Saturday, 2 April 2022

देवप्रयाग: सुंदरता का पर्याय है नदी किनारे बसा ये पहाड़ी शहर

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जब आपका अपना शहर आपको जकड़ने लगे और जिंदगी सुईयों पर चलने लगे तो तब आपको घूमने निकल जाना चाहिए। मैं अपने शहर को जकड़ने का वक्त ही नहीं देता हूं और एक नई जगह पर निकल जाता हूं। हर घूमने वाले की अपनी कहानी होती है। उस कहानी में कुछ शहर प्लानिंग का हिस्सा होते हैं और कुछ जगहें बस हिस्सा बन जाती है। मैं अपनी घुमक्कड़ी की कहानी में देवप्रयाग को लेनी की बड़ी तमन्ना थी। तुंगनाथ की यात्रा के बाद से मैं इस शहर को अच्छे से जानना चाहता था।

26 फरवरी 2022 को सुबह 6 बजे हम अपने सामान के साथ होटल के बाहर खड़े थे। होटल वाले ने बताया कि देवप्रयाग के लिए बस यहीं से निकलेगी। ऋषिकेश सुबह-सुबह शांत और खूबसूरत लग रहा था। चाय की एक दुकान भी खुली हुई थी, जहां कुछ लोग चाय पी रहे थे। कुछ ही मिनटों में देवप्रयाग वाली बस आ गई और हम देवप्रयाग के सफर पर निकल पड़े। बस अपनी रफ्तार से बड़ी जा रही थी। जैसे-जैसे हम बढ़ रहे थे, खूबसूरत नजारे देखने को मिल रहे थे।

खूबसूरत सफर

बस में ज्यादा लोग नहीं थे। कुछ देर बाद हरे-भरे पहाड़ों पर धूप दिखने लगी थी। मैं इस रास्ते से पहले भी गया हूं लेकिन अब रोड काफी चौड़ी कर दी गई थीं। खिड़की खोलने पर ठंडी हवा का झोंका आ रहा था। कुछ देर बाद हमें नीचे घाटी में गंगा नदी दिखने लगी। हरे-भरे पहाड़ों के बीच नदी भी हरी दिखाई दे रही थी। पहाड़ का सफर खूबसूरत होता है। हर एक मोड़ के बाद नजारे कुछ अलग दिखाई देते हैं।

आगे बढ़े तो पहाड़ों के ऊपर तैरते हुए बादल दिखाई दे रहे थे। मुझे पहाड़ों में तैरते हुए बादलों को देखना अच्छा लगता है। धूप तेज हो गई थी लेकिन खिड़की खोलने पर सर्द हवा में कमी नहीं आई थी। आधे सफर के बाद गाड़ी एक ढाबे पर रूकी। हमने यहां कुछ खाया तो नहीं लेकिन टॉयलेट जरूर गये। कुछ देर बाद बस फिर से देवप्रयाग के रास्ते पर चल पड़ी।

देवप्रयाग

जैसे-जैसे देवप्रयाग पास आता जा रहा था, नदी की धार भी तेज दिखने लगी थी। कुछ देर बाद देवप्रयाग दिखने लगा था। हमने ऊपर से संगम भी दिखा। हमें लगा कि ड्राइवर बस को खुद से देवप्रयाग में रोकेगा लेकिन ऐसा हुआ नहीं। बस देवप्रयाग से आगे निकल आई। मैंने आगे जाकर बस रूकवाई और नीचे उतरे। हमें देवप्रयाग से 1 किमी. आगे आ चुके थे।

अपना बैग पीठ पर उठाया और पैदल चल पड़े देवप्रयाग की तरफ। कुछ देर बाद हम देवप्रयाग की रोड पर थे। अब हमें एक ठिकाना चाहिए था जहां हम सामान रख सकें और आज रूक भी सकें। बात करने पर पता चला कि देवप्रयाग के अंदर एक गेस्ट हाउस है। हमने नीचे का रास्ता ले लिया। रास्ते में छोटी-छोटी कई दुकानें थीं जिसमें जरूरत का सामान मिल जाएगा।

पुल के उस तरफ

कुछ ही दूर चलने पर हमें एक पुल मिला लेकिन गेस्ट हाउस पुल के इसी तरफ था। गेस्ट हाउस के लिए हमें कई सारी सीढ़ियां चढ़नी थीं। हम कुछ सीढ़ियां चढ़ते और गंगा के खूबसूरत नजारे को देखने लगते। नदी की आवाज बहुत तेज थी। कुछ देर बाद हमें एक गेस्ट हाउस दिखाई दिया। हमें उसी गेस्ट हाउस में एक सस्ता-सा कमरा मिल गया। हमने वहां सामान रखा और देवप्रयाग शहर को देखने के लिए निकल पड़े।

