Saturday, 9 February 2019

जयपुर 1: खुद को इतिहास की वैभवता के बीच खड़ा पाता हूं

राजस्थान जिसे मैंने कभी देखा नहीं था, उसकी खूबसूरती के किस्से सुन रखे थे। मेरे कई दोस्तों ने राजस्थान का गुणगान बहुत किया था, इंटरनेट पर भी फोटोज में ही देखा था लेकिन जाने का कभी सोचा नहीं बन था। ऐसे ही एक दिन अचानक दिमाग में आया की आज  ही राजस्थान को देखने निकलना है । दिल्ली के अपने कमरे से  अपना छोटा-सा बैग उठाया और निकल पड़ा आईएसबीटी कश्मीरी गेट की ओर। जहां से मुझे बस पकड़नी थी ऐसे शहर के लिए  जहां इतिहास का वैभव आज भी बरकरार है- जयपुर।


25 जनवरी 2019 की रात को मैं आईएसबीटी बस स्टैण्ड पर इधर-उधर चल रहा था। मैं जयपुर जाने की बस ढूंढ रहा था। पूरे बस स्टैण्ड पर उत्तराखंड, हिमाचल और हरियाणा जाने वाली बसें हीं दिख रहीं थीं लेकिन जयपुर जाने वाली कोई बस नहीं दिख रही थी। मैं लगभग एक घंटा घूमता रहा लेकिन मुझे जयपुर जाने के लिए कोई भी बस नहीं मिली। मैं निराश होकर वापस मेट्रो की ओर जाने की सोचने लगा। तभी एक आखिरी बार ट्राई करने का सोचा। मैं  फिर लौटा और बार बस देखने लगा। तभी मुझे एक आवाज  सुनाई दी, जयपुर-जयपुर। मैं दौड़कर उसी ओर भगा और  जयपुर का टिकट मांगा।

उसने मुझसे पूछा अकेले हो। मेरे हां कहते ही जयपुर जाने की टिकट और बस मुझे दे दी गई। रात के 11 बज रहे थे, बस धौलाकुआं के रास्ते पर थी। रोड के दूसरी तरफ बड़े-बड़े ट्रक निकल रहे थे जिसमें झांकियां लगी हुईं थीं। जो कल गणतंत्र दिवस पर राजपथ पर मार्च करने वालीं थीं। उसके बाद मैं सो गया और जब आंख खुली तो बस राजस्थान की रोड पर चल रही थी। कुछ देर बाद अंधेरे में ही बस जयपुर शहर में दाखिल हुई। शहर सुबह के अंधेरे में पूरी तरह से शांत था। आधा शहर पार करके बस सिंधी बस स्टैण्ड पहुंच गई। राजस्थान की धरती पर उतरकर मैंने सुकून की सांस ली।

सिंधी बस स्टैंड।
अब मुझे देखना था कि इतनी सुबह शहर में क्या-क्या देखा जा सकता है? मैंने पता किया तो पता चला कि घूमने की सभी जगह 8 बजे के बाद ही खुलती हैं। मैं निश्चय नहीं कर पा रहा था कि अब कहां जाऊं? तभी मैं बस चल दिया शहर की ओर, ये सोचते हुये कि चलते-चलते सुबह हो ही जाएगी । तब तक शहर को पैदल नाप लेता हूं। बस स्टैण्ड के बाहर निकला तो माहौल वैसा ही था जैसा हर शहर के बस स्टैण्ड का होता है। बहुत सारी टैक्सियां खड़ीं थीं। चाय-नाश्ते की टपरी लगी हुई थी और बड़े-बड़े होटल थे। मेट्रो भी बनी हुई थी जो चांदपूल तक गई हुई थी। लेकिन फिलहाल वो सिर्फ बनी हुई थी, शुरू नहीं हुई थी।

