Wednesday, 4 December 2019

पुष्कर 2ः कुछ जगहें वैसी नहीं होती, जैसा हम सोचते हैं

यात्रा का पहला भाग पढ़ें।

नया शहर, नया पता और नये लोग। हम एक पुराने शहर को छोड़कर एक और पुराने शहर मे आ गए थे। जो हमारे लिए बिल्कुल नया था। नाम सुनकर हर शहर की छवि बन जाती है। मेरे छवि में ये जगह सिर्फ ब्रह्मा मंदिर थी। मुझे इस शहर को पैदल चलकर देखना था। ये मेरा नई जगह को देखने का तरीका है। ऐसा करने से शहर आपको और आप शहर को जानने लगते हैं। हम उसी शहर में पैदल रवाना हो गए।


यहां पहुंचते ही हमें एक ठिकाना ढूढ़ना था। पुष्कर मेले की वजह से सभी होटल, हाॅस्टल बुक थे। उन सबका रेट भी बहुत ज्यादा था। जो आमतौर पर नहीं होता है। ये रेट का बढ़ना पुष्कर मेले की धमक की वजह से थी। किस्मत से हमें एक धर्मशाला मिली, जिसमें हमें एक बड़ा-सा कमरा बजट में मिल गया। हमने सामाना रखा और रवाना हो गए इस शहर को देखने। इस समय ये शहर पुष्कर मेले के लिए फेमस था। इसलिए हम सबसे पहले उस मेले को ही देखना चाहते थे। पुष्कर मेला ऊंटों का एक फेमस मेला है, जिसे हर कोई देखना चाहता है। मैं भी उस मेले को देखने आया था, लेकिन सिर्फ कैमरे की नजर से नहीं कुछ अपनी नजर से। कभी-कभी कैमरा वो नहीं देख पाता, जो हम देख पाते हैं।

पुष्कर की गलियां


हम अपने कमरे से निकले और चल पड़े पुष्कर की गलियों में। हम अभी अपने कमरे से बाहर निकले ही थे। मुझे यहां की गलियां मेले की तरह ही लग रहीं थीं। चारों तरफ दुकानें ही दुकानें थीं। एक तीर्थस्थल और आधुनिकता दोनों ही इन गलियों में चल रही थी। जानें क्यों मुझे यहां की गलियां देखकर हरिद्वार और ऋषिकेश याद आ रहे थे?  कुछ ही दूर आगे चले हमें पुष्कर सरोवर नजर आया। हम उसके अंदर चले गए। कार्तिक महीने में लगने वाले इस मेले में बहुत-से लोग स्नान करने के लिए यहां आते हैं। स्नान करने के लिए दो कुंड बनाए गए हैं। इस समय पुष्कर सरोवर में फोटो खींचना मना भी है, जो सही भी है।

साथ-साथ।

हम नहा चुके थे, इसलिए यहां नहाना कल के लिए टाल दिया। हम फिर से वापस गलियों में आगे बढ़ गए। मुझे ये गलियां बहुत अच्छी लग रही थीं, मैं इनको देखकर खुश हो रहा था। मेरे जेहन में राजस्थान के शहर ऐसे ही दर्ज हैं। लेकिन जब जयपुर गया तो कुछ अलग मिला। अब जब इन गलियों में चल रहा था, तब लगा कुछ तो सच है मेरे जेहन में। पैदल चलना काफी थकान भरा होता है लेकिन ये मुझे काफी सुहाता है। मैं पूरे शहर को पैदल नापता हूं और फटी हुई आंखों से पूरे शहर को देखता हूं। देखता हूं कि ये शहर कैसे उठता है और क्या काम करता है? मैं उन जगहों को खोजता हूं जहां उठकर वे पहली चाय पीते हैं लेकिन हम तो पहुंचे ही दिन में थे। अब हम इस शहर का दिन और शाम देखना चाहते थे।

यहां मुझे पहली बार लग रहा था कि मैं किसी राजस्थानी शहर में हूं। बड़ी-बड़ी मूछें, धोती-कुर्ता और सिर पर पगड़ी दिख ही जा रही थी। पुरूष और महिलाएं दोनों ही अपनी वेशभूषा में नजर आ रहे थे। यहां दुकानों में राजस्थानी कपड़े, जूतियां और ज्वैलरी नजर आ रही थी। गलियों में भीड़ बहुत थी लेकिन फिर भी सब कुछ शांत था। इस भीड़ में शोर नहीं थी, इसलिए ये अच्छी भी लग रही थी। चलते-चलते हम ब्रह्मा मंदिर के सामने आ गए। मुझे ब्रह्मा मंदिर जाना था लेकिन अभी नही, इसलिए आगे बढ़ गए मेले की ओर।

