुछ भी धुंधला नहीं है हर चीज साफ है। भवन में नेहरू परिवार की झलक तो है ही। महात्मा गांधी की भी परछाई है जिसका हर एक वाक्य इस परिवार ने अपनाया।

ये यात्रा का आठवां भाग है, यात्रा का आखिरी पड़ाव यहां पढ़ें।

Saturday, 2 February 2019

प्रयागराज 7ः इस शहर में आकर अगर संगम न आयें तो यहां आना अधूरा है

ये यात्रा का सातवां भाग है। छठा भाग यहां पढ़ें।

नाव में बैठे-बैठे मैं बस मैं लोगों को देख रहा था, नाव वालों को देख रहा था। जिनके लिये ये कुंभ रोजी-रोटी ले आया था। संगम उनकी धर्मभूमि बन गई थी और हम उसमें जाने वाले उनके अस्त्र-शस्त्र। जिनके बिना उनका काम नहीं चल सकता था। संगम के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था। पिछली बार जब इस शहर में आया था तो संगम नहीं देख पाया था। ये कुंभ और संगम मेरे लिये एक नया एहसास थे।


संगम 


थोड़ी ही देर में नाव चल पड़ी। तभी मेरे साथी फोन आ गया। उसने गुस्से में मुझसे पूछा कहां हो। मैंने बोल दिया यहीं घाट पर ही हूं। वो बोला अभी नाव पर नहीं बैठना, संगम साथ चलेंगे। लेकिन मैं तो नाव में ही बैठा था और नाव चल भी पड़ी थी। मैं अब नीचे भी नहीं उतर सकता था। मैंने अपना फोन बंद किया और संगम के इस सुंदर दृश्य का आनंद लेने लगा। कुछ ही देर में हम घाट से दूर होने लगे। घाट से जिन साइबेरियन पक्षी और नावों को दूर से देख रहा था। अब वे मेरे बगल से ही गुजर रहे थे।

नाव धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी। मैं जिस नाव में था उसमें 6 लोग और बैठे थे। वो पूरा एक परिवार था जो किसी अपने की अस्थि-विसर्जन करने आये थे। नाव में सभी लोग शांत थे और मैं तो बस पानी की आवाज सुन रहा था जो चप्पू चलाने से आ रही थी। साइबेरियन पक्षी आसमान में लहरते और फिर पानी में आकर तैरने लगते। उस समय ऐसा लगता किसीने पूरी नदी पर कागज की नाव बना कर रख दी हो।

साइबेरियन पक्षी ये दृश्य सुंदर बना रहे थे।
यहां से घाट पर जमा भीड़ और कुंभ के झंडे नजर आ रहे थे। बीच-बीच में शोर करते लोगों की आवाज भी आ रही थी। नदी में ही जल रक्षक का एक कैंप बना हुआ है। जो लोगों की सुरक्षा के लिये है। कुछ नावें में भी वैसे ही झंडे हैं शायद वे गोताखोर हैं। अब तक नदी का पानी बिल्कुल साफ था, थोड़ी देर बाद मैं ऐसी जगह पहुंच गया। जहां पानी अब मटमैला हो गया था। मटमैला रंग का जो पानी था वो गंगा है और साफ पानी वाली यमुना।

चप्पू-चप्पू


सरस्वती तो अब कहीं है नहीं। कहते हैं कि इस संगम से अब सरस्वती लुप्त हो गई है। हमारी नाव संगम पर आ चुकी थी। यहां और भी बहुत सारी नावें रखी हुई थीं। लोग यहां आकर नहा रहे थे। यही वो जगह थी जहां गंगा और जमुना मिलती है। यहां सिर्फ गंगा-जमुना ही नहीं मिलती, हमारी भारतीयता भी मिल जाती है। ये संगम हमें सिखाता है एक साथ रहना, हमारी गंगा-जमुना तहजीब बरकरार रखना। संगम में आकर हमें एक संकल्प लेना चाहिये, अच्छे और बेहतर इंसान बनने का।

चप्पू चलाता नाविक।
कुछ देर बाद नाव फिर से वापस लौटने लगी। हम थोड़ी ही देर में मटमैले पानी से फिर से साफ पानी की ओर आ गये। हम वापस लौटने लगे थे। अब तक मैं आसमान, पक्षी, कुंभ और नदी को देख रहा था। लेकिन अब मैं नाव को देख रहा था। ज्यादातर नावें एक जैसी ही थीं। कुछ पर विशेष कृपा थीं जो आकार में बड़ी थीं। नाव को पानी की धार के तरफ तो चलाना आसान है लेकिन धार के विपरीत मुश्किल जान पड़ रहा था।

नाव को खींचने में चप्पू का बड़ा योगदान होता है। नाव चलाने वाला सिर्फ हाथ से चप्पू नहीं चलाता, पूरा शरीर खींच देता है। जो बता रहा था कि नाव चलाना आसान काम नहीं है। ज्यादातर नाव को दो लोग चला रहे थे। कुछ ही नावें दिखीं जिसको एक अकेला व्यक्ति खींच रहा हो। हम जिस रास्ते से आये थे उस रास्ते से नहीं लौट रहे थे। लौटने का दूसरा रास्ता था। नाव लौटते समय एक-दूसरे के पीछे नहीं आ रहीं थीं। वे एक-दूसरे के बगल से गुजर रहीं थीं। जिससे नावें आपस में टकराये नहीं।


नाव को मोड़ने के लिये वे अपने एक चप्पू को रोक देते और दूसरे को चप्पू को चलाते रहते। जिससे नाव आसानी से मुड़ जा रही थी। ऐसी ही खींचतान को देखते-देखते हम घाट के पास पहुंच गये। नाव से बाहर उतरा तो याद आया, मेरा फोन तो बंद है। मेरे दोस्त मुझे ढ़ूढ़ रहे होंगे। मैंने फोन आॅन किया और एक जगह बैठकर उनका इंतजार करने लगा। फोन के ऑन होते ही उनका काॅल आया और उनकी बातों में मुझे गुस्सा नजर आ रहा था। मैं समझ आ गया था कि मुझे यहां लड़ाई से बचना है।

