Wednesday, 16 January 2019

प्रयागराज 1ः मैंने कुंभ को अपना एक सफर बना लिया, बस चलते रहने के लिए

मैं ऐसी जगह जाना पसंद करता हूं जहां सुकून हो, शांति हो और सबसे बड़ी बात भीड़ न हो। लेकिन जबसे कुंभ के बारे में पता चला था तो दिमाग में बस जाने का सुरूर चढ़ा हुआ था। बस तय नहीं कर पा रहा था कि कब जाऊं? एक दिन अचानक प्लान बना और कुंभ जाना पक्का हो गया। कुंभ इस बार प्रयागराज में हो रहा था। मुझे उस जगह को अच्छी तरह से देखना था।


13 जनवरी 2019 की रात को मैं दिल्ली से प्रयागराज के लिए निकल पड़ा। रात का सफर मुझे भाता नहीं है क्योंकि अंधेरा सब अपने में समेट लेता और मैं देख पाता हूं तो अंधेरा और सुनसान सड़क। 12 बजे बस किसी ढाबे पर रूकी। मेरा कुछ लेने का मन नहीं था क्योंकि इधर से कुछ लेना मतलब जेब ढीली करना। तभी मेरी नजर कुल्हड़ वाली चाय पर पड़ी। मुझे चाय पसंद नहीं है लेकिन कुल्हड़ वाली चाय को मना भी नहीं कर पाता।

कुल्हड़ वाली चाय मंहगी होनी थी। मैं ये देखकर दंग था कि कुल्हड़ वाली चाय सस्ती और सादा चाय महंगी थी। मैंने चाय की पहली सीप ली कि मन गद-गद हो गया। मैंने कभी भी इतनी अच्छी चाय नहीं पी थी। लग रहा था कि मलाईदार चाय पी रहा हूं। उसी चाय के बारे में सोचते-सोचते आंख लग गई। आंख खुली तो सब कुछ साफ नजर आ रहा था। दुकानें हमारे प्रयागराज में होने का इशारा कर रहीं थीं। थोड़ी देर में हम सड़क किनारे खड़े थे।

रास्ते में चाय का मजा।
हम सोच रहे थे कि अब सीधे कुंभ मेले ही जाना है। लेकिन अभी तो हम प्रयागराज शहर ही नहीं पहुंचे थे। हम अण्डवा बाई-पास पर खड़े थे। कई आॅटो वाले से मोल-भाव करने के बाद एक आॅटो जाने को तैयार हो गया। लगभग 1 घंटे की यात्रा के बाद हम शहर में ब्रिज के नीचे खडे़ थे। ब्रिज के खंभों पर ऋषियों-देवताओं के चित्रों उकेरे हुए थे। सच में ये चित्रकारी सुंदर लग रही थी। वहां से मैं अपने दोस्त के कमरे पर पहुंचा जो सिविल लाइंस में था।

शहर को देखकर लग नहीं रहा था कि ये वो शहर है जिसे मैंने 2015 में देखा था। शहर का तो पूरा कायापलट हो गया था। सड़के चैड़ी हो गईं थीं, कोई अतिक्रमण नहीं दिख रहा था। शहर में जगह-जगह शिवलिंग बने हुए हैं। सरकारी स्कूलों पर भी चित्रकारी की गई है। शहर किसी दुल्हन की भांति सजा हुआ प्रतीत हो रहा था। आॅटो में बैठे एक सज्जन कह रहे थे, कि ये सिर्फ राजनीति है। योगी आदित्यनाथ ने प्रयागराज कर दिया है। अखिलेश यादव की सरकार आयेगी तो फिर इलाहाबाद हो जायेगा। ऑटो-चालक को इलाहाबाद से गुरेज था। अब किसी की भी सरकार आ जाये, अब प्रयागराज ही रहेगा।

