ये यात्रा का तीसरा भाग है, दूसरा भाग यहां पढ़ें।
कुंभ में चलते-चलते हम बहुत थक चुके थे। अब राहत पाने के लिये एक ही चीज की जरूरत थी, खाने की। घूमते वक्त भूख और नींद सही होने चाहिये, तभी घूमने में मजा आता है। उसी भूख ने हमें कुंभ से बाहर कर दिया था। लेकिन हम खाने में कुछ भी उल-जलूल नहीं खाना चाहते थे। इसी अच्छे के चक्कर में हमें कई घंटे चक्कर लगाने पड़ते। लेकिन हमारे साथ इसी शहर की एक साथी। जिसने हमसे वायदा किया कि वो अच्छी जगह ले जायेगी और हम उसी वायदे के लालच में उनके साथ हो लिये।
थोड़ी ही देर में हम ई-रिक्शा पर बैठे थे और शास्त्री पुल से गुजर रहे थे। शास्त्री पुल से पूरे कुंभ को नजर भरके देखा जा सकता है। यहां से अखाड़े, टेंट, पीपे का पुल, भीड़ और गंगा। जो यहां से बहुत दूर नजर आ रही थी। ई-रिक्शे वाले ने कहा, आप लोगों को यहां रूककर कुंभ को कैमरे में उतार लेना चाहिये, फोटो अच्छी आती है यहां से। जब दिमाग और शरीर थका हो। पेट भूख से कुलबुला रहा हो तो सब अच्छे-अच्छे नजारे फीके लगते हैं। हमने ई-रिक्शा को चलते-रहने को कह दिया।
शास्त्री पुल करने के बाद ई-रिक्शा वाले ने हमें चुंगी छोड़ दिया। मेरे दोस्त के पास स्कूटी भी थी, इसलिए आगे का सफर स्कूटी से ही हुआ। अब तक हमने प्रयागराज को चुंगी, सिविल लाइंस तक ही समझा था। असली प्रयागराज में तो हम अब घुसे थे। जो मुझे कुछ-कुछ अपने ‘झांसी’ की तरह लग रहा था, जो दिल्ली जितना बड़ा नहीं था। जिसे आसानी से घूमा जा सकता है, यहां दिल्ली शहर जैसा शोर नहीं दिख रहा था।
हम सबसे पहले हनुमान मंदिर गये। यहां शाम के वक्त स्ट्रीट फूड लगता है लेकिन आज नहीं लगा था। तब दोस्त ने नेतराम का जिक्र किया। हम नेतराम की दुकान की ओर चल दिये। हम खुली सड़क से अचानक छोटी गलियों में आ गये, जहां भीड़ ज्यादा थी। जहां हम जा रहे थे वो शहर का ‘कटरा’ इलाका था।
सामने ही वो दुकान दिख रही थी जिसके लिये हमने अपनी भूख बचाकर रखी थी। बाहर बोर्ड पर लिखा था नेतराम मूलचन्द एंड संस, यहां पर शुद्ध घी की पूरी-कचौड़ी मिलती हैं। ये लाइन तो उत्तर प्रदेश की हर दुकान की टैगलाइन है। नेतराम की दुकान बिल्कुल मिठाई की दुकान की तरह थी। एक बड़ा-सा काउंटर और वहीं कुछ टेबल-कुर्सी डली हुईं थी। जो अच्छी-खासी भरी हुई थी जिससे समझ आ रहा था कि दुकान अच्छी चलती है।
नेतराम की कचौड़ी फेम में थी तो हमने वही मंगा लिया। कचौड़ी आने में समय था तब तक हम आपस में बात करने लगे। हमारे साथ आये दोस्त ने बताया कि ये नेतराम की दुकान 100 साल पुरानी है। ये वही दुकान है जिनके पिता ने चन्द्रशेखर आजाद की अल्फ्रेड पार्क में होने की मुखबरी की थी। मुझे सुनकर आश्चर्य लगा कि फिर भी इसकी दुकान इतनी चलती है। थोड़ी देर में हमारे सामने पूरी-कचौड़ी की थाली आ गई।
एक थाली में चार कचौड़ी मिली। उसके साथ तीन प्रकार की सब्जी, छोले, कोई मिक्स और आलू की रसीली सब्जी। साथ में मीठी चटनी और रायता। देखने में ही सब कुछ सुंदर लग रहा था। हमें लगा था कि मात्रा कम मिलेगी। लेकिन अब लग रहा था कि सही जगह पर आये हैं। सबसे अच्छी बात हमें पत्तल में पूरी-कचौड़ी दी गई थी। पत्तल में मैंने अपने गांव में शादियों में खाया था। प्रयागराज जैसे शहर में पत्तल को देखना खुशी की बात भी थी और आश्चर्य भी।