घाट के किनारे नाव ही नाव।
दो दिन की यात्रा में मैं कुंभ और इस शहर के कई रूप देख चुका था, कई जगहें देख चुका था। हम कुंभ से बाहर आने लगे। रास्ते में वो सब ही दिख रहा था जो आते वक्त दिख रहा था। वो शनि भगवान का बड़ा-सा मंदिर, जिसमें बहुत भीड़ थी। वो दुर्गा बनी बच्ची और करतब दिखाते कलाकार। कुंभ, जो सबके लिये अलग है। किसी के लिये ये रोजी-रोटी है तो किसी के लिये ये घूमने की जगह है तो कोई आस्था में उमड़ कर आता है। जो भी कारण हो हर किसी को कम से कम एक बार कुंभ जरूर आना चाहिये।

प्रयागराज 6ः आस्था के इस संगम में भी प्रतिस्पर्धा है अपने लाभ की

ये यात्रा का छठा भाग है। पांचवां भाग यहां पढ़ें।

रात को सोते समय मैंने सोच लिया था कि कल सुबह 4 बजे उठना है। कुंभ बार-बार नहीं आता और न ही ये शाही स्नान। मैं सबेरे-सबेरे अखाड़ों के शाही स्नान को देखना चाहता था। लेकिन जब वो सब हो रहा था तब मुझे मेरी नींद सहला रही थी। मैं नहीं उठ पाया और नहीं देख पाया वो अखाड़ों का शाही स्नान। फिर भी मुझे अभी सुंदरता के संगम में जाना था जहां से कुछ अलग दिखता है।


15 जनवरी 2019 को कुंभ का पहला शाही स्नान है। जब मेरी नींद खुली तब घड़ी में नौ बज रहे थे। उठते ही एक अफसोस हुआ मैं शाही स्नान न देख सका। मैंने अपने साथी को उठाने की कोशिश की। वो उठे लेकिन बहुत जतन करने के बाद। इन्हीं कुछ कारणों की वजह से लगता है कि अकेले घूमना ही बेहतर होता है। दूसरों को साथ ले जाने की चिंता नहीं होती।

शाही स्नान की आस्था


हम कमरे से चलते-चलते सिविल लाइन के रोड पर आ गये। कुछ ही दूर चले तो सामने जो देखा उसने तो मेरे होश ही उड़ा दिये। कल जो हुजूम कुंभ क्षेत्र में था वो आज प्रयागराज की सड़कों पर दिख रहा था। सामने की भीड़ को देखकर लग रहा था कुंभ के रंग में प्रयागराज रंग रहा है। इतने भीड़ के कारण बसें और टैक्सी को बंद कर दिया गया था। कल जो ऑटो चुंगी तक जा रही थी वो आज आधे रास्ते से ही लौट आ रही थी।

भीड़ बहुत थी। भीड़ इस तरफ दो-तरफा थी एक संगम की ओर जाने वाली और एक वहां से लौटने वाली। लौटने वालों को देखकर फिर वही अफसोस होने लगता कि सबेरे न जागकर बड़ी गलती हो गई। हम ऐसे ही भीड़ देखते हुये आगे बड़े जा रहे थे। थोड़ी देर बाद एक चैक आया जहां पुलिस खड़ी थी। वो लोगों को रास्ता बता रही थी और गाड़ियों को आगे जाने से रोक रही थी। तभी एक सफेद गाड़ी आगे जाने की कोशिश करती है, पुलिस रोक देती है। गाड़ी से आवाज आती है नेताजी की गाड़ी है। पुलिस वाला भी सख्ती से बोला, कोई भी हो पैदल ही जाना पड़ेगा। गाड़ी को वहीं रोक दिया गया।

संगम की ओर जाते लोग।
देखकर अच्छा लगा कि व्यवस्था के आड़े कोई भी आये, उसे सही तरीका बता देना चाहिये। कल संगम तक जाने के लिये हमें सिर्फ 3 किलोमीटर चलना पड़ा था, आज वो दूरी बढ़कर 5-6 किलोमीटर हो गई। कुंभ में आने वाले लोग चलते नहीं हैं, भागते हैं। शायद यही तो कुंभ है और शाही स्नान। जिस दिन हर कोई यहां आकर स्नान करना चाहता है। मैं जल्दी घाट पहुंचना चाहता था, शायद कुछ कल से अलग दिख जाये।

एकला चलो रे


मेरे साथी जिनके पास अपने कैमरे थे। ये कैमरे वालों को जाने क्या हो जाता है? छोटा-सा रास्ता तय करने में बहुत वक्त लगाते हैं। थोड़ा चलते हैं, ज्यादा रूकते हैं। मुझे उनके साथ रहना अपना वक्त बर्बाद होना लग रहा था। जब वे ऐसे ही नंदी द्वार के पास रूके हुये थे, मैं उनको बिना बताये निकल आया। कुंभ में वैसे भी गुम होना बड़ा आसान है और ढ़ूढ़ना बहुत मुश्किल। ऐसे ही किसी भीड़ के साथ मैं गुम होकर आगे बड़ गया।

संगम में आते-जाते लोग।
अकेले कहीं भी पहुंचना बड़ा आसान होता है, आप अपने हिसाब से अपने कदम तय करने लगते हैं। ऐसे ही मैं भी जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाने लगा। रास्ता पर आज चलना थोड़ा मुश्किल हो रहा था। लोगों से चाल मिलाकर मुझे चलना पड़ रहा था। ऐसे ही आगे-पीछे होते हुये मैं अचानक से भीड़ से हटकर मैदान में आ गया। जहां से आगे भीड़ एक लंबे घाट में बंट गई थी। मैं घाट के किनारे-किनारे चलने लगा। चलते-चलते मैं उस जगह पहुंच गया, जहां दिव्य कुंभ भव्य कुंभ लिखा हुआ है।