पुष्कर मेला


रास्ते में एक गुमटी मिली, यानि कि चलती-फिरती राजस्थानी चाय। कुल्हड़ में वो चाय मिलती है, काफी बढिया होती है। इतनी अच्छी कि आप तरोताताजा हो जाएं। कुछ देर और चलने के बाद मेला आ गया। मुझे जैसे ही कुछ नया दिखता है, मुझे उसके ओर भागने का मन करता है। मुझे इस मेले की तलाश थी, जहां बहुत कुछ हमारे इंतजार में था। अंदर घुसते ही हमें बड़े-बड़े झूले दिखाई दिए, लेकिन हम झूले के लिए यहां नहीं आए थे। फिर हमारी नजर एक ऊंट-गाड़ी पर पड़ी। ऊंट मेरे बगल से गुजरा। मैं उसके पूरे शरीर को देख रहा था। उसके लंबे-लंबे पैरों को, उसके जुगाली करते लंबे मुंह को। मेरे बगल से ऊंट बारी-बारी से गुजर रहे थे और मैं उनमें कुछ नया खोजने की जुगत में था।

तरोताजा कर देने वाली चाय।

मैं सोचता था कि इस मेले में सिर्फ ऊंट ही ऊंट दिखाई देते हैं लेकिन ऐसा नहीं है। हमें आगे बढ़े तो घोड़े भी दिखाई दिए। ये मेरे लिए आश्चर्य से कम नहीं था। घोड़े भी ऐसे कि देखकर आप खुश हो जाएं। लंबे-उंचे और इतने चमकदार घोड़े मैंने कभी नहीं देखे थे। सफेद और काले घोड़े तो बेमिसाल थे। यहां आपको बहुत सारे घोड़े दिखाई देंगे। जो घोड़े खरीदना चाहते हैं, वो घोड़े यहां खरीदते भी हैं। यहां आपको वो दुकानें भी मिल जाएंगी, जिन पर घोड़े का पूरा सामान मिलता है। ऐसे ही चलते हुए ऊंटों को देखते हुए हमने पूरा मेला देख डाला। मेले में भीड़ थी, लेकिन उतनी नहीं जितनी मैंने सोची थी।

पुष्कर का रेगिस्तान


मेले में चलते-चलते आप एक रोड पर आ जाएंगे। रोड के पार भी आपको ऊंट दिखाई देंगे। यहां ऊंट और लोग अपना टेंट बनाकर रूकते हैं। ये पूरा खाली मैदान है जिस पर सिर्फ ऊंट ही ऊंट दिखाई दे रहे थे। मैं उस जगह को देखना चाहता था, लेकिन शाम होने वाली थी। मैं उस रेत को देखना चाहता था जहां लिए लोग ऊंट-गाड़ी और सफारी से हजार रुपए देकर जा रहे थे। ये लोग बता रहे थे कि वो जगह लगभग 4 किलोमीटर दूर है। हम उस जगह पर पूछते-पूछते पैदल चलने लगे। कुछ देर बाद हम रोड छोड़कर कच्ची सड़क पर जाने लगे।

मेले में ये भी।

हमारे आगे-पीछे बहुत सारी ऊंट-गाड़ी जा रही थी। हम उन्हीं के पीछे-पीछे जाने लगे। रास्ते में मुझे एक बच्चा सारंगी बजाते मिला। मैं वीडियो बनाने लगा तो कुछ राजस्थानी लोग नाचने भी लगे। मैंने उनको उसका मेहनताना दिया और आगे बढ़ गए। रास्ते में मैं सोच रहा था कि ये कला अब इन लोगों की रोजी-रोटी बन गई है। मुझे टूरिस्ट प्लेस की सबसे बड़ी दिक्क्तों में ये भी लगती है। जिनका सामना अभी आगे हमारा होने ही वाला था। हम चलते-चलते काफी आगे आ चुके थे। यहां से हमें एक टीला दिखाई दे रहा था। जहां बहुत सारे ऊंट दिखाई दे रहे थे। हमें शायद वहीं जाना था, लेकिन ये इतना दूर नहीं था कि जिसके लिए ऊंट-गाड़ी या सफारी की जाए। लगभग डेढ़ किलोमीटर के इस रास्ते के लिए एक हजार लेना पूरी तरह से ठगाई थी।

पुष्कर में शाम।

थोड़ी देर में हम उस जगह पर पहुंच गए। यहां जो देखा, वो तो और बुरा था। सफारी लोगों के साथ एक तालाब आकार के गडढे में जाती है और जो तेज स्पीड में आती है। जो कई बार बहुत ज्यादा उछल जाती है। जो जोखिम भरा है, सहायता के लिए यहां कोई एंबुलेंस भी नहीं है। अगर ये एडवेंचर है तो मैं उससे दूर ही रहना पसंद करता हूं। जिस रेगिस्तान के बारे में मैंने सुना था, देखा था। ये वो तो नहीं था। ये तो सिर्फ लाल मिट्टी थी जिसे रेत का नाम दे दिया गया था। थोड़ी देर में हमने सूरज को डूबते देखा, बच्चों के साथ बातें की और वापस चल दिए फिर से मेले की ओर।