चलते-चलते मैं शहर को देख रहा था और देख रहा था जयपुर की गलियां। थोड़े ही आगे चलते ही मुझे ऊंट-गाड़ी मिल गई। उसे देखकर मैं मुस्कुरा उठा और मन ही मन कहा- हां, मैं राजस्थान में ही हूं। कुछ देर चलने के बाद मैं एक चौराहे पर आकर खड़ा हो गया। जहां भैंसें चारा खा रहीं थीं। मैं अब तक बहुत चल चुका था। मुझे यूंही चलते रहना, समय बर्बाद करना लगा और आसपास होटल देखने लगा। मैंने इंटरनेट पर होटल देखा लेकिन  मिल गई डोरमेट्री। जहां मैं खड़ा था वो डोरमेट्री पास में ही थी। मैं डोरमेट्री में जाते ही अपने ही बिस्तर पर सो गया। डोरमेट्री मेरे लिए सही थी, मुझे शहर देखना था इसलिए डोरमेट्री सस्ती भी थी और अच्छी भी। कुछ देर बाद उठा तो देखा कि 9 बज रहे हैं। जल्दी से तैयार हुआ और निकल पड़ा जयपुर शहर को देखने।

किले में असामां छूते कबूतर।

आमेर किला


मैं फिर उसी चौक पर आ खड़ा हुआ। जहां अंधेरी सुबह में बस स्टैण्ड से चलकर आया था। मैंने ऑटो वाले से आमेर किला के लिये जाने का रास्ता पूछा। मैंने पूछा तो था रास्ता लेकिन वो खुद ही आमेर, जयगढ़ और नाहरगढ़ किला दिखाने को राजी हो गया। लेकिन जो पैसे वो मांग रहा था वो बहुत ज्यादा और थे। वो 2000 में सब घुमाने की बात कह रहा था। मैंने उसे जाने को कहा और कैब देखने लगा। जब मैंने कैब वाले को कॉल किया तो एक कैब वाले ने तो जाने से मना ही कर दिया क्योंकि किला पहाड़ी पर है। उसके बाद ऑटो कैब वाला मान गया और मैं चल पड़ा आमेर किला।

दूर से देखो आमेर किला।
आमेर किला शहर से 11 किलोमीटर दूर अरावली की पहाड़ियों पर स्थित है। किले की ओर जाने का रास्ता ऊंचाई पर था। पहाड़ी पर जाते-जाते रोड संकरे होते जा रहे थे। मगर आसपास पहाड़ और पेड़ नजर आ रहे थे। यहां से जलमहल भी अच्छा दिख रहा था जो शहर में ही है। कुछ ही मिनटों में ऑटो ने मुझे आमेर छोड़ दिया। कैब से मुझे यहां तक आने के सिर्फ 60 रूपये ही लगे। आमेर किला ऊंचाई पर है इसलिए बाहर से ही किला की बनावट दिखती है। किले को दूर से देखने पर लगता है कि पीले चूने की कलई पुतवा दी हो। लेकिन वो बड़े-बड़े गुंबद मुझे आकर्षित कर रहे थे।


किले तक जाने के लिये पहले आरामबाग जाना पड़ता है। मैं जैसे ही दिल आराम बाग पहुंचा। वहां सैकड़ों की संख्या में कबूतर दाना चुग रहे थे। जब वे एक-साथ जमीं से आसमां की ओर उड़ते वो दृश्य और वो फड़फड़ाहट वाली आवाज ने मेरा मन मोह लिया।  किले तक जाने के लिये बहुत सारी सीढ़ियों को चढ़कर जाना होता है। उन सीढ़ियों से पहले दिल आराम बाग आता है। जहां फूल, क्यारियां और आराम से बैठा जा सकता है। मैं जल्दी किले को घूम लेना चाहता था। मैं जल्दी-जल्दी सीढ़ियां चढ़ने लगा। पूरा रास्ता सैलानियों से भरा हुआ है। सीढ़ियां चढ़ते ही मुझे हाथी दिखाई दिये। हाथियों को रंगों से सजाया हुआ था। जिस पर महावत और कुछ लोग बैठकर मजा ले रहे थे। हाथी लोगों को नीचे से ऊपर ला रहा था। कुछ लोगों के लिये यहां यही रोजी-रोटी का साधन बना हुआ था।