कल का जो दृश्य था वही आज का भी दृश्य था। पूरी नदी में नावें और साइबेरियन पक्षियों का डेरा बना हुआ था। मैं वहीं खड़ा हो गया। नाव वाले आपस में लड़ रहे थे, एक-दूसरे को गरिया रहे थे। सब चाह रहे थे कि उनका नंबर पहले लगे और पर्यटकों को संगम तक ले जायें। कुछ नाविक चाहते थे कि कोई उनकी नाव बुक कर ले और नंबर लगाने की नौबत ही न आये। मैं भी ऐसी ही एक नाव में बैठ गया जो अभी-अभी नंबर पर लगी थी। संगम तक जाने के लिये 60 रूपये देने थे। मुझे लग रहा था कि ज्यादा हैं लेकिन मुझे जाना तो था ही सो मैं मान गया।

घाट में अपने नंबर का इंतजार करती नावें।
जिस संगम के बिना इस शहर में आना अधूरा रहता है। जिस संगम के बारे में कहा जाता है कि अगर आप यहां स्नान करते हैं तो आपके सारे पाप धुल जाते हैं। ऐसे ही पापों को धोने बहुत लोग आये थे। मगर मैं तो इस शहर को देखने आया, हर तरफ से चाहे वो इतिहास का पन्ना हो या वर्तमान का कोना।

ये यात्रा का छठा भाग है, आगे की यात्रा यहां पढें।

Friday, 1 February 2019

प्रयागराज 5: रात के पहर में कुंभ को देखना मानो जगमग तारों की एक तस्वीर

ये यात्रा का पांचवां भाग है, चौथा भाग यहां पढ़ें।

प्रयागराज शहर में मुझे एक ही दिन हुआ था। लेकिन इतना सब कुछ देख लिया था कि लग रहा था ये शहर भी अपना हो गया। अब मैं हर जगह आराम से जा सकता था, खास तौर पर संगम और सिविल लाइंस। मेरे साथ अक्सर ऐसा ही होता है थोड़े वक्त के लिये कहीं ठहरता हूं। वो शहर मुझे जाना-पहचाना लगने लगता है। शहर को रात में घूमा जा सकता था लेकिन मैंने कुंभ को देखने का मन बनाया।


हमें फिर से वही लंबा रास्ता तय करने था जिस पर सुबह चले थे। अब मेरे साथ जाने वाले कम लोग थे और लौटने वाले ज्यादा लोग थे। सुबह में रास्ते किनारे जो-जो देखा था इस समय वो सब गायब था। वो भीड़ गायब थी, वो रास्ते में पैसे ऐंठने वाले कलाकार गायब थे। अगर कोई गायब नहीं था तो वो आवाज जिस पर अब भी किसी के सामान खोने का ऐलान किया जा रहा था।

कुंभ की छंटा


हम थोड़ी ही देर में नंदी द्वार पहुंच गये। जिसको चढ़ते ही हम कुंभ क्षेत्र में आ जाते। जिसको सवेरे देखकर मैं अवाक रह गया था, वो कुंभ की विशालता को देखकर। दिनभर चलने के बाद थकावट तो थी लेकिन थोड़ा-बहुत खा लेने के बाद ताकत आ गई थी।

जैसे ही कुंभ क्षेत्र में प्रवेश किया। सामने इतना प्रकाश दिख रहा था जिसे देखकर मन खुश हो गया। पूरा कुंभ प्रकाश से जगमगा रहा था। वो बल्ब इस जगह से देखने पर लगा रहा था कि आसमान के पूरे तारे कुंभ को सजाने में लगे हुये हैं। तभी मेरी नजर आसमान पर गई। आसमान में सिवाय चांद के कोई नहीं था। वो दृश्य वैसा ही था जैसा रात के वक्त पहाड़ों का होता है। जब अंधेरे में वो लाइट तारों में तब्दील होती लगती है। बस यहां अंतर इतना था यहां प्रकाश अपनी चमक बिखेर रहा था।


उसी सुंदर दृश्य को देखते-देखते मैं नीचे उतरने लगा। तभी मेरी नजर दाईं तरफ गई। जहां एक किसी अधूरे पुल के छत के नीचे लगभग 500 लोग लेटे दिखाई दिये। जिसमें से कुछ लोग सो चुके थे और कुछ लोग बैठे आपस में बात कर रहे थे। मैं उनसे बात करना चाह रहा था लेकिन मन में संकोच था। मैं अपने दोस्त के साथ बात करने पहुंच गया।

वो रात गुजारती मंडली


मैंने जिनसे बात की वो बिहारी के भागलपुर के बिहार से आये थे। उन्होंने बताया हम बहुत लोग आये हैं। मैंने उनसे कहा कि सरकार ने तो लोगों के रूकने के लिये तो इस बार टेंट बनवाये हैं, आप लोग वहां क्यों नहीं रूके। वो मुस्कुराते हुये बोले,  पुसरकार ने टेंट तो कल्पवास करने वालों के लिये बनवाये हैं। जो एक-दो दिन के लिये स्नान करने के लिये आता है उनके लिये कोई व्यवस्था नहीं है। हम तो आज आये हैं कल सुबह शाही स्नान है। शाही स्नान करके हम चले जायेंगे।


अब तक मुझे जो व्यवस्था अच्छी लग रही थी। उसमें थोड़ी कमी पता चल गई थी। कुंभ में करोड़ों लोग स्नान के लिये आते हैं शायद सरकार इनके रूकने की जिम्मेदारी नहीं लेती है। फिर भी जानकार अच्छा नहीं लगा कि ये लोग बाहर इतनी ठंड में रात गुजारेंगे। आस्था और श्रद्धा ही तो है जो हर किसी को यहां खींच ले आ रही है। मैं ज्यादा बात न करते हुये वहां से निकल आया। हम थोड़ा और आगे जाने लगे।

मैं रात के पहर में संगम के तट पर जाना चाहता था। दिन के पहर में जो दृश्य मोहित कर रहा था, रात को वो कैसे लगता है। हम बातें करते हुये आगे बड़ गये। बात करने में हमें भान ही नहीं रहा कि हम संगम के रास्ते पर जा ही नहीं रहे थे। हम पीपे के पुल पर खड़े थे। जहां से रास्ता अखाड़े की ओर जाता है। हमने दोनों ही जगह पर जाने का विचार छोड़ दिया।


