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Saturday 9 February 2019

जयपुर 1: खुद को इतिहास की वैभवता के बीच खड़ा पाता हूं

राजस्थान जिसे मैंने कभी देखा नहीं था, उसकी खूबसूरती के किस्से सुन रखे थे। मेरे कई दोस्तों ने राजस्थान का गुणगान बहुत किया था, इंटरनेट पर भी फोटोज में ही देखा था लेकिन जाने का कभी सोचा नहीं बन था। ऐसे ही एक दिन अचानक दिमाग में आया की आज  ही राजस्थान को देखने निकलना है । दिल्ली के अपने कमरे से  अपना छोटा-सा बैग उठाया और निकल पड़ा आईएसबीटी कश्मीरी गेट की ओर। जहां से मुझे बस पकड़नी थी ऐसे शहर के लिए  जहां इतिहास का वैभव आज भी बरकरार है- जयपुर।


25 जनवरी 2019 की रात को मैं आईएसबीटी बस स्टैण्ड पर इधर-उधर चल रहा था। मैं जयपुर जाने की बस ढूंढ रहा था। पूरे बस स्टैण्ड पर उत्तराखंड, हिमाचल और हरियाणा जाने वाली बसें हीं दिख रहीं थीं लेकिन जयपुर जाने वाली कोई बस नहीं दिख रही थी। मैं लगभग एक घंटा घूमता रहा लेकिन मुझे जयपुर जाने के लिए कोई भी बस नहीं मिली। मैं निराश होकर वापस मेट्रो की ओर जाने की सोचने लगा। तभी एक आखिरी बार ट्राई करने का सोचा। मैं  फिर लौटा और बार बस देखने लगा। तभी मुझे एक आवाज  सुनाई दी, जयपुर-जयपुर। मैं दौड़कर उसी ओर भगा और  जयपुर का टिकट मांगा।

उसने मुझसे पूछा अकेले हो। मेरे हां कहते ही जयपुर जाने की टिकट और बस मुझे दे दी गई। रात के 11 बज रहे थे, बस धौलाकुआं के रास्ते पर थी। रोड के दूसरी तरफ बड़े-बड़े ट्रक निकल रहे थे जिसमें झांकियां लगी हुईं थीं। जो कल गणतंत्र दिवस पर राजपथ पर मार्च करने वालीं थीं। उसके बाद मैं सो गया और जब आंख खुली तो बस राजस्थान की रोड पर चल रही थी। कुछ देर बाद अंधेरे में ही बस जयपुर शहर में दाखिल हुई। शहर सुबह के अंधेरे में पूरी तरह से शांत था। आधा शहर पार करके बस सिंधी बस स्टैण्ड पहुंच गई। राजस्थान की धरती पर उतरकर मैंने सुकून की सांस ली।

सिंधी बस स्टैंड।
अब मुझे देखना था कि इतनी सुबह शहर में क्या-क्या देखा जा सकता है? मैंने पता किया तो पता चला कि घूमने की सभी जगह 8 बजे के बाद ही खुलती हैं। मैं निश्चय नहीं कर पा रहा था कि अब कहां जाऊं? तभी मैं बस चल दिया शहर की ओर, ये सोचते हुये कि चलते-चलते सुबह हो ही जाएगी । तब तक शहर को पैदल नाप लेता हूं। बस स्टैण्ड के बाहर निकला तो माहौल वैसा ही था जैसा हर शहर के बस स्टैण्ड का होता है। बहुत सारी टैक्सियां खड़ीं थीं। चाय-नाश्ते की टपरी लगी हुई थी और बड़े-बड़े होटल थे। मेट्रो भी बनी हुई थी जो चांदपूल तक गई हुई थी। लेकिन फिलहाल वो सिर्फ बनी हुई थी, शुरू नहीं हुई थी।

चलते-चलते मैं शहर को देख रहा था और देख रहा था जयपुर की गलियां। थोड़े ही आगे चलते ही मुझे ऊंट-गाड़ी मिल गई। उसे देखकर मैं मुस्कुरा उठा और मन ही मन कहा- हां, मैं राजस्थान में ही हूं। कुछ देर चलने के बाद मैं एक चौराहे पर आकर खड़ा हो गया। जहां भैंसें चारा खा रहीं थीं। मैं अब तक बहुत चल चुका था। मुझे यूंही चलते रहना, समय बर्बाद करना लगा और आसपास होटल देखने लगा। मैंने इंटरनेट पर होटल देखा लेकिन  मिल गई डोरमेट्री। जहां मैं खड़ा था वो डोरमेट्री पास में ही थी। मैं डोरमेट्री में जाते ही अपने ही बिस्तर पर सो गया। डोरमेट्री मेरे लिए सही थी, मुझे शहर देखना था इसलिए डोरमेट्री सस्ती भी थी और अच्छी भी। कुछ देर बाद उठा तो देखा कि 9 बज रहे हैं। जल्दी से तैयार हुआ और निकल पड़ा जयपुर शहर को देखने।

किले में असामां छूते कबूतर।

आमेर किला


मैं फिर उसी चौक पर आ खड़ा हुआ। जहां अंधेरी सुबह में बस स्टैण्ड से चलकर आया था। मैंने ऑटो वाले से आमेर किला के लिये जाने का रास्ता पूछा। मैंने पूछा तो था रास्ता लेकिन वो खुद ही आमेर, जयगढ़ और नाहरगढ़ किला दिखाने को राजी हो गया। लेकिन जो पैसे वो मांग रहा था वो बहुत ज्यादा और थे। वो 2000 में सब घुमाने की बात कह रहा था। मैंने उसे जाने को कहा और कैब देखने लगा। जब मैंने कैब वाले को कॉल किया तो एक कैब वाले ने तो जाने से मना ही कर दिया क्योंकि किला पहाड़ी पर है। उसके बाद ऑटो कैब वाला मान गया और मैं चल पड़ा आमेर किला।

दूर से देखो आमेर किला।
आमेर किला शहर से 11 किलोमीटर दूर अरावली की पहाड़ियों पर स्थित है। किले की ओर जाने का रास्ता ऊंचाई पर था। पहाड़ी पर जाते-जाते रोड संकरे होते जा रहे थे। मगर आसपास पहाड़ और पेड़ नजर आ रहे थे। यहां से जलमहल भी अच्छा दिख रहा था जो शहर में ही है। कुछ ही मिनटों में ऑटो ने मुझे आमेर छोड़ दिया। कैब से मुझे यहां तक आने के सिर्फ 60 रूपये ही लगे। आमेर किला ऊंचाई पर है इसलिए बाहर से ही किला की बनावट दिखती है। किले को दूर से देखने पर लगता है कि पीले चूने की कलई पुतवा दी हो। लेकिन वो बड़े-बड़े गुंबद मुझे आकर्षित कर रहे थे।


किले तक जाने के लिये पहले आरामबाग जाना पड़ता है। मैं जैसे ही दिल आराम बाग पहुंचा। वहां सैकड़ों की संख्या में कबूतर दाना चुग रहे थे। जब वे एक-साथ जमीं से आसमां की ओर उड़ते वो दृश्य और वो फड़फड़ाहट वाली आवाज ने मेरा मन मोह लिया।  किले तक जाने के लिये बहुत सारी सीढ़ियों को चढ़कर जाना होता है। उन सीढ़ियों से पहले दिल आराम बाग आता है। जहां फूल, क्यारियां और आराम से बैठा जा सकता है। मैं जल्दी किले को घूम लेना चाहता था। मैं जल्दी-जल्दी सीढ़ियां चढ़ने लगा। पूरा रास्ता सैलानियों से भरा हुआ है। सीढ़ियां चढ़ते ही मुझे हाथी दिखाई दिये। हाथियों को रंगों से सजाया हुआ था। जिस पर महावत और कुछ लोग बैठकर मजा ले रहे थे। हाथी लोगों को नीचे से ऊपर ला रहा था। कुछ लोगों के लिये यहां यही रोजी-रोटी का साधन बना हुआ था।