आमेर किला जाने का रास्ता।
कुछ देर बाद मैं एक बड़े-से गेट से किले के अंदर पहुंचा। यहां आकर किला एकदम समतल हो गया था। यहां सब कुछ सपाट था। मैं जिस जगह खड़ा था, वहां ऐसा लग रहा था कि ये किले का आंगन है। वहीं आगे जाने पर टिकट काउंटर मिला। भारतीय पर्यटक के लिये टिकट 100 रूपये का था। लेकिन अगर आप विधार्थी हैं और काॅलेज आईडी है तो टिकट मात्र 10 रूपये का पड़ेगा। मेरे पास कोई आईडी नहीं थी सो मैं 100 रूपये देकर किले की ओर बढ़ गया।

दीवान-ए-आम


आमेर किला जो अंबेर शहर के पास में बसा है। इस बस्ती पर पहले मीणा समुदाओं का राज था। बाद में इस पर राजपूतों ने कब्जा कर लिया। जिसके बाद आमेर किला का निर्माण 1589 में राजा मानसिंह ने शुरू करवाया। उसके बाद अलग-अलग राजा आते रहे और इस किले का निर्माण बढ़ाते रहे। इस किले का पूरा निर्माण 1727 में खत्म हुआ।

किले का प्रथम तल, दीवाने-ए-आम।
मैं किले के पहले तल पर पहुंच गया। जिसे दीवान-ए-आम कहा जाता है। इस जगह पर राजा की सभा होती है। यहां पर राजा प्रजा, अधिकारियों, मंत्रियों से मिला करते थे। दीवाने आम की बनावट बेहद पुरानी लगती है। इसकी छज्जे और दीवारें लाल-बलुआ पत्थर की है और खंभे संगरमर के हैं। जिसकी चमक आज भी बनी हुई है। इस जगह से पहाड़ियां, आमेर सिटी दिखती है। उस दिन शायद यहां  कोई प्रोग्राम था, किले के इस तल पर स्टेज बना हुआ था और बहुत सारी कुर्सियां पड़ी हुई थी। यहीं पर एक बड़ा सा स्नानाघर है जिसे ‘हम्माम’ कहा गया है। जहां पर राजपरिवार स्नान करता था।

किले से दिखता अंबेर शहर।
इसके बाद आगे कुछ सीढ़ियां चढ़ने पर एक और तल आता है ‘दीवाने-ए-खास’। आमेर किले का सबसे ज्यादा आकर्षण का केन्द्र यही है। यहां पर राजा अपने अतिथियों से मिलते थे। इस तल पर शीश महल बना हुआ है। जिसमें कांच से पूरा शीश महल जड़ा हुआ है। इस जगह पर कैमरे से रिकाॅर्डिंग भी होती रहती है। एक गाइड ने बताया कि रानी यहां रात को बहुत सारे दिये रखती थी जिससे ये शीश महल जगमग होने लगता था। दिन की रोशनी में शीश महल इतना सुंदर लग रहा था। तो बस सोचा ही जा सकता है कि रात की जगमग में इस महल की क्या छंटा रहती होगी।

शीश महल के अंदर।
उसी तल पर एक बाग भी बना हुआ है। जो इस जगह को और भी सुंदर बना देता है  महल के बीचों-बीच ये बाग जिसके हर पेड़ की कटाई करीने से की गई है और उसके बीच में  है एक फुव्वारा। ये सब शीश महल की सुंदरता को बढ़ा रहे थे। इस जगह पर बहुत भीड़ थी। इस जगह की खूबसूरती का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि लोग इस जगह पर आकर आगे नहीं बढ़ रहे थे। इसकी सुंदरता देखकर यहीं रूक जा रहे थे।

