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Sunday, 7 November 2021

जयपुर 2: दोस्तों के साथ कुछ नई तो कुछ देखी हुई जगहों को किया एक्सप्लोर

अगले दिन उठे तो पता चला कि जयपुर में इंटरनेट बंद हो गया है। हमारे होटल में वाई फाई तो हमें काम करने में कोई दिक्कत नहीं होने वाली थी। अगले दिन सब लोगों ने घूमने से मना कर दिया। मैं और दया भाई बिना इंटरनेट के घूमने निकल पड़े। हमने गलता जी मंदिर जाने का प्लान बनाया। हमने लोकल बस ली और उसके बाद ई-रिक्शा। जिसने हमें उस जगह पहुँचा दिया, जहाँ से हमें गलता जी मंदिर के लिए चढ़ाई करनी थी।

हमें हरे-भरे जयपुर के नजारे देखते हुए चढ़ाई करने लगे। पहले चढ़ाई की और फिर बहुत नीचे उतर गये। नीचे जाकर पता चला कि इस रास्ते से गलता जी मंदिर बंद है। फिर क्या था? कुछ फोटों खींची और वापस चल पड़े। इस बार चढ़ने में थकान आ रही थी। कुछ जगह ठहरने के बाद हमने चढ़ाई कर ही ली। इस रास्ते में बंदर बहुत थे जो उछल-कूद काफी कर रहे थे। रास्ते में ही सूर्य मंदिर था। हमने सूर्य मंदिर से जयपुर शहर का शानदार नजारा देखा। इसके बाद हमने म्यूजियम जाने के बारे में सोचा।

अल्बर्ट हॉल म्यूजियम

कुछ देर बाद हम ई-रिक्शा से अल्बर्ट हॉल म्यूजियम पहुँच गये। टिकट लेकर हम लोग म्यूजियम के अंदर पहुँच गये। जयपुर में ये म्यूजियम एक अलग ही दुनिया है। इतना बड़ा म्यूजियम मैंने अब तक कहीं नहीं देखा है या फिर मैं उन जगहों पर गया नहीं हूं जहाँ इससे भी बड़ा म्यूजियम है। अंदर घुसते ही हमें आंगल मिला, जिसकी दीवारें संगमरमर की थीं। यहाँ पर कई हॉल थे जिसमें पूरी दुनिया का कुछ न कुछ सामान रखा हुआ था। जिसमें रोमन, चीन, अरबी आदि संग्रह रखा हुआ है। कई प्रकार की मूर्तियां, वाद्य यंत्र और भी बहुत कुछ रखा हुआ था।


कुछ आगे बढ़े तो हमें ममी दिखाई पड़ी। पहले ये ममी म्यूजियम के तलघर पर हुआ करती थी लेकिन हाल ही में आई बाढ़ की वजह से इसका स्थान बदल दिया गया है। मैंने खबरों में इस बारे में पढ़ा था। इसके बाद हम संग्रहालय के बाहर आ गये। हमने अब तक कुछ खाया नहीं था। हमने आसपास नजरें दौड़ाईं तो फूड कोर्ट दिखाई दिया। 10 रुपए का टिकट लेकर अंदर पहुँच गये। 

राजस्थानी थाली


यहाँ पर खूब सारी दुकानें लगी हुईं थीं। खाने वालों के लिए ये जगह किसी जन्नत से कम नहीं है। हमने पहले सारी दुकानों का मुआयना किया। इसके बाद राजस्थानी थाली खाने का मन बना लिया। हमने एक राजस्थानी थाली ली जिसमें दो सादा रोटी, 2 बेजड़ रोटी, बेसन गट्टा, कढ़ी पकौड़ा, टिपोरा और लहसुन चटनी थी। इस राजस्थानी थाली का स्वाद लेकर मजा ही आ गया। इसके बाद हम लोग अपने होटल पहुँचे और काम पर लग गये।

दिन 3

एक बार फिर से हम पांचों लोग एक साथ घूमने निकल पड़े। आज हमें आमेर किला देखना था। कुछ देर बाद हम आमेर वाली बस में बैठ गये। कुछ देर बाद हम आमेर वाले रास्ते पर थे। बीच में नाहरगढ़ वाले रास्ते में उतर गये। यहाँ टैक्सी वालों ने जब अपना रेट बहुत ज्यादा बताया तो हमने पहले आमेर को देखना ही सही समझा। टैक्सी से हम आमेर पहुँच गये।