रात की रोशनी में मेला


मैंने कई कविताओं में पढ़ा है दिन और रात का अंतर लेकिन कभी समझ नहीं पाया। जब पुष्कर को रात में देखा तो लगा शायद कवि ने इसी जगह पर बैठकर वो कविता लिखी होगी। पुष्कर मेला अब कुछ अलग लगने लगा था। भीड़ भी काफी बढ़ गई थी और चकाचौंध भी ज्यादा थी। ऊंट भी मेले में नहीं दिखाई दे रहे थे, अब दिखाई दे रहे थे तो सिर्फ झूले। बहुत सारे झूलों में से एक में हम भी बैठ गए। इन झूलों को देखकर मुझे अपना बचपन और गांव याद आ जाता है।

मेला की छंटा।

झूले में बैठकर हम बहुत उपर आ गए। जहां से सब कुछ छोटा लग रहा था और दूर-दूर तक चीजें दिख रहीं थी। पुष्कर कितने दूर तक फैला है, ये इस झूले में बैठकर समझ में आया। झूले में बैठकर एक सुकून था कि बहुत दिनों कुछ पुराना किया है। मुझे पुराना बहुत ज्यादा पसंद है, पुराने लोग, पुरानी 
बातें और पुराने गाने, कितना पुराना है न हमारे बीच। सभी लोग बहुत थक चुके थे और तब हमने वो गुमटी वाली चाय पी। हम अब मेले से दूर फिर से पुष्कर की गलियों में थे। इस जगह को देखने का उत्साह भी बना ही हुआ था। कुछ वक्त में ये शहर अपना-सा लगने लगता है, ऐसा ही कुछ अब लगने लगा था। हम इस जगह की गलियों से, दुकानों से रूबरू हो गए थे और हमें इसकी भनक भी नहीं लगी थी।

दाल-बाटी-चूरमा


हम बहुत देर से घूम रहे थे और हमने कुछ नहीं खाया था। मैं नए शहर में नया खाना खाता हूं। यहां का सबसे फेमस व्यंजन है, दाल बाटी चूरमा। जिस जगह पर दाल बाटी चूरमा मिलता है, हम वहां से आगे निकल आए थे। मेरे कुछ साथी थकान की वजह से वापस नहीं जाना चाहते थे, लेकिन मैं जाना चाहता था। मै, अपने दो साथी ब्रम्हा मंदिर के आगे चला तो वहां का नजारा देखकर ही मन खुश हो गया।

लजीज दाल-बाटी-चूरमा।

हम इस जगह से मेले की ओर गए थे, तब हमें ये जगह नहीं दिखाई दी थी। शायद आप जिस चीज को पाना चाहते हो, वो ही आपको दिखाई देती है। यहां लाइन से दाल बाटी चूरमा के ढाबे खुले हुए थे। उनमें से एक में हम बैठ गए। इन सबका सबसे अच्छा नजारा था इनकी रसोई। सभी ढाबों में खाना औरतें बना रहीं थीं। ऐसा मैंने पहली बार देखा था कि औरतें ढाबों में खाना बना रही हैं। मुझे उस थाली के बाद पुष्कर खाने के लिए याद आएगा। वो थाली अब मेरे लिए पुष्कर की थाली में से एक थी। इतना अच्छा दाल बाटी चूरमा कभी नहीं खाया था। उसी स्वाद के साथ हम वापस गए और बिस्तर पर लेटते ही सो गए।

फोटो वाला पुष्कर


सुबह मैं अपने एक साथी के साथ एक बार फिर से पुष्कर मेले के बीच में था। मैं देखना चाहता था कि इन लोगों की सुबह कैसे होती है? मैं रोड पार के वहां पहुंचा, जहां ऊंट ही ऊंट थे। यहां देखा तो स्थानीय लोग कम और कैमरे लिए फोटोग्राफर नजर आ रहे थे। फोटोग्राफर ऊंटों की, यहां के लोगों की फोटो खींच रहे थे। फोटोग्राफर फोटो खींचते वक्त अपनी सारी सीमाएं लांघ रहे थे। वो लोगों की सुबह को कैमरे में तो कैद करना चाह रहे थे, जिससे लोगों को परेशानी भी हो रही थी।