मानसिंह महल


शीश महल को देखकर मैं आगे बढ़ गया। आगे महल की एक और सुंदरता मेरा इंतजार कर रही थी, मानसिंह महल। यह पूरे किले का सबसे प्रमुख भाग है। महल के बीच में एक प्रांगढ़ है, जिसे कुछ खंभों से एक छज्जे का रूप दिया गया है। उसके चारों तरफ कमरे ही कमरे थे। ऐसे ही कमरों को मैं देख रहा था। दीवारों पर फूल-पत्तियों और कुछ भगवान के चित्र बने हुये थे। यहीं पर राजा, अपनी महारानियों के साथ समय बिताते थे।


उसके बगल में ही ‘जनानी ड्योढ़ी’ है। यहां पर राजपरिवार की महिलायें और दासियां रहती थी। ये कमरे आज भी बहुत सुंदर लग रहे थे। हर कमरे में चित्रकारी और सफाई बहुत थी। कमरों की नक्काशी बेहद महीन और सुंदर है। पूरे महल की नक्काशी अलग-अलग है लेकिन फिर भी बेहद बेहतरीन। इन महलों से राजपूतों की वैभवशाली इतिहास का अनुमान लगाया जा सकता है। मैंने इससे पहले जो महल व किले देखे थे, वे इस किले के सामने बौने थे। शायद इसलिये इतिहास की फिल्मों की शूटिंग के लिये राजस्थान को ही चुना जाता है। जो आज भी अपनी खूबसूरती बरकरार रखे हुये हैं।


मैं किले की छत और छज्जे को देखने लगा। मैं नहीं चाहता था कि कोई आमेर किले का कोई कोना मुझसे छूट जाये। किला पूरा भूलभुलैया की तरह है। आप एक बार जहां से आते हैं उस जगह पर दोबारा नहीं आ सकते। पता ही नहीं चलता, कहां से उपर आयेऔर कहां से नीचे उतरे। किले की सबसे उपरी छत से बाहर पहाड़ ही पहाड़ देख रहे थे और किले की सुरक्षादीवारी। किले को देखने के बाद अब मुझे बाहर निकलना था क्योंकि मुझे जयगढ़ किला और नाहरगढ़ किला भी जाना था। लेकिन नीचे उतरते वक्त मेरी नजर एक जगह पर पड़ी। जहां लिखा था सुरंग में यहां से जाएं।


मैंने देखा नीचे सीढ़िया गईं हुईं हैं लेकिन अंधेरा और शांति मुझे डरा रही थी। एकबारगी मैं पीछे मुड़ा लेकिन फिर हिम्मत करके सीढ़िया उतरने लगा। नीचे उतरते ही कई लोगों की आवाज सुनाई दी और यहां लाईट भी थी। सुरंग वैसी नहीं थी जैसी फिल्मों में दिखती है। सुरंग इतनी उंची और चौड़ी थी कि एक बड़ी गाड़ी आराम से खड़ी हो सकती थी। मैं सुरंग देखकर आगे चल पड़ा। कुछ ही देर में फिर से उन्हीं सीढ़ियों पर था जिसको चढ़कर आमेर किले को देखने आया था। अब रास्ते में लोगों की भीड़ ज्यादा बढ गई थी और रोड पर भी गाड़ियों की आवाजाही भी थी। मैं अब तक एक सुंदर, बेहतरीन और वैभवता का प्रतीक आमेर किले को देख चुका था। मुझे अभी ये शहर और भी बहुत कुछ दिखाने वाला था। अब मेरा अगला पड़ाव था- जयगढ़  और नाहरगढ़।

ये जयपुर यात्रा का पहला भाग है, आगे की यात्रा यहां पढ़ें।

Thursday, 7 February 2019

प्रयागराज 9: स्वराज भवन में वैभवता से ज्यादा इंदिरा गांधी की बपैती दिखती है

ये यात्रा का आखिरी भाग है, पिछली यात्राओं के बारे में यहां पढ़ें।

इतिहास की एक मुख्य कड़ी को मैं अब तक देख चुका था। मैं तो यही सोच रहा था। आंनद भवन के जिस कोने में खड़ा था वहां से नीचे देखा तो लोग सामने के रास्ते पर जा रहे थे। नीचे उतरकर पता किया तो वो स्वराज भवन था। वो स्वराज भवन जो कभी नेहरू परिवार का घर हुआ करता था। बाद में कांग्रेस का मुख्यालय बन गया और आज वो संग्रहालय है। जहां सिर्फ इंदिरा हैं तस्वीरों में भी और किस्सो में भी।