आमेर किला जाने का रास्ता।
कुछ देर बाद मैं एक बड़े-से गेट से किले के अंदर पहुंचा। यहां आकर किला एकदम समतल हो गया था। यहां सब कुछ सपाट था। मैं जिस जगह खड़ा था, वहां ऐसा लग रहा था कि ये किले का आंगन है। वहीं आगे जाने पर टिकट काउंटर मिला। भारतीय पर्यटक के लिये टिकट 100 रूपये का था। लेकिन अगर आप विधार्थी हैं और काॅलेज आईडी है तो टिकट मात्र 10 रूपये का पड़ेगा। मेरे पास कोई आईडी नहीं थी सो मैं 100 रूपये देकर किले की ओर बढ़ गया।

दीवान-ए-आम


आमेर किला जो अंबेर शहर के पास में बसा है। इस बस्ती पर पहले मीणा समुदाओं का राज था। बाद में इस पर राजपूतों ने कब्जा कर लिया। जिसके बाद आमेर किला का निर्माण 1589 में राजा मानसिंह ने शुरू करवाया। उसके बाद अलग-अलग राजा आते रहे और इस किले का निर्माण बढ़ाते रहे। इस किले का पूरा निर्माण 1727 में खत्म हुआ।

किले का प्रथम तल, दीवाने-ए-आम।
मैं किले के पहले तल पर पहुंच गया। जिसे दीवान-ए-आम कहा जाता है। इस जगह पर राजा की सभा होती है। यहां पर राजा प्रजा, अधिकारियों, मंत्रियों से मिला करते थे। दीवाने आम की बनावट बेहद पुरानी लगती है। इसकी छज्जे और दीवारें लाल-बलुआ पत्थर की है और खंभे संगरमर के हैं। जिसकी चमक आज भी बनी हुई है। इस जगह से पहाड़ियां, आमेर सिटी दिखती है। उस दिन शायद यहां  कोई प्रोग्राम था, किले के इस तल पर स्टेज बना हुआ था और बहुत सारी कुर्सियां पड़ी हुई थी। यहीं पर एक बड़ा सा स्नानाघर है जिसे ‘हम्माम’ कहा गया है। जहां पर राजपरिवार स्नान करता था।

किले से दिखता अंबेर शहर।
इसके बाद आगे कुछ सीढ़ियां चढ़ने पर एक और तल आता है ‘दीवाने-ए-खास’। आमेर किले का सबसे ज्यादा आकर्षण का केन्द्र यही है। यहां पर राजा अपने अतिथियों से मिलते थे। इस तल पर शीश महल बना हुआ है। जिसमें कांच से पूरा शीश महल जड़ा हुआ है। इस जगह पर कैमरे से रिकाॅर्डिंग भी होती रहती है। एक गाइड ने बताया कि रानी यहां रात को बहुत सारे दिये रखती थी जिससे ये शीश महल जगमग होने लगता था। दिन की रोशनी में शीश महल इतना सुंदर लग रहा था। तो बस सोचा ही जा सकता है कि रात की जगमग में इस महल की क्या छंटा रहती होगी।

शीश महल के अंदर।
उसी तल पर एक बाग भी बना हुआ है। जो इस जगह को और भी सुंदर बना देता है  महल के बीचों-बीच ये बाग जिसके हर पेड़ की कटाई करीने से की गई है और उसके बीच में  है एक फुव्वारा। ये सब शीश महल की सुंदरता को बढ़ा रहे थे। इस जगह पर बहुत भीड़ थी। इस जगह की खूबसूरती का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि लोग इस जगह पर आकर आगे नहीं बढ़ रहे थे। इसकी सुंदरता देखकर यहीं रूक जा रहे थे।

मानसिंह महल


शीश महल को देखकर मैं आगे बढ़ गया। आगे महल की एक और सुंदरता मेरा इंतजार कर रही थी, मानसिंह महल। यह पूरे किले का सबसे प्रमुख भाग है। महल के बीच में एक प्रांगढ़ है, जिसे कुछ खंभों से एक छज्जे का रूप दिया गया है। उसके चारों तरफ कमरे ही कमरे थे। ऐसे ही कमरों को मैं देख रहा था। दीवारों पर फूल-पत्तियों और कुछ भगवान के चित्र बने हुये थे। यहीं पर राजा, अपनी महारानियों के साथ समय बिताते थे।


उसके बगल में ही ‘जनानी ड्योढ़ी’ है। यहां पर राजपरिवार की महिलायें और दासियां रहती थी। ये कमरे आज भी बहुत सुंदर लग रहे थे। हर कमरे में चित्रकारी और सफाई बहुत थी। कमरों की नक्काशी बेहद महीन और सुंदर है। पूरे महल की नक्काशी अलग-अलग है लेकिन फिर भी बेहद बेहतरीन। इन महलों से राजपूतों की वैभवशाली इतिहास का अनुमान लगाया जा सकता है। मैंने इससे पहले जो महल व किले देखे थे, वे इस किले के सामने बौने थे। शायद इसलिये इतिहास की फिल्मों की शूटिंग के लिये राजस्थान को ही चुना जाता है। जो आज भी अपनी खूबसूरती बरकरार रखे हुये हैं।


मैं किले की छत और छज्जे को देखने लगा। मैं नहीं चाहता था कि कोई आमेर किले का कोई कोना मुझसे छूट जाये। किला पूरा भूलभुलैया की तरह है। आप एक बार जहां से आते हैं उस जगह पर दोबारा नहीं आ सकते। पता ही नहीं चलता, कहां से उपर आयेऔर कहां से नीचे उतरे। किले की सबसे उपरी छत से बाहर पहाड़ ही पहाड़ देख रहे थे और किले की सुरक्षादीवारी। किले को देखने के बाद अब मुझे बाहर निकलना था क्योंकि मुझे जयगढ़ किला और नाहरगढ़ किला भी जाना था। लेकिन नीचे उतरते वक्त मेरी नजर एक जगह पर पड़ी। जहां लिखा था सुरंग में यहां से जाएं।


मैंने देखा नीचे सीढ़िया गईं हुईं हैं लेकिन अंधेरा और शांति मुझे डरा रही थी। एकबारगी मैं पीछे मुड़ा लेकिन फिर हिम्मत करके सीढ़िया उतरने लगा। नीचे उतरते ही कई लोगों की आवाज सुनाई दी और यहां लाईट भी थी। सुरंग वैसी नहीं थी जैसी फिल्मों में दिखती है। सुरंग इतनी उंची और चौड़ी थी कि एक बड़ी गाड़ी आराम से खड़ी हो सकती थी। मैं सुरंग देखकर आगे चल पड़ा। कुछ ही देर में फिर से उन्हीं सीढ़ियों पर था जिसको चढ़कर आमेर किले को देखने आया था। अब रास्ते में लोगों की भीड़ ज्यादा बढ गई थी और रोड पर भी गाड़ियों की आवाजाही भी थी। मैं अब तक एक सुंदर, बेहतरीन और वैभवता का प्रतीक आमेर किले को देख चुका था। मुझे अभी ये शहर और भी बहुत कुछ दिखाने वाला था। अब मेरा अगला पड़ाव था- जयगढ़  और नाहरगढ़।

ये जयपुर यात्रा का पहला भाग है, आगे की यात्रा यहां पढ़ें।

Saturday 2 February 2019

प्रयागराज 7ः इस शहर में आकर अगर संगम न आयें तो यहां आना अधूरा है

ये यात्रा का सातवां भाग है। छठा भाग यहां पढ़ें।

नाव में बैठे-बैठे मैं बस मैं लोगों को देख रहा था, नाव वालों को देख रहा था। जिनके लिये ये कुंभ रोजी-रोटी ले आया था। संगम उनकी धर्मभूमि बन गई थी और हम उसमें जाने वाले उनके अस्त्र-शस्त्र। जिनके बिना उनका काम नहीं चल सकता था। संगम के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था। पिछली बार जब इस शहर में आया था तो संगम नहीं देख पाया था। ये कुंभ और संगम मेरे लिये एक नया एहसास थे।


