यात्राओं का अपना अलग सुकून और एहसास है। कितना भी घूम लो कुछ दिनों में कम ही लगने लगता है। कुछ दिनों के बाद लगता है फिर से एक नई जगह पर निकल जाना चाहिए। लेकिन वो सफर हमेशा रहता है, जेहन में। जब भी उस सफर के बारे में सोचते हैं तो उसकी भीनी-भीनी याद चेहरे पर मुस्कान ले आती है। यात्राएं शायद इसलिए भी खूबसूरत होती हैं क्योंकि आप उस जगह से निकल जाते हैं लेकिन वो जगह आपमें से नहीं निकल पाती है। ऐसा ही खूबसूरत सफर है, केदारकंठा।
मेरे घूमने के वैसे तो कुछ उसूल नहीं लेकिन मेरा एक उसूल ये है कि सर्दियों में मैदानी इलाके में जाऊंगा और गर्मियों में पहाड़ों में खाक छानूंगा। लेकिन इस बार मेरा सर्दियों में बर्फ देखने का मन हुआ। बर्फ तो शिमला में भी पड़ती है और मैं जाना भी हिमाचल ही चाहता था। जाने से कुछ दिन पहले मुझे जाने क्या हुआ और मैंने केदारकंठा जाने का मन बना लिया। मैं अपने कुछ दोस्तों के साथ केदारकंठा ट्रेक करने जा रहा था। जाने वालों में पहले कुछ घटे फिर बढ़े और आखिर में हम 6 लोग कश्मीरी गेट से निकल पड़े।
तारीख थी 24 दिसंबर 2019। जब हमने रात को कश्मीरी गेट से देहरादून के लिए बस पकड़ी। मैं कई बार दिल्ली से देहरादून जा चुका था, इसलिए बाहर देखने का कोई मन नहीं था। मैं बस यही सोच रहा था कि देहरादून से सांकरी कि बस मिल जाए। दिसंबर की रात थी और बाहर घुप्प घना कोहरा छाया हुआ था। बाहर बहुत मुश्किल से दिखाई दे रहा था। कुछ घंटों के बाद गाड़ी एक ढाबे पर रूकी, बाहर निकले तो बहुत ठंड थी। सब आपस में यही कह रहे थे कि यहां इतनी ठंड है तो केदारकंठा पर क्या होगा? शायद ऐसा ही होता है सफर में। हम उस जगह के बारे में पहुंचने से पहले ही सोचने लगते हैं। कुछ देर में बस चल पड़ी और हम फिर से घुप्प कोहरे में खो गए।
कुछ देर बाद सभी लोग सो गये। जब नींद खुली तो हम रूड़की पहुंच गए थे। मेरे कुछ साथी पहुंच रहे थे, देहरादून कब पहुंचेगे? मेरा उनको एक ही जवाब था, जब बस गोल-गोल घूमने लगे तो समझ लेना देहरादून पहुंच गए। कुछ देर बाद हम ऐसे ही रास्तों में चक्कर लगाने लगे। इतने कोहरा होने के बावजूद बस बहुत तेज जा रही थी। कुछ देर बाद देहरादून बस स्टैंड पहुंच गए। अब हमें मसूरी बस स्टैंड जाना था, जहां से सांकरी के लिए बस लेनी थी। हमने टैक्सी पकड़ी और रेलवे स्टेशन के लिए रवाना हो गए।
मैंने टैक्सी वाले से केदारकंठा के बारे में पूछा तो उसने मुझे आश्चर्य से देखा और कहा, वहां बहुत बर्फ है अभी जाना सही नहीं रहेगा। हमें निकले तो जाने के लिए थे, सो मैंने उसकी बातों पर ध्यान नहीं दिया और हंसकर टाल दिया। रेलवे स्टेशन के ठीक बगल में ही मसूरी बस स्टैंड है। सांकरी के लिए बस साढ़े सात बजे थी। गाड़ी बुकिंग से पता किया तो वो 8,000 में जा रही थी, हमने उससे जाना दिमाग से ही हटा दिया। हम इधर-उधर घूम रहे थे, रेलवे स्टेशन पूरा खाली था क्योंकि कुछ महीनों से स्टेशन बंद था।