हम सबसे पहले मुख्य सड़क पर गये और नाश्ते में परांठे खाए। इसके बाद हम फिर से पुल के इस तरफ खड़े थे और इस बार हमें पुल को पार भी करना था। असली देवप्रयाग पुल के इस पार ही था। ऋषिकेश के राम झूला और लक्ष्मण झूला की तरह बने इस पुल पर लोगों की भीड़ नहीं थी। स्थानीय लोग पुल को पार कर रहे थे और हम भी। इन छोटे शहरों को देखना अपने आप में खास होता है। पुल पार करने के बाद हम देवप्रयाग की गलियों में थे। लोग रोजाना की जिंदगी में लगे हुए थे और हम शहर को देखने में लगे हुए थे।

संगम

आगे बढ़ने पर संगम का बोर्ड दिखाई दिया। हम नीचे की तरफ चल पड़े। यहां से अलकनंदा को बहते हुए देखना किसी सपने के पूरे होने से कम नहीं था। नदी की तेज आवाज और चारों तरफ पहाड़ इस जगह को शानदार बना रहे थे। इसके बाद हम उस जगह पर गए, जिसके लिए देवप्रयाग पूरी दुनिया में लोकप्रिय है। अलकनंदा और भागीरथी का संगम।

देवप्रयाग में अलकनंदा और भागीरथी का संगम होता है। दोनों नदियों में अंतर साफ-साफ समझ में आता है। दोनों नदियों के संगम से गंगा नदी बनती है जो आगे ऋषिकेश और हरिद्वार जाती है। संगम घाट पर दो गुफायें भी हैं। नदी में पैर डाला तो ठंडे पानी ने शरीर से जान ही निकाल दी। मुझे नदी में पैर डालने में दिक्कत हो रही थी और लोग रस्सी पकड़ कर डुबकी पर डुबकी लगाये जा रहे थे।

रघुनाथ मंदिर

रघुनाथ मंदिर।
हम वापस जाने लगे तो एक बाबा मिल गये और खुद से ही इस जगह की कहानी बताने लगे। बाद में उन्होंने पैसे मांगे और मैंने खुद को स्टूडेंट बताया तो उन्होंने नहीं लिये। उन्होंने ही रघुनाथ मंदिर जाने को कहा। हम फिर से देवप्रयाग की गलियों में थे। पूछते-पूछते हम उस जगह पर पहुंच गये, जहां से हमें 100 से ज्यादा सीढ़ियां चढ़नी थी। कुछ देर बाद हम मंदिर के अंदर थे।

रघुनाथ मंदिर में भगवान राम की पूजा होती है। हजारों साल पुराने इस  मंदिर में काफी शांति थी। संगम को छोड़ दिया जाए तो देवप्रयाग में घूमने वाले कम ही लोग मिले। मंदिर में कई सारे बंदर दिखाई दे रहे थे और मंदिर के बाहर कुछ बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे। हमने मंदिर के दर्शन किये और कुछ मिनट वहीं बैठ गये। इसके बाद हम देवप्रयाग को देखने के लिए आगे बढ़ गये।

देवप्रयाग की गलियों में

इसके बाद हम देवप्रयाग शहर को देखने के लिए एक बार फिर से गलियों में चल रहे थे। हमें एक मिठाई की दुकान दिखाई जिसमें बाल मिठाई रखी हुई थी। कॉलेज के दिनों में मुकेश सर अल्मोड़ा से हमारे लिए बाल मिठाई जरूर लाते थे। तब से हमें बाल मिठाई खास पसंद थी। देवप्रयाग में हमने बाल मिठाई ले ली लेकिन वो वाला स्वाद नहीं मिला।

रास्ते में हमें फिर से एक और पुल मिला। मुझे शहर में एक घंटा घर दिखाई दे रहा था लेकिन मेरी दोस्त वहां जाने से मना कर रही थी। मैं उसे वहां जबरदस्ती ले गया। वहां गये तो पता चला कि जेसीबी ने किसी वजह से रास्ता तोड़ दिया। हम वहीं नदी किनारे बैठे रहे। दोस्त ने यहां से वापस लौटने को कहा लेकिन मैंने आगे चलने को कहा। काफी बहस के बाद हम मेरे कहे रास्ते पर बढ़ गये।

कुछ देर बाद हम मुख्य सड़क पर आ गये थे और शहर से कुछ किलोमीटर दूर भी। इस वजह से दोस्त के चेहरे पर गुस्सा साफ दिख रहा था। कड़ी धूप में आधा घंटा चलने के बाद हम देवप्रयाग पहुंचे। यहां से संगम का नजारा और भी खूबसूरत लग रहा था। पूरा देवप्रयाग शहर घूमने के बाद हमने खाना खाया और फिर कमरे पर लौट आये। शाम को मैं अपने वर्क फ्रॉम होम में लग गया और रात तक यही क्रम चलता रहा।

