ये जयपुर यात्रा का दूसरा भाग है, पहला भाग यहां पढ़ें।
जयपुर के आमेर फोर्ट को देखकर मेरा मन खुश हो गया था। मैं हमेशा सोचता था कि पहाड़ ही सबसे बेहतरीन जगह होती है। जयपुर के इस किले को देखकर मैं समझ गया था नई जगह, नये विचार देता है। आमेर फोर्ट से बाहर निकलकर मैं वहीं एक चबूतरे पर बैठ गया। तभी पता चला कि अब आमेर किले में जाने नहीं दिया जा रहा है। किले में कोई लिटरेचर फेस्ट है, मुझे दीवाने-ए-आम का स्टेज और कुर्सियां याद आ गईं। मैं खुश था कि मैंने पहले आमेर आने का निर्णय लेकर सही किया था। अब मैं सबसे पहले जयगढ़ की ओर जाना चाहता था।
आमेर किला की सड़कों पर अब भीड़ बढ़ गई थी लेकिन जाम जैसी स्थिति नहीं हुई थी। मैंने कई ऑटो वाले जयगढ़ किले जाने का पूछा, वो तो जाने को तैयार ही बैठे थे। लेकिन उनके रेट पर मैं नहीं जाना चाहता था। मैंने फिर से वही किया कैब ढ़ूढ़ने लगा। कैब में गाड़ी और ऑटो का रेट इस बार बहुत ज्यादा था लेकिन मोटरसाइकिल का रेट सही था। मैंने मोटरसाईकिल बुक की और चल दिया जयगढ़ के रास्ते। जयगढ़ किला, आमेर किले से ऊंचाई पर स्थित है। रास्ते में फिर से वही पहाड़, प्रकृति और संकरी रोड। बस इस रास्ते पर किले की दीवार मिल रही थी जो आमेर किले के चारों तरफ बिछी हुई है। आमेर किले से जयगढ़ किला लगभग 5 किलोमीटर की दूरी पर है।
कुछ ही मिनटों में मोटरसाईकिल से मैं जयगढ़ फोर्ट पहुंच गया। कैब से यहां तक आने का किराया 54 रूपये हुआ। आमेर किला बाहर से पीले रंग का लग रहा था वहीं जयगढ़ किला पूरी तरह से लाल रंग का था। जो बता रहे थे कि लाल बलुआ पत्थर इस किले की पहचान है। यहां भी टिकट की एक छोटी-सी लाइन लगी हुई थी। आम लोगों के लिये टिकट 70 रूपये का था, यहां भी विधार्थियों के लिये डिस्काउंट था। मैं सोच रहा था कि अगर मेरे पास काॅलेज आईडी होती तो जयपुर कितना सस्ता होता।
मैं टिकट लेकर जयगढ़ के बड़े से लाल गेट से अंदर घुसा। अंदर गाड़ियां भी जा रहीं थीं। बस कुछ और पैसे देने थे आपकी गाड़ी किले के अंदर। अंदर घुसते ही फिर एक और वैसा ही दरवाजा मिला। वहां से आगे मैं सीढ़ियां चढ़कर पूरे किले को ऊपर से देखने लगा। मुझे किले में ही एक बहुत बड़ा खंभा दिख रहा था जिस पर झंडा लगा हुआ था। वो तिरंगे जैसा लग रहा था लेकिन तिरंगा नहीं था क्योंकि इस झंडे में चार रंग थे। मैं लाल पत्थरों के इस महल में आगे बढ़ने लगा। दोपहर हो गई थी और धूप गर्मी का एहसास करा रही थी।
जयगढ़ के किले की दीवारों में पुरानापन था जैसे अक्सर पुराने किलों में होता है। दीवारों में दरारें थी और सूखापन। पूरा किला खुला-खुला हुआ था। दरअसल ये किला रहने के लिये नहीं बनवाया गया था। इस किले को राजा जयसिंह ने बनवाया था। इसकी बनावट तो आमेर किले के जैसी ही है लेकिन ये राजा का सैन्य बंकर हुआ करता था। इस जगह पर सेना के शस्त्रागर रखे जाते थे। यहां एक शस्त्रागार वाला कमरा भी हैं जहां आज भी शस्त्र रखे हुये हैं। ये किला आमेर किले से ऊंचाई पर स्थित है। यहां से दूर-दूर तक दुश्मनों पर नजर भी रखी जाती थी और इसे देखकर दुश्मन भी यही सोचती थी कि यही किला है।