घूमते-घूमते हमें प्राइवेट बस मिल गई, जो हमें थोड़े कम पैसो में सांकरी ले जाने के लिए तैयार थी। सूरज की पहली किरण के साथ हम देहरादून से निकल पड़े। सांकरी जाने के लिए दो रास्ते हैं, एक मसूरी होते हुए और दूसरा विकासनगर होते हुए। हमारी बस विकासनगर होते हुए जा रही थी। मैं विकासनगर तक पहले भी आया हुआ था। उसके बाद का रास्ता मेरे लिए नया था। लोग चढ़ रहे थे, उतर रहे थे। ऐसा लग रहा था कि बस में सिर्फ हम ही हैं जो कई घंटों से एक ही सीट पर जमे हुए हैं। विकासनगर के बाद पहाड़ शुरू हो जाता है। रास्ते के ठीक बगल से नदी गुजर रही थी। पहाड़ तो बहुत उंचे-उंचे थे लेकिन इनमें बंजरपन नजर आ रहा था। पहाड़ पर पेड़ कम नजर आ रहे थे, जहां नजर आ रहे थे वो खूबसूरत भी लग रहे थे।
हमारा सफर टेढ़े-मेढ़े मोड़ों से आगे बढता जा रहा था। हम दिसंबर में जा रहे थे लेकिन यहां मौसम पूरी तरह से खुला हुआ था। धूप बहुत तेज थी, हालांकि खिड़की खोलने पर ठंडी हवा का झोंका लग रहा था। सीढ़ीदार खेत, छोटे-छोटे गांव और लोग इस सफर में मिल रहे थे। पहाड़ खूबसूरत तो होते हैं लेकिन यहां के लोगों की जिंदगी उतनी खूबसूरत नहीं होती। हर मौसम उनके लिए एक मुसीबत बनकर खड़ी रहती है। हम तो बस आते हैं और चले जाते हैं, बस इसलिए हमें ये खूबसूरत लगता है। रास्ते में मिलने वाला पानी अब गहरा हरा हो गया था। ऐसा लग रहा था कि किसी ने इस पानी में हरा रंग मिला दिया हो। इस हरे के बावजूद पानी के अंदर का सबकुछ दिखाई दे रहा था। रास्ते में कई पुराने पुल मिल रहे थे। उनको देखकर लग रहा था कि अंग्रेजों ने इन पुलों को एक पहाड़ को दूसरे पहाड़ से जोड़ने के लिए बनवाया होगा।
बरकोट होते हुए हमारा सफर सांकरी के पास ही पहुंच गया था। हमने ऐसे ही एक छोटे-से कस्बे में खाना खाया और आगे चल पड़े। शाम के वक्त हम पुरोला पहुंच गए। यहीं से पहली बार बर्फ की चादर दिखाई दी। हमें उसी बर्फ की चादर तक पहुंचना था। मैं पहले भी ऐसे ही बर्फ की चोटी देख चुका था। ऐसा लग रहा था पुरानी तस्वीर को फिर से देख रहा हूं। एहसास अब भी वैसा ही था, उस जगह से नजर हटाने का मन नहीं कर रहा था। पहाड़ पर आते ही हर चीज धीमी हो जाती है, धीमे हो जाते हैं हम भी। पुरोला से आगे बढ़े तो रास्ता घने जंगलों से होकर जाने लगा। धूप अभी गई नहीं लेकिन उजलका जाने लगा था। चीड़ के उंचे-उंचे पेड़ों को देखते हुए हम आगे बढ़ रहे थे। अब हम लगभग पहाड़ों की गोद में थे।
ऐसे जंगलों को देखने से अच्छा चलने में आनंद आता है। जब आप चल रहे होते हैं और धूप आप तक नहीं पहुंच पाती है। आप धूप को सिर्फ किरणों में छनकर देख पाते हैं। ऐसे घने जंगलों के बीच चलने का एहसास बहुत खूबसूरत होता है। थोड़ी देर बाद हम सांकरी पहुंच गए। सांकरी एक छोटा-सा गांव है, जहां कुछ दुकानें हैं और कुछ होटल हैं। हम यहां उतरे तो हमें सबसे पहले ठिकाना देखना था। हमारी जिससे पहचान थी वो यहां था नहीं सो हमें खुद ही सब कुछ देखना था। सीजन होने की वजह से होटल पूरी तरह से भरे हुए थे।
हमें होटल मिल नहीं रहा था। इसके अलावा हम होम स्टे में ठहर सकते थे। लेकिन वो सांकरी से 4 किमी. दूर था। हम उतने दूर जाना नहीं चाहते थे, तब हमारे काम आया एक नया कैफे। जिन्होंने कहा कि हम उनके कैफे के नीचे वाले कमरे में ठहर सकते हैं। कैफे के नीचे गए तो देखा कि कमरे की सारी खिड़कियां खुली हुई हैं और बिस्तर भी कुछ नहीं है। तब हमने स्लीपिंग बैग और मैट किराए पर लिया। मेरे पास ये पहले से था, इसलिए हमें इसकी जरूरत नहीं पड़ी। जब हम ये सब जुटा रहे थे तब हमें पता चला कि टेक पर आप बिना गाइड के नहीं जा सकते। बिना गाइड के आपको कोई सामान किराए पर नहीं मिलेगा।
बस ये रात ही है!