रात में देवप्रयाग।
रात में जब मैं सोने जा रहा था तो बाहर आकर देखा कि देवप्रयाग रात में भी चमक रहा था। कमरे तक नदी की आवाज साफ-साफ सुनाई दे रही थी। ये आवाज किसी संगीत से कम नहीं थी। देवप्रयाग शहर की यात्रा काफी शानदार रही थी। इस जगह को देखने के बाद मैं ऐसे ही पहाड़ी शहरों में बार-बार चाना चाहता हूं। अगली सुबह हमें फिर से एक नये सफर पर निकलना था।

Friday, 25 March 2022

ऋषिकेश: इस शहर में बार-बार आना, मेरी यात्रा में लगा देता है चार चांद

यात्रा में कुछ जगहें ऐसी होती हैं जहां कितनी ही बार जाओ अच्छा लगता है। वहां की गलियां, दुकानें और जगहें सब कुछ आपको पता होता है लेकिन फिर भी वहां जाकर अच्छा लगता है। ऋषिकेश मेरे लिए ऐसी ही एक जगह है। मैं ऋषिकेश इतनी बार जा चुका हूं कि कितनी बार गया हूं, ये मुझे खुद पता नहीं है। मैं 3 साल से उत्तराखंड नहीं गया था जिसका मुझे बुरा लगता है। कोरोना और फिर दूसरी वजहों से ऋषिकेश जाना हो ही नहीं पा रहा था। आखिरकार उत्तराखंड जाना तय हो गया और सबसे पहले पहुंचना था, ऋषिकेश।

25 फरवरी 20222। यही वो तारीख थी जिस दिन मैं अपने एक दोस्त के साथ रात 9 बजे प्रयागराज जंक्शन से दिल्ली जाने वाली ट्रेन में बैठ गया। खाना ट्रेन में चढ़ने से पहले ही खा लिया था इसलिए अब ट्रेन में अपनी सीट पकड़कर नींद की आगोश में जाना था। काफी देर तक मोबाइल चलाने के बाद नींद आ ही गई। सुबह जब नींद खुली तो ट्रेन फरीदाबाद पार कर चुकी थी। कुछ देर बाद हम नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर थे।

दिल्ली

दिल्ली में हल्की-हल्की बारिश हो रही थी। हमें यहां से आईएसबीटी जाना था। मेट्रो स्टेशन के बाहर इतनी लंबी लाइन थी कि दिमाग ही चकरा गया। रेलवे स्टेशन से बाहर निकलकर आईएसबीटी जाने वाले ई-रिक्शा पर बैठ गये। सुबह-सुबह दिल्ली में उतनी भीड़ नहीं होती। खाली सड़कों से गुजरते हुए कुछ देर में हम आईएसबीटी पहुंच गये। आईएसबीटी के बाहर काफी संख्या में महिलाएं नारे लगा रहीं थीं। वो आने-जाने वाले लोगों को पर्चा दे रहीं थी। उसी पर्चे से पता चला कि आंगनवाड़ी कार्यकर्ता वेतन वृद्धि की मांग के लिए हड़ताल पर बैठी हैं।

कुछ देर में हम ऋषिकेश जाने वाली रोडवेज बस में बैठे थे। मैं दिल्ली से उत्तराखंड ज्यादातर बस से ही गया हूं। कुछ देर बाद बस चल पड़ी। काफी देर तक हम दिल्ली में ही रहे और फिर उत्तर प्रदेश में प्रवेश कर गये। दिल्ली से पास होने की वजह से गाजियाबाद से लेकर कुछ शहर दिल्ली जैसे ही दिखाई देते हैं। बारिश अभी भी हल्की-हल्की हो रही थी। एक जगह जाकर बस रूक गई। आगे लंबा जाम लगा था। मैं नीचे उतरकर काफी आगे गया तो देखा कि ब्रिज का कुछ काम हो रहा है। कुछ देर बाद गाड़ियां आगे बढ़ने लगीं और मैं वापस बस में बैठ गया।

कब आएगी मंजिल?

रुड़की।
दिल्ली से उत्तराखंड बस जाये और किसी हाईवे वाले ढाबे पर न रूके, ऐसा तो हो ही नहीं सकता। हमारी बस भी ढाबे पर रूकी। इन ढाबों पर सारा सामान बहुत महंगा रहता है। कुछ देर बाद बस फिर से चल पड़ी। कुछ देर बाद रूड़की आया। रूड़की से ही उत्तराखंड शुरू हो जाता है। रास्ते में बाबा रामदेव वाला विशाल पतंजलि भी दिखाई देता है। इन तीन सालों में पतंजलि का परिसर काफी फैल गया था। कुछ देर बाद बस हरिद्वार पहुंच गई।

