Friday, 1 February 2019

प्रयागराज 5: रात के पहर में कुंभ को देखना मानो जगमग तारों की एक तस्वीर

ये यात्रा का पांचवां भाग है, चौथा भाग यहां पढ़ें।

प्रयागराज शहर में मुझे एक ही दिन हुआ था। लेकिन इतना सब कुछ देख लिया था कि लग रहा था ये शहर भी अपना हो गया। अब मैं हर जगह आराम से जा सकता था, खास तौर पर संगम और सिविल लाइंस। मेरे साथ अक्सर ऐसा ही होता है थोड़े वक्त के लिये कहीं ठहरता हूं। वो शहर मुझे जाना-पहचाना लगने लगता है। शहर को रात में घूमा जा सकता था लेकिन मैंने कुंभ को देखने का मन बनाया।


हमें फिर से वही लंबा रास्ता तय करने था जिस पर सुबह चले थे। अब मेरे साथ जाने वाले कम लोग थे और लौटने वाले ज्यादा लोग थे। सुबह में रास्ते किनारे जो-जो देखा था इस समय वो सब गायब था। वो भीड़ गायब थी, वो रास्ते में पैसे ऐंठने वाले कलाकार गायब थे। अगर कोई गायब नहीं था तो वो आवाज जिस पर अब भी किसी के सामान खोने का ऐलान किया जा रहा था।

कुंभ की छंटा


हम थोड़ी ही देर में नंदी द्वार पहुंच गये। जिसको चढ़ते ही हम कुंभ क्षेत्र में आ जाते। जिसको सवेरे देखकर मैं अवाक रह गया था, वो कुंभ की विशालता को देखकर। दिनभर चलने के बाद थकावट तो थी लेकिन थोड़ा-बहुत खा लेने के बाद ताकत आ गई थी।

जैसे ही कुंभ क्षेत्र में प्रवेश किया। सामने इतना प्रकाश दिख रहा था जिसे देखकर मन खुश हो गया। पूरा कुंभ प्रकाश से जगमगा रहा था। वो बल्ब इस जगह से देखने पर लगा रहा था कि आसमान के पूरे तारे कुंभ को सजाने में लगे हुये हैं। तभी मेरी नजर आसमान पर गई। आसमान में सिवाय चांद के कोई नहीं था। वो दृश्य वैसा ही था जैसा रात के वक्त पहाड़ों का होता है। जब अंधेरे में वो लाइट तारों में तब्दील होती लगती है। बस यहां अंतर इतना था यहां प्रकाश अपनी चमक बिखेर रहा था।


उसी सुंदर दृश्य को देखते-देखते मैं नीचे उतरने लगा। तभी मेरी नजर दाईं तरफ गई। जहां एक किसी अधूरे पुल के छत के नीचे लगभग 500 लोग लेटे दिखाई दिये। जिसमें से कुछ लोग सो चुके थे और कुछ लोग बैठे आपस में बात कर रहे थे। मैं उनसे बात करना चाह रहा था लेकिन मन में संकोच था। मैं अपने दोस्त के साथ बात करने पहुंच गया।

वो रात गुजारती मंडली


मैंने जिनसे बात की वो बिहारी के भागलपुर के बिहार से आये थे। उन्होंने बताया हम बहुत लोग आये हैं। मैंने उनसे कहा कि सरकार ने तो लोगों के रूकने के लिये तो इस बार टेंट बनवाये हैं, आप लोग वहां क्यों नहीं रूके। वो मुस्कुराते हुये बोले,  पुसरकार ने टेंट तो कल्पवास करने वालों के लिये बनवाये हैं। जो एक-दो दिन के लिये स्नान करने के लिये आता है उनके लिये कोई व्यवस्था नहीं है। हम तो आज आये हैं कल सुबह शाही स्नान है। शाही स्नान करके हम चले जायेंगे।


अब तक मुझे जो व्यवस्था अच्छी लग रही थी। उसमें थोड़ी कमी पता चल गई थी। कुंभ में करोड़ों लोग स्नान के लिये आते हैं शायद सरकार इनके रूकने की जिम्मेदारी नहीं लेती है। फिर भी जानकार अच्छा नहीं लगा कि ये लोग बाहर इतनी ठंड में रात गुजारेंगे। आस्था और श्रद्धा ही तो है जो हर किसी को यहां खींच ले आ रही है। मैं ज्यादा बात न करते हुये वहां से निकल आया। हम थोड़ा और आगे जाने लगे।

मैं रात के पहर में संगम के तट पर जाना चाहता था। दिन के पहर में जो दृश्य मोहित कर रहा था, रात को वो कैसे लगता है। हम बातें करते हुये आगे बड़ गये। बात करने में हमें भान ही नहीं रहा कि हम संगम के रास्ते पर जा ही नहीं रहे थे। हम पीपे के पुल पर खड़े थे। जहां से रास्ता अखाड़े की ओर जाता है। हमने दोनों ही जगह पर जाने का विचार छोड़ दिया।


