Showing posts with label travel in rajsthan. Show all posts
Showing posts with label travel in rajsthan. Show all posts

Saturday, 9 February 2019

जयपुर 2: ये खुला-खुला जयगढ़ किला कुछ तो कहता है

ये जयपुर यात्रा का दूसरा भाग है, पहला भाग यहां पढ़ें।

जयपुर के आमेर फोर्ट को देखकर मेरा मन खुश हो गया था। मैं हमेशा सोचता था कि पहाड़ ही सबसे बेहतरीन जगह होती है। जयपुर के इस किले को देखकर मैं समझ गया था नई जगह, नये विचार देता है। आमेर फोर्ट से बाहर निकलकर मैं वहीं एक चबूतरे पर बैठ गया। तभी पता चला कि अब आमेर किले में जाने नहीं दिया जा रहा है। किले में कोई लिटरेचर फेस्ट है, मुझे दीवाने-ए-आम का स्टेज और कुर्सियां याद आ गईं। मैं खुश था कि मैंने पहले आमेर आने का निर्णय लेकर सही किया था। अब मैं सबसे पहले जयगढ़ की ओर जाना चाहता था।


आमेर किला की सड़कों पर अब भीड़ बढ़ गई थी लेकिन जाम जैसी स्थिति नहीं हुई थी। मैंने कई ऑटो वाले जयगढ़ किले जाने का पूछा, वो तो जाने को तैयार ही बैठे थे। लेकिन उनके रेट पर मैं नहीं जाना चाहता था। मैंने फिर से वही किया कैब ढ़ूढ़ने लगा। कैब में गाड़ी और ऑटो का रेट इस बार बहुत ज्यादा था लेकिन मोटरसाइकिल का रेट सही था। मैंने मोटरसाईकिल बुक की और चल दिया जयगढ़ के रास्ते। जयगढ़ किला, आमेर किले से ऊंचाई पर स्थित है। रास्ते में फिर से वही पहाड़, प्रकृति और संकरी रोड। बस इस रास्ते पर किले की दीवार मिल रही थी जो आमेर किले के चारों तरफ बिछी हुई है। आमेर किले से जयगढ़ किला लगभग 5 किलोमीटर की दूरी पर है।

जयगढ़ किला


कुछ ही मिनटों में मोटरसाईकिल से मैं जयगढ़ फोर्ट पहुंच गया। कैब से यहां तक आने का किराया 54 रूपये हुआ। आमेर किला बाहर से पीले रंग का लग रहा था वहीं जयगढ़ किला पूरी तरह से लाल रंग का था। जो बता रहे थे कि लाल बलुआ पत्थर इस किले की पहचान है। यहां भी टिकट की एक छोटी-सी लाइन लगी हुई थी। आम लोगों के लिये टिकट 70 रूपये का था, यहां भी विधार्थियों के लिये डिस्काउंट था। मैं सोच रहा था कि अगर मेरे पास काॅलेज आईडी होती तो जयपुर कितना सस्ता होता।


मैं टिकट लेकर जयगढ़ के बड़े से लाल गेट से अंदर घुसा। अंदर गाड़ियां भी जा रहीं थीं। बस कुछ और पैसे देने थे आपकी गाड़ी किले के अंदर। अंदर घुसते ही फिर एक और वैसा ही दरवाजा मिला। वहां से आगे मैं सीढ़ियां चढ़कर पूरे किले को ऊपर से देखने लगा। मुझे किले में ही एक बहुत बड़ा खंभा दिख रहा था जिस पर झंडा लगा हुआ था। वो तिरंगे जैसा लग रहा था लेकिन तिरंगा नहीं था क्योंकि इस झंडे में चार रंग थे। मैं लाल पत्थरों के इस महल में आगे बढ़ने लगा। दोपहर हो गई थी और धूप गर्मी का एहसास करा रही थी।