हम जिस जगह खड़े थे। वहां से मुझे शास्त्री पुल दिख रहा था जो जिस पर चमकने वाली पट्टी लगी हुई थी। जो बारी-बारी से अपना रंग बदल रही थी और मैं देख रहा था वो पीपे को जिस पर ये पुल खड़ा था। कितना विशाल था जो आराम से गाड़ियों के वनज तक को झेल ले रहा था। रात काफी हो चुकी थी हमें दूर जाना था। हम वापिस चलने लगे, ये सोचकर कि कल जल्दी आना शाही स्नान जो है।

ये यात्रा का पांचवां भाग है, आगे की यात्रा यहां पढें।

Tuesday, 29 January 2019

प्रयागराज 4: इस जगह पर आकर आजाद और इलाहाबाद एक हो जाते हैं

 ये यात्रा का चौथा भाग है, यात्रा का तीसरा भाग यहां पढ़ें।

प्रयागराज शहर में हम अब तक बहुत सारी गलियों में घूम चुके थे। मैं कुंभ के चक्कर में इस शहर का इतिहास दिमाग में नहीं आ रहा था। मुझे नहीं याद आ रहा था चन्द्रशेखर आजाद का वो बलिदान। जब अंग्रेजों के सामने अकेले ही भिड़ गये थे और आखिर में आखिरी बची गोली पर अपना नाम लिख दिया। मैं जब उस पार्क के पास ही था और समय भी था तो हमने तय किया कि वो जगह देखी जायेगी। जहां साहस के प्रतीक, देशभक्त चन्द्रशेखर आजाद ने अपनी कुर्बानी दी थी।


मेरे स्थानीय दोस्त के पास स्कूटी थी। मैं उनके साथ ही पार्क निकल पड़ा। कुछ ही देर बाद हम चन्द्रशेखर आजाद पार्क के गेट नं. 3 पर खड़े थे। हमने टिकट विंडो से अंदर जाने के लिये टिकट लिया जो 10 रूपये का था। हम अंदर चल दिये। अंदर घुसते ही ठीक सामने ही चन्द्रशेखर आजाद की वो मूर्ति दिखती है। जिसमें वो अपनी मूंछों पर ताव दे रहे हैं।

साहस के प्रतीक आजाद


पार्क बेहद की करीने से सजाया हुआ था। चन्द्रशेखर आजाद की मूर्ति के ठीक आगे बहुत सारे फूल लगे हुये हैं। जो उस जगह को और अच्छा बनाता है। मूर्ति के पास जाने के लिये एक चबूतरा चढ़ना पड़ता है। हर कोई उस चबूतरे पर जूते-चप्पल उतारकर जा रहा था, मानो किसी मंदिर पर जा रहे हों। मंदिर जैसा ही तो है ये सब और आजादी के लिये कुछ कर गुजरने वालों के लिये मूंछे ऐंठने वाला प्रेरणास्रोत है।

मेरे साथी ने बताया कि इस समय पार्क के कुल पांच गेट हैं। पहले सिर्फ दो गेट थे। बाद में बाकी गेटों को बनवाया है। इन गेटों के नाम चन्द्रशेखर आजाद के साथियों के नाम पर हैं। जैसे रामप्रसाद बिस्मिल, सुखदेव, राजगुरू और भगत सिंह। मूर्ति के पीछे मुझे एक बड़ा-सा पेड़ था। मैंने अपने साथी से कहा, अच्छा ये वही पेड़ है जिसके पीछे खड़े होकर चन्द्रशेखर आजाद ने कुछ सिपाहियों को मार गिराया था। दोस्त ने बताया कि ये वो पेड़ नहीं है, दरअसल अब वो पेड़ है ही नहीं।

अल्फ्रेड पार्क में चन्द्रशेखर आजाद की मूर्ति।
जिस जगह पर आज चन्द्रशेखर आजाद की मूर्ति बनी हुई है, वहीं पेड़ था। लेकिन जब पेड़ नहीं रहा तो चन्द्रशेखर आजाद की मूर्ति बना दी गई। मैं चन्द्रशेखर आजाद की इस मूर्ति और ओरछा के आजादपुर में बनी मूर्ति की तुलना करने लगा। मुझे इस मूर्ति में वो बलिष्ठता नहीं दिख रही थी जो ओरछा में दिखी थी। लेकिन फिर भी इस जगह पर आकर इतिहास के पन्ने को देख रहा था।

इतिहास के पन्ने से


27 फरवरी 1931 तारीख थी। चन्द्रशेखर आजाद अपने साथी सुखदेव के साथ आनंद भवन से मीटिंग करके इस पार्क में आकर बैठ गये। उस समय भगत सिंह जेल में थे। उनको जेल से छुड़ाने की योजना पर बात कर रहे थे। तभी किसी ने अंग्रेजों को इसकी खबर कर दी। थोड़ी ही देर में अंग्रेजों ने पार्क को घेर लिया। आजाद को जैसे ही इस बात का आभास हुआ। उन्होंने सुखदेव को निकलने को कहा और खुद पेड़ के पीछे छिपकर अंग्रेजों का सामना करने लगे।

दोनों तरफ से फायरिंग होने लगी। आजाद ने अपनी गोली से कई सिपाहियों को निशाना बना लिया था। जब उनके पास सिर्फ एक ही गोली बची थी तो उन्होंने वो साहसी काम किया। खुद को गोली मारकर देश के लिये कुर्बान कर दिया। उन्होंने कहा था कि अंग्रेज मुझे कभी जिंदा नहीं पकड़ पायेंगे। मैं आजाद हूं और आजाद रहूंगा। उसी आजादी का प्रतीक है ये पार्क। जो पहले कंपनी गार्डन और फिर अल्फ्रेड पार्क और अब चन्द्रशेखर आजाद प्रतीक है।


मैं तो कुंभ देखने आया था लेकिन अब इस शहर के महान इतिहास को जान रहा था। जो इस जगह पर आये बिना हो ही नहीं सकता था। जो इस शहर में आये तो संगम जायें तो जायें पर इस जगह पर आना न भूलें। ये हमारा अतीत है, महान अतीत। ये धरा है आजाद के बलिदान की, ये शहर इलाहाबाद है। सरकार चाहे जितने नाम बदल ले, लेकिन इस जगह पर आकर आजाद और इलाहाबाद ही निकलेगा। मैं पार्क से निकल आया लेकिन जेहन में मूंछ ऐंठते हुये चेहरा छाप छोड़ गया।