हम जिस जगह खड़े थे। वहां से मुझे शास्त्री पुल दिख रहा था जो जिस पर चमकने वाली पट्टी लगी हुई थी। जो बारी-बारी से अपना रंग बदल रही थी और मैं देख रहा था वो पीपे को जिस पर ये पुल खड़ा था। कितना विशाल था जो आराम से गाड़ियों के वनज तक को झेल ले रहा था। रात काफी हो चुकी थी हमें दूर जाना था। हम वापिस चलने लगे, ये सोचकर कि कल जल्दी आना शाही स्नान जो है।

ये यात्रा का पांचवां भाग है, आगे की यात्रा यहां पढें।

Tuesday, 29 January 2019

प्रयागराज 4: इस जगह पर आकर आजाद और इलाहाबाद एक हो जाते हैं

 ये यात्रा का चौथा भाग है, यात्रा का तीसरा भाग यहां पढ़ें।

प्रयागराज शहर में हम अब तक बहुत सारी गलियों में घूम चुके थे। मैं कुंभ के चक्कर में इस शहर का इतिहास दिमाग में नहीं आ रहा था। मुझे नहीं याद आ रहा था चन्द्रशेखर आजाद का वो बलिदान। जब अंग्रेजों के सामने अकेले ही भिड़ गये थे और आखिर में आखिरी बची गोली पर अपना नाम लिख दिया। मैं जब उस पार्क के पास ही था और समय भी था तो हमने तय किया कि वो जगह देखी जायेगी। जहां साहस के प्रतीक, देशभक्त चन्द्रशेखर आजाद ने अपनी कुर्बानी दी थी।


मेरे स्थानीय दोस्त के पास स्कूटी थी। मैं उनके साथ ही पार्क निकल पड़ा। कुछ ही देर बाद हम चन्द्रशेखर आजाद पार्क के गेट नं. 3 पर खड़े थे। हमने टिकट विंडो से अंदर जाने के लिये टिकट लिया जो 10 रूपये का था। हम अंदर चल दिये। अंदर घुसते ही ठीक सामने ही चन्द्रशेखर आजाद की वो मूर्ति दिखती है। जिसमें वो अपनी मूंछों पर ताव दे रहे हैं।

साहस के प्रतीक आजाद


पार्क बेहद की करीने से सजाया हुआ था। चन्द्रशेखर आजाद की मूर्ति के ठीक आगे बहुत सारे फूल लगे हुये हैं। जो उस जगह को और अच्छा बनाता है। मूर्ति के पास जाने के लिये एक चबूतरा चढ़ना पड़ता है। हर कोई उस चबूतरे पर जूते-चप्पल उतारकर जा रहा था, मानो किसी मंदिर पर जा रहे हों। मंदिर जैसा ही तो है ये सब और आजादी के लिये कुछ कर गुजरने वालों के लिये मूंछे ऐंठने वाला प्रेरणास्रोत है।

मेरे साथी ने बताया कि इस समय पार्क के कुल पांच गेट हैं। पहले सिर्फ दो गेट थे। बाद में बाकी गेटों को बनवाया है। इन गेटों के नाम चन्द्रशेखर आजाद के साथियों के नाम पर हैं। जैसे रामप्रसाद बिस्मिल, सुखदेव, राजगुरू और भगत सिंह। मूर्ति के पीछे मुझे एक बड़ा-सा पेड़ था। मैंने अपने साथी से कहा, अच्छा ये वही पेड़ है जिसके पीछे खड़े होकर चन्द्रशेखर आजाद ने कुछ सिपाहियों को मार गिराया था। दोस्त ने बताया कि ये वो पेड़ नहीं है, दरअसल अब वो पेड़ है ही नहीं।

अल्फ्रेड पार्क में चन्द्रशेखर आजाद की मूर्ति।
जिस जगह पर आज चन्द्रशेखर आजाद की मूर्ति बनी हुई है, वहीं पेड़ था। लेकिन जब पेड़ नहीं रहा तो चन्द्रशेखर आजाद की मूर्ति बना दी गई। मैं चन्द्रशेखर आजाद की इस मूर्ति और ओरछा के आजादपुर में बनी मूर्ति की तुलना करने लगा। मुझे इस मूर्ति में वो बलिष्ठता नहीं दिख रही थी जो ओरछा में दिखी थी। लेकिन फिर भी इस जगह पर आकर इतिहास के पन्ने को देख रहा था।