फोटोग्राफर की वजह से ऊंट भी परेशान हो रहे थे। वो उनके आने से बार-बार उठ खड़ हो रहे थे। एक तस्वीर इवेंट बन जाने की थी तो एक दूसरी तस्वीर भी थी। सोशल मीडिया पर हम जो फोटो खींचते हैं तो ऐसा लगता है कि सच में ऐसा होता है। यहां आकर मुझे पता चला कि बहुत कुछ होता नहीं, बनाया जाता है। कुछ लोग पूरे स्थानीय पोज में इसलिए बैठे रहते हैं क्योंकि वो चाहते हैं कि फोटोग्राफर उनकी फोटों खींचे और उन्हें पैसे मिले। यहां के बच्चे भी जानते हैं कि फोटो के पैसे लेने है। उनकी जो फोटो खींचते हैं, वो उनसे उसके पैसे लेते हैं। फोटोग्राफर उनसे कई पोज देने को कहते हैं। इन सबके बाद आपके पास सोशली मीडिया पर हैशटेग पुष्कर मेले की तस्वीर आती है।

इस इवेंट को देखने के बाद हम पुष्कर सरोवर के ताजे पानी में नहाए और ब्रम्हा मंदिर गए। ब्रम्हा मंदिर को देखते ही कोलकाता का कालीघाट मंदिर याद आ गया। वैसी ही इसकी बनावट है और वैसे ही यहां भीड़ है। उस भीड़ में चलते हुए आप कुछ पल के लिए ब्रम्हाजी के दर्शन करते हैं और आगे बढ़ जाते हैं। वैसा ही हमने किया और वापस आ गए अपने कमरे पर। हमने सामान उठाया और इस शहर को अलविदा कहने के लिए निकल पड़े। जिन जगहों का आप बहुत गुणगान करते हो, वो शहर कभी-कभी आपको वैसा नही मिलता है। पुष्कर के लिए भी मैं यही कह सकता हूं। मैंने इसी भारीपन के साथ इस शहर को अलविदा कहा और निकल पड़ा एक नए सफर के लिए।

Sunday, 1 December 2019

पुष्कर: अनुभवों से भर देती हैं ऐसी यात्राएं

लोगों की भीड़ में खुद को अकेला पाना हमेशा बुरा नहीं होता। किसी जगह को पैदल नापते समय मैं अक्सर अकेला ही होता हूं। लेकिन वो अकेलापन मुझे बहुत कुछ सिखाता है। खुद से मिलना, एक जगह को अच्छे से जानना, यही सब होता है मेरे अकेले होने में। अकेले घूमने का ये मतलब नहीं है कि किसी से बात न की जाए। मुझे उन लोगों पर बहुत आश्चर्य होता है जो बस यात्रा करते हैं। यात्रा करते समय आप इतने लोगों से मिलते हैं तो उनसे बात जरूर कीजिए। ये अनुभव ही आपके सफर को बेहद खूबसूरत बनाते हैं। मैं अभी घूम रहा हूं कभी पहाड़ों में तो कभी मैदानों में। इस बार मैं निकल पड़ा था राजस्थान की खूबसूरती देखने।


राजस्थान के नाम पर मैंने पहले सिर्फ जयपुर ही देखा था। वो मेरी पहली सोलो ट्रिप थी। उसके बाद मेरा राजस्थान जाना हो ही नहीं पाया। जब मुझे पुष्कर मेला के बारे में पता चला तो मैंने जाने का प्लान बना लिया। तारीख थी 8 नंवबर 2019, जाने से कुछ घंटे पहले मैंने अपने दोस्तों को इस सफर के बारे में बताया। ताज्जुब की बात थी कि वो भी जाने को तैयार हो गए। कुछ घंटे पहले जहां हम सिर्फ दो लोग थे, अब हम 7 लोग हो चुके थे। रात के 11 बजे हम दिल्ली के इफको चौक पर बस का इंतजार कर रहे थे। हम सरकारी बस का इंतजार कर रहे थे और हमारे सामने बार-बार एसी बस आ रही थी। हमने एसी बस का रेट पूछा तो उसने बहुत ज्यादा बताया लेकिन उसने एक दूसरी स्कीम बताई। उसने हमें फर्श पर बैठने को कहा और किराया भी बहुत कम था। फिर क्या था हम तैयार हो गए? और निकल पड़े एक नए सफर पर।

सफर है! चलता रहेगा


हमारा प्लान कुछ ऐसा था कि हम जयपुर जाएंगे और कुछ घंटे जयपुर में रहेंगे। उसके बाद पुष्कर निकलेंगे। मैं बस के फर्श पर बैठे-बैठे सोच रहा था कि ये सफर कैसा होगा? बहुत वक्त के बाद इतने लोगों के साथ कहीं घूमने जा रहा था। मुझे अकेले चलते रहना बहुत पसंद है, तब आपके पास वक्त ही वक्त होता है। मगर अब सोचता हूँ दोस्तों के साथ भी सफर होने चाहिए, जिन्हें बाद में याद किया जा सके। शायद ये मेरा वही सफर होने वाला था। कुछ घंटों के बाद हम जयपुर पहुंच गए थे। जयपुर मेरे लिए जाना-पहचाना शहर था। पुरानी जगह पर दोबारा आना बहुत सुकून वाला होता है। हर जगह से आपकी पुरानी यादें जुड़ जाती हैं। मैं जयपुर को देख तो आज में रहा था लेकिन जेहन में एक साल पुराना सफर चल रहा था।


