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Friday, 8 April 2022

लंढौर: इस खूबसूरत जगह के बारे में जैसा सुना, उतना ही सुंदर पाया

पिछली यात्रा पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

घुमक्कड़ी का एक अपना मिजाज होता है। घूमना हमारी जिंदगी की तरह ही है। कभी इसका सफर बहुत अच्छा होता है और कई बार सफर वैसा नहीं होता है, जैसा हम चाहते हैं। मुझे पहाड़ों में यात्रा करना बेहद अच्छा लगता है। कुछ समय से पहाड़ों में किसी न किसी वजह से नहीं जा पा रहा था लेकिन अब आया था तो कुछ नई जगहों पर जाने का मन था। उत्तराखंड में ऐसी ही एक जगह की मैंने यात्रा की, लंढौर। 

27 फरवरी 2022 को हम सुबह 6:30 पर देवप्रयाग की मुख्य सड़क पर खड़े थे। पहले हमने टिहरी जाने का सोचा था लेकिन किसी वजह से वो प्लान कैंसिल हो गया। अब हम देहरादून जाने वाली बस के लिए खड़े थे। हमारे सामने काफी देर तक टिहरी की बस खड़ी रही लेकिन हम उस पर नहीं चढ़े। कुछ देर बाद टिहरी वाली बस चली गई लेकिन ऋषिकेश और देहरादून वाली बस अब तक नहीं आई थी। 

पहले ऋषिकेश

मुझे यहीं पता चला कि देहरादून जाने के लिए पहले ऋषिकेश जाना होगा। बस तो नहीं आई थी लेकिन हमें एक शेयर्ड जीप मिल गई थी। जिसका किराया साधारण किराये से थोड़ा ज्यादा था। हम सुबह की ठंडी हवा और खूबसूरत नजारों के बीच ऋषिकेश के लिए जा रहे थे। लगभग दो घंटे बाद हम ऋषिकेश के बस स्टैंड पर थे। मेरे दोस्त की एक ऑनलाइन मीटिंग थी इसलिए हम दो घंटे एक कैफे में बैठे रहे।

मीटिंग खत्म होते ही हम बस स्टैंड पर गये। जहां देहरादून के लिए बस लगी हुई थी। हम बस में जाकर बैठ गये। बस अपने समय पर चल पड़ी और समय पर देहरादून पहुंचा भी दिया। हमने बस स्टैंड पर ही एक कमरा ले लिया। देहरादून पहुंचते-पहुंचते हमें काफी देर हो गई थी और अब मेरे काम का समय हो गया था। कुछ देर के लिए मैं सो गया और फिर देर रात तक काम करता रहा। कुल मिलाकर इस दिन हमने कुछ भी नहीं घूमा।

मसूरी

देहरादून रेलवे स्टेशन।
अगले दिन हम सुबह-सुबह होटल से निकले। अब हमें मसूरी के लिए बस पकड़नी थी। हमारे सामने आईएसबीटी था लेकिन मसूरी के लिए बस देहरादून रेलवे स्टेशन पर बने बस स्टैंड से मिलती है। मुझे ये बात पहले से पता थी सो मुझे किसी से पूछने की जरूरत नहीं पड़ी। रेलवे स्टेशन जाने वाली टैक्सी पर बैठे और कुछ देर बाद पहुंच भी गये। रेलवे स्टेशन पर घुसते ही देखा की मसूरी वाली बस निकल रही थी। हम जल्दी से उसमें चढ़ गये।

बस में बहुत ज्यादा भीड़ नहीं थी। बस देहरादून शहर से होते हुए जा रही थी। इस शहर में मैंने कुछ महीने नौकरी भी की थी। मुझे वो जगह याद आ रही थीं, जहां मैं जाया करता था। 5-6 किमी. के बाद देहरादून खत्म हुआ और हम मसूरी के घुमावदार रास्ते पर चलने लगे। कुछ साल पहले ऐसी ही एक बस से मैं मसूरी गया था। उस समय तो मेरी हालत खराब हो गई थी। इस बार ऐसा कुछ नहीं हो रहा था और खिड़की वाली सीट भी तो अपने पास ही थी।