इतिहास के पन्ने से


27 फरवरी 1931 तारीख थी। चन्द्रशेखर आजाद अपने साथी सुखदेव के साथ आनंद भवन से मीटिंग करके इस पार्क में आकर बैठ गये। उस समय भगत सिंह जेल में थे। उनको जेल से छुड़ाने की योजना पर बात कर रहे थे। तभी किसी ने अंग्रेजों को इसकी खबर कर दी। थोड़ी ही देर में अंग्रेजों ने पार्क को घेर लिया। आजाद को जैसे ही इस बात का आभास हुआ। उन्होंने सुखदेव को निकलने को कहा और खुद पेड़ के पीछे छिपकर अंग्रेजों का सामना करने लगे।

दोनों तरफ से फायरिंग होने लगी। आजाद ने अपनी गोली से कई सिपाहियों को निशाना बना लिया था। जब उनके पास सिर्फ एक ही गोली बची थी तो उन्होंने वो साहसी काम किया। खुद को गोली मारकर देश के लिये कुर्बान कर दिया। उन्होंने कहा था कि अंग्रेज मुझे कभी जिंदा नहीं पकड़ पायेंगे। मैं आजाद हूं और आजाद रहूंगा। उसी आजादी का प्रतीक है ये पार्क। जो पहले कंपनी गार्डन और फिर अल्फ्रेड पार्क और अब चन्द्रशेखर आजाद प्रतीक है।


मैं तो कुंभ देखने आया था लेकिन अब इस शहर के महान इतिहास को जान रहा था। जो इस जगह पर आये बिना हो ही नहीं सकता था। जो इस शहर में आये तो संगम जायें तो जायें पर इस जगह पर आना न भूलें। ये हमारा अतीत है, महान अतीत। ये धरा है आजाद के बलिदान की, ये शहर इलाहाबाद है। सरकार चाहे जितने नाम बदल ले, लेकिन इस जगह पर आकर आजाद और इलाहाबाद ही निकलेगा। मैं पार्क से निकल आया लेकिन जेहन में मूंछ ऐंठते हुये चेहरा छाप छोड़ गया।

ये यात्रा का चौथा भाग है, आगे की यात्रा यहां पढ़ें।

Wednesday, 23 January 2019

प्रयागराज 3: खाने का चटकारा लेना हो तो इन जगहों पर जाना मत भूलिए

 ये यात्रा का तीसरा भाग है, दूसरा भाग यहां पढ़ें।

कुंभ में चलते-चलते हम बहुत थक चुके थे। अब राहत पाने के लिये एक ही चीज की जरूरत थी, खाने की। घूमते वक्त भूख और नींद सही होने चाहिये, तभी घूमने में मजा आता है। उसी भूख ने हमें कुंभ से बाहर कर दिया था। लेकिन हम खाने में कुछ भी उल-जलूल नहीं खाना चाहते थे। इसी अच्छे के चक्कर में हमें कई घंटे चक्कर लगाने पड़ते। लेकिन हमारे साथ इसी शहर की एक साथी। जिसने हमसे वायदा किया कि वो अच्छी जगह ले जायेगी और हम उसी वायदे के लालच में उनके साथ हो लिये।


थोड़ी ही देर में हम ई-रिक्शा पर बैठे थे और शास्त्री पुल से गुजर रहे थे। शास्त्री पुल से पूरे कुंभ को नजर भरके देखा जा सकता है। यहां से अखाड़े, टेंट, पीपे का पुल, भीड़ और गंगा। जो यहां से बहुत दूर नजर आ रही थी। ई-रिक्शे वाले ने कहा, आप लोगों को यहां रूककर कुंभ को कैमरे में उतार लेना चाहिये, फोटो अच्छी आती है यहां से। जब दिमाग और शरीर थका हो। पेट भूख से कुलबुला रहा हो तो सब अच्छे-अच्छे नजारे फीके लगते हैं। हमने ई-रिक्शा को चलते-रहने को कह दिया।

शास्त्री पुल करने के बाद ई-रिक्शा वाले ने हमें चुंगी छोड़ दिया। मेरे दोस्त के पास स्कूटी भी थी, इसलिए आगे का सफर स्कूटी से ही हुआ। अब तक हमने प्रयागराज को चुंगी, सिविल लाइंस तक ही समझा था। असली प्रयागराज में तो हम अब घुसे थे। जो मुझे कुछ-कुछ अपने ‘झांसी’ की तरह लग रहा था, जो दिल्ली जितना बड़ा नहीं था। जिसे आसानी से घूमा जा सकता है, यहां दिल्ली शहर जैसा शोर नहीं दिख रहा था।

नेतराम की कचौड़ी


हम सबसे पहले हनुमान मंदिर गये। यहां शाम के वक्त स्ट्रीट फूड लगता है लेकिन आज नहीं लगा था। तब दोस्त ने नेतराम का जिक्र किया। हम नेतराम की दुकान की ओर चल दिये। हम खुली सड़क से अचानक छोटी गलियों में आ गये, जहां भीड़ ज्यादा थी। जहां हम जा रहे थे वो शहर का ‘कटरा’ इलाका था।