किले के बीच में एक झील भी है जिसमें इस समय बहुत कम पानी है। थोड़ा आगे चलने पर मैं उस जगह पहुंचा जो इस किले का सबसे बड़ा आकर्षण का केन्द्र है, तोप। यहां पर एक जयवाण नाम की तोप रखी हुई है जो दुनिया की सबसे बड़ी तोप है। इस तोप को इसी किले में बनाया गया था। इस तोप को महाराजा सवाई जयसिंह द्वितीय ने 1720 ई. में बनवाई। ये तोप इतनी लंबी है कि इसको रखने के लिये एक बड़ा-सी टीन का छज्जा बनाया गया है। इसकी नाल की लंबाई 20 फीट है और 50 टन वजनी है। इसमें से चलाये जाने वाले गोले का वजन 50 किलो है। तोप की मारक क्षमता 22 मील है। जब तोप बनी तभी एक बार इसका ट्रायल किया गया। इसके बाद कभी भी इसके उपयोग की जरूरत नहीं पड़ी।
पूरे किले में इसी जगह पर सबसे ज्यादा भीड़ थी। किसी स्कूल का कोई टूर भी आया था जो एक ही ड्रेस में नजर आ रहे थे। उनके टीचर उनको इस किले और तोप के बारे में बता रहे थे। किले की ये जगह सबसे ऊंची थी यहीं पर कुछ गाड़ियां भी रखी हुईं थीं। किले की खिड़की से जल महल नजर आ रहा था और दूर-दूर तक अरावली की पहाड़ी नजर आ रही थी। तोप को देखने के बाद मैं किले के दीवार के किनारे-किनारे चलने लगा। यहां पर कम भीड़ थी ऐसा लग रहा था कि सब जयगढ़ किले को अंतिम पंक्ति में देखने आते थे। चलते-चलते मैं ऐसी जगह पर पहुंच गया जहां से आमेर किला दिख रहा था। जयगढ़ किले से एक पैदल रास्ता भी गया था जहां से लोग आमेर फोर्ट जा रहे थे। जो भी जयपुर आये उसे पहले जयगढ़ किला आना चाहिये और इस पैदल रास्ते से आमेर फोर्ट जाना चाहिए। इस पैदल रास्ते से समय भी बचेगा और पैसा भी।
जयगढ़ किला ऊंचाई पर स्थित है। यहां से आमेर किला तो दिख ही रहा था। साथ में पूरा शहर तिनके की तरह लग रहा था। दूर-दूर तक छोटे-छोटे सफेद घर और बड़ी-बड़ी पहाड़ी नजर आ रही थी। किला आमेर किले के तरह खूबसूरत न हो लेकिन यहां से बड़ा ही सुंदर व्यू था। जो इस किले को आमेर किले के बराबरी पर खड़ा कर देता था। आगे नीचे उतरने का रास्ता था मैं नीचे उतरकर जलेब चैक की ओर चलने लगा। वहीं फोटोग्राफर लोगों को, बच्चों को राजस्थानी कपड़ों में फोटो क्लिक कर रहे थे और पइसे का खेल खेल रहे थे। ये आपको जयपुर के हर ऐतहासिक जगह पर दिख जायेगा। आगे बढ़ा तो वहां शस्त्रागर भवन दिखा।
शस्त्रागर भवन ज्यादा बड़ा नहीं था लेकिन देखने लायक तो था। यहां पर तलवारें, तोपें, बंदूके और सैनिकों के सुरक्षा कवच रखे हुये हैं। इस शस्त्रागर में जो तोपें रखी हुई हैं उनके नाम भी दिये गये हैं। इसके ठीक बगल पर एक और कमरा है लेकिन वो न भी देखा जाये तो काम चल सकता है। यहां राजस्थानी सामान बेचा जाता है। लेकिन किले के अंदर होने की वजह से हर सामान बहुत महंगा है। इस किले को मैं पूरा देख चुका था। मुझे आमेर फोर्ट तो जाना नहीं था सो मैं उसी रास्ते पर चल पड़ा, जिस रास्ते से आया था। जयगढ़ किला, आमेर किले जितना सुंदर भी नहीं है और ना ही यहां ज्यादा नक्काशी दिखती है। लेकिन इस जगह पर आने के बाद ही आपको आमेर किला जाना चाहिये। इस जगह पर हम उस दौर के शस्त्रों को देख पाते हैं और समझ पाते हैं कि सुरक्षा कितनी महत्वपूर्ण है तब भी और आज भी। जयगढ़ किले को देखने के बाद अब मेरा अगला पड़ाव था- नाहरगढ़ किला।
जयपुर यात्रा का ये दूसरी कड़ी है, आगे की यात्रा यहां पढ़ें।