जयगढ़ के किले की दीवारों में पुरानापन था जैसे अक्सर पुराने किलों में होता है। दीवारों में दरारें थी और सूखापन। पूरा किला खुला-खुला हुआ था। दरअसल ये किला रहने के लिये नहीं बनवाया गया था। इस किले को राजा जयसिंह ने बनवाया था। इसकी बनावट तो आमेर किले के जैसी ही है लेकिन ये राजा का सैन्य बंकर हुआ करता था। इस जगह पर सेना के शस्त्रागर रखे जाते थे। यहां एक शस्त्रागार वाला कमरा भी हैं जहां आज भी शस्त्र रखे हुये हैं। ये किला आमेर किले से ऊंचाई पर स्थित है। यहां से दूर-दूर तक दुश्मनों पर नजर भी रखी जाती थी और इसे देखकर दुश्मन भी यही सोचती थी कि यही किला है।


जयवाण तोप


किले के बीच में एक झील भी है जिसमें इस समय बहुत कम पानी है। थोड़ा आगे चलने पर मैं उस जगह पहुंचा जो इस किले का सबसे बड़ा आकर्षण का केन्द्र है, तोप। यहां पर एक जयवाण नाम की तोप रखी हुई है जो दुनिया की सबसे बड़ी तोप है। इस तोप को इसी किले में बनाया गया था। इस तोप को महाराजा सवाई जयसिंह द्वितीय ने 1720 ई. में बनवाई। ये तोप इतनी लंबी है कि इसको रखने के लिये एक बड़ा-सी टीन का छज्जा बनाया गया है। इसकी नाल की लंबाई 20 फीट है और 50 टन वजनी है। इसमें से चलाये जाने वाले गोले का वजन 50 किलो है। तोप की मारक क्षमता 22 मील है। जब तोप बनी तभी एक बार इसका ट्रायल किया गया। इसके बाद कभी भी इसके उपयोग की जरूरत नहीं पड़ी।


पूरे किले में इसी जगह पर सबसे ज्यादा भीड़ थी। किसी स्कूल का कोई टूर भी आया था जो एक ही ड्रेस में नजर आ रहे थे। उनके टीचर उनको इस किले और तोप के बारे में बता रहे थे। किले की ये जगह सबसे ऊंची थी यहीं पर कुछ गाड़ियां भी रखी हुईं थीं। किले की खिड़की से जल महल नजर आ रहा था और दूर-दूर तक अरावली की पहाड़ी नजर आ रही थी। तोप को देखने के बाद मैं किले के दीवार के किनारे-किनारे चलने लगा। यहां पर कम भीड़ थी ऐसा लग रहा था कि सब जयगढ़ किले को अंतिम पंक्ति में देखने आते थे। चलते-चलते मैं ऐसी जगह पर पहुंच गया जहां से आमेर किला दिख रहा था। जयगढ़ किले से एक पैदल रास्ता भी गया था जहां से लोग आमेर फोर्ट जा रहे थे। जो भी जयपुर आये उसे पहले जयगढ़ किला आना चाहिये और इस पैदल रास्ते से आमेर फोर्ट जाना चाहिए। इस पैदल रास्ते से समय भी बचेगा और पैसा भी।


जयगढ़ किला ऊंचाई पर स्थित है। यहां से आमेर किला तो दिख ही रहा था। साथ में पूरा शहर तिनके की तरह लग रहा था। दूर-दूर तक छोटे-छोटे सफेद घर और बड़ी-बड़ी पहाड़ी नजर आ रही थी। किला आमेर किले के तरह खूबसूरत न हो लेकिन यहां से बड़ा ही सुंदर व्यू था। जो इस किले को आमेर किले के बराबरी पर खड़ा कर देता था। आगे नीचे उतरने का रास्ता था मैं नीचे उतरकर जलेब चैक की ओर चलने लगा। वहीं फोटोग्राफर लोगों को, बच्चों को राजस्थानी कपड़ों में फोटो क्लिक कर रहे थे और पइसे का खेल खेल रहे थे। ये आपको जयपुर के हर ऐतहासिक जगह पर दिख जायेगा। आगे बढ़ा तो वहां शस्त्रागर भवन दिखा।