हम आरामबाग होते हुए सीढ़ियां चढ़कर आमेर पहुँच गये। जिस दिन हम आमेर पहुँचे, उस दिन विश्व पर्यटन दिवस था। इस वजह से घूमने के लिए आज कोई टिकट नहीं था। कुछ देर बाद दीवान-ए-आम में थे। आमेर में भीड़ बहुत थी लेकिन सब अपने में मस्त थे। कुछ देर बाद हम दीवान-ए-खास में पहुँच गये। यहीं पर शीश महल भी है। यहाँ भी एक खूबसूरत बाग है।

इस जगह को देखते हुए हम मानसिंह महल की ओर बढ़ गये। कहा जाता है कि यहीं पर राजा का परिवार रहता था। इन कमरों की चित्रकारी देखकर आपका दिल खुश हो उठेगा। आमेर किले में सीसीडी भी है। हम लोग सीसीडी की छत पर पहुँच गए, जहाँ से जयगढ़ और खूबसूरत घाटी दिखाई दे रही थी। यहाँ कॉफी पीने के बाद हमने नाहरगढ़ जाने का मन बनाया। हममें से दो लोग वापस चले गये और हम तीनों टैक्सी से नाहरगढ़ के लिए निकल पड़े।

नाहरगढ़

आमेर से नाहरगढ़ का रास्ता बेहद खूबसूरत है। रास्ते में जयगढ़ किला भी पड़ता है लेकिन हमारे पास एक ही किले को देखने का वक्त था। कुछ देर हम एक व्यू प्वाइंट मिला, जहाँ से जल महल का खूबसूरत नजारा दिखाई पड़ा। यहाँ कुछ देर रूके और फिर आगे बढ़ गये। कुछ देर बाद नाहरगढ़ किले में थे। ताड़ी गेट से होते हुए हमने किले में प्रवेश किया। यहीं पर वैक्स म्यूजियम भी है। हम किला देखने आए थे सो हम आगे बढ़ गये।

कुछ देर बाद हम माधवेन्द्र महल में थे। इस बार महल में बहुत कुछ बदल गया था। पहले हर कमरे में कुछ न कुछ रखा हुआ था लेकिन इस बार कमरे खाली थे। इन सबको देखते हुए हम किले की छत पर पहुँच गये। यहाँ से जयपुर का सबसे खूबसूरत नजारा देखने को मिलता है। दूर-दूर तक सिर्फ शहर ही शहर दिखाई दिया। इसके बाद हम वापस लौट पड़े। जलमहल पर हमें टैक्सी वाले ने छोड़ा। जहाँ हमने कुछ देर जलमहल को देखा। जब हमें बस आती हुई दिखाई तो हम अपने होटल के लिए निकल पड़े। 

अगले दिन सुबह-सुबह हम जयपुर से निकल पड़े। इन तीन दिनों में जयपुर की कई सारी जगहों को देखा। जिनमें से कुछ पहले देखी हुईं थी लेकिल कुछ नई जगहों पर भी गया। इन नई जगहों ने मेरे इस सफर को और भी यादगार बना दिया। मैं अब जयपुर नहीं जाना चाहता लेकिन क्या पता फिर से किस्मत इसी शहर में ले आये।

यात्रा का पिछला भाग यहां पढ़ें।

 

Tuesday, 12 February 2019

जयपुर 3: इस शहर को अब लपककर पाने की चाह हो रही थी

ये जयपुर यात्रा की तीसरी कड़ी है, यात्रा का पिछला भाग यहां पढ़ें।

घूमते वक्त एक घुमक्कड़ के मन में क्या चलता है? मैंने दूसरों से इसके बारे में कभी नहीं पूछा। लेकिन जयपुर में दो किलों को देखने के बाद एक अहसास था, सुकून वाला। जो मेरे मन में चल रहा था। मैं सोच रहा था कि कुछ जानकारी से भरी जगहों को देख चुका हूं और कुछ बाकी हैं। इन किलों को देखते वक्त मुझे थकान नहीं हुई थी। किले के अंदर होता था तो बस यही सोचता था कि कोई जगह न छूट जाये। आमेर किला और जयगढ़ किले की अपनी अहमियत है। एक राजशाही किला है तो दूसरा सैन्य बंकर। इस किले को देखने के बाद अब मुझे जाना था- नाहरगढ़ किला।