बस जैसे-जैसे ऊपर बढ़ते जा रही थी, नजारे और भी सुंदर होते जा रहे थे। कुछ जगहों से पूरा देहरादून दिखाई दे रहा था। ऐसे नजारे देखकर मन ही मन में खुशी होती है। जब सड़क किनारे बहुत सारे होटल दिखाई देने लेगे तो हम समझ गये कि मसूरी आने वाला है। कुछ देर बाद बस रूकी और हम नीचे उतर गये।

कमरा और स्कूटी

स्कूटी से लंढौर।

अब हमें रहने का एक ठिकाना खोजाना था। पहले हमने एक लोकप्रिय हॉस्टल के यहां फोन किया। हॉस्टल के रेट सुनकर दिमाग ही झन्ना गया। अब हम लाइब्रेरी रोड से लाइब्रेरी चौक की ओर बढ़ने लगे। वहां पर कुछ लोग कमरे दिलाने के लिए खड़े थे। एक बुजुर्ग व्यक्ति को अपनी जरूरत और बजट का कमरा दिलाने को कहा। वो हमें एक नीचे जाती हुई सड़क पर ले जाने लगे। काफी नीचे जाने के बाद होटल पहुंचे।

वहां एक कमरा हमें पसंद आ गया और वो हमारे बजट में भी था। सबसे अच्छी बात इतने कम रेट में हमें बॉलकनी से सुंदर नजारे वाला रूम मिल गया था। हमने सामान रखा और बाहर निकल गये। अब हमें लंढौर जाना था। लंढौर मसूरी से 7 किमी. की दूरी पर था। लाइब्रेरी चौक पर स्कूटी रेंट पर मिल रही थी। हमने लंढौर स्कूटी से जाने का तय किया। कुछ देर बाद स्कूटी से लंढौर जा रहे थे।

लंढौर चले हम

हमें लंढौर जाने का रास्ता तो नहीं पता था लेकिन ये पता था कि लोगों से पूछते-पूछते लंढौर पहुंच ही जाएंगे। मसूरी से थोड़ा आगे बढ़ने पर हमने पेट्रोल पंप से पेट्रोल भरवाया और फिर लंढौर के रास्ते पर बढ़ गये। मैं सोचता था कि लंढौर मसूरी से 7 किमी. दूर है तो रास्ता थोड़ा सुनसान टाइप होगा लेकिन लंढौर तो मसूरी से बिल्कुल सटा हुआ है।

लंढौर से सुंदर नजारा।
कुछ देर बाद हम पतले रास्ते पर चलने लगे। रास्ता कुछ देर तक ऊबड़-खाबड़ और चढ़ाई वाला था। रास्ते के एक तरफ लोगों के घर और होटल थे तो दूसरी तरप हरी-भरी घाटी दिखाई दे रही थी। इन सुंदर नजारों को देखते हुए कब हम लंढौर की गलियों में पहुंच गये, हमें खुद ही पता नहीं चला।

अब हमें लाल टिब्बा जाना था। मैं सोचता था कि लाल टिब्बा का मतलब कोई ऐसी जगह होगी, जहां ट्रेक करके पहुंचा जा सकता है लेकिन जब हम वहां पहुंचे तो वहां एक दुकान थी। जिसकी छत पर चढ़कर लोग फोटो ले रहे थे। उस दुकान की छत पर जाने के लिए बढ़े तो दुकानदार ने बताया कि छत पर जाने का 50 रुपए का टिकट लगेगा या फिर दुकान से कुछ लेना होगा। हमने उस दुकान का मेन्यू देखा तो हमारा छत पर जाने का मन ही नहीं हुआ।

बेक हाउस

मसूरी भीड़भाड़ वाली जगह है और लंढौर में सुकून ही सुकून है। पूरा रास्ता घने जंगलों से भरा हुआ है जो इस जगह को और भी खूबसूरत बनाता है। मसूरी के इतने पास होने के बावजूद यहां बेहद शांति है। लंढौर अंग्रेजों की बसाई हुई जगह है। उन्होंने ब्रिटेन के एक गांव के नाम पर इस जगह का नाम रखा। लंढौर एक छावनी क्षेत्र है। इस जगह के बाद अब हमें लंढौर बेक हाउस जाना था।