हरिद्वार वो शहर है जहां मैंने अपनी जिंदगी के शानदार 3 साल गुजारे। न बस की मंजिल हरिद्वार थी और न ही हमारी मंजिल हरिद्वार थी। बस हरिद्वार के बस स्टैंड से ऋषिकेश के लिए बढ़ गई। जैसे-जैसे बस आगे बढ़ रही थी हरिद्वार मे बहुत कुछ बदला-बदला दिख रहा था। हरिद्वार में सड़कें बहुत चौड़ी हो गईं थीं और ऊपर से ब्रिज भी बन रहा था। हरिद्वार से ऋषिकेश के बीच में दोनों तरफ घना जंगल देखने को मिलता है। रोड किनारे जंगली जावनरों से सावधान रहने का बोर्ड भी लगा हुआ था।

ऋषिकेश

लगभग घंटे भर बाद हम ऋषिकेश बस स्टैंड पर थे। ऋषिकेश में हल्की-हल्की बारिश हो रही थी। अब हमें एक सस्ता और टिकाऊ होटल लेना था। हमने वहां से लक्ष्मण झूला के लिए ऑटो ली। राम झूला को पार करने के बाद हम लक्ष्मण झूला पहुंच गये। हम पैदल-पैदल ही होटल की खोज में निकल पड़े। कुछ होटलों को देखने के बाद एक होटल में हमें अपने बजट में कमरा मिल गया। हमने सामान रखा और फ्रेश होकर जैसे ही बाहर जाने लगे तो देखा कि बाहर बहुत तेज बारिश हो रही थी।

बारिश देखकर लगा रहा था कि बारिश जल्दी नहीं रूकने वाली है और हमें आज का दिन कमरे में ही बिताना पड़ेगा। हमें अगले दिन किसी और जगह के लिए निकलना था। हमारे पास ऋषिकेश घूमने का आज का ही दिन था। हमारी किस्मत अच्छी थी, कुछ देर में बारिश रूक गई। हम भी बाहर ऋषिकेश की सड़कों पर बाहर निकल आए। बारिश की वजह से ऋषिकेश गीला-गीला हो गया था। हम लक्ष्मण झूला को देखने के लिए चल पड़े। चलते-चलते और बातें करते हुए लक्ष्मण झूला पहुंच गये।

लक्ष्मण झूला

लक्ष्मण झूले पर काफी भीड़ थी, लग रहा था कि बंदे के ऊपर बंदा है। हम भी उसी भीड़ का हिस्सा हो लिए। बारिश की वजह से ऋषिकेश का मौसम काफी शानदार था। झूला झूले की तरह हिल रहा था। लक्ष्मण झूला को पार करके हम दूसरी तरफ पहुंच गये। हम पैदल-पैदल चलते जा रहे थे और कुछ-कुछ जगहों पर ऋषिकेश को अपने मोबाइल के कैमरे में कैद भी कर रहे थे। अब हमें पैदल-पैदल ही राम झूला तक जाना था।

रोड से लक्ष्मण झूला से राम झूला दूर लगता है लेकिन पुल के दूसरी तरफ से कुछ ही मिनटों में राम झूला तक पहुंचा जा सकता है। हम भी उसी रास्ते पर आगे बढ़ते जा रहे थे। इस रास्ते पर भी बहुत भीड़ थी और गाड़ियों की वजह से जाम भी लग रहा था। कुछ आगे चलने पर अचानक फिर से तेज बारिश हो गई। बारिश से बचने के लिए हम एक झोपड़ी के नीचे छिप गये। बारिश धीमी होने पर हम फिर से आगे बढ़ चले। कुछ देर बाद राम झूला की सड़क पर थे। राम झूला से पहले ही हम नीचे उतरकर गंगा किनारे पहुंच गये।

राम झूला

गंगा किनारे की रेत पूरी तरह से सफेद है जो इस जगह को और भी शानदार बनाती है। गंगा में रिवर राफ्टिंग हो रही थी और उनमें बैठे लोग चिल्ला रहे थे। बारिश की वजह से हवा तेज चल रही थी और ठंड भी लग रही थी। काफी देर बाद यहीं बैठे रहे। शाम होने पर राम झूला की लाइट जल गई। राम झूला सुंदर लग रहा था। हम राम झूला को पार करके दूसरी तरफ गये। मुख्य सड़क पर चलते हुए मोमोज का ठेला लगा हुआ था, हमने मोमोज खाए और वापस राम झूला की तरफ चल पड़े।

अंधेरा हो चुका था। अब हमें खाना खाना था और फिर लक्ष्मण झूला की तरफ अपने कमरे पर भी तो जाना था। हम राम झूला पार करके चोटीवाला होटल गये और खाना खाया। उसके बाद वापस लक्ष्मण झूला की तरफ चल पड़े। ठंडी-ठंडी हवा के झोंके के बीच हम आगे बढ़ते हुए लक्ष्मण झूला और फिर होटल पहुंचे। हम जल्दी ही सो गये। थकान तो कुछ ज्यादा नहीं हुई थी लेकिन अगली सुबह फिर हमें एक नये सफर पर निकलना था।