एक पत्तल में आई हुई कचौड़ी को खाने पर हमने दोबारा कचौड़ी नहीं मंगवाईं।। स्वाद बेहद अच्छा था, खासकर रायता बेहतरीन बनाया था। हालांकि अभी पेट में जगह थी जो कुछ और खाने के लिये बचाकर रखी थी। लेकिन नेतराम की कचौड़ी का स्वाद हम ले चुके थे। अब दूसरी दुकान और दूसरे पकवान की जरूरत थी।
कटरा मुहल्ला से निकलकर हम चन्द्रशेखर पार्क की ओर बढ़ गये। चन्द्रशेखर पार्क के पास में बालसंघ चौराहे पर एक दुकान है, पंडित जी की चाट। शाम के वक्त हम उस दुकान पर गये। दुकान पर भीड़ बहुत थी। दुकान वैसी ही थी जैसी टिक्की और चाट की आमतौर पर होती है। दुकान के नाम पर बस भट्टी थी और बाकी काम तख्त कर रहा था। कड़ाही चढ़ी हुई थी लोग आ रहे थे और पंडित जी की चाट ले रहे थे। ये दुकान भी काफी पुरानी है, 1945 में ये दुकान खोली गई थी।
दुकान पर भीड़ इतनी होती थी कि टोकन सिस्टम लागू था, रेट की एक लिस्ट भी वहीं लगी हुई थी। मैं वहां गया और चाट का टोकन लिया। टोकन दुकानदार को देकर, चाट को बनने का तरीका देखने लगा। कुछ लोग दही बड़ा खा रहे थे और कुछ चाट। चाट में बहुत कुछ मसाले, नमकीन, चटनी और दही मिलाकर बनाया गया। चाट इतनी अच्छी थी कि थोड़ी ही देर में मैंने उसको खत्म कर दिया।
उसके बाद हमने गोलगप्पे पिये। गोलगप्पे का पानी बेहद शानदार था, जिसके कारण गोलगप्पे अच्छे लगते हैं। हर जगह अंत में एक सूखी टिक्की देते हैं, यहां अंतिम टिक्की के पहले इस सूखी टिक्की को देते हैं। प्रयागराज में पंडितजी की चाट और नेतराम की कचैड़ी ने हमें भुला दिया था कि अभी कुछ घंटे पहले थकान का रोना रो रहे थे। अगर आप प्रयागराज आयें तो सिर्फ संगम नहीं, इन दुकानों का चटकारा भी लें।
ये यात्रा का तीसरा भाग है,आगे की यात्रा यहां पढ़ें।
कुंभ में चलते-चलते हम बहुत थक चुके थे। अब राहत पाने के लिये एक ही चीज की जरूरत थी, खाने की। घूमते वक्त भूख और नींद सही होने चाहिये, तभी घूमने में मजा आता है। उसी भूख ने हमें कुंभ से बाहर कर दिया था। लेकिन हम खाने में कुछ भी उल-जलूल नहीं खाना चाहते थे। इसी अच्छे के चक्कर में हमें कई घंटे चक्कर लगाने पड़ते। लेकिन हमारे साथ इसी शहर की एक साथी। जिसने हमसे वायदा किया कि वो अच्छी जगह ले जायेगी और हम उसी वायदे के लालच में उनके साथ हो लिये।
थोड़ी ही देर में हम ई-रिक्शा पर बैठे थे और शास्त्री पुल से गुजर रहे थे। शास्त्री पुल से पूरे कुंभ को नजर भरके देखा जा सकता है। यहां से अखाड़े, टेंट, पीपे का पुल, भीड़ और गंगा। जो यहां से बहुत दूर नजर आ रही थी। ई-रिक्शे वाले ने कहा, आप लोगों को यहां रूककर कुंभ को कैमरे में उतार लेना चाहिये, फोटो अच्छी आती है यहां से। जब दिमाग और शरीर थका हो। पेट भूख से कुलबुला रहा हो तो सब अच्छे-अच्छे नजारे फीके लगते हैं। हमने ई-रिक्शा को चलते-रहने को कह दिया।
शास्त्री पुल करने के बाद ई-रिक्शा वाले ने हमें चुंगी छोड़ दिया। मेरे दोस्त के पास स्कूटी भी थी, इसलिए आगे का सफर स्कूटी से ही हुआ। अब तक हमने प्रयागराज को चुंगी, सिविल लाइंस तक ही समझा था। असली प्रयागराज में तो हम अब घुसे थे। जो मुझे कुछ-कुछ अपने ‘झांसी’ की तरह लग रहा था, जो दिल्ली जितना बड़ा नहीं था। जिसे आसानी से घूमा जा सकता है, यहां दिल्ली शहर जैसा शोर नहीं दिख रहा था।
नेतराम की कचौड़ी