ये यात्रा का चौथा भाग है, आगे की यात्रा यहां पढ़ें।

Wednesday, 23 January 2019

प्रयागराज 3: खाने का चटकारा लेना हो तो इन जगहों पर जाना मत भूलिए

 ये यात्रा का तीसरा भाग है, दूसरा भाग यहां पढ़ें।

कुंभ में चलते-चलते हम बहुत थक चुके थे। अब राहत पाने के लिये एक ही चीज की जरूरत थी, खाने की। घूमते वक्त भूख और नींद सही होने चाहिये, तभी घूमने में मजा आता है। उसी भूख ने हमें कुंभ से बाहर कर दिया था। लेकिन हम खाने में कुछ भी उल-जलूल नहीं खाना चाहते थे। इसी अच्छे के चक्कर में हमें कई घंटे चक्कर लगाने पड़ते। लेकिन हमारे साथ इसी शहर की एक साथी। जिसने हमसे वायदा किया कि वो अच्छी जगह ले जायेगी और हम उसी वायदे के लालच में उनके साथ हो लिये।


थोड़ी ही देर में हम ई-रिक्शा पर बैठे थे और शास्त्री पुल से गुजर रहे थे। शास्त्री पुल से पूरे कुंभ को नजर भरके देखा जा सकता है। यहां से अखाड़े, टेंट, पीपे का पुल, भीड़ और गंगा। जो यहां से बहुत दूर नजर आ रही थी। ई-रिक्शे वाले ने कहा, आप लोगों को यहां रूककर कुंभ को कैमरे में उतार लेना चाहिये, फोटो अच्छी आती है यहां से। जब दिमाग और शरीर थका हो। पेट भूख से कुलबुला रहा हो तो सब अच्छे-अच्छे नजारे फीके लगते हैं। हमने ई-रिक्शा को चलते-रहने को कह दिया।

शास्त्री पुल करने के बाद ई-रिक्शा वाले ने हमें चुंगी छोड़ दिया। मेरे दोस्त के पास स्कूटी भी थी, इसलिए आगे का सफर स्कूटी से ही हुआ। अब तक हमने प्रयागराज को चुंगी, सिविल लाइंस तक ही समझा था। असली प्रयागराज में तो हम अब घुसे थे। जो मुझे कुछ-कुछ अपने ‘झांसी’ की तरह लग रहा था, जो दिल्ली जितना बड़ा नहीं था। जिसे आसानी से घूमा जा सकता है, यहां दिल्ली शहर जैसा शोर नहीं दिख रहा था।

नेतराम की कचौड़ी


हम सबसे पहले हनुमान मंदिर गये। यहां शाम के वक्त स्ट्रीट फूड लगता है लेकिन आज नहीं लगा था। तब दोस्त ने नेतराम का जिक्र किया। हम नेतराम की दुकान की ओर चल दिये। हम खुली सड़क से अचानक छोटी गलियों में आ गये, जहां भीड़ ज्यादा थी। जहां हम जा रहे थे वो शहर का ‘कटरा’ इलाका था।


सामने ही वो दुकान दिख रही थी जिसके लिये हमने अपनी भूख बचाकर रखी थी। बाहर बोर्ड पर लिखा था नेतराम मूलचन्द एंड संस, यहां पर शुद्ध घी की पूरी-कचौड़ी मिलती हैं। ये लाइन तो उत्तर प्रदेश की हर दुकान की टैगलाइन है। नेतराम की दुकान बिल्कुल मिठाई की दुकान की तरह थी। एक बड़ा-सा काउंटर और वहीं कुछ टेबल-कुर्सी डली हुईं थी। जो अच्छी-खासी भरी हुई थी जिससे समझ आ रहा था कि दुकान अच्छी चलती है।

नेतराम की कचौड़ी फेम में थी तो हमने वही मंगा लिया। कचौड़ी आने में समय था तब तक हम आपस में बात करने लगे। हमारे साथ आये दोस्त ने बताया कि ये नेतराम की दुकान 100 साल पुरानी है। ये वही दुकान है जिनके पिता ने चन्द्रशेखर आजाद की अल्फ्रेड पार्क में होने की मुखबरी की थी। मुझे सुनकर आश्चर्य लगा कि फिर भी इसकी दुकान इतनी चलती है। थोड़ी देर में हमारे सामने पूरी-कचौड़ी की थाली आ गई।


एक थाली में चार कचौड़ी मिली। उसके साथ तीन प्रकार की सब्जी, छोले, कोई मिक्स और आलू की रसीली सब्जी। साथ में मीठी चटनी और रायता। देखने में ही सब कुछ सुंदर लग रहा था। हमें लगा था कि मात्रा कम मिलेगी। लेकिन अब लग रहा था कि सही जगह पर आये हैं। सबसे अच्छी बात हमें पत्तल में पूरी-कचौड़ी दी गई थी। पत्तल में मैंने अपने गांव में शादियों में खाया था। प्रयागराज जैसे शहर में पत्तल को देखना खुशी की बात भी थी और आश्चर्य भी।

एक पत्तल में आई हुई कचौड़ी को खाने पर हमने दोबारा कचौड़ी नहीं मंगवाईं।। स्वाद बेहद अच्छा था, खासकर रायता बेहतरीन बनाया था। हालांकि अभी पेट में जगह थी जो कुछ और खाने के लिये बचाकर रखी थी। लेकिन नेतराम की कचौड़ी का स्वाद हम ले चुके थे। अब दूसरी दुकान और दूसरे पकवान की जरूरत थी।

पंडित जी की चाट


कटरा मुहल्ला से निकलकर हम चन्द्रशेखर पार्क की ओर बढ़ गये। चन्द्रशेखर पार्क के पास में बालसंघ चौराहे पर एक दुकान है, पंडित जी की चाट। शाम के वक्त हम उस दुकान पर गये। दुकान पर भीड़ बहुत थी। दुकान वैसी ही थी जैसी टिक्की और चाट की आमतौर पर होती है। दुकान के नाम पर बस भट्टी थी और बाकी काम तख्त कर रहा था। कड़ाही चढ़ी हुई थी लोग आ रहे थे और पंडित जी की चाट ले रहे थे। ये दुकान भी काफी पुरानी है, 1945 में ये दुकान खोली गई थी।