शस्त्रागर भवन ज्यादा बड़ा नहीं था लेकिन देखने लायक तो था। यहां पर तलवारें, तोपें, बंदूके और सैनिकों के सुरक्षा कवच रखे हुये हैं। इस शस्त्रागर में जो तोपें रखी हुई हैं उनके नाम भी दिये गये हैं। इसके ठीक बगल पर एक और कमरा है लेकिन वो न भी देखा जाये तो काम चल सकता है। यहां राजस्थानी सामान बेचा जाता है। लेकिन किले के अंदर होने की वजह से हर सामान बहुत महंगा है। इस किले को मैं पूरा देख चुका था। मुझे आमेर फोर्ट तो जाना नहीं था सो मैं उसी रास्ते पर चल पड़ा, जिस रास्ते से आया था। जयगढ़ किला, आमेर किले जितना सुंदर भी नहीं है और ना ही यहां ज्यादा नक्काशी दिखती है। लेकिन इस जगह पर आने के बाद ही  आपको आमेर किला जाना चाहिये। इस जगह पर हम उस दौर के शस्त्रों को देख पाते हैं और समझ पाते हैं कि सुरक्षा कितनी महत्वपूर्ण है तब भी और आज भी। जयगढ़ किले को देखने के बाद अब मेरा अगला पड़ाव था- नाहरगढ़ किला।

जयपुर यात्रा का ये दूसरी कड़ी है, आगे की यात्रा यहां पढ़ें।

जयपुर 1: खुद को इतिहास की वैभवता के बीच खड़ा पाता हूं

राजस्थान जिसे मैंने कभी देखा नहीं था, उसकी खूबसूरती के किस्से सुन रखे थे। मेरे कई दोस्तों ने राजस्थान का गुणगान बहुत किया था, इंटरनेट पर भी फोटोज में ही देखा था लेकिन जाने का कभी सोचा नहीं बन था। ऐसे ही एक दिन अचानक दिमाग में आया की आज  ही राजस्थान को देखने निकलना है । दिल्ली के अपने कमरे से  अपना छोटा-सा बैग उठाया और निकल पड़ा आईएसबीटी कश्मीरी गेट की ओर। जहां से मुझे बस पकड़नी थी ऐसे शहर के लिए  जहां इतिहास का वैभव आज भी बरकरार है- जयपुर।


25 जनवरी 2019 की रात को मैं आईएसबीटी बस स्टैण्ड पर इधर-उधर चल रहा था। मैं जयपुर जाने की बस ढूंढ रहा था। पूरे बस स्टैण्ड पर उत्तराखंड, हिमाचल और हरियाणा जाने वाली बसें हीं दिख रहीं थीं लेकिन जयपुर जाने वाली कोई बस नहीं दिख रही थी। मैं लगभग एक घंटा घूमता रहा लेकिन मुझे जयपुर जाने के लिए कोई भी बस नहीं मिली। मैं निराश होकर वापस मेट्रो की ओर जाने की सोचने लगा। तभी एक आखिरी बार ट्राई करने का सोचा। मैं  फिर लौटा और बार बस देखने लगा। तभी मुझे एक आवाज  सुनाई दी, जयपुर-जयपुर। मैं दौड़कर उसी ओर भगा और  जयपुर का टिकट मांगा।

उसने मुझसे पूछा अकेले हो। मेरे हां कहते ही जयपुर जाने की टिकट और बस मुझे दे दी गई। रात के 11 बज रहे थे, बस धौलाकुआं के रास्ते पर थी। रोड के दूसरी तरफ बड़े-बड़े ट्रक निकल रहे थे जिसमें झांकियां लगी हुईं थीं। जो कल गणतंत्र दिवस पर राजपथ पर मार्च करने वालीं थीं। उसके बाद मैं सो गया और जब आंख खुली तो बस राजस्थान की रोड पर चल रही थी। कुछ देर बाद अंधेरे में ही बस जयपुर शहर में दाखिल हुई। शहर सुबह के अंधेरे में पूरी तरह से शांत था। आधा शहर पार करके बस सिंधी बस स्टैण्ड पहुंच गई। राजस्थान की धरती पर उतरकर मैंने सुकून की सांस ली।