जयपुर के आमेर फोर्ट को देखकर मेरा मन खुश हो गया था। मैं हमेशा सोचता था कि पहाड़ ही सबसे बेहतरीन जगह होती है। जयपुर के इस किले को देखकर मैं समझ गया था नई जगह, नये विचार देता है। आमेर फोर्ट से बाहर निकलकर मैं वहीं एक चबूतरे पर बैठ गया। तभी पता चला कि अब आमेर किले में जाने नहीं दिया जा रहा है। किले में कोई लिटरेचर फेस्ट है, मुझे दीवाने-ए-आम का स्टेज और कुर्सियां याद आ गईं। मैं खुश था कि मैंने पहले आमेर आने का निर्णय लेकर सही किया था। अब मैं सबसे पहले जयगढ़ की ओर जाना चाहता था।
आमेर किला की सड़कों पर अब भीड़ बढ़ गई थी लेकिन जाम जैसी स्थिति नहीं हुई थी। मैंने कई ऑटो वाले जयगढ़ किले जाने का पूछा, वो तो जाने को तैयार ही बैठे थे। लेकिन उनके रेट पर मैं नहीं जाना चाहता था। मैंने फिर से वही किया कैब ढ़ूढ़ने लगा। कैब में गाड़ी और ऑटो का रेट इस बार बहुत ज्यादा था लेकिन मोटरसाइकिल का रेट सही था। मैंने मोटरसाईकिल बुक की और चल दिया जयगढ़ के रास्ते। जयगढ़ किला, आमेर किले से ऊंचाई पर स्थित है। रास्ते में फिर से वही पहाड़, प्रकृति और संकरी रोड। बस इस रास्ते पर किले की दीवार मिल रही थी जो आमेर किले के चारों तरफ बिछी हुई है। आमेर किले से जयगढ़ किला लगभग 5 किलोमीटर की दूरी पर है।
जयगढ़ किला
कुछ ही मिनटों में मोटरसाईकिल से मैं जयगढ़ फोर्ट पहुंच गया। कैब से यहां तक आने का किराया 54 रूपये हुआ। आमेर किला बाहर से पीले रंग का लग रहा था वहीं जयगढ़ किला पूरी तरह से लाल रंग का था। जो बता रहे थे कि लाल बलुआ पत्थर इस किले की पहचान है। यहां भी टिकट की एक छोटी-सी लाइन लगी हुई थी। आम लोगों के लिये टिकट 70 रूपये का था, यहां भी विधार्थियों के लिये डिस्काउंट था। मैं सोच रहा था कि अगर मेरे पास काॅलेज आईडी होती तो जयपुर कितना सस्ता होता।
मैं टिकट लेकर जयगढ़ के बड़े से लाल गेट से अंदर घुसा। अंदर गाड़ियां भी जा रहीं थीं। बस कुछ और पैसे देने थे आपकी गाड़ी किले के अंदर। अंदर घुसते ही फिर एक और वैसा ही दरवाजा मिला। वहां से आगे मैं सीढ़ियां चढ़कर पूरे किले को ऊपर से देखने लगा। मुझे किले में ही एक बहुत बड़ा खंभा दिख रहा था जिस पर झंडा लगा हुआ था। वो तिरंगे जैसा लग रहा था लेकिन तिरंगा नहीं था क्योंकि इस झंडे में चार रंग थे। मैं लाल पत्थरों के इस महल में आगे बढ़ने लगा। दोपहर हो गई थी और धूप गर्मी का एहसास करा रही थी।
जयगढ़ के किले की दीवारों में पुरानापन था जैसे अक्सर पुराने किलों में होता है। दीवारों में दरारें थी और सूखापन। पूरा किला खुला-खुला हुआ था। दरअसल ये किला रहने के लिये नहीं बनवाया गया था। इस किले को राजा जयसिंह ने बनवाया था। इसकी बनावट तो आमेर किले के जैसी ही है लेकिन ये राजा का सैन्य बंकर हुआ करता था। इस जगह पर सेना के शस्त्रागर रखे जाते थे। यहां एक शस्त्रागार वाला कमरा भी हैं जहां आज भी शस्त्र रखे हुये हैं। ये किला आमेर किले से ऊंचाई पर स्थित है। यहां से दूर-दूर तक दुश्मनों पर नजर भी रखी जाती थी और इसे देखकर दुश्मन भी यही सोचती थी कि यही किला है।
जयवाण तोप