दुकान पर भीड़ इतनी होती थी कि टोकन सिस्टम लागू था, रेट की एक लिस्ट भी वहीं लगी हुई थी। मैं वहां गया और चाट का टोकन लिया। टोकन दुकानदार को देकर, चाट को बनने का तरीका देखने लगा। कुछ लोग दही बड़ा खा रहे थे और कुछ चाट। चाट में बहुत कुछ मसाले, नमकीन, चटनी और दही मिलाकर बनाया गया। चाट इतनी अच्छी थी कि थोड़ी ही देर में मैंने उसको खत्म कर दिया।


उसके बाद हमने गोलगप्पे पिये। गोलगप्पे का पानी बेहद शानदार था, जिसके कारण गोलगप्पे अच्छे लगते हैं। हर जगह अंत में एक सूखी टिक्की देते हैं, यहां अंतिम टिक्की के पहले इस सूखी टिक्की को देते हैं। प्रयागराज में पंडितजी की चाट और नेतराम की कचैड़ी ने हमें भुला दिया था कि अभी कुछ घंटे पहले थकान का रोना रो रहे थे। अगर आप प्रयागराज आयें तो सिर्फ संगम नहीं, इन दुकानों का चटकारा भी लें।

 ये यात्रा का तीसरा भाग है,आगे की यात्रा यहां पढ़ें।

Friday, 18 January 2019

प्रयागराज 2: कुंभ में स्नान और संगम से बेहतर तो अखाड़े में चलते रहना रहा

 ये यात्रा का दूसरा भाग है, पहला भाग यहां पढ़ें।

प्रयागराज में आये हुये अभी कुछ घंटे ही बीते थे। इतने कम समय में बहुत कुछ दिखा गया था, कुंभ। कुंभ बस प्रयागराज का कुंभ नहीं है, कुंभ सिर्फ प्रयागराज के लिए नहीं है। ये तो समागम है जहां लोग आते हैं और पवित्रता की डुबकी लगाते हैं। लाखों लोग के इस समागम का एक छोटा-सा तिनका मैं भी बन गया था। मैं चलते-चलते ऐसी जगह पहुंच गया। जहां से सामने का नजारा देखकर मेरे चेहरे पर मुस्कुराहट फैल गई। मैं मन ही मन कह उठा- अच्छा, ये है कुंभ।


मुझे सामने दिख रही थी कुंभ की आस्था। जो भीड़ का रूप लिये हुये थी। कुछ आने वाले लोग थे तो कुछ लौट रहे थे। पहाड़ों में घूमते-घूमते एक ऐसी जगह आती है। जहां खड़े होकर हम अवाक हो जाते हैं। जहां कुछ पल रूककर सब कुछ देख लेना चाहते हैं। क्योंकि कुछ देर बाद हम उस जगह खुद होते हैं जिसे देखकर कुछ देर पहले खुशी मिल रही थी। बस कुछ ऐसा ही मैं कुंभ के एक कोने पर खड़े होकर महसूस कर रहा था।

मां गंगा


दूर-दूर तक बस लोग ही लोग नजर आ रहे थे। पीपे के पुल, टेंट, सफेद रेत और एक रास्ता जो सबका गंतव्य था। मैं कुंभ में प्रवेश कर चुका था। अब उस जगह जाने का मन था। जहां जाने के लिए सब यहां आते हैं, पतित पावनी मां गंगा के पास। मैं भी गंगा के घाटों के पास जाना चाहता था, जहां से बस मुझे सामने तांकते रहना था। रास्ते कई बने हुये हैं लेकिन सही रास्ता केवल एक ही होता है और मैं उसी रास्ते पर चल दिया।

जगह-जगह पर आपको पुलिस कर्मी मिलेंगे। यहां मुझे पुलिस का अलग ही रूप देखने को मिला। जो पुलिस हमेशा गरियाने के लिए जानी जाती है वो बड़े प्यार से सही रास्ते के बारे में बता रहे थे। आर्मी, पुलिस रास्ते में कई जगह खड़े हुये थे। सरकार ने व्यवस्था को अच्छा बनाने की पूरी कोशिश की थी। कुछ देर चलने के बाद मैं रेत के रास्ते पर आ गया।

कुंभ में सुबह-सुबह।
अब सामने रेत और भीड़ नजर आ रही थी। पहले और इस समय की भीड़ में अंतर था। मेरे सामने जो भीड़ थी वो एक जगह रूकी हुई थी। यानि कि मैं घाट के बिल्कुल करीब ही था। कुछ कदम नापने के बाद मैं उसी भीड़ का हिस्सा बन गया। मकर संक्राति का दिन था, लोग गंगा में डुबकी लगाकर अपने आपको पवित्र करना चाह रहे थे। घाट लंबी दूरी पर फैले हुये थे। उन सबको छोड़कर कुछ देखने लायक था तो वो था सामने का दृश्य। जो पानी किनारे पर लोगों ने गंदा कर दिया था, सामने बिल्कुल साफ नजर आ रहा था।

दूर तलक सजीला


साफ बहता पानी, पानी पर चलती नावें और चारों तरफ बस पक्षी ही पक्षी। साइबेरियन पक्षी इस दृश्य को सुन्दर बना रहे थे। कुछ नाव से संगम को देखने जा रहे थे तो कुछ उस दृश्य को करीब से देखना चाह रहे थे। मैं करीब से देखने वालों में से था लेकिन मैंने पहले कुंभ को देखने का मन बनाया। घाट पर लोग श्रद्धा से जितनी जल्दी फूल नदी में डाल रहे थे। उससे जल्दी वहां निकालने वाले खड़े थे। नदी किनारे सुरक्षा को अच्छा-खासा ध्यान रखा गया था जल पुलिस से लेकर गोताखोर, एंबुलेंस सब पानी में ही चौकसी लगाये हुये थे।