संगम 


थोड़ी ही देर में नाव चल पड़ी। तभी मेरे साथी फोन आ गया। उसने गुस्से में मुझसे पूछा कहां हो। मैंने बोल दिया यहीं घाट पर ही हूं। वो बोला अभी नाव पर नहीं बैठना, संगम साथ चलेंगे। लेकिन मैं तो नाव में ही बैठा था और नाव चल भी पड़ी थी। मैं अब नीचे भी नहीं उतर सकता था। मैंने अपना फोन बंद किया और संगम के इस सुंदर दृश्य का आनंद लेने लगा। कुछ ही देर में हम घाट से दूर होने लगे। घाट से जिन साइबेरियन पक्षी और नावों को दूर से देख रहा था। अब वे मेरे बगल से ही गुजर रहे थे।

नाव धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी। मैं जिस नाव में था उसमें 6 लोग और बैठे थे। वो पूरा एक परिवार था जो किसी अपने की अस्थि-विसर्जन करने आये थे। नाव में सभी लोग शांत थे और मैं तो बस पानी की आवाज सुन रहा था जो चप्पू चलाने से आ रही थी। साइबेरियन पक्षी आसमान में लहरते और फिर पानी में आकर तैरने लगते। उस समय ऐसा लगता किसीने पूरी नदी पर कागज की नाव बना कर रख दी हो।

साइबेरियन पक्षी ये दृश्य सुंदर बना रहे थे।
यहां से घाट पर जमा भीड़ और कुंभ के झंडे नजर आ रहे थे। बीच-बीच में शोर करते लोगों की आवाज भी आ रही थी। नदी में ही जल रक्षक का एक कैंप बना हुआ है। जो लोगों की सुरक्षा के लिये है। कुछ नावें में भी वैसे ही झंडे हैं शायद वे गोताखोर हैं। अब तक नदी का पानी बिल्कुल साफ था, थोड़ी देर बाद मैं ऐसी जगह पहुंच गया। जहां पानी अब मटमैला हो गया था। मटमैला रंग का जो पानी था वो गंगा है और साफ पानी वाली यमुना।

चप्पू-चप्पू


सरस्वती तो अब कहीं है नहीं। कहते हैं कि इस संगम से अब सरस्वती लुप्त हो गई है। हमारी नाव संगम पर आ चुकी थी। यहां और भी बहुत सारी नावें रखी हुई थीं। लोग यहां आकर नहा रहे थे। यही वो जगह थी जहां गंगा और जमुना मिलती है। यहां सिर्फ गंगा-जमुना ही नहीं मिलती, हमारी भारतीयता भी मिल जाती है। ये संगम हमें सिखाता है एक साथ रहना, हमारी गंगा-जमुना तहजीब बरकरार रखना। संगम में आकर हमें एक संकल्प लेना चाहिये, अच्छे और बेहतर इंसान बनने का।

चप्पू चलाता नाविक।
कुछ देर बाद नाव फिर से वापस लौटने लगी। हम थोड़ी ही देर में मटमैले पानी से फिर से साफ पानी की ओर आ गये। हम वापस लौटने लगे थे। अब तक मैं आसमान, पक्षी, कुंभ और नदी को देख रहा था। लेकिन अब मैं नाव को देख रहा था। ज्यादातर नावें एक जैसी ही थीं। कुछ पर विशेष कृपा थीं जो आकार में बड़ी थीं। नाव को पानी की धार के तरफ तो चलाना आसान है लेकिन धार के विपरीत मुश्किल जान पड़ रहा था।

नाव को खींचने में चप्पू का बड़ा योगदान होता है। नाव चलाने वाला सिर्फ हाथ से चप्पू नहीं चलाता, पूरा शरीर खींच देता है। जो बता रहा था कि नाव चलाना आसान काम नहीं है। ज्यादातर नाव को दो लोग चला रहे थे। कुछ ही नावें दिखीं जिसको एक अकेला व्यक्ति खींच रहा हो। हम जिस रास्ते से आये थे उस रास्ते से नहीं लौट रहे थे। लौटने का दूसरा रास्ता था। नाव लौटते समय एक-दूसरे के पीछे नहीं आ रहीं थीं। वे एक-दूसरे के बगल से गुजर रहीं थीं। जिससे नावें आपस में टकराये नहीं।


नाव को मोड़ने के लिये वे अपने एक चप्पू को रोक देते और दूसरे को चप्पू को चलाते रहते। जिससे नाव आसानी से मुड़ जा रही थी। ऐसी ही खींचतान को देखते-देखते हम घाट के पास पहुंच गये। नाव से बाहर उतरा तो याद आया, मेरा फोन तो बंद है। मेरे दोस्त मुझे ढ़ूढ़ रहे होंगे। मैंने फोन आॅन किया और एक जगह बैठकर उनका इंतजार करने लगा। फोन के ऑन होते ही उनका काॅल आया और उनकी बातों में मुझे गुस्सा नजर आ रहा था। मैं समझ आ गया था कि मुझे यहां लड़ाई से बचना है।

घाट के किनारे नाव ही नाव।
दो दिन की यात्रा में मैं कुंभ और इस शहर के कई रूप देख चुका था, कई जगहें देख चुका था। हम कुंभ से बाहर आने लगे। रास्ते में वो सब ही दिख रहा था जो आते वक्त दिख रहा था। वो शनि भगवान का बड़ा-सा मंदिर, जिसमें बहुत भीड़ थी। वो दुर्गा बनी बच्ची और करतब दिखाते कलाकार। कुंभ, जो सबके लिये अलग है। किसी के लिये ये रोजी-रोटी है तो किसी के लिये ये घूमने की जगह है तो कोई आस्था में उमड़ कर आता है। जो भी कारण हो हर किसी को कम से कम एक बार कुंभ जरूर आना चाहिये।

Friday 1 February 2019

प्रयागराज 5: रात के पहर में कुंभ को देखना मानो जगमग तारों की एक तस्वीर

ये यात्रा का पांचवां भाग है, चौथा भाग यहां पढ़ें।

प्रयागराज शहर में मुझे एक ही दिन हुआ था। लेकिन इतना सब कुछ देख लिया था कि लग रहा था ये शहर भी अपना हो गया। अब मैं हर जगह आराम से जा सकता था, खास तौर पर संगम और सिविल लाइंस। मेरे साथ अक्सर ऐसा ही होता है थोड़े वक्त के लिये कहीं ठहरता हूं। वो शहर मुझे जाना-पहचाना लगने लगता है। शहर को रात में घूमा जा सकता था लेकिन मैंने कुंभ को देखने का मन बनाया।


हमें फिर से वही लंबा रास्ता तय करने था जिस पर सुबह चले थे। अब मेरे साथ जाने वाले कम लोग थे और लौटने वाले ज्यादा लोग थे। सुबह में रास्ते किनारे जो-जो देखा था इस समय वो सब गायब था। वो भीड़ गायब थी, वो रास्ते में पैसे ऐंठने वाले कलाकार गायब थे। अगर कोई गायब नहीं था तो वो आवाज जिस पर अब भी किसी के सामान खोने का ऐलान किया जा रहा था।

कुंभ की छंटा


हम थोड़ी ही देर में नंदी द्वार पहुंच गये। जिसको चढ़ते ही हम कुंभ क्षेत्र में आ जाते। जिसको सवेरे देखकर मैं अवाक रह गया था, वो कुंभ की विशालता को देखकर। दिनभर चलने के बाद थकावट तो थी लेकिन थोड़ा-बहुत खा लेने के बाद ताकत आ गई थी।

जैसे ही कुंभ क्षेत्र में प्रवेश किया। सामने इतना प्रकाश दिख रहा था जिसे देखकर मन खुश हो गया। पूरा कुंभ प्रकाश से जगमगा रहा था। वो बल्ब इस जगह से देखने पर लगा रहा था कि आसमान के पूरे तारे कुंभ को सजाने में लगे हुये हैं। तभी मेरी नजर आसमान पर गई। आसमान में सिवाय चांद के कोई नहीं था। वो दृश्य वैसा ही था जैसा रात के वक्त पहाड़ों का होता है। जब अंधेरे में वो लाइट तारों में तब्दील होती लगती है। बस यहां अंतर इतना था यहां प्रकाश अपनी चमक बिखेर रहा था।