सिंधी बस स्टैंड।
अब मुझे देखना था कि इतनी सुबह शहर में क्या-क्या देखा जा सकता है? मैंने पता किया तो पता चला कि घूमने की सभी जगह 8 बजे के बाद ही खुलती हैं। मैं निश्चय नहीं कर पा रहा था कि अब कहां जाऊं? तभी मैं बस चल दिया शहर की ओर, ये सोचते हुये कि चलते-चलते सुबह हो ही जाएगी । तब तक शहर को पैदल नाप लेता हूं। बस स्टैण्ड के बाहर निकला तो माहौल वैसा ही था जैसा हर शहर के बस स्टैण्ड का होता है। बहुत सारी टैक्सियां खड़ीं थीं। चाय-नाश्ते की टपरी लगी हुई थी और बड़े-बड़े होटल थे। मेट्रो भी बनी हुई थी जो चांदपूल तक गई हुई थी। लेकिन फिलहाल वो सिर्फ बनी हुई थी, शुरू नहीं हुई थी।

चलते-चलते मैं शहर को देख रहा था और देख रहा था जयपुर की गलियां। थोड़े ही आगे चलते ही मुझे ऊंट-गाड़ी मिल गई। उसे देखकर मैं मुस्कुरा उठा और मन ही मन कहा- हां, मैं राजस्थान में ही हूं। कुछ देर चलने के बाद मैं एक चौराहे पर आकर खड़ा हो गया। जहां भैंसें चारा खा रहीं थीं। मैं अब तक बहुत चल चुका था। मुझे यूंही चलते रहना, समय बर्बाद करना लगा और आसपास होटल देखने लगा। मैंने इंटरनेट पर होटल देखा लेकिन  मिल गई डोरमेट्री। जहां मैं खड़ा था वो डोरमेट्री पास में ही थी। मैं डोरमेट्री में जाते ही अपने ही बिस्तर पर सो गया। डोरमेट्री मेरे लिए सही थी, मुझे शहर देखना था इसलिए डोरमेट्री सस्ती भी थी और अच्छी भी। कुछ देर बाद उठा तो देखा कि 9 बज रहे हैं। जल्दी से तैयार हुआ और निकल पड़ा जयपुर शहर को देखने।

किले में असामां छूते कबूतर।

आमेर किला


मैं फिर उसी चौक पर आ खड़ा हुआ। जहां अंधेरी सुबह में बस स्टैण्ड से चलकर आया था। मैंने ऑटो वाले से आमेर किला के लिये जाने का रास्ता पूछा। मैंने पूछा तो था रास्ता लेकिन वो खुद ही आमेर, जयगढ़ और नाहरगढ़ किला दिखाने को राजी हो गया। लेकिन जो पैसे वो मांग रहा था वो बहुत ज्यादा और थे। वो 2000 में सब घुमाने की बात कह रहा था। मैंने उसे जाने को कहा और कैब देखने लगा। जब मैंने कैब वाले को कॉल किया तो एक कैब वाले ने तो जाने से मना ही कर दिया क्योंकि किला पहाड़ी पर है। उसके बाद ऑटो कैब वाला मान गया और मैं चल पड़ा आमेर किला।

दूर से देखो आमेर किला।
आमेर किला शहर से 11 किलोमीटर दूर अरावली की पहाड़ियों पर स्थित है। किले की ओर जाने का रास्ता ऊंचाई पर था। पहाड़ी पर जाते-जाते रोड संकरे होते जा रहे थे। मगर आसपास पहाड़ और पेड़ नजर आ रहे थे। यहां से जलमहल भी अच्छा दिख रहा था जो शहर में ही है। कुछ ही मिनटों में ऑटो ने मुझे आमेर छोड़ दिया। कैब से मुझे यहां तक आने के सिर्फ 60 रूपये ही लगे। आमेर किला ऊंचाई पर है इसलिए बाहर से ही किला की बनावट दिखती है। किले को दूर से देखने पर लगता है कि पीले चूने की कलई पुतवा दी हो। लेकिन वो बड़े-बड़े गुंबद मुझे आकर्षित कर रहे थे।