किले के बीच में एक झील भी है जिसमें इस समय बहुत कम पानी है। थोड़ा आगे चलने पर मैं उस जगह पहुंचा जो इस किले का सबसे बड़ा आकर्षण का केन्द्र है, तोप। यहां पर एक जयवाण नाम की तोप रखी हुई है जो दुनिया की सबसे बड़ी तोप है। इस तोप को इसी किले में बनाया गया था। इस तोप को महाराजा सवाई जयसिंह द्वितीय ने 1720 ई. में बनवाई। ये तोप इतनी लंबी है कि इसको रखने के लिये एक बड़ा-सी टीन का छज्जा बनाया गया है। इसकी नाल की लंबाई 20 फीट है और 50 टन वजनी है। इसमें से चलाये जाने वाले गोले का वजन 50 किलो है। तोप की मारक क्षमता 22 मील है। जब तोप बनी तभी एक बार इसका ट्रायल किया गया। इसके बाद कभी भी इसके उपयोग की जरूरत नहीं पड़ी।
पूरे किले में इसी जगह पर सबसे ज्यादा भीड़ थी। किसी स्कूल का कोई टूर भी आया था जो एक ही ड्रेस में नजर आ रहे थे। उनके टीचर उनको इस किले और तोप के बारे में बता रहे थे। किले की ये जगह सबसे ऊंची थी यहीं पर कुछ गाड़ियां भी रखी हुईं थीं। किले की खिड़की से जल महल नजर आ रहा था और दूर-दूर तक अरावली की पहाड़ी नजर आ रही थी। तोप को देखने के बाद मैं किले के दीवार के किनारे-किनारे चलने लगा। यहां पर कम भीड़ थी ऐसा लग रहा था कि सब जयगढ़ किले को अंतिम पंक्ति में देखने आते थे। चलते-चलते मैं ऐसी जगह पर पहुंच गया जहां से आमेर किला दिख रहा था। जयगढ़ किले से एक पैदल रास्ता भी गया था जहां से लोग आमेर फोर्ट जा रहे थे। जो भी जयपुर आये उसे पहले जयगढ़ किला आना चाहिये और इस पैदल रास्ते से आमेर फोर्ट जाना चाहिए। इस पैदल रास्ते से समय भी बचेगा और पैसा भी।
जयगढ़ किला ऊंचाई पर स्थित है। यहां से आमेर किला तो दिख ही रहा था। साथ में पूरा शहर तिनके की तरह लग रहा था। दूर-दूर तक छोटे-छोटे सफेद घर और बड़ी-बड़ी पहाड़ी नजर आ रही थी। किला आमेर किले के तरह खूबसूरत न हो लेकिन यहां से बड़ा ही सुंदर व्यू था। जो इस किले को आमेर किले के बराबरी पर खड़ा कर देता था। आगे नीचे उतरने का रास्ता था मैं नीचे उतरकर जलेब चैक की ओर चलने लगा। वहीं फोटोग्राफर लोगों को, बच्चों को राजस्थानी कपड़ों में फोटो क्लिक कर रहे थे और पइसे का खेल खेल रहे थे। ये आपको जयपुर के हर ऐतहासिक जगह पर दिख जायेगा। आगे बढ़ा तो वहां शस्त्रागर भवन दिखा।
शस्त्रागर भवन ज्यादा बड़ा नहीं था लेकिन देखने लायक तो था। यहां पर तलवारें, तोपें, बंदूके और सैनिकों के सुरक्षा कवच रखे हुये हैं। इस शस्त्रागर में जो तोपें रखी हुई हैं उनके नाम भी दिये गये हैं। इसके ठीक बगल पर एक और कमरा है लेकिन वो न भी देखा जाये तो काम चल सकता है। यहां राजस्थानी सामान बेचा जाता है। लेकिन किले के अंदर होने की वजह से हर सामान बहुत महंगा है। इस किले को मैं पूरा देख चुका था। मुझे आमेर फोर्ट तो जाना नहीं था सो मैं उसी रास्ते पर चल पड़ा, जिस रास्ते से आया था। जयगढ़ किला, आमेर किले जितना सुंदर भी नहीं है और ना ही यहां ज्यादा नक्काशी दिखती है। लेकिन इस जगह पर आने के बाद ही आपको आमेर किला जाना चाहिये। इस जगह पर हम उस दौर के शस्त्रों को देख पाते हैं और समझ पाते हैं कि सुरक्षा कितनी महत्वपूर्ण है तब भी और आज भी। जयगढ़ किले को देखने के बाद अब मेरा अगला पड़ाव था- नाहरगढ़ किला।
जयपुर यात्रा का ये दूसरी कड़ी है, आगे की यात्रा यहां पढ़ें।