उसी सुंदर दृश्य को देखते-देखते मैं नीचे उतरने लगा। तभी मेरी नजर दाईं तरफ गई। जहां एक किसी अधूरे पुल के छत के नीचे लगभग 500 लोग लेटे दिखाई दिये। जिसमें से कुछ लोग सो चुके थे और कुछ लोग बैठे आपस में बात कर रहे थे। मैं उनसे बात करना चाह रहा था लेकिन मन में संकोच था। मैं अपने दोस्त के साथ बात करने पहुंच गया।

वो रात गुजारती मंडली


मैंने जिनसे बात की वो बिहारी के भागलपुर के बिहार से आये थे। उन्होंने बताया हम बहुत लोग आये हैं। मैंने उनसे कहा कि सरकार ने तो लोगों के रूकने के लिये तो इस बार टेंट बनवाये हैं, आप लोग वहां क्यों नहीं रूके। वो मुस्कुराते हुये बोले,  पुसरकार ने टेंट तो कल्पवास करने वालों के लिये बनवाये हैं। जो एक-दो दिन के लिये स्नान करने के लिये आता है उनके लिये कोई व्यवस्था नहीं है। हम तो आज आये हैं कल सुबह शाही स्नान है। शाही स्नान करके हम चले जायेंगे।


अब तक मुझे जो व्यवस्था अच्छी लग रही थी। उसमें थोड़ी कमी पता चल गई थी। कुंभ में करोड़ों लोग स्नान के लिये आते हैं शायद सरकार इनके रूकने की जिम्मेदारी नहीं लेती है। फिर भी जानकार अच्छा नहीं लगा कि ये लोग बाहर इतनी ठंड में रात गुजारेंगे। आस्था और श्रद्धा ही तो है जो हर किसी को यहां खींच ले आ रही है। मैं ज्यादा बात न करते हुये वहां से निकल आया। हम थोड़ा और आगे जाने लगे।

मैं रात के पहर में संगम के तट पर जाना चाहता था। दिन के पहर में जो दृश्य मोहित कर रहा था, रात को वो कैसे लगता है। हम बातें करते हुये आगे बड़ गये। बात करने में हमें भान ही नहीं रहा कि हम संगम के रास्ते पर जा ही नहीं रहे थे। हम पीपे के पुल पर खड़े थे। जहां से रास्ता अखाड़े की ओर जाता है। हमने दोनों ही जगह पर जाने का विचार छोड़ दिया।


हम जिस जगह खड़े थे। वहां से मुझे शास्त्री पुल दिख रहा था जो जिस पर चमकने वाली पट्टी लगी हुई थी। जो बारी-बारी से अपना रंग बदल रही थी और मैं देख रहा था वो पीपे को जिस पर ये पुल खड़ा था। कितना विशाल था जो आराम से गाड़ियों के वनज तक को झेल ले रहा था। रात काफी हो चुकी थी हमें दूर जाना था। हम वापिस चलने लगे, ये सोचकर कि कल जल्दी आना शाही स्नान जो है।

ये यात्रा का पांचवां भाग है, आगे की यात्रा यहां पढें।

Friday 18 January 2019

प्रयागराज 2: कुंभ में स्नान और संगम से बेहतर तो अखाड़े में चलते रहना रहा

 ये यात्रा का दूसरा भाग है, पहला भाग यहां पढ़ें।

प्रयागराज में आये हुये अभी कुछ घंटे ही बीते थे। इतने कम समय में बहुत कुछ दिखा गया था, कुंभ। कुंभ बस प्रयागराज का कुंभ नहीं है, कुंभ सिर्फ प्रयागराज के लिए नहीं है। ये तो समागम है जहां लोग आते हैं और पवित्रता की डुबकी लगाते हैं। लाखों लोग के इस समागम का एक छोटा-सा तिनका मैं भी बन गया था। मैं चलते-चलते ऐसी जगह पहुंच गया। जहां से सामने का नजारा देखकर मेरे चेहरे पर मुस्कुराहट फैल गई। मैं मन ही मन कह उठा- अच्छा, ये है कुंभ।


मुझे सामने दिख रही थी कुंभ की आस्था। जो भीड़ का रूप लिये हुये थी। कुछ आने वाले लोग थे तो कुछ लौट रहे थे। पहाड़ों में घूमते-घूमते एक ऐसी जगह आती है। जहां खड़े होकर हम अवाक हो जाते हैं। जहां कुछ पल रूककर सब कुछ देख लेना चाहते हैं। क्योंकि कुछ देर बाद हम उस जगह खुद होते हैं जिसे देखकर कुछ देर पहले खुशी मिल रही थी। बस कुछ ऐसा ही मैं कुंभ के एक कोने पर खड़े होकर महसूस कर रहा था।

मां गंगा


दूर-दूर तक बस लोग ही लोग नजर आ रहे थे। पीपे के पुल, टेंट, सफेद रेत और एक रास्ता जो सबका गंतव्य था। मैं कुंभ में प्रवेश कर चुका था। अब उस जगह जाने का मन था। जहां जाने के लिए सब यहां आते हैं, पतित पावनी मां गंगा के पास। मैं भी गंगा के घाटों के पास जाना चाहता था, जहां से बस मुझे सामने तांकते रहना था। रास्ते कई बने हुये हैं लेकिन सही रास्ता केवल एक ही होता है और मैं उसी रास्ते पर चल दिया।

जगह-जगह पर आपको पुलिस कर्मी मिलेंगे। यहां मुझे पुलिस का अलग ही रूप देखने को मिला। जो पुलिस हमेशा गरियाने के लिए जानी जाती है वो बड़े प्यार से सही रास्ते के बारे में बता रहे थे। आर्मी, पुलिस रास्ते में कई जगह खड़े हुये थे। सरकार ने व्यवस्था को अच्छा बनाने की पूरी कोशिश की थी। कुछ देर चलने के बाद मैं रेत के रास्ते पर आ गया।

कुंभ में सुबह-सुबह।
अब सामने रेत और भीड़ नजर आ रही थी। पहले और इस समय की भीड़ में अंतर था। मेरे सामने जो भीड़ थी वो एक जगह रूकी हुई थी। यानि कि मैं घाट के बिल्कुल करीब ही था। कुछ कदम नापने के बाद मैं उसी भीड़ का हिस्सा बन गया। मकर संक्राति का दिन था, लोग गंगा में डुबकी लगाकर अपने आपको पवित्र करना चाह रहे थे। घाट लंबी दूरी पर फैले हुये थे। उन सबको छोड़कर कुछ देखने लायक था तो वो था सामने का दृश्य। जो पानी किनारे पर लोगों ने गंदा कर दिया था, सामने बिल्कुल साफ नजर आ रहा था।

दूर तलक सजीला


साफ बहता पानी, पानी पर चलती नावें और चारों तरफ बस पक्षी ही पक्षी। साइबेरियन पक्षी इस दृश्य को सुन्दर बना रहे थे। कुछ नाव से संगम को देखने जा रहे थे तो कुछ उस दृश्य को करीब से देखना चाह रहे थे। मैं करीब से देखने वालों में से था लेकिन मैंने पहले कुंभ को देखने का मन बनाया। घाट पर लोग श्रद्धा से जितनी जल्दी फूल नदी में डाल रहे थे। उससे जल्दी वहां निकालने वाले खड़े थे। नदी किनारे सुरक्षा को अच्छा-खासा ध्यान रखा गया था जल पुलिस से लेकर गोताखोर, एंबुलेंस सब पानी में ही चौकसी लगाये हुये थे।

पंडे अपना वाचन लेकर जगह-जगह बैठे नजर आ रहे थे। इन बाबाओं में मुझे बस ठगी ही नजर आती है। जहां ऐसी ही पूजा चल रही थी, मैं वहीं पेड़ के नीचे खड़ा हो गया। कुछ ही मिनटों में पूजा खत्म हुई। अब बारी आई दक्षिणा देने की। बूढ़ी औरत ने कुछ रुपये दिये, कम पैसे देखकर बाबाजी भड़क गये। गुस्से में बोले कि अभी गंगा मइया से ऐसा कुछ करवा दूंगा। इतना कहना था कि दो बड़े नोट आये और कृपा मुस्कुराहट में आनी शुरू हो गई।