किले तक जाने के लिये पहले आरामबाग जाना पड़ता है। मैं जैसे ही दिल आराम बाग पहुंचा। वहां सैकड़ों की संख्या में कबूतर दाना चुग रहे थे। जब वे एक-साथ जमीं से आसमां की ओर उड़ते वो दृश्य और वो फड़फड़ाहट वाली आवाज ने मेरा मन मोह लिया।  किले तक जाने के लिये बहुत सारी सीढ़ियों को चढ़कर जाना होता है। उन सीढ़ियों से पहले दिल आराम बाग आता है। जहां फूल, क्यारियां और आराम से बैठा जा सकता है। मैं जल्दी किले को घूम लेना चाहता था। मैं जल्दी-जल्दी सीढ़ियां चढ़ने लगा। पूरा रास्ता सैलानियों से भरा हुआ है। सीढ़ियां चढ़ते ही मुझे हाथी दिखाई दिये। हाथियों को रंगों से सजाया हुआ था। जिस पर महावत और कुछ लोग बैठकर मजा ले रहे थे। हाथी लोगों को नीचे से ऊपर ला रहा था। कुछ लोगों के लिये यहां यही रोजी-रोटी का साधन बना हुआ था।

आमेर किला जाने का रास्ता।
कुछ देर बाद मैं एक बड़े-से गेट से किले के अंदर पहुंचा। यहां आकर किला एकदम समतल हो गया था। यहां सब कुछ सपाट था। मैं जिस जगह खड़ा था, वहां ऐसा लग रहा था कि ये किले का आंगन है। वहीं आगे जाने पर टिकट काउंटर मिला। भारतीय पर्यटक के लिये टिकट 100 रूपये का था। लेकिन अगर आप विधार्थी हैं और काॅलेज आईडी है तो टिकट मात्र 10 रूपये का पड़ेगा। मेरे पास कोई आईडी नहीं थी सो मैं 100 रूपये देकर किले की ओर बढ़ गया।

दीवान-ए-आम


आमेर किला जो अंबेर शहर के पास में बसा है। इस बस्ती पर पहले मीणा समुदाओं का राज था। बाद में इस पर राजपूतों ने कब्जा कर लिया। जिसके बाद आमेर किला का निर्माण 1589 में राजा मानसिंह ने शुरू करवाया। उसके बाद अलग-अलग राजा आते रहे और इस किले का निर्माण बढ़ाते रहे। इस किले का पूरा निर्माण 1727 में खत्म हुआ।

किले का प्रथम तल, दीवाने-ए-आम।
मैं किले के पहले तल पर पहुंच गया। जिसे दीवान-ए-आम कहा जाता है। इस जगह पर राजा की सभा होती है। यहां पर राजा प्रजा, अधिकारियों, मंत्रियों से मिला करते थे। दीवाने आम की बनावट बेहद पुरानी लगती है। इसकी छज्जे और दीवारें लाल-बलुआ पत्थर की है और खंभे संगरमर के हैं। जिसकी चमक आज भी बनी हुई है। इस जगह से पहाड़ियां, आमेर सिटी दिखती है। उस दिन शायद यहां  कोई प्रोग्राम था, किले के इस तल पर स्टेज बना हुआ था और बहुत सारी कुर्सियां पड़ी हुई थी। यहीं पर एक बड़ा सा स्नानाघर है जिसे ‘हम्माम’ कहा गया है। जहां पर राजपरिवार स्नान करता था।

किले से दिखता अंबेर शहर।
इसके बाद आगे कुछ सीढ़ियां चढ़ने पर एक और तल आता है ‘दीवाने-ए-खास’। आमेर किले का सबसे ज्यादा आकर्षण का केन्द्र यही है। यहां पर राजा अपने अतिथियों से मिलते थे। इस तल पर शीश महल बना हुआ है। जिसमें कांच से पूरा शीश महल जड़ा हुआ है। इस जगह पर कैमरे से रिकाॅर्डिंग भी होती रहती है। एक गाइड ने बताया कि रानी यहां रात को बहुत सारे दिये रखती थी जिससे ये शीश महल जगमग होने लगता था। दिन की रोशनी में शीश महल इतना सुंदर लग रहा था। तो बस सोचा ही जा सकता है कि रात की जगमग में इस महल की क्या छंटा रहती होगी।