सुबह के पांच बजे थे। जयपुर में सुबह-सुबह क्या किया जाए? ये सवाल मेरे पास पिछले साल थे, लेकिन अब मेरे पास जवाब था। सुबह खूबसूरत लगती है, उसकी लालिमा से। जब सूरज को निकलते देखते हैं तो वो पल सबसे सुकून वाला होता है। उसी लालिमा को देखने के लिए हमें एक पहाड़ी पर जाना था। जो नाहरगढ़ किले के रास्ते में पड़ती है। अगर हम गाड़ी करके जाते तो बहुत समय लगता। तब मैंने एक और रास्ता बताया, जो छोटा लेकिन कठिन था। जल महल के पास से होकर जाने वाली गलियों से हम शहर के बाहर आ गए। हम जंगल जैसे एक सुनसान इलाके में थे। अब हमें यहां से एक पहाड़ की सीधी चढ़ाई करनी थी। मुश्किल ये थी कि कोई भी इसके लिए तैयार नहीं था। किसी ने भी नहीं सोचा था कि राजस्थान में उन्हें पहाड़ चढ़ना होगा।

थकान भरी चढ़ान


थोड़ी देर में हम पहाड़ चढ़ने लगे। जैसे-जैसे हम चढ़ रहे थे हमें नजारा तो खूबसूरत लग रहा था लेकिन थकान भी हो रही थी। सुबह-सुबह हमें गर्मी का एहसास हो रहा था। खिसकते पत्थरों, कांटों और जंगलों को पार करके ऐसी जगह पहुंचे। जहां से सामने जल महल दिख रहा था। इस ऊंचाई से नीचे जल महल और दूर तक आसमान दिख रहा था। हम सब थके हुए थे लेकिन ये नजारा थकान को दूर करने के लिए काफी था। हम अरावली की एक चोटी पर खड़े होकर अरावली की श्रंखला को देख रहे थे। हम काफी देर तक उस लालिमा के लिए रूके लेकिन शायद बादलों ने उसे छुपा लिया था। फिर भी हमने यहां आकर काफी कुछ पा लिया था। जो देखा वो नजारे भी बेहद खूबसूरत थे।

सुबह का नजारा।

पहाड़ों में आवाज गूंजती है और फिर वापस लौटती है। ये फिल्मों में देखा था लेकिन यहां पर हम वही कर रहे थे। हम एक-दूसरे का नाम पुकार रहे थे, जो कुछ पलों में वापस आ रहा था। ऐसा लग रहा था कि पहाड़ हमारा कहा दुहरा रहा है। पहाड़ पर जितना चढ़ना कठिन है, उससे कहीं ज्यादा कठिन है उतरना। नीचे उतरने में हम पूरी तरह से खाली हो जाते हैं। हम जल्दी उतरना चाहते हैं लेकिन उतर नहीं पाते हैं। फिसलते-संभलते हुए हम नीचे उतरे और चल पड़े बस स्टैंड की ओर। हमारा जयपुर का सफर इतना ही था, अब हमें पुष्कर के लिए निकलना था। लेकिन उससे पहले हमें कुछ खाना भी था। जयपुर आओ और प्याज-कचैरी न खाओ। तो फिर थोड़ा मजा किरकिरा हो सकता है। जयपुर की फेमस दुकान रावत कचैरी वाले से हमने कचैरी ली और निकल पड़े अगले पड़ाव की ओर।

अगले पड़ाव की ओर


घूमते समय मुझे खुद से कहना नहीं पड़ता कि मैं खुश हूं। यात्राओं में आप सच में खुश होते हैं, हर कदम, हर जगह आपके चेहरे पर मुस्कान बनाए रखती है। उसी मुस्कान को लिए मैं पुष्कर की ओर जा रहा था। पुष्कर की बस में लग रहा था कि मैं राजस्थान में हूूं। कुछ बुजुर्ग दिखे, जिनकी लंबी-लंबी मूंछे और सिर पर पगड़ी थी। मुझे लगता है कि राजस्थान के गांवों में अब भी पुरानापन है, वही परिवेश और संस्कृति है। हालांकि सड़कें और सड़क किनारे के घर मुझे इस बात को झुठलाने के लिए भी कहते हैं। ये सब वैसा ही दिख रहा था जैसे हमारे तरफ की जगह हो। लोगों में राजस्थान में दिख रहा था, बस जगह में देखना बाकी था। जयपुर से पुष्कर की दूरी 150 किमी. है। पुष्कर से 15 किमी. पहले अजमेर आता है।