शहर में कलाकारी।

कुंभ चलें


सामान रखकर हम फिर से उसी ब्रिज के नीचे खड़े थे, जहां हम पहले थे। यहीं से अब 3 किलोमीटर चलना था तब संगम तक पहुंच सकता था। रास्ता लंबा जरूर था लेकिन थकाने वाला नहीं। मैं अकेला तो पैदल चल नहीं रहा था। मेरे साथ थे हजारों-लाखों लोग।

जगह नई हो तो पैदल चलने में भी कोई गुरेज नहीं होता। शुरूआत में ही पुलिस का कैंप दिखाई दिया। उसके साथ ही अग्नि-शमन का भी टेंट लगा हुआ था। माइक से लगातार आवाज आ रही थी, किसी का बच्चा खो गया है, तो किसी का सामान। लोगों के तो मिलने की तो सूचना आ रही थी लेकिन सामान खोने के बाद फिर मिले, ऐसी कोई सूचना अब तक नहीं सुनाई दी थी।

रास्ते में कई प्रकार की दुकानें लगीं थीं। यहां वो सब था जो एक आम मेले में मिलता है। दो-तीन जगह करतब भी हो रहे थे, वो रस्सी वाला। जिस पर एक बच्ची चलती है। कहीं बच्ची डंडा लेकर चल रही थी तो कहीं सिर पर कुछ सामान रखकर। बच्ची की हिम्मत और कला की तारीफ की जानी चाहिए। लेकिन एक छोटी-सी बच्ची से काम कराना सही है। ये अपराध है जो ऐसी जगह पर हो रहा था जिसका आयोजन सरकार ने किया था। चारो तरफ प्रशासन था लेकिन शायद इस तरफ उनकी आंखें बंद थीं।

कुंभ के रंग में रंग रहा है प्रयागराज।
कुछ आगे चले तो एक चढ़ाई चढ़नी थी। वहीं पर फिर एक कलाकारी दिखी। एक छोटी लड़की दुर्गा का रूप रखकर पैसा मांग रही थी। पैसा मांग नहीं रही थी छीन रही थी। वो छोटी-सी लड़की किसी का भी रास्ता रोककर खड़ी हो जाती और पैसा मांगती। जो नहीं देते, उनको पकड़ लेती। कुछ लोग दे देते और कुछ जोर लगाकर बच निकलते। उस लड़की के साथ एक औरत भी थी। जो अपने चेहरे पर काला रंग लगाकर काली मां बनी हुई थी। जब मैं पास गया तो साफ हुआ कि वो महिला नहीं कोई पुरूष है। ये पैसा भी न, क्या-क्या करवा देता है?

मुझे पहली बार कुंभ में आने का मौका मिला था। जब मैं हरिद्वार रहता था तब भी कुंभ हुआ था लेकिन भीड़ के डर से मैं बाहर ही नहीं निकला था। अब समय बदल चुका है और मैं भी। जिस कुंभ के लिये सात-समुंदर पार से लोग आ रहे हैं तो मैं क्यों नहीं। मैं भी उस कुंभ की भीड़ का एक हिस्सा बन गया था। मैं उनके पीछे-पीछे कदम बढ़ रहा था। ये मानकर कि ये कुंभ नहीं मेरी एक और यात्रा है।

कुंभ यात्रा का ये पहला भाग है, आगे की यात्रा यहां पढ़ें।

Sunday, 30 December 2018

दिल्ली का ऐतहासिक महल गुमनामी में विलुप्त होने की कगार पर है

हमारा इतिहास इतना विशाल है कि जहां देखो उसकी इमारतें हमें दिख ही जाती हैं। कुछ इतिहास को हमारी व्यवस्था बचा पा रही है और कुछ समय के साथ जर्जर होते जा रहे हैं। हमारी सरकार भी उन्हीं ऐतहासिक इमारतों पर ध्यान देती है जहां पर्यटक अधिक आते हैं। देश की राजधानी तो ऐसी ऐतहासिक इमारतों से भरी पड़ी है। उसी भीड़ में कुछ गुमनाम हो रही हैं। ऐसी ही एक गुमनामी की विरासत है, जहाज महल।