Saturday, 19 February 2022

चंदेरी 2: बावड़ियों के इस शहर में मैंने खूब सारे महल और किले देखे

यात्रा का पिछला भाग यहां पढ़ें।

चंदेरी मध्य प्रदेश के अशोक नगर जिले का एक छोटा-सा शहर है। किसी भी नई जगह पर होना एक अलग ही एहसास देता है। वैसा ही एहसास चंदेरी में भी हो रहा था। लगभग 1 घंटे बाद नींद टूटी। पहले तो मन किया कि लेटा रहता हूं फिर सोचा लेटकर क्या ही करना है? इस शहर को थोड़ा-बहुत देख लेते हैं। बादल महल पास में है तो वहीं से शुरू करता हूं। बादल महल का टिकट 25 रुपए का लिया और अंदर चला गया। बादल महल में महल जैसा कुछ नहीं है। बादल महल का पूरा परिसर हरा-भरा है और एक बड़ा-सा गेट बना हुआ है। पहले दूर से देखता हूं और फिर पास से देखता हूं।


बादल महल में बने 100 फुट ऊंचे इस दरवाजे को 15वीं शताब्दी में मालवा के राजा महमूद शाह खिलजी ने अपनी विजय की याद में बनवाया था। गेट की नक्काशी शानदार है। गेट के पीछे पहाड़ी पर किला दिखाई देता है। उसे देखने के लिए जैसे ही बाहर निकलता हूं। टिकट घर से आवाज आती है। मैं पास जाता हूं तो कैमरा देखकर 25 रुपए का टिकट लेने के लिए कहता है। 

बादल महल का गार्ड कहता है कि चंदेरी में यहीं पर टिकट बनता है। यहाँ टिकट लेने का बाद म्यूजियम को छोड़कर कहीं और टिकट नहीं लेना पड़ता है। म्यूजियम में अलग से टिकट लेना पड़ता है। 25 रुपए का टिकट लेता हूं और किला का शॉर्टकट रास्ता पूछकर आगे बढ़ जाता हूं। पास में जामा मस्जिद है तो पहले वो देखने के लिए बढ़ जाता हूं।

जामा मस्जिद


जामा मस्जिद बाहर से काफी खूबसूरत लग रही थी। नक्काशी देखकर मन खुश हो गया। मस्जिद के अंदर गया तो बड़ा-सा बरामदा और एक पुराना पेड़ लगा हुआ था। पेड़ के पीछे तीन बड़े-बड़े गुंबद दिखाई दे रहे थे जो वाकई में खूबसूरत लग रहे थे। चंदेरी की जामा मस्जिद भारत की एकमात्र बिना मीनार की जामा मस्जिद है। 

मस्जिद में बड़े-बड़े मेहराब, गलियारे और छज्जे हैं। जामा मस्जिद मध्य प्रदेश की सबसे बड़ी मस्जिदों में से एक है। मस्जिद की आर्किटेक्चर और बारीकी नक्काशी को देखकर मैं बाहर निकल आया। मैं बादल महल की दीवार को रखकर आगे बढ़ने लगा। कुछ ही दूर चला था कि कुछ पुरानी-सी इमारत दिखाई दी। जिसके बाहर लिखा था, संत निजामुद्दीन के वंशज की कब्रें। 

कब्रें ही कब्रें

घूमते हुए कभी-कभी ऐसी जगहें मिल जाती हैं जिनके बारे में आपको न तो इंटरनेट पर पता चलता है और न ही वो जगह आपके प्लान में होती हैं। मैं ऐसी ही शानदार जगह को देखने वाला था। अंदर घुसा तो चारों तरफ कब्रें ही कब्रें दिखाई दे रही थीं। अंदर कई मकबरें बने थे जिसके अंदर और बाहर कब्र ही कब्र थीं। 

मकबरों और पत्थरों पर बेजोड़ नक्काशी उकरी हुई थी। मैंने सभी मकबरों को अच्छे से देखा। गुंबदनुमा मकबरे कुछ टूटे हुए भी थे। मकबरों में सुंदर जाली वाली खिड़की भी बनी हुई हैं। 15वीं शताब्दी की बनीं कब्रों को देखकर मैं फिर से चंदेरी की गलियों में था। बादल महल के गॉर्ड ने बताया था कि बादल महल के दीवार को रखकर आप शॉर्टकट रास्ते से किला पहुँच जाएंगे।

चंदेरी किला

लोगों से पूछते हुए आगे बढ़ता गया। कुछ देर बाद एक पुराना सा गेट मिला। जिसके पास में एक बोर्ड पर लिखा हुआ था, केन्द्रीय संरक्षित स्मारक चंदेरी किला। आगे चलने पर  लंबा-सा पथरीला रास्ता दिखाई दिया। किले तक जाने के लिए थोड़ी ऊंची चढ़ाई थी। एक तरफ किला दिखाई दे रहा था और दूसरी तरफ चंदेरी शहर दिखाई दे रहा था। किले से औरतें अपने सिर पर लकड़ियां रखकर नीचे उतर रहीं थीं और मैं ऊपर की ओर जा रहा था। 