साथी हाथ बढ़ाना।

बस में बैठे-बैठे अजमेर में मुझे बहुत बड़ी झील दिखाई दी। वो सड़क किनारे काफी दूर तक गई थी। ये शहर भी देखने लायक है लेकिन अभी हमें सबसे पहले एक मेले को देखना था। अजमेर से पुष्कर जाते समय अचानक नजारे बदलने लगते हैं। सुंदर-सुंदर घाटियां, पहाड़ नजर आने लगते हैं। बस भी गोल-गोल घूमने लगती है। ये सब देखकर लगता है कि पुष्कर की खूबसूरती शुरू हो गई है। यात्रा एक क्षण से दूसरे क्षण तक पहुंचने की एक लंबी छलांग है। कभी-कभी वो क्षण आपको यात्रा के बीच में ही मिल जाता है और कभी-कभी अंत तक भी नहीं। इसलिए मैं ऐसी छलांगे लगाता रहता हूं उस क्षण को पाने के लिए।

आगे की यात्रा पढ़ें।

Sunday, 13 October 2019

बारिश में रात के अंधेरे में ट्रेकिंग की है कभी?

यात्रा का पिछला भाग यहां पढ़ें। 

एक सफर में कई कहानियां घूमती रहती हैं। कभी वो कहानी दूसरों से सुनते हो तो कभी कुछ ऐसा हो जाता है। जो आपके लिए कहानी बन जाती है। यात्रा के बाद सफर ऐसी ही कहानियों से याद रहते हैं। जरूरी नहीं ये कहानी अच्छी ही हों, यात्राओं में काफी कुछ खराब भी होता है। इस सुंदर और खूबसूरत सफर की एक कहानी मेरी भी है। एक रात की कहानी, जिसे मैं याद नहीं करना चाहता। मेरे बस में होता तो मैं उस रात को किसी और तरीके से लिखना चाहता। अब जब भी आकाश को देखता हूं तो वो रात याद आ जाती है। लगता है कि फिर से बारिश होगी और मैं फिर से पहाड़ों से निकलने की कोशिश करुंगा।


फूलों की घाटी का ट्रेक पूरा करके हम चार बजे तक नीचे आ गये थे। हम अपने बिस्तर पर आराम कर रहे थे। अब हमें कहीं और नहीं जाना था। अब हमें लौटना था। लौटना, यात्राओं का वो सच है जिसे हर कोई अपनाता है। ऐसी खूबसूरत यात्राओं के बाद हम जहां लौटते हैं वो हमारा घर होता है। कई बार लौटने पर दुख होता है तो कई बार सुकून। तब एक एहसास की परत होती है जिसे कोई कैमरा, कोई शब्द बयां नहीं कर सकते। हम आपस में चर्चा कर रहे थे कि लौटना आज है या कल? मेरा मानना था कि आज ही लौटना चाहिए। उतरने में ज्यादा समय नहीं लगता है। आखिर में हमने रात को बेकार न करने के लिए उसी शाम को चलने का फैसला किया।

एक बेवकूफी भरा निर्णय


हम जब गुरूद्वारे से निकल रहे थे। वहां के स्थानीय लोगों ने हमें कहा, आज की रात यहीं गुजारो, सवेरे होते ही नीचे उतरना। उन्होंने कहा रात को जाना समझदारी भरा निर्णय नहीं है। रास्ते में जंगली जानवर का खतरा भी है। मेरे साथी ने मुझसे पूछा क्या करें? मैं तो अब भी अपनी बात पर टिका हुआ था। शाम के 6 बजे हम घांघरिया से पुलना के लिए नीचे चलने लगे। हम जल्दी-जल्दी चल रहे थे, हमने एक किलोमीटर का रास्ता कुछ ही मिनटों में तय कर लिया था। रास्ते में हमें थके हुए लोग मिल रहे थे। सब हमसे वही सवाल पूछ रहे थे, जो कुछ दिन पहले हम पूछ रहे थे। ‘अभी घांघरिया कितना दूर है।’


रास्ता ढलान वाला था, इसलिए हम रास्ते के फ्लो में धड़कते जा रहे थे। मैं चाहता था कि 5 किलोमीटर का ये रास्ता अंधेरा होना से पहले तय कर लूं। इस रास्ते पर पहले हम चल रहे थे, बाद में भाग रहे थे। हमारे तेज चलने से हमारा एक साथी पीछे रह गया था। हमने एक बार रूककर उसका इंतजार किया। कुछ मिनटों बाद हम तीनों रास्तों पर बढ़ रहे थे लेकिन कुछ ही मिनटों के बाद हम फिर से अलग हो गए। हमें डर अंधेरे का नहीं था, डर था तो बस जंगली जानवरों का। रास्ते में हमें कुछ दुकानें और लोग मिलें। उन्होंने बताया कि रास्ते में जंगली जानवरों का कोई खतरा नहीं है। इस रास्ते में अभी तक ऐसा कुछ नहीं हुआ है।