हम फिर से लंढौर के शांत और खूबसूरत रास्ते पर थे। ऊपर-नीचे जाने वाले रास्ते पर चलते हुए हम लंढौर के बेक हाउस पहुंच गये। लंढौर का बेक हाउस छोटी-सी इमारत में था। लंढौर का ये बेक हाउस लगभग 100 साल पुराना है। लंढौर बेक हाउस आज भी पुराना लेकिन सुंदर लगता है। लकड़ी की कुर्सियां और टेबल बेक हाउस में रखी हुई हैं। खिड़की किनारे ऐसी ही एक टेबल पर हम बैठ गये। बेक हाउस में हमने तीन अलग-अलग चीजें खाईं लेकिन उनका नाम अब मुझे याद नहीं है।

चार दुकान

लंढौर की चार दुकान।
बेक हाउस के अंदर तो खूबसूरती थी ही, बाहर का नजारा भी शानदार था। खिड़की के बाहर चीड़ का सुंदर जंगल दिखाई दे रहा था। लंढौर बेक हाउस में लगभग 1 घंटे का समय बिताने के बाद हम बाहर आ गये। हम कुछ मिनटों के बाद लंढौर में ही चार दुकान पर थे। चार दुकान लंढौर का एक पुराना इलाका है, जहां कुछ दुकानें हैं। इन दुकानों पर खाने के लिए काफी कुछ मिल रहा था। हमने यहां मोमोज और बर्गर का स्वाद लिया।

हम कुछ देर शांत लंढौर में ऐसे ही टहलते रहे। इसके बाद हमने स्कूटी उठाई और मसूरी के लिए वापस चल दिए। लंढौर के बारे में जितने अच्छे तरीके से कहा गया है, लंढौर वैसा ही खूबसूरत है। हमारा सफर तो अभी चल ही रहा था। हमें अभी काफी सारी जगहें देखनी थी।

शुरू से यात्रा को पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।


Saturday, 2 April 2022

देवप्रयाग: सुंदरता का पर्याय है नदी किनारे बसा ये पहाड़ी शहर

यात्रा का पिछला भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

जब आपका अपना शहर आपको जकड़ने लगे और जिंदगी सुईयों पर चलने लगे तो तब आपको घूमने निकल जाना चाहिए। मैं अपने शहर को जकड़ने का वक्त ही नहीं देता हूं और एक नई जगह पर निकल जाता हूं। हर घूमने वाले की अपनी कहानी होती है। उस कहानी में कुछ शहर प्लानिंग का हिस्सा होते हैं और कुछ जगहें बस हिस्सा बन जाती है। मैं अपनी घुमक्कड़ी की कहानी में देवप्रयाग को लेनी की बड़ी तमन्ना थी। तुंगनाथ की यात्रा के बाद से मैं इस शहर को अच्छे से जानना चाहता था।

26 फरवरी 2022 को सुबह 6 बजे हम अपने सामान के साथ होटल के बाहर खड़े थे। होटल वाले ने बताया कि देवप्रयाग के लिए बस यहीं से निकलेगी। ऋषिकेश सुबह-सुबह शांत और खूबसूरत लग रहा था। चाय की एक दुकान भी खुली हुई थी, जहां कुछ लोग चाय पी रहे थे। कुछ ही मिनटों में देवप्रयाग वाली बस आ गई और हम देवप्रयाग के सफर पर निकल पड़े। बस अपनी रफ्तार से बड़ी जा रही थी। जैसे-जैसे हम बढ़ रहे थे, खूबसूरत नजारे देखने को मिल रहे थे।

खूबसूरत सफर

बस में ज्यादा लोग नहीं थे। कुछ देर बाद हरे-भरे पहाड़ों पर धूप दिखने लगी थी। मैं इस रास्ते से पहले भी गया हूं लेकिन अब रोड काफी चौड़ी कर दी गई थीं। खिड़की खोलने पर ठंडी हवा का झोंका आ रहा था। कुछ देर बाद हमें नीचे घाटी में गंगा नदी दिखने लगी। हरे-भरे पहाड़ों के बीच नदी भी हरी दिखाई दे रही थी। पहाड़ का सफर खूबसूरत होता है। हर एक मोड़ के बाद नजारे कुछ अलग दिखाई देते हैं।