शहर से 71 मीटर की ऊंचाई पर एक पहाड़ी पर स्थित है ये किला। 5 किमी लंबी दीवार से घिरे इस किले को 11वीं शताब्दी में राजा कीर्ति पाल ने बनवाया था। 13वीं शताब्दी तक ये किला हिंदू राजाओं के अधीन रहा। 1304 में अलाउद्दीन खिलजी के जनरल आइन-उल-मुल्क ने इस पर कब्जा कर लिया। 1520 में चित्तौड़ के शासक राणा सांगा ने इस पर कब्जा करके मेदिनी राय को सौंप दिया।

इसके बाद 1527 में मुगल शासक बाबर ने चंदेरी के युद्ध में इस पर कब्जा कर लिया। 1540 में ये किला शेरशाह सूरी के अधीन आ गया और उसने सुजात खान को यहां का गवर्नर नियुक्त किया। बाद में चंदेरी किला पर बुंदेलों और सिंधिया राजाओं का शासन रहा। 1944 में चंदेरी अंग्रेजों के अधीन आ गया। किले में जाने के तीन प्रवेश द्वार हैं, हवापुर, खूनी दरवाजा और कट्टी-पट्टी। 

कुछ देर बाद किला का बड़ा-सा गेट दिखाई दिया। अंदर घुसा तो कुछ छोटी-छोटी इमारतें दिखाई दीं। मैं जिस गेट से घुसा था वो किले का पीछे वाला रास्ता था और मैं जिस जगह पर खड़ा था उसे खूनी दरवाजा कहा जाता था। मुझे ये बात उस समय ये बात पता नहीं थी। हम पीछे के रास्ते से आए इसलिए हमें इसके बारे में पता भी नहीं था। कहा जाता है कि यहाँ पर गुनाहकारों को फांसी की सजा दी जाती थी। 

जौहर स्मारक


आगे बढ़ा तो लंबा-सा रास्ता दिखाई दिया। हमें यहीं पर पता चला कि जो जगह अभी देखी है वो खूनी दरवाजा थी। यहाँ पर चंदेरी किले के बारे में लिखा था। मैं अभी मुख्य किले के अंदर नहीं गया था। किले के परिसर से चंदेरी बेहद खूबसूरत दिख रहा था। यहीं पर जौहर स्मारक भी है। कहा जाता है कि 1528 में बाबर ने चंदेरी के राजा मेदनी राय का मार दिया। 

चंदेरी की रानी मणिमाला को ये पता चला कि राजा नहीं रहे। बाबर अपनी सेना के साथ किले में प्रवेश कर रहा है तो 1600 क्षत्राणियों के साथ रानी आग में कूद गईं। उस जौहर की याद में इस स्मारक को बनवाया गया था। जौहर स्मारक के पास में ही संगीत सम्राट वैजू बावरा की समाधि भी है। इसे देखने के बाद किले की मुख्य इमारत की ओर बढ़ गया। 

दिन ढल रहा है!

चंदेरी किले को 11वीं शताब्दी में राजा कीर्ति पाल ने बनवाया था। 1504 में अलाउद्दीन खिलजी के जनरल आइन उल मुल्क ने अपने अधिकार में ले लिया। 1520 में चित्तौड़ के राजा राणा सांगा ने इस पर कब्जा किया। बाद में शेरशाह सूरी, बुंदेला और सिंधिया राजाओं के बाद अंग्रेजों के अधीन हो गया।


किले के अंदर घुसा तो बीच में छोटी-सी बावड़ी देखी। किले में बहुत कम लोग थे। ईंटों के इस किले का सबसे खूबसूरत नजारा सबसे ऊंची जगह से दिखाई देता है। इसी किले से मैंने सूरज को डूबते हुए देखा। जब सूरज लाल होकर दूर तलक पहाड़ियों में छिप रहा था और आसमां में लालिमा फैला रहा था। उस समय चंदेरी मुझे और भी खूबसूरत लग रहा था। थोड़ी देर में अंधेरा हो गया। होटल तक पहुँचने में चंदेरी में अंधियारा झुक गया था। कुछ देर चंदेरी की सड़कों पर टहला और फिर से कमरे में वापस आ गया। खाना खाने के बाद बेड पर लेटते ही कब नींद आ गई पता ही नहीं चला। अब बस चंदेरी की सुबह का इंतजार था।