किले से बाहर निकला तो अब बाहर का नजारा बदल चुका था। टिकट काउंटर पर बहुत लंबी लाइन लगी थी, रास्ता गाड़ियों से भर चुका था। मेरी जहां तक नजर जा रही थी, गाड़ियां ही गाड़ियां नजर आ रहीं थीं। मैंने इंटरनेट पर चेक किया तो यहां से नाहरगढ़ किले की दूरी 5 किलोमीटर बता रहा था। मैंने सोचा पहले जाम पार करता हूं फिर गाड़ी देखता हूं। क्योंकि यहां से गाड़ी बुक करता तो घंटों यहीं जाम में फंसा रहता। मैं पैदल ही चलने लगा, गाड़ियों के बीच से। जो जाना तो चाह रहीं थीं लेकिन जाम के कारण रूकी हुईं थीं। करीब आधा घंटे चलने के बाद मैं वो जाम पार करके खुले रास्ते पर आ गया। लेकिन अब यहां कोई टैक्सी नहीं थी। मैंने कैब का सहारा लेना चाहा लेकिन यहां नेटवर्क धोखा दे रहा था।

नाहरगढ़ किला


कुछ देर इंतजार करने के बाद जब कुछ नहीं मिला तो पैदल ही चलने लगा। जयपुर आने वाले ज्यादातर लोग टूरिस्ट ही होते हैं क्योंकि पूरे रास्ते मुझे कोई चलने वाला साथी नहीं मिला। लोग पहाड़ तो कई किलोमीटर चढ़ जाते हैं क्योंकि उसमें एक नाम जुड़ा होता है ‘ट्रेक’। वो नाम इस सीधे रास्ते पर कहां मिलेगा? थोड़ी देर चलने के बाद मैं उस जगह आ गया। जहां से रास्ता बदलकर नाहरगढ़ की ओर जा रहा था। मैंने अब सोच लिया था कि पैदल ही नाहरगढ़ जाऊंगा। पैदल-पैदल रास्ता नापने लगा। आसपास जंगल-जंगल नजर आ रहा था। अधिकतर पेड़ सूखे ही नजर आ रहे थे, झाड़ियों के जैसे।

नाहरगढ़ किले के रास्ते से दिखता जल महल।
गाड़ियां तेज रफ्तार से आती और मेरे बगल से गुजर जातीं। एक टैक्सी जरूर आई और चलने का पूछने लगी। इस बार मैंने कोई रेट नहीं पूछा, क्योंकि मैं क्लियर था कि पैदल ही रास्ता तय करूंगा। जंगल को छोड़कर थोड़ी देर बार सड़क से पहाड़ दिखने लगे जो इस रोड से नीचे थे। मैं आसपास की सबसे ऊंची जगह पर चल रहा था। थोड़ा आगे चलने के बाद तस्वीर बदल गई। पहाड़ की जगह अब शहर और जलमहल ने ले ली थी। जलमहल की सबसे अच्छी और साफ तस्वीर यहीं से दिख रही थी। यहां से छोटे-छोटे मकान, छोटा जलमहल और उसके पीछे पहाड़। यहां से सबकुछ तस्वीर में कैद हो रहा था। कुछ देर बाद एक और बोर्ड मिला, नाहरगढ़ किला का। मैं सोच रहा था कि पास में ही है लेकिन मैं गलत था। मंजिल अभी दूर थी।

नाहरगढ़ किले का रास्ता।
थोडा़ आगे चलने पर एक चाय की टपरी आई, पूरे रास्ते की एकमात्र यही दुकान ळें यहां थोड़ी देर बैठा और साथ के लिए चाय ले ली। मैं फिर चलने लगा क्योंकि रास्ते में कोई बोर्ड नहीं था कि नाहरगढ़ किला कितने दूर है। तभी मुझे एक ऊंचा गुंबद दिखा। मैं खुश हो गया आखिरकार मैं पैदल ही किले तक आ गया। लेकिन मैं गलत था वो तो कोई चरण मंदिर निकला। यहीं पर बहुत लोग पतंग उड़ा रहे थे। रास्ते में मुझे कई कटी पतंग भी मिलीं और टूटे माझे भी। जयपुर में पतंग उड़ाना त्यौहार की तरह लग रहा था। लोग बड़ी-बड़ी गाड़ी से यहां आते और पतंग उड़ाते। यहां हर उम्र का शख्स पतंग उड़ाते हुये दिख रहा था। मैं ऐसे ही दृश्य देखते हुये आगे बढ़े जा रहा था। रास्ते में दूरदर्शन संचार का कार्यालय मिला। एक उम्रदराज व्यक्ति उसमें से निकला और मोटरसाइकिल से कहीं जाने लगा। वो नाहरगढ़ की तरफ ही जा रहे थे। मैंने पूछा-नाहरगढ़ जा रहे हैं? उन्होने कोई जवाब नहीं दिया लेकिन रूकी हुई गाड़ी से मैं समझ चुका था कि इशारा बैठने का है। कुछ ही मिनटों के बाद मैं नाहरगढ़ किला पहुंच गया। नाहरगढ़ किले का गेट भी बाकी किलों के तरह बड़ा था। इस गेट का नाम था- ताडी गेट।