सुविधायें अच्छी नजर आ रही थी। अब मुझे अखाड़े की तरफ जाना था। मुझे पता चला कि दिगंबर अखाड़े में सिलेंडर फटने से आग लग गई है। अब तो मुझे जल्द ही उस जगह पर पहुंचना था। तभी मेरे एक दोस्त का फोन आया, वो संगम आ चुका था। मैं उसे कोई जगह नहीं बता पा रहा था कि घाट के पास सब कुछ एक जैसा ही था- नावें, खंभे, रेत और पुलिस, सब कुछ एक। उसने मुझे लाइव लोकेशन भेजी फिर भी उसे ढ़ूढ़ नहीं सका। तब लगा कि तकनीक होते हुये भी हर जगह साथ नहीं देती।

अखाड़े की खोज में


मैं अपने दोस्त के साथ ये कुंभ देखने वाला था क्योंकि मिलकर बहुत कुछ आसान हो जाता है। नये खोजने में आसानी होती है और सुस्ताने में भी। कुछ देर बाद हम मिले और अखाड़े की तरफ बढ़ दिये। अखाड़े की ओर जाने के लिए हमें पीपे के पुल को पार करना था। पीपे के पुल बहुत मजबूत थे, चार पहिया की गाड़ी भी इसके उपर से आसानी से निकल रही थी। बात करते-करते हमने पुल पार किया और अखाड़ों की ओर पहुंच गये।

यहां का माहौल कुछ अलग था, यहां भीड़ कम थी। यहां लोग कम, संत ज्यादा नजर आ रहे थे। ऐसे ही एक अखाड़े की गली में हम घुस गये। धर्मात्मा अपने-अपने टेंट में बैठे हुये थे। सबकी अपनी-अपनी वेशभूषा थी, कुछ जटाओं में बंधे थे तो कुछ मालाओं से पिरोये हुये थे। सबसे ज्यादा लोग नागा बाबा के टेंट के बाहर खड़े थे। श्रद्धालु उनसे आशीर्वाद लेने जा रहे थे। ऐसे ही घूमते-घूमते हमने कुछ अखाड़े देख लिये थे।

अखाड़े से एक दृश्य।
इस बार सबसे ज्यादा चर्चे में किन्नर अखाड़ा रहा है। पहली बार कुंभ में इस अखाड़े को जगह दी गई है। मैं वो अखाड़ा देखना चाहता था। हम पूछते-पूछते आगे बढ़ रहे थे। रास्ते में कई मीडिया चैनल की सड़क पर ही बाबाओं से चर्चा चल रही थी। मीडिया के लिए कुंभ एक अच्छा जरिया है। जहां आराम से सभी संतों से राम मंदिर, गौ रक्षा पर बात की जा सकती है। मेरे साथ चल रहे सहयोगी ने कल्पवास कर रहे है टेंटों को दिखाया। जो यहीं मार्च तक रहने वाले थे।

थका रहा था कुंभ


कुंभ का ये रास्ता हमें लंबा लगने लगा था। हम जिससे भी किन्नर अखाड़े के बारे में पूछते, वो आगे जाने को कह देते। लेकिन वो आगे का रास्ता खत्म ही नहीं हो रहा था। शास्त्री पुल के बाद एक और पुल पार कर लिया था लेकिन अभी तक हम अखाड़े तक नहीं पहुंच पाये थे। अब मुझे समझ आ रहा था कि किन्नर अखाड़े को जगह कैसे मिल गई? सबसे अलग और सबसे दूर किन्नर अखाड़ा ही था। तभी हमें ई-रिक्शा दिखा। हमने उसे किन्नर अखाड़े तक जाने का कहा। उसने भी अपने हाई-रेट के दर्शन करा दिये।

कुंभ थकाता है लेकिन रूकाता नहीं।
लंबी बहस और मोल-भाव के बाद आखिर में बात बन ही गई। कई घंटे के बाद पैर को आराम मिला था, बैठते ही सुकून आ गया। कुछ मिनटों में ही हम किन्नर अखाड़ा पहुंच गये। अखाड़े का गेट बंद था। अखाड़े के बाहर एक किन्नर थी, सब उससे आशीर्वाद ले रहे थे। हमने पता किया तो पता चला कि अभी सभी लोग घूमने गये हैं रात को ही आयेंगे। यहां तक आने के बाद भी निराशा ही हाथ लगी। अब बहुत तेज भूख लगी थी और वो भी प्रयागराज की गलियों की चटखारे की।

कुंभ यात्रा का ये दूसरा भाग है, आगे की यात्रा यहां पढ़ें।

Sunday 30 December 2018

दिल्ली का ऐतहासिक महल गुमनामी में विलुप्त होने की कगार पर है

हमारा इतिहास इतना विशाल है कि जहां देखो उसकी इमारतें हमें दिख ही जाती हैं। कुछ इतिहास को हमारी व्यवस्था बचा पा रही है और कुछ समय के साथ जर्जर होते जा रहे हैं। हमारी सरकार भी उन्हीं ऐतहासिक इमारतों पर ध्यान देती है जहां पर्यटक अधिक आते हैं। देश की राजधानी तो ऐसी ऐतहासिक इमारतों से भरी पड़ी है। उसी भीड़ में कुछ गुमनाम हो रही हैं। ऐसी ही एक गुमनामी की विरासत है, जहाज महल।


30 दिसंबर। दिन रविवार। दिल्ली में अपने कमरे पर खाली बैठा हुआ था। अचानक दिमाग में खाली बैठने से अच्छा है कुछ नया देख लिया जाए। इंटरनेट पर खोजबीन की और जगह चुनी जहाज महल। इस महल के बारे में इंटरनेट पर कम लिखा हुआ है। सभी ने इस महल के बारे में बस नाम भर की खाना-पूर्ति की है। अपने कुछ घुमक्कड़ दोस्तों से इस जगह के बारे में चर्चा की। उन्हें भी इस जगह के बारे में नहीं पता था। मैं समझ गया कि इन्हें नहीं पता तो बहुत कम ही होंगे जिन्हें इस जगह के बारे में पता है।

कैसे पहुंचें


थोड़ी ही देर में मैं छतरपुर  स्टेशन के बाहर गया। अब यहां से मुझे महरौली जाना था। जो स्टेशन से करीब आधा किलोमीटर की दूरी पर है। लगभग पांच मिनट पैदल चलने के बाद मैं महरौली के मुहाने पर पहुंच गया। सामने बड़ा-सा बोर्ड लगा था ‘ऐतहासिक शहर महरौली में आपका स्वागत है’। आगे का जो दृश्य था जिसे तनिक भी नहीं लग रहा था कि मैं इतिहास के गर्त में हूं। भीड़ वाली गली, आस-पास लगा हुआ बाजार सब आधुनिकता की ही झलक थी।

जहाज़ महल का दरवाजा।
दिल्ली की हर भीड़ वाली गली की तरह यहां भी वही माहौल था। कुछ दूर चलने पर एक पुरानी इमारत दिखाई दी। वो जामा मस्जिद सोन बुर्ज थी। जिसे देखकर पहली बार लगा कुछ तो बाकी है इतिहास का। कुछ आगे चला तो एक बड़ी-सी इतिहासिक इमारत दिखाई दी। जिसका लाल बलुआ पत्थर का बड़ा-सा दरवाजा है। वो इमारत एक तरफ से खुली हुई थी, बस यही तो है जहाज महल।

व्यवस्था की अनदेखी


मैं उस जहाज महल के बड़े-से गेट से अंदर हो लिया। जैसे घर में घुसते ही एक आंगन होता है। इस महल का भी एक छोटा-सा आंगन है। आंगन से अंदर जाते हैं सब आसमान की तरह साफ दिखने लगता है। जहाज महल के दो तल हैं। पहले तल पर बहुत सारे कमरे हैं और दूसरे तल पर कुछ गुंबद बने हैं। महल की दीवारें पूरी तरह से लाल बलुआ पत्थर की नहीं है। कुछ जरूरी जगह पर ही लाल बलुआ पत्थर का उपयोग किया गया है।