सुबह की सैर

सुबह 7 बजे नींद खुली। जल्दी-जल्दी तैयार होकर चंदेरी की सड़कों पर आ गया। सड़कें सुनसान थीं और दुकानें भी बंद थीं। सबसे पहले मैंने कटी पहाड़ी जाने का मन बनाया। कटी पहाड़ी शहर से थोड़ी दूर थी इसलिए सुबह-सुबह पैदल ही जाने का मन बन लिया। एक जगह चाय मिल रही थी तो चाय और पोहा लिया। दुकानदार ने बातों-बातों में कौशक महल, कटी पहाड़ी और बावड़ियों के बारे में बताया। उन्हों बताया कि कटी पहाड़ी से 2 किमी. दूर एक गांव है, रामनगर। वहाँ भी एक किला है। अब मुझे उसी रास्ते पर दो जगहें देखनी थी।


आगे बढ़ा तो सड़क किनारे एक छत्री दिखाई दी। 12 खंभों पर बनी इस छत्री में दो कब्रें भी बनी हुई हैं। मुगल और बुंदेली शैली में बनी इस छत्री को देखकर आगे बढ़े तो एक और छत्री दिखाई दी। ये पिछली वाली से कुछ बड़ी थी। दोनों छत्रियों का आर्किटेक्चर एक जैसा ही था। छत्रियों में साफ-सफाई की कमी थी। बाकी तो देखने लायक थीं। आगे चलने पर एक चौराहा आया। जहाँ से एक रास्ता कटी पहाड़ी की ओर और दूसरा रास्ता कौशक महल की ओर जाता है। मैं कटी पहाड़ी की ओर चल पड़ा।

कटी पहाड़ी


कटी पहाड़ी की ओर आगे बढ़ा तो मिर्जा खानदान की कब्र दिखाई दी। खेतों और पेड़ों के बीच बनी ये कब्र वाकई में शानदार थी। कब्र पर गंदगी भी बहुत थी और मेहराब में चमगादड़ों का घर भी बना हुआ था। सड़क की दूसरी तरफ एक तालाब मिला। जहाँ एक आदमी किनारे पर मछली पकड़ रहा था और दूसरा व्यक्ति नाव से मछली पकड़कर आया। मछली बड़ी और छोटी दोनों प्रकार की थीं। मुझे मछलियों के बारे में बिल्कुल जानकारी नहीं है।

आगे बढ़ने पर चंदेरी पीछे छूट गया। दोनों तरफ हरियाली और आगे पहाड़ दिखाई दे रहा था। कुछ देर बाद पैदल-पैदल कटी पहाड़ी पहुँच गया। पहाड़ को काटकर रास्ता बनाया गया था और एक बड़ा-सा दरवाजा भी बना हुआ था। 80 फीट ऊंचा, 39 फीट चौड़ी और 192 फीट लंबाई में पहाड़ को काटकर प्रवेश द्वार बनाया गया था। कटी पहाड़ी को 1490 में मालवा के राजा सुल्तान गयासशाह के शासनकाल में जिमन खां द्वारा बनवाया गया था।

रामनगर पैलेस

अब मुझे रामनगर किला जाना था जो लगभग 2 किमी. दूर था। चंदेरी की तरफ से मोटरसाइकिल आई। मैंने रामगर छोड़ने को कहा और वो तैयार हो गया। कुछ ही मिनटों में मैं रामनगर गांव में था। किला गांव को पार करने के बाद था। गांव में पैदल-पैदल चले जा रहा था। लोग अपने कामों में लगे हुए थे। बुंदेलखंड में जिस तरह के गांव होता है, वैसा ही गांव दिखाई दे रहा था।


कुछ देर बाद मैं एक पुरानी से इमारत के गेट पर खड़ा था। रामनगर महल को 1698 में चंदेरी के बुंदेला शासक दुर्जन सिंह ने बनवाया था। बाद में 1925 में ग्वालियर के शासक माधवराव सिंधिया ने इसका जीर्णोद्धार करवाया था। तीन मंजिला महल में घुसा तो पहले तो खूब सारे पेड़ मिले। महल में खूब सारे खंभे हैं। महल के पीछे बना तालाब नजारा खूबसूरत है। तालाब में नावें भी चलती हुई दिख रहीं है।

वापस चंदेरी

महल के दूसरे मंजिल पर बने कमरों में टूटा हुआ सामान बिखरा हुआ है। महल से बाहर निकलकर तालाब किनारे गया। वहाँ बैठे लोगों से नाव की सैर का रेट पूछा तो 100 रुपए बताया और कहा- नाव चलाने वाला आदमी 1 घंटे बाद आएगा। मैं उल्टे पांव लौट गया। अब मुझे वापस चंदेरी जाना था। रामनगर गांव को पैदल ही पैदल पार किया।