इतिहास के पन्ने से


जिस आनंद भवन को हम देख चुके थे। उसकी एक कहानी है। 1857 की क्रांति के बाद अंग्रेजों ने शेख फय्याज अली से खुश होकर ये जमीन दे दी। जिसके बाद कई लोगों के पास ये आती-जाती रही और ये भवन भी एक मंजिला का बन गया था। साल 1899 में इसे मोतीलाल नेहरू ने इसे 20000 रूपये में खरीद लिया। इसके बाद 1927 में अपने भवन को कांग्र्रेस को दे दिया। जिसका नाम आनंद भवन था और फिर उसका नाम स्वराज भवन रख दिया।

तब नेहरू परिवार इस भवन में आया और इसका नाम रख दिया गया आनंद भवन। पहले ये भवन में एक ही तल का था, बाद में इसका दूसरा तल बनवाया गया। आनंद भवन में कई ऐतहासिक निर्णय लिये गये। यहीं पर मोतीलाल नेहरू ने अपना संविधान लिखा था। यहीं पर भारत छोड़ो आंदोलन की रूपरेखा तैयार की गई थी। ऐसे ही कई महान और ऐतहासिक निर्णयों का साक्षी रहा है ये भवन।

आनंद भवन से स्वराज भवन की ओर जाता रास्ता।
आजादी के बाद ये भवन कई सालों तक ये नेहरू परिवार के संरक्षण में रहा। बाद में 1970 में इंदिरा गांधी ने इसे भारत सरकार के संरक्षण में कर दिया। कुछ सालों बाद लोगों के लिये भी खोल दिया। ये फोटोग्राफी करना मना है और जगह-जगह पर सुरक्षा के लिये सुरक्षा गार्ड भी तैनात हैं। कुछ सालों तक यहां आने के लिये कोई टिकट नहीं है लेकिन अब आनंद भवन को देखने के लिये टिकट देना पड़ता है। अगर आप 70 रूपये देते हैं तभी स्वराज भवन देख सकते हैं।

स्वराज भवन


आनंद भवन के ठीक बगल पर स्वराज भवन है। जहां जाने का रास्ता आनंद भवन से गया हुआ है। स्वराज भवन एक प्रकार से इंदिरा भवन है। रास्ते में ही कुछ तख्तियां मिल जाती हैं जिस पर इंदिरा गांधी की तस्वीर लगी हुई है। हम आगे बड़ जाते हैं। मैं गार्ड को देखकर टिकट ढ़ूढ़ने लगता हूं। गार्ड हंसकर कहता है, हम समझ जाते हैं कौन गड़बड़ है? आप जाइये, मैं भी मुस्कुराकर धन्यवाद कहकर आगे बड़ जाता हूं।

तस्वीरों में इंदिरा गांधी।
आनंद भवन की तरह ही ये भवन भी काफी बड़ा दिख रहा है। बाहर एक बोर्ड लगा हुआ है- ‘इंदिरा गांधी की जन्म स्थली- स्वराज भवन’। इंदिरा गांधी का जन्म इसी भवन में हुआ था और उनका बचपन इसी भवन में बीता। मैं वहीं सीढ़ियों पर चढ़ने लगता हूं। पीछे से आवाजा आती है वो अंदर जाने का रास्ता नहीं है। आवाज उसी गार्ड की थी जिसने हमारा टिकट देखे बिना ही अंदर आने दिया था।