नाहरगढ़ किले की झील।
ताडी गेट से अंदर गये तो फिर से वही काम करना था जो अब तक करते आ रहे थे ‘टिकट लाइन’। यहां लाइन ज्यादा लंबी नहीं थी कुछ ही देर में मेरा नंबर आ गया। आम भारतीय के लिये टिकट की 50 रूपये का था। विधाथी की आईडी होती तो टिकट सिर्फ 5 रूपये का पड़ता। टिकट लेकर आगे बड़ा तो कुछ कृत्रिम कलाकारी दिखी। जहां पर बाहर एक नकली शेर बना हुआ था, हुक्का पीता हुआ एक बूत। लेकिन ये नमूने थे अंदर एक म्यूजिम था। वहीं बैठे गाॅर्ड ने बताया कि म्यूजिम अंदर है बहुत नायाब चीजें रखी हैं। उसके अंदर जाने का अलग से टिकट लेना पड़ रहा था जिसकी कीमत 500 रूपये थी। मैं तो किला देखने आया था ये लुटाई तो कहीं और भी की जा सकती थी, मैं आगे बढ़ गया। थोड़ा ही चलने पर मुझे बावड़ी मिली। जो नाहरगढ़ की सबसे ऐतहासिक बावड़ी है, जिसमें आज भी पानी बना हुआ है। उसके बगल में ही एक टंका है, हौदी के टाइप का। जिसमें वर्षा का पानी आता है और यहां से पानी छनकर बावड़ी में जाता है। उसके ठीक सामने ही किला है, माधवेन्द्र भवन।

नाहरगढ़ सबसे बेहतरीन भवन।

माधवेन्द्र भवन


नाहरगढ़ किले को 1734 में महाराजा सवाई जयसिंह ने बनवाया था। ये किला कभी आमेर की राजधानी हुआ करता था। राजा बदलते रहे और इसका विस्तार होता गया। इस किले के नाम की भी कई कहानी हैं। कहा जाता है कि यहां राजा नाहर का भूत रहता था। जो इस किले को बनने नहीं दे रहा था, उसने शर्त रखी कि इस किले का नाम उसके नाम पर होना चाहिये। इसलिए इस किले का नाम नाहरगढ़ किला रख दिया।


माधवेन्द्र भवन बाहर से देखने पर किसी पुराने घर की तरह लग रहा था। जिसकी दीवारों का रंग अब उतर रहा है। उसके आगे ही पपेट शो चल रहा है, जिसको दो लड़के दिखा रहे हैं। एक हरमोनियम बजा रहा है और दूसरा ढोलक। उसके ठीक सामने ही इस भवन का दरवाजा है जो अभी तक देखे गये किलों में सबसे छोटा था। अंदर घुसते ही लगा कि सच में किसी भवन में आ गया हूं। एक बड़ा-सा आंगन और उसके आसपास बहुत से कमरे। हर कमरे में कुछ न कुछ अजब-गजब था, जो सब कृत्रिम था। पूरे किले में यही सब था। कहीं टूटी प्लेट तो कहीं मसाले, पानी भरी बहुत-पाॅलीथन। उन सबमें सबसे बेहतरीन वो पांडुलिपि थी। जो दूर से देखने पर लग रही थी कि कोई पुरानी किताब रखी है छूकर देखा तो पूरा पत्थर था। ऐसी ही एक और कलाकृति थी एक लकड़ी में बहुत सारे सिक्के थे। हर कमरे में सुरक्षा गाॅर्ड था।


पूरा किला इन सबसे ही भरा हुआ है। यहां से देखने लायक है वो है शहर। शहर यहां से खूबसूरत लगता है। ऐसा लग रहा था कि सफेदी-सफेदी है। लेकिन थोड़ा निराश हुआ था कि यहां से जयपुर पिंक नहीं लग रहा था। उसके बाद मैं सबसे ऊपर पहुंच गया यानि कि इस भवन की छत पर। जहां से किला के गुंबदों को देखना तो अच्छा लगता ही है, शहर को भी देखने का मन करता है। ये जयपुर की सबसे ऊंची जगह थी। माधवेन्द्र भवन के हर कोने को और किले की कृत्रिमता को देखकर मैं बाहर निकल आया। अब मुझे वापस लौटना था, यहां से मैं पैदल नहीं जा सकता था क्योंकि इस जगह से जयपुर शहर 15 किलोमीटर दूर है। 5 किलोमीटर चलने में बहुत समय लग गया था। मैं किसी भी तरह पैदल का सोचूं तो बहुत समय लग सकता था।

नाहरगढ़ किले से दिखता जयपुर।

असली सफर तो बाकी था


बाहर आकर सबसे पहले यहां का मुर्रा खाया और फिर आईसक्रीम। बहुत सारे ऑटो खड़े थे, मैं जिससे भी जाने का पूछता तो वो 300-400 का अपना रेट रख देते। यहां जो आया था उसको जाना जरूर था इसलिए मनमाने पैसे वसूले जा रहे थे। मैं आगे चलता रहा और पूछता रहा लेकिन कहीं बात नहीं बनी। मैं मजबूरन पैदल चलने लगा। लगभग 1-2 किलोमीटर चल गया था, शरीर में थकावट नहीं थी। लेकिन 15 किलोमीटर सोचकर थकान हावी होने लगती। आॅटो मेरे पास आती और हाॅर्न मारती। मेरा जवाब न मिलने पर आगे निकल जाती। ऐसा बार-बार हो रहा था, मैं परेशान हो गया। मैंने वो कच्चा रूट पकड़ लिया जो रोड के बगल से गया था। यहां से जलमहल दिख रहा था, थोड़ी देर बाद बड़ी गहरी खाई। मैं थकान के कारण वहीं बैठ गया। लगभग आधा घंटा वहीं बैठा रहा। मैं उसी दीवार पर चलने लगा जो खाई के इस तरफ बनी थी।


मैं सोचने लगा कि यहां से सीधा रास्ता होता तो 15 मिनट में जलमहल पहुंच जाता। इस घुमावदार रास्ते ने शहर को कितने दूर कर दिया। मैं सोचने लगा कि क्यों न यहीं से जाया जाए? लेकिन गहरी खाई देखकर जाने का मन नहीं हो रहा था। उससे भी बड़ा डर था घना जंगल। जहां जंगली जानवर होने की भी आशंका थी। मैं इस रास्ते का विचार छोड़ ही रहा था कि मुझे एक झंडा दिखाई दिया। ध्यान से देखा तो वो कोई मंदिर जैसा लग रहा था। मुझे रास्ता नहीं मिला था लेकिन मंजिल दिख गई थी। मैं खड़ी खाई में जाने के लिए तैयार हो गया। एक छलांग से मैं उस ढलान वाले रास्ते पर चलने लगा। कदम एक जगह रूक नहीं रहे थे, भाग रहे थे। रूकने के लिये मुझे पेड़ो को पकड़ना पड़ रहा था। रास्ता था नहीं लेकिन बनाना पड़ रहा था। फिसलने का भी डर था, अगर फिसला तो सीधा खाई में पहुंच जाता।

खतरनाक रास्ते पर मैं चल रहा था।
पहले पेड़ों का जंजाल और फिर फिसलते पत्थर। ऐसे ही ढलान को उतरने में मेहनत जरूर लगी लेकिन कुछ अलग रास्ते पर जाने का उत्साह था। जंगल में बस पंक्षियों की चहचाहट ही सुनाई दे रही थी। मैं जल्दी से जल्दी उस मंदिर के पास जाना चाहता था। मुझे अब डर खाई का नहीं था, मुझे डर था बस जानवरों का। जैसे ही नीचे उतरा तो सुकून ही सांस ली। यहां से उपर देखने पर खुशी हो रही थी। खुशी इस बात की जयपुर में आकर मैंने एक पहाड़ से उतरा था। खुशी इस बात की कुछ अलग किया था। सुकून इस बात का कि मुझे अब 15 किलोमीटर नहीं चलना पड़ा था। मैं वहीं बैठ और सोचने लगा कि अकेले घूमने में कितनी आजादी होती है। वही आजादी इस समय मैं महसूस कर रहा था। मैं भूल गया था कि अभी सफर पूरा नहीं हुआ था। वैसे भी सफर कभी पूरा होता है क्या? वो तो चलता ही रहता अपने-अपने हिस्से का।