घुप्प अंधेरा और बारिश


तेज गति से चलते-चलते एक घंटा हो गया था, अंधेरा भी होने वाला था। थोड़े ही आगे चलने पर नदी के बहने की आवाज सुनाई दी। नदी की कलकल आवाज सुनकर लग रहा था कि भ्युंडार गांव आने वाला है। थोड़ी देर बाद हम जंगल से बाहर निकलकर खुले मैदान में आ गए थे। यहां पहुंचकर मुझे बहुत खुशी हो रही थी। ये खुशी वैसी ही थी, जैसी प्यासे को पानी मिलने पर होती है। ऐसा लगा कि कुछ पा लिया हो। थोड़ी देर बाद हम उसी गांव की पहली दुकान पर बैठे थे। हम अपने तीसरे साथी का इंतजार कर रहे थे। थोड़ी देर बाद घाटी में अंधेरा उतरा आया। आज हमारी किस्मत अच्छी नहीं थी इसलिए रात भी चांदनी नहीं थी। दूर-दूर तक घुप्प अंधेरा और सन्नाटा पसरा हुआ था। हमें आगे बढ़ने से ज्यादा, अपने तीसरे साथी की फिक्र हो रही थी।


थोड़ी देर में बारिश होने लगी, हमें लगा कि थोड़ी देर में रूक जाएगी। लेकिन बारिश रूकने का नाम ही नहीं ले रही थी। हम अब तक खुशनसीब थे क्योंकि हमने लगातार बारिश का सामना कहीं नहीं किया था। अब हमें उसी बारिश का सामना करना था। कुछ देर बाद हमारा तीसरा साथी भी आ गया, जो काफी थका हुआ था। वो जब तक आराम कर रहा था। हम बारिश से बचने के इंतजाम में लगे हुए थे। पोंचा और रेनकोट अब हमारे काम आने वाला था। अब आगे का रास्ता हमें अंधेरे और बारिश के बीच तय करना था। हम सबका इस तरह का पहला अनुभव था।

बारिश में ट्रेकिंग


मुझे मन ही मन लग रहा था कि घांघरिया में उन लोगों की बात मान लेनी चाहिए थी। हम मोबाइल की टाॅर्च से अंधेरे में ही आगे बढ़ गए। चलने में अब परेशानी हो रही थी। रास्ता पूरा गीला हो चुका था और अंधेरे की वजह से हम धीरे-धीरे चल रहे थे। अब हम एक-दूसरे से दूर नहीं भाग सकते थे। हम एक साथ, आराम-आराम से आगे बढ़ रहे थे। अब हमें सिर्फ उतरना नहीं था, रास्ता चढ़ाई वाला भी था। डर इस बात का भी था कि पानी की वजह से पत्थर पर पैर फिसल भी सकता है। अंधेर में सब कुछ एक जैसा लग रहा था, खौफनाक। हमें कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। हम सिर्फ सुन पा रहे थे। हम सुनाई दे रही थी नदी की आवाज और बारिश की बूंदों का गिरना। 


मोबाइल की लाइट में हम बढ़े जा रहे थे। बारिश तभी अच्छी लगती है जब आप उसे देख रहे होते हैं। तब तो और अच्छी लगती है जब पहाड़ों में किसी होटल की बालकनी से देखते हैं। लेकिन भारी बारिश में चलना बहुत खतरनाक होता है। उसी भयानक और खतरनाक रास्ते में हम चले जा रहे थे। बारिश के साथ-साथ थकावट भी हम पर हावी थी, इस वजह से हमें बार-बार रूकना भी पड़ रहा था। हमें रास्ते में पानी से बचने की एक जगह मिली। वहां पहुंचे तो 6-7 कुत्ते पहले से ही डेरा डाले हुए थे। कुछ देर वहां रूकने के बाद हम आगे बढ़ गए। पानी रेनकोट से अंदर जाने लगा था। ये बारिश हमें बीमार भी कर सकती थी लेकिन अभी तो हमें यहां से निकलना था।