स्वराज भवन इंदिरा गांधी की तस्वीरों का संग्रहालय है,स्वराज भवन।
मैं नीचे उतरा और दाईं तरफ बढ़ गया। जहां से रास्ता था। अंदर घुसते ही तस्वीरों के बीच में आ जाता हूं। तस्वीर एक ही शख्स की, इंदिरा गांधी की। हर कमरे में गार्ड हैं। जो देख रहे हैं कि कोई तस्वीर न ले पायें। मैं तस्वीरों को देखने लगता हूं। तस्वीरों में इंदिरा गांधी अभी छोटी हैं। फिर तस्वीर इंदिरा गांधी और फिरोज गांधी के विवाह की दिखती है। मैं उस तस्वीर से ज्यादा उस चबूतरे को ध्यान से देखता हूं जिसे मैंने अभी कुछ ही देर पहले देखा है।

इंदिरा, राजीव और संजय।
उसके बाद कुछ तस्वीरें फिरोज और इंदिरा की होती हैं। एक तस्वीर है जिसमें इंदिरा गांधी हैं। जिसके बारे में लिखा है इसे फिरोज गांधी ने खींची है। इसी तरह की तस्वीर फिरोज गांधी की है। उस कमरे की तस्वीर देखने के बाद दूसरे कमरे में आ जाता हूं। इसमें इंदिरा गांधी की बहुत बड़ी तस्वीर है। इंदिरा गांधी इस तस्वीर में मुस्कुरा रही हैं। इस कमरे की सबसे बड़ी तस्वीर यही है, मैं फोटो खींचना चाहता हूं लेकिन गाॅर्ड खड़ा है। मैं आगे वाले कमरे में आ जाता हूं।

ये चुपके से खींची गई फोटो हैं।
इस कमरे में कोई गार्ड नहीं है। यहां से मैं वो तस्वीर खींचता हूं। उसके बाद इंदिरा गांधी की सभी तस्वीरें राजनैतिक हैं। कुछ तस्वीरें अपने बेटों राजीव और संजय के साथ हैं। तो कुछ में वे विदेश दौरे में हैं। कहीं वे मुस्कुरा रही हैं, कहीं अभिवादन कर रही हैं। इन्हीं बहुत सारी तस्वीरों को देखकर मैं आगे बढ़ जाता हूं। ये बाहर जाने का रास्ता है। लेकिन ये भवन इतना ही नहीं है। भवन और भी बड़ा है लेकिन लोगों के लिये वो खोला नहीं गया है। इस भवन में मुझे सबसे अच्छी लगी ये जगह। जहां से पूरा भवन दिख रहा है, भवन के बीच में खुला बरामदा है। बरामदे के बीच में एक फव्वारा लगा हुआ है। मैं कुछ पल वहां रूका और वहां से निकल आया।

स्वराज भवन की सबसे बेहतरीन जगह।
मैंने इन दो दिनों में इस शहर की दो धारायें देखी थी। एक संगम की धारा। जहां गंगा और यमुना हमें एकता में मिलने का संदेश दे रही है। वहीं ये भवन, जिसने कई सालों तक हमारे देश का संचालन किया। मुझे इंदिरा गांधी की वो बात याद आ रही है जिसे मैंने बचपन मे पढ़ा था कि जब तक मेरे खून का एक-एक कतरा रहेगा। मैं इस देश की सेवा करती रहूंगी। वो गांधी परिवार आज भी है, बस चेहरा और पीढ़ी बदल गये हैं। मैं शहर को काफी हद तक देख चुका था, कुछ था जो अभी बाकी रह गया था। वैसे इतने कम समय में मैं हर चीज को तो नहीं देख सकता लेकिज जो देखा जी भर देखा। अब चलने का वक्त हो गया था, एक नये सफर पर।