पंडे अपना वाचन लेकर जगह-जगह बैठे नजर आ रहे थे। इन बाबाओं में मुझे बस ठगी ही नजर आती है। जहां ऐसी ही पूजा चल रही थी, मैं वहीं पेड़ के नीचे खड़ा हो गया। कुछ ही मिनटों में पूजा खत्म हुई। अब बारी आई दक्षिणा देने की। बूढ़ी औरत ने कुछ रुपये दिये, कम पैसे देखकर बाबाजी भड़क गये। गुस्से में बोले कि अभी गंगा मइया से ऐसा कुछ करवा दूंगा। इतना कहना था कि दो बड़े नोट आये और कृपा मुस्कुराहट में आनी शुरू हो गई।


सुविधायें अच्छी नजर आ रही थी। अब मुझे अखाड़े की तरफ जाना था। मुझे पता चला कि दिगंबर अखाड़े में सिलेंडर फटने से आग लग गई है। अब तो मुझे जल्द ही उस जगह पर पहुंचना था। तभी मेरे एक दोस्त का फोन आया, वो संगम आ चुका था। मैं उसे कोई जगह नहीं बता पा रहा था कि घाट के पास सब कुछ एक जैसा ही था- नावें, खंभे, रेत और पुलिस, सब कुछ एक। उसने मुझे लाइव लोकेशन भेजी फिर भी उसे ढ़ूढ़ नहीं सका। तब लगा कि तकनीक होते हुये भी हर जगह साथ नहीं देती।

अखाड़े की खोज में


मैं अपने दोस्त के साथ ये कुंभ देखने वाला था क्योंकि मिलकर बहुत कुछ आसान हो जाता है। नये खोजने में आसानी होती है और सुस्ताने में भी। कुछ देर बाद हम मिले और अखाड़े की तरफ बढ़ दिये। अखाड़े की ओर जाने के लिए हमें पीपे के पुल को पार करना था। पीपे के पुल बहुत मजबूत थे, चार पहिया की गाड़ी भी इसके उपर से आसानी से निकल रही थी। बात करते-करते हमने पुल पार किया और अखाड़ों की ओर पहुंच गये।

यहां का माहौल कुछ अलग था, यहां भीड़ कम थी। यहां लोग कम, संत ज्यादा नजर आ रहे थे। ऐसे ही एक अखाड़े की गली में हम घुस गये। धर्मात्मा अपने-अपने टेंट में बैठे हुये थे। सबकी अपनी-अपनी वेशभूषा थी, कुछ जटाओं में बंधे थे तो कुछ मालाओं से पिरोये हुये थे। सबसे ज्यादा लोग नागा बाबा के टेंट के बाहर खड़े थे। श्रद्धालु उनसे आशीर्वाद लेने जा रहे थे। ऐसे ही घूमते-घूमते हमने कुछ अखाड़े देख लिये थे।

अखाड़े से एक दृश्य।
इस बार सबसे ज्यादा चर्चे में किन्नर अखाड़ा रहा है। पहली बार कुंभ में इस अखाड़े को जगह दी गई है। मैं वो अखाड़ा देखना चाहता था। हम पूछते-पूछते आगे बढ़ रहे थे। रास्ते में कई मीडिया चैनल की सड़क पर ही बाबाओं से चर्चा चल रही थी। मीडिया के लिए कुंभ एक अच्छा जरिया है। जहां आराम से सभी संतों से राम मंदिर, गौ रक्षा पर बात की जा सकती है। मेरे साथ चल रहे सहयोगी ने कल्पवास कर रहे है टेंटों को दिखाया। जो यहीं मार्च तक रहने वाले थे।

थका रहा था कुंभ


कुंभ का ये रास्ता हमें लंबा लगने लगा था। हम जिससे भी किन्नर अखाड़े के बारे में पूछते, वो आगे जाने को कह देते। लेकिन वो आगे का रास्ता खत्म ही नहीं हो रहा था। शास्त्री पुल के बाद एक और पुल पार कर लिया था लेकिन अभी तक हम अखाड़े तक नहीं पहुंच पाये थे। अब मुझे समझ आ रहा था कि किन्नर अखाड़े को जगह कैसे मिल गई? सबसे अलग और सबसे दूर किन्नर अखाड़ा ही था। तभी हमें ई-रिक्शा दिखा। हमने उसे किन्नर अखाड़े तक जाने का कहा। उसने भी अपने हाई-रेट के दर्शन करा दिये।

कुंभ थकाता है लेकिन रूकाता नहीं।
लंबी बहस और मोल-भाव के बाद आखिर में बात बन ही गई। कई घंटे के बाद पैर को आराम मिला था, बैठते ही सुकून आ गया। कुछ मिनटों में ही हम किन्नर अखाड़ा पहुंच गये। अखाड़े का गेट बंद था। अखाड़े के बाहर एक किन्नर थी, सब उससे आशीर्वाद ले रहे थे। हमने पता किया तो पता चला कि अभी सभी लोग घूमने गये हैं रात को ही आयेंगे। यहां तक आने के बाद भी निराशा ही हाथ लगी। अब बहुत तेज भूख लगी थी और वो भी प्रयागराज की गलियों की चटखारे की।

कुंभ यात्रा का ये दूसरा भाग है, आगे की यात्रा यहां पढ़ें।

Wednesday, 16 January 2019

प्रयागराज 1ः मैंने कुंभ को अपना एक सफर बना लिया, बस चलते रहने के लिए

मैं ऐसी जगह जाना पसंद करता हूं जहां सुकून हो, शांति हो और सबसे बड़ी बात भीड़ न हो। लेकिन जबसे कुंभ के बारे में पता चला था तो दिमाग में बस जाने का सुरूर चढ़ा हुआ था। बस तय नहीं कर पा रहा था कि कब जाऊं? एक दिन अचानक प्लान बना और कुंभ जाना पक्का हो गया। कुंभ इस बार प्रयागराज में हो रहा था। मुझे उस जगह को अच्छी तरह से देखना था।