30 दिसंबर। दिन रविवार। दिल्ली में अपने कमरे पर खाली बैठा हुआ था। अचानक दिमाग में खाली बैठने से अच्छा है कुछ नया देख लिया जाए। इंटरनेट पर खोजबीन की और जगह चुनी जहाज महल। इस महल के बारे में इंटरनेट पर कम लिखा हुआ है। सभी ने इस महल के बारे में बस नाम भर की खाना-पूर्ति की है। अपने कुछ घुमक्कड़ दोस्तों से इस जगह के बारे में चर्चा की। उन्हें भी इस जगह के बारे में नहीं पता था। मैं समझ गया कि इन्हें नहीं पता तो बहुत कम ही होंगे जिन्हें इस जगह के बारे में पता है।

कैसे पहुंचें


थोड़ी ही देर में मैं छतरपुर  स्टेशन के बाहर गया। अब यहां से मुझे महरौली जाना था। जो स्टेशन से करीब आधा किलोमीटर की दूरी पर है। लगभग पांच मिनट पैदल चलने के बाद मैं महरौली के मुहाने पर पहुंच गया। सामने बड़ा-सा बोर्ड लगा था ‘ऐतहासिक शहर महरौली में आपका स्वागत है’। आगे का जो दृश्य था जिसे तनिक भी नहीं लग रहा था कि मैं इतिहास के गर्त में हूं। भीड़ वाली गली, आस-पास लगा हुआ बाजार सब आधुनिकता की ही झलक थी।

जहाज़ महल का दरवाजा।
दिल्ली की हर भीड़ वाली गली की तरह यहां भी वही माहौल था। कुछ दूर चलने पर एक पुरानी इमारत दिखाई दी। वो जामा मस्जिद सोन बुर्ज थी। जिसे देखकर पहली बार लगा कुछ तो बाकी है इतिहास का। कुछ आगे चला तो एक बड़ी-सी इतिहासिक इमारत दिखाई दी। जिसका लाल बलुआ पत्थर का बड़ा-सा दरवाजा है। वो इमारत एक तरफ से खुली हुई थी, बस यही तो है जहाज महल।

व्यवस्था की अनदेखी


मैं उस जहाज महल के बड़े-से गेट से अंदर हो लिया। जैसे घर में घुसते ही एक आंगन होता है। इस महल का भी एक छोटा-सा आंगन है। आंगन से अंदर जाते हैं सब आसमान की तरह साफ दिखने लगता है। जहाज महल के दो तल हैं। पहले तल पर बहुत सारे कमरे हैं और दूसरे तल पर कुछ गुंबद बने हैं। महल की दीवारें पूरी तरह से लाल बलुआ पत्थर की नहीं है। कुछ जरूरी जगह पर ही लाल बलुआ पत्थर का उपयोग किया गया है।

जहाज़ महल का दूसरा तल। 
नीचे कमरों की खिड़की भी दरवाजे जितनी ही लंबी है। महल की हालत कुछ सही नहीं दिखती है। ऐसा नहीं है कि महल खंडर बन चुका है या जर्जर बन चुका है। हालत इस लिहाज से सही नहीं है कि पूरे तल पर मकड़जालों का कब्जा है। छत की तरफ देखने पर नक्काशी बाद में पहले जाला दिखाई पड़ता है। दीवारों पर कुछ प्रेम की बातें लिखीं हुई हैं। महल में कोई भी पर्यटक नहीं है जबकि ये महल सिर्फ रविवार के दिन ही खुलता है। किले में कुछ लड़के हैं जो टिकटोक वाली वीडियो में बनाने में व्यस्त है। महल के बगल में एक पार्क है। वहां पर लोगों का जमावड़ा है जबकि ये ऐतहासिक इमारत सुनसान पड़ी हुई है।

जहाज महल क्यों


15वीं शताब्दी में लोदी वंश ने इस जगह पर एक धर्मशाला बनाई थी। जहां वे रास्ता तय करने के बाद आराम करते और अपना समय बिताते। इस धर्मशाला को जहाज़ महल इसलिए कहते हैं क्योकि बरसात में इसके चारों तरफ बने कुंड में पानी भर जाता है। उस कुंड में इस महल का जो प्रतिबंब बनता है वो जहाज जैसा दिखाई पड़ता है।