शुरू से यात्रा यहां पढ़ें।

प्रयागराज 8: आनंद भवन जहां सिर्फ आलीशानता नहीं हमारा इतिहास बसता है

ये यात्रा का आठवां भाग है, सातवां भाग यहां पढ़ें।

प्रयागराज वो शहर जिसमें आज बसता है। इलाहाबाद वो शहर है जिसमें हमारा इतिहास बसता है। ये शहर कभी देश के केन्द्र में आता था, जिसने कई अहम फैसले लिये। इतिहास की जगहें लोग भूला देते हैं या वो इतनी जर्जर हो जाती है। जिनको देखकर दया आती है कि हमने क्या हाल कर दिया है। लेकिन इलाहाबाद का आनंद भवन आज भी आलीशनता की विरासत है। जो एक परिवार की विरासत है उससे ज्यादा ये हमारी आजादी का साक्षी है।

प्रहरी चट्टान

अब तक मैं कुंभ के लगभग हर कोने से रूबरू हो चुका था। तब मेरे एक दोस्त ने बताया कि इस शहर में हो तो वहां की ऐतहासिक जगहों को देख लो। चन्द्रशेखर आजाद पार्क देख लिया था, वहीं पर एक किला था अकबर का किला। वहां का रास्ता नही मिल रहा था तो हमने वहीं खड़े पुलिस वाले से रास्ता पूछा। उसने रास्ता तो बता दिया और साथ में बता दिया कि कुंभ के कारण किला बंद होगा। अब हमें जाना था आनंद भवन।

आनंद भवन का नाम मैंने उस दिन से पहले एक-दो बार ही सुना था। वो भी किताबों में। बस इतना पता था कि मोतीलाल नेहरू का घर है। कुंभ से निकलकर हम आनंद भवन की ओर निकल गये। अब तक हम भीड़ के हिस्सा थे फिर एक चैराहा आया और भीड़ से अलग चलने लगे। इस रास्ते पर आटो चल रहे थे, आनंद भवन जाने वाले आटो में हम भी बैठ गये। कुछ मिनटों के बाद हम आनंद भवन के सामने खड़े थे।

आलीशान आनंद भवन


बड़े से गेट को पार करके हम टिकट खिड़की पर पहुंचे। टिकट दो भागों में मिल रहा था। 20रूपये एक मंजिला तक जाने के लिये और 70रूपये पूरा आनंद भवन देखने के लिये। मेरे साथी ने कहा, भूतल ही देख लेते हैं। मैंने कहा जब यहां तक आ ही गये हैं तो पूरा देखकर चलते हैं। टिकट लिया और अंदर चल दिये। आनंद भवन की ओर जाते हुये, सबसे पहले आपको पत्थर की शिला मिलेगी। जिस पर जवाहर लाल नेहरू के इस भवन के बारे में कुछ बातें लिखी हैं।

वही चबूतरा जहां जवाहर लाल नेहरू की अस्थियां रखी गईं थीं।
इस शिला को ‘प्रहरी चट्टा’ का नाम दिया गया है। इस पर लिखा है ‘यह भवन ईंट-पत्थर के ढांचे से कहीं अधिक है। इसका हमारे राष्टीय संघर्ष से अंतरंग संबंध रहा है। इसकी चाहरदीवारी में महान निर्णय लिये गये और अंदर महान घटनाएं घटीं।’ हम उस ओर चल पड़े जहां आनंद भवन था। आनंद भवन ठीक बाहर एक गोल चबूतरा बना है जिस पर तुलसी का पेड़ लगा हुआ है। उस पर लिखा हुआ है- ‘संगम में विसर्जन से पूर्व जवाहर लाल नेहरू की अस्थियां यहां रखी गईं।’ इसके बाद हम आनंद भवन को देखने लगे।

आनंद भवन के दूसरे तल पर है महात्मा गांधी का कमरा।

आनंद भवन दो मंजिला का आलीशान भवन है। जहां की हर चीज आज भी वैसी है जैसी आजादी के पहले थी। भवन का हर कमरा शीशे से बंद है। सबसे पहले वो कमरा दिखता है जिसमें नेहरू परिवार की बैठक होती थी। यहीं पर अतिथियों से मुलाकात होती थी और चर्चायें होती थीं। कमरे में गद्देदार कुर्सियां हैं। कमरे की दीवार पर मोतीलाल नेहरू की तस्वीर है।