13 जनवरी 2019 की रात को मैं दिल्ली से प्रयागराज के लिए निकल पड़ा। रात का सफर मुझे भाता नहीं है क्योंकि अंधेरा सब अपने में समेट लेता और मैं देख पाता हूं तो अंधेरा और सुनसान सड़क। 12 बजे बस किसी ढाबे पर रूकी। मेरा कुछ लेने का मन नहीं था क्योंकि इधर से कुछ लेना मतलब जेब ढीली करना। तभी मेरी नजर कुल्हड़ वाली चाय पर पड़ी। मुझे चाय पसंद नहीं है लेकिन कुल्हड़ वाली चाय को मना भी नहीं कर पाता।

कुल्हड़ वाली चाय मंहगी होनी थी। मैं ये देखकर दंग था कि कुल्हड़ वाली चाय सस्ती और सादा चाय महंगी थी। मैंने चाय की पहली सीप ली कि मन गद-गद हो गया। मैंने कभी भी इतनी अच्छी चाय नहीं पी थी। लग रहा था कि मलाईदार चाय पी रहा हूं। उसी चाय के बारे में सोचते-सोचते आंख लग गई। आंख खुली तो सब कुछ साफ नजर आ रहा था। दुकानें हमारे प्रयागराज में होने का इशारा कर रहीं थीं। थोड़ी देर में हम सड़क किनारे खड़े थे।

रास्ते में चाय का मजा।
हम सोच रहे थे कि अब सीधे कुंभ मेले ही जाना है। लेकिन अभी तो हम प्रयागराज शहर ही नहीं पहुंचे थे। हम अण्डवा बाई-पास पर खड़े थे। कई आॅटो वाले से मोल-भाव करने के बाद एक आॅटो जाने को तैयार हो गया। लगभग 1 घंटे की यात्रा के बाद हम शहर में ब्रिज के नीचे खडे़ थे। ब्रिज के खंभों पर ऋषियों-देवताओं के चित्रों उकेरे हुए थे। सच में ये चित्रकारी सुंदर लग रही थी। वहां से मैं अपने दोस्त के कमरे पर पहुंचा जो सिविल लाइंस में था।

शहर को देखकर लग नहीं रहा था कि ये वो शहर है जिसे मैंने 2015 में देखा था। शहर का तो पूरा कायापलट हो गया था। सड़के चैड़ी हो गईं थीं, कोई अतिक्रमण नहीं दिख रहा था। शहर में जगह-जगह शिवलिंग बने हुए हैं। सरकारी स्कूलों पर भी चित्रकारी की गई है। शहर किसी दुल्हन की भांति सजा हुआ प्रतीत हो रहा था। आॅटो में बैठे एक सज्जन कह रहे थे, कि ये सिर्फ राजनीति है। योगी आदित्यनाथ ने प्रयागराज कर दिया है। अखिलेश यादव की सरकार आयेगी तो फिर इलाहाबाद हो जायेगा। ऑटो-चालक को इलाहाबाद से गुरेज था। अब किसी की भी सरकार आ जाये, अब प्रयागराज ही रहेगा।

शहर में कलाकारी।

कुंभ चलें


सामान रखकर हम फिर से उसी ब्रिज के नीचे खड़े थे, जहां हम पहले थे। यहीं से अब 3 किलोमीटर चलना था तब संगम तक पहुंच सकता था। रास्ता लंबा जरूर था लेकिन थकाने वाला नहीं। मैं अकेला तो पैदल चल नहीं रहा था। मेरे साथ थे हजारों-लाखों लोग।

जगह नई हो तो पैदल चलने में भी कोई गुरेज नहीं होता। शुरूआत में ही पुलिस का कैंप दिखाई दिया। उसके साथ ही अग्नि-शमन का भी टेंट लगा हुआ था। माइक से लगातार आवाज आ रही थी, किसी का बच्चा खो गया है, तो किसी का सामान। लोगों के तो मिलने की तो सूचना आ रही थी लेकिन सामान खोने के बाद फिर मिले, ऐसी कोई सूचना अब तक नहीं सुनाई दी थी।

रास्ते में कई प्रकार की दुकानें लगीं थीं। यहां वो सब था जो एक आम मेले में मिलता है। दो-तीन जगह करतब भी हो रहे थे, वो रस्सी वाला। जिस पर एक बच्ची चलती है। कहीं बच्ची डंडा लेकर चल रही थी तो कहीं सिर पर कुछ सामान रखकर। बच्ची की हिम्मत और कला की तारीफ की जानी चाहिए। लेकिन एक छोटी-सी बच्ची से काम कराना सही है। ये अपराध है जो ऐसी जगह पर हो रहा था जिसका आयोजन सरकार ने किया था। चारो तरफ प्रशासन था लेकिन शायद इस तरफ उनकी आंखें बंद थीं।

कुंभ के रंग में रंग रहा है प्रयागराज।
कुछ आगे चले तो एक चढ़ाई चढ़नी थी। वहीं पर फिर एक कलाकारी दिखी। एक छोटी लड़की दुर्गा का रूप रखकर पैसा मांग रही थी। पैसा मांग नहीं रही थी छीन रही थी। वो छोटी-सी लड़की किसी का भी रास्ता रोककर खड़ी हो जाती और पैसा मांगती। जो नहीं देते, उनको पकड़ लेती। कुछ लोग दे देते और कुछ जोर लगाकर बच निकलते। उस लड़की के साथ एक औरत भी थी। जो अपने चेहरे पर काला रंग लगाकर काली मां बनी हुई थी। जब मैं पास गया तो साफ हुआ कि वो महिला नहीं कोई पुरूष है। ये पैसा भी न, क्या-क्या करवा देता है?

मुझे पहली बार कुंभ में आने का मौका मिला था। जब मैं हरिद्वार रहता था तब भी कुंभ हुआ था लेकिन भीड़ के डर से मैं बाहर ही नहीं निकला था। अब समय बदल चुका है और मैं भी। जिस कुंभ के लिये सात-समुंदर पार से लोग आ रहे हैं तो मैं क्यों नहीं। मैं भी उस कुंभ की भीड़ का एक हिस्सा बन गया था। मैं उनके पीछे-पीछे कदम बढ़ रहा था। ये मानकर कि ये कुंभ नहीं मेरी एक और यात्रा है।

कुंभ यात्रा का ये पहला भाग है, आगे की यात्रा यहां पढ़ें।