सांकरी में ही कुछ कंपनियां हैं, जो ये सब करवाती हैं। हमें भी गाइड करवाने का वायदा किया गया लेकिन रेट इतने ज्यादा था कि हमें बहुत महंगा पड़ रहा था। तब हमारे जैसे ही 6 लोगों की टीम को गाइड की जरूरत थी। हमने उनसे बात की और तब हम 12 लोगों के लिए गाइड करना महंगा नहीं था। हमें सुबह उठकर 8 बजे इस कंपनी के पास पहुंचना था, तब हमें गाइड मिलता।
उस छोटे-से कमरे में मैट बिछाकर, स्लीपिंग बैग में घुस गए। ये मेरी जिंदगी का पहला ऐसा अनुभव था और ये तो नए अनुभवों के फेहरस्ति की शुरूआत भर थी। सफर में एक वक्त ऐसा आता है जब आप बहुत कुछ सोच रहे होते हैं। मेरे लिए वो वक्त ये रात होती है जब मैं इस आज और आने वाले दिन के बारे में सोचता हूं। ये वक्त काफी कुछ सिखाता है और काफी कुछ समझाता है। तब हमें समझ आता है कि यात्राएं हमारे भीतर कितना बदलाव लेकर आई हैं।
मेरे घूमने के वैसे तो कुछ उसूल नहीं लेकिन मेरा एक उसूल ये है कि सर्दियों में मैदानी इलाके में जाऊंगा और गर्मियों में पहाड़ों में खाक छानूंगा। लेकिन इस बार मेरा सर्दियों में बर्फ देखने का मन हुआ। बर्फ तो शिमला में भी पड़ती है और मैं जाना भी हिमाचल ही चाहता था। जाने से कुछ दिन पहले मुझे जाने क्या हुआ और मैंने केदारकंठा जाने का मन बना लिया। मैं अपने कुछ दोस्तों के साथ केदारकंठा ट्रेक करने जा रहा था। जाने वालों में पहले कुछ घटे फिर बढ़े और आखिर में हम 6 लोग कश्मीरी गेट से निकल पड़े।
दिल्ली से देहरादून
तारीख थी 24 दिसंबर 2019। जब हमने रात को कश्मीरी गेट से देहरादून के लिए बस पकड़ी। मैं कई बार दिल्ली से देहरादून जा चुका था, इसलिए बाहर देखने का कोई मन नहीं था। मैं बस यही सोच रहा था कि देहरादून से सांकरी कि बस मिल जाए। दिसंबर की रात थी और बाहर घुप्प घना कोहरा छाया हुआ था। बाहर बहुत मुश्किल से दिखाई दे रहा था। कुछ घंटों के बाद गाड़ी एक ढाबे पर रूकी, बाहर निकले तो बहुत ठंड थी। सब आपस में यही कह रहे थे कि यहां इतनी ठंड है तो केदारकंठा पर क्या होगा? शायद ऐसा ही होता है सफर में। हम उस जगह के बारे में पहुंचने से पहले ही सोचने लगते हैं। कुछ देर में बस चल पड़ी और हम फिर से घुप्प कोहरे में खो गए।
कुछ देर बाद सभी लोग सो गये। जब नींद खुली तो हम रूड़की पहुंच गए थे। मेरे कुछ साथी पहुंच रहे थे, देहरादून कब पहुंचेगे? मेरा उनको एक ही जवाब था, जब बस गोल-गोल घूमने लगे तो समझ लेना देहरादून पहुंच गए। कुछ देर बाद हम ऐसे ही रास्तों में चक्कर लगाने लगे। इतने कोहरा होने के बावजूद बस बहुत तेज जा रही थी। कुछ देर बाद देहरादून बस स्टैंड पहुंच गए। अब हमें मसूरी बस स्टैंड जाना था, जहां से सांकरी के लिए बस लेनी थी। हमने टैक्सी पकड़ी और रेलवे स्टेशन के लिए रवाना हो गए।