हम सबसे पहले हनुमान मंदिर गये। यहां शाम के वक्त स्ट्रीट फूड लगता है लेकिन आज नहीं लगा था। तब दोस्त ने नेतराम का जिक्र किया। हम नेतराम की दुकान की ओर चल दिये। हम खुली सड़क से अचानक छोटी गलियों में आ गये, जहां भीड़ ज्यादा थी। जहां हम जा रहे थे वो शहर का ‘कटरा’ इलाका था।
सामने ही वो दुकान दिख रही थी जिसके लिये हमने अपनी भूख बचाकर रखी थी। बाहर बोर्ड पर लिखा था नेतराम मूलचन्द एंड संस, यहां पर शुद्ध घी की पूरी-कचौड़ी मिलती हैं। ये लाइन तो उत्तर प्रदेश की हर दुकान की टैगलाइन है। नेतराम की दुकान बिल्कुल मिठाई की दुकान की तरह थी। एक बड़ा-सा काउंटर और वहीं कुछ टेबल-कुर्सी डली हुईं थी। जो अच्छी-खासी भरी हुई थी जिससे समझ आ रहा था कि दुकान अच्छी चलती है।
नेतराम की कचौड़ी फेम में थी तो हमने वही मंगा लिया। कचौड़ी आने में समय था तब तक हम आपस में बात करने लगे। हमारे साथ आये दोस्त ने बताया कि ये नेतराम की दुकान 100 साल पुरानी है। ये वही दुकान है जिनके पिता ने चन्द्रशेखर आजाद की अल्फ्रेड पार्क में होने की मुखबरी की थी। मुझे सुनकर आश्चर्य लगा कि फिर भी इसकी दुकान इतनी चलती है। थोड़ी देर में हमारे सामने पूरी-कचौड़ी की थाली आ गई।
एक थाली में चार कचौड़ी मिली। उसके साथ तीन प्रकार की सब्जी, छोले, कोई मिक्स और आलू की रसीली सब्जी। साथ में मीठी चटनी और रायता। देखने में ही सब कुछ सुंदर लग रहा था। हमें लगा था कि मात्रा कम मिलेगी। लेकिन अब लग रहा था कि सही जगह पर आये हैं। सबसे अच्छी बात हमें पत्तल में पूरी-कचौड़ी दी गई थी। पत्तल में मैंने अपने गांव में शादियों में खाया था। प्रयागराज जैसे शहर में पत्तल को देखना खुशी की बात भी थी और आश्चर्य भी।
एक पत्तल में आई हुई कचौड़ी को खाने पर हमने दोबारा कचौड़ी नहीं मंगवाईं।। स्वाद बेहद अच्छा था, खासकर रायता बेहतरीन बनाया था। हालांकि अभी पेट में जगह थी जो कुछ और खाने के लिये बचाकर रखी थी। लेकिन नेतराम की कचौड़ी का स्वाद हम ले चुके थे। अब दूसरी दुकान और दूसरे पकवान की जरूरत थी।
पंडित जी की चाट
कटरा मुहल्ला से निकलकर हम चन्द्रशेखर पार्क की ओर बढ़ गये। चन्द्रशेखर पार्क के पास में बालसंघ चौराहे पर एक दुकान है, पंडित जी की चाट। शाम के वक्त हम उस दुकान पर गये। दुकान पर भीड़ बहुत थी। दुकान वैसी ही थी जैसी टिक्की और चाट की आमतौर पर होती है। दुकान के नाम पर बस भट्टी थी और बाकी काम तख्त कर रहा था। कड़ाही चढ़ी हुई थी लोग आ रहे थे और पंडित जी की चाट ले रहे थे। ये दुकान भी काफी पुरानी है, 1945 में ये दुकान खोली गई थी।
दुकान पर भीड़ इतनी होती थी कि टोकन सिस्टम लागू था, रेट की एक लिस्ट भी वहीं लगी हुई थी। मैं वहां गया और चाट का टोकन लिया। टोकन दुकानदार को देकर, चाट को बनने का तरीका देखने लगा। कुछ लोग दही बड़ा खा रहे थे और कुछ चाट। चाट में बहुत कुछ मसाले, नमकीन, चटनी और दही मिलाकर बनाया गया। चाट इतनी अच्छी थी कि थोड़ी ही देर में मैंने उसको खत्म कर दिया।
उसके बाद हमने गोलगप्पे पिये। गोलगप्पे का पानी बेहद शानदार था, जिसके कारण गोलगप्पे अच्छे लगते हैं। हर जगह अंत में एक सूखी टिक्की देते हैं, यहां अंतिम टिक्की के पहले इस सूखी टिक्की को देते हैं। प्रयागराज में पंडितजी की चाट और नेतराम की कचैड़ी ने हमें भुला दिया था कि अभी कुछ घंटे पहले थकान का रोना रो रहे थे। अगर आप प्रयागराज आयें तो सिर्फ संगम नहीं, इन दुकानों का चटकारा भी लें।
ये यात्रा का तीसरा भाग है,आगे की यात्रा यहां पढ़ें।