जहाज़ महल का दूसरा तल। 
नीचे कमरों की खिड़की भी दरवाजे जितनी ही लंबी है। महल की हालत कुछ सही नहीं दिखती है। ऐसा नहीं है कि महल खंडर बन चुका है या जर्जर बन चुका है। हालत इस लिहाज से सही नहीं है कि पूरे तल पर मकड़जालों का कब्जा है। छत की तरफ देखने पर नक्काशी बाद में पहले जाला दिखाई पड़ता है। दीवारों पर कुछ प्रेम की बातें लिखीं हुई हैं। महल में कोई भी पर्यटक नहीं है जबकि ये महल सिर्फ रविवार के दिन ही खुलता है। किले में कुछ लड़के हैं जो टिकटोक वाली वीडियो में बनाने में व्यस्त है। महल के बगल में एक पार्क है। वहां पर लोगों का जमावड़ा है जबकि ये ऐतहासिक इमारत सुनसान पड़ी हुई है।

जहाज महल क्यों


15वीं शताब्दी में लोदी वंश ने इस जगह पर एक धर्मशाला बनाई थी। जहां वे रास्ता तय करने के बाद आराम करते और अपना समय बिताते। इस धर्मशाला को जहाज़ महल इसलिए कहते हैं क्योकि बरसात में इसके चारों तरफ बने कुंड में पानी भर जाता है। उस कुंड में इस महल का जो प्रतिबंब बनता है वो जहाज जैसा दिखाई पड़ता है।

जहाज़ महल अंदर से।
नीचे की जर्जर तस्वीर देखने के बाद मैं दूसरी मंजिल के गुंबद को देखने जाने लगा। जहां सीढ़ियां थीं वहीं एक गाॅर्ड बैठा हुआ था। गाॅर्ड ने मुझे  ऊपर जाने से मना कर दिया। ऊपरी तल ही तो सुंदर लग रहा था और वहीं जाने की मनाही है। गाॅर्ड ने बताया मैं सिर्फ इसलिए यहां हूं कि कोई ऊपर ना जाने पाये। अब बाकी इस छोटी-सी धर्मशाला को मैं देख चुका था।

ये जहाज महल में कोई नहीं आता क्योंकि लोगों को इस जगह के बारे में नहीं पता है। दिल्ली में गुमनामी में  ये महल सुनसान पड़ा हुआ है। ऐसी जगहों पर हमको जाना चाहिए। ये हमारा इतिहास है, हमारी विरासत है। जब मैं लौट रहा था तो महल के ऊपर कुछ पक्षी मंडरा रहे थे। वे वैसे ही प्रतीत हो रहे थे जैसे मृत देह के उपर गिद्ध मंडराते हैं।


Saturday 22 December 2018

बंगाल 3: लोकल ट्रेन में सफर जिंदगी की भागदौड़ की कहानी बयां करती है

सफर जो कई पहलुओं से, कई लोगों से, कई भाषाओं से मिलवाता है। मैं इस समय बंगाल के लोकल में था। यहां की रहन-सहन, भाषा और लोगों को समझने की कोशिश कर रहा था। बंगाल बड़ा ही खूबसूरत राज्य है। हरी-भरी जमीन और हंसते-मुस्कुराते लोग। ऐसे ही तो सफर और जिंदगी चलती-रहती है। एक दिन आराम करने के बाद अगला पड़ाव होने वाला था कोलकाता। कोलकाता तक जाने के लिए लोकल ट्रेन से जाना था।


बर्धमान तक का लंबा सफर ट्रेन का ही था। लेकिन लोकल ट्रेन के इतने किस्से सुन रखे थे कि मुझे भी वही किस्सोगई बनना था। मैंने लोकल ट्रेन को अब तक फिल्मों में ही देखा था। एकाध-बार किसी स्टेशन पर भी खड़े देखा था। वो मेटो जैसे लटकते हैंडल मुझे बहुत भाते थे। उसी लोकल का हिस्सा मैं भी होने वाला था। कृष्णानगर से अपना बैग और टिकट लेकर प्लेटफाॅर्म की ओर बढ़ गया।\

भीड़ वाली लोकल ट्रेन


मुझे सामने ही हरी-पीली लोकल ट्रेन दिखी। इस लोकल ट्रेन का गेट आम ट्रेनों की तुलना में काफी बड़ा था। शुरू के डिब्बे महिलाओं के लिए आरक्षित थे। उन डिब्बों के आगे वाले डिब्बों में चढ़कर अपने लिए सीट देखता। सीट न मिलने पर आगे वाले डिब्बों की ओर बढ़ जाता। कुछ डिब्बों के बाद मुझे सीट मिली तो आधी। लोकल ट्रेन में सीटें आमने-सामने होती हैं। जिस पर बैठ तो तीन लोग ही सकते हैं लेकिन बैठते चार लोग हैं और वो चौथा मैं था।

लोकल ट्रेन की भीड़ सफर के अंत तक बनी रहती है

ट्रेन कुछ देर में चलने वाली थी और भीड़ भी अपनी जगह बना रही थी। कुछ लोग तो जल्दी आने के चक्कर में दूसरे गेट से चढ़ रहे थे। जो जोखिम भरा था लेकिन लोकल में तो ये आम बात है। ये ट्रेन सियालदाह तक जा रही थी। कुछ देर में ट्रेन भीड़ से खचाखच भर चुकी थी। सीट के बीच में जगह थी सो मैंने अपना बैग वहीं रख दिया। कुछ देर में ट्रेन चल पड़ी।

यात्रा में बहस


दो-दो मिनट में ट्रेन रूक रही थी। अब शायद ही कोई कोना बचा हो जो भीड़ से खाली हो। अब लोग सीटों के बीच में खड़े होने लगे थे। थोड़ी देर में सभी सीटों का दृश्य ऐसा ही था। मेरी सीट बची थी क्योंकि मेरा बैग अड़ंगा बना हुआ था। थोड़ी देर में तीन नए लड़के आये और बैग हटाने को कहा। मैंने भी तेज आवाज में कह दिया बैग तो यहीं रहेगा। वो बोलने लगे कि ये जगह खड़े होने के लिए है। मैं फिर भी अड़ा रहा और कहा, आपको जाना है तो इस बैग को पार करके चले जाइए।


थोड़ी देर बाद बैग अंदर पहुंच गया और कुछ लोग मेरी सीट के बीच में भी खड़े हो गये। लोकल ट्रेन में इतनी भीड़ होती है कि आपको अपने स्टेशन पर उतरने के लिए सीट से कुछ स्टेशन पहले उठ जाना होता है। तभी आप अपने स्टेशन पर उतर पाएंगे। छोटी-मोटी धक्का-मुक्की और लड़ाई-झगड़ा तो यहां आम बात है। जो अपनी सीट छोड़ते उनकी जगह सामने खड़ा व्यक्ति ले लेता है। लोगों की गप्पे चल ही रही थीं मैं उनकी बातें समझने की कोशिश कर रहा था। लेकिन बांग्ला भाषा इतनी आसान नहीं थी जो मैं समझ सकूं।

मैं सबसे ज्यादा परेशान हो रहा था झाल-मूड़ी वाले से और दाने बेचने वाले से। यहीं मैंने पहली बार झाल-मूड़ी खाई थी। मुझे पहली बार में झाल मूड़ी अच्छी नहीं लगी थी। बाद में मुझे ये बेहद अच्छी लगने लगी। इनकी अपनी कला होती है भीड़ से निकलने की। दाने वाला तो अपना हैंडल लेकर चलता है और आराम से सामान बेचता है। इसके दानों में मटर से लेकर नमकीन, मूंगफली सब मिलता है।