मैंने टैक्सी वाले से केदारकंठा के बारे में पूछा तो उसने मुझे आश्चर्य से देखा और कहा, वहां बहुत बर्फ है अभी जाना सही नहीं रहेगा। हमें निकले तो जाने के लिए थे, सो मैंने उसकी बातों पर ध्यान नहीं दिया और हंसकर टाल दिया। रेलवे स्टेशन के ठीक बगल में ही मसूरी बस स्टैंड है। सांकरी के लिए बस साढ़े सात बजे थी। गाड़ी बुकिंग से पता किया तो वो 8,000 में जा रही थी, हमने उससे जाना दिमाग से ही हटा दिया। हम इधर-उधर घूम रहे थे, रेलवे स्टेशन पूरा खाली था क्योंकि कुछ महीनों से स्टेशन बंद था।
एक और लंबा सफर
घूमते-घूमते हमें प्राइवेट बस मिल गई, जो हमें थोड़े कम पैसो में सांकरी ले जाने के लिए तैयार थी। सूरज की पहली किरण के साथ हम देहरादून से निकल पड़े। सांकरी जाने के लिए दो रास्ते हैं, एक मसूरी होते हुए और दूसरा विकासनगर होते हुए। हमारी बस विकासनगर होते हुए जा रही थी। मैं विकासनगर तक पहले भी आया हुआ था। उसके बाद का रास्ता मेरे लिए नया था। लोग चढ़ रहे थे, उतर रहे थे। ऐसा लग रहा था कि बस में सिर्फ हम ही हैं जो कई घंटों से एक ही सीट पर जमे हुए हैं। विकासनगर के बाद पहाड़ शुरू हो जाता है। रास्ते के ठीक बगल से नदी गुजर रही थी। पहाड़ तो बहुत उंचे-उंचे थे लेकिन इनमें बंजरपन नजर आ रहा था। पहाड़ पर पेड़ कम नजर आ रहे थे, जहां नजर आ रहे थे वो खूबसूरत भी लग रहे थे।
हमारा सफर टेढ़े-मेढ़े मोड़ों से आगे बढता जा रहा था। हम दिसंबर में जा रहे थे लेकिन यहां मौसम पूरी तरह से खुला हुआ था। धूप बहुत तेज थी, हालांकि खिड़की खोलने पर ठंडी हवा का झोंका लग रहा था। सीढ़ीदार खेत, छोटे-छोटे गांव और लोग इस सफर में मिल रहे थे। पहाड़ खूबसूरत तो होते हैं लेकिन यहां के लोगों की जिंदगी उतनी खूबसूरत नहीं होती। हर मौसम उनके लिए एक मुसीबत बनकर खड़ी रहती है। हम तो बस आते हैं और चले जाते हैं, बस इसलिए हमें ये खूबसूरत लगता है। रास्ते में मिलने वाला पानी अब गहरा हरा हो गया था। ऐसा लग रहा था कि किसी ने इस पानी में हरा रंग मिला दिया हो। इस हरे के बावजूद पानी के अंदर का सबकुछ दिखाई दे रहा था। रास्ते में कई पुराने पुल मिल रहे थे। उनको देखकर लग रहा था कि अंग्रेजों ने इन पुलों को एक पहाड़ को दूसरे पहाड़ से जोड़ने के लिए बनवाया होगा।