कुछ मोटरसाइकिल वाले चंदेरी की ओर गए लेकिन उन्होंने मोटरसाइकिल नहीं रोकी। काफी देर बाद एक व्यक्ति ने मेरे लिए गाड़ी रोक दी। कुछ ही मिनटों में चंदेरी लौट आया। बादल महल पर उतरा और चंदेरी की सड़कों पर चलने लगा। अब भूख लगने लगी थी। एक दुकान पर समोसा और कचौड़ी खाई और फिर एक नई जगह की ओर बढ़ गया। अब मुझे राजा रानी महल देखना था। रास्ते में ढोलिया दरवाजा मिला। मैं फिर से चंदेरी की गलियों में था। काफी चलने के बाद राजा रानी महल आ गया।

राजा रानी महल

राजा रानी महल एक नहीं बल्कि दो महल हैं। राजा महल सात मंजिला की इमारत है जिसमें नक्काशी शानदार है। इस ऊंचे से महल को देखने में मुझे काफी समय लग गया। राजा महल के पास में ही एक छोटा-सा महल है जिसे रानी महल के नाम से जाना जाता है। राजा रानी महल भूलभुलैया की तरह है। किले में बड़े-बड़े आंगन, नक्काशीदार खंभे और खूब सारी सीढ़ियां हैं। सफेद और स्लेटी बलुआ पत्थर से बना ये महल वाकई में खूबसूरत है। 


पास में ही चकला बावड़ी भी थी तो उसको देखने के लिए निकल पड़ा। रास्ते में ऊंट की सार और पुरानी कचहरी मिली। रास्ते में मुझे एक घर में साड़ी बनती हुई दिखाई दी। मैंने उनसे उनको काम को देखने की अनुमति मांगी तो उन्होंने अंदर बुला लिया। नरेन्द्र कोली और उनकी मां अंदर थीं। मां जी ने बताया कि चंदेरी में साड़ियों का ही काम होता है। हम बनाकर दुकानदारों को देते हैं और वे बेचते हैं।

पूछने पर नरेन्द्र कोली ने बताया कि एक साड़ी को तैयार करने में 3-4 दिन लगते हैं। कुछ देर बाद मैं चकला बावड़ी के बाहर था। चकला बावड़ी काफी बड़ी थी और पानी भी काफी था। चंदेरी को बावड़ियों का शहर कहा जाता है। वहीं पर एक आदमी सफाई कर रहा था। उन्होंने बत्तीसी बावड़ी, मूसा और गोल पहाड़ी के बारे में बताया। मैं इन सभी बावड़ियों को देखना चाहता था लेकिन उससे पहले कौशक महल और म्यूजियम देखना जरूरी लग रहा था।

कौशक महल


कटी पहाड़ी की ओर जाने वाले चौराहे से कौशक महल के लिए ऑटो मिल गई। 10 रुपए और कुछ ही मिनटों में कौशक महल पहुँच गया। कौशक महल प्लस के आकार में बना हुआ है और चार बराबर-बराबर खंडों में बंटा हुआ है। अफगान शैली में बने इस महल की तीन मंजिल पूरी बनी हुई हैं और चौथी मंजिल अधूरी है। 15वीं शताब्दी में कौशक महल को मालवा के सुल्तान महमूद शाह खिलजी प्रथम ने जौनपुर विजय के उपलक्ष्य में बनवाया था।

कौशक महल की नक्काशी शानदार है। महल की चारों इमारतें एक जैसी बनी हुई हैं। इतनी ऊंची इमारत का 15वीं शताब्दी में बनना किसी अचंभे से कम नहीं है। ये महल उस समय के आर्किटेक्चर के बारे में बताता है। यहाँ हवा भी काफी चल रही थी और ठंडक भी थी। अब मुझे म्यूजियम देखना था। फिर से एक ऑटो ली और म्यूजियम पहुँच गया।

चंदेरी म्यूजियम


किसी भी नई जगह पर जाओ तो वहाँ के संग्रहालय में जरूर जाना चाहिए। म्यूजियम के लिए 5 रुपए का टिकट लिया और संग्रहालय देखने के लिए चल पड़ा। चंदेरी के संग्रहालय में कई जगहों से स्मारक और मूर्तियां लाई गईं है। इस म्यूजियम को 3 अप्रैल 1999 में लोगों के लिए खोला गया था। 

म्यूजियम में वैष्णव दीर्घा, शैव और बौद्ध दीर्घा हैं। जिसमें बहुत सारी मूर्तियां हैं। इसके अलावी पूरे चंदेरी संग्रहालय परिसर में बेहद पुरानी पुरानी मूर्तियां हैं। पूरे म्यूजियम को देखने में काफी समय लग गया। चंदेरी को पैदल-पैदल घूमते हुए थकान होने लगी थी और पैर भी जवाब देने लगे थे। चंदेरी को अभी भी पूरा नहीं देख पाया। शायद एक बार और इस जगह पर आना पड़ेगा। चंदेरी के बारे में इब्नबतूता ने ठीक ही कहा है, नगर बहुत बड़ा है और बाजारों में हमेशा बहुत भीड़ रहती है।