आखिरी पड़ाव- सियालदाह


कुछ स्टेशनों के बाद लग रहा था ट्रेन गलियों में घूम रही है और घरों के सामने रूक रही है। स्टेशन के नाम पर माइक, बोर्ड और कुछ कुर्सियां ही थीं। बाकी तो गली-मोहल्ला साथ दे रहा था। कृष्णानगर से सियालदाह तक का सफर ढाई घंटे का था। अगर सफर लंबा होता तो मैं परेशान हो जाता। जिन नौजवानों से मेरा झगड़ा हुआ था वे थे तो बंगाल के ही। उनकी बातें हिंदी में ही चल रहीं थीं। अपने आॅफिस से शुरू होकर वे नरेन्द्र मोदी और ममता बनर्जी पर आ गये।

असली संघर्ष तो यहीं होता है।

उसके बाद वे माॅल की, खाने की और अपने घूमने की बातें करने लगे। इनकी बातें सुनकर लग रहा था कि कोलकाता पास ही है। थोड़ी देर में दमदम आ गया और उसके बाद सियालदाह। इस लोकल ट्रेन का आखिरी स्टेशन। थोड़ी ही देर में ट्रेन ऐसे खाली हो गई जैसे यहां कोई था ही नहीं। ऐसा लग रहा था मानो सबका कहीं न कहीं जाने की जल्दी थी, सिवाय मेरे। मैंने अपना बड़ा-सा बैग उठाया और आगे के सफर के लिए निकल पड़ा।



Tuesday 18 December 2018

बंगाल 2ः वास्तविक बंगाल तो यहां के गांव की गलियों में दिखता है

मैंने जाने कितनी ही बार बंगाल जाने का सोचा है, वहां की गलियों में फिरने का मन किया है। वहां की लहलहाती फसल को देखने का मन किया है और अब मैं उसी बंगाल की धरती पर खड़ा था। जहां की संस्कृति के बारे में न जाने कितना सुन चुका हूं। उस संस्कृति को, उस धरा को देखने के लिए मैं बंगाल के गांवों की ओर जाना चाहता था। जहां मुझे वो बंगाल दिखे जो सच में बंगाल की परिभाषा है।


जब मैं बर्धमान स्टेशन के बाहर निकला तो पूरा स्टेशन सो रहा था। अंधेरा भी अभी पूरी तरह से छंटा नहीं था। सिर्फ समाचार-पत्र की खबरें जाग रही थीं और जाग रहे थे उनको इकट्ठा करने वाले। एक महिला भी समाचार-पत्र को अपनी जगह लगा रही थी। मुझे ये देखकर आश्चर्य भी हुआ और खुशी भी हुई। आश्चर्य इसलिए क्योंकि क्षेत्र में अखबार पहुंचाने का काम पुरूष को देखा था। महिला को अखबार का काम करते देख मैं आगे बढ़ चला। मुझे अपनी मंजिल पता था सीमानगर, बंगाल का एक कोना।

सफर में बंगाल


उस गांव तक पहुंचने के लिए एक लंबा रास्ता और कई बसों में बैठना था। स्टेशन से बाहर निकलकर मैंने कृष्णानगर की बस ले ली। अंदर गया तो बस पूरी तरह से खाली पड़ी थी। मैंने खिड़की वाली सीट ले ली। जिससे वक्त और रास्ता बाहर का नजारा देखते हुये गुजरे। लेकिन खिड़की कुछ ऐसी थी कि मैं खोल ही नहीं पा रहा था। मैं अब तक जिन बसों में बैठा था उनके शीशे साइड में जाते थे। लेकिन बंगाल की बसों के शीशे कुछ अलग ही थे। कोई बस में था ही नहीं तो मैंने ही दिमाग लगाया और खिसकाकर नीचे किया तो तेजी से नीचे गिर गया।

बंगाल के रास्ते में एक बस स्टैंड।

कुछ देर में बस बर्धमान की सड़कों को छोड़कर गांवों के रास्ते चलने लगी। सुबह-सुबह ठंड थी लेकिन मैं खिड़की बंद नहीं करना चाह रहा था। मेरी खुली खिड़की से बाकी लोगों को परेशानी हो रही थी। उन्होंने बांग्ला में कुछ कहा। क्या कहा ये तो नहीं समझ पाया पर इतना जरूर पता चल गया था कि खिड़की बंद करनी पड़ेगी।

सुपरफास्ट बसें


बंगाल की सड़क चाहे जैसी हो अच्छी या खराब। बस अपनी ही स्पीड से ही चलती है सैरसपाटे की। अगर आप पहली बार इन बसों में बैठ रहे हैं तो पक्का आप सीट पकड़कर बैठना चाहिए। बसों की स्पीड जितनी तेज है, किराया उतना ही कम है। बंगाल के बस कंडक्टरों की अलग ही कला है। वे हमारे नोटों को ऐसे मोड़कर रखते हैं जैसे पैसे नहीं बस कागज हों। उनके हाथ में जाते ही नया नोट भी पुराना हो जाता है।

लहलहाते खेत।

बंगाल अपनी सुबह में बढ़ रहा था। लोग अपना-अपना काम कर रहे थे। मेरे लिए बहुत कुछ नया था तो बहुत कुछ अपने जैसा। बंगाल के ज्यादातर लोग लुंगी में दिख रहे थे। लुंगी यहां का पारंपरिक पोशाक है, जैसे साइकिल यहां घर में दिख जाती है। पानी यहां ऐसा है जैसे हमारे यहां नल। कुछ घरों को छोड़कर तालाब, नहर दिख ही जा रही थी। पानी ज्यादा था इसलिए खेती भी बेशुमार थी। कुछ खेत कटे हुये रखे थे तो कुछ लहलहा रहे थे। सुबह का कुहरा दूर-दूर तक पसरा हुआ था।

गांव के स्टैंड की दुनिया


अब तक शानदार नजारे से सफर गुजर रहा था। तभी हरे-भरे खेत और पेड़ लाल रंग में पुते हुए दिखाई दिया। ऐसा लग रहा था कि किसी ने पूरी जगह पर लाल रेत उड़ेल दी हो। आस-पास कुछ झोपड़ी और खेत थे। यहां कोई इंडस्ट्री भी नहीं थी। मैं उस चित्र को जेहन में लेकर आगे बढ़ गया। कुछ देर बाद एक बड़ा-सा पुल आया। मां गंगा को हरिद्वार के बाद यहां देख पाया। कुहरे की वजह से दूर तक कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा था सिर्फ पानी और रेत ही दिख रही थी। 

पुल से सुबह का नजारा।

पुल पार करने के बाद नबाद्वीप आया। जहां से आगे जाने के लिए मैंने दूसरी बस पकड़ी। बस के अंदर ज्यादातर लोग ग्रामीण ही थे। बस आगे बढ़ती कुछ लोग उतर जाते और उनकी जगह कुछ लोग आ जाते। अधिकतर लोंगों के पास जूट का बैग दिखाई पड़ रहा था। गांव के बस स्टैंड को देखकर अच्छा लग रहा था। प्रत्येक गांव के बाहर 10-12 रिक्शे खड़े ही दिखाई दिये। जो लोगों को घर तक पहुंचाने में सहुलियत के लिए थे। स्टैंड पर एक बड़ी सी दुकान भी थी जहां से बहुत सारा सामान खरीदा जा सकता है। मेरे गांव के स्टैंड से बंगाल के स्टैंड बेहद बेहतर स्थिति में थे।

मजेदार सब्जी-पूड़ी


थोड़ी देर बाद गांव की गलियों को छोड़कर मैं शहर में घुस पड़ा। शहर जहां से मुझे अगली बस पकड़नी थी, कृष्णानगर। कृष्णानगर नाडिया जिले में पड़ता है। कई चैराहों से घूमते हुए बस अपने स्टैंड पहुंच गई। चैराहे पर कुछ मूर्तियां भी बनी हुईं थी लेकिन बांग्ला में लिखे होने के कारण मैं कुछ समझ नहीं पाया। बस से उतरकर मैंने सबसे पहले सब्जी-पूड़ी खाई। सस्ते में इतना स्वादिष्ट खाना कि मैंने एक प्लेट और ले ली।