इंदिरा गांधी को लिखे नेहरू के पत्र।
इसी भूतल पर मोतीलाल नेहरू का भी एक कमरा है और एक अध्ययन कक्ष भी है। जहां पर वे अध्ययन किया करते थे। उसके ठीक बगल में उनकी पत्नी स्वरूपरानी देवी का कमरा है। इस कमरे में एक बिस्तर है और दीवार पर एक तस्वीर है। जो शायद उनकी ही है। इस कमरे को देखने के बाद आगे बड़ते हैं तो एक बरामदा आता है जिस पर लिखा होता है- ‘यहां इंदिरा गांधी और फिरोज गांधी का विवाह संपन्न हुआ था। इसके बाद हम भवन के दूसरे तल पर जाते हैं।

यही जगह है जहां इंदिरा और फिरोज का विवाह हुआ था।

दूसरा तल


दूसरे तल पर जो पहला कमरा पड़ता है। उसमें इंदिरा गांधी की तस्वीर लगी है औ कुर्सी लगी है। शायद ये इंदिरा गांधी का कमरा है। इसके बगल में ही जो कमरा है उसमें सफेद चादर वाला कमरा पड़ता है। जिसके जमीन पर कुछ बैठने की पालकी बिछी हुई है। इस कमरे में गांधीजी के तीन बंदर भी बैठे हुये हैं। इसके कमरे की सबसे खूबसूरत है वो तस्वीर। जिसमें गांधीजी अपने बिस्तर पर बैठे हंस रहे हैं और उनके साथ बैठी हैं छोटी-सी इंदिरा।

विदेश दौरे पर जाने वाले जवाहर लाल नेहरू के कुछ संगी।

आगे चलने पर वो कमरा आता है जो कई महान निर्णयों का साक्षी बना। जिस कमरे में नेहरू, गांधी, पटेल और कांग्रेसी नेता चर्चाएं करते थे। ये कमरा अब तक के देखे सभी कमरों में सबसे बड़ा है। कमरे में दीवार के एक तरफ किताबें हैं जिन्हें देखकर लगता है कि कानून की किताबें हैं। बाकी पूरे कमरे के फर्श पर गद्दीदार बिस्तर लगा हुआ है।


इसके बाद जो कमरे हैं उसमें नेहरू परिवार की कुछ अहम चीजों को सहेज कर रखा गया है।आगे वाले कमरे में जवाहर लाल नेहरू की कुछ अहम चीजें हैं। जैसे विदेश पहनकर जाने वाले कपड़े, खाने की चम्मचें, स्त्री, चरखा, इंदिरा को लिखे कुछ पत्र भी हैं और वो बहुत बड़ा कलश भी है। जिसमें जवाहर लाल नेहरू की अस्थियां रखी गईं थीं। इसके आगे चलने पर आखिरी में जवाहर लाल नेहरू का अध्ययन रूम मिलता है। जिसमें कुर्सी, टेबल और किताबें रखीं हुई हैं और दीवार पर एक तस्वीर लगी हुई है। जिसमें जवाहर लाल नेहरू कुछ लिखतें हुये दिखाई दे रहे हैं।

जवाहर लाल नेहरू का अध्ययन कक्ष।
आनंद भवन को देखने के बाद मुझे इतिहास की झलक तो दिखी। लेकिन मैं बस यही सोच रहा था कि ये भवन आज इतना आलीशान है तो उस जमाने में तो इसका महत्व ज्यादा होगा। भवन की हर चीज सफेद है बिल्कुल संगमरमर की भांति। चीजें पुरानी होते हुये भी कुछ भी धुंधला नहीं है हर चीज साफ है। भवन में नेहरू परिवार की झलक तो है ही। महात्मा गांधी की भी परछाई है जिसका हर एक वाक्य इस परिवार ने अपनाया।

ये यात्रा का आठवां भाग है, यात्रा का आखिरी पड़ाव यहां पढ़ें।