आगे बढ़े तो पहाड़ों के ऊपर तैरते हुए बादल दिखाई दे रहे थे। मुझे पहाड़ों में तैरते हुए बादलों को देखना अच्छा लगता है। धूप तेज हो गई थी लेकिन खिड़की खोलने पर सर्द हवा में कमी नहीं आई थी। आधे सफर के बाद गाड़ी एक ढाबे पर रूकी। हमने यहां कुछ खाया तो नहीं लेकिन टॉयलेट जरूर गये। कुछ देर बाद बस फिर से देवप्रयाग के रास्ते पर चल पड़ी।

देवप्रयाग

जैसे-जैसे देवप्रयाग पास आता जा रहा था, नदी की धार भी तेज दिखने लगी थी। कुछ देर बाद देवप्रयाग दिखने लगा था। हमने ऊपर से संगम भी दिखा। हमें लगा कि ड्राइवर बस को खुद से देवप्रयाग में रोकेगा लेकिन ऐसा हुआ नहीं। बस देवप्रयाग से आगे निकल आई। मैंने आगे जाकर बस रूकवाई और नीचे उतरे। हमें देवप्रयाग से 1 किमी. आगे आ चुके थे।

अपना बैग पीठ पर उठाया और पैदल चल पड़े देवप्रयाग की तरफ। कुछ देर बाद हम देवप्रयाग की रोड पर थे। अब हमें एक ठिकाना चाहिए था जहां हम सामान रख सकें और आज रूक भी सकें। बात करने पर पता चला कि देवप्रयाग के अंदर एक गेस्ट हाउस है। हमने नीचे का रास्ता ले लिया। रास्ते में छोटी-छोटी कई दुकानें थीं जिसमें जरूरत का सामान मिल जाएगा।

पुल के उस तरफ

कुछ ही दूर चलने पर हमें एक पुल मिला लेकिन गेस्ट हाउस पुल के इसी तरफ था। गेस्ट हाउस के लिए हमें कई सारी सीढ़ियां चढ़नी थीं। हम कुछ सीढ़ियां चढ़ते और गंगा के खूबसूरत नजारे को देखने लगते। नदी की आवाज बहुत तेज थी। कुछ देर बाद हमें एक गेस्ट हाउस दिखाई दिया। हमें उसी गेस्ट हाउस में एक सस्ता-सा कमरा मिल गया। हमने वहां सामान रखा और देवप्रयाग शहर को देखने के लिए निकल पड़े।

हम सबसे पहले मुख्य सड़क पर गये और नाश्ते में परांठे खाए। इसके बाद हम फिर से पुल के इस तरफ खड़े थे और इस बार हमें पुल को पार भी करना था। असली देवप्रयाग पुल के इस पार ही था। ऋषिकेश के राम झूला और लक्ष्मण झूला की तरह बने इस पुल पर लोगों की भीड़ नहीं थी। स्थानीय लोग पुल को पार कर रहे थे और हम भी। इन छोटे शहरों को देखना अपने आप में खास होता है। पुल पार करने के बाद हम देवप्रयाग की गलियों में थे। लोग रोजाना की जिंदगी में लगे हुए थे और हम शहर को देखने में लगे हुए थे।

संगम

आगे बढ़ने पर संगम का बोर्ड दिखाई दिया। हम नीचे की तरफ चल पड़े। यहां से अलकनंदा को बहते हुए देखना किसी सपने के पूरे होने से कम नहीं था। नदी की तेज आवाज और चारों तरफ पहाड़ इस जगह को शानदार बना रहे थे। इसके बाद हम उस जगह पर गए, जिसके लिए देवप्रयाग पूरी दुनिया में लोकप्रिय है। अलकनंदा और भागीरथी का संगम।