शीश महल के अंदर।
उसी तल पर एक बाग भी बना हुआ है। जो इस जगह को और भी सुंदर बना देता है  महल के बीचों-बीच ये बाग जिसके हर पेड़ की कटाई करीने से की गई है और उसके बीच में  है एक फुव्वारा। ये सब शीश महल की सुंदरता को बढ़ा रहे थे। इस जगह पर बहुत भीड़ थी। इस जगह की खूबसूरती का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि लोग इस जगह पर आकर आगे नहीं बढ़ रहे थे। इसकी सुंदरता देखकर यहीं रूक जा रहे थे।

मानसिंह महल


शीश महल को देखकर मैं आगे बढ़ गया। आगे महल की एक और सुंदरता मेरा इंतजार कर रही थी, मानसिंह महल। यह पूरे किले का सबसे प्रमुख भाग है। महल के बीच में एक प्रांगढ़ है, जिसे कुछ खंभों से एक छज्जे का रूप दिया गया है। उसके चारों तरफ कमरे ही कमरे थे। ऐसे ही कमरों को मैं देख रहा था। दीवारों पर फूल-पत्तियों और कुछ भगवान के चित्र बने हुये थे। यहीं पर राजा, अपनी महारानियों के साथ समय बिताते थे।


उसके बगल में ही ‘जनानी ड्योढ़ी’ है। यहां पर राजपरिवार की महिलायें और दासियां रहती थी। ये कमरे आज भी बहुत सुंदर लग रहे थे। हर कमरे में चित्रकारी और सफाई बहुत थी। कमरों की नक्काशी बेहद महीन और सुंदर है। पूरे महल की नक्काशी अलग-अलग है लेकिन फिर भी बेहद बेहतरीन। इन महलों से राजपूतों की वैभवशाली इतिहास का अनुमान लगाया जा सकता है। मैंने इससे पहले जो महल व किले देखे थे, वे इस किले के सामने बौने थे। शायद इसलिये इतिहास की फिल्मों की शूटिंग के लिये राजस्थान को ही चुना जाता है। जो आज भी अपनी खूबसूरती बरकरार रखे हुये हैं।


मैं किले की छत और छज्जे को देखने लगा। मैं नहीं चाहता था कि कोई आमेर किले का कोई कोना मुझसे छूट जाये। किला पूरा भूलभुलैया की तरह है। आप एक बार जहां से आते हैं उस जगह पर दोबारा नहीं आ सकते। पता ही नहीं चलता, कहां से उपर आयेऔर कहां से नीचे उतरे। किले की सबसे उपरी छत से बाहर पहाड़ ही पहाड़ देख रहे थे और किले की सुरक्षादीवारी। किले को देखने के बाद अब मुझे बाहर निकलना था क्योंकि मुझे जयगढ़ किला और नाहरगढ़ किला भी जाना था। लेकिन नीचे उतरते वक्त मेरी नजर एक जगह पर पड़ी। जहां लिखा था सुरंग में यहां से जाएं।


मैंने देखा नीचे सीढ़िया गईं हुईं हैं लेकिन अंधेरा और शांति मुझे डरा रही थी। एकबारगी मैं पीछे मुड़ा लेकिन फिर हिम्मत करके सीढ़िया उतरने लगा। नीचे उतरते ही कई लोगों की आवाज सुनाई दी और यहां लाईट भी थी। सुरंग वैसी नहीं थी जैसी फिल्मों में दिखती है। सुरंग इतनी उंची और चौड़ी थी कि एक बड़ी गाड़ी आराम से खड़ी हो सकती थी। मैं सुरंग देखकर आगे चल पड़ा। कुछ ही देर में फिर से उन्हीं सीढ़ियों पर था जिसको चढ़कर आमेर किले को देखने आया था। अब रास्ते में लोगों की भीड़ ज्यादा बढ गई थी और रोड पर भी गाड़ियों की आवाजाही भी थी। मैं अब तक एक सुंदर, बेहतरीन और वैभवता का प्रतीक आमेर किले को देख चुका था। मुझे अभी ये शहर और भी बहुत कुछ दिखाने वाला था। अब मेरा अगला पड़ाव था- जयगढ़  और नाहरगढ़।

ये जयपुर यात्रा का पहला भाग है, आगे की यात्रा यहां पढ़ें।