बरकोट होते हुए हमारा सफर सांकरी के पास ही पहुंच गया था। हमने ऐसे ही एक छोटे-से कस्बे में खाना खाया और आगे चल पड़े। शाम के वक्त हम पुरोला पहुंच गए। यहीं से पहली बार बर्फ की चादर दिखाई दी। हमें उसी बर्फ की चादर तक पहुंचना था। मैं पहले भी ऐसे ही बर्फ की चोटी देख चुका था। ऐसा लग रहा था पुरानी तस्वीर को फिर से देख रहा हूं। एहसास अब भी वैसा ही था, उस जगह से नजर हटाने का मन नहीं कर रहा था। पहाड़ पर आते ही हर चीज धीमी हो जाती है, धीमे हो जाते हैं हम भी। पुरोला से आगे बढ़े तो रास्ता घने जंगलों से होकर जाने लगा। धूप अभी गई नहीं लेकिन उजलका जाने लगा था। चीड़ के उंचे-उंचे पेड़ों को देखते हुए हम आगे बढ़ रहे थे। अब हम लगभग पहाड़ों की गोद में थे।
पहाड़ और जंगल के बीच
ऐसे जंगलों को देखने से अच्छा चलने में आनंद आता है। जब आप चल रहे होते हैं और धूप आप तक नहीं पहुंच पाती है। आप धूप को सिर्फ किरणों में छनकर देख पाते हैं। ऐसे घने जंगलों के बीच चलने का एहसास बहुत खूबसूरत होता है। थोड़ी देर बाद हम सांकरी पहुंच गए। सांकरी एक छोटा-सा गांव है, जहां कुछ दुकानें हैं और कुछ होटल हैं। हम यहां उतरे तो हमें सबसे पहले ठिकाना देखना था। हमारी जिससे पहचान थी वो यहां था नहीं सो हमें खुद ही सब कुछ देखना था। सीजन होने की वजह से होटल पूरी तरह से भरे हुए थे।
हमें होटल मिल नहीं रहा था। इसके अलावा हम होम स्टे में ठहर सकते थे। लेकिन वो सांकरी से 4 किमी. दूर था। हम उतने दूर जाना नहीं चाहते थे, तब हमारे काम आया एक नया कैफे। जिन्होंने कहा कि हम उनके कैफे के नीचे वाले कमरे में ठहर सकते हैं। कैफे के नीचे गए तो देखा कि कमरे की सारी खिड़कियां खुली हुई हैं और बिस्तर भी कुछ नहीं है। तब हमने स्लीपिंग बैग और मैट किराए पर लिया। मेरे पास ये पहले से था, इसलिए हमें इसकी जरूरत नहीं पड़ी। जब हम ये सब जुटा रहे थे तब हमें पता चला कि टेक पर आप बिना गाइड के नहीं जा सकते। बिना गाइड के आपको कोई सामान किराए पर नहीं मिलेगा।
बस ये रात ही है!
सांकरी में ही कुछ कंपनियां हैं, जो ये सब करवाती हैं। हमें भी गाइड करवाने का वायदा किया गया लेकिन रेट इतने ज्यादा था कि हमें बहुत महंगा पड़ रहा था। तब हमारे जैसे ही 6 लोगों की टीम को गाइड की जरूरत थी। हमने उनसे बात की और तब हम 12 लोगों के लिए गाइड करना महंगा नहीं था। हमें सुबह उठकर 8 बजे इस कंपनी के पास पहुंचना था, तब हमें गाइड मिलता।
उस छोटे-से कमरे में मैट बिछाकर, स्लीपिंग बैग में घुस गए। ये मेरी जिंदगी का पहला ऐसा अनुभव था और ये तो नए अनुभवों के फेहरस्ति की शुरूआत भर थी। सफर में एक वक्त ऐसा आता है जब आप बहुत कुछ सोच रहे होते हैं। मेरे लिए वो वक्त ये रात होती है जब मैं इस आज और आने वाले दिन के बारे में सोचता हूं। ये वक्त काफी कुछ सिखाता है और काफी कुछ समझाता है। तब हमें समझ आता है कि यात्राएं हमारे भीतर कितना बदलाव लेकर आई हैं।