जहाज़ महल अंदर से।
नीचे की जर्जर तस्वीर देखने के बाद मैं दूसरी मंजिल के गुंबद को देखने जाने लगा। जहां सीढ़ियां थीं वहीं एक गाॅर्ड बैठा हुआ था। गाॅर्ड ने मुझे  ऊपर जाने से मना कर दिया। ऊपरी तल ही तो सुंदर लग रहा था और वहीं जाने की मनाही है। गाॅर्ड ने बताया मैं सिर्फ इसलिए यहां हूं कि कोई ऊपर ना जाने पाये। अब बाकी इस छोटी-सी धर्मशाला को मैं देख चुका था।

ये जहाज महल में कोई नहीं आता क्योंकि लोगों को इस जगह के बारे में नहीं पता है। दिल्ली में गुमनामी में  ये महल सुनसान पड़ा हुआ है। ऐसी जगहों पर हमको जाना चाहिए। ये हमारा इतिहास है, हमारी विरासत है। जब मैं लौट रहा था तो महल के ऊपर कुछ पक्षी मंडरा रहे थे। वे वैसे ही प्रतीत हो रहे थे जैसे मृत देह के उपर गिद्ध मंडराते हैं।


Saturday, 22 December 2018

बंगाल 3: लोकल ट्रेन में सफर जिंदगी की भागदौड़ की कहानी बयां करती है

सफर जो कई पहलुओं से, कई लोगों से, कई भाषाओं से मिलवाता है। मैं इस समय बंगाल के लोकल में था। यहां की रहन-सहन, भाषा और लोगों को समझने की कोशिश कर रहा था। बंगाल बड़ा ही खूबसूरत राज्य है। हरी-भरी जमीन और हंसते-मुस्कुराते लोग। ऐसे ही तो सफर और जिंदगी चलती-रहती है। एक दिन आराम करने के बाद अगला पड़ाव होने वाला था कोलकाता। कोलकाता तक जाने के लिए लोकल ट्रेन से जाना था।


बर्धमान तक का लंबा सफर ट्रेन का ही था। लेकिन लोकल ट्रेन के इतने किस्से सुन रखे थे कि मुझे भी वही किस्सोगई बनना था। मैंने लोकल ट्रेन को अब तक फिल्मों में ही देखा था। एकाध-बार किसी स्टेशन पर भी खड़े देखा था। वो मेटो जैसे लटकते हैंडल मुझे बहुत भाते थे। उसी लोकल का हिस्सा मैं भी होने वाला था। कृष्णानगर से अपना बैग और टिकट लेकर प्लेटफाॅर्म की ओर बढ़ गया।\

भीड़ वाली लोकल ट्रेन


मुझे सामने ही हरी-पीली लोकल ट्रेन दिखी। इस लोकल ट्रेन का गेट आम ट्रेनों की तुलना में काफी बड़ा था। शुरू के डिब्बे महिलाओं के लिए आरक्षित थे। उन डिब्बों के आगे वाले डिब्बों में चढ़कर अपने लिए सीट देखता। सीट न मिलने पर आगे वाले डिब्बों की ओर बढ़ जाता। कुछ डिब्बों के बाद मुझे सीट मिली तो आधी। लोकल ट्रेन में सीटें आमने-सामने होती हैं। जिस पर बैठ तो तीन लोग ही सकते हैं लेकिन बैठते चार लोग हैं और वो चौथा मैं था।

लोकल ट्रेन की भीड़ सफर के अंत तक बनी रहती है

ट्रेन कुछ देर में चलने वाली थी और भीड़ भी अपनी जगह बना रही थी। कुछ लोग तो जल्दी आने के चक्कर में दूसरे गेट से चढ़ रहे थे। जो जोखिम भरा था लेकिन लोकल में तो ये आम बात है। ये ट्रेन सियालदाह तक जा रही थी। कुछ देर में ट्रेन भीड़ से खचाखच भर चुकी थी। सीट के बीच में जगह थी सो मैंने अपना बैग वहीं रख दिया। कुछ देर में ट्रेन चल पड़ी।