सामने ही वो दुकान दिख रही थी जिसके लिये हमने अपनी भूख बचाकर रखी थी। बाहर बोर्ड पर लिखा था नेतराम मूलचन्द एंड संस, यहां पर शुद्ध घी की पूरी-कचौड़ी मिलती हैं। ये लाइन तो उत्तर प्रदेश की हर दुकान की टैगलाइन है। नेतराम की दुकान बिल्कुल मिठाई की दुकान की तरह थी। एक बड़ा-सा काउंटर और वहीं कुछ टेबल-कुर्सी डली हुईं थी। जो अच्छी-खासी भरी हुई थी जिससे समझ आ रहा था कि दुकान अच्छी चलती है।

नेतराम की कचौड़ी फेम में थी तो हमने वही मंगा लिया। कचौड़ी आने में समय था तब तक हम आपस में बात करने लगे। हमारे साथ आये दोस्त ने बताया कि ये नेतराम की दुकान 100 साल पुरानी है। ये वही दुकान है जिनके पिता ने चन्द्रशेखर आजाद की अल्फ्रेड पार्क में होने की मुखबरी की थी। मुझे सुनकर आश्चर्य लगा कि फिर भी इसकी दुकान इतनी चलती है। थोड़ी देर में हमारे सामने पूरी-कचौड़ी की थाली आ गई।


एक थाली में चार कचौड़ी मिली। उसके साथ तीन प्रकार की सब्जी, छोले, कोई मिक्स और आलू की रसीली सब्जी। साथ में मीठी चटनी और रायता। देखने में ही सब कुछ सुंदर लग रहा था। हमें लगा था कि मात्रा कम मिलेगी। लेकिन अब लग रहा था कि सही जगह पर आये हैं। सबसे अच्छी बात हमें पत्तल में पूरी-कचौड़ी दी गई थी। पत्तल में मैंने अपने गांव में शादियों में खाया था। प्रयागराज जैसे शहर में पत्तल को देखना खुशी की बात भी थी और आश्चर्य भी।

एक पत्तल में आई हुई कचौड़ी को खाने पर हमने दोबारा कचौड़ी नहीं मंगवाईं।। स्वाद बेहद अच्छा था, खासकर रायता बेहतरीन बनाया था। हालांकि अभी पेट में जगह थी जो कुछ और खाने के लिये बचाकर रखी थी। लेकिन नेतराम की कचौड़ी का स्वाद हम ले चुके थे। अब दूसरी दुकान और दूसरे पकवान की जरूरत थी।

पंडित जी की चाट


कटरा मुहल्ला से निकलकर हम चन्द्रशेखर पार्क की ओर बढ़ गये। चन्द्रशेखर पार्क के पास में बालसंघ चौराहे पर एक दुकान है, पंडित जी की चाट। शाम के वक्त हम उस दुकान पर गये। दुकान पर भीड़ बहुत थी। दुकान वैसी ही थी जैसी टिक्की और चाट की आमतौर पर होती है। दुकान के नाम पर बस भट्टी थी और बाकी काम तख्त कर रहा था। कड़ाही चढ़ी हुई थी लोग आ रहे थे और पंडित जी की चाट ले रहे थे। ये दुकान भी काफी पुरानी है, 1945 में ये दुकान खोली गई थी।


दुकान पर भीड़ इतनी होती थी कि टोकन सिस्टम लागू था, रेट की एक लिस्ट भी वहीं लगी हुई थी। मैं वहां गया और चाट का टोकन लिया। टोकन दुकानदार को देकर, चाट को बनने का तरीका देखने लगा। कुछ लोग दही बड़ा खा रहे थे और कुछ चाट। चाट में बहुत कुछ मसाले, नमकीन, चटनी और दही मिलाकर बनाया गया। चाट इतनी अच्छी थी कि थोड़ी ही देर में मैंने उसको खत्म कर दिया।


उसके बाद हमने गोलगप्पे पिये। गोलगप्पे का पानी बेहद शानदार था, जिसके कारण गोलगप्पे अच्छे लगते हैं। हर जगह अंत में एक सूखी टिक्की देते हैं, यहां अंतिम टिक्की के पहले इस सूखी टिक्की को देते हैं। प्रयागराज में पंडितजी की चाट और नेतराम की कचैड़ी ने हमें भुला दिया था कि अभी कुछ घंटे पहले थकान का रोना रो रहे थे। अगर आप प्रयागराज आयें तो सिर्फ संगम नहीं, इन दुकानों का चटकारा भी लें।

 ये यात्रा का तीसरा भाग है,आगे की यात्रा यहां पढ़ें।