सिरहन पैदा करने वाला नजारा 


चलते-चलते ऐसी जगह पहुंचे, जहां रास्ता में झरना बन गया था। हमने एक-दूसरे को पकड़कर वो रास्ता तय किया। थोड़ा आगे बढ़े तो जो देखा उसके बाद शरीर में सिहरन-सी दौड़ गई। सामने दो बड़ी-बड़ी चट्टानें गिरी हुई थीं, रास्ता बंद था। पानी की वजह से कुछ देर पहले ही ये पहाड़ यहां गिरा होगा। हमने जल्दी-से वो पत्थर पार किया और तेज कदमों से आगे बढ़ने लगे। डर क्या होता है? वो बस मेरी दिल की धड़कन बता रही थीं। ऐसा कुछ देखने के बाद सफर के खुशनुमा और खूबसूरत वाले नजारे गायब हो जाते हैं। हम बस उस खतरे से बाहर निकलना चाहते थे। अगर हम जल्दी आ गए होते तो हो सकता था कि इन पत्थरों को गिरते हुए देख पाते।


हम तेज कदमों से तो चल रहे थे लेकिन नजरें पहाड़ पर थी। अब हमें हर पल पहाड़ और खतरनाक लग रहा था। डर हम सबको लग रहा था और हम जाहिर भी कर रहे थे। रात के पहर में हमारा सुरक्षित निकलना बहुत जरूरी था। क्योंकि दूूूर-दूर तक हमारी मदद करने वाला कोई नहीं था। हमें पूरे रास्ते में कोई नहीं मिला था। हम तीन ही थे जो इस खतरनाक और खौफनाक रात में चल रहे थे। जब ऐसा कुछ होता है तो वैसा ही कुछ दिमाग में भी चलने लगता है। मुझे टी.वी. पर चलने वाली खबरें याद आने लगी थीं। ये सब होने के बाद हौंसला ही होता है जो आपको जूझने के लिए तैयार रखता है। यही वो समय होता है जब आपको सबसे ज्यादा हिम्मत दिखानी होती है।

पहली बार मैंने आंखों से प्रकृति का ऐसा रूप देखा था। अब लग रहा था कि सफर कुछ ज्यादा ही रोमांचक हो गया था।लग रहा था कि ये सफर कुछ ज्यादा ही लंबा हो गया है। पहली बार मैं इस सफर को खत्म करने के लिए बेसब्र था। थोड़ी देर बाद हम पुलना की सड़कों पर चल रहे थे। हम सड़क पर बैचेन होकर होटल और होमस्टे खोज रहे थे। हमें कुछ भी नहीं मिल रहा था। तभी हमें एक जगह होमस्टे का बोर्ड लगा हुआ दिखाई दिया। उसके नीचे नंबर भी लिखा हुआ था। उसे देखकर एक आशा जगी। मैंने नंबर लगा दिया, फिर याद आया यहां तो नेटवर्क नहीं है।

रोमांच के आखिरी पल


अगर पुलना में नहीं रूके तो फिर 4 किलोमीटर चलकर गोबिंदघाट जाना पड़ता। ऐसा करने की हममें से किसी की भी हिम्मत नहीं थी। जहां ये बोर्ड था, उसी के बगल से सीढ़ियां गईं हुई थीं। हम सीढ़िया उतरकर घर के मालिक को बुलाने लगे। एक शख्स बाहर आया, उसने बताया कि मेरा ही होमस्टे है। तब लगा कि अब कुछ आराम मिलेगा। हमें हमारा कमरा दे दिया गया। हमारे सारे कपड़े गीले हो चुके थे। हमने कपड़ों को कमरे में जगह-जगह टांग दिया। लाइट न होने की वजह से मोमबत्ती की रोशनी में बिस्तर पर जा गिरे। ये अगर और कोई दिन होता तो इस रात की तारीफ की जा सकती थी लेकिन अभी तो गिरी हुई चट्टान नजरों के सामने आ रही थी। थकान इतनी थी कि हमने ये भी नहीं पूछा कि कमरे का पैसा कितना होगा? हमें तो कहीं ठहरना था और हम इस घुप्प अंधेरे में बिस्तर पर पड़ गए।


ये पूरी यात्रा कई मायनों में सीखने के लिए बहुत अच्छी रही। इस यात्रा से मैंने कई अनुभव जुटाए। यात्रा की कई अच्छी और बुुरी बात जानी। ये भी कि अनहोनी को टालने से हमेशा बचो। सफर में जोश से ज्यादा, होश का होना बहुत जरूरी है। आपका एक बुरा निर्णय, कई लोगों को मुश्किल में डाल सकता है। इन मुश्किलों के बाद भी हम बचकर सही सलामत आ गए थे। अब मैं सोचता हूं कि उस रात जो हुआ। उसने मेरी इस यात्रा को और रोचक और यादगार बना दिया। जब मैं वापस लौट रहा था तो पिछले कुछ दिनों में जो-जो पाया था। उसकी छवि दिमाग में चल रही थीं। इन तमाम मुश्किलों के बाद मैं फिर से ऐसी ही किसी यात्रा पर जाने के लिए तैयार हूं।