यात्रा में बहस


दो-दो मिनट में ट्रेन रूक रही थी। अब शायद ही कोई कोना बचा हो जो भीड़ से खाली हो। अब लोग सीटों के बीच में खड़े होने लगे थे। थोड़ी देर में सभी सीटों का दृश्य ऐसा ही था। मेरी सीट बची थी क्योंकि मेरा बैग अड़ंगा बना हुआ था। थोड़ी देर में तीन नए लड़के आये और बैग हटाने को कहा। मैंने भी तेज आवाज में कह दिया बैग तो यहीं रहेगा। वो बोलने लगे कि ये जगह खड़े होने के लिए है। मैं फिर भी अड़ा रहा और कहा, आपको जाना है तो इस बैग को पार करके चले जाइए।


थोड़ी देर बाद बैग अंदर पहुंच गया और कुछ लोग मेरी सीट के बीच में भी खड़े हो गये। लोकल ट्रेन में इतनी भीड़ होती है कि आपको अपने स्टेशन पर उतरने के लिए सीट से कुछ स्टेशन पहले उठ जाना होता है। तभी आप अपने स्टेशन पर उतर पाएंगे। छोटी-मोटी धक्का-मुक्की और लड़ाई-झगड़ा तो यहां आम बात है। जो अपनी सीट छोड़ते उनकी जगह सामने खड़ा व्यक्ति ले लेता है। लोगों की गप्पे चल ही रही थीं मैं उनकी बातें समझने की कोशिश कर रहा था। लेकिन बांग्ला भाषा इतनी आसान नहीं थी जो मैं समझ सकूं।

मैं सबसे ज्यादा परेशान हो रहा था झाल-मूड़ी वाले से और दाने बेचने वाले से। यहीं मैंने पहली बार झाल-मूड़ी खाई थी। मुझे पहली बार में झाल मूड़ी अच्छी नहीं लगी थी। बाद में मुझे ये बेहद अच्छी लगने लगी। इनकी अपनी कला होती है भीड़ से निकलने की। दाने वाला तो अपना हैंडल लेकर चलता है और आराम से सामान बेचता है। इसके दानों में मटर से लेकर नमकीन, मूंगफली सब मिलता है।

आखिरी पड़ाव- सियालदाह


कुछ स्टेशनों के बाद लग रहा था ट्रेन गलियों में घूम रही है और घरों के सामने रूक रही है। स्टेशन के नाम पर माइक, बोर्ड और कुछ कुर्सियां ही थीं। बाकी तो गली-मोहल्ला साथ दे रहा था। कृष्णानगर से सियालदाह तक का सफर ढाई घंटे का था। अगर सफर लंबा होता तो मैं परेशान हो जाता। जिन नौजवानों से मेरा झगड़ा हुआ था वे थे तो बंगाल के ही। उनकी बातें हिंदी में ही चल रहीं थीं। अपने आॅफिस से शुरू होकर वे नरेन्द्र मोदी और ममता बनर्जी पर आ गये।

असली संघर्ष तो यहीं होता है।

उसके बाद वे माॅल की, खाने की और अपने घूमने की बातें करने लगे। इनकी बातें सुनकर लग रहा था कि कोलकाता पास ही है। थोड़ी देर में दमदम आ गया और उसके बाद सियालदाह। इस लोकल ट्रेन का आखिरी स्टेशन। थोड़ी ही देर में ट्रेन ऐसे खाली हो गई जैसे यहां कोई था ही नहीं। ऐसा लग रहा था मानो सबका कहीं न कहीं जाने की जल्दी थी, सिवाय मेरे। मैंने अपना बड़ा-सा बैग उठाया और आगे के सफर के लिए निकल पड़ा।