बस स्टैंड की सब्जी-पूड़ी।

वहां से चलकर सीमानगर जाने वाली बस पर बैठ गया। सीमानगर जहां बीएसएफ का कैंप है। जो बंग्लादेश की सीमा को संभालाने का काम करते हैं। मेरा पड़ाव भी उसी कैंप के लिए थे। गांव की रोजमर्रा जीवन को देखते हुए मैं कुछ देर बाद बीएसएफ कैंप के सामने खड़ा था और सामने कुछ जवान थे जो मुस्तैद दिखाई पड़ रहे थे। अब तक का सफर बढ़िया रहा था। गांव में असली बंगाल दिख रहा था। चहचहाहट वाली सुबह देखी, अलग वेशभूषा देखी और प्रकृति तो हमारे साथ ही थी। जो मेरे सफर का रोचक बना रही थी।

शुरू से यात्रा यहां पड़ें।

Thursday 6 December 2018

बंगाल यात्रा 1: हर बार सफर कुछ नये अनुभवों से रूबरू कराता है

बंगाल मुझे बार-बार बुलाता है लेकिन कभी घूम नहीं पाया, सही से देख नहीं पाया। इस बार अचानक ही मैंने बंगाल घूमने का प्लान बना लिया। कुछ दिन पहले 6 दिसंबर के लिए रिज़र्वेशन करवा लिया। जो आखिरी वक्त तक कन्फ़र्म नहीं हुआ था। जब कन्फ़र्म की सूचना मिली तो राहत की सांस ली। मेरे घर से रेलवे स्टेशन 40 किलोमीटर दूर है। ट्रेन छूटने के डर से मैं मऊरानीपुर स्टेशन समय से दो घंटे पहले ही पहुंच गया था। करीब ढाई घंटे के इंतजार के बाद चंबल एक्सप्रेस आई और इस तरह मैं निकल गया बंगाल यात्रा पर।


विकास का बदतर रूप 


मुझे साइड लोअर सीट मिली थी। मुझे यह सीट बड़ी पसंद है। यहां से बाहर का नजारा साफ-साफ देख सकते हैं। यहां से ट्रेन के अंदर की गतिविधियां भी दिखती रहती हैं। रेल यात्रा हर बार नए अनुभव करवाती है, नये-नये लोगों से मिलवाती है। यहां अजनबी होते हुए भी कोई अजनबी नहीं होता। यहां देश की राजनीति पर भी चर्चा सुनी जा सकती है और अध्यात्म संवाद भी देखा जा सकता है।


ट्रेन अपनी रफ्तार से बढ़ रही थी। सामने के दृश्य वैसे ही थे। जिसे मैं रोज ही देखता। बुंदेलखंड हर जगह एक जैसा है समस्याओं के बीच समाधान खोजता। थोड़ी देर बाद मैं उसी इलाके के बांदा, महोबा के बीच में था। ये इलाका बुंदेलखंड का सबसे सूखे क्षेत्रों में आता है। एक जगह क्रेन मशीन से पठार तोड़ी जा रही थी। जो पठार कभी देखने में कभी खूबसूरत लगती होगी। उसे विकास ने उजाड़ कर दिया।

प्रियतम प्रकृति 


ये जाने कैसा विकास है जो देने के बदले में हमारा बहुत कुछ छीन लेता है। फिर भी बाहर देखने में अच्छा लग रहा था। विंध्याचल पर्वत की श्रेणी हमारे सामने से गुजरकर पीछे छूट रही थी। बाहर देखने को बहुत कुछ था जंगल, खेती, पहाड़, नदियां और लोग। सब अपने में संतुलित था। हम यहां अंदर बैठे अपना संतुलन खोह रहे थे और बाहर दृश्य अपने में संतुलन बैठा रहा था। पल-पल में दृश्य बदल रहे थे जिससे बाहर देखने में बोरियत नहीं हो रही थी।


मेरे सामने वाली सीट पर एक बंगाली दंपत्ति थी। बाकी सीटों पर लोग आते और बदलते जा रहे थे। मेरे पास की सीट पर कुछ लोग राजनीति पर समागम कर रहे थे। उनमे से एक अपने को सबसे ज्ञानी होने का परिचय दे रहा था। अपने को किसी पार्टी से जुड़ा हुआ कह रहा था और दोनों ही बड़ी पार्टियों की बखियां उधेड़ रहा था। उनकी बातों का तुक नहीं बैठ रहा था लेकिन ट्रेन में ऐसी बातें होनी चाहिए। जिससे सफर बिना बोरियत के आराम से काट लिया जाए।

इलाहाबाद है! 


अब तक हम बुंदेलखंड को छोड़कर इलाहाबाद(प्रयागराज) के आसपास आ गए थे। मैं उस बोर्ड को देखना चाहता था जिस पर अब प्रयागराज लिख दिया गया है। बोर्ड आया लेकिन प्रयागराज का नहीं कोई इलाहाबाद छिवकी का। शायद ये ट्रेन इलाहाबाद होकर नहीं जाती।


इलाहाबाद से निकलते वक्त शाम हो चली थी। सामने सूरज ढल रहा था और अपने चारों और लालिमा बिखेर रहा था। सूरज अठखेलियां करते हुए हमसे दूर जा रहा था किसी नई जगह पर। सूरज डूब चुका था लेकिन अभी भी बाहर साफ-साफ दिखाई दे रहा था। शाम बड़ी बड़ी प्यारी लग रही थी। खेती वाला क्षेत्र अभी चल ही रहा था। किसी के खेतों की बुवाई हो रही थी तो कहीं सिंचाई हो रही थी।

लोगों की जुबां केसरी- मुगलसराय 


अब तक मुझे भूख लग आई थी। मुझे खास चेतावनी दी गई थी बाहर का कुछ भी मत खाना। घर से लाया हुआ खाना खाया और फिर अंधेरे में डूबे शहर-गाँव को देखने लगा। कुछ देर बाद मिर्जापुर आ गया, कालीन भैया वाला मिर्जापुर। आजकल फिल्मों से शहरों को जाना जाता है और सब इसे बदलाव का नाम दे देते हैं। ये बदलाव नहीं छाप है जानकारी के अभाव की।


मिर्जापुर से निकले तो स्टेशन आने की भनक मिल गई। जो न्यूज में नाम को लेकर बड़ा छाया रहा था, दीनदयाल उपाध्याय जंक्शन(मुगलसराय)। ट्रेन की बातों में अब लग रहा था कि पूर्वांचल में हैं। सरकार ने अपने कागजों से तो मुगलसराय का नाम हटा दिया। लेकिन लोग की जबान से नहीं हटा सके। मेरे कान में एक आवाज नहीं आई जिसने दीनदयाल उपाध्याय नाम लिया हो। चारों तरफ बस एक ही नाम सुनाई दे रहा था, मुगलसराय।

बर्धमान 


अब तक रात का पहर अपने आगोश में था और हवादार ठंड ने कंबल में घुसा दिया। अपनी लापरवाही के कारण कई बार ठंड के मजे ले चुका हूं। इसलिए अब मेरा बैग में कंबल जरूर रहता है। मुगलसराय के बाद रात हिलते-डुलते कटी। जब कभी नींद खुलती तो पता चलता है स्टेशन गया(बिहार) है। उसके बाद नींद खुलती है तो स्टेशन का अनाउंस बता देता है कि बंगाल में प्रवेश कर चुका हूं। बंगाल का सबसे पहले पड़ने वाला रेलवे स्टेशन आसनसोल है।



मैं जल्दी ही बर्धमान पहुंचने वाला था। लेकिन नींद ने मुझे आगोश में ले लिया। अचानक मेरी आँख खुली तो देखा मेरे आसपास सबके सामान पैक थे, मोबाइल पर कुछ मिस्ड कॉल पड़ी थीं। मैं समझ गया था बर्धमान आने ही वाला है। ये ट्रेन हावड़ा जा रही थी और फिलहाल मुझे हावड़ा नहीं, बर्धमान जाना था। मैं कुछ मिनट और सोता रहता तो हावड़ा पहुंच जाता। थोड़ी देर बाद स्टेशन आया बर्धमान। मैं जल्दी ही बंगाल की धरती पर पर आ गया। अब बस कुछ दिन बंगाल की आबोहवा को देखना था।