देवप्रयाग में अलकनंदा और भागीरथी का संगम होता है। दोनों नदियों में अंतर साफ-साफ समझ में आता है। दोनों नदियों के संगम से गंगा नदी बनती है जो आगे ऋषिकेश और हरिद्वार जाती है। संगम घाट पर दो गुफायें भी हैं। नदी में पैर डाला तो ठंडे पानी ने शरीर से जान ही निकाल दी। मुझे नदी में पैर डालने में दिक्कत हो रही थी और लोग रस्सी पकड़ कर डुबकी पर डुबकी लगाये जा रहे थे।

रघुनाथ मंदिर

रघुनाथ मंदिर।
हम वापस जाने लगे तो एक बाबा मिल गये और खुद से ही इस जगह की कहानी बताने लगे। बाद में उन्होंने पैसे मांगे और मैंने खुद को स्टूडेंट बताया तो उन्होंने नहीं लिये। उन्होंने ही रघुनाथ मंदिर जाने को कहा। हम फिर से देवप्रयाग की गलियों में थे। पूछते-पूछते हम उस जगह पर पहुंच गये, जहां से हमें 100 से ज्यादा सीढ़ियां चढ़नी थी। कुछ देर बाद हम मंदिर के अंदर थे।

रघुनाथ मंदिर में भगवान राम की पूजा होती है। हजारों साल पुराने इस  मंदिर में काफी शांति थी। संगम को छोड़ दिया जाए तो देवप्रयाग में घूमने वाले कम ही लोग मिले। मंदिर में कई सारे बंदर दिखाई दे रहे थे और मंदिर के बाहर कुछ बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे। हमने मंदिर के दर्शन किये और कुछ मिनट वहीं बैठ गये। इसके बाद हम देवप्रयाग को देखने के लिए आगे बढ़ गये।

देवप्रयाग की गलियों में

इसके बाद हम देवप्रयाग शहर को देखने के लिए एक बार फिर से गलियों में चल रहे थे। हमें एक मिठाई की दुकान दिखाई जिसमें बाल मिठाई रखी हुई थी। कॉलेज के दिनों में मुकेश सर अल्मोड़ा से हमारे लिए बाल मिठाई जरूर लाते थे। तब से हमें बाल मिठाई खास पसंद थी। देवप्रयाग में हमने बाल मिठाई ले ली लेकिन वो वाला स्वाद नहीं मिला।

रास्ते में हमें फिर से एक और पुल मिला। मुझे शहर में एक घंटा घर दिखाई दे रहा था लेकिन मेरी दोस्त वहां जाने से मना कर रही थी। मैं उसे वहां जबरदस्ती ले गया। वहां गये तो पता चला कि जेसीबी ने किसी वजह से रास्ता तोड़ दिया। हम वहीं नदी किनारे बैठे रहे। दोस्त ने यहां से वापस लौटने को कहा लेकिन मैंने आगे चलने को कहा। काफी बहस के बाद हम मेरे कहे रास्ते पर बढ़ गये।

कुछ देर बाद हम मुख्य सड़क पर आ गये थे और शहर से कुछ किलोमीटर दूर भी। इस वजह से दोस्त के चेहरे पर गुस्सा साफ दिख रहा था। कड़ी धूप में आधा घंटा चलने के बाद हम देवप्रयाग पहुंचे। यहां से संगम का नजारा और भी खूबसूरत लग रहा था। पूरा देवप्रयाग शहर घूमने के बाद हमने खाना खाया और फिर कमरे पर लौट आये। शाम को मैं अपने वर्क फ्रॉम होम में लग गया और रात तक यही क्रम चलता रहा।

रात में देवप्रयाग।
रात में जब मैं सोने जा रहा था तो बाहर आकर देखा कि देवप्रयाग रात में भी चमक रहा था। कमरे तक नदी की आवाज साफ-साफ सुनाई दे रही थी। ये आवाज किसी संगीत से कम नहीं थी। देवप्रयाग शहर की यात्रा काफी शानदार रही थी। इस जगह को देखने के बाद मैं ऐसे ही पहाड़ी शहरों में बार-बार चाना चाहता हूं। अगली सुबह हमें फिर से एक नये सफर पर निकलना था।