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Wednesday, 4 December 2019

पुष्कर 2ः कुछ जगहें वैसी नहीं होती, जैसा हम सोचते हैं

यात्रा का पहला भाग पढ़ें।

नया शहर, नया पता और नये लोग। हम एक पुराने शहर को छोड़कर एक और पुराने शहर मे आ गए थे। जो हमारे लिए बिल्कुल नया था। नाम सुनकर हर शहर की छवि बन जाती है। मेरे छवि में ये जगह सिर्फ ब्रह्मा मंदिर थी। मुझे इस शहर को पैदल चलकर देखना था। ये मेरा नई जगह को देखने का तरीका है। ऐसा करने से शहर आपको और आप शहर को जानने लगते हैं। हम उसी शहर में पैदल रवाना हो गए।


यहां पहुंचते ही हमें एक ठिकाना ढूढ़ना था। पुष्कर मेले की वजह से सभी होटल, हाॅस्टल बुक थे। उन सबका रेट भी बहुत ज्यादा था। जो आमतौर पर नहीं होता है। ये रेट का बढ़ना पुष्कर मेले की धमक की वजह से थी। किस्मत से हमें एक धर्मशाला मिली, जिसमें हमें एक बड़ा-सा कमरा बजट में मिल गया। हमने सामाना रखा और रवाना हो गए इस शहर को देखने। इस समय ये शहर पुष्कर मेले के लिए फेमस था। इसलिए हम सबसे पहले उस मेले को ही देखना चाहते थे। पुष्कर मेला ऊंटों का एक फेमस मेला है, जिसे हर कोई देखना चाहता है। मैं भी उस मेले को देखने आया था, लेकिन सिर्फ कैमरे की नजर से नहीं कुछ अपनी नजर से। कभी-कभी कैमरा वो नहीं देख पाता, जो हम देख पाते हैं।

पुष्कर की गलियां


हम अपने कमरे से निकले और चल पड़े पुष्कर की गलियों में। हम अभी अपने कमरे से बाहर निकले ही थे। मुझे यहां की गलियां मेले की तरह ही लग रहीं थीं। चारों तरफ दुकानें ही दुकानें थीं। एक तीर्थस्थल और आधुनिकता दोनों ही इन गलियों में चल रही थी। जानें क्यों मुझे यहां की गलियां देखकर हरिद्वार और ऋषिकेश याद आ रहे थे?  कुछ ही दूर आगे चले हमें पुष्कर सरोवर नजर आया। हम उसके अंदर चले गए। कार्तिक महीने में लगने वाले इस मेले में बहुत-से लोग स्नान करने के लिए यहां आते हैं। स्नान करने के लिए दो कुंड बनाए गए हैं। इस समय पुष्कर सरोवर में फोटो खींचना मना भी है, जो सही भी है।

साथ-साथ।

हम नहा चुके थे, इसलिए यहां नहाना कल के लिए टाल दिया। हम फिर से वापस गलियों में आगे बढ़ गए। मुझे ये गलियां बहुत अच्छी लग रही थीं, मैं इनको देखकर खुश हो रहा था। मेरे जेहन में राजस्थान के शहर ऐसे ही दर्ज हैं। लेकिन जब जयपुर गया तो कुछ अलग मिला। अब जब इन गलियों में चल रहा था, तब लगा कुछ तो सच है मेरे जेहन में। पैदल चलना काफी थकान भरा होता है लेकिन ये मुझे काफी सुहाता है। मैं पूरे शहर को पैदल नापता हूं और फटी हुई आंखों से पूरे शहर को देखता हूं। देखता हूं कि ये शहर कैसे उठता है और क्या काम करता है? मैं उन जगहों को खोजता हूं जहां उठकर वे पहली चाय पीते हैं लेकिन हम तो पहुंचे ही दिन में थे। अब हम इस शहर का दिन और शाम देखना चाहते थे।

यहां मुझे पहली बार लग रहा था कि मैं किसी राजस्थानी शहर में हूं। बड़ी-बड़ी मूछें, धोती-कुर्ता और सिर पर पगड़ी दिख ही जा रही थी। पुरूष और महिलाएं दोनों ही अपनी वेशभूषा में नजर आ रहे थे। यहां दुकानों में राजस्थानी कपड़े, जूतियां और ज्वैलरी नजर आ रही थी। गलियों में भीड़ बहुत थी लेकिन फिर भी सब कुछ शांत था। इस भीड़ में शोर नहीं थी, इसलिए ये अच्छी भी लग रही थी। चलते-चलते हम ब्रह्मा मंदिर के सामने आ गए। मुझे ब्रह्मा मंदिर जाना था लेकिन अभी नही, इसलिए आगे बढ़ गए मेले की ओर।

पुष्कर मेला


रास्ते में एक गुमटी मिली, यानि कि चलती-फिरती राजस्थानी चाय। कुल्हड़ में वो चाय मिलती है, काफी बढिया होती है। इतनी अच्छी कि आप तरोताताजा हो जाएं। कुछ देर और चलने के बाद मेला आ गया। मुझे जैसे ही कुछ नया दिखता है, मुझे उसके ओर भागने का मन करता है। मुझे इस मेले की तलाश थी, जहां बहुत कुछ हमारे इंतजार में था। अंदर घुसते ही हमें बड़े-बड़े झूले दिखाई दिए, लेकिन हम झूले के लिए यहां नहीं आए थे। फिर हमारी नजर एक ऊंट-गाड़ी पर पड़ी। ऊंट मेरे बगल से गुजरा। मैं उसके पूरे शरीर को देख रहा था। उसके लंबे-लंबे पैरों को, उसके जुगाली करते लंबे मुंह को। मेरे बगल से ऊंट बारी-बारी से गुजर रहे थे और मैं उनमें कुछ नया खोजने की जुगत में था।

तरोताजा कर देने वाली चाय।

मैं सोचता था कि इस मेले में सिर्फ ऊंट ही ऊंट दिखाई देते हैं लेकिन ऐसा नहीं है। हमें आगे बढ़े तो घोड़े भी दिखाई दिए। ये मेरे लिए आश्चर्य से कम नहीं था। घोड़े भी ऐसे कि देखकर आप खुश हो जाएं। लंबे-उंचे और इतने चमकदार घोड़े मैंने कभी नहीं देखे थे। सफेद और काले घोड़े तो बेमिसाल थे। यहां आपको बहुत सारे घोड़े दिखाई देंगे। जो घोड़े खरीदना चाहते हैं, वो घोड़े यहां खरीदते भी हैं। यहां आपको वो दुकानें भी मिल जाएंगी, जिन पर घोड़े का पूरा सामान मिलता है। ऐसे ही चलते हुए ऊंटों को देखते हुए हमने पूरा मेला देख डाला। मेले में भीड़ थी, लेकिन उतनी नहीं जितनी मैंने सोची थी।

पुष्कर का रेगिस्तान


मेले में चलते-चलते आप एक रोड पर आ जाएंगे। रोड के पार भी आपको ऊंट दिखाई देंगे। यहां ऊंट और लोग अपना टेंट बनाकर रूकते हैं। ये पूरा खाली मैदान है जिस पर सिर्फ ऊंट ही ऊंट दिखाई दे रहे थे। मैं उस जगह को देखना चाहता था, लेकिन शाम होने वाली थी। मैं उस रेत को देखना चाहता था जहां लिए लोग ऊंट-गाड़ी और सफारी से हजार रुपए देकर जा रहे थे। ये लोग बता रहे थे कि वो जगह लगभग 4 किलोमीटर दूर है। हम उस जगह पर पूछते-पूछते पैदल चलने लगे। कुछ देर बाद हम रोड छोड़कर कच्ची सड़क पर जाने लगे।

मेले में ये भी।

हमारे आगे-पीछे बहुत सारी ऊंट-गाड़ी जा रही थी। हम उन्हीं के पीछे-पीछे जाने लगे। रास्ते में मुझे एक बच्चा सारंगी बजाते मिला। मैं वीडियो बनाने लगा तो कुछ राजस्थानी लोग नाचने भी लगे। मैंने उनको उसका मेहनताना दिया और आगे बढ़ गए। रास्ते में मैं सोच रहा था कि ये कला अब इन लोगों की रोजी-रोटी बन गई है। मुझे टूरिस्ट प्लेस की सबसे बड़ी दिक्क्तों में ये भी लगती है। जिनका सामना अभी आगे हमारा होने ही वाला था। हम चलते-चलते काफी आगे आ चुके थे। यहां से हमें एक टीला दिखाई दे रहा था। जहां बहुत सारे ऊंट दिखाई दे रहे थे। हमें शायद वहीं जाना था, लेकिन ये इतना दूर नहीं था कि जिसके लिए ऊंट-गाड़ी या सफारी की जाए। लगभग डेढ़ किलोमीटर के इस रास्ते के लिए एक हजार लेना पूरी तरह से ठगाई थी।

पुष्कर में शाम।

थोड़ी देर में हम उस जगह पर पहुंच गए। यहां जो देखा, वो तो और बुरा था। सफारी लोगों के साथ एक तालाब आकार के गडढे में जाती है और जो तेज स्पीड में आती है। जो कई बार बहुत ज्यादा उछल जाती है। जो जोखिम भरा है, सहायता के लिए यहां कोई एंबुलेंस भी नहीं है। अगर ये एडवेंचर है तो मैं उससे दूर ही रहना पसंद करता हूं। जिस रेगिस्तान के बारे में मैंने सुना था, देखा था। ये वो तो नहीं था। ये तो सिर्फ लाल मिट्टी थी जिसे रेत का नाम दे दिया गया था। थोड़ी देर में हमने सूरज को डूबते देखा, बच्चों के साथ बातें की और वापस चल दिए फिर से मेले की ओर।

रात की रोशनी में मेला


मैंने कई कविताओं में पढ़ा है दिन और रात का अंतर लेकिन कभी समझ नहीं पाया। जब पुष्कर को रात में देखा तो लगा शायद कवि ने इसी जगह पर बैठकर वो कविता लिखी होगी। पुष्कर मेला अब कुछ अलग लगने लगा था। भीड़ भी काफी बढ़ गई थी और चकाचौंध भी ज्यादा थी। ऊंट भी मेले में नहीं दिखाई दे रहे थे, अब दिखाई दे रहे थे तो सिर्फ झूले। बहुत सारे झूलों में से एक में हम भी बैठ गए। इन झूलों को देखकर मुझे अपना बचपन और गांव याद आ जाता है।

मेला की छंटा।

झूले में बैठकर हम बहुत उपर आ गए। जहां से सब कुछ छोटा लग रहा था और दूर-दूर तक चीजें दिख रहीं थी। पुष्कर कितने दूर तक फैला है, ये इस झूले में बैठकर समझ में आया। झूले में बैठकर एक सुकून था कि बहुत दिनों कुछ पुराना किया है। मुझे पुराना बहुत ज्यादा पसंद है, पुराने लोग, पुरानी 
बातें और पुराने गाने, कितना पुराना है न हमारे बीच। सभी लोग बहुत थक चुके थे और तब हमने वो गुमटी वाली चाय पी। हम अब मेले से दूर फिर से पुष्कर की गलियों में थे। इस जगह को देखने का उत्साह भी बना ही हुआ था। कुछ वक्त में ये शहर अपना-सा लगने लगता है, ऐसा ही कुछ अब लगने लगा था। हम इस जगह की गलियों से, दुकानों से रूबरू हो गए थे और हमें इसकी भनक भी नहीं लगी थी।

दाल-बाटी-चूरमा


हम बहुत देर से घूम रहे थे और हमने कुछ नहीं खाया था। मैं नए शहर में नया खाना खाता हूं। यहां का सबसे फेमस व्यंजन है, दाल बाटी चूरमा। जिस जगह पर दाल बाटी चूरमा मिलता है, हम वहां से आगे निकल आए थे। मेरे कुछ साथी थकान की वजह से वापस नहीं जाना चाहते थे, लेकिन मैं जाना चाहता था। मै, अपने दो साथी ब्रम्हा मंदिर के आगे चला तो वहां का नजारा देखकर ही मन खुश हो गया।

लजीज दाल-बाटी-चूरमा।

हम इस जगह से मेले की ओर गए थे, तब हमें ये जगह नहीं दिखाई दी थी। शायद आप जिस चीज को पाना चाहते हो, वो ही आपको दिखाई देती है। यहां लाइन से दाल बाटी चूरमा के ढाबे खुले हुए थे। उनमें से एक में हम बैठ गए। इन सबका सबसे अच्छा नजारा था इनकी रसोई। सभी ढाबों में खाना औरतें बना रहीं थीं। ऐसा मैंने पहली बार देखा था कि औरतें ढाबों में खाना बना रही हैं। मुझे उस थाली के बाद पुष्कर खाने के लिए याद आएगा। वो थाली अब मेरे लिए पुष्कर की थाली में से एक थी। इतना अच्छा दाल बाटी चूरमा कभी नहीं खाया था। उसी स्वाद के साथ हम वापस गए और बिस्तर पर लेटते ही सो गए।

फोटो वाला पुष्कर


सुबह मैं अपने एक साथी के साथ एक बार फिर से पुष्कर मेले के बीच में था। मैं देखना चाहता था कि इन लोगों की सुबह कैसे होती है? मैं रोड पार के वहां पहुंचा, जहां ऊंट ही ऊंट थे। यहां देखा तो स्थानीय लोग कम और कैमरे लिए फोटोग्राफर नजर आ रहे थे। फोटोग्राफर ऊंटों की, यहां के लोगों की फोटो खींच रहे थे। फोटोग्राफर फोटो खींचते वक्त अपनी सारी सीमाएं लांघ रहे थे। वो लोगों की सुबह को कैमरे में तो कैद करना चाह रहे थे, जिससे लोगों को परेशानी भी हो रही थी।


फोटोग्राफर की वजह से ऊंट भी परेशान हो रहे थे। वो उनके आने से बार-बार उठ खड़ हो रहे थे। एक तस्वीर इवेंट बन जाने की थी तो एक दूसरी तस्वीर भी थी। सोशल मीडिया पर हम जो फोटो खींचते हैं तो ऐसा लगता है कि सच में ऐसा होता है। यहां आकर मुझे पता चला कि बहुत कुछ होता नहीं, बनाया जाता है। कुछ लोग पूरे स्थानीय पोज में इसलिए बैठे रहते हैं क्योंकि वो चाहते हैं कि फोटोग्राफर उनकी फोटों खींचे और उन्हें पैसे मिले। यहां के बच्चे भी जानते हैं कि फोटो के पैसे लेने है। उनकी जो फोटो खींचते हैं, वो उनसे उसके पैसे लेते हैं। फोटोग्राफर उनसे कई पोज देने को कहते हैं। इन सबके बाद आपके पास सोशली मीडिया पर हैशटेग पुष्कर मेले की तस्वीर आती है।

इस इवेंट को देखने के बाद हम पुष्कर सरोवर के ताजे पानी में नहाए और ब्रम्हा मंदिर गए। ब्रम्हा मंदिर को देखते ही कोलकाता का कालीघाट मंदिर याद आ गया। वैसी ही इसकी बनावट है और वैसे ही यहां भीड़ है। उस भीड़ में चलते हुए आप कुछ पल के लिए ब्रम्हाजी के दर्शन करते हैं और आगे बढ़ जाते हैं। वैसा ही हमने किया और वापस आ गए अपने कमरे पर। हमने सामान उठाया और इस शहर को अलविदा कहने के लिए निकल पड़े। जिन जगहों का आप बहुत गुणगान करते हो, वो शहर कभी-कभी आपको वैसा नही मिलता है। पुष्कर के लिए भी मैं यही कह सकता हूं। मैंने इसी भारीपन के साथ इस शहर को अलविदा कहा और निकल पड़ा